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अम्बिकाप्रसाद

11 December 2023

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बाबू अम्बिकाप्रनाद 'आारा' की कलक्टरी में मुख्तारी करते थे। जब सर जार्ज क्रियर्सन साहब श्रारा में भोजपुरी, का अध्ययन और भोजपुरी कविताओं का संग्रह कर रहे थे, तब आप काफी कविताएँ लिख चुके थे। आपके बहन-से गीतों को प्रियर्सन साहब ने अंगरेजी-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी कराया था। आपकी कविताओं के कुछ उदाहरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी ने भी अपनों 'हिन्दी भाषा' नामक पुस्तक में दिये हैं। यपक परिचय के सम्बन्ध में उसमें इतना ही संकेत है कि "मुंशी अम्बिका प्रसाद, सुक्नार, फौजदारी और कनकारी, जिला शाहाबाद; मालिक हिस्सेदार, मौजा अपहर, परगना गोश्रा, जि० सारन फूल भजनावली में।" इसने पता चलता है कि आप तो रहनेवाले शाहाबाद के थे; पर आपकी जमीदारी 'सारन' जिले में भी थी और आपने 'भजनावली' नामक कविता-पुस्तक की रचना की थी जिससे इरिब्धन्द्रजी ने तीन-चार कविताएँ उद्धत की थी।

(1)

पहिले गवनवाँ पिया माँगे पलेगिया चदि बोलावेले हो। ललना पिया बान्हें टेढ़ी रे पगरिया त मोरा नाहीं भाचे २ रे ॥ एक तो में अंगों के पातर दूसरे गरभ सेई रे। ललना तीसरे बाबा के दुलरुई बेदनवा कइसे अंगइ‌बि रे ।। सासु मोरा सुतलि ओसरवा, ननद गज ओर्वार रे, ललना सइयाँ मोरे सुतेले अटरिया त कइसे के जगाइ‌बि रे ।। पान फेंकि मरतो सजन के से अबरू लवंग फेंकि रे, ललना सभ अभरन फॅकि मरलो तनहुँ नाहीं जागे ले रे॥ सासु मोरी आवेली गावद्दत ननदी बजावइतर रे, ललना सयों मोरे हरक्षित होखे ले, मोहरा लुटावेले रे ॥ 'अम्बिका प्रसाद' सोहर गावेले, गाइके सुनावेले रे, ललना दिन-दिन बादो नन्दलाल, सोहरवा मोहि भावेले रे।

निम्नलिखित भूमर को हरिवन्द्रजी ने अपनी 'हिन्दी-भाषा-नामक' पुस्तक में उद्धत किया है। इसे ग्रियर्सन साहब ने भी उद्धत किया।

मारत

झूमर

(२)

गरियावत १४

देखऽ इहे करिवह‌वा "मोहि मारत बा ॥१॥ आँगन कइलो पानि भरि लइलों ताहु ऊपर लुलुभावत बा ॥२॥ सौतिन के माने कत १९ इमरा गैवही २० बनावत माई या ॥३॥ मा हम चोरिनो, ना हम चटनी २१ कुठहू अछरेंग २२ लगावत या ॥४॥ सात गदहा के मार मोहि मारे सूअर अस घिसि प्रावत २३ বা ॥५॥ देखदु पे गाई पर गदहा मोरे पार-परोसिनि चढ़ावत । २४ ॥६॥ 

पियवा गाँर कहल नहि सूझत पनियाँ में आागि लगावत का हे अम्बिका तूही सूझ कर अब अचरा उबाई गोहरावत था ॥८॥

नीचे का गीत उस समय रचा गया था, जब बिहार की कचहरियों में उबू-लिपि के स्थान पर नागरी लिपि के प्रयोग की सरकार द्वारा घोषणा हुई थी।

(३)

अब हुकुम भइल सरकारी, रे नर सीख नगरिया । जामिनि लिपि जी से देहु दुराई ॥१॥ ले पोषो नित पाठ कर जामिन पुत्य देहु पैसरिया ॥२॥ जबले नागरि आवत नाहीं कैथी अक्षर लिख कचहरिया ॥३॥ धन मंत्री परजा हितकारी अम्बिका मनावत राज विक्टोरिया ॥४॥

(४)

रोइ रोइ पतिया" लिखत सब सखिया, कब होइहें तोहरी अवनवा रे हरी ।। कवन ऐसन चुक भर्ति हमरा से तेजि हमें गहलीं मधुबनवा रे हरी ॥ प्रांति के रीति कड़डू नहि जानत हवऽ तू जावि अहीरवा रे हरी ॥ पिड़ली प्रोति याद कर अब का कहि गइले कुबुना भवनवा रे हरी ॥ 'अम्बिका प्रसाद' दरस तोहि पश्तों छोड़ितों न रवरी चरनिया रे हरी ॥

(4)

मोरा पिडुग्ररवा लोल रंग खेतवा, बलमु हो, लोल रंग चुनरी रेंगादऽ ।। चुनरी पहिरह सऽ जाबा मोरे लगले, बलमु हो, सलवा-दुसालवा ओदादऽ ।। सलया-दोसजवा से गरमी छिटकली, बलमु हो, रम-रसे बेनिया डोलादऽ ।। धनिया दुलबहुत बंदिया मुरुकली १२, बलमु हो, पटना के बैदा बोलादः ।। बैदा जे माँगेला साठि रुपड्या; बलमु हो, तनि एका मोहरा मॅजादऽ ।। मोहरा मॅजवत जियरा निकलले, बलमु हो, मेहरी भइली जियरा के काल ।।

कवि बदरी

यापका परिचय इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं प्राप्त हो सका कि याप जनप्रिय कवि थे। आपका प्राम तथा समय ज्ञात नहीं है। आपको निम्नलिखित कविताएँ प्रकाशित संभ्दों से ली गई है। आपको रचना प्रीड होतो थी।

झूमर

(1)

बेली बन फूले चमेली बन फूले ताहि कृत्रे गूँजेन्गू जे रे भँवरवा रे ताहि फूले ॥१।। लोभी मॅवरवा फिरत जंगलवा नया रस खोजे खोजे रे अॅवरवा, नया रस खोजे ॥२॥ तेरो रंग श्याम मोर गइले मधुबनवाँ कुबरी से लोभे लोभे रे भंवरवा कुबरी से ॥३॥ कारे कुर्वेर के परतीत हमें नाहीं मानों मानों रे मॅवरवाँ पीरीत हमें नाहीं ॥४ कर जोरि बिनय करत 'बद्री' तनी न्यारे रह न्यारे रहु रडु रे मॅवरवा, न्यारे रहु ॥५॥

(२)

कहाँ जे जनमले कुवँर कन्हईया हरि भुमरी । कहाँ जे बाजत बधड्या खेलत हरि झुमरी ॥१।। मधुरा में जनमजे श्री यदुरड्या हरि कुमरी। गोकुला में बजत बधड्या खेलत इरि झुमरी ।। कौन बन मोहन चरावे धेनू गड्या हरि कुमरी । कौन बन बाजेला बँसुरिया खेलत हरि कुमरी ।। वृन्दाबन कान्हा गड्‌या बरावे हरि कुमरी । कंज बन बाजेला बँसुरिया खेक्षत हरि कुमरी ॥४॥ केकरा संग कान्हा दिन दुपहरिया खेले हरि मुमरी। केकरा मोहेले अधि-रतिया, खेलत हरि कुमरी ॥ ग्वालन सँग खेले कांधा दिन दुपहरिया हरि कुमरी । गोपिन मोहेले अधरतिया खेलत हरि भुमरी ।.५।। धन भाग नन्द-जसोदा जी सइया हरि कुमरी। बदरी हरपि गुन गावे खेलत हरि कुमरी ॥७॥ 


विश्वनाथ

आपका परिचय अज्ञात है, किन्तु आपके दो गीत श्री कृष्णदेव उपाध्याय कृत 'भोजपुरी ग्राम- गीत' के दूसरे भाग में मिले हैं। अनुमानतः आपका जन्म-स्थान बलिया जिले में था।

(१)

सहयाँ मोरे गहले रामा पुरबी बनिजिया"। से लेड़ हो अहले ना, रस-बेंदुली टिकुलिया ।। से लेइद्दो अइले ना ।।१।।

टिकुली में साटि रामा बटलीं से चमके लागे ना, मोरे बेंदुली अटरिया । टिकुलिया ।। से चमके लागे ना ॥२॥

घोरवा चदल आवे राजा के छोकड़वा । से धड़के लारो ना, मोरे कोमल करेजवा ।। से धड़के लागे ना ।।३।।

खोलु-खोलु धनिया आरे५ बजर-केवरिया" । से भाजु तोरा ना, अइले सयों परदेसिया ॥ से बाजु तोरा ना ।।४।।

कहे 'विश्वनाथ' धनि हवे तोर भगिया । से छम-छम बाजे ना, द्वार खोलत वैजनिया ।। से शुम-शुम बाजे ना ॥५७॥

(२)

बँसहा चढ़ल सिव के अइले बरिअतिया राम । बेराला जिधरा, अॅगवा लपेटले बादे साँप ।। ऐ बेराला जिधर ॥१॥

अंगवा भभूत सोने गले मुण्डमाला राम । बेराला जिबरा, नागवा छोदेले फुफुकार ।। ऐ बेराला जिभरा ॥२॥

मन में विचारे 'मैना' गउरा

बेराला ३ जिधरा, बरवा

नारद बाबा के हम काही

डेराला जियरा बरवा

१२ अति सुन्दर राम ।

मिलेले बराह ।।

ऐ बेराला जिधरा ।।३।।

रे बिगदी १५ राम ।

श्रोजेले बठराह ।।

ऐ बेराला जिभरा ॥४॥ 

अइसन बठरह्वा से इम 'गडरा' ना विश्रइबो राम । डेराला जिश्ररा, बलु' 'गउरा' रहिहैं कुंआर ।। कहत 'विश्वनाथ' सनि मेखवा ऐ बेराला जिभरा ॥५॥ बद‌लि दऽ राम । बेराला जिझरा, नइहरा के लोग पतिभास ।।

रघुवंशजी

ऐ बेराला जिभरा ॥६॥

आपका भी परिचय नहीं मिला। आपके प्राप्त गौतों से ज्ञात होता है कि किसी याचक (भाट या पंचरिया) कुल में आपका जन्म हुआ था।

