नौटंकी सर्वसाधारण में नाट्य विधा के एगो जानल- पहिचानल नाम ह, जेकर प्रदेशन काल्ह ले गाँव के धनियन के बरियात में दहेज के रूप में मोट रकम लेवेवालन का ओर से अपना बड़प्पन के धाक जमावे, पूजा भा पर्व त्योवहार का अवसर पर देवी-देवता के रिझावे का बहाने आम जनता के मनोरंजन करत आ मेला ठेला के भीड़-भाड़ में साइनबोर्ड पर थियट्रिकल कम्पनी मा अइसने कवनो आकर्षक नाम के सहारा लेके रुपया कमाये के साजिश में होत रहल बा ।
एक तरफ एकर जड़ नाटक के धरती में बहुत गाहिराह गइल बा त दोसरा तरफ एकर असीम भविष्य अवहीं शेष बा ।
नौटंकी लोकनाट्य परम्परा के एगो धारा वा जे मूल प्रवृत्तियन ( जइसे शृंगारी भइल आ संगीत के अधिका महत्व प्राप्त भइल) में एक होखतो प्रस्तुतीकरण में कुछ अलगा होय का चलते भगत आ स्वांग दूगो अउर नाम से जानल जाले । कुछ लोग एकर जनम पारसी थियेटर से मानेलन ।
डॉ. श्याम परमार के अनुसार "नीटंकी कहीं स्वांग के नाम से विख्यात है, कहीं भगत के नाम से ऐतिहासिकता की दृष्टि से स्वांग की प्राचीनता में संदेह नहीं, भगत मध्यकाल की वस्तु है और नौटंकी प्राचीन स्रोत में रीति-कालीन अथवा उससे थोड़े पहले की मिली-जुली धारा है। अमीर खुसरो की भाषा का प्रभाव नौटंकी में लक्षणीय है, जो निस्संदेह मुसलमानी प्रश्रय का प्रतिफलन प्रतीत होता है।" ( लोकधर्मी नाट्य परम्परा', पृ. ५० )
भगत या नौटंकी में मोटा-मोटी फरक ई बा कि जहाँ गुरु परम्परा भा
अखाड़ा के महत्व भगत में अधिक बा, उहाँ अभिनेतन द्वारा गणेश-पूजन के दीप
जराववला का बाद प्रदर्शन शुरू करे के धार्मिक भाव के प्रथा नौटंकी में कम बा ।
डॉ. सत्येन्द्र दू प्रकार के भगत के चर्चा कइले बाड़न आगरा के भगत आ हाथरस के भगत । खुलल मंच पर भगत नाटकन के हप्ता तक चले के परम्परा रहल हिय। जदपि एने भगत के मंच, विकास के कई स्थितियन से गुजरल ह बाकी ईहो जाने लायक बा कि आजकल आगरा आ हाथरस के मंच लगभग एके लेखा बा । अंतर खाली ई बा कि आगरा में एक पर्दा के प्रयोग होला आ मथुरा आ
हाथरस में मंच पर्दा रहित खुला रहेला । भगत नाटकन में विविध प्रकार के लीला होले । जइसे मोरध्वज,
हरिश्चन्द्र, जानबालम, भक्त पूरनमल, सियाहपोश आदि ।
स्वांग हरियाणा, रोहतक, हाथरस आ एटा जिला में खूब प्रसिद्ध बा । ई शैली पुरान एतना बा कि सिद्ध कवि कण्हपा (वीं सदी में) एकर उल्लेख कइले बाड़न :
"आलो डोंबि, तो ए समकरीब मसांगु निचिण कान्ह जाई जग । "
कबीर एगो साखी में स्वांग के उल्लेख कइले बाड़न । एह शैली के
नाटकन में औरतन के विशेष महत्व रहल बा । महाराष्ट्र में संत तुकाराम के समय औरतन में स्वांग रचे के वइसने चलन
रहे, जइसन आज-काल्ह मर्दन में बा । शृंगारिक आ फूहड़ अभिनय के कारण
तुकाराम एकर विरोध कइले रहस ।
ई शैली व्यापक एतना बा कि जवन्त नाट्य रूप में मुखौटावाली वेश-भूषा के प्रयोग होला, उहाँ स्वांग के स्थिति मानल जाला । नौटंकी में मोछवाला मरद के औरत बनल स्वांग कहाले ।
