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आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक प्रारम्भिक काल

7 December 2023

3 देखल गइल 3

प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी के इतिहास का वर्णन करते समय बताया गया है कि आठवीं सदी से केवल भोजपुरी ही नहीं; बल्कि अन्य वर्तमान भाषाओं ने भी प्राकृत भाषा से अपना-अपना अलग रूप निर्धारित करना शुरू किया और ग्यारहवीं सदी के आते-आते मगही, बंगला, भोजपुरी, मैथिली, उड़िया भाषाओं ने अपना-अपना अलग रूप, सहायक भाषा के रूप में भी, स्थिर कर लिया। किन्तु उस समय तक जो कवि हुए है, उनकी रचनाओं की भाषा में उपयुक्त पाँच भगिनी भाषाओं के ही रूप, जो अर्धमागधी समुदाय की प्राकृत से व्युत्पन्न है, नहीं पाये जाते; बल्कि उनमें शौरसेनी, हिन्दी आदि के भी रूप देखने को मिलते हैं। इससे यह निर्विवाद रूप से निश्चित हो जाता है कि इन ४०० वर्षों में 'नाथ' ओर 'सिद्ध' सन्तों ने प्राकृत भाषा को त्याग कर जिस भाषा का प्रयोग अपनी कविता में किया, उस भाषा से वर्तमान बॅगला, भोजपुरी, मगही, मैथिली, उड़िया आदि भाषाएँ अपना-अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकती है। इन सन्तों की प्राप्त रचनाओं में भी उपर्युक्त भाषाओं के आदि रूप जगह-जगह पर वर्तमान है।

महामहोपाध्याय प० इरप्रसाद शास्त्रो ने इस समय के कई कवियों की भाषा को बंगला भापा तथा उन्हें चंगाली कवि माना है और महापंडित श्री राहुल सांकृत्यायन ने इनमें से अधिकांश कवियों की माया मगही मानी है। वैसे ही डॉ० चलभद्र का आदि विद्वानों ने इनको मैथिली तथा उड़िया का कवि माना है। परन्तु वास्तविक बात यह है कि इन सिद्धों और नाथों ने ही, जैसा ऊपर कह चुके हैं, इन पाँचों भगिनी भाषाओं को जन्म दिया और उनकी भाग्रा में जगह-जगह पर इन पाँचों का आदि रूप वर्तमान है। इस बात को ५० रामचन्द्र शुक्ल ने भो अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' के पृष्ठ ५३ में लिखा है।

डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने 'नाथ सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ १३६ में 'दादिपा' की कविता की भाषा की विवेचना करते हुए स्वीकार किया है और लिखा है- "इनके लोक-भाषा में लिखित कई पद प्राप्त हुए हैं। भाषा इनको निस्सन्देह पूर्वी प्रदेशों की है; लेकिन यह उस अवस्था में है जिसे आज की सभी पूर्वी भाषाओं का पूर्व रूप कहा जा सकता है।"

'राजा भोज" नामक पुस्तक में डॉ० विश्वेश्वरनाथ रेड ने भी इसी बात को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विवेचना करके सिद्ध किया है- 

"श्री सी० बी० वैय का अनुमान है कि विक्रम संवत् १०५७ तक प्राकृत से उत्पन्न हुई महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची भाषाओं का स्थान मराठी, हिन्दी, बंगला और पांचाली भाषाएँ लेने लगी थीं। इसी प्रकार दक्षिण की तामिल, मलयालम्, तेलगु, कनारी आदि भाषाएँ, भी अस्तित्व में आ गई थीं।"

इस समय के सिद्ध और नाथ सम्प्रदाय के कवियों की रचनाओं को देखने से यह स्पष्ट हो जायगा फि इन ४०० वर्षों में यानी ६०० ई० से०ग्यारहवीं सदी के बाद तक, सिद्ध-सन्तों ने जिस भाषा को अपनाया, उसमें भोजपुरी की सभी भगिनी भाषाओं का पूर्व रूप वर्तमान है और इसी समय इन पाँचों लोक भाषाओं के साहित्य की भाषा प्राकृत के रूप में व्यबहुत हाने लगी।

उनकी चोलचाल की भाषा के रूपों में उनका पारस्परिक अन्तर अवश्य आठवीं सदी में काफो रहा होगा और इसका पूर्ण अस्तित्व आठवीं सदी के पूर्व से ही हमको मानना पड़ेगा। क्योंकि, जनता में उनके पूर्ण रूप से प्रचलित हुए विना सिद्ध-सन्तों का ध्यान उनको अपनी साहित्यिक भाषा में स्थान देने की ओर जाना सम्भव नहीं। अतः सि‌द्धों ने जिन- जिन भाषाओं को अपने साहित्य की भाषा में शामिल किया है, उनका उस समय बोल- चाल में पूर्ण अस्तित्व था और जन-कण्ठों ने उनको सि‌द्धों के समय के बहुत पहले से ही प्राकृत से अलग कर लिया था।

तो इन चार सौ वर्षों की अवधि में भोजपुरी ने किस अंश में और किस तरह साहित्य की भाषा में स्थान पाया है तथा उसका विकास कैसे हुआ है, यह निम्नलिखित सि‌द्धों की रचनाओं से जाना जा सकता है। भोजपुरी के आदि रूप का कुछ आभास इन कविताओं में देखने को मिलता है-

चौरंगीनाथ

चौरंगीनाथ नाथ-सम्प्रदाय के सिद्ध हो गये हैं। श्रीइ‌जारीप्रसाद द्विवेदी ने 'नाथ- सम्प्रदाय' नामक पुस्तक के ५० १३७ में गोरखनाथ के पूर्ववर्ती सिद्धों के जो नाम दिये हैं, उनमें सर्वप्रथम इन्हीं का नाम है।

चौरंगीनाथ तिब्चती परंपरा में गोरखनाथ के गुरु भाई माने गये हैं। इनकी लिखी कही जानेवाली- 'प्राण-संकली' पिण्डी के जैन-ग्रन्थ-भण्डार में सुरक्षित है। इसमें इन्होंने अपनेको राजा 'सालबाइन' का बेटा, मच्छेन्द्रनाथ का शिष्य और गोरखनाथ का गुरु भाई बताया है। इस छोटी-सी पुस्तक से यह भी पता चलता है कि इनकी विमाता ने इनके हाथ-पैर कटवा दिये थे। ये द्दी पंजाब की

१. जाट (दक्षिगा गुजरात) की भाषा से ही आधुनिक गुजराती का जन्म है।

२. अत्तमदी ने ( वि० सं० १००१ ईस्वी ६४४) अपनी 'मुरुजुल जहब' पुस्तक में मानवीर (मान्यखेट) के राष्ट्रक्टों के यहाँ की भाषा का नाम 'कोरिया' लिखा है। इलियट्स हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, मा० १, १० २४।

३. मासिक 'गंगा' का पुरातत्वांक, १० २६० । 

कथाओं के 'पूरन भगत' है। फिर 'पूरन भगत' की कथा का उल्लेख पृष्ठ १६१ में डॉ० द्विवेदी जी ने इस प्रकार किया है- "सारे पंजाब में और सुदूर अफगानिस्तान तक पूरन भगत (चौरंगीनाथ) और राजा रसालू की कहानियाँ प्रसिद्ध है। ये दोनों ही सियालकोट के राजा सालवाहन के पुत्र बताये जाते हैं। कहते है कि 'पूरन भगत' अन्त में बहुत बड़े योगी हो गये थे और 'चौरंगीनाथ' के नाम से मशहूर हुए थे। मिया कादरयार की लिखी एक पंजाबी कहानी 'परसंता पूरन भगत' गुरुमुखी अक्षरों में छपी है। कहानी का सारांश इस प्रकार है:-

"पूरन भगत उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के वंशज थे। उनके बाप-दादों ने सियाल कोट के थाने पर अधिकार कर लिया था। इनके पिता का नाम 'सलवान' (सालवाहन- शालिवाहन ) था। जन्म के बाद ज्योतिषी के आदेशानुसार बारह वर्ष तक एकान्त में रखे गये थे । इस बीच राजा ने 'लू' नामक एक चमार युवती से शादी कर ली। एकान्त वास के बाद पुरन अपने माँ-बाप से मिले। उन्होंने सहज भाव से विमाता को माँ कह कर पुकारा। इसपर गविंणी नई रानी का यौवन-भाव श्राहत हुआ। उसने अपप्रस्ताव किया; किंतु पूरन ने अस्वीकार कर दिया। ईष्यों से अन्धो रानी ने राजा से उल्टी-सोधी लगाकर, पूरन के हाथ-पैर कटवा दिये और आँखें फोड़वा कर उन्हें कुएँ में डलवा दिया। इस कुएँ से गुरु गोरखनाथ ने उनका उद्धार किया। गुरु के आशीर्वाद से उनके हाथ-पैर और आँखें पुनः मिलीं। जब वे नगर लौटकर गये और उनके पिता को इस छल का पता चला, तब उसने रानी को कठोर दण्ड देना चाहा; पर पूरन ने निषेध किया। पूरन की माँ रो-रोकर अंधी हो गई थी। पूरन की कृपा से उसे पुनः आँखें मिलीं और उन्हीं के वरदान से पुनः पुत्र भी हुआ। पिता ने आग्रहपूर्वक उन्हें सिंहासन देना चाहा; पर पूरन ने अस्वीकार कर दिया। अन्त में वे गुरु के पास लौट गये और महान् सिद्ध हुए । हाथ-पैर कट जाने के कारण वे चौरंगी हो गये थे। इसीलिए उनका नाम 'चौरंगीनाथ' हुआ। स्यालकोट में अब भी यह कुओं दिखाया जाता है, जहाँ पूरन भगत को फेंका गया था।"

पूरन भगत की यह कहानी 'योग सम्प्रदायाविष्कृति" में पृ० ३७० में भी दी हुई है। वहाँ स्यालकोट का नाम 'शालीपुर' दिया हुआ है। सम्भवतः अन्धकार ने स्पाल का शुद्ध संस्कृत नाम 'शालि' समझा है।

इसके बाद ५० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पृ० १६२ में विभिन्न विद्वानों के मत, राजा रसालू के समय के सम्बन्ध में, उद्धृत कर लिखा है -

"राजा 'रसालू' पूरन भगत के वैमात्रीय भाई थे। इनके समय को लेकर पंडितों ने अनेक अनुमान मिढ़ाये हैं। सन् १८८४ ई० में टेम्पुल ने खोजकर के देखा कि राजा 'रसालू' का समय आठवीं शताब्दी हो सकता है। उनके अनुमान का आधार यह था कि पंजाच की दो जाट जातियाँ-सिद्ध और संसी-अपनेको इनके वंशज बताती है।”

सिद्ध लोग अपना सम्बन्ध जैसलमेर के 'जैखल' नामक राजपूत राजा से बताते हैं। इस राजा की मृत्यु सन् ११६८८ ई० में हुई थी और इसने जैसलमेर की स्थापना सन् ११५६ में की थी। संसी लोग और भी पुराने काल से अपना सम्बन्ध बताते हैं। वे अपनेको सालवाइन' के पिता राजा 'गज' का वंशधर मानते हैं। टॉड ने लिखा है कि राजा 'गज' से गजनी के मुलतान की लड़ाई हुई थी। अन्त में गज हार गया था और पूरब की ओर हटने को बाध्य हुआा था। उसी ने स्यालकोट की स्थापना की थी। बाद में उसने गजनी की भी अपने अधिकार में कर लिया था। यह सातवीं शताब्दी के अन्त की परना है और इस प्रकार राजा 'रसालू' का समय आठवीं सदी होता है। अरबी के इतिहास-लेखकों ने भ्राढवीं शताब्दी के प्रतापी हिन्दू राजा की चहुत चर्चा की है। एक दूसरा प्रमाण भी इस विषय में संग्रह किया जा सका है। 'रिसल' नामक एक हिन्दू राजा के साथ 'मुहम्मद कासिम' ने सिंध में संधि को थी। संधि का समय आठवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग है। इस प्रकार टेम्पुल ने अनुमान किया है कि 'रिसल' असल में। 'रसालू' ही होगा। कुछ पंडितों ने तो राजा शालिवाइन को शक संवत् का प्रवर्तक माना है। डा० इविंसन ने इन्हें पँवार राजपूत मानाः है। ये इनके मत से यदुवंशी राजपूत थे और रावलपिण्डी, जिसका पुराना नाम गजपुरी है, इनकी राजधानी थी। बाद को इन्हें सीधियनों से घोर युद्ध के बाद पूरब की ओर हटना पढ़ा। इस तरह डॉ० द्विवेदी ने रसालू का-यानी उसके सौतेले भाई 'पूरन भगत' का समय आठवीं सदी निश्चय किया है और कहा है- "परम्पराएँ और ऐतिहासिक प्रमाण स्रष्ट रूप से पूरन भगत श्रऔर राजा रसालू को आठवीं सदी में, गोरखनाथ के पूर्व, ले जाते हैं।"

तब प्रश्न उठता है कि गोरखनाथ उस अवस्था में पूरन भगत के गुरु कैसे हुए ? इसका समाधान डॉ० द्विवेदी ने इस तरह किया है- "इसका एक मात्र समाधान यद्दी हो सकता है कि वस्तुतः ये दोनों गोरखनाथ के पूर्ववर्ती हैं। उनके द्वारा प्रवर्तित या समर्थित शैव साधकों में कुछ योगाचार रहा होगा; जिसे गोरखनाथ ने नये सिरे से अपने मत में शामिल कर लिया होगा। गोरखनाथ का शिष्य बताने वाली उनकी कहानियाँ परवर्ती है। गोरखनाथ अपने काल के इतने प्रसिद्ध महापुरुप हुए थे कि उनका नाम अपने पंथ के पुरोभाग में रखे बिना उन दिनों किसी को गौरव मिलना संभव नहीं था। जो लांग वेद विमुखता और ब्राह्मण-विरोधिता के कारण समाज में अग्गृहीत रह जाते, वे उनकी कृपा से हो प्रतिष्ठा पा सकते थे।" फिर उन्होंने ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख करके बताया है कि पूर्ववर्ती सन्तों की भेंट या वार्ता परवर्ती महात्माओं से धर्म- अन्धा में खूच कराई गई है। उन्होंने चौरंगीनाथ (पूरन भगत) कृत 'प्राणसंकली' नामक दस्तलिखित पुस्तक की एक कविना की भाषा को पूर्वी भाषा कहा है। यह उद्धरण प्राचीनतम मोजपुरी में है। परन्तु इसी आधार पर डॉ० द्विवेदी ने १० १३८ में शंका की हैपरेसा जान पड़ता है कि 'चीरंगी नाथ' नामक किसी पूर्व देशीय सिद्ध की कथा से पूरन भगत की कथा का साम्य देखकर दोनों को एक मान लिया गया है।"