भादो रैन अधिअरिया जिया, मोरे तदपेला ढेर, ललना गरजि-गरजि देव बरिसेले दामिनि चमकेलि रे ॥ सूतल ३ बानी कि जागल सामी उठि बइठहु रे ।। ललना हम धनि वेदने" बिआ कुल, देह मोरी अइंडेलि रे ।। सुनु-सुन धनियाँ सुलड़नि, दूसर जनि गुनबहु रे, जलना धीरे-धीरे बेदना निवारहु, 'कंस' जनि सुनेह रे ॥ आधी रैन सिरानिहु त रोहिनी तुलानिहु रे, ललना जनम लिहलें जदुनन्दन विपति भुलानिहु रे । मने सन देवकी आनेंदेली, बंधन छुटलद् रे, ललना हरि जे लिहले १२ अवतार करम १३ 'कंस' फुटलहु रे ।। याचक जन 'रघुवंश' सोहर इहे गावेले रे, ललना हरिहर-चरन मनावहु, परम पद पाइअडु रे ॥

सुखदेवजी

आप शाहाबाद जिले के किसी ग्राम के निवासी थे। आप हरिशरण के शिष्य थे। आपके सम्बन्ध

में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। एक साधु से आपके दो गीत मिले, जो नीचे उद्धृत हैं-

(1)

समुझि परी १४ जब जइबड कचहरी १५। कुछ दिना फुललन गोद-हिंडोलवन, कुछ ना खेभाल करी । 'भानुमती' के बदन निरेखल मानों मनोरमा बनी खड़ी, ई तन पवलऽ बड़ा भाग से पालड१७ पशु-पंछी-मवरी । ई सब खाद १८ घेरि पथ लेइ हैं अब जब जम-नगरी । 

समुझी परी जब जब कचहरी ।। खाइल पीद्मल लेल देल कागज बाकी सब निकसी धरमराज जब लेखा लोहन लोहा के सोटवन मार परी, आगे-पीछे चोपदार धहलेइ सुगदर जम के फॉस परी, अगिन-स्तंभ में बाँभि के रखिहें, हाजिरजामिनी कोई ना करी। आशा 'गुरु-शरण' हरि कहल कहे, 'सुखदेव' सुन भैया साधो, पल छन बीती तब घरी प घरी ॥ समुझि परी जब जबड कचहरी ।।

(२)

आइल जमाना कोटा साधो, आइल जमाना खोटा, मेहुआ खावे दूध-मलाई, लगे माँग के घोंटा। साधु-संत के चाना दुरतभ, भरल केउ कबहीं जल-भर लोटा, बेश्या पहिने मलमल खासा जागलि किनारी-गोटा । पतिबरता के लुगरी दुर्लभ पहिने फटहा मोटा, कोगी जती तपसी संन्यासी जेकर बील लगोटा। भाव भजन कुछ सरम न आने, झूठे बढ़ावे कोंटा, बेमरजाद चललि सब दुनिया, का बड़का का छोटा। कहे 'सुखदेव' सुनो भाई साधो उलटा चलिहें जम के सोटा । ए साधो आइल जमाना खोटा ॥

राम अभिलाप

आपके जन्म-स्थान तथा समय इत्यादि का परिचय प्राप्त नहीं है। आपके दो गीत गोरखपुर जिले में प्राप्त हुए थे। अतः आप गोरखपुर जिले के निवासी होंगे।

(1)

बिचवा१०।

गहनाँ बिचवा।

विनवा ।

बिचया।

पयाँ मैं लागु तोरे मैया रे सोनरवा गहनवाँ

हमरे लिखु हरी के नयाँ १२

चंदिया नकाशो १३ बोही मज के छ्यलवा जसनवा

बोही जसोदा के ललनवा जसनवा

बात्बन माली, बेसर लिनु वंशीवलवा ।

कंगनवा बिचवा, पाऊँ कान्हा दरसनवा

मेम्बला मुरारी नन्द, लगड्‌यो साकड़वा बिचवा ।

श्याम मुन्दर सपनवा । 'राम अभिलाष' हमरे ऑस्त्रि के समनवाँ १८ धेयनवा बिचवा । रहे राधे रूपवा सजनवा घेयनवा २० बिचवा । 

गोरे गोरे गाल पर गोदनवा गोदाले गोड्यों मा। मोतियन से मँगिया गुयाले वारी धनिया, लगाले गोड्यों ना ।। सुन्दर सुरूखरे नयनवा, लगाले गोड्याँ ना। मथवा टिकुलिया बिंदी, देंतवा में मिसिया छिपाले गोड्यों ना ।। रेशम चोलिया जोबनवा, छिपाले गोड्याँ ना। 'राम अभिलाष' प्यारी करी के सिंगरवा लगलि गोहयाँ ना। अपने सड्यों के गोहनवा लगलि गोड्यों ना ।।

रज्जाक

आप आजमगढ़ जिले के 'मुबारकपुर' ग्राम के मजदूर कवि थे। आपने नीति विषयक बहुत सुन्दर रचनाएँ को हैं। आप बहुत गहरोब ये और बसियारे कवि मिङ, के गुरु थे। आपकी निम्न लिखित रचना परमेश्वरी लाल गुप्त के 'भोजपुरी का साहित्य सौष्ठव' नामक लेख से प्राप्त हुई है। आपके शिष्य का 'दयाराम का बिरहा' नामक प्रबन्ध-काव्य संवत् १६२० के फाल्गुन में समाप्त हुआ। अतः आपका समय भी उनहे २००२५ वर्ष पूर्व माना जा सकता है।

हमार ।। बबि नोकि" हड मोरी माता हो गरमिया । देहलु कुछ दिन चिन्ता मोरी बिसार ।। चिपदा से तनवा कइसे ढकबै हो मध्या। आवे जादा दुसमनवाँ हमरे ले नीक ऊ तऽ हुवे भित्रसँगवा । जे सोवत होइहैं दूनो टॅगिया पसार ।। भादो के अन्हरिया में पनिया में भीजों । तउने जरत बाटे पेटवा हमार ।। प

शिवशरण पाठक

आप पकदो ग्राम (चम्पारन) के निवासी थे। आप भोजपुरी में अच्छी कविता करते थे। भापका समय सन् १६०० ई० के लगभग है।

चम्पारन में नोलहों का बहुत अत्याचार था। ये लोग बेतिया के महाराज की अमींदारी के मोकरौदार थे। उनके अत्याचार से तंग आकर आपने महाराजा के दरबार में एक पद पड़ा था और नीलहों से रक्षा करने को प्रार्थना की थी। बेतिया के महाराज स्वयं एक कवि थे और उनके दरबार में कवियों का आदर होता था। अतः इनके पद को सुनकर नीलहों के अत्याचार का उन्हें ज्ञान हुआ। महाराज ने उन नोलहों से क्षुब्ध होकर उन्हें चम्पारन से खदेखने की विफल चेष्टा की थी।

राम नाम भइल भोर गाँव लिलहा के भइले । चेवर दहै सब चान गोएये १२ लील बोअइले १४ ।। भइ मैल आमोक्ष के राज मजा सब भइले दुखी । मिल-जुल लूटे गाँव गुमस्ता हो पटवारी सुखी ।।

असामी नाँव पटवारी लिखे, गुमस्ता बतलाने । सुजावक्ष जी जपत करसु, साहेब मारन धावे ।। धोरका शोते बहुत हेंगयावे, तेपर वेला धुरावे । कातिक में तैयार करावे, फागुन में बोअवावे ।। जइसे लोक दुपता होखे, बोइसे बगावे सोहनी । मोरहन काटत थोर दुस्ख पावे, दोजी के दुख दोबरी" ।। एक उपद्रव रहले रहल दोसर उपद्रव भारी। सभे लोग से गाड़ी चलवावे समे चलावे गादी ।। ना बाचेला बाठा पुअरा १४, ना बाचेला भूसे । जेकरा से दुस्ख हाल कहीला, से मारेला घूमे ॥ होइ कोई जगत में धरमी, लील के खेत छोड़ावे । बड़ा दुख बाम्हन के भइले, दूनो साँझ कोबवावे। समे लोग तो कहेला जे काहे ला दुख सहऽ । दोसरा से दुख नाहीं छूटे, तः महाराज से कहऽ ।। महाराज जी परसन १७ होइहें इनही में दुख छूटी। कालीजी जब किरपा करिहें, मुंह बयर। १८ के टूटी ।। नाम बढ़ाई गावत फिरब, रह जइहें अब कीरित" । कि गाँव लीलहा से छूटे, ना त मिले बीरित ।।

कवि हरिनाथ

आपके समय और जन्म स्थान का पता नहीं लग सका। सम्भवतः आप शाहाबाद जिले के सन्त कवियों में एक थे। शाहाबाद में आपके गीत अधिक गाये जाते हैं। आपकी हिन्दी-रचनाएँ भी मिलती है। आपने एक गीत में अपनेको याचक कहा है। इससे ज्ञात होता है कि शायद आपका जन्म भांट कुल में हुआ हो। हरिनाथ नाम के एक हिन्दी कवि भी शाहजहाँ के समय में हो चुके हैं।

(1)

भोरे उठि बनवों के चलले मोहनबों, से भागे कइलन २१ है। लाखन ग‌या रे बरुआ २२ से आगे कहलन है ।।१।। जाल-लाल फूल-पाती थहिरा के जतिया, से बाँध लेलन हे मोहन बाँकी रे पगरिया २७, से बाँध लेलन हे ॥२॥ कर लेले बसिया २४ मोहन रंग-रसिया २५, से अधर धरि हे राग टेरे रे हजरिया २५, से अधर भरि हे ॥३॥ 

सुनत स्रवनवाँ बिकल भहले मोरे मनवाँ, से मोह लेलन है प्यारे बाँके रे गुजरिया, से मोह लेलन इसि लेली चोरवा र जमुनवाँ के तीरवा से से पतली भइली हे नागरि लेइ के है ॥५॥ हे ॥६॥ गगरिया से चलि भइली जन 'हरिनाथ' मॅटि गइले गोपीनाथ से से भऊँश्रा कसि हे मारे बाँके रे नजरिया से भऊँश्रा कसि

(২)

सूतल रहली मैं अपने भवनवाँ, जगाई दिहले रे, मन-मोहन रतिया जगाई दिहले हंसि-हसि बहियों झिकझोरे रंगरसिया, सुनावे मोही रे, मधुरसवा के बतिया सुनावे मोही रे ॥२॥ खिल रही कुज बन अरु नव रतिया, देखन चलू रे, तरुवर लतिया देखन रे ॥३॥ जन 'हरिनाथ' लाल मेरे मन बतिया, पियारे लागे रे, ऐ अहिरवा के जतिया, पियारे लागे रे ॥४॥

सोहर

(३)

