'जट जटिन' आ 'डोमकछ' मा 'डोमकच' मुख्य रूप से नारी कौतुक हिय जे बेटा के गइल बरियात के रात मरद ना रहला पर सुनसान पड़ल घर में गाँव के औरतन द्वारा रात भर धमा चौकड़ी, मनोरंजन आ आपन आजादी के एहसास का रूप में पहिले देखे के मिलत रहे। एह से रात भर गाँव में रतजग्गा त होइये जात रहे, मरद विहीन घर में चोर-चुहार से रक्षा खातिर लोकनाटक का बहाने एगो उपायो रहे । अइसन नाटक में औरत-मरद के जिनगी के मार्मिक पछ सुभावतः खुल के उभरत रहे जवन अनदिना में लोक-लाज से दबल रह जाले ।
डोमकछ बिहार के मैथिली आ भोजपुरी दूनों क्षेत्र में खेलल जात रहे । कहीं-कहीं जट-जटिन आ डोमकछ एके नाटक के दू गो रूप रहे, कहीं अलग-अलग दूगो स्वतंत्र लोकनाट्य रूप उत्तर प्रदेश में 'जट जटिन' पानी ना भइला पर कइल गइल टोटका भा गीत भरल स्वांग का रूप में डोमकछ से बेलकुले अलग औरतन के नाटक मानल जाले ।
लोकनाटक के नामकरण अक्सरहाँ नाटक के प्रमुख पात्र भा नायक-नायिका के नामो पर होला । जइसे 'सुरमा सहलेस', 'ढोला-मारू', 'श्यामा-चकेवा', 'जट जटिन' आदि । बाकी 'डोमकछ' डोमघाउच (डोमन के कचकच ) के अर्थ के नाटक ह
प्रो. कृष्णकांत मिश्र, महाराज शिव सिंह (१४१२ ७१६ ई.) के समय 'जयट' या 'जट' नाम के एगो बहुत बड़ संगीतज्ञ से 'जट जटिन' के उत्पत्ति मनले बाड़न, जबकि ताराशंकर मिश्र एके कथित छोट जात के महिला-पुरुष के प्रेम आ बियाह प्रसंग के 'जट जटिन' आ 'डोमकछ' के आधार मानताड़न रंगकर्मी डॉ. अनिल पतंग अपना किताब 'डोमकछ' (प्रकाशित तज्ञा स्मृति प्रकाशन, बापू धाम,नन्दग्राम, गाजियाबाद, उ.प्र. जून २००८) में डोमकछ के उत्पत्ति वीं शताब्दी बतवले बाड़न ।
भोजपुरी प्रदेश में खेलल जायेवाला 'डोमकछ' में औरतन के मौखिक आजादी जादे देखल जाला। तबहूँ नायक के कामचोर भइल, नायिका का और से फरमाइश पर फरमाइश, गहना ना गढ़वला खातिर ओरहन, दूनों में हास-परिहास, नायिका के गर्भवती भइल, नायक के परदेश गइल, नायिका पर गैर मरद के डोरा डाल, बीच में होरिला भइल, नायिका के आर्थिक अभाव में पड़ल, अकेलापन आ पति वियोग सहल आदि नारियन के भौतिक आ मनोवैज्ञानिक पहलुअन के बात देखे में आवेला ।
कबो शादी के रात अनिवार्य रूप से ई नाटक औरतन द्वारा खेलल जात रहे जवना में मरद के देखला के मनाही रहे, आज मनोरंजन के अनेक इलेक्ट्रॉनिक साधन गुने, औरतन के पढ़ल लिखल आ शहरी होत गइला से शादी के पारंपरिक ढंग में बदलाव आ सुरक्षा के बदलत परिस्थितियों से 'डोमकछ' नुमाइश के चीज होके रह गइल बा ।
तबो चूँकि ई नाटक समाज के सबसे निचला सीढ़ी पर खड़ा एगो जाति विशेष के नाम पर बा आ कुलीनो घर में जब ई खेलल जात रहे त डोमिन के रहल जरूरी समझल जात रहे, एकर आर्थिक, सामाजिक आ सांस्कृतिक परत के अध्ययन का दृष्टि से आजो महत्व वा काहेंकि एह से कई गो मूदल पन्ना खुल सकेला । अखियान करे के बात बा कि मनुवादी लोग हर विधि-विधान में हर जाति के सहयोग के बात कह के वर्ण व्यवस्था के न्याय संगत आ समाज में समरसता के ततर्क देके एकरा दुर्गुण के बात तोपे के कोसिस करेला बाकिर सच्चाई एकरा से भिन्न भी बा, जवन एह नाटको से उजागर होला ।