डॉ० द्विवेदी की यह शंका इसलिए, निराधार है कि गोरखनाथ की कविता में भी, जो बढ़थ्वाल जी ने 'गोरखधानी 'में प्रकाशित की है, भोजपुरी कविताएँ उद्धृत है। अन्य

सिद्धों की याशियों में भी भोजपुरी भाषा की कविताएँ, मानी जाती है। फिर भोजपुरी तथा उसके साथ की अन्य अर्धमागधी समुदाय की भाषाओं का विकास तथा जन्म भी इन्हीं सिद्धों के ग्रन्थों से विद्वानों ने माना है। यह कहना कि पंजाब का कवि पूरब की भोजपुरी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता, नितान्त निराधार बात है। सन्त या सिद्ध भ्रमणशील होते थे। यह स्वयं द्विवेदी जी ने स्वीकार किया है। फिर, अपने जीवन- काल में उन्होंने देशीय भाषाओं में कचिंता की है, यह बात भी डा० द्विवेदी ने स्वीकार की है। योगी लोगों का नियम था कि शिष्य को असम्प्रज्ञात में निष्णात कर उसे मुमुक्षुओं के हितार्थ स्वतंत्र घूमने की अनुज्ञा दे देते थे। एक स्थान पर बिना विशेष कारण के ये लोग नहीं ठहरते थे। इनका जो भी साहित्य आज प्राप्त है, उसे देखने से प्रत्यक्ष हो जाता है कि इनकी वाणी में अनेक भाषाओं का समन्वय है। कबीर, गोरखनाथ, चर्पटनाथ इत्यादि सन्तों की भाषा 'सधुकड़ी' है। 'सधुकड़ी' भाषान्तरगत साहित्य की प्रवृत्ति सदैव जनता के अधिकाधिक निकट रहने की रही है। संस्कृत को छोड़ हिन्दी भाषा को अपनाना इसी कारण इन लोगों ने अच्छा समझा कि वह विशाल जन- समुदाय तक पहुँच सकती है। इसके पूर्व योग के ग्रन्थ संस्कृत में रहेर । 'सधुकड़ी भाषा और पूरबी भाषा का प्रयोग इन सिद्धों की वाणी में शुक्त जी ने तथा डॉ० बड़थ्वाल ने भी स्वीकार किया है। फिर इसी पुस्तक में 'धरनीदास' तथा 'विद्यापति' जी की जीवनी में दिखाया गया है कि किस तरह एक सन्त कवि ने अन्य सुदूर प्रान्तों को देशीय भाषाओं को अपनाया है और उनमें रचनाएँ की है। अतः 'प्राण-संकली' में जो भोजपुरी की कविता चौरंगीनाथ जी ने लिखी है, उसको उनकी कविता नहीं मानना, न्यायसंगत नहीं कहा जायगा। चतः यह कविता नीचे दी जाती है। इसकी भापा देखने से सिद्ध होता है कि आठवीं सदी में भोजपुरी ने अपना रूप अपना लिया था। न मालूम क्यों, शुक्त जी, रामनरेश त्रिपाठी, डा० द्विवेदी आदि बिद्वानों ने भोजपुरी शब्द का प्रयोग करने से अपनेको बचाया है। इसके स्थान पर उनलोगों ने अनिवार्य अवस्था में पूरची भाषा या पूरबी हिन्दी का प्रयोग किया है। यह भावना ठीक वैसी ही जान पड़ती है, जैसे कभी संस्कृत के विद्वान् हिन्दी में बोलना हेय समझते थे या अंग्रेजी के विद्वान् हिन्दी में लिखना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझते थे। जब भोजपुरी तीन करोड़ मनुष्यों द्वारा बोली जाती है और अपना अलग संस्कार तथा शैली और साहित्य रखती है, तत्र उसको यह विद्व‌मंडली कमतक अद्भूत बनाये रख सकती है ? आज उसकी दो-चार पुस्तकों के प्रकाशन से ही उसके साहित्य की प्रौढ़ता ने विद्वानों का ध्यान आकर्षित कर लिया है। जिस दिन उसका सम्पूर्ण साहित्य उनके सामने आायगा, उस दिन उनके लाख न चाहने पर भी उसे उच्च स्थान प्रदान करना ही पड़ेगा।

चौरंगीनाथ की 'प्राणसंकली' की कविता की भाषा पर यदि विचार किया जाय तो यह भोजपुरी गोरक्षनाथ की भोजपुरी से पूर्व की भोजपुरी मालूम पड़ती है। भोजपुरी भाषा के प्राप्त नमूनों में इसको प्राचीनतम भोजपुरी का नमूना समझना चाहिए। इस आधार पर भी चौरंगीनाथ का समय आठवीं सदी में माना जा सकता है-- 

सत्य बदंत चौरंगीनाथ श्रादि अन्तरि सुनी मितांत सालवाहन घरे

हमारा जनम उतपत्ति सतिमा झुट बोलीला ||१||

ह अम्हारा भहला सासत पाप कलपना नहीं हमारे मने हाथ पावस्टाय

रलायला निरंजन यने सोप सन्ताप सने परमेव सनमुप देपीला श्री मदंद्रनाथ गुरु देव नमसकार करीला नमाइला माथा ||२|| आसीरबाद पाइला अम्हे मने भइला हरषित होठ कंठ तालुका रे सुकाईला धर्मना रूप मचंद्रनाथ स्वामी ||३|| मन जानै पुन्य पाप ग्रुप बचन न आवै मुप्रै बोलब्या कैसा हाथ रे दोला फल मुझे पीलीला ऐसा गुसाई बोलीला ||४||

जीवन उपदेस भाषिला फल आदम्हे विसाला दोष बुध्या त्रिषा बिसारला ||५|| नहीं मानै सोक धर धरन मुमिरला अन्हे भइला सचेत के तरह कहारे योले पुछीला ||६|| अर्थ-चौरंगीनाथ सत्य कहता है। आदि श्रन्त का वृत्तान्त सुनो। साल-वाहन के

घर मेरा जन्म और उत्पत्ति सत्य में हुई। में झूठ नहीं बोलता हूँ ।।१।। हमारी सासत (दुःख दिया जाना) बेकार निराधार थी। मेरे मन में कोई भी पाप कल्पना नहीं थी। तब भी मेरे हाथ-पाँव काट लिये गये। निरंजन वन में अपने शोक सन्ताप पूर्ण मन में मैने प्रभु देवता को सम्मुख देखा। मैंने श्री मच्छेन्द्र नाथ गुरु देव को नमस्कार किया और माथा नमाया ॥२॥ मुझे आशीर्वाद प्राप्त हुआ। में मन में इर्पित हुआ। हमारे होठ, कंठ और तालु को धर्म रूप मच्छेन्द्र नाथ स्वामी ने मुखा दिया ॥३॥ मन जानता है मेरे मुख से पाप या पुण्य का कोई बचन नहीं निकला। गोसाई (स्वामी) ने कहा-अरे ! यह तेरा हाथ कैसा हुआा । अच्छा में फल (आशीवांद) देता हूँ। तू इसे पी लो (प्राप्त कर लो) ।॥४॥ उन्होंने जोवन का उपदेश कहा ।।

उन्होंने जो के लिए (जीवन सुधार के लिए) उपदेश दिया। विशाल (गुरु) आशीर्वाद से मेरे दोष और बुद्धि की प्यास समाप्त हो गई। मैंने शोक नहीं माना। धर्मधारण करके मुमिरन किया। में सचेत हो गया। तुम क्या बोलते हो, यही में तुमसे पूछता हूँ'।

सरहपा

(१) सरहपा (सिद्ध ६) इनके दूसरे नाम राहुलभद्र और सरोजवन भी है२। पूर्वदिशा में राशी नामक नगर में एक ब्राह्मण वंश में इनका जन्म हुआ था। भिक्षु होकर यह एक अच्छे परिडत हुए। नालन्दा में कितने ही वर्षों तक इन्होंने बास किया। पीछे इनका ध्यान मन्त्र-तन्त्र की ओर आकृष्ट हुआा और आप एक बारण (शर) बनानेवाले की कन्या को महामुद्रा बना कर किसी अरण्य में बास करने लगे। वहाँ यह भी शर (वाण)

१. इस पंक्ति का अर्थ मंदिग्ध है।

३. देखिए- 'पुरातत्व-निबन्धावली' नामक पुस्तक, १० १६७ से १७१; इंडियन प्रस

लिमिटेड, प्रयाग ।

३. वजयानांय योग की सहचरी योगिनी अथवा देनाटिज्म का माध्यम । 

बनाया करते थे, इसीलिए इनका नाम 'सरह' पढ़ गया। श्रीपर्वत में ही यह बहुधा रहा करते थे। सम्भव है, मन्त्रों की ओर इनकी प्रथम प्रवृत्ति वहीं हुई हो। शचरपाद (५) इनके प्रधान शिष्य थे। कोई तान्त्रिक नागार्जुन भी इनका शिष्य था। भोटिया 'तन्-जूर' में इनके बत्तीस अन्धों का अनुवाद मिलता है। ये सभी बज्रयान पर है। इनमें एक 'बुद्ध कपाल तन्त्र' की पंजिका 'ज्ञानवती' भी है। इनके निम्नलिखित काव्य-ग्रन्थ 'मगही' से 'भोटिया' में अनूदित हुए हैं:-

१. क-व दोहा (त०३ ४७-७) ।

२. कख दोहा टिप्पण (त० ४७-८)।

३. कायकोप अमृतवज्रगीति (त० ४७-६) ।

४. चित्तकोप अजवज्रगीति (त० १७-११) ।

५. डाकिनी-वज्रगुझगीति (त० ४८-१०६) ।

६. दोहा-कोष उपदेश गीति (त० ४७-५)

७. दोहा कोषगीति (त० ४६-६) ।

८. दोहाकोपगीति । तत्त्वपदेशशिखर (त० ४७-१७) ।

६. दोदा-कोप-गीतिका। भावनादृष्टिचर्याफल (त० ४८-५) ।

१०. दोहाकोप । वसन्ततिलक (त० ४८-११)

११. दोहाकोप-चर्यागीति (४७-४) ।

१२. दोहाकोप-महामुद्रोपदेश (त० ४७-१३) ।

१३. द्वादशोपदेश-गाथा (त० ४७-१५)

१४. महामुद्रोपदेशवज्रगुह्मगीति (त० ४८-१००) । १५. वाकू-कोपरुचिरत्वरवज्रगीति (त० ४७-१०)

१६. सरहगोतिका (त० ४८-१४, १५)

इनकी कुछ कविताओं को देखिए-

"जह मन पवन न संचरइ, रवि शशि नाह पवेश।

तहि बट चित्त विसाम करु, सरहे कहिअ उवेश ॥"

पश्डिअ सअल सत्थ

देहदि बसन्त न

तोवि खिलज भाइ हेंउ पण्डिअ

एक सभावे बिरहिअ, थिम्मलमइ परिवराण । पण्ण ।

अमणागमण तेन बिखविडअ ।

जो भयु सो निवा (? ब्याण) स्खलु 

धोरे ग्धरें इन्दमणि, जिमि उज्जो परम महासुद एम्बुकणे, दुहिच अशेष जीवन्तह जो नउ जरइ, गुरु उपन्‌सें बिमलमइ, सो करेइ । हरेइ । सो अजरामर होइ । पर धण्णा कोइ ।"

शबरपा

'शवरपा' (सिद्ध ५)--यह 'सरहपाद' के शिष्य थे। गौडेश्वर महाराज धर्मपाल (सन् ७६६-८०६ ई०) के कायस्थ (लेखक) 'लूइपा' इन्हीं के शिष्य थे। नागार्जुन को भी इनका गुरु कहा गया है; किन्तु यह शून्यवाद के आचार्य नागार्जुन नहीं हो सकते। यह अक्सर श्रीपर्वत में रहा करते थे। जान पड़ता है, शत्ररों या कोल-भीलों की भाँति रहन-सहन रखने के कारण इन्हें 'शवर-पाद' कहा जाने लगा। 'तन्-जुर' में इनके अनूदित ग्रन्थों की संख्या छन्दीस है, जो सभी छोटे ग्रन्थ हैं। पीछे दसवीं शताब्दी में भी एक 'शबरपा' हुए थे जो 'मैत्रीषा' या 'अवभूतीपा' के गुरु थे। इनकी भी पुस्तकें इनमें शामिल हैं। इनकी हिन्दी कविताएँ है:

१. चित्तगु‌ह्मगम्भीरार्थ - गीति (त० ४८-१०८८) ।

२. महामुद्राबज्रगीति (त०४७-२६) ।

३. शुन्यतादृष्टि (त० ४८-३६) ।

४. पडंगयोग (त० ४-२२) ।

५. सद्दजशंवरस्याधिष्ठान (त० १३-५) ।

६. सद्दजोपदेश स्वाधिष्ठान (त० १३-४) ।

चयां गीतों में इनके भी गीत मिलते हैं

राग बलाडि

ऊँच ऊँच पावत तिर्हि बसइ सवरी बाली। मोरंगि पीच्छ परहिण सबरी गिवत गुजरी माली ॥ध्रु०॥ उमन सबरो पागल शवरो मा कर गुली गुहाढा तोहोरि थिअ धरिणी ग्रामे सहज सुन्दारी ॥ ग्राग्गा तरुवर मोलिल रे गागात लागेली डाली। एकेली सबरी ए. वण हिण्ढद्द कर्णकुण्डलवज्रधारी ।। तिम्र धाउ खाट पडिला सयरो महासुखे सेजि छाइली सबरो भुजंग णइरामणि दारी पेहम राति पोहाइली ।। हिय तांबोला महासू हे कापूर खाइ । सून निरामणि कण्ठे लड्‌या महासूहे राति पोहाइ ।। गुरुवाक पु'जना विन्ध खिच मये बाणं ।