स्वांग - शैली के नाटकन में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सब तरह के कथानक सामिल होलन जइसे राजा भतृहरि, गोपीचंद, भक्त पूरनमल, हीर-रांझा आदि । एकर सबसे लोकप्रिय नाटककार बाड़न लक्ष्मीचंद ।
१६वीं शताब्दी का अंत में रामगरीब चौबे या दीपचंद एक तरह से एकर पुरखद्धार कइलन । स्वांग के मंचीय स्वरूप आजो खुलले मंच बा ।
(लेख हिन्दी क्षेत्र की लोक नाट्य परम्परा' लेखक : अविवनाश चन्द्र मिश्र ) ।
पं. रामचन्द्र शुक्ल सामान्य प्रवृत्तियन के आधार पर रीतिकाल के शुरूआत संवत् १७०० के आस पास मानेलन। एह काल में ऐहिक श्रृंगार अपना उद्याम प्रवृत्तियन का साथे ना खाली राज दरबार में प्रकट भइलीसऽ बलुक साधारण जनतो
में ओकरा पनपे के अवसर मिलल । एह घरी तक लोक मंचन खातिर ऐहिक श्रृंगार के प्रवृत्ति कुछ नया ना रहे। नौटंकी, स्वांग, भगत आदि के शृंगार रूप शुक्ल जी
के कहनाम का मोताबिक एही काल में नियोजित भइल ।
'तारीख-ए-अदब-ए-उर्दू' ग्रंथ में डॉ. राम बाबू सक्सेना लिखत बाइन कि नौटंकी के शुरूआत उर्दू लोकगीतन से भइल । इनके बात के समर्थन करत श्री कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर के कहनाम बा कि "संभवतः सर्वप्रथम नौटंकी 'हीर रांझा' की कथा थी जो आज भी पंजाबी लोकगीतों में अपना विशेष महत्व रखती है। ११वीं १२वीं शताब्दी में इसका जन्म काल माननना चाहिए।
नौटंकी शब्द के कुछ लोग 'नाटकी' (सं०) के अपभ्रंश मानेलन आ कुछ लोग 'नाट्यांक' के अपभ्रंश रूप । कुछ लोग एकर संबंध नौटंकी नाम के एगो मुल्तानी राजकुमारी के प्रेमगाथा से जोड़ेलन । 'रूरल थियेटर इन इंडिया' लेखक : जगदीश चन्द्र माथुर, पृ. ६६) ।
कहल जाला कि युनानियन द्वारा यौन भावना से एकरा के ओत प्रेत कइल गइल । खैबर के लोग जवन कुछ खराब परम्परा के लेके भारत आइल रहस नौटंकी ओही में से एगो रहे ।
इहहूँ एके मोड़ापन से बचावे के काम खुसरू के कहल जाला। एह तरह से नौटंकी के नामकरण आ काल-1 - निर्धारण विवादास्पद बड़ले बा समय आ परिस्थिति अनुसार एकर स्वरूप आ विषय वस्तुओ बदलत रहल बा ।
हैं, जादे लोग एकरा जन्मदाता होय के सेहरा मल्ल (जाट), रावत (राजपूत) आ रंगा ( जुलाहा ) के सिर बान्हेलन जवन साम्प्रदायिकता से ऊपर, कवनो भेद-भाव से दूर, एकरा होय के सबूत बा। शुरू में एकर प्रस्तुति खाली ढोलक पर होत रहे। १३वीं शताब्दी में ई अमीर खुसरो के कोशिश से विकसित भइल आ १६वीं शताब्दी तक आवत आवत सँउसे उतर भारत में फइल गइल ।
काल-क्रम से कथानक में ई रामायण, महाभारत आ पुराण के भक्ति गाथा लेलक, लैला-मजनू, शीरी-फरहाद आदि लोक प्रचलित प्रेम कहानी, कुछ ऐतिहासिक आ डाकू के जीवनी (जइसे अमर सिंह राठौर, शिवाजी, जहाँगीर का इन्साफ, अनार कली, सुल्ताना डाकू डाकू बहराम सिंह) आ अब बेटी का सौदा, गरीब किसान, भारत दुर्दशा जइसन सामाजिक समस्यो एह में स्थान पावे लागल बा ।