हर लोकनाटकन का तरह 'डोमकछ' के संवादो अधिकतर गीतन में चलेला ई गीत कभी त अलग-अलग पुरुष नारी का ओर से चलेला, कबो युगल गीत का रूप में त कबो दूंगो समूह (कोरस) का ओर से संवाद का रूप में 1 1
नाटक के कहानी कुछ गीतन से आगे बढ़ेली, कुछ मौखिक बातचीत से । बीच-बीच में हास्य-प्रसंग आ समसामयिक बात जरूरत पड़ला पर डाल देहल जाला । 'डोमकछ' के पात्र होलन- डोम, डोमिन, बेटा, गाँव के देवर, राजा-रानी, राजा के बहिन मतारी मेहर, हजाम, दादी, दरवान, चूड़ीदार, सिपाही, कवनो बुढ़िया औरत आदि। इन्हन के कुछ नामो हो सकेला । जइसे डोम के हरबिसना, डोमिन के अनारकली, बेटा के जलुआ, देवर के विपटा आदि ।
एह नाटक सह आलेख में जवन सिरखार तइयार कइल गइल बा, ओह में कुछ अपनो ओर से गढ़ल गइल बा, काहेंकि औरतन द्वारा खेलल डोमकछ में कवनो तारतम्यता ना मिले, जेह से एगो नाटक के रूप में खड़ा हो सको । कहानी
मुकम्मल बुझाव । बात चाहे जे होय, इहाँ नाटक एगो समूह गान से शुरू होता- 'अनार कलिया डोमिनी महफिल- महफिल गइले । .... टिकुली सटले, सेनुर भरले, अनार कलिया डोमिनी तोर डोम कहाँ गइले ? बज्जर पड़ो मोर एह देहिया पर अनका से लोभइले 1... अनार कलिया डोमिनी तोर डोम कहाँ गइले ? डोम हमार हउ हरबिसना हँसवावे राजा गइले ।... अनार कलिया डोमिनी तोर डोम कहाँ गइले ?" एह गीत में ना खाली मुख्य पात्रन से परिचित करावल गइल बा, बलुक ओकरा सुभाव, गुण आ परिस्थिति से भी जानकारी के प्रयास बा । डोमिन मनोरम रूप पवले बिया एकरा पीछे आयातित नस्लो कारण हो
तोर डोम कहाँ गइले ? डोम हमर हउ गुनी - गवैया,
सब सिंगारो कइले
सकेला । विडंबना ईहो वा कि जवना जाति में ई सुन्नरता बा, ओकरा पर्दा में रहे
के नइखे । ऊ समाज खातिर उपयोगी सामान बनावे आ बाजार में पहुँचावे ला
अभिशप्त बा। सामंती प्रथा में सौन्दर्य के गरीब घरे रहला के अधिकार कहाँ रहे ?
राजा डोम से मिलि के पूछताड़न-
'राजा कहवाँ तें गइले डोमवा, कहवाँ से अइले / कहवाँ से लइले डोमवा, सुन्नर डोमिनिया ?
डोम मेलवा में गइली मालिक, मेलवा से अइलीं / मेलवे से लइली मालिक,
सुन्नर डोमिनिया ।
राजा लावे के त लइले डोमवा, नीके काम कइले / कहवाँ तें रखने डोमवा,
सुन्नर डोमिनिया ?
डोम लावे के त लइली मालिक, निमन काम कइली / मड़ई में राखेब
मालिक, सुन्नर डोमिनिया ।
राजा मड़ई में रखले डोमवा नीके काम कइले / बाकि का रे खिअइबे डोमवा सुन्नर डोमिनिया ?
डोम - पूड़िया खिअइबो मालिक, बुनिया खिअइबो / दहिया खिअइबो मालिक जूठन डोमिनिया ।"
एही तरेह गीत पहनावा ओढ़ावा होत गहना गुड़िया तक जाता आ आखिर में डोम के अलचारी झाँके लागता जब गहना का नाम पर गीलट के हँसुली के चर्चा आ जाता आ आमदनी के स्रोत मेहनत-मजूरी रह जाता। ई त नाटक बा ना त असल जीवन में राजा, साधारण लेखा डोम से पूछें पाछे काहे जइतन ? सीधे डोमिन के उठवा मंगवा ना लेतन ?
एने नान्ह जात कहायेवाला के कमजोरी घीसू-माधव नियर काहिल भइल. आ पीए- खाये के आदत रहल बा। हीन भावना त सुभाविक रूप से ओकरा में आइए जाई । आखिर सड़क पर नशा में धुत हरबिसना एक दिन राजा के सिपाही हाथे पकड़ लिहल जाता । छोड़ावे ओकर मेहर आवतिया-
'बाबू दरोगा जी ! कवने गुनहिया पियवा बन्हले मोर ?
ना मोर पियवा डाकू उचक्का, ना मोर पियवा चोर
आदत से पियवा दारू के मातल, काहे मचावत शोर ? भइया दरोगा जी !...