एके शर-सन्धानें चिन्धह-विन्धह परम उमत सबरो गरुआ सिवाएँ । रोपे ।। गिरिवर-मिहर-संघि पइसन्ते सबरो लोड़िव कहये ।।२८।।

इनके कुछ गांति-पद्य भी देखिए-

राग द्वो शाख

"नाद न विन्दु न रवि न शशि-मण्डल ।। चचि-राअ सहावे मूल ॥ध्रु०॥ उजु रे उजु छादि मा लेडु रे बंग। नियहि बोहिमा जाहु रे लोक ।। हाथेरे कान्काण मा लोड दापण। अपये आपा बुझनु निअ-मद्य ।। पार उआरे सोइ गजिइ । दुज्जण सांगे अवसरि जाइ ।। वाम दाहिण जो खाल विखला। सरह भाइ चपा उजुबाट भाइला ।।

राग भैरवी

"काअ थावदि खण्टि मण केबुआल । सद्गुरु बायो घर पतवाल ॥ध्रु०।। चीन थिर करि धहुरे नाही। अन उपाये पार या जई ।। नौवाही नौका टामुअ गुणे। मेलि मेल सहजें जाउ ण श्राएँ ।। वाट अमश्र म्नाण्टवि बलआ। भय उलोले पअयि बोलिआ ।। कुल लइ खरे सौन्ते उजाअ । सरह र भाइ गीं पमाएँ ।।

भूसुकु

भूसुकु (सिद्ध ४१) नालन्दा के पास के प्रदेश में, एक क्षत्रिय-वंश में पैदा हुए थे। भिक्षु बनकर नालन्दा में रहने लगे। उस समय नालन्दा के राजा (गौडेश्वर) देवपाल (८०६-८४६ ई० थे। कहते हैं, 'भूसुकु' का नाम शान्तिदेव भी था। इनकी विचित्र रहन-सहन को देखकर राजा देवपाल ने एक बार 'भूसुकुः' कह दिया और तभी से इनका नाम 'भूसुकु' पढ़ गया। शान्तिदेव के दर्शन-सम्बन्धी छः ग्रन्थ 'तन्-जुर' में मिलते हैं,

१. बौद्धगान-उ-दोहा 'चर्याचर्य विनिश्चय' ('चर्या-गोति' नाम ठीक ऊँचता है)। पाठ बहुत अशुद्ध है। यहाँ कहीं मात्रा के हस्व-दीर्घ करने से, वहीं संयुक्त वणों के घटाने- बढ़ाने से तथा कहीं-कहीं एकाध अक्षर छोड़ देने से छन्दोभंग दूर हो जायगा। जैसे-- पहली पंक्ति में 'रवि न शशि' के स्थान पर 'रवि-शशि', 'चचि-राम' के स्थान पर 'चीअ-राअ', 'कान्काया' के स्थानपर 'कंपण', 'आपा' के स्थान पर 'अध्या' ।

२. 'सरपाद' संस्कृत के भी कवि थे- "या सा संसारचक्र' विरचयति मनः सभियोगात्महेतोः । सा धीर्यस्य प्रसादाद्दिशति निजभुर्वस्वामिनो निष्प्रपंच (म्) तश्च प्रत्यात्मवेद्य समुदयति मुखं कल्पनाजालमुक्तम् । कुर्यात् तस्याकि प्रयुग्मं शिरसि सविनयं सद्‌गुरोः सर्वकाल (म्) और तंत्र पर तीन ग्रन्थ । भूसुकु के नाम से भी दो ग्रन्थ है, जिनमें एक 'चक्रसंबरतन्त्र' की टीका है। मागधी हिन्दी में लिस्ती इनकी 'सहजगीति' (त० ४८,१) भोटिया-भाषा में मिलती है'।

राग मल्लोही

"बाज गाय-पादी पॅउआ खाले बाहिउ, अदस बंगले क्लेश लुबिउ ॥भु० ।। आजि भूसु बंगाली २ भइली, खिश्व धरिणीं चण्डाली लेली ।। बहि जो पंचधाट ाइ दिबि संज्ञा गुठा, या जानमि चित्र मोर कहिं गइ पठा ।। सोण तरुच मोर किन्पि या धाकिउ, निअ परिवारे महासुहे थाकिउ ।। अढकोदि भण्डार मोर लइआ सेस, जीवन्ते मइलें नाहि विशेष ॥"

विरुपा

विरुपा (सिन्द्र ३) महाराज देवपाल (सन् ८०६-८४६ ई०) के देश 'त्रउर' (१) में इनका जन्म हुआ था। भिच्तु बनकर 'नालन्दा' विहार में पढ़ने लगे और यहाँ के अच्छे पण्डितों में हो गये। इन्होंने देवीकोट और श्रीपर्यंत आदि सिद्ध स्थानों की यात्रा की। भीरर्वत में इन्हें सिद्ध नागचोधि मिले। यह उनके शिष्य हो गये। पीछे नालन्दा में आकर जच इन्होंने देखा कि 'बिहार' में मद्य, स्त्री आदि सहजचर्या के लिए अत्यावश्यक वस्तुओं का व्यवहार नहीं किया जा सकता है, तब वहाँ से गंगा के घाट पर चले गये। वहाँ से फिर उड़ीसा गये। इनके शिष्यों में 'डोम्मिपा' (सि०४) और 'कण्हपा' थे। ये 'यमारितन्त्र' के ऋषि थे। 'तन्-जूर' में इनके तन्त्र-सम्बन्धी अठारह ग्रन्थ मिलते हैं, जिनमें ये ग्रन्थ मगद्दी में थे

१. अमृतसिद्धि (त० ४७-२७) ।

२. दोहाकोष (त० ४७-२४) ।

३. प-दोहाकोषगीति-कर्मचण्डालिका (त० ४८-४) ।

४. मार्गफलान्विताववादक (त० ४७-२५) ।

५. विरुपगीतिका (त० ४८-२६) ।

६. विरुपवज्रगीतिका (त० ४८-१६) ।

७. विरुपपदचतुरशीति (त० ४७-२३) ।

८. सुनिध्प्रपंचतत्त्वोपदेश (त० ४३-१००) ।

राग गबड़ा

"एक से शुण्डिनि दुह घरे सान्धश्र, श्रीभ्रण वाकला बारुणी बान्धा || भु७|| सहने विरकरी वारुणीसाम्चे, जें अजरामर होइ दिट कान्धे ।।

१. देखिए--पुरातत्यनियन्धावली, १० १७६ से १७७; इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग । १. बा. भट्टाचार्य ने लिखा है- "Tho Bag-Sum-Jon Zan-it is said that Santi

deva was a native of Saurashtra, but I am inclined to think that he belonged to Bengal. It is evident from his song आजु भूनु बंगाली

भइली (ibid)

३. 'पुरातरख-निबन्धावली', १० १७८ से १७६ 

दशमि दुआरत चिह्नन देखआ, आइल गराहक अपयो बहिश्रा ।। चउशठी घड़िये देट पसारा, पठ्ठल गराहक नाहि निसारा ।। एक स डुलो मरुई नाल, भवन्ति 'विरुआ' यिर करि चाल" ।।

डोम्भिपा

डोग्भिपा (सिद्ध ४) मगधदेश में क्षत्रिय-वंश में पैदा हुए। 'बीणापा' और 'विरुपा' दोनों ही इनके गुरु थे। लामा तारानाथ ने लिखा है कि यह 'विरुपा' के दस वर्ष बाद तथा 'बज्रघटापा' के दस वर्ष पूर्व सिद्ध हुए। यह 'हेवव्रतन्त्र' के अनुयायी थे। सिद्ध 'कर हप।' (१७) इनके भो शिष्य थे। 'तन्-जूर' में इकोस ग्रन्थ 'डोम्भिपाद' के नाम से मिलते हैं; किन्तु पीछे भी एक 'डोम्भिपा' हुए हैं। 'डोम्भिपा' के नाम के ये ग्रन्थ मिले हैं-

१. अक्षरद्विकोपदेश (त० ४८,६४) ।

२. डोम्बिगीतिका (त० ४८,२८) ।

३. नाडीविंदुद्वारे योगचर्या (त० ४८,६३) ।

राग धनसी

"गंगा जउना माफेरें बहइ नाई, तर्हि बुदिली मातर्गि पोआ लीले पार करेइ ॥ध्रु०॥ वाहतु डोम्बी बाहलो ढोग्बी याटत भइल उलारा, सद्गुरु पाच-पए जाइय पुणु जिणउरा ।। पाँच केडुआल पड़न्ते माँगें पिटत काच्छी बान्धी, गभखदुखोलें सिंचहु पाणी न पइसइ सान्धी ॥ चन्द सूज्ज दुइ चका सिठिसंहार पुलिन्दा, वाम दहिण दुइ माग न रेवड् बाहतु छन्दा ।। कचडी न लेइ बोदो न लेह सुच्छष्णे पार करेश, जो रथे चदिला वाहवाय जाइ कुलें कुले बुदइ" ।।

भिक्षावृत्ति' में इनका यह दोहा मिलता है-

'

"भु'जइ मअण सहावर कमइ सो सअल । मोभ ओधर्म करण्डिया, मारत काम सहाउ । अच्छउ अमखे जे पुनद्द, सो संसार-विमुक्क । मक्ष महेसरणारायणा, सक्ख असुद्ध सहाव ||"

कम्बलपाद

कम्बलपाद (सिद्ध ३०) श्रोडिबिश (उड़ीसा) के राजवंश में इनका जन्म हुआ। भिक्षु होकर लिपिटक के पण्डित बने। पीछे सिद्ध वज्रघंटापा (५२) के सत्संग में पड़े और उनके शिष्य हो गये। इनके गुरु सिद्धाचार्य 'वज्रघंटापाद' या 'वंटापाद' उड़ीसा में कई वर्ष रहे और उनके ही कारण उड़ीसा में वज्रयान का बहुत प्रचार हुआ। सिद्ध राजा 'इन्द्रभूति' इनके शिष्य थे। 'कम्बलपाद' बौद्ध दर्शन के भी पण्डित थे। 'प्रज्ञापारमिता'-दर्शन पर इनके चार ग्रन्थ भोटिया में मिलते हैं। इनके तन्त्र-ग्रन्थों की संख्या ग्यारह है, जिनमें निम्नांकित प्राचीन उड़िया या मगद्दी भाषा में थे-

१. असम्बन्ध-दृष्टि (त० ४८/३८) ।

२. असम्बन्ध दृष्टि (त० ४८/३६) ।

३. कम्बलगीतिका ( त० ४८/३०) ।

राग देवक्री

"सोने भरिती करुणा नावी, रुपा थोइ वाहतु कामलि गअण उबेसे, गली जाम बहु महिके उइ डावी ।। ५० ।। फाइसें ।॥ सुन्टि उपाड़ी मेलिलि काच्छि, वाहतु कामलि सद्‌गुरु पुच्छि ।। माँगत चन्हिले चउदिस चाहय, केड़ आत नहि के कि वाहव के पारअ ।। बामदाहिय चापो मिलि मिलि मागा, वाटत मिलिल महासुद संगा ||

कुक्कुरिपा

कुक्कुरिपा (सिद्ध ३४) कपिलवस्तु प्रदेशवाले क्षेत्र में, एक ब्राह्मणकुल में इनका जन्म हुआ था। 'मीनपा' (८) के गुरु 'चर्पटीपा' इनके भी गुरु थे। इनके शिष्य 'मणिभद्रा' चौरासी सिदधों में से एक (६५) है। 'पद्मवद्ध' भी इनके ही शिष्य थे। 'तन् जूर' में इनके सोलह ग्रन्थ मिलते है जिनमें निम्नलिखित हिन्दी के मालूम होते हैं- 'तत्त्व-सुख भावनानुसारियोगभावनोपदेश' (त० ४८८/६५) और 'सत्रपरिच्छेदन' (त० ४८/६६) ।

राग गबड़ा

"दुलि दुहिपिटाधरण न जाइ, रुखेर तेन्तलि कुम्भीरे खाअ || भु० ।। आंगन घरपण सुन भो विआती; कानेट चोरि निल अधराती || सुमुरा लिद गेलयहुडी जागा, कानेट चोरे निल का गइ मागश्र ।। दिवसइ बहुबी काड़इ डरे भाऊ, राति भइले कामरु जाअ ।। अइसन चर्याकुक्करीपाएँ गाइड, कोदि मज्में एंकुदि अहिं सनाइड ||

राग पटंजरी

"हांड निवासी खमण भतारे, मोहोर विगोश्राकहण न जाइ ॥ ४० ॥ फेट लिउ गो माए अन्त उड़ि चाहि, जा एथु बाहाम सो एभु नाहि ।। पहिल विआप मोर वासन पूद, नादि विआरन्ते सेव बापूदा (१) ।। जाण जौचण मोर भइ लेसि पूरा, मूल नखलि याप संघारा || भणथि कुक्कुरीपाये भब थिरा, जो एभु बुझाएँ सो एधु दौरा ।। हले सटि विश्व सिझ कमल पवाहिड वजें। अलललल हो महासुहेण आरोहिउ नृत्ये । रविकिरणेण पफुल्लिफ कमनु महामुद्देण । (अल) आरोहिउ नृत्यें ॥"

गोरखनाथ

गोरखनाथ की जीवनी के सम्बन्ध में 'नाथ सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ से हम कुछ उदूश्रण नीचे देते हैं। इस पुस्तक के १० ६६ में श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-

"विक्रम संवत् दसवीं शताब्दी में भारतवर्ष के महान् गुरु गोरखनाथ का आविभांव हुआ। शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली महिमान्वित महापुरुष भारतवर्ष में दुसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैं। भक्ति- आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का योगमार्ग ही था। भारतवर्ष की ऐसी कोई भाषा नहीं है, जिसमें गोरखनाथ-सम्बन्धी कहानियाँ नहीं पाई जाती हों। इन कहानियों में परस्पर ऐतिहासिक विरोध बहुत अधिक है; परन्तु फिर भी इनसे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे। इस महान् धर्म गुरु के विषय में ऐतिहासिक कही जाने लायक बातें बहुत कम रह गई है। ये मार्ग के महत्त्व-प्रचार के अतिरिक्त कोई विशेष प्रकाश नहीं देतीं।"