आनन्द घर-घर अवध नगर नौबत बाजत हो, ललना बदि अइले हिया से दुलास सुमंगल साजत हो ।।१।। रघुकुल कमल दिनेस अवध में उदय लेलन हो, ललना खिली गइल जस सब लोक सुनत मन मोद भइल हो ॥२॥ गगन मगन मन सुरन सुमन परसावत हो, ललना हरखि सोहागिन मंगल अवरू सोहर गावत हो ॥३॥ कोसिला के गृह सिरीराम भरत केकई घरे हो, ललना जनसे लखन रिपुसूदन सुमित्रा तन बहरइलन हो ।।४ गुरुजन लगन बिचारत, ग्रह अनुसारत हो, ललना त्रिभुवन-पालक बालक कहि नाहि पारत हो । ५।। बहुत दिनन सिव पूजक्ष देवता मनावन हो, ललना एक सुचन फल माँगल चौगुन पावल हो ॥६॥ रामजी के कमलबदन लखि नृप हिया हरखल हो, ललना हुक्षसत पुलकस गात नयन परम हठीली अलबेली वारी बगरिन हठ ललना केठ देले हार अमोल, कंगना जल बरस्वत हो ॥७॥ कइले हो, केकई देली हो ॥८॥ रघुबर चरन सरोज सेवन 'हरिनाथ' लेलऽ हो, ललना छूटि गइत जाचक नाम भजावक मन भक्ष हो ॥३॥

गोत के शब्दार्थ और भावार्थ दोनों स्पष्ट हैं। 

हरिहरदास

आपका भी परिचय अज्ञात हो है। फिर भी इतना निश्चय है कि आप, सन्त-कवि थे और शाहाबाद को विशुद्ध भोजपुरी भाषा हो आपको कविता की भाषा है। अतः आप इसी जिले के निवासी होंगे, ऐसा अनुमान किया जाता है।

सोहर (1)

अवध में बेदने' बेधा कुल रानी कौसिक्षा रानी हो, ललना हलचल मचलः महल में से इगरिन बोलाबहु हो ।॥१॥ चड़िय पक्षकिया ढगरिन आइल चरन पस्वारल हो. ललना नौमिए तिथि मधुमास मध्य दिवस नहीं सीत न धाम सुकलपच्छ आइल हो ॥२॥ सुभग ऋतु हो, ललना अभिजित नखत पुनीत से राम जनम लिहले हो ।३।। नंदी मुख आध कइलें अवधपति आनंद भइले हो, खजना तन में न सकहिं समाय हुक्षस से जनावर हो ॥४।॥ भूपति मोहर लुटावत पाट-पितम्बर हो, खलना चीर लुटावत रानी जडित मनी भूखन हो ॥५॥ बाजे बघध्या पुर गानतेऽ किनर नट नाचहिं हो, कलना नावाई चिया करि गान तऽ लागेले मनोहर हो ॥६॥ घर-घर देहिं सब दान अवधपुर सोभित हो, लक्षना लागे सम लोग से सम्पदा लुटावन हो ।।७।। केसर उबत नम भवरु गुलाल, फुलेल लगावल हो, लक्षना सुमन बरख सुर जूथ से विनय सुनावल हो ॥८॥ जे यह गावर्हि सोहर बो गाइके सुनावहिं हो, जलना 'हरिहरदास' सुख पावईि संसय नसावहिं हो ॥३॥

सोहर (२)

देखि कृसित मुख जसोदा के चेरिया बिलखि पूछे हो। ललना सोचि कहहु केहि कारन मुख तोर ॉवर हो गभा जस जस चेरिया पुछन लागे तस तस दुःख बढ़े हो। क्षक्षना, चेरिया त चतुर सयानी खबर देवासि नन्द जी के हो ॥२॥ सुन चेरिया-बत सोहावन बद मनभावन हो । ललना जह तह भेजलन घावन सबहीं बोलावन हो ।।३।। केह लेले पंडित बोलाय से केह लेले बगरिन हो। ललना बइडेले पंडित सभा बीच बगरिन महल बीच हो ।५।। पंडितजी करिले विचार हरनि मनवाँ हँसि बोले हो। खजना इहे हुवे दुष्ट-अधिराज वृजे जग-पालक हो ॥५॥ जसोदाजी पीड़ितऽ भवनवाँ बिकल से पलंग खोटे हो। ललना, धर्षक-धर्कि करे लुतिया कि कब बीती रतिया ई हो ।।६।। 

सुभ धनि सुभ दिन सुम रे लगन अनि हो । ललना, प्रगट भइले नन्दलाल आनंद तीनू लोक सहते हो ॥७॥ हरखि हरखि सुर मुनि देव बरसावे सुमन बहु हो । ललना, जे सुत्र बरनी ना सारदा से कहीं केहि बिधि हम हो ।।८।। बाजहिं बाजन अपार मगर सुत्र बड़ी भइले हो । ललना जेही कर जस मन भावन देवन से बोही कुन हो ॥६॥ ललना, नाचद्दि गुनी जन अवरु युवती गन हो। ललना, लुटहिं सदन भण्डार हुलसि मन भर भर धार सोबरन देत मानिक मुकुता से हो। हो ।।१०।। ललना, नन्द आनन्द होइ दिहले चरन गहि पण्डित हो ॥११॥ गहि भगवन्त सुत हरि-पद हरति से हिय बीच हो। ललना, जनम सुफल फल पाई जे गाई" चरित इहे हो ॥१२॥

मिट्टू कवि

आप आजमगढ़ जिले के गूजर जाति के पास गढ़कर जीविका चलानेवाले अनपढ़ कवि थे। आपके गुरु पूर्वकथित रज्जाक मियाँ थे। आपके पिता का नाम हंसराज था। आपकी तथा अन्य आजमगढ़ी कवियों की भाषा का रूप भोजपुरी का पश्चिमी रूप है। बिरहा छन्द में आपके दो प्रबन्ध-काव्य 'दयाराम का बिरहा' और 'हंस-संवाद' परमेश्वरी लाल गुप्त से मिले हैं। 'दयाराम का बिरहा' की कथा का सारांश इस प्रकार है- "दयाराम नामक एक बहादुर 'गुजर' अपनी स्त्री द्वारा आभूषण माँगने पर कोई दूसरा चारा न

देख चोरी द्वारा द्रव्योपार्जन करने के लिए अपनी माँ और बहन से विदा माँगता है और उनके मना करने पर भी परदेश जाता है। नदी पार रेती पर दिल्ली की शाह‌जादी की सेना थी। दयाराम उसके लश्कर के साथ लबकर उसे परास्त करता है और शाहजादी की धन-दौलत सब लेकर उसको पवित्र छोब देता है। शाहजादी दिल्ली जाती है। वहाँ से शाहजादा जफर दयाराम को गिरफ्तार करने के लिए आता है। वह मित्र का स्वांग रचकर दयाराम को अपने दरबार में बुलाता है। जब दयाराम वहाँ गया तब उसे खिला पिला कर जाफर ने बेहोश कर दिया, और गिरफ्तार कर दिल्ली ले गया दिल्ली में हाथी और शेर के सामने दयाराम को छोब दिया गया। किन्तु, उसने दोनों को अपनो पराक्रम से जीत लिया। तब प्रसन्न हो दिल्लो के शाहजादे ने उसको दिल्ली के किते का किलादार बना दिया। कुछ दिनों बाद जब छुट्टो ले वह अपने घर आने लगा तब मिर्जापुर के नवाब 'आफर' ने उसे अपने यहाँ एक रात के लिए मेहमान बनाया और भोजन में जहर दे दिया। दयाराम ने अपनेको मरता हुआ समझ अपनी तलवार से जाफर के समूचे परिवार को मौत के घाट उतार दिया। बाद में वह खुद भी मर गया।

"उसकी मौत की खबर जब उसके घर पहुँची, तब उसका लबका 'टुन्नू' आसपास के गुजरों को बुलाकर मिर्जापुर के लिए रवाना हुआ। वहाँ जा उसने जाफर को मार डाला और उसका सर काट कर अपनी माता के सामने ला रखा। यह खबर जब दिल्ली के शाहजादे को मिली तब उसने द्वन्नू को बुलाया और दयाराम की जगह पर रहने के लिए कहा। पर टुन्नू उसे ठुकरा कर घर चला आाया।" 

कई पृष्ठों में यह कहानी सुन्दर बिरहा कुन्द में कही गई है। कहीं-कहीं कवि की प्रतिभा ने बहुत सुन्दर उबान ली है। अन्त में कवि ने अपना परिचय दिया है।

(1)

कहै मिठू अच अराम कर 5 सरदा माँई, हमहूँ त जाँई अब चुपाय

कल्लू बद दया हमरे पर मेहर बनिया, गाय गइलों माता 'इयाराम' के कहनियों, माई मोरी सभा में बचाय लेहलू पनिया, इमहूँ त जाई अब चुपाय, दयाराम के कदला सुनाय देहली मैया,

अब कर तू अराम घर जाय । दयाराम के बिरहवा- अब अपने घरे जइहऽ मीत ।

संवत् उनइस राति अन्हरिया हंसराज के बेटा "रज्मक' के चेला इम त हई से बीस के फगुनवों, रहलि मॅगर के दिनवाँ, 'मिद्ध' हर्षे गुजरवा, गइले 'पेड़ी' के बजरवा, अपने अपने घर अब मील, घसियारा ए भया,

नाहीं जानी ढंग गावे केनी गीत ॥ इसके अनुसार इमकी इस रचना का समय संवत् १६२०, फाल्गुन, कृष्णा पक्ष, मंगलवार है। 'इंस का गीत' विरह-रूपात्मक प्रबन्ध-काव्य है। घास छीलते समय बादल चमने और कमि को विरहानुभूति हुई। फलस्वरूप इस प्रबन्ध-काव्य का सृजन हुआ। एक नायिका ने विरह-सन्देश अपने 'प्रियतम के पास, जो कलकत्ता में रहता है, हंस द्वारा भेजा है। कथानक का सारांश इस प्रकार है-

एक विरहिणी नायिका अपनों करुया कथा इंस से कहती है और अपना करुया संदेश पति के पास ले जाने के लिए प्रार्थना करती है। हंस मखदूम देवता के दरवाजे पर सिर टेक्कर बहुत अनुनय- विनय करता है और देवता से उस परदेशी का पूरा पता जान लेता है। वह उबता हुधा वहाँ पहुचा, जहाँ नायक भेष के रूप में एक पेड़ के नीचे बंधा हुआ था। हंस ने उसकी स्त्री की सारी विरह-कथा कह सुनाई। परदेशी ने भी अपने न आने का कारया हंस से बताया। उसे एक बंगालिन ने मेड बमा कर बांध रखा था। तब हंस उसके बन्धन को खोल मखदूम की कृपा से उसे पंक्षी बनाकर उड़ा ले भागा। बंगालिम उसे न पाकर बहुत दुःखी हुई। जब वे दोनों अपने गाँव के निकट पहुंचे तब वह आझमी बन गया और दोनों घर गये। अपने पति को बहुत दिनों के बाद देखकर नायिका फूली न समाई। उसने अपने बिदुबे प्रियतम का बहुत आदर-सत्कार के साथ स्वागत किया और हंस के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की। वह थंक-मदि पति के लिए झटपट बिस्तर तैयार कर उसे सोने को ले गई और पैर दाबते हुए अफ्नी विरह-व्यथा सुनाने लगी।