कुछ कहानियन उर्दू के दया से नौटंकी में स्थान पा गइल रहीसऽ जवन अपना समय में लोकप्रियता का दिसाई धूम मचा गइलीसऽ अमानत के इन्द्रसभा आ आगा हश्र के कुछ कृतियन के अइसने श्रेणी में राखे के पड़ी। शेष प्रसिद्ध लेखकन में कानपुर के श्रीकृष्ण पहलवान, फरूर्खाबाद के तिरमोहन आ दोसरा जगेह के राधेश्याम, लम्बरदार, नाथुराम गौड़ आदि के नाम आवेला ।
- मुझे मरने का खौफो ख़तर ही नहीं ।" एकर मंच खुलल जगहा में ऊँच स्थान पर बनावल जाला जेकरा पीछे एके गो पर्दा प्रायः टांगल जाला। बैंक ग्राउण्ड भा सिनयरी त एह में होखबे ना करे । ग्रीन रूम का रूप में एगो अलग तम्बू मिल जाय त ठीक ना त मंच पर सबकुछ मेक अप आ परिधान परिवर्तन के काम पूरा कर लेवल जाला । रूप सज्जो में अधिका ताम-झाम ना, माहमूली लेप, रोज, पाउडर, काजर आदि बस । दृश्य के कल्पना 'मौरेलिटी प्लेज' लेखा कर लेल जाला ।
हाथरस आ कानपुर नौटंकी के मुख्य गढ़ मानल जाले। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, कन्नौज आदि जगहो में प्रसिद्ध नौटंकी दल बाड़न आ उत्तर भारत के बाकी हिस्सा में एकर छोट-छोट टोली लगभग सगरो मिलिहें ।
स्थान विशेष के कारण नौटंकी के प्रस्तुतीकरण आ तथ्य में थोड़-बहुत अंतर देखे में आवेला । जइसे जहाँ हाथरस वाली नौटंकी में गीत-संगीत आ गायन प्रमुख होले, उहाँ कानपुर के नौटंकी संवाद आ अभिनय के प्रमुखता लेले होली । एही तरह हाथरस के तुलना में कानपुर के नौटंकी में उर्दू के प्रयोग अधिक होले । वाद्य यंत्रन में हर जगह लगभग नगाड़ा, सारंगी, ढोलक आ हारमोनियम के प्रयोग होले ।
जेह तरेह से नौटंकी अपना एगो अनोखा वाद्य यंत्र नगाड़ा आ ओकरा एगो विशेष प्रकार के ध्वनि से पहचानल जाले, वइसही उर्दू के एगो छंद विशेष्ष 'बहरेतबील' (बहर-छंद, तबील- लम्बा) में एकर कथोपकथन ( डायलॉग) एकर दोसर पहचान वा जइसे ।
"ऐ रावण तू धमकी दिखाता किसे
(नौटंकी रामायण)
( वइसे थियट्रिकल कम्पनी के नाम पर एह शैली में आजकाल मेला आदि में ग्रामीण नाटकन लेखा कइक गो पर्दा आ सीन सिनयरीयो के प्रयोग होता ।)
मंच के एक कोना पर नगाड़ा वाला दर्शकन से अपना के देखावत बइठेला फेर दोसर - दोसर साजिन्दा । मंच पर एके गो कुर्सी सिंहासन आदि लेखा व्ययवहार में लावल जाला जेह पर राजा आ देवता बइठेलन । बाकी पात्र खड़े-खड़े आपन काम चला लेवेलन ।
संवाद बोलत खानी पात्र एक तरफ से दोसरा तरफ आवत-जात रहेलन आ हाथ उठा के एक प्रकार के संकेत देवेलन । एकर नट, मुद्रा, वाणी, मुखाकृति आ वेश-भूषा से पात्र विशेष के शील के प्रत्यक्षीकरण करेलन एह तरेह से दर्शकन के साथे एक प्रकार के सम्प्रेषण स्थापित हो जाले ।
पात्र रूढ़ होलन आ एक से अधिका रस के बाहक होलन। ई अंग्रेजी के 'स्टाक कैरेक्टर' लेखा वर्ग विशेष (खूसर बुड्डा, झगड़ालू सौत, दुर्गनीपति, ढोंगी साधु, कर्कसा सास आदि) के गुण के अभिव्यक्त करेलन ।
देश काल आ स्थान के भेद ना राखल जाय। नौटंकी के राम मंचे पर एक-दू फेरा लगा के अयोध्या से लंका पहुँच जालन । इहाँ सीता नर्तकी मतिन नचावल जा सकेली दुष्यन्त ट्विीस्ट कर सकेलन ।