उनके जन्मस्थान का कोई निश्चित पता नहीं चलता। इस सम्बन्ध में डॉ० द्विवेदी लिखते हैं-

"ब्रक्स ने एक परम्परा का उल्लेख किया है जिसे ग्रियर्सन ने भी उद्धृत किया है। उसमें कहा गया है कि गोरखनाथ सत्युग में पंजाब में, त्रेता में गोरखपुर में, द्वापर में द्वारका के भी श्रागे हुरभुज में, और कलिकाल में काठियात्राद गोरखमढ़ी में प्रादुभूति हुए थे। बंगाल में विश्वास किया जाता है कि गोरखनाथ उसी प्रान्त में उत्पन्न हुए थे। नेपाली परम्पराओं से अनुमान होता है कि गोरखनाथ पंजाब से चलकर नेपाल गये थे। गोरखपुर के महन्त ने ब्रिग्स साहब को बताया था कि गुरु गोरखनाथ 'टिला' (झेलम पंजाब) से गोरखपुर आये थे। ग्रियर्सन ने इन्हें गोरखनाथ का सतीर्थ कहा है; परन्तु 'धरमनाथ' बहुत परवर्ती है। ग्रियर्सन ने कहा है कि गोरखनाथ संभवतः पश्चिमी हिमालय के रहनेवाले थे। इन्होंने नेपाल को आर्य अवलोकितेश्वर के प्रभाव से निकाल कर शैव बनाया था। मेरा अनुमान है कि गोरक्षनाथ निश्चित रूप से ब्राह्मण जाति से उत्पन्न हुए थे और ब्राह्मण वातावरण में हो बड़े हुए थे। उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भी शायद ही कभी बौद्ध साधक रहे हों।"

ये तो विद्वानों के मत है जो गोरखनाथ के जन्मस्थान के सम्बन्ध में है। परन्तु 'बड़थ्वाल' जी द्वारा सम्पादित 'गोरखधानी' नामक पुस्तक के १० २१२ में ध्यान तिलक' के १६ नम्बर का छन्द है:-

"पूरब देश पढ़ाहीं घाटी (जनम) लिख्या हमारा जोगं । गुरु हमारा नावंगर कहिए ये है भरम बिरोगं ॥

इस छन्द का अर्थ यद्यपि अध्यात्मपत्त में बढ़थ्वाल जी ने किया है; पर इसके प्रथम चरण से अर्थ निकलता है कि गोरखनाथ का जन्म पछाँद की घाटियों में हुआ और उनके जीवन का कार्य क्षेत्र पूरत्र देश बना। विद्वानों का ध्यान इस छन्द पर क्यों नहीं गया, यह आश्चर्य्य की बात है। इससे और मिड्स साइन की गोरखपुर के महन्त की बताई हुई बात से बिलकुल मेल भी खा जाता है।

'कल्याण' के 'योगांक' में गोरखनाथ जी का परिचय निम्नलिखित रूप में दिया गया है- 

एक बार गुरु मत्स्येन्द्रनाथ घूमते-फिरते अयोध्या के पास 'जयश्री' नामक नगर में गये। वहाँ वे भिक्षा माँगते हुए एक ब्राह्राण के घर पहुँचे। ब्राह्मणी ने बड़े आदर के साथ उनकी झोली में भिक्षा डाल दी। ब्राह्मणी के मुख पर पातिव्रत्य का अपूर्व तेज था। उसे देखकर मत्स्येन्द्रनाथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। परन्तु साथ ही उन्हें उस सती के चेहरे पर उदासी की एक क्षीण रेखा दिखाई पड़ी। जब उन्होंने इसका कारण पृछा तब उस सती ने निःसंकोच भाव से बताया कि सन्तान न होने से संसार फीका जान पड़ता है। मत्स्येन्द्रनाथ ने तुरत झोली से थोड़ी-सी भभूत निकाली और ब्राह्मणी के हाथ पर रखते हुए कहा- 'इसे खा लो। तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा।' इतना कह कर वे तो चले गये। इधर एक पड़ोसिन स्त्री ने जब यह बात सुनी तब ब्राह्मणी को भभूत खाने से मना कर दिया। फलस्वरूप उसने उस राख को एक गड्डु में फेंक दिया। बारह वर्ष बाद मत्स्येन्द्रनाथ उधर पुनः आये और उन्होंने उसके द्वार पर जाकर अलख जगाया। ब्राह्मणी के बाहर आने पर उन्होंने कहा कि अब तो बेटा बारह वर्ष का हो गया होगा, देखें तो वह कहाँ है ? यह सुनते ही वह स्त्री घत्ररा गई और उसने सारा हाल सच-सच कह दिया । मत्स्येन्द्रनाथ उसे साथ लेकर उस गट्टू के पास गये, और वहाँ भी अलख जगाया। आवाज सुनते हो बारह वर्ष का एक तेजपुञ्ज बालक प्रकट हुआ और मत्स्येन्द्र नाथ के चरणों पर सिर रखकर प्रणाम करने लगा। यही बालक श्रागे चलकर गोरख- नाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मत्स्येन्द्रनाथ ने उस समय से ही बालक को साथ रखा और योग की पूरी शिक्षा दी। गोरखनाथ ने गुरोपदिष्ट मार्ग से साधना पूरी की और स्वानुभव से योगमार्ग में और भी उन्नांत की। योगसाधन और वैराग्य में वे गुरु से भी आगे बढ़ गये । योगचल से उन्होंने चिरंजीव स्थिति को प्राप्त किया।

"गोरखनाथ केवल योगी ही नहीं थे, वरन् वे बड़े विद्वान् और कवि भी थे। उनके 'गोरक्ष सहस्र नाम', 'गोरक्षशतक', गोरक्ष पिष्टिका', 'गोरक्ष गीता', 'विवेक मार्तण्ड' आदि अनेक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में मिलते है। हिन्दी में भी उनकी बहुत-सी कविताएँ मिलती है।"

नेपाल के लोग श्रीगोरखनाथ को श्रीपशुपतिनाथ जी का अवतार मानते हैं। नेपाल के मोगमती, भातगाँव, मृगस्थली, श्रौंधरा, स्वारी कोट, पिडपन इत्यादि कई स्थानों में उनके योगाश्रम है। आज भी नेपाल राज्य की मुद्रा पर एक ओर श्री-श्री-श्री गोरखनाथ लिखा रहता है। गोरखनाथ जी के शिष्य होने के कारण ही नेपाली गोरखा कहलाते हैं। कहते हैं, गोरखपुर में उन्होंने तपस्या की थी। यहाँ उनका बहुत बड़ा मन्दिर है, जहाँ दूर-दूर से नेपाली आया करते हैं। गोडा जिले के 'पटेश्वरी' नामक स्थान में भी उनका योगाश्रम है तथा महाराष्ट्र प्रान्त में आठवें 'नागनाथ' के पास उनकी तपस्थली है।

डा० पीताम्बरदत्त चढ़थ्वाल के अनुसार गोरखनाथ विक्रम की ११वीं सदी में हुए थे। श्री रामचन्द्र शुक्क ने भी अपनी 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' पुस्तक में बढ़ी विवेचना फरके गोरखनाथ के समय के सञ्चन्ध में लिखा है, - "गोरखनाथ विक्रम की १०वीं सदी में हु५ दीं, चाहे १३वीं में।" राहुल सांकृत्यायनजी ने भी बज्रयानी सिद्धों की परपरा के बीच गोरखनाथ का समय विक्रम की दसवीं शताब्दी ही माना है।

"ययपि कुछ ऐसे भो साक्ष्य है, जिनके आधार पर गोरखनाथ का समय बहुत पीछे की ओर ले जाया जा सकता है, तथापि जचतक यथेष्ट प्रमाण न मिलें, इनका समय संवत् १०५० मानना ही अधिक उचित होगा। हिन्दी का जो प्राचीनतम रूप गोरख की बानियों में मिलता है, उससे भी यह समय ठीक ठहरता है।"

गोरखनाथ के चमत्कार के सम्बन्ध में सारे भारत में अनेकानेक कहानियाँ प्रसिद्ध है। एक कहानी के अनुसार "एक चार मत्स्येन्द्रनाथ सिइलद्वीप की रानी पद्यावती में आसक्त हो गये थे; किन्तु गोरक्षनाथ के प्रयत्न करने पर उनका उद्धार हुआ। हाल में ही म स्पेन्द्रनाथ की लिखी संस्कृत की किसी 'फौलीय' पुस्तक का पता चला है। इससे प्रतीत होता है कि उनके पतन का कारण 'कौलीय' प्रवृत्ति का बढ़ जाना था (जिससे गोरक्षनाथ ने ही उनकी रक्षा की)। गोरक्षनाथ ने कीलीय पद्धति को भलीभाँति देख लिया था, अतः उस ओर भूलकर भो दृष्टि-विक्षेप न किया। योगिराज गोरक्ष को अपनी सात्विक पद्धति पर कितना विश्वास था, यह नीचे के पद्य से स्पष्ट हो जाता है।

सबद हमारा परतर पांडा, रहणि हमारी सांची ।

लेपे लिखी न कागद्‌मा-डी, सो पक्षी हम बाँची ।" (गो० बानी) "पद्मावती में श्रायुक्त मत्स्येन्द्र को गोरख बार-बार सचेत करते हैं-

सुयाँ हो मछिंद्र गोरपत्रोले, अगम गर्वन कहूँ हेला । निरति करो मैं नीको सुग्रिज्यो, तुम्हें सतगुरु में बेला ।।" (गो० बानी)

महात्मा गोरखनाथ ने भोजपुरी में रचनाएँ की है, यह शुक्रजी, बढ़थ्वालजी और हजारीप्रसादजी तीनों ने स्वीकार किया है। शुक्ल जी ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' नामक पुस्तक में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है- "पहली चात है भाषा। सिद्धों की उद्धृत रचनाओं की भाषा देश-भाषा मिश्रित अपभ्रंश अर्थात् पुरानी हिन्दी की काव्य-भाषा है, यह तो स्पष्ट है। उन्होंने भरसक उसी सर्वमान्य व्यापक काव्य-भाषा में लिखा है, जो उस समय गुजरात, राजपुताने और ब्रजमंडल से लेकर बिहार तक लिखने-पढ़ने की शिष्ट भाषा भी। पर मगध में रहने के कारण उनकी भाषा में कुछ पूरबी प्रयोग भी (जैसे भइले, बूदिल) मिल हुए है।"

यहाँ इम कहना चाहते हैं कि शुक्लजो, पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा पश्चिम प्रदेश के अन्य विद्वानों ने जिसे पूरची प्रयोग कहा है, उसमें भोजपुरी के प्रयोग भी सम्मिलित है।

पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी अपनी विख्यात पुस्तक 'नाथ संम्प्रदाय' के १० ६८ में लिखा है- "उन्होंने (गोरखनाथ ने) लोकभाषा को भी अपने उपदेशों का माध्यम बनाया । यद्यपि उपलब्ध सामग्री से यह निर्णय करना बढ़ा कठिन है कि उनके नाम पर चलनेवाली लोक-भाषा की पुस्तकों में कौन-सी प्रामाणिक हैं और उनकी भाषा का विशुद्ध रूप क्या है, तथापि इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने अपने उपदेश लोक-भाषा में प्रचारित किये थे।"

डा० पीताम्बरदत्त बढ़वाल ने गोरखनाथ के ३६ हिन्दी-प्रन्थों को प्रमाणिक माना है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनसे सहमति प्रकट करते हुए लिखा है कि सूची के पूर्व के प्रथम चौदह ग्रन्थ, जिन्हें बढ़थ्वाल जी ने निस्संदिग्ध रूप से प्राचीन माना है, अवश्य प्राचीनतम प्रतियाँ है।

उक्त मन्थों की नामावली

१- सबदी।

२- पद ।

३- सिष्या दरसन ।

४- प्राण संकली।

५ नरवे वोध ।

६- आत्म रोध ।

७ श्रमैमात्रा योग ।

८- पंन्द्रइ तिथि ।

६- सप्तवार ।

१० मछिन्द्र गोरख बोध ।

११- रोमावली ।

१२- ग्यान तिलक ।

१३ ग्यान चीतीसा।

१४- गोरख गणेश गुष्टि ।

१५ गोरख दत्त गोडी (ग्यान दीप बोध)।

१६--महादेव गोरख गुष्टि ।

१७-सिष्ट पुरान ।

१८ दया बोध ।

१६- जाती मौरावली (छंद गोरख)।

२० नवग्रह ।

२१-नव रात्र।

२२- अ४ परिच्या ।

२३- रहरास ।

२४ पान माला ।

२५ श्रात्म बोध (२) ।

२६-बत ।

२७-निरंजन पुराण ।

२८ गोरख बचन ।

२६- इन्द्रो देवता ।

३० मूल गर्मावली।

३१ - खाणी वाणी।

३२- गोरख सत ।

३३- अष्ट मुद्रा ।

३४- चौचीस सिधि ।

३५- षडक्षरी ।

३६- पंच अग्नि ।

३७-८ष्ट चक्र ।

३८ अवली खिलक ।

३६- काफिर बोध ।

'गोरखवानो' में उद्धृत सभी छन्द इन्हीं पुस्तकों के छन्द हैं, जिनके पाठ को बड़थ्वाल ज

ने दस इत्तत्त्रिखित पुस्तकों से लिया है। मैंने जच उन छन्दों का अध्ययन किया और

भाषा की जाँच की तत्र मोजपुरी भाषा की बहुत-सी कविताएँ मिलीं। अनेक कविताएँ तो

मुद्दावरे और प्रयोग तथा क्रिया की दृष्टि से विशुद्ध भोजपुरी की है और अधिक में उस

समय के अपन्न श के शब्द, जैसा कि शुक्रजी ने लिखा है, भोजपुरी क्रियाओं तथा मुहावरों

के साथ व्यवहुत हैं। मैंने उन्हीं पाठों के साथ गोरखनाथ की भोजपुरी रचनाएँ यहाँ उबूत

की हैं, जिनसे पता लग सके कि आज से दस सौ वर्ष पूर्व मोजपुरी का क्या रूप था ? 