'दयाराम का बिरहा' से -

पत्नी के वाग्वाण से बिद्ध होकर दयाराम चोरी डकैतो करके धनोपार्जन करना निश्चित करता है और इस यात्रा पर प्रस्थान करने के लिए माता से विदा माँगता है। 

हथवा त जोरि के बिनती करे 'दयाराम' । हे मोरी मातवा तू 'दिहलू' मोर जनमवाँ । का दो त लिखले छोइहें हमरे करमयाँ कतहूँ में जड्यों मोर बचिहें नाहीं जानयाँ। माता बकसर आपन जोर ।। अपने दिल में माता करि लेहु सबुरवा" । नाहीं जनमले हो मोरे पुत ।।

धर का त्याग करते हुए पुत्र को कुकर्म से रोकते हुए उसकी माता ने उत्तर दिया -

(२)

अबने दिनवों के जागि हम पतलों हो बेटा. हो बइठ्ठल दिन रात ॥ सात सोती के तो दूधवा हम पिअवर्ती, तेलचा बुकउवा इम तोह के लगवली, घमवा बतसवा से मैं तोहके बचवीं, कहि के बबुआ। मैं हूँकिया लगवली, घरवा बइठ्ठल हो दिन रात ।। हमरी पमरिया" छोड़ि के बीच बरवा १२ में, तजि के ओकरे' बात ।।

जब दयाराम शराब पिलाकर बेहोश करके दिल्ली के किले में लाया गया और वहाँ उसे दोरा हुआ तब का वर्णन-

(३)

तब भइल बिहान दयाराम गुजरवा के हे उत्तरि गहली शराब । तोरी बाले बेदिया मसकि१४ दिइलसि कड़िया, झटकि करिड्या १५ के फेंके सिकदिया उतरि ओकरि शराब ।। नाहीं अनलो आफर दगवा कमइथे नहीं सार १९ केनी करि देतीं खराब ।। करे 'दयाराम' अहिं त केतों के मध्बो, अइहे मउअतिया २१ सबै जइहें रे मोरी जान। केहू दुनिया में बचि नाहीं जाई। जेमे जेकर क्षिक्षत होई मीटे संग आई तब जइहे रे मोरी जान: 

हंस-गीत' से-

कहे मि‌ट्ट सुरसती के मनाय के करयु हमहूँ के दे तू गियान लगती ब‌दिया छिलत रहलें घसिया आइल दिलवा में तब फेकें एक बतिया, बिरहा बनावे सिह दिनचा वो रतिया, हमहूँ के दे तू गियान ॥

गोरो के बलमुआ छवले बा परदेसवा,

मैं उन्हीं के करो ऐ गरजे बादल तदपे बिजुलिया गद्दल पियवा हो परदेस ।। अंग-अंग देहिया त गोरिया के टूटे छतिया पर जोबना बिना पिया के सूखे, बिना पियवा दरदिया भोकर कइसे छूटे, गड्छ पियवा हो परदेस ।। बन के जोगिनियों हूँ इतो पियवा के में जो कहीं पइतो सनेस ॥

बयान ।।

(२)

गोरी रहे उमिर के थोरी जोहे बालम की आस ।

नोहेले भास ओकर जागळ वा अनेसा मारे सोक्रियन १२ के ओकर फाटेला करेजा गइल छितराय हो गइल रेजी-रेजा १४ जेहि बालम की आस ।। फूल कुम्हलाइ जात वा बेइल के, कहिया " मॅवरा अइहें पास ।।

जांगनारायण 'सूरदास'

जागनारायया 'सूरदास' की एक रचना परिजत गणेश चौबे (बॅगरी, चम्पारन) से प्राप्त हुई। रचना को देखने से ज्ञात होता है कि कवि की प्रतिभा प्रस्तर भी और उन्होंने काफी रचनाएँ की होंगी। चीजी को यह बारहमासा गोरखपुर जिने से प्राप्त हुआ था। इसकी भाषा भी गोरखपुरी भोजपुरी ने मिलती-जुलती है। अतः जोगनारायण गोरखपुर जिले के रहनेवाले होंगे, ऐसा अनुमान स्वाभाविक है। 

बीसू

प्रथम मास असाद हे सम्रि सामि चक्षले जलधार है। एहि प्रीति कारगा संत बॉचल सिया उद्देश सिरी राम हे ॥ सावन हे सखि सबद सुहावन रिमझिम बरसत बुन्द है। सबके बलमुआ रामा घरे बरे अइले हमरो बलमु परदेस है ।। भादो है सखि रैन भयावन दूजे अन्हरिया ई रात है। उनका उनके रामा बिजुली चमके से देखि जियरा बेराय हे ।। आसिन हे सत्रि आस लगावत्र श्रास ना पुरलड हमार है। कातिक हे सस्ति पुन्ध महीना करहु गंगा असनान है। सब कोइ पहिरे दरामा पाट-पिलम्बर हम धनि ३ गुदरी पुरान है ।। अगहन हे सखि मास सुहावन चारो दिस उपजल धान है। चकवा-चरैया रामा खेल करत है से देखि जिया हुलसाय है ।। पूस हे सखि ओस परि गहले भौजी गहले लम्बी-लम्बी केस है। चोलिया भींजते जे करबि की इस जोबना मिले अनमोल हे ॥ माघ हे सत्रि ऋतु बसंत आइ गहले जबवा के रात है। पिश्रवा रहितन रामा जो कोरवा जग‌तों कटत जादा ई हमार हे ।। फागुन हे सखि रंग बनायो खेत्जत पिया के जे संग है। ताहि देम्बी मोर जियरा जो तरसे काड ऊपर बाहें रंग है। चैत हे सखि सभ बन फूले, फुलबा फूले जे गुलाब है। सस्त्रि फूले सभ पिया के संगे हमरो फूल जे मलीन हे ।। बैसाख हे सत्री पिया नहीं आवे बिरहा कुहकत मेरी जान है। दिन जो कटे रामा रोवत-रोवत कुहुक्त बिते सारी रात है ।। जेठ हे सखि आये बलमुवा पुरल मन के भास है। सारी दिन सखि मंगल गावति हैन गंवाये पिया संग है। 'जोग नरायन' गावे बारहमासः मिता जो लेना बिचार है। भूल-चूक में से माफ कीजे पुर गइल बारह मास हे ॥

बीसू

बीसू जी शिवमूरत के शिष्य थे। शिवमूरत जी कौन थे और उनका घर कहाँ था, यह अभो अज्ञात हो है। बीसू जी का भी परिचय वैसे ही अज्ञात है। सन् १८११ ई० के पूर्व की छपी 'बिरहा- बहार' नामक एक चार पृष्ठ की पुस्तिका मिली है। पुस्तिका पर १६११ ई० मालिक के नाम के साथ लिखा हुआा है। 'बिरड़ा बहार' के प्रकाशक है- बसन्त साहु कुकलेलर (चौक बनारस) और नुदक हैं-सिद्धेश्वर स्टीम प्रेस, बनारस। बिरहा के मुखपृष्ठ पर लिखा है- 'शिवमूरत के शिष्य बोस् कृत'। बीसू जी के बिरहे सचमुच सुन्दर उतरे है।

बिरहा-बहार' से

पहिले मैं गाइला अपने गुरू के जौन गुरू रचलन जहान । जोइ गुरू रवलन जहान सुरसतिया ॥ बैर्डी माई जीभा पर गाइब दिन रतिया। जोई गुरू रचे जहान । पानी से गुरू पिन्डा सवारे अलस्खपूरी नवीन ॥ १॥ सोनवा में मिलल बायर सोहगवा ए गोरिया । कंचन में मिलल बाय कपूर । मिलल आय अपने बक्षम से। पतरि जैसे तिरियवा पाठ मिलल बाय मकलूब ॥२॥ छोटकि ननदिया मोर माने ना कहनवाँ सुतेले अंगनवा में रोज । सोना ऐसन जोबना माटि में मिलवलस मारत बाय कुअरवा के ओस॥३॥ दैतवा में मिसिया सोहत बाटे गोरिया के मथवा में टिकुली लीलार। चदली जवानी तू तो गइलू बजरिया तोरा जोबना उठल बाय जिउमार ॥४॥ हैं गावत बिरहवा आावेले सरदरवा में सुनलऽ करिला तोरि बोल । जब न् अड्‌को मोरि दुवरिया में हैसि के केवरिया" देवै खोल ॥५॥ दिने सुतंजा रात पुमेला दुलहा करेला जंगरवा " के ओट १२ । रात परोसित मोहे मरलोन मेहनवाँ १७ काहे न लड़िकवा बाय होत ॥६॥ इहै सिटी-बोलवा उजबलस मोर टोलवा मोठी मीठी बोलिया सुनाय । एछि कुजरी तो मोर मध्या के विगरलस७ धानी में दुपटवा रेंगाय ॥७॥ बाजूबन्द्र तोरे इन्ड पर सोहै नाक नथिया बाय, गले टोक २० । पाँच रंग चोली सोहे, तोरे मसवा गाल के सोहे बीच ॥८॥ मिरवानेर की नाई तोरि फुफुतिर बतसिया सुनरि२४ को नाई तोरी ऑस। उदि गइलन अचरा झलकि गहले जोवना, जैसे उगल बाय दुनिया के चाँद ॥६॥ दया धरम नाहीं तन में ए गोरिया नाही तोरे अखिया में शील। उदत जोवनवाँ तू गहलु बजरिया के मुदई चाय के हित ॥१०॥ श्रींकत घरिल्ला उठावे वारि धनियाँ ओके दहिने ओर बोलेला काग । कि तोरे १टीई माथे के परिलया कि मिलि है नन्हवे२७ के यार ॥११ अमवा की दरिया बोजे ना कोइलिया सुगना बोले ना लखराब३८ सवति के गोरिया में बोले मोर पियवा मोसे ही दुख सहलो न जाय ॥१२॥ सगरों३९ बनारम चरिके३० ऐ मुनी तू कोनवाँ ३१ में कइलू ३२ दूकान । वृधवा मलढ्या मोरे देंगे से न विकिई तनि अंखिया लड़वले से काम ॥१३॥ 

महादेव

शाहाबाद जिले के महादेव सिंह 'धनश्याम' अथवा 'सेवक कवि' से भिन्न यह दूसरे महादेव हैं। आपका निवासस्थान बनारस है। आपका विशेष परिचय ज्ञात नहीं हो सका। आपके गोत 'पूजा तरंग नामक संग्रह-पुस्तिका से मुझे मिले हैं। गौतों से श.त होता है कि आपको पशु-पक्षियों का अरदा ज्ञान था। आपका समय १६ वीं सदी का अन्त होगा, ऐसा अनुमान है।