राजा के सिपाहियो जानता कि रुपया पइसा त एकरा से मिले से रहल । एह से कुछ आँख से, कुछ चुहलबाजी क के ऊ भावना का स्तर पर यौन शोषण क के बदला में डोम के छोड़ देता। अभाव ग्रस्त परिवार में पति-पत्नी में कहा-सुनी बढ़ जाता आ एक दिन डोम घर छोड़ के परदेस परा जाता नायिका वियोग में रोअत फिरताड़ी अकेले रहल अलग समस्या बा। पूर्वी धुन में विरह गीत शुरू हो जाता- 1
गवना कराई डोमरा घरे बइठवलन हो
• अपने चलल परदेश रे बिरहिया !
एक मास बीतले, दोसर मास बीतले हो बीत गइले तीसर बरिस रे बिरहिया ! नून-तेल, दाल चाउर, सेनुर सपनवा हो कते दिन रहबो अकेल रे बिरहिया ! घर- पिछुअरवा में कैथा भइया हितवा हो हुनके से चिठिया लिखाइब रे बिरहिया ! अँचरा के फारि हम कागज बनइबो हो अंगुरी के चिरि के सियाही रे बिरहिया ! गाँव के पछिमवा में हजमा भइया हितवा हो ईहो चिठी उहाँ पहुँचाव हो बिरहिया ! जेहीं ठइयाँ देखिह हजमा दस-बीस लोगवा हो ओही ठइयाँ चिठिया छिपइह हो बिरहिया ! जेहीं ठइयाँ देखिह हजमा डोम अकसरुआ हो ओही ठइयाँ चिठिया पसरिह हो बिरहिया ! पहुँची के बेची-खुची खरचा जुटाइला हो हाली सेना जाहू आ तलासु हो बिरहिया !
हजाम-
नाहीं तुहूँ करs डोमिन तनिको फिकिरिया हो हाली सेना करबो तलास हो बिरहिया !
डोमिन-
एगो बात आउर हजमा, जलुआ पूछतत बाटे कहाँ गइले मोर जनमदाता हो बिरहिया ?
एह कारुणिक गीतत से पुराना जमाना के गाँव में परस्पर लगाव आ आपसी सहयोग के पता चलता। ईहो कि साधारण जन-समाज में काका, भइया, बहिनी, भउजी आदि के नाता चलत रहे। एगो नया पात्र जलुआ (बेटा) के होय के सूचनो एह गीत का माध्यम से नायिका अपना परदेसी पति के भेजवावताड़ी ताकि नायक उनका ला ना त अपना बेटा के दाहे त आवे ला तइयार हो जास
ईहो सुभाविक वा कि पति के बाद पत्नी के ध्यान अपना बेटे पर केन्द्रित होय लागेला आ ऊ ओकर धूम-धाम से बिआह के के बहू ले आवे के सपना देखे लागेली, ताकि उनकर अधूरा अरमान अपना बहू-बेटा का मार्फत पूरा होत देखाव ।
राजा- कथी के घड़लिया, कथी के गेडुरिया रे की
राजा-
'डोमकछ' में बेटा का बहाने नायिका के गर्भवती भइला के स्वांग, लइका होय के दरद, डॉक्टर वैद्य बने के अवसर आ एह सब का क्रम में जगह-जगह संस्कार - गीत, सोहर झूमर आदि गावे के आ अभिनय के मोका सहजे भेंट जाला । बाकिर बिना खलनायक के खेल पूरा कहाँ होला ? त एक दिन डोमिन पानी भरे जा ताड़ी आ दोसरा ओर से राजा पानी पिये आ जा ताड़न दूनों में
संवाद- गीत चलता....