नीचे की सरणी से स्पष्ट हो जायगा कि 'गोरखबानी' में दिये हुए गोरखनाथ जी के ग्रन्थों में भोजपुरी के छन्द कितनी मात्रा में हैं। इन भोजपुरीवाले सभी छन्दों की भाषा को भी हम सर्वत्र केवल भोजपुरी ही नहीं मान सकते। इनमें अधिकांश शब्द तो भोजपुरी, के हैं; किन्तु कुछ ऐसे छन्द भी हैं, जिनकी भाषा मिश्रित कही जायगी, फिर भी भोजपुरी क्रिया होने के कारण उनकी गणना भोजपुरी छन्द में कर ली गई है।

संख्या छन्द

नाम पुस्तक

भोजपुरी भाषा के छन्दों की संख्या

१- सचदी

२७५

४६

२- पद

६२

२०

३- शिष्या दरसन

३१ (पंक्तियाँ)

७ (पंक्तियाँ)

४- आत्म बोध

२२

५- नरवे शेभ

१४

६- सप्तवार

१२७

७- मछिन्द्र गोरव बोध

१०

८-रोमावली

५५. (पंक्तियाँ)

६ग्यान तिलक

४५

१०- पंच मात्रा

२४

११- गोरष गणेश गुष्टि

५२

'गोरखवानी' के लेखक ने जिन विभिन्न पुरानो पाण्डुलिपियों में छन्दों के जितने भी

पाठ पाये हैं, उनके उदाहरण बर्ण-चिह्नों आदि के अनुसार अपनी पुस्तक के फुटनोट में इर

भेद बाले पाठ के साथ दे दिये हैं। उसी क्रम का पालन 'गोरखबानी' से गोरक्षनाथ के

छन्दों का उद्धरण करते समय भी किया गया है। पाण्डुलिपियों का सांकेतिक वर्ण-चिह

के लिए जो सरणो बढ़थ्वाल जी ने दी है, उसको यहाँ इसलिए उद्धृत कर दिया जाता

है। उसकी सहायता से पाठक उद्धृत पाठ भेद को समझ सकेंगे। (क) 'प्रतिपौदी इस्तलेख' गढ़वाल के पंडित तारादत्त गैरोला को जयपुर से प्राप्त हुआ था। इसके चार विभाग है। समय संवत् १७१५ के आसपास होना चाहिए। (ख) जोधपुर दरबार पुस्तकालय की प्रति। जोधपुर के पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष

पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊ ने इसकी नकल कराकर भेजने की कृपा की। परन्तु इसमें गोरखनाथ की रचनाओं में केवल 'सबंदियाँ' आई है।

(ग) यह प्रति मुझे जोधपुर के श्रीगजराज ओझा से उपलब्ध हुई। लिपिकाल इसका भी शात नहीं।

(घ) यह प्रति मुझे जोधपुर के कवि भी 'शुभकरण चरण' से प्रात हुई। यह बृहत् संग्रह-ग्रन्थ है जिसे एक निरंजनी साधु ने प्रस्तुत किया। यह प्रति संवत् १८२५ में लिखी गई थो।

(ङ) मंदिर बाया हरिदास, नारनौल, राज्य पटियाला में है और कार्तिक शुदी अष्टमी गुरुवार १७६४ को लिखी गई है। 

(च) यह प्रति श्रीपुरोहित हरिनारायणजी, बी० ए०, जयपुर के पास है। इसमें बहुत-से अन्य है। प्रति का लिपिकाल पुस्तिका में इस प्रकार दिया है-

संवत् १७१५ वर्षे शाके १५८० महामंगलीक फाल्गुन मासे शुक्र पच्चे त्रयोदस्यां तिथौ १३ गुरुवासरे: हिंडपुर मध्येस्वामी पिराग दास जी शिष्य स्वामी माधोदास जी तत्शिध्य वृन्दावनेनालेखि आत्मार्थे ।

(छ) यह प्रति भी पुरोहित जी के पास है। यह भी संग्रह-प्रन्ध बढ़ा है। रजच जी की साखो की समाप्ति के बाद जो योगियों की बानी के कुछ पीछे आती है, लिपिकाल में यो दिया है-

संवत् १७४१ जेठ मासे ।। पावर बारे ॥ तिथिता ॥८॥ दीन ५ मैं लिपि पति त्यामी सांई दास की सु लिपि ।।

(ज) यह प्रति भी उक्त पुरोहित जी के पास है और सं० १८५५ की लिखी है। (क) इस प्रति की नकल एक महत्त्वपूर्ण सूत्र के द्वारा कराई गई है।

इनके अतिरिक्त इन योगियों की रचनाओं के एक संस्कृत-अनुवाद की इस्तलिखित प्रति मिलती है, जो सरस्वती-भवन, काशी में है। इसमें लिपिकाल नहीं दिया गया है और श्रारंभ का कुछ अंश नहीं है।

'गोरखचानी' के भोजपुरी छन्द

सबदी

हसिबा बेलिबा रहिया रंग। कांम क्रोध न करिया संग ॥

हसिया बेलिया गाड्या गीत। दिव३ करि रापिया आपां चीत ॥ १०-३। हँसूँगा, खेलू गा, मर्यंत रहूँगा; किंतु कभी काम, क्रोध का साथ न करूंगा। हँसू गा, खेलू गा और गत भी गाऊँगा; किंतु अपने चित्त को दृढ करके रखूँगा।

हसिवा पेलिया धरिया ज्यांन। अहनिसि कथिवा ब्रह्म गियान ।

हसे बेलै न करें मन भंग। ते निहचल सदा नाय के संग ।। पृ०-४।

ईयूँगा, खेलूँगा और ध्यान धारणा करूँगा। रात-दिन ब्रा-ज्ञान का कथन करूँगा।

इसी प्रकार (संयमपूर्वक) हँसते खेलते हुए जो अपने मन को भंग नहीं करते, वे निश्चल होकर बढ़ा के साथ रमण करते हैं अथवा निश्वित रूप से मेरे साथ रह सकते हैं।

गगन' मंडल में कंधा कूवा, तहाँ अंसृत का बासा । सगुरा होइ सु भरि भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा ॥२॥ १०६ ।

श्राकाशमंडल (शून्य अथवा ब्रझरंभ) में एक अधि मुँह का कुँआ है, जिसमें श्रमृत का वास है। जिसने अच्छे गुरु की शरण ली है, वहो उसमें से भर-भर कर अमृत पी सकता है। जिसने किसी अच्छे गुरु को धारण नहीं किया, वह इस अमृत का पान नहीं प.र सकता, यह प्यासा ही रह जायगा ।। 

हयफि' न बोलिया, इयफि न चलिया धीर र घरिया पार्व । गरब न करिया सहजै रहिया मणत गोरष रावं ॥ ५०-११ ।

सत्र व्यवहार युक्त होने चाहिए, सोच-समझकर काम करना चाहिए। अचानक फट से बोल नहीं उठना चाहिए। जोर से पाँच पटकते हुए नहीं चलना चाहिए। धीरे-धीरे पाँच रखना चाहिए। गर्व नहीं करना चाहिए। सहज स्वाभाविक स्थिति में रहना चाहिए।

यह गोरखनाथ का उपदेश (कथन) है। धाये न पाध्या भूपे७न भरिया अहनिसि लेबा ब्रह्म अगनि का मेवं ।

हट नः करिया पदया न रहिया यूँ बोल्या गोरष देवं १२ ॥ भोजन पर इट नहीं पहना चाहिए (अधिक नहीं खाना चाहिए), न भूखे ही मरना चाहिए। रात-दिन ब्रह्माग्नि को ग्रहण करना चाहिए। शरीर के साथ इठ नहीं करना चाहिए और न पड़ा ही रहना चाहिए।

दपिका जोगी रंगा, पूरी १४ जोगी बादी। पड़मी जोगी वाला भोला, सिध जोगी उत्तराधी ॥ पृ०-१६ ।

योग-सिद्ध के लिए उत्तराखंड का महत्य ४१-४२ मर्यादयों में कहा गया है। स्वयं गोरखनाथ ने हिमालय की कंदराओं में योग-साधन किया था, ऐसा जान पड़ता है। कहते हे दक्षिणी रंगी होता है और पुरची-प्रकृति का होता है। पश्चिमी योगी भोलाभाला स्वभाव का तथा उत्तराखंड का योगी सिद्ध होता है।

अवधू दमको गहिया उनमनि रहिया, ज्यू गगन मंडल में तेज चसंके, चंद बाजया अनहद तूरं । नहीं तहाँ सारं ।। सास उमास वाइ २० की भपिया २१ से.कि लेहु२२ नव द्वार ।

छुटै छुमामि काया पलटिया २३, तब उनमॅनी जोग अपारं ।। ५०-१६ । हे अवधृत, दम (प्राण वास को पकड़ना चाहिए, प्राणायाम के द्वारा उसे वश में करना चाहिए। इससे उन्मनावस्था सिद्ध होगी। अनाहत नाद रूपो तुरी बज उठेगी और ब्रह्मरंध्र में विना सूर्य या चंद्रमा के (ब्रद्म का) प्रकाश चमक उठेगा ॥ (केवल कुम्भक द्वारा) श्वासोच्छ्यास का भक्षण करो। नवी द्वारों को रोको। छठे झुमासे कायाकल्प के द्वारा काया को नवीन करो। तब उन्मन योग सिद्ध होगा ।।

१. (ख), (ग), (घ) हबने- उनके । २. (ग) धीरा (घ) धीरे। ३. (ख) सहजै (ग) सहिजे। ४. (ख) यूँ भात, (ग) यी बोल्या । ५. (ख) धावे । (ख), (घ) षायया। (ग), (घ) भूषा । ८. (ग), (घ) रहिबा । ३. (क) अइनिस, (ख) अहिनिसि । १० (ख) लेड्मा । ११. (क) पत्रे (ख) पৰि। १२. (घ) रावं । १२. (क) दल्लिराणी, (ख), (घ) दिषी। १४. (), (ग), (घ) पुरब-पछिम। १५. (ख), (ग), (घ) दमकू। १६. (क) उनमन (घ) उनमन्य। १७. (ग), (घ) तब । १८० (क्ष) जोति । १६. (क), (ख), (ग) चमकै । २०० (ग), (घ) बाय । २१० (क) मदिना। २२० (ख) लेबा, (ग) लै, (घ) लेह । २३. (ग) (घ) पलटै । 

बड़े बड़े कूले मोटे मोटे पेट, रै पूता गुरु सौंउ भेट । पद पबकाया निरमल नेत भई रे पत्ता गुरु सी भेट || १०९ गो० बा०, ५० ३८

जिनके बड़े-बड़े कूल्हे और मोटी तोंद होती है, ( उन्हें योग की युक्ति नहीं आती। समझना चाहिए कि उन्हें गुरु से भेंट नहीं हुई है। या तो उन्हें अच्छा योगी गुरु मिला ही नहीं है अथवा गुरु के शरीर के दर्शन होने पर भी उसकी वास्तविकता को उन्होंने नहीं पहचाना है, उनकी शिक्षा से लाभ नहीं उठा पाया है, वे उसके अधिकारी नहीं हुए है। यदि (साधक का) शरीर खद खद (चरची के बोझ से मुक्त है और उसके नासा-रंध्र निर्मल अथवा उसकी आँखें (नेत्र) निर्मल, कांतिमय है तो (समझना चाहिए कि उसकी ) गुरु से भेंट हो गई है; नेत= (१) मंथन को डोरी। इसो से नेति किया का नाम बना है। इस क्रिया में नासारंध्रों में डोरी (नेत) का उपयोग होता है, इस लिए साइचर्य से नासारंभ अर्थ भी सिद्ध होता है। (२) आँख ।।

एकटी. विकुटी त्रिकुटी संधि पछिम द्वारे पमनां बंधि ।

पूटै तेल न बूझै दीया बोलेनाथ निरन्तरि हुवा । १८७ गो० बा० पृ० ३८ एकटी (पहलज, इडा) और बिकुरी (दूसरी, पिंगला) का जब त्रिकुटी (तीसरी सुषुम्ना) में मेल होता है और सुषुम्ना-मार्ग में जब पवन का निरोध हो जाता है तब साधक अमर हो जाता है। उसका श्रायु रूप तेल समाप्त नहीं होता और जीवन रूपो शिखा बुझती नहीं

है। इस प्रकार नाथ कहते हैं कि साधक निरन्तर अर्थात् नित्यस्वरूप हो जाता है। एक = स्वार्थे टा (स्त्री० ई) उपसर्ग के लगने से एकटी शब्द सिद्ध हुश्श्रा है। इसके अनुकरण पर द्वि से त्रिकुटी और त्रि से त्रिकुटी शब्द बने हैं। त्रिकुडी भी अभिप्रोत है ।। राग रामश्री

छाँट तजी गुरु छाँट तजी तजौ लोभ मोह आत्मां परचै रापी गुरुदेव कांन्हीं पावर भेटीला गुरु सुन्दर काया बधान से। तायें में पाइला गुरु, तुम्हारा उपदेसें अंत कडू १२ कयीला गुरु, सर्वेभेला सर्व १४ रस पोइला गुरु, बाघनी से माया । ॥ टेक ॥ ॥१॥ भोले । पोलै ॥२॥

१. (ग) बर्ष बर्ष १० (ख) (ग) (घ) कूला। यह सबदी (ग) (घ) में कुछ अंतर के साथ है। (ग) में इस प्रकार है। यसै यदै कूला असधूल, जोग जुगति का मूल ।

खाया भात फुलवा या पेट, नहीं रे पुता गुर धयौं भेट || ३. (ग्व) स्यूं (ग) स्यौं (प) । ४० (ख) नेत्र । ५. ख) दोइ रै, (प) हुई है। ६. (घ) में नहीं। ७. (प) अरु । (प) गुरुदेव राषो । ६० (घ कांन्ही पान। १०. (घ) विद्याघ्र से । ११. उपदेसं । १२० (प) येता काय । १३० (घ) सरब मला । १४० (प) सरब । १५० (घ) बाघणी के, (प) बापणी। 