पूर्वी दोहादार

(१)

सुनऽ मोरे सैयां मोरी बुध २ लबकइयों हमें मेंगाई देता ना, सामासुन्दर एक चिरड्याँ हमें मंगाई देता ना ॥१॥

बहुत दिना से चिरई पर मन लागल बाय हमार, अगिन हरेवा हारिल खातिर तोह ने कई तिस्वार, एक जीयाई देता ना सुगन। राम-नाम लेने को, एक श्रीधाई देता ना ॥२॥

भोरे भुजंगा नित उठ बोले राम-नाम गोहराय, सदिया लाल १२ की सुन के बोली दिल मोरा लहराय, लाल लियाई देता ना। रखने पिंजड़ा में जोगा के, 13 लाल लिभाई देता ना ॥३॥

मोरवा मस्त मगन होय नाचे पर अपना फैलाय, नाचत नाचत पैर जो देखे दिल से में मुरझाय, मोरबा कवना बखत नाचे हेमे दिखाई देता ना, हमें दिखाई देता ना ॥४॥

दिल 'महादेव' मोरे बारे १४ बलम् जवन गवने माँगू इम चिरई चट जा के ले अड्ड१५ कि नाहीं हमें के अरमान मेटाव, से हमें लिभाव, बताई देता ना, हमें बताई देता ना ॥५॥

(२)

सुतल रहलीं ननदो की सेजरिया, जीव बेराई गहले मा। देखली सैयों के सपनवाँ, जीव बेराई गइले ना ॥१॥ चिहुँकि के धइलीं अपनी वनदी के अॅचरवा, दिल घबबाई गइले ना। व्याकुल भइले मोर परनवों, दिल घबड़ाई गइले ना ॥२॥ एक तो अकेली दूजे सखिया ना सहेलो, जीब लजाई गइले ना। रस रस मोर नमदिया जीव, लजाई गइले ना ।।३।। बिना रे सजनवाँ सूना लागे घर-अगनवाँ, दुखवा नाहीं गइले ना। उठते श्रुतिया पर जोबनवाँ, दुखवा नाहीं गइले ना ॥५॥ 

सपने में सक्ष्ाँ मोरा आमके 'महादेव' हमें जगाई गहले ना। नहीं देखली भर नमनयाँ, हमें जगाई गइले ना ॥MI

बेचू

देचू भी बनारस के १६ वी सदी के अन्त के कवियों में से थे। आपकी रचनाएँ बनारसवालों के कराट में आज भी है। आपका एक गीत उक्त 'पूवा तरंग' नामक सेह-पुस्तिका से प्राप्त है।

पूर्वी

लिया के गवनवां रजऊर छोड़ने भवनवाँ, पिया परदेसिया महले ना। सूनी करऽ गहले संजरिया, पिया परदेसिया भहले ना ।। टेक ।। कवने सगुमवाँ भड़या देहले गवनवाँ बढ़ी फजिहतिया कइले ना। लाके अपने पिया बसवरिया बढ़ी फजिहतिया कइले ना ।।१।। सूनी थ। बसरिया रजऊ कइले हो सपरिया, मोर दुरतिया कइले ना । टिकने सर्वाखन की नगरया मोर दुश्ग तया कहले ना ॥२॥ चोलिया के बनवः सड़कै साँझ वो विहनवाँ, गुरहा नाहीं अहले ना । पुमिल हो गइली नजरिया, सुरद्दा नाहीं अइले ना ॥३॥ करे मोजे घतिया हो री 'बेचु' खुर फतिया, पिया जुदाई कइले ना। करके सवतिन संग लहरियः, पिया जुदाई कइले ना ।।४।।

खलील और अब्दुल हबीब

खलील और अन्दुन्त हबीब दो मुसलमान शायर गुरु शिष्य थे। ये दोनों बनारस के हो थे और इनका समय भी १६ वीं सदी का अन्त कहा जा सकता है। बनारस या मिर्जापुर के अखादों में से किसी अखादे से आप दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन दोनों नामों से दो गीत 'पूर्वी तरंग' नामक संग्रह-पुस्तिका में मिते हैं।

खलील की रचना -

पूर्वी दोहादार

बेर-बेर सध्‌याँ तोहसे अरज लगवलीं, पिया बनवाई देता ना । हमके पोर-पोर गहनवाँ, पिया बनवाई देता ना ॥ टेक ॥

कड़ा मिली करनाल में रजऊ पूना मिली पौजेब ।। नथिया सोहरे नागपुर के अबकी सैयाँ लेब। पिया लियाई देना ना, हुल्ला के छपरा में खनबाँ पिया लियाई देता ना ॥ १ ॥ 

घीसू

कलकत्ता में बने करधनी, सुनरी महमदाबाद । बाजू मिलेला बरदबान में, करलऽ सैवों याद ।। पिया मंगवाई देता ना, पटना शहर के बदिया पनवा

हो मंगवाई देता ना ॥ २ ॥ पहुँची बिके पंजाब में प्यारे, सिकरी सोनपुर यार । बिरिया पहिश्य बंगाल के तथे, हम करबई प्यार ।। पियः बरखाई देता ना, जाके ईजानगर अभरनयाँ पिया दलवाई देता ना ।। ३ ।। कुलनो लिया दंड झाँसी जाके, नथुनी मोली नेपाल । 'खलील' तोहसे अरज करत हों, पूरा करो सवाल ।। तनि समुझाई देता ना, इचीब मानिहे तोहरा हो कहनवा तनि समुझाई देता ना ॥४॥

अब्दुल हीच की रचना-

पूर्वी दोहादार

जाके हमहूँ गइये ना, रूम-भूमके कजरी गाबै पहिन-पहिन के सारी ॥ हमरा लागल बा धियनवाँ । जाके हमहूँ गइये ना ॥ १ ॥ सैयों, नइहरवाँ हम जाब। तो, मरब जहर के खाव । अपनी तज देयै हो परनवों साँ जान गंवर्द्ध ना ॥२॥ नहिं मानब अबकी ए ना पहुँचड्या गर हमके सड्यों जान गवइबै ना,

सुनो मोरे सइयाँ, तोहसे कहली कई देयों, हम नइहरवा जइये ना । अब तो आगइले सवनवाँ, हम नइहरवा जइबै ना ॥ टेक ॥ सावन में सब सखिया हमरी करके खूब तयारी ।

भदो में भोर इमाहीम बोलवाये अपने पास । अब्दुल हबीब कहते हमरी पूरी करड सोहाग ।। तोहरी बद गुन गइबै ना।

करवै खलील के बखनवों, तोहरी बढ़ गुन गड्दै ना ॥ ३ ।।

घीसू

१७३

'धीसू' कवि का परिचय अज्ञात है। आपकी रचना मिर्जापुरी कजरी २ नामक संग्रह-पुस्तिक्त में

मिली है। आप मिर्जापुर के कवि थे। समय भी १६ वीं सदी का अन्त था।

(1)

गोरिया गाल गोल अनमोल, ओबनवाँ तोर देखाक्षा नीरंग छिपा शाय सरस साँचेका मा । ना। कठिन कड़ाहट कमठपोठ नदि पटतर वाला ना ।। 

कुम्त कीरते अधिक कलस केचन तेवाला ना। कहते बीसू चित चोराय चकई चौकाला ना ।।

(२)

तोसे क्षगल पिरितिया प्यारी, मोसे बहुत दिनन से मा। हम भ। शक बाटों तोहरे पर, तन-मन-धन से था। घायल भी हम सोहरे, तीखे चितवन से ना ।। इमें छोदके प्रांति करेलू तू लबकन से मा। कहते 'घीसू' कबों तः मिलवू कौनो फन से ना ॥

धीरू

धो भी बनारस में रहनेवाले कावे थे। आपका भी समय १६ वीं सदी का अन्त था। आपकी रचना 'मिर्जापुरी कजरी' नामक संग्रह-पुस्तिका में मिली है, जो नीचे दी जाती है-

कजरी

ना। बाटे बड़ी चतुर स्खकिनियाँ पैसा मुस के लेला ना । घरे नरंगी कपरा पर कलकतिया केला मा ।। घूमे चठकपुर नयना सौदा हँसके देला शाम-सुबह-दुपह‌रिया भावे तीनों बेला 'भीरू' कहै हमहू से लेले एक अपेक्षा ना ।। ना ।।३।।

रसिक

एक रसिकजन नाम के कवि पहले भी हो चुके हैं। पता नहीं, आप वहीं है अथवा दूसरे। आपको भाषा में ज्ञात होता है कि आप 'शाहाबाद' अथवा 'बलिया' जिले के रहनेवाले थे। डुमरांव के एक 'रसिक' नामक कवि हिन्दी के भी कवि हो गये हैं, जिनकी एक छपी पुस्तक देखने को मिली थी। आप वही 'रसिक' कवि हैं, या दूसरे यह भो नहीं कहा जा सकता। आपकी तोन रचनाएँ उक्त 'पूवा तरंग' नामक पुस्तिका में मिली हैं, जिनमें दो नीचे उद्धृत हैं-

(1)

फूल खोदे अइलों में बाबा फुलवरिया अॅटकि रे गइली ना, फूल-बारी रे चुनरिया अॅटकि रे गहलो ना ।। कैसे छुड़ानों काँटा गढ़लऽ अँगुरिया से फटि रे गहली ना, मोरा चोलिया केसरिया, से फटि रे गड्ली ना ।। संग की सखी सब भुलली डगरिया भटकि रे गहली ना ।। 'रसिक' बलम् खेहू सरिया भटकि रे ये हो माया रे नगरिया, भकि रे गइती ना। गइली ना ।। 

पिया मोर गइलें रामा हुगनी सहरवा से लेइ अइले ना एक बंगालिन रे सवतिया से, लेइ रे अहले ना ।। तेगवा जे साले रामा घरी रे पहरवा, सवतिया साले ना । उजे आधी-आधी रतिया, सवतिया साले ना। सवती के ताना मोहिं लागेला जहरवा, कहरवा डाले ना, मोरा कसकत छतिया, कहरवा डाले ना ।। 'रसिक' बलम् अब भइले रे निठुरवा से, बोले-वाले ना ।। पिया मोसे सुख बतिया, से बोले-वाले ना ।।

चुन्नीलाल और गंगू

चुन्नीलाल का नाम बनारस शहर के बूढ़ों में अब भी आदर के साथ लिया जाता है। आप वहाँ के मशहूर शायरों में से थे। आपके शिष्य गंगू थे। चुन्नीलाल की रचना तो अभी नहीं मिल पाई है; पर गंगू जी की रचना प्राप्त है। 'पूवा तरंग' नामक संग्रह पुस्तिका में आपका एक पूवा गोत है, जिसे नीचे उद्धृत किया जा रहा है। इसमें चुन्नीलाल गंगू नाम आया है। 'चुन्नीलाल' का नाम 'गंगू' ने अपने गुरू के रूप में रखा है।