कवना डोरी भरले सुन्नरी, निरमल पनिया रे की । डोमिन सोना के घइलिया हो राजा, रूपा के गेडुरिया रे की रेशम के डोरिया हो राजा, भरीले निरमल पनिया रे की ।
धूपवा में सूखल सुन्नरी, कंठ मोर पियासल रे की
एक चिरुआ पनिया द सुन्नरी जान मोर बचावहू रे की । डोमिन तोहरा के कइसे राजा पनिया हम पियाएब रे की हम बानी आहो राजा जात के डोमिनिया रे की।
हम नाहीं मानेली डोमिनी जात-पाँत भेदवा रे की
हमरा के साले सुन्नरी, तोहरी सुरतिया रे की ।'
लोक साहित्य में बहुत बात पारंपरिक होले। जइसे लिखेवाला कायथ, चिट्ठी पहुँचावेवाला हजाम, अंचरा के कागज, खून के सियाही । अइसहीं सोना के थरिया, गंगाजल पानी, पाकल पान के बीड़ा, फूल के सेज, रेशम के डोरी, चाँदी के गेंडुरी (बिट्ठा) आदि ।
राजा इहाँ साधारण मनई अइसन घूमल फिरेलन । प्रेम करेलन । चालाकी भरल दर्शन बघारेलन । जइसे जात-पाँत त दुनिया के बनावल हउए, भगवान त सबके एके हउवन मा सब के खून के रंग लाले होला आदि ।
दूर खड़ा विपटा ( गाँव के देवर ) लोग खातिर बेबाक टिप्पणियो करेला । जइसे 'कइलक रजवा चालाकी । अब बूड़िहन भउजी !' आ साँचहूँ बेटा के शादी धूम-धाम से करोव के वादा क के राजा अपना जाल में डोमिन के फाँस लेता ।
ई दोसरो गीत आ परिस्थिति से भी संभव होला-
'घर के पछिम एगो पक्की रे सड़किया
ऊहे डोमिनी छानेली दोकनिया,, घोड़वा चढ़ल आवे, राजाजी बरैता बइठी गइले हो राजा डोमिनी दोकनिया ।
एह युगल गीत में प्रेम तनी दोसरा ढंग से परवान चढ़ता- 'डोमिन- अगल बइठऽ बगल बइठऽ, राजी जी बरेता मोरा लेखे गे डोमिनी अतरि-गुलबिया । डोमिन- जलुआ अब भइले हो राजा छोटका टहलुआ कुछ टाका देद होऽ ओकर करब बिअहवा । राजा कत्ते दाम बेचबे डोमिनी सुपली मउनिया कत्ते दाम गे डोमिनी अपने सुरतिया । डोमिन- अन्नी दुअन्नी हो राजा सुपली मउनिया लाख टाका हो राजा आपनी सुरतिया ।' एतना सुनत भइल राजा डोमिन के हाथ पकड़ लेता। भला लाख रुपया
पड़ी जहतवऽ हो राजा रंग के छिटकिया । राजा तोरा लेखे आ हो डोमिनी रंग के छिटकिया
ओकरा ला कवन बड़की बात बा। राजा के खुद के भी परिववार पहिले से बा बाकी एके गो मेहर रहे त राजा कवना बात के ? ई अलग बात बा कि हर रनिवास में रानी के नोकर-चाकर आ सिपाही से फँसला के कहानियो आम बा ई सब सामंती व्यवस्था के जरूरी हिस्सा समुझल जाला। इहाँ 'समरथ को नहीं दोष गोसाई' वाला कहावत चरितार्थ बा ।
राजा के ए नइकी मेहर (डोमिनी) से राजा के पटरानी, मतारी बहिन खुस नइखी । जात- बेरादरी लेके काना-फुसी शुरू बा चूड़ीहारो के चूड़ी पहिनावत खानी डोमनी के कड़ा हाथ पर शक होता। ई त कवनो काम करेवाला हाथ ह । बड़ जात के हाथ त हरगिज ना हो सके ।
ओने डोम कमा- खटा के चीज बतुस साधे गाँव आवता त ना ओकर झोपड़ी बा ना परिवार केहू बतावत नइखे कि डोमिन कहाँ गइली हैं, चूड़ीहार आपन शक जरूर मिल के जाहिर करता ।
हरविसना डोम अनारकली के खोजत बाबू दुआरे पहुँचता । ऊ दरवान से डोमिन का बारे में पूछता । गेट खोले के बिनती करता-
'डोम बाबू राम ! बाबू राम ! !
डगरा बेचते डोमिनी हेरायेल रे की । दरवान भैया राम ! भैया राम ! ईहो रे हवेलिया डोमिनी ना आएल रे की !
डोम बाबू राम ! बाबू राम !
खोलS दरवजवा डोमिनी के हेरब रे की ।"
दरवानो त साधारणे वर्ग से आइल बा । ऊ गेट खोल देवता । डोम के नजर पहिले त बेटा जलुआ पर पड़ता फेर अपना मेहर अनारकली पर । दूनों थथा के मिल जा ताड़न डोम पूछता
'डोम हाल कह जे डोमेनिया हाल कह गे ! अपना राजा के हवेलिया के हाल कह गे !
डोमिन मार खइबे रे डोमवा मार खइबे रे ! अपना राजा के सिपहिया से मार खइबे रे !
थोड़ा में, नाटक त अपना परंपरागत सुखांत में खतम होते वा । राजा के गइल-गुजरल परिवार आ व्यवस्था पर व्यंग्यो करता। बड़ो घर के 'डोमकछ' में डोमिन के रखला का पाछे साइत ई देखावल ह कि औरतन क हालत सगरो लगभग एक समान बा, चाहे ऊ बड़ घर होखे भा छोट ई नाटक नारी सशक्तीकरण के दिसाइयों एगो सवालिया निसान छोड़ता ।