नाचत गोरपनाय घूघरी, सबै कमाई पोई गुरु, बाघनी से रस कुस यदि गईला, रहि गई भणत मदिनाथ पूता, जोग न बातें । रार्थ ॥३॥ छोई। होई ॥४॥ रस-कुसर बहि गईला रहि गईला सार ।

बदंत गोरपनाथ गुर जोग अपार ॥५॥

आदिनाथ नाती मविन्दनाथ पूता ॥

पटपदी भणीले गोरष अवधूता ॥६॥ ५०-८७ । हे गुरु, लोभ और माया को (छाँटे) अलग से अर्थात् बिना स्पर्श किये हुए छोड़ दो। हे गुरुदेव, आत्मा का परिचय रक्खी जिससे यद सुन्दर काया रह जाय, नष्ट न हो। विद्यानगर के (या से आए हुए) कान्क्ष्पाद से भेंट हुई थी। उसी से आपकी इस दशा का पता लगा कि आप काििनयों के जाल में पड़े हुए है। (गुरु संबंधी होने के कारण कान्हपाद के कहे हुए संदेश को 'उपदेश' कहा है।) यह जो कुछ कहा है, अर्थात् आपका पतन भ्रम के कारण हुआ है। आपने अमृत रस को बाघनी (माया) की गोद में (पोले, कोरै कोद में) खो दिया है। गोरख कहते हैं कि बावनी (माया) के धू परु के बजने के स्वर के साथ ताल मिला कर नाचते हुए माया के प्रेम (राचे) से हे गुरु, तुमने अपनी सारी आध्यात्मिक कमाई खो डाली है। रस कुस-तरल पदार्थ । छोई संभवतः राख । निस्सार वस्तु । गढ़वाल में कपड़े धोने

के लिये 'छोई' बनाई जाती थी। वहाँ 'छोई' राख को पानो में मिलाकर विधि विशेष से छानकर निकाले पानी को कहते है। यहाँ उसका उलटा अर्थ जान पड़ता है। तुम्हारा रस बह गया । सीठी शरीर में बच रही है। मांछन्द्रनाथ पुत्र कहता है कि गुरु, तुमसे अब योग न होगा । तुम्हारा रस कुस बह गया। सार रह गया। गोरखनाथ कहते हैं कि हे गुरु, योग-विद्या अपार विद्या है। सारांश यह है कि कुछ वस्तुएँ ऐसी होती है जिनमें बहन या नष्ट हो जानेवाले अंश के साथ तत्त्व पदार्थ निकल जाता है, कुछ ऐसी जिनमें उस अंश के निकल जाने के बाद भी तत्व वस्तु बनी रहती है। ऐसे ही, कुछ मतों में सार वस्तु का प्रण न होकर बाहरी अनावश्यक बालो का मदण होता है, और दूसरों में केवल सार तत्व का ग्रहण होता है, बाहो अनावश्यक बातों का नहीं। योग मत इसी दूसरे प्रकार का है।

चाल्योरे पांचों भाइला तेणें बन जाइला जहाँ दुप सुप नांव न जानिये ॥ टेक ॥ चेती करो बनिज करों तो मेह बिन १२ सुकै तौ पूंजी लूटै ॥१॥

१. हायें। २. (प) रसक्स । ३. (प) गई ल्यो । ४. (घ) मछिद्र गोरष । ५. (घ) भणीली । ६. (घ) श्रधूता। ७. (प) चाली। ८ (१) भायला ६ (घ) तिहि बनि जायला । १०, (घ) जाणीयला। ११. (घ) कह। १२. (ঘ) বিব্য। 

अस्त्री करौं तो घर भंग हूँला। मित्र करी ती बिसहर मैला ॥२॥ जुवटै पेली तौ वैटडी हारी। चोरि करी तौ यंडड़ो मारों ॥३॥ बन पड जांऊं ती बिरछ न फलना नगरी में जाऊँ तो मिष्टं न मिलना ॥४॥ बौल्या गोरष नाथ मछिद्र का पूता । छादिनं माया भया अवधूत। ॥५॥ १०-९४ । भाइयो, (पंचेंद्रियो) चलो उस बन को जायें जहाँ सुख-दुःख का नाम भी

हे पाँचर्चा

नहीं जाना जाता। (यहाँ तो सब सुख दुःख में परिणत हो जाते हैं।) बिसहर - विषधर, साँप । यदि खेती करता हूँ तो चिना जल के सूखने लगती है। बाणिज्य करता हूँ तो उसमें नीयत ठीक न होने के कारण पूँजी ही डूब जाती है। अस्त्र ग्रहण करके युद्ध करता है तो यह सब अपना ही घर रूपी संसार भंग हो जाता है। यदि इस दुनिया में किसी को मित्र बनाता हैं तो वह विपधर साँप हो जाता है। युवती के संग खेलता हूँ तो सब कुछ हार बैठता हूँ। चोरी करता हूँ तो मार से गिर पड़ता हूँ। यदि बन में जाता हूँ तो कोई फलने बाले वृक्ष नहीं कि भोजन मिले। नगर में जाऊँ तो भिक्षा नहीं मिलती। मछिन्द्र पुत्र गोरख कहते हैं कि माया त्याग कर मैंने अवधूत बनना ही उचित समझा जिसमें पंचेन्द्रिय की विजय प्राप्ति के बाद सुख-दुःख का नामोनिशान नहीं है।

अवभू जाप जी" जपमाली १२ चीन्होंजाप जो फल होई । अजपा जाप जीला गोरप, न्हत बिरला कोई ॥टेक॥ कवल बदन काया करि१७ कंचन, चेतनि करो' जपसाली । अनेक जनम मां२० पातिंग छूटे २१, जपंत २२ गोरप चवाली २३ ॥१॥ एक अपीरी २४ एर्ककार अपीला २५, सुनि अस्थूल २५, दोइ २७ वांर्णी । फ्रेंड ब्रह्मांड२८ समि तुलि ब्यापीले २१, एक अपिरी हम ३० गुरमुषि जांखीं ॥२॥ हूँ३१ अपिरी दोइ पष उधारीला ३२, निराकार ३३ जाएं जपियो । जे जाप सकल सिष्टि उत्तपनां, तें जाप श्री गोरपनाथ कचियां ॥३॥

१. (१) असत्री । २. (घ) होयला। ३. (घ) जूवा षेलू । ४. (घ) हारू । ५. (घ) पिंडकी पारु। ६. (घ) पढि । ७ (१) फलणां । ८. (घ) आऊँ । ३ (घ) मिलणां । १०. (घ) श्रीधृता । ११. जयौ । १२. बनमाली । १३. तिने जाप । १४. में 'अजपा' के स्थान प्र 'जैसा जाप अपंता' । १५० चीन्हे । १६. कंवल। १७. भई। १८. कंचनरे अवधू । १६० चेतन कीया। २०० जन्म का। २१० छूटा। २२. जपै। ३३. चमाली । २४. अक्षर । २५. जीले । २६. धूल । २७. दोय । २८. पिंड ३ श्राद । २६. व्यापीला। ३०. उभारिले । ३३० में निराकार आप जवंतां । गोरष भागा भरम एकअक्षर गोरखनाथ। ३१० दोय अक्षर । ३२० कथिया' के स्थान पर तिरला में पारं। ऐसा बिकारं । 

दूयक्षरी जप यह है कि हमने निराकार का जप करते हुए इदलोक और परलोक, निर्गुण और सगुण, सूक्ष्म और स्थूल दोनों पक्षों का उद्धार किया है। इस प्रकार जिस जप से सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है, उसी का कथन 'गोरखनाथ' ने किया है। बाढी ।

पवनां रे तू जासी जोगी अजपा जपै त्रिवेणी के घाटी ॥ टेक ॥ चंदा गोटा टीका करिलै, सूरा करिलै बाटी । गू'नी राजा लुगा धौवै, गंग जमुन की घाटी ॥१॥ कारयें उरधैं लाइले कूचो, थिर होवै मन वहाँ थाकीले पवनों । दसवां द्वार चीन्हिले, छूटे आया गवर्ना ॥२॥ भणत गोरपनाथ मर्दिद्र ना पूता, जाति हमारी तेली । पीड़ी गोटा कादि लोया, पवन पलि दीयां शैली ॥३॥ पृ०-११६।

अधः और ऊर्ध्व ( निःश्वास और प्रश्वास) दोनों की ताली लगाकर (केवल कुम्भक के द्वारा) मन स्थिर होता है और पवन थक जाता है। दशम द्वार में परमात्मा का परिचय प्राप्त करने से आवागमन छूट जाता है। मछन्दर का पुत्र शिष्य गोरखनाथ कहता है कि हम तेली है। गोटा ( तिलों का पिंडा) पेर कर के (तेल अर्थात् आत्मतत्व) इमने निकाल लिया है और पवन रूप खली को फेंक दिया है ।।

सति सति भापत श्री गोरष जोगी, अमे२ तौ रहिया रंगै । अलेप पुरिस जिनि गुर-मुपि चीन्ह्यां रहिया तिसकै सतजुग मधे जुग एक रचीला, मिसहर एक ग्यांन बिहूणां गख गंधप अवधू, सब ही इसि बसि श्रेता जुग मधे जुग दोइ रचीला, राम रमाईण नर बंदर सब लदि-लबि मुये तिन भीत ग्यांन न संगै ॥ टेक ॥ निपाया । पाया ॥१॥ कीन्हां । चीन्हो ॥२॥ द्वापर जुगमधे जुग तीनि रचीले, बहु डम्बर बहु भारं । कैरों पांडों लड़ि-लबि मुये नारद कीया कलिजुग मधे जुग चारि रचीला, चूकिला चार घरि घरि दंदी घरि घरि बादी, घरि घरि कथण चौहू जुग मधे जुग चारि थापिला, ग्यांन निरालंब संघारं ॥३॥ विचारं । हारं ||४|| रहिया ।

मछींद्र प्रसादै जती गोरष बोल्या, कोई बिरला पार उत्तरिया ||५|| १०-१२३ । • श्रीगोरखनाथ जोगी सत्य-सत्य कहते हैं कि हम तो (अपने) रंग में मस्त रहते हैं। जिन्होंने गुरु-मुख-शिक्षा के द्वारा अलक्ष्य पुरुष (ब्रह्म) को पहचाना है, उन्हीं के साथ रहना चाहिए । अनेक क्रियावाचक शब्द भोजपुरी के इनमें स्पष्ट हैं। 

कर्ता ने चारों युगों के लिए अलग-अलग विशेषताएँ बनाई। एक, दो और तीन क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे के लिए प्रयुक्त हुए हैं।

मन लगा कर ऐसा जाप जपो कि 'सोहूं' 'सोहूं' की वाणी के उपयोग के चिन अजपा गान (अजपा जाप) हो जाय। निगुरा रहिला ।

गुर

कीजै गरिला

गुर बिन' ग्यान म

पायला ३२

भाईला || टेक ॥

वृद्ध भोया कोइला कागा कंडै पहुप उजला उ माल हँसला न होइला । न भैला ॥१॥ अभाजै सो रोटली कागा जाइला । पूछी म्हारागुरु नै कहाँ सिपाइला'" ॥२॥ उत्तर दिस आविला १२, पछिम दिस जाइलाउ, पूछौ म्मारा सतगुरु नै१४, विहाँ बैसि पाइला ॥३॥ चोटी केरा नेत्र (सेत)" मैं गज्येंद्र समाइला । गावही के१८ सुष मैं बाघला बिवाइला ॥४॥ बाहें बरसे गंक ब्याई, हाय पाव टूटा।

बदंत गोरखनाथ मचिव ना पूता ॥२॥ ५०-१२८ । हे अहिल गुरु धारण करो, निगुरे न रहो। हे भाई, बिना गुरु के ज्ञान नहीं प्राप्त होता। दूध से धोने पर भी कोयला उज्ज्वल नहीं होता। कौए के गले में फूलों की माला पहनाने से यह इंस नहीं हो जाता। गइलामहिल, जो व्याधि, भूत-बाधा या मानसिक विकार से ग्रस्त हो । यहाँ मानसिक विकार से ग्रस्त होने से मूर्ख कहा गया है। तुलना कीजिए, गढ़वाली भाषा का 'गयेल' और भोजपुरी के 'गईल' -उपेक्षा, असावधानी और उदासीनता को एक साथ भावना प्रकट करता है।

कौआ (जीव) बेतोड़ी-सी (संपूर्ण) रोटी (आध्यात्मिक परिपूर्णता) ले जाता है। स्वांतरस्थ गुरु से पूछो कि वह उसे कहाँ बैठकर खाता है। (आभा जैसी श्रविभक्त-सी)।

यह उत्तरदिशा (ब्रह्मपद, ब्रारंभ) से आया है (बस उसका मूल वा अधिष्ठान है) और पश्चिम दिशा ( सुषुम्णा मार्ग) से वह जायगा (अर्थात् पुनः ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करेगा)। बहाँ बैठकर, जहाँ यह मार्ग ले जाता है, बारंभ में वह उस रोटी (ब्रह्मानुभूति) का भोग करता है। 

इस प्रकार चींटी की आँखों में गजेन्द्र समा जाता है। (अर्थात् सूक्ष्म आध्यात्मिक स्वरूप में स्थूल भौतिक रूप समा गया। गाय के मुँह में बाधिन बिया जाती है अर्थात् इसी भौतिक जीवन में उसको नाश करनेवाला आध्यात्मिक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है।

बारह वर्ष में बाँझ ब्याई है; पर इस प्रसूति में उसके हाथ-पाँव टूट गये है वह निकम्मी हो गई है। यह मछन्दर के शिष्य गोरखनाथ का कथन है। मायिक जीवन निष्फल होता है, इसलिए उसे बाँझ कहा गया है। परन्तु बढ़ी साधना के अनन्तर इसी मायिक जोवन में शान की भी उत्पत्ति हो जाती है, यही बाँझ का वियाना है। जब शानोदय हो जाता है, तब माया शक्ति-हीन हो जाती है, यद्दी उसके हाथ-पाँव टूटना है।

कैसे बोली पंडिता देव कॉनै ठोई निज तत निहारतों अम्हें तुम्हे २ नाहीं ॥टेक ||

पपाणची देवली पांय चा देव ।

पाँण पूजिला कैसे फीटीला सनेह ॥१॥

सरजीच तेहिला निरजीव पूजीला पाप ची करणी पार कैसे उत्तरीला ॥२॥

तीरथि तीरथि सांन करीला ।

बाहर धोये कैसे भीतरि भेदीला ।।३।। आदिनाथ नाती मछींद्रनाथ पूता

निज तत निहारै गोरष अवधूता ||४।। ५०-१३11 हे पंडितो, कैसे बताऊँ कि देवता किस स्थान में रहता है ? निज तत्त्व को देख लेने पर इम और तुम नहीं रह जाते (सब एक हो जाते हैं, मेद मिट जाता है)। पत्थर के देवता की प्रतिष्ठा ( करते हो)। (तुम्हारे लिए) स्नेह (दया) का प्रस्फोट कैसे हो सकता है ! (पत्थर का देवता कहीं पसीज सकता है !)