मथवा पर हथवा देके कॅलेलिन गुज रिया ४, पिया घर नाहीं अइले ना कइले इमरे संग में बतिया है, पिया घर नाहीं अइले ना ॥ १ ॥ बिरहा सतावे मोहीं चन नहीं आावे, करम मोर फूटी गहले मा। हम पर अइले हो विपठिया, करम मोर फूटी गइले ना ॥२॥ उमगलि जोबनवां मोरा माने ना कहनवाँ, दुखवा भारी भइले ना। फसौले ८ पिया के मोरे सवतिया, दुखवा भारी भइले ना ॥ ३ ॥ सूना जागेला बस्वरिया नाहीं भावेला सेजरिया । इमले कइलेना चुन्नी लाल गंगू घतिया ना ॥४॥

काशीनाथ

आपकी कविता की भाषा विशुद्ध भोजपुरी है। भोजपुरी-भाषी जिले में होगा। आपका समय तथा रचना 'मिर्जापुरी कजरी' नामक संग्रह-पुस्तिका में मिली अतः आपका भी जन्म-स्थान किसी विशुद्ध अधिक परिचय अज्ञात ही है। आपकी एक है, जो नीचे उद्धृत है-

अस्त्रिया कटीली गोरी भोरी तोरी सुरतिया रामा, हरि चितवन मारेलू कटरिया रे हरी । पतरी कमरि १२ तोरी मोहनी सुरहिया रामा, हरि-हरि लचकत चढ़ेलू अटरिया रे हरी ॥ 

धानी चुन्दरिया पहने ठाढ़ हो विरिकिया रामा, हरि-हरि ताकि ताकि मारेलु नजरिया रे हरी । 'काशीनाथ' जोहे नित्त तोहरी बगरिया रामा, हरि-हरि जबसे देखले प्यारी तोर सुतिया रे हरी ॥

बटुकनाथ

'बटुकनाथ' के गीतों को वर्णन-शैली देखकर ज्ञात होता है कि ये बनारस के हो किसी कजरी- अखाड़े के कवि थे। इनके गीत बड़े रसोले हैं। भाव तथा भाषा भो बहुत चुलबुली है। 'बाँका छबीला गर्वया' नामक पुस्तक में इनके गीत मुझे मिले, जो नीचे दिये जाते हैं-

कजली

(1)

गोरी करके सिंगार खोली पहिरे बूटेदार जिया मारेली गोदनवाँ गोदाय के, नयनवाँ लदाय के ना ॥ १ ॥ बनी है सूरत कटीली गोल, बोल मीठी मीठी बोल

मोर फंसीले जाली मनवाँ मुसकाय के, नयनवों लड़ाय के ना ॥ २ ॥ पतरी कमर, कुनुकती चाल, लटके गालों पै बाल जादू डालेलो जोबनवाँ देखाय के, नयनवों लड़ाय के ना ॥३॥

जिस दम जालू तू बाजार घायल करेलू कितने यार रखि तू जुलुमीर के अंचरवा में छिपाय के, नयनों लड़ाय के ना ॥ ४ ॥ पहिर कुसुम रंग तन सारी, प्यारो मान बात हमारी रहि तू 'बटुकनाथ' के गरवों लपटाय के, नयनवों लदाय के ना ॥ ५ ॥

(२)

सन्त्री से कड़े नहीं घर बालम आलम चढ़ी जवानी में । फैलस जोर-जुलुम अब जोबन मस्त दीवानी में ॥ कारी घटा घनघोर बिजुरिया चमके पानी में ॥ 'बटुकनाथ' से कर साथ ऐसन जिन्दगानी में ॥ १ ॥

बच्चीलाल

आप बनारस के मशहूर मुकुन्दी भाँव के पुत्र थे। मुकुन्दी भाँब शायर छन्नूलाल के शिष्य थे।

मुकुन्दी भांग, मलदहिया (बनारस छावनी) के रहनेवाले थे। मुकुन्दी लाल, उनके गुरु छन्नू लाल

तथा बच्ची तीनों बनारस के अति प्रसिद्ध कवि भैरोदास के अखाने के शिष्य थे। बच्ची लाल को लिखो

एक पुस्तिका 'सावन का सुहावन ढंगा'३ मिली है। कवि ने एक कजली के अन्त के चरणों में अपने

अरसाद के आदि गुरु 'मेरो दास' के सम्बन्ध में लिखा है- 

"राहो हो गये शायर पुराना, है ये भैरो का बराना।

उनको जाने जमाना हिन्दू, गुल्तमान बज़म् ॥" आपकी रचना उसी पुस्तिका से उद्धत की जानी है जो गास-पनाह की लड़ाई और पति के परिযার के रूप में है। पति ने जो जवाब दिया है, यह तो खड़ी बोली में है; पर नास-प्रनोह का लगदा भोजपुरी न है। भांदों की नाख्य-कला का प्रदर्शन इस पद्यात्मक नाटक में कितना कलात्मक है, यह इन पदो से ज्ञात हो जायगा

पति से

कही ला तोये तीरवार ! सुनः पती जी हमार । हमने माई तोहार झगड़ल करलीन ॥ खुराफात मधावें, चमकायें, अड्डा, रोज रोज जियरा डाइल करलीन ॥ टेक ॥ गडवों की कुल नारी। घरवां आत्रे पारा पारी समझाये सब हारी, नहीं माने कहना ॥ धम-धम मारे लात, जो में बोलू कुछ बात ।

• जियरा मोर घबरात, कइसे होई रहना । चीत गईल अकुलाय तोह से कहीं बिलस्त्राय । पछताय पछताय के चलावें बेलना । छोक-छौक के ताने लोटा । बैंके अइहें मोर झोटा०, लोटवा से कूचे" लीन जवन मोरा गहनों ॥ जब देखे तोर सकल, तब करलीन नकल, पटिया १२ पर पबल कहॅरल 13 फरलीन ॥

जगनाथ रामजी

आपने गांधीजी के चर्चे पर भी सुन्दर रचनाएँ की हैं। थाप बनारस के वर्तमान मशहूर कवियों में एक है; क्योंकि बुद्ध‌जी श्रादि आधुनिक व्यक्तियों का जिक आपसे रचना में आाया है। रचनाओं से ज्ञात होता है कि कविता-रचना में श्राप अपने प्रतिद्वन्द्वियों से लोहा लेते हूँ। कुछ नये तज के गीतों के उदाहरण आपकी रचनाओं से नीचे दिये जाने हैं-

सत्याग्रह में नाम लिखाई, सड्याँ जेहल रजऊ छौले १४ जाई, कइसे होइ है ना,

पूर्वी बिहाग

ओही जेहल के कोठरिया गोदवा में बेदिया, हाथ रजऊ कइसे होइ ई ना ।। १ ।। पहली हथकदिया, रजऊ कइसे चलि है ना

बोझा गोढ़वा में जनाई, रजऊ कइसे चलि है ना ।। २ ।। घरवा तो सइयाँ कुछ करते नाहीं रहले, अटवा कइसे पिसिहँ ना, भारी जेहल के चकरिया उहलों कइसे पिसिई मा ॥ ३ ॥ 

घरके जेवनवाँ उनका जब के रोटिया, घासि के सगत मस्त्रमत्त पर सोत्रे उनकर नीको र नाहीं लागे उहवाँ कहने स्वई है ना, उहाँ करमे बड्दै ना ॥५॥ निंदिया नाहीं आहे उहवों कइ‌से सोही ना, सहयाँ कमरा के सेजरिया, उहवाँ कहने सोइहैं ना ॥५॥ 'जगरनाथ' वुद्र सत्याग्रह 并 नाम लिस्बड है, लेहल उनहें जहर्दै ना, भारत माता के कारनवाँ, जेहल उनहें जइहैं ना ॥ ६ ॥ रजऊ कहने होइहैं ना, ओडी जेहल के फोडरिया रजऊ कइसे होइ है ना ॥ ७ ॥

बिमेसर दास

आप बक्सर (शाहाबाद) के भक्त कवि कुंजनदास के शिष्य थे। कुंजनदास का लिखा, अबभो और भोजपुरी-मिश्रित ब्रजभाषा में छपा हुच्या एक काव्य धन्य प्राप्त हुआ है। बिरेसर दास के मो भोजपुरी गीत 'भूमर-तरंग' नामक भोजपुरी-पुस्तक में प्राप्त हुए हैं, जिन में से एक पर्दा उदत है-

(१)

जो मधुवन मे लवटि कान्हा अहें हरखि पुजयों ना, गिरिजा तोरा हो चरनवों, हरखि पुजर्षो ना ॥ मेबा पकवान फल फूल ही मिठाई, मुदित होइ ना, मैया तोहिके चढ़‌यों हो । मुदित होइ० ।। अस्तुत चन्दन गौरा वेलपतिया सुमन हार ना, लेड़ पुजयों तोर चरनियाँ ॥ सुमन हार ना० ॥ 'कू'जन दास' के एक दास हो 'बिनेसर' विनय करे ना, सीम नाइ हो गुजरिया । विनय करे ना

जगरदेव

जगदेव जी के नौन गौन यहाँ उधृत किये जाते हैं। आपका परिचय अज्ञात है। अनुमान है कि आप शादाबाद जिने के हैं; क्योंकि आपकी भाषा विशुद्ध भोजपुरी है।

(1)

स्वामी मोरा गइले हो पुरुष के देसवा से देह गइले ना । एक मुगना खेलौना, से देह गहले ना ॥ ब्राय के माँगे सुगना न्ध-मात खोरिया ७, से सुते के माँगे ना दनों जोयना के बिचवा, से सुने के माँगे ना ॥ श्राधि-आधि रनिया सुगा पछिले पहरवा ८, से कुटके लागे ना । मोरी चोलिया के बन्दवा से कुटके लागे ना ॥

एक मन होता सृङ्गा भुवों में पटकति, नृपर सनवा ना ॥ 'जगरदेव' स्वामी का खेलौना, दूसर मनवा ना ॥ 

मुड़वा मौजन २ गहलो बाबा का सगरबा 3 मे गौरी गइले ना। तीनपतिया कुलनिया से गौरी गइले ना ॥

फोठवा पर पूड़ेला लहुरा देवरवा से केहि रे कारन ना । भउजी मुं हवा सुत्रायल से, केहि रे कारन ना ॥

पनवा बिना ना मोरा मुँहवा सुत्रायल, झुलनी बिना मा ॥. तजये आपनऽ परनवा कुलनिया बिना ना ॥

