'कुल्हि सोरह अध्याय में बँटाइल डॉ. रंजन विकास के आत्म-संस्मरण 'फेर ना भेंटाई ऊ पचरुखिया' के लेखक आखिर में परिशिष्ट के तहत अपना बाबूजी के रचना-संसार पर रोशनी डलले बाड़न, जेकरा से उन्हुका साहित्यिक संस्कार विरासत में सहजे भेंटाइल रहे। मानव चुँकि स्मृतिजीवी आ अतीतजीवी सुभावे से होला, एह से मौजूदा दौर से तालमेल बइठ ना पाये आ भावी जिनिगी से अनजान रहे के कारन ऊ बेरि-बेरि अतीत का ओरी झाँकेला कबो मर्माहत त कबो अभिभूत होके ओहू प विकास जी के गहिर अध्ययन त मनोविज्ञान के रहल वा तवे नू मनई के मन के जाँचे-परखे आ ओकर जियातार चित्र उकेरे में उन्हुकर सानी नइखे। इहो तथ सोरहो आना साँच था कि मनई लरिकाई, किशोर आ नवही जिनिगी में जवन किछु देखे भोगे-जिएला, ओकर इयाद ताउमिर बरकरार रहेला, जबकि बाद के बहुत किछु बनल-बिगड़ल अपने आप सुरता से विसरत चलि जाला। आपन लरिकाई आ किशोरावस्था के तसवीर उरेहे में लेखक के काफी हद ले कामयाबी मिलल था। इहवाँ ऊ बाल मनोविज्ञान के कुशल पारखी बुझात वाइन ।' - भगवती प्रसाद द्विवेदी Read more