तुम सजीव फूल-पत्तियों को तोड़ कर निर्जीव मूत्ति को पूजते हो। इस प्रकार पाप की करनी (कृत्यों) से दुस्तर संसार को कैसे तर सकते हो । तीर्थ में स्नान करते हो। बाहर धोने से भीतर प्रवेश कर जल आत्मा को कैसे निर्मल कर सकता है ? (पानी तो केवल शरीर को निर्मल बनाता है।) आदिनाथ का नाती-शिष्य और मछन्दरनाथ का पुत्रः शिष्य गोरख निज तत्त्व (आत्मा) का दर्शन करता है। 

पूरय देश पछांही घाटी ( जनम) लिष्या हमारा जोगं । गुरु हमार। नांवगर कहीए, मेटे भरम बिरोगं ||१९|| १०-२१२ ।

पन्द्रह तिथि चौ‌सि चौदह रतन विचार। काल बिकाल आबता निवारि । झाएँर आप देपी पर तारि। उत्तपति परले ३ काया मंझारि ॥१५॥ १०-१८३ ।

भतृहरि

'भतृ'हरि' या 'भरथरी' गोरक्षनाथ के शिष्य कहे जाते हैं। इनका चलाया वैराग्य पंथ है। इनके सम्बन्ध के गीत साई लोग सर्वत्र भोजपुरी प्रदेश में गाया करते हैं, जिनको सालाना फसल के समय किसान कुछ दिया करते हैं। भतृहरि के सम्बन्ध में डाक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी के ये वाक्य देखिए

"गोरक्षनाथ के एक अन्य पंथ का नाम वैराग्य पंथ है। भरथरी या भतृ- हरि इस पंथ के प्रवर्तक है। भतृहरि कौन थे, इस विषय में पंडितों में नाना प्रकार के विचार हैं; परन्तु पंथ का नाम वैराग्य पंथ देखकर अनुमान होता है कि 'वैराग्य शतक नामक काव्य के लेखक मतृ इरि ही इस पंथ के मूल प्रवर्तक होंगे। दो बातें संभव हैं- या तो भतृहरि ने स्वयं कोई पथ चलाया हो और उसका नाम वैराग्य-मार्ग दिया हो या बाद में किसी अन्य योगमार्ग ने वैराग्य-शतक में पाये जानेवाले वैराग्य शब्द को अपने नाम के साथ जोड़ लिया हो। 'वैराग्य-शतक' के लेखक भतृहरि ने दो और शतक लिखे है-श्रृंगार-शतक और नीतिशतक । इन तोनों शतको को पढ़ने से भतृहरि की जिन्दादिली और अनुभूतिशीलता खूब प्रकट होती है। चीनी यात्री 'इत्सिंग' ने लिखा है कि भतृहरि नामक कोई राजा था जो सात चार बौद्ध संन्यासी चना और सात बार गृहस्थाश्रम में लीट आया। वैराग्य और श्रृंगार शतकों में भतृहरि के इस प्रकार के संश- वित भावावेगों का प्रमाण मिलता है। संभवतः शतकों के कत्र्ता भतृ दरि 'इत्सिंग' के भतृ इरि ही है। उनका समय सप्तम शताब्दी के पूर्व भाग में ठहरता है। कहानी प्रसिद्ध है कि अपनी किसी रानी के श्रनुचित आचरण के कारण वे विरक्त हुए थे। 'बैराग्य-शतक' के प्रथम श्लोक से इस कहानी का सामंजस्य मिलाया जा सकता है। परन्तु इसी भतृ इरि से गोरक्षनाथ के उस शिष्य भतृहरि को, जो दसवीं शताब्दी के अन्त में हुए, अभिन्न समझना ठीक नहीं है। यदि 'वैराग्यशतक' के कत्तां भतृहरि गोरक्षनाथ के शिष्य थे तो क्या कारण है कि सारे शतक में गोरक्षनाथ का नाम भी नहीं आया है? यही नहीं, गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्तित दृढयोग से वैराग्य-शतक के कर्त्ता परिचित नहीं जान पढ़ते। मेरा इस विषय में यह विचार है कि भतृ दरि दो हुए हैं, एक तो 'वैराग्य-शतक' बाले और दूसरे उज्जैन के राजा जो अन्त में जाकर गोरक्षनाथ के शिष्य हुए थे। भतृहरि का बैराग्य-मत गोरक्षनाथद्वारा अनुमोदित हुथा और बाद में परवर्ती भतृ 'हरि के नाम से चल पड़ा। इस मत  को भी गोरक्ष द्वारा 'अपना मत माना शना' इसी लिए हुआ होगा कि 'कपिलायनी' शाखा तथा 'नीम-नाथी पारसनाथी' शाखा की भाँति इनमें योग क्रियाओं का बहुत प्रचार होगा। द्वितीय भतृहरि के विषय में आगे कुछ विचार किया जा रहा है। यह विचार मुख्य रूप से दन्त- कथाओं पर आश्रित है। इनके विषय में नाना प्रकार की कहानियाँ प्रचलित है। मुख्य कथा यह है कि ये किसी मृगीदल-विहारी मृग को मार कर घर लौट रहे थे। तब नृगिर्या नाना प्रकार के शाप देने लगी और नानाभाव से विलाप करने लगीं। दयाद्र राजा निरुपाय होकर सोचने लगे कि किसी प्रकार यह मृग जी जाता तो अच्छा होता। संयोगवश गुरु गोरक्षनाथ बहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने इस शर्त पर कि मृग के जी जाने पर राजा उनका चेला हो जायगा, मृग को जिला दिया। राजा चेला हो गये। कहते हैं, 'गोपीचंद' की माता 'मयमामता' (मैनावती) इनकी वहन थीं।

"हमारे पास 'बिधना क्या कर्तार' का बनाया हुआ 'भरथरी-चरित्र' है, जो दूधनाथ प्रेस, इवबा से छपा है। इस पुस्तक के अनुसार भरथरी या भतृहरि उज्जैन के राजा इन्द्रसेन के पौत्र और चन्द्रसेन के पुत्र थे। वैराग्य ग्रहण करने के पूर्व राजा सिद्दलदेश की राजकुमारी 'सामदेई' से विवाह करके वहीं रहते थे। वहीं मृग का शिकार करते समय उनकी गुरु गोरखनाथ से भेंट हुई थी। हम पहले ही विचार कर चुके हैं कि योगियों का सिद्दलदेश वस्तुतः हिमालय का पाददेश है, आधुनिक 'सीलोन' नहीं।"

"एक और कहानी में बताया जाता है कि भतृ इरि अपनी पतिव्रता रानी 'पिंगला' की मृत्यु के बाद गोरक्षनाथ के प्रभाव में आकर विरक्त हुए और अपने भाई विक्रमादित्य को राज्य देकर संन्यासी हो गये। उज्जैन में एक विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वितीय) नामक राजा सन् १०७६ से ११२६ तक राज्य करता रहा । इस प्रकार भतृ इरि ग्यारहवीं शताब्दी के मध्यभाग के ठहरते है।"

अपनी भूमिका में मैंने मालवा के परमारों द्वारा भोजपुर प्रदेश यानी श्राज के शाहाबाद, गाजीपुर और बलिया आदि जिलों में आकर राजा भोजदेव के नेतृत्व में राज्य स्थापित किये जाने की बात प्रतिपादित की है। उससे और मालवा के ग्यारहवीं सदी के विक्रमादित्य द्वितीय के भाई इस भतृहरि के इस प्रदेश में आने की पुष्टि होती है। इसकी पुष्टि में और अधिक बल इस बात से मिलता है कि गाजीपुर के गजेटियर के पृ० १५२ में गाजीपुर के पुराने ऐतिहासिक गणों के वर्णन में एक 'भित्री' स्थान का वर्णन आया है। इस 'मित्री' स्थान को मौर्यकालीन नगर कहा गया है और कहा गया है कि सुगों के पतन के समय (७२ ५० ई०) से गुप्तकाल तक (३२० ए० डी०) का इतिहास अन्धेरा है। गुप्तों के समय में और उसके बाद बहुत से बौद्ध नगर नष्ट होकर हिन्दू नगरी में परिणत हो गये। 'भित्री' के सम्बन्ध में भी यहीं बात लागू हुई होगी। वहाँ 'स्व.न्दगुप्त' के समय (४६६ ५० डी०) में विष्णु का मन्दिर और लाट निर्मित किये गये थे। अतः जान पड़ता है कि उसी प्राचीन स्थान पर मालवा के विक्रमादित्य द्वितीय के भाई भतृहरि ने आकर अपना राज्य-गढ़ पुनः ग्यारहवी सदी में, जब भोज याँ आये थे, बनाया होगा; और उसका प्राचीन नाम बदल कर अपने नाम पर भतृ दरि नाम रखा होगा, जिसका विकृत रूप श्राज (भत्री) या भित्री है। 'हरि' उच्चारण की सुविधा से जन-कण्ठ ने भुला दिया होगा। यही भतृ इरि गोरखनाथ के शिष्य दोगे, जैसा कि बा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने माना है। इनके ही नाम पर भरथरी की उपर्युक्त गाथा अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ चल पड़ी होगी। यह अनुमान इस बात से भी पुष्ट होता है कि गोरखपुर जिला के वैराग्यपंथावलम्बी भरधरी के गीत गाने बाले साँई लोग बलिया-गाजीपुर-शादाबाद के जिलों में साल में दो बार, फसल के समय, आते हैं और हर घर से आना दो-आना, जैसा बँधा है, या कपड़ा वसूल कर ले जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि भतृहरि का राज्य यहीं था और उनके संन्यास ग्रहण करने के बाद उनके राज्य में उनके चलाये पंथ के अनुयायियों ने अपनी वृत्ति कायम कर ली और जनता ने

उसे स्वीकार भी कर लिया। 'कल्याण' के 'योगांक" में योगी भतृहरि का परिचय मालवा के राजा विक्रमादित्य के भाई के रूप में दिया गया है। उनका दूसरा नाम 'भोज' भी कहा गया है और इनके गोरक्षनाथ के शिष्य होने का बृहत् वर्णन इस प्रकार दिया गया है कि ये शिकार खेलने गोरखपुर की ओर गये हुए थे। इन्होंने गोरक्षनाथ के पालतू हरिण को देखकर पीछा किया और गोरक्षनाथ से जब भेंट हुई तब उनसे इरिण का पता पूछा। उसी क्षण जब हरिण सामने दिखाई पड़ा, तब इन्होंने बाण से उसे मार दिया। इसपर गोरक्ष- नाथ और भतृहरि में वार्ता हुई और अन्त में गोरक्षनाथ ने इस शर्त पर हरिण को पुनः जिलाया कि यदि इरियण जी जायगा तो भतृ इरि राज्य त्यागकर संन्यास ग्रहण करेंगे। हरिण के जी उठने पर उन्होंने बचन का पालन किया। ह्यूफ फेजर ने 'फोक लोरस् फ्रॉम वेस्टर्न गोरखपुर' शीर्षक लेख में भरथरी का एक 'बारहमासा' प्रकाशित किया है। यद बारहमासा इन्हीं भतृ इरि द्वारा रचा हुआ प्रतीत होता है।

डा० हजारीप्रसाद ने फिर भतृहरि के सम्बन्ध में लिखा है-

"एक दूसरी कहानी में रानी पिंगला को राजा मोज की रानी बताया गया है। राजा भोज का राज्यकाल सन् १०१८ से १०६० ई० बताया गया है। एक दूसरे मूल से भी भतृ इरि मैनावती श्रीर गोपीचन्द का संबंध स्थापित किया जा सका है। पालवंश के राजा महीपाल के राज्य में दी, कहते हैं, 'रमण्यन' नामक बज्रयानी सिद्ध ने मत्स्येंद्रनाथ से दोक्षा लेकर शैव मार्ग स्वीकार किया था। यही गोरक्षनाथ है। पालों और प्रतीहारों (उज्जैन) का झगड़ा चल रहा था। कहा जाता है कि गोर्विदचन्द्र, महीपाल का समसामयिक राजा था श्रीर प्रतीहारों के साथ उसका संबंध होना विचित्र नहीं है। 

हा फ फेजर के 'फोक लोरस् फॉम वेस्टर्न गोरखपुर' नामक शीर्षक में प्रकाशित यह बारहमासा है-