कहीले, भारतेन्दु काल में कवनो नौटंकी में शकुंतला 'पतली कमर बलखाय रे' जइसन अश्लील गीत के साथे जब नाचे लगली त भारतेन्दु खीज के गोड़ पटकत ओह महफिल से चल आइल रहस। वइसे कालान्तर में बेताब साहेब नाट्यान्दोलन में नौटंकी के स्वस्थ रूपों के चर्चा कइले बाड़न ।
साज-सज्जा ( पहनावा ) में दैत्यन खातिर करिया कपड़ा, कमर मोट आ
राजा मा देवता खातिर कत्थई भा लाल कपड़ा, कमर पातर के विधान बा ।
हँसोर पात्र ( जोकर ) के कवनो दृश्य में जाके हँसा आवे के आजादी रहेला एकर गद्य-संवादो लच्छेदार होला आ जोकर के रोअलो दर्शकन के हँसे के दावत देला ।
रूपान्तर होखत होखत आजकाल नौटंकी में पारसी थियेटर के अतिशयता ( ओवर होय के) प्रभाव सबसे जादे त पड़ले बा, बाजारू सस्तापन आ लोग के भ्रष्ट रूचियो एके भोड़ा संवाद, अश्लील नाच आ अभिनय व गीत में सिनेमाई नकल से भर देले बा ।
तबहूँ नौटंकी के महत्व, एकर प्रभाव, प्रासंगिकता, उपयोगिता आ सबलता के पता चलता कि १८५७ के विद्रोह के बाद गोरा लोग भारत के जन-समुदाय पर फेर से आपन प्रभुत्व कायम करे, जनता के ध्यान क्रांतिकारी भावना का ओर से हटावे भा ओकर रूचि विकृत करे के नियत से सर्वाधिक लोकप्रिय आ ग्राह्य जान के एही शैली के सहारा लेले रहे। तब के नौटंकी लेखक आ भगत के गुरुअन के अश्लील आ भोड़ा रचना करे बढ़े प्रोत्साहित कइले रहे अंग्रेजी सरकार एह समय के श्री भगवती प्रसाद के 'सब्जपरी' नाम के प्रेम कथात्मक भगत लिखे खातिर सत्ताधारियन का ओर से दस हजार रुपया देवे के प्रस्ताव के बात बतावल जाला । ('लेसर नौन पारफेसिंग आर्टस इन इंडिया' पृष्ठ - १२१) ।
जवाब में जनता के पक्षधर, ओकर नबज पहिचाने वाला भारतेन्दु आ उनकर सहयोगियो लोग एकरे सहारा लेते रहे । आजो हिन्दी के आधुनिक कई नाटककार आ रंगकर्मी एही लोकधारा में नाटक के बहाव स्थिर करे के प्रयास में लागल बाड़न । हबीब तनवीर के 'चरणदास चोर, बहादुर कलारिन, आगरा बाजार, एम.के. रैना के 'मृच्छकटिक' जहाँ दोसरा लोक शैलियन में अइसने कोशिश बा; उहाँ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के बहुचर्चित नाटक 'बकरी' में त निखालिस नौटंकीए शिल्प समाइल बा ।
थोड़े में नौटंकी संवत् १७०० के आस-पास के निकलल लोकनाट्य के एगो सबल शैली ह जवन एह लम्बा अर्सा में तनिक फेर-बदल के साथ खुद त जियत रहबे कइलक, नाट्य कला के लेखक आ कलाकारन के पंचम वेद के उपयोगितानुकूल फेर-फेर आम आदमी में जाये के उकसावतो रहल बा ।
सचहूँ सुदूर देहात के एगो बड़ भाग के एकर 'प्यारी तेरे इश्क में हुआ हाल-बेहाल' का साथे 'कर-करं करे करे- धम्म- धम्म...' जब बहुत दिन तक मथत रहेला त पूरा देश में फइलल आम लोगन के व्यापक आबादी में समसामयिक समस्यन आ ओकरा समुचित समाधन के बात ले ले नौटंकी केतना कारगर सिद्ध होई, इ सहजे अनुमान कइल जा सकेला । अइसहीं सरकारी आ स्वयंसेवी संस्थन के अपना-अपना मिशन के प्रचार-प्रसार के अकूत संभावना नौटंकी में अवही बन्द पहल बा।