कला के क्षेत्र में आदमी सबसे पहिले नाचे के, फेर बजावे के आ तब गावे के सिखले होई । काहें कि गतिमान होके नाच में आ नाच थिर होके कथा में बदल जाले । कथा के मौन भइले नाटक के शुरूआत है। संवाद वाला नाटक त बाद में आइल जवना में अभिनय कथा कहे के काम करे लागल ।
नाटक के लिखित प्रमाण का खोज में ऋग्वेद के कुछ सूक्त सबसे पहिले हमार धेयान अपना कावर खींचले जेकर हामी मैक्समूलर, ओल्डबर्ग, विण्टरनित्ज आ प्राध्यापक लेवी जइसन विद्वानों लोग भरले बा। आगे बढ़ के माने के पड़ी कि एह दिशा में भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्रम्' (ई.पू. तीसरा शताब्दी) दुनिया के खाली मंच पर भारत के पुरान नाटक परम्परा साबित करेला काफी बा ।
ऊपर नाच से नाटक के बात कहल गएल बा। प्राचीन नाटक के नाच से फरका के ना देखला जा सके। देवता के खुश करे भा तांत्रिक परम्परा के साधना खातिर नाच समाज के अनुष्ठानिक अंग रहल बा । नाटक के एह तरह से नाच से सम्बन्ध लोकधर्मी नाट्य परम्परा के द्योतक बा ।
पश्चिम के विद्वानन के त मत बा कि यूरोप के करीब-करीब सब उन्नत देशन में नाटक के पहिलका रूप मिस्टिक प्लेज (Mystic Plays) के रूप में रहे । अनेक देशन में एह मिस्टिक प्लेज के रूप आ नाच में समानता पावल जाला ।
अपना कन आदिवासियन किहाँ शराब पिये के आयोजन करीब-करीब जजात पकला के बाद कएल जाला। ई एगो उत्सव के रूप थ लेला । ऋग्वेद के ऋचा, जेह में संवाद के क्रम निहित बा हो सकेला फसल पाके खातिर कएल गइल अनुष्ठान के गीत बन गएल होखी 'कीय' त 'कोरा' जाति के महोत्सव पर बोलल बातन के उल्लेख करत एह संदर्भ में सोमपान के समय इन्द्र का मुँह से कहल जायेवाला मंत्र के स्वागत कथन के रूप ह बतवले बाइन, पुरोहित जेह में इन्द्र के रूप ध के सोम के शक्ति के बखान करता ।
अइसहीं बरखा खातिर कएल टोटका ( हरफरौरी) बिआह शादी के मांगलिक अवसर पर औरतन में प्रचलित कुछ अइसने आचार (डोमकच) आ होली का बेरा धइल हास्य स्वांग (जोगीड़ा) आदि बड़ा आसानी से अभिनय का कोटि में जगह पा सकेला । जदपि भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में लोकधर्मी नाटकन का बारे में स्पष्ट वर्णन, नइखे, तबहूँ नाटक के उत्पति संबंधी जवन रूपक कथा शुरू में देहल गइल बा, ऊ आदमी के कृषि युग के सूचक बा । ओती घरी भारत आ निकटवर्ती देशन में अनेक घुमन्तु जाति बस गइल रहे आ जहाँ एक बेर बसगित हो जाला, उहाँ मनोरंजन के साधन के जरूरत पड़ेला । नाटक अइसने सहज रूप से उपजल सुने आ देखे के योजना ह जवन बाद में नियमबद्ध हो गइल । पहिले पूर्ण लोकमुखी भइला गुने सब वर्ग के सहयोग एकरा मिलल बाद में मत- वैभिन्यता स्वाभाविक रहे । फल ई भइल कि वर्गीय रूचि का चलते नाटक दू फाड़ में बँटा के लोकधर्मी आ साहित्यिक या शिष्ट नाट्य परम्परा का रूप में आगे बढ़ल । भोजपुरी में लोकनाट्य परंपरा
लोकनाटकन में 'जात्रा' के गिनती सबसे पुरान नाटक के रूप में कइल जाला । यात्रा अर्थ ह 'गइल' मा 'जुलूस' (रिलिजियस प्रोसेशन) लोग के अनुमान बा कि शुरू में देवता के उपासकगण अपना आराध्य देव के प्रतिमा- जुलूस निकालत खानी आज मतिन कवनो ना कवनो किसिम के अभिनय करत जात होइहन आ ओही अभिनय के नाम 'जात्रा' धरा गइल होई ।
'गीत गोविन्द' के लेखक जयदेव के एह 'जात्रा' से प्रभावित होय के बात इतिहास जन्य बा । एह आधार पर कहल जा सकेला कि जुग-जमाना से प्रभावित होके रामलीला आ रासलीला जइसन लोकनाट्यन शैलियो जत्रे से विकसित भइल होइनसऽ ।
भोजपुरी क्षेत्र के कुछ आउर लोकनाटकन में नौटंकी, स्वांग (भगत), धोबी, गोड़, नेटुआ-नाच, जट-जटिन होत आगे बढ़ला पर बिदेसिया के परम्परा लउकी। आजो एह शैलियन में भोजपुरी के कुछ शिष्ट नाटककार लोग आपन नाटक सिरिज रहल बाड़न । जइसे 'लीला ई श्रीराम- श्याम के ' ( अविनाश चन्द्र विद्यार्थी), तोहरे पर हमरो गुमान ( गणेश तिवारी प्रशान्त), अंगूरी में हँसले बिया नगिनिया ( यादव चन्द्र ), बिरहा सतावे दिनरात ( नंदकिशोर मतवाला) मीत मिलन ( रामवचन यादव अंजोर), सुहाग की बिंदिया ( अर्जुन सिंह अशान्त ) आदि । --