मोरा पियुअरवा हाँ मलहवा पेटउआ से खोजी देड ना। मोर नइहर के कुलनिया से खोजी देड मा ॥ एक जाल लत्रलीं, दूसर जाल लवली से तीसरी जलिया ना।

फसलि थावे मोरी मुलनिया से तीसरी जलिया ना ॥ झुलनी के पाय खुसीआलो ८ मन भइलो से चलत भइली ना। 'जगरदेव' स्वामी के भवनवाँ से चलत भइली ना ॥

(३)

जब से छ्यलवा मोरा छुअले लिलरवा, सपनवा भइले ना।

मोरा नइहर-अॅगनवाँ सपनवा भइले ना ॥

तोहरे करनवों फैला माई-बाप तेजीं, से तेजी देहलीं १० ना ।।

अपने नइहर के रहनवाँ, " से तेजी देहलीं ना ।। हाँ रे मोरे सैयाँ मैं पर तोरी पैयाँ १२, से दिनों चारि ना। हमके जायेदऽ नइहरवा से दिनवाँ चारि ना ।।

अबहीं उमर मोरा वारी लस्कियाँ १४, से मिटि रे जइहें ना । 'जगरदेव' दिल के कसकवा से मिटि रे अइहें ना ।।

जगन्नाथ राम, धुरपत्तर और बुद्ध

बनारस में 'शह्वान' शायर का भी एक कजरी-गान का अखाड़ा था। इस कवि के कई शिष्य दो

गये हैं जो नये नये तजों से कजली की रचना करके कजली के दंगलों में बनारसवालों को प्रसन्न किया

करते थे। इस अखाड़े के प्रसिद्ध शिष्यों में बुद्ध, धुरपत्तर तथा जगन्नाथ राम के नाम उल्लेखनीय है।

इनकी अपनी-अपनी रचनाओं की अनेक पुस्तिकाएँ हैं। सन् १६३० ई० के लगभग इनका रचना-

काल है; क्योंकि जगन्नाथ राम को रचना में १६२१ ई० और १६३० ई० के सत्याह-आन्दोननी का

वर्णन है। मुझे 'पूर्वी का पीताम्बर १५ नामक पुस्तिका मिली है, जिसमें इन तोनों कवियों के गोन

रुगृहांत हैं। एक गीत में दो या तीनों कवियों के नाम आ गये हैं।

पूर्वी दोहादार

(१)

जबसे बलमुवाँ राइले एको पतिया ना भेजलें, पिया लोभाई गइले ना कवनो सौतिन के रुरिया, पिया लोभाई गइले ना ॥ टेक ॥ जबसे सइयाँ छोड़ के गइलै, भेजे नहीं सनेस । कामदेव तन जोर करतु हैं, दे गए कठिन क्लेस ॥ 

सइयाँ बेदरदी भइलें ना हमरी बेहलें ना खबरिया सड्यों बेदरदी भइले ना ॥ १ ॥

तड़प-तड़प के रहूँ सेज पर, लगे भयावन. रात । जोबन जोर करें बिनु सड्यों, ई दुख सहल न जात ॥ कोई बिलमाई खेहुली ना, गइले बँगाले नगरिया कोई बिलमाई लेहली ना ॥ २ ॥

आप पिया परदेस सिधारे, कोष अकेली नार । पिया रमे सौतिन घर जाके, इसके दिया बिसार ॥ पिया बिसारी गइले ना बइठ्ठल गोहीला इगरिया पिया बिसारी गइले ना ॥ ३ ॥ दिल की अरमा दिल में रह गई, करूँ में कवन उपाय। गम की रात कटत ना काटे, सोच सोच जिव जाय ॥ पिया खुवारीर कइले ना जिहले हमसे फेर नजरिया पिया सुवारी कहले ना ॥ ४ ॥

'शहवान' उस्ताद है हमरे, दिया ज्ञान बतलाय । जगरनाथ बुद्ध का मिसरा, सुन मन खुसी हो जाय ॥ आज सुनाई गइले ना, गाके सुन्दर तरज कजरिया, भाज सुनाई गइले ना ॥ ५ ॥

(২) श्रस्त्रिया लड़वलू हमके दुरिया पर चढ़वलू मोरी भउजी । मउतिया हमार मोरो भउजी ॥

करके सिंगरवा जब पहिनलू कजरवा, मोरी टिकली सोहले मजेदार, मोरी चललू डगरिया तिरछी फेरत नजरिया, मोरी पुमे जालू सगरे 3 बजार, मोरी नकिया क ठुनकी तोहरे गाले पर के बुनकी मोरी करेलू कतनऽ६ कई हजार, मोरी भउजी । भउजी ॥१॥ भउजी । भडजो ॥२॥ भउजी । भउजी ॥३॥ भउजी । भउजी ॥४॥ मोरी भउजी । भउजी ॥ मोरी भउजी ॥५॥ गंडन का मेला लागे, करेलू झमेला मोरी दनों जूनऽ चले तरवार, मोरी कह ले बुन्छ हँसके रहऽ रात बसके, पूरा करऽ पुरपत्तर के करार मोरी भइली मउतिया हमार,

रसिकजन

परिचय अग्राम है। अप अपने समय के जनप्रिय भक्त कवि थे। आपके 'राम

देगी मिलते हैं। आप्पी एक रचना 'श्री सीताराम-विवाह' से उद्भुत की जाती है-

अवध नगरिया में अडले बरिअतिया, ए सुनु सजनी, जनक नगरिया मैले सोर, ए सुनु सजनी ॥ 

बाजवा के शब्द सुनी पुलके मोरा कुतिया ए सुनु सजनी, रोसनी के भयल बा अॅजोर, ए सुनु सजनी ॥ सब देवतन मिति अहले बरिअतिया, ए सुनु सजनी, बाजन बाजेला घनघोर, ए सुनु सजनी । परिछन चलली सब सखिया सहेली, ए सुनु सजनी, पहिरनी लहंगा पटोर ३, ए सुनु सजनी ॥ कहत 'रसिक जन' तेस्वहु सुनर बर, ए सुनु सजनी, सुफल मनोरथ मैले मोर, ए सुनु सजनी ॥

लालमणि

लालमणि का परिचय प्राप्त नहीं हो सका। आपके चार गीत 'बड़ी प्यारो सुन्दरी वियोग' यानो 'बिदेविया' नामक पुस्तिका में मिते हैं। यह पुस्तिका सन् १६३२ ई० में प्रकाशित हुई थी। आपको रचना को भाषा ने पता चलता है कि आप सारन अथवा शाहाबाद जिले के निवासी थे।

पूरबी (1)

अइले फगुनवाँ सँया नाहीं मोरे भवनवाँ से होरी बरजोरी मोसे खेले रे देवरवा भरि पिचुकारी मारे, हिया बीच मोरे रे हथवा घु घट बीच डाले रे देवरवा अबीर गुलाल लावै हँसि-हँसि गलवा रे देवरवा मोरा, मोरा ॥ टेक ॥ देवरवा मोरा, मोरा ॥ १ ॥ देवरवा मोरा, जोबना मरोरे बहियों ठेले रे देवरवा मोरा ॥ २॥ निठुर लालमणि माने ना कहनवाँ रे देवरवा मोरा, करे मोरे चोलिया में रेले रे देवरवा मोरा ।। ३ ।। (२)

जियरा मारे मोरि जनियाँ सो तोरी बोलिया । कुसुमी ओदनिया बीचे जरद किनरिया कसरी रे चोलिया, हा रेसमी तोरी श्रुतियाँ, कसी रे चोलिया ॥ १ ॥ पिह केलू जनियाँ कोइ‌लिया की नयाँ अजब बोलिया, 19 लगे रे मोरे हियरा अजय गोलिया ॥ २ ॥ चलु-चलु प्यारी चलु हमरी नगरिया फनाऊँ डोलिया, मानो हमरी बचनियाँ फना ऊँ डोलिया ॥ ३ ॥ लागी गइजी प्यारी मोरे तोहे पे धियनवाँ हमारी टोलिया'", लगिहें 'लालमणि' छतिया हमारी टोलिया ।। ७ ।।

(३)

मैना" भजु आठो जमवाँ १२ तु हरि-हरि ना ॥टेक०।। तजि देहु मैना माया-कपट करनवाँ १३ से धरि लेहु ना, मैना स्वामी वै धियनवों से धरि लेहु मा ।।

जेहि दिन अइहैं मैना कठल-कररथा से घरि-घरि ना, सोरा तोरी गरदनवों से धरि परि ना ॥२॥ कहत ज्ञालमणि मानि ले कहनवाँ से घरी-घरं ३ मा, बोले मैना हरिनमों से घरी घरी ना ।।३।।

(४)

तोरी बिरही बँसुरिया करेजवा साले ना ।।टेक ।। जेहि दिन आयो कान्हा हमरी नगरिया, मोहनियाँ डाल्यो ना, कोन्ही इसिसि बतियाँ मोहनियाँ डाल्यो ना ॥१।। सुनो मोरी सखिया में जोहति डगरिया बँसुरिया बाले ना. कहाँ गैजे मोरा कान्हा बँसुरिया वाले ना ॥२॥ अब सुधि भावे कान्ह। तोहरी सुरतिया, करेजवा घाले ना, श्रोही बिरहा के बोलिया, करेजवा घाले स्याम लालमणि सुधि बिसरेला से परज्यूँ पाले तोहरे बरबस कान्हा से ना ॥३॥ ना, परक्यू पाले ना ।।४।।

(५)

हमके राजा बिना सेजिया से नाहीं भावे ना ॥ टेक ॥ जाहि दिन संयाँ मोरा ले अइलें गवनवों से नाहीं आवे ना, सैया इमरी सेजरिया से नाहीं आवे ना ।।१।। बिन रे बलम कैसे सूतों में सेजरिया से नाहीं आवे ना, हमरे नैनवा में नोंदिया से नाहीं आवे ना ॥२॥ नाहीं नीक लागे हमके कोठवा अटरिया अंधेरी लावे ना, बिनु पिया के भवनवाँ अंधेरी छावे ना ॥३॥ सुनहु लालमणि भावो मोरो संजिया, से नाहीं पात्रे ना, सुत्र सेजियाँ गुसयों से नाहीं पाये ना ।।४।।

(६)

हमरा लाइ के गवनवाँ बिदेसवाँ गइले ना ।। टेकः ।। केनिकों में लिखि-निस्त्रि पतियाँ पठवीं से नाहीं अइले ना, निरमोही मोर सजनवाँ से नाहीं अहले ना ।।१।। उमदी जोबनों, मोरा न माने कहनों से बेदनवाँ भइले ना, हमरे दिया के भितरवाँ, बेदनवाँ भइले ना ॥२॥ कवन बिगरवा तोरा कइलूँ विधि-बझा, अमानिन कहले ना, अब से कवने रे करनयाँ अभागिन यरु १० में कुमारी होतीं बाबा जी के घरवाँ, से हथवा-बहिर्यो ११ सजनवाँ से नाइक कइलें ना ॥३॥ नाहक धइले ना, अइले ना ॥४॥ 