बारहमासा

चन्दन रगड़ो सोवासित हो, गूंधी फूल के हार ।। इंगुर मँगियाँ भरइतों हो, सुभ के असाद ॥१॥ साँवन अति दुख पावन हो, दुःख सहलो नहिं जाय । इहो दुःस्त्र परे वोही कृबरी हो, जिन कन्त रखले लोभाय ॥२॥ भादो रयनि भयावनि हो, गरजे मेह घहराय । बिजुलि चमके जियरा ललचे हो, केकरा सरन उठ जाय ॥३॥ कुँआर कुसल नहि पाओं हो, ना केऊ आवे ना जाय। पतिया में लिख पडवों हो, दीई कन्त के हाथ ||४|| कातिक पुरनमासी हो सभ सखि गंगा नहायें । गंगा नहाय लट मूरखें हो, राधा मन पछताय ॥५॥ अगहन ठादि अंगनवा हो, पहिरों तसरा का चीर । इहो चीर भेजे मोर बलमुआ हो, जीए लाख बरीस ||६|| पूसहिं पाला परि गैले हो, जादा जोर बुझाय । नव मन रुक्षा भरवलों हो, बिनु सैयाँ जाब माघहिं के सिव तेरस हो सिव बर होय फिरि फिरि चितों मंदिरवा हो बिन पिया भवन फागुन पूरनमासी हो, सभ सखि राधा के हाथ पिचकारी हो भर भर चैत फूले बन टेसू हो, जब फूलत बेला गुलबवा हो, पिया बिनु बैसाखहि बसवाँ कटइतों हो, रच के खेलत न जाय ॥७॥ तोहार । उदास ॥८॥ फाग । मारेली गुलाल ॥९॥ दुण्ड हहराय । मोहि न सोहाय ॥१०॥ बँगला ऍवाय । ताहि में सोइतें बलमुआ हो, करितों अॅचरवन बयार ॥११॥

जेठ तपे मिरडहवा हो, बहे पवन हाहाय । 'भरथरी' गावे 'बारह मासा' हो, पूजे मन के आस ॥१२॥ आषाढ़ मास शुभ मास है। यदि आज मेरे प्रीतम होते तो अपने लिए सुवासित चन्दन रगड़ती और फूलों की माला गूंधती और सिन्दूर से माँग भराती; परन्तु हा । बे आज नहीं है ।॥१॥

यह सावन आया। अति दुःख देनेवाला है। इसका दुःख सहा नहीं जाता। यह दुःख उस कूचरी के ऊपर जाकर पड़े, जिसने मेरे कन्त को बिलमा रखा है ॥२॥ • भादो आया। इसकी रात्रि कितनी भयावनी है। आकाश में मेह गरज रहे हैं। बिजली जोर-जोर से चमकती है और प्रीतम के बिना उनसे मिलने के लिए मेरा जी ललच रहा है। मैं किसकी शरण में उठ कर जाऊ । 

कार मास भी श्रा गया; पर प्रीतम के कुशल क्षेम का कोई समाचार नहीं मिला। न कोई उधर से आता है और न इधर से ही कोई जाता है कि पत्र मेजू । मैंने इसके पूर्व कई पत्र लिख-लिख कर पथिकों के हाथ मेजे और ताकीद की थी कि कन्त के ही हाथ में उन्हें देना; पर कोई उत्तर नहीं आया ||४||

अब कार्तिक की पूर्णमासी भी आ गई। सभी सखिर्या गंगा स्नान कर रही हैं। गंगा- स्नान करके राधा भी अपनी लट मुखा रही है और मन-ही-मन प्रीतम के नहीं आने को बात से पश्चात्ताप कर रही है ।।५।।

श्रगइन मास में तसर की साड़ी पहन कर बीच श्रआँगन में खड़ी हूँ और कह रही हैं कि इस सादी को मेरे प्रीतम ने भेजा है, वे लाख वर्ष जीवित रहें।

पूस मास में पाला अभी पका है। जोरों का जादा मालूम हो रहा है। मैंने रजाई में नौ मन रूई भरा तो ली है; पर तब भी सैाँ के बिना जादा नहीं जाता ॥३॥

माघ मास का तेरस भी आ गया। हे शिव जी, आज ही तुम वर चने थे। मैं फिर- फिर कर अपने घर को निहार रही हूँ। पर चिना पिया के यह मेरा भवन उदास लग रहा है ||७||

श्राज फागुन की पूर्णिमा है। सब सखियाँ फाग खेल रही है। राधा के हाथ में पिचकारी है। रंग भर-भर कर वह पिचकारी मार रही है। आज प्रीतम आ गये है ||८|| चैत मास में वन में टेसू फूल रहे हैं। अब केवाली खेती में लहर मार रही है। बेला

गुलाब सर्वत्र फूल रहे है परन्तु बिना प्रीतम के ये सारे दृश्य मुझे नहीं भाते-सुहाते ॥६॥ वैसाख मास आ गया है। काश, आज प्रीतम यहाँ होते तो मैं बाँस कटवाती और रचि रचि कर के बंगला छुवाती और उसके नीचे प्रीतम सोते और मैं अंचल से हवा करती ॥१०॥

जेठ मास में मृगडाइ (मृगशिरा नक्षत्र तप रहा है। लू हा-हाकार करके चह रही है। भरथरी बारहमासा गाते हैं और कहते हैं- मेरे मन की अभिलाषा आज पूर्ण 'हुई अर्थात् मेरे प्रीतम आ गये।

जहाँ तक इस बारहमासे की भाषा का प्रश्न है, इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह भतृहरि की माषा का सम्पूर्णतः नवीन रूपान्तर है। केवल इसी कारण यह नहीं कहा जा सकता कि यह भतृहरि की रचना नहीं है। हिन्दी साहित्य की भी बहुत-सी ऐसी कृतियाँ हैं, जिनकी भाषा तो सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गई है; किन्तु उन्हें अभी तक श्रद्धा और सम्मान के साथ मूल लेखकों के नाम से युक्त करके स्मरण किया जाता है। 'जगनिक' के 'परमाल रासो' इस प्रसंग में उल्लेखनीय है।

महात्मा कभीरदास

कबीरदास जी एक महान व्यक्ति हो गये हैं। श्राप भक्त, कवि और सुधारक तीनों थे। आपका एक पन्थ ही चल रहा है। श्रापकी जोवनी के सम्बन्ध में 'कल्याण' के 'योगाङ्क' से निम्नलिखित पक्तियाँ उद् त की जाती है— 

"कहते हैं कचीर जी का जन्म काशी में स्वामी रामानन्द जो के आशीर्वाद से एक ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। माता ने किसी कारणवश पुत्र को रात के समय एक तालाच में चद्दा दिया। सबेरे 'नूर अली जुलाहे' ने देखा और अपने घर लाकर पोसा-पाला। इसी से कचीर जुलाहा कहलाये, और जन्म भर जुलाहे का ही काम किया। परन्तु ये जन्म से ही सन्त-भाव लेकर आये थे। इन्होंने स्वामी रामानन्द जी को अपना गुरु बनाया और साधना द्वारा बहुत अच्छी गति प्राप्त की। यह काशी में रहकर सत्संग कराया करते थे। ये बड़े निर्भीक सन्त थे। इन्होंने बड़े-बड़े शब्दों में उस समय की बुराइयों का खण्डन किया और सच्ची शिक्षा दी। इनकी वाणियों का अनुवाद अॅग्रेजी और फारसी में भी हुआ है, और वे अन्य देशों में भी आदर के साथ पढ़ी जाती है। ये अन्त समय में काशी छोड़ कर मगहर ग्राम, जिला बस्ती में चले गये। पण्डितों के मत से उस स्थान में मृत्यु होने से गदहे का जन्म होता है। (इस सम्बन्ध में कचीर ने ही कहा था--"जो कबिरा काशी मरे, रामहिं कवन निहोरा)। जब इन्होंने चोला छोबा तब हिन्दू-मुसलमानों में झगड़ा हो गया। हिन्दू समाधि देना चाहते थे श्रीर मुसलमान कब्र। इसी बीच कवीर साह्न का शव लापता हो गया और उसकी जगह कफन के नीचे थोड़े फूल पड़े मिले। इन्हीं फूलों को हिन्दू-मुसलमान दोनों ने बॉट लिया और अपनी अपनी रीति के अनुसार अलग-अलग समाधि और कब चनाई। दोनों आज भी मगहर में मौजूद हैं। इनका जीवन-काल संवत् १४५५ से १५७५ तक माना जाता है।

इनके जन्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित छप्पय प्रसिद्ध है-

चौदह सौ पचपन साल गये, चन्द्रवार एक ठाट उये। जेठ सुदी बरसाएत को, पुरनमासी तिथि प्रकट भये ॥ धन गरजे, दामिनि दमके, बूंदें बरसें कर लाग गये। लहर तलाच में कमल खिले, तहें कबीर भानु प्रगट भये ।।

कबीर ने भोजपुरी में प्रचुर मात्रा में कविताएँ लिखी थीं। डा० उदयनारायण तिवारी का तो कहना है कि इनकी सभी रचनाएँ सम्भवतः भोजपुरी में थीं। बाद को वे हिन्दी में परिवर्तित कर दी गई। कबीर साहब ने भी एक दोहे में अपनी भाषा को भोजपुरी स्वीकार किया है।

"योली हमरी पुरख की, हमें लखे नहीं कोय । हमके तो सोई लखे, धुर पुरय का होय" ।।

कबीर साहच भोजपुरी के बड़े भारी रहस्यवादी श्रादि कवि थे। यदि उनको विशुद्ध भोजपुरी का कवि न मानकर हिन्दी का भी कवि माना जाय, जैसा कहना सही है, तब भी यह मानना अनिवार्य होगा कि हिन्दी में जब रहस्यवाद आया तभी भोजपुरी में भी रहस्यवाद का जन्म हुआ या जिस कवि ने भोजपुरी में रहस्यवाद का अन्म दिया, उसी ने हिन्दी में भी। निम्नलिखित गीतों में अधिकांश गीत कबीर साइन की कविताओं के संग्रहों से लिये गये हैं। इनके पाठ की सत्यता पर दो मत नहीं हो सकते। 


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लेख
भोजपुरी के कवि और काव्य
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लेखक आ शोधकर्ता के रूप में काम कइले बानी : एह किताब के तइयारी शोधकर्ता श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह कइले बाड़न. किताब के सामग्री : १. एह किताब में भोजपुरी के कवि आ कविता के चर्चा कइल गइल बा, जवना में भारतीय साहित्य में ओह लोग के योगदान पर जोर दिहल गइल बा. एह में उल्लेख बा कि भारत के भाषाई सर्वेक्षण में जार्ज ग्रियर्सन रोचक पहलु के चर्चा कइले बाड़न, भारतीय पुनर्जागरण के श्रेय मुख्य रूप से बंगाली आ भोजपुरियन के दिहल। एह में नोट कइल गइल बा कि भोजपुरिया लोग अपना साहित्यिक रचना के माध्यम से बंगाली के रूप में अइसने करतब हासिल कइले बा, जवना में ‘बोली-बानी’ (बोलल भाषा आ बोली) शब्द के संदर्भ दिहल गइल बा। भोजपुरी साहित्य के इतिहास : १. एह किताब में एह बात के रेखांकित कइल गइल बा कि भोजपुरी साहित्य के लिखित प्रमाण 18वीं सदी के शुरुआत से मिल सकेला. भोजपुरी में मौखिक आ लिखित साहित्यिक परम्परा 18वीं सदी से लेके वर्तमान में लगातार बहत रहल बा। एह में शामिल प्रयास आ काम: 1.1. प्रस्तावना में एह किताब के संकलन में शोधकर्ता श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह जी के कइल महत्वपूर्ण प्रयास, धैर्य, आ मेहनत के जिक्र बा। एहमें वर्तमान समय में अइसन समर्पित शोध प्रयासन के कमी पर एगो विलाप व्यक्त कइल गइल बा. प्रकाशन के विवरण बा: "भोजपुरी कवि और काव्य" किताब के एगो उल्लेखनीय रचना मानल जाला आ बिहार-राष्ट्रभाषा परिषद के शुरुआती प्रकाशन के हिस्सा हवे। पहिला संस्करण 1958 में छपल, आ दुसरा संस्करण के जिकिर पाठ में भइल बा।
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आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक प्रारम्भिक काल

7 December 2023
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प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी के इतिहास का वर्णन करते समय बताया गया है कि आठवीं सदी से केवल भोजपुरी ही नहीं; बल्कि अन्य वर्तमान भाषाओं ने भी प्राकृत भाषा से अपना-अपना अलग रूप निर्धारित करना शु

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घाघ

8 December 2023
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बाघ के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में बहुत विद्वानों ने अधिकांश बातें अटकल और अनुमान के आधार पर कही है। किसी-किसी ने डाक के जन्म की गाया को लेकर घाष के साथ जोड़ दिया है। परन्तु इस क्षेत्र में रामनरेश त्रिप

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सुवचन दासी

9 December 2023
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अपकी गणना संत-कांर्यात्रयों में है। आप बलिया जिलान्तर्गत डेइना-निवासी मुंशी दलसिगार काल को पुत्री थी और संवत् १६२८ में पैदा हुई थी। इतनी भोली-भाली यी कि बचपन में आपको लोग 'बउर्रानिया' कदते थे। १४ वर्ष

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अम्बिकाप्रसाद

11 December 2023
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बाबू अम्बिकाप्रनाद 'आारा' की कलक्टरी में मुख्तारी करते थे। जब सर जार्ज क्रियर्सन साहब श्रारा में भोजपुरी, का अध्ययन और भोजपुरी कविताओं का संग्रह कर रहे थे, तब आप काफी कविताएँ लिख चुके थे। आपके बहन-से

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राजकुमारी सखी

12 December 2023
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आप शाहाबाद जिले की कवयित्री थीं। आपके गीत अधिक नहीं मिल सके। फिर भी, आपकी कटि-प्रतिभा का नमुना इस एक गीत से ही मिल जाता है। आपका समय बीसवीं सदी का पूर्वाद्ध अनुमित है। निम्नलिखित गीत चम्पारन निवासी श्

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माताचन्द सिह

13 December 2023
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आप 'सहजौली' (शाहपुरपड़ी, शादाबाद) ग्राम के निवासी हैं। आपकी कई गीत पुस्तके प्रराशिन है पूर्वी गलिया-के-गलियारामा फिरे रंग-रसिया, हो संवरियो लाल कवन धनि गोदाना गोदाय हो संवरियो लाल ।। अपनी मह‌लिया भी

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रामेश्वर सिंह काश्यप

14 December 2023
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आपका जन्म सन् १८१६ ई० में, १६ अगस्त को, सामाराम ( शाहायाद) ग्राम में हुआ था। पास की थी। सन् १३४ ई० में पान किया। इन तीनों परोक्षाओं के नजदीक 'सेमरा' आपने मैट्रिक की परीक्षा सन् १८४४ ई० में, मुंगेर जिल

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एगो किताब पढ़ल जाला

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