आजादी के पहिले भोजजपुरी के शिष्ट नाटक
कथित शिष्ट नाटकन में आजादी के पहिले डॉ. उदय नारायण तिवारी के शोध 'भोजपुरी भाषा और साहित्य का इतिहास' का मोताबिक भोजपुरी के साहित्यिक नाटक रहे रविदत्त शुक्ल के 'देवाक्षर चरित', जेकर रचना १८८४ ई. में भइल रहे | हँसी प्रधान एह नाटक के पीछे उद्देश्य रहे फारसी लिपि से देववनागरी लिपि के बढ़ियां बतावल । पहिला बेर ई नाटक बलिया के तब के जनप्रिय कलक्टर डी. टी. सॉबर्टस के सामने रामलीला का अवसर पर खेलल गइल रहे। एह नाटक के चर्चा अपना 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया' में डॉ. जार्ज ग्रियर्सनी कइले बाड़न ।
तेकरा बाद 'नागरी विलाप' आ 'जंगल में मंगल' दूगो आउर नाटक क्रमशः १८८५ ई. आ दोसरका विश्वयुद्ध के लगभग लिखायेल रहे ।
फेर त राहुल सांकृत्यायन के आठ गो भोजपुरी नाटक के वर्णन मिलेला । नाम हवे नईकी दुनिया, दुनमुन नेता, मेहरारून के दुरदसा, जोंक, इ हमार लड़ाई ह, देश रक्षक, जपनिया राछछ, आ जरमनवा के हार निश्चय ।
आजादी के पहिले के आखरी नाटक रहे आजमगढ़ निवासी श्री गोरखनाथ चौबे के 'उल्टा जमाना'। सतयुग आश्रम, बहादुरंज, इलाहाबाद से प्रकाशित एह नाटक के भाषा पछिमी भोजपुरी गुने तनिक नीरस बा । भारतेन्दु काल तक कुछ इतर भाषाअन में नाटक
आजादी के पहिले हिन्दी नाटक के आकाश में भारतेन्दु के उगला के पहिले १५वीं शताब्दी में विद्यापति आ उमापति के दूगो मैथिली नाटक क्रमशः 'रूक्मिणी परिणय' आ 'पारिजात हरण' के नाम आवेला । वइसे कुछ अउर नाटक गैरमैथिली के रामायण महानाटक (प्राणचन्द चौहान, १६१० ई.), हनुमननाटक (हृदयराम, १६२३ ई.), समय सार नाटक (बनारसी दास १६३६ ई.) समासार (रघुराय नागर, १७०० ई.) आ करूणाभरण (वाच्छिराम, १७१५ ई.) के नामो बा जवना के आचार्य लोग नाटक से जादे प्रबन्ध काव्य मनले बाड़न ।
रीति काल में मोटामोटी ब्रजभाषा में जवन कुछ नाटक लिखाइल ऊ रहे देवमाया प्रपंच (देव कवि), आनंद रघुनंदन नाटक ( महाराज विश्वनाथ सिंह), प्रबोध चन्द्रोदय ( ब्रजवासी दास), सीता स्वयंवर (हरिराम), इंदर सभा ( अमानत) आदि । बाकी एह सब पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के जवन टिप्पणी आइल ऊ गौर करे लायक बा- "भारतेन्दु के पहले 'नाटक' के नाम से जो दो चार ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखे गए थे, उनमें महाराजा विश्वनाथ सिंह के 'आनंद रघुनंदन नाटक' को छोड़कर और किसी में नाटकत्व नहीं था । "
भक्तिकाल के तुलसीदास के 'रामचरितमानस' में जवन नाटकत्व बा जो ओकर थोड़का देर बात छोड़ियो दीं त नाटक के क्षेत्र में नाटक कह के कुछ नाहिंयो लिखला पर इतिहास बतावेला कि तुलसी ओह घरी के समाज में नाटक के मंचीय रूप के व्यापक प्रचार कके नाटक के विकास में गजब के योगदान कइले बाड़न ।
मुगल काल के रूप में जब हिंदू संस्कृति आ धर्म पर खतरा मड़रा रहल रहे, हिन्दू नारियन के साचे दुर्व्यवहार जारी रहे, कहल जाले कि हिन्दू संस्कृति के पुनरूत्थान आ हिन्दू जाति में भक्ति, शक्ति आ कर्म संबंधी संघर्ष के मद्दा पैदा करे खातिर तुलसीदास तीन गो लीलन के मंचन करवले रहस- ध्रुवलीला, प्रह्लाद लीला आ रामलीला। तीनों के कथा संरचना आ पद्य में संवाद योजना उनके रहे। कुछ समय बाद एह में पहिला दू गो लीला त बन्द हो गएल बाकिर 'रामलीला' के ओइसही व्यापक, प्रसार भइल जइसे आजकाल नुक्कड़ नाटक के लोकप्रियता बा । भारतेन्दु के पिता (जिनकर असली नाम गोकुलचन्द रहे आगे गिरिधर कविराय नाम से कुंडलियाँ लिखले बाडन) के 'नहुष नाटक' के चर्चा ना कइल बेमानी होई । कुछ लोग एके तबके पहिला नाटक तक मानेले अब ई अलग बात
बा कि पछपात के अछरंग ना लगे, एह डर से भारतेन्दुओ हिन्दी के पहिला नाटक
का रूप में 'आनंद रघुनन्दन नाटक' के नाम लेले बाड़न जेकर प्रकाशन १८५० ई.
भइल रहे।
जो अनूदित नाटको के नाम गिनावे के इजाजत दीं त राजा लक्ष्मण सिंह के संस्कृत से १८६३ ई. में अनुदित 'अभिज्ञान शाकुंतल' के पहिले नाम आई । एकर गद्य भाग खड़ी बोली हिन्दी में बा आ पद्य भाग ब्रजभाषा में।
खुद भारतेन्दु मात्र १८ बरिस के उमिर में बीरकवि रचित बांग्ला से 'विद्या सुंदर' नाटक के हिन्दी में अनुवाद कइलन आ मूल संस्कृत से त 'पाखंड विडंबन, धनंजय-विजय, कर्पूर मंजरी, मुद्राराक्षस, भारत-जननी, दुर्लभ बन्धु आ रत्नाववली' ( अधूरा ) सात नाटक अकेले दे गइल बाड़न ।
मूल हिन्दी में सत्यहरिश्चन्द्र, वैदिक हिंसा हिंसा न भवति, श्रीचन्द्रावली, विषस्य विषमौषधम्, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, प्रेम योगिनी (अधूरा ) आ सतीप्रताप (अधूरा) नाटक- संसार के उनकर देन ह । 'सत्यहरिश्चन्द्र' के शुक्ल जी कवनो बांग्ला नाटक के छाया मानताड़न आ कुछ विद्वान एके संस्कृत के 'चन्द्रकौशिक' के अनुवाद मानेलन । प्रहसन का कोटि में 'अंधेर नगरी' के नाम लिआला ।
थोड़ा में पुरान-नया, पूरब आ पछिम नाट्य शैलियन में तत्कालीन जवन खिचड़ी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के हाथे पाकल ऊ आजो हिन्दी नाटक के पंथ बा ।
नाटक का प्रति उनकर लगन आ दिवानगी देखीं कि राजकुमार हरिश्चन्द्र आपन सब कुछ नाटक आ ओकर मंचन पर लुटा देलन । लिखल, निर्देशन, अभिनय से लेके प्रचार-प्रसार तक भारतेन्दु के शगल रहे। मेला बाजार में पीठ पर पोस्टर साट के पागल नियर दउरस जेह में लोगन के घेयान जाय-
'आज के रात अमुक नाटक, अमुक जगेहः अवस देखहू- देखन जोगू ।' उनका अभिनय कुशलता के उदाहरण में एगो प्रसंग बतावल जाला कि एक बेर ऊ अपना 'सत्य हरिश्चन्द्र नाटक' में हरिश्चन्द्र का भूमिका में रोहिताश्व के शव पर श्मशान घाट में जब विलाप करे लगलन त मौजूद दर्शक रो-रो भरल । इहाँ तकले कि नाटक देखे आइल अंग्रेज मेमिनो फूट-फूट के रोअली एक जानि सेना अरायेल त ऊ आपन लोर से भींजल रूमाल केहू से हरिश्चन्द्र लगे भेजवावत मना कइली कि अब आउर मत रोआवस बाकी हरिश्चन्द्र एके आपन सफलता मानत एह करूण क्रंदन में बढ़ोत्तरीए कइलन आ दृश्य अति कारूरूणिक हो उठल ।
'अंधेरनगरी' के ई गीत- चूरन सभी महाजन खाते जिससे जमा हजम कर जाते चूरन खाते लाला लोग चूरन पुलिस वाले खाते त आजो कमोवेश सामाजिक बा आगे के हवाल फेर कबो । तत्काल 'नाटक-सड़क से सरमेर सफर' में सामिल रहला खातिर 'विभोर' हई ।
'चूरन अमले सब जन खावें दूनी रिश्वत तुरत पचावैं
जिनको अकिल अजीरन रोग
सब कानून हजम कर जाते'
आगे के हवाल फेर कबो । तत्काल 'नाटक-सड़क से सरमेर सफर' में सामिल रहला खातिर 'विभोर' हई ।