'लालमणि' लागें पैयाँ, आा जाओ मोरो, सेजियाँ से काहे देते ना, हमके कत्लेसवा, से काह देले ना ।।५।।

(0)

सैयाँ नहाये में कासी गहले, गरहनवाँ हराईर गइलूँ ना, बाबा भोला के नगरियाँ, हेराई गइले ना ।। टेक० ।। कासी हो सहरिया, धनि रे बजरिया लोभाई गइले ना, लाग्यूँ निरखे अटरिया, लोभाई महल ना ॥१।। जेलनी जे रहलिन मोरे सँग की सडेलिया, बिहाई गइले ना हमसे छुटि गइले सँगवा बिहाई गइले ना ॥२॥ जाये के 'नकास', "सो में गहले पुन्धराज, "से भुलाई गइले ना, ओड़ो नीची ग्रह्मपुरिया, भुलाई गइले ना ॥३॥ बाबा हो बिसेसर जी के सांकरी वा गलिया, दबाई गहले ना, मोरी फाटि गइली चोलिया, दवाई गहलूँ ना ।।४ 'लालमणि' रहलें मोरा नान्हें के मिलनियाँ से आई गइले ना, उन्हुँ के सँगवाँ नगरियों से आई गइलूँ ना ॥५॥

(८)

होरी खेले मधुबनवाँ, कन्हैया दैया ना ।। टेक० ॥ दहिया रे बेचन गहलू श्रोही मधुबनवाँ कन्हैया देया ना, साग्यो हमरे गोहनवों कन्हैया दैया ना ।।१।। अबिर-गुलाल लीन्हें जसुदा ललनवाँ कन्हैया या ना, लावे मलि मलि गलवा कन्हैया देया ना ॥२॥ भरि पिचुकारी मोरे सारी बीच मारे, से कन्हैया देया ना, हमरा मेंरे रे जोबनवाँ कन्हैया देवा ना ॥३॥ निठुर 'लालमणि' माने ना कहनयाँ कन्हैया देया ना, लावे हंसि हँसि गरवाँ, कन्हैया दैया ना ।।४।।

मदनमोहन सिंह

आप डेबढ़िया (नगरा, बलिया) निवासी बाबू महावीर सिंह के पुत्र थे। वि० संवत् १६२८ में पैदा हुए थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा काशी में हुई थी और फारसी से हो आपने मिडिल को परीक्षा पास की थी। संवत् १६८६ वि० तक आप बलिया की कलक्टरों कचहरी में काम करते रहे। आप बड़े अध्ययनशील और विद्याप्रेमी थे। आपकी लिखावट भन्छी नहीं होती थो; अतः कठिनता से पढ़ी जाती है। आपने भोजपुरी के छन्दरों में महाराणा प्रताप को जीवनी लिखी है। हिन्दी में भी आपकी कई पुस्तकें हैं। जैसे-श्रीमद्भागवत का पद्यानुवाद, स्वामी दयानन्द की जोवनी, शक्तिविजयचलोसा आदि । 

( महाराणा प्रताप की जीवनी से )

बिरद्दा

(1)

गढ़ चितउर कर बीरता सुनहु अब कहब सटीक बेबहार । राउशी रतनसेन पदुमिनि रनियाँ साह अलादीन सरदार ॥ पदुमिनि रनिया के सुनि सुघरैया । साह चितउर मर्दै भायल पहुनश्या५ ॥ सिसवामहल देखि रानी परहियाँ । रनवा से मेल करि बालि गलबहियाँ ॥ जब साह कहें राना बेरा पहुँचचजे । जेलखाना भेजि साह हुकुम सुनबले ॥ देहके पटुमिनी के जाई करो रजवा । ना तो खपि जइहें तोर तनवा के ठटवा'"।

(२)

पदमिनि रनियाँ सनेसवा १२ भेजाइ देली छ सौ अइहें बोलिया कहार । सखिया सहेलियन संगवा से अइयो १७ होइ जइयो बेगम तोहार ॥ बनले बीर राजपूत डोलिया-कहरवा । छिपि गइले बारह सह डोली में सबरवा || गोरवा बादल चले, चजे सरदरवा । जाइ पहुँचे राना जी के डेरा के नियरवा १९ ॥ पहुँचे साह सिविर में डोला पदुमिनियाँ। कटे लागे माघ बोर खरग सेननिया ॥ भागी साह फउदि छोड़ाइ लेले रनवा । लेड़ अइले गढ़ पर बाजत निसनवा ॥ बीरता कहत परइ नहिं पार ३० ॥

कवि सुरुजलाल

आपका जन्म-स्थान सारन जिले में बिजईपुर धाम है। आपके पर सहीचोली, भोजपुरी और

फारसी में पाये जाने हैं। आपने भोजपुरी के गीत जनकण्ठ से बहुत सुनने को मिलते हैं। जनरुचि

के. वे अनुक्ल भी हैं। अपने गांव के परिचय में आपका एक पद है, जिसमें लिखा है कि हमारे

गांव के कायस्थ लोग हिन्दी, फारसी और अंगरेजी जानते हैं और ग्राह्मण लोग बड़े ज्ञानी हैं।

अनुमान है कि आप उन्नीसवीं सदी के अन्तिम भाग में हुए होंगे। ओर १०वीं के शुरू तक

जोषित थे। 

चैत

(1)

सपना देखीला बलवनवाँ हो रामा कि सहयाँ के अवनवाँ ।। टेक ।। पहिल-ओहिल सयों अइले अंगनाँ हम ले जाई अलपनवाँ हो रामा बोलत-बतियावत कुछुक घरी कि सइयों के अवनवाँ। बीते, खात-स्त्रियावत पनवाँ हो रामा कि सपना देस्त्रीला सइयों के अवनवाँ ।।

पुरुबी सादी जरद किनारी, 'सुरुज' चाहले गरवा अवरूप ले अइले कॅगनवा हो रामा कि सपना देखीला सइयों के अवनत्रों ।॥ लगावल, कि खुली गइले पलक-पपनवाँ हो रामा कि सपना देखीला सइयों के अवनत्रों ।।

(২)

छैला सत्तावे रे चइत की रतिया हो रामा, आारे सुतलों में रहली पेलगिया आारे सून सेजरिया हो रामा। कि सपना में देखि हो साँवली सुरतिया हो रामा ॥ ३० ॥ आारे चिहुँकि में व्याकुल हमहूँ सगरी १२ रहनिया हो रामा । कि कतहुँ १४ ना पाबोरी मोहनी सुरतिया हो रामा ॥ ३० ॥ अॅ गवा में भभूतिया रमयो अब होड्यो जोगिनिया हो रामा । कि सड्याँ देखावे री कृठि पिरितिया हो रामा ॥ ३० ॥ भागे जलिता चन्द्रावली सस्त्रियाँ सब गोपिया सवतिया हो रामा ।। रामा सँया लोभइले हो कुबरी सबतिया हो रामा ॥ ० ॥ झारे छोदयों में सिर के सेनुरवा हो फोरबो संख-चूदिया १८ हो रामा ।। कि सक्ष्यों बिना रे होड्बो में सतिया हो रामा ॥ छै० ॥ आरे 'सुरुज' कु'जन में गइले सइयाँ परनिया १९ हो रामा । कि छुटी गईल दिल के कुफुतिया २० हो रामा ॥ ३० ॥

होली

(३)

राम लखन सीरी जनक-नंदनी सरजू तीर खेलत होरी। राम के सोने कनक पिचकारी लछुमन सोभे अबीर कोरी ।। राम से लखन संग सीता हरखित होत खेलत होरी। केधिन २१ के ड जे२२ रंग बनावे केधिन बीच अचओर घोरी ।। बालू के उजे रंग बनावे, सरजू माहीं अबीर घोरी । देखत नर सोभा छवि उनकी चकित होइ खेलत होरी ।। 'सुरुज' बेह फगुआ गावत, करत बिनती दोउ २३ कर जोरी। हे रघुनाथ कोसिलानंदन, संकट दूरि करहुँ मोरी ॥ 

अम्बिकादत्त व्यास

आप भारतेन्दुकालीन साहित्यमेवी विद्वानों में श्रेष्ठ माने जाते थे। आपका जन्मस्थान जयपुर था, पर आपका परिवार काशी में रहा करता था। आपके पिता का नाम दुर्गादत्त व्यास था। प्रापका जन्म चैत्र शुक्र अश्वमी संवत् १६१५ में हुआ था। आप भोजपुरी में भी कविता करने थे। आप बिहार प्रदेश के भागलपुर, छपरा आदि स्थानों में सरकारों जिला-स्कूलों के हेड पंडित यां रह चुथे। आप 'सुकवि' नाम से कविताएँ करते थे।

कजली

(1)

कवन रंग बैनवाँ, कवन रंग सैनों, कवन रंग तोरा रे नयनत्रों ।॥ छैल रंग बैनवों, मदन रंग सैनवों, पै अलस रंग तोरा रे नयनवौ ।। मांडे मीठे बैनवाँ, कटक भरे सैनवों, पै जियरा मोरा तोरा रे नयनवों ।॥ अमृत नयनवों, मद के सैनवों, पे जहर के तोरा रे नयनवाँ ।। 'सुकवि' आज कहाँ रहलू जनियाँ अटपट बैनवाँ सैनवों रे नयनवाँ ।।

(২)

रानी विक्टोरिया के राज बड़ा भारी रामा ।

फइल गइले सब संसरवा रे हरी ।। जहाँ देखो तहाँ चजे धुआँकस रामा । चःसे ओर लागल-बाटे तरवा रे हरी ।। साँव-गाँव बनल बाट भारी असपतलवा रामा । घर-घर घूमै डाक्टरवा रे हरि । सहर सदर में बनल इसकुलवा रामा। क्षरिका पढ़ाव मस्टरवा रे हरी ॥ जगह जगह में पुलिस बाटै फैलल रामा । रामा फैसला करेले मजिस्टरवा रे हरी ।। एक को पइसत्रा में, चिठी लगल जाय रामा । दूर-दूर जाला अखवरवा रे घरे-घरे अब तो बजेला थपोड़ी लगल बा कुमेटी हरी ।। रामा । सब सहरवा रे हरी ॥ कितने तो हिन्दू होई गहले सँगरेजवा रामा। मेहरारू ले के करेले 'मुकवि' कहत चिरंजीव सफरवा रे हरी ।। महरानी रामा।

इई राज बाटै मजेदरवा रे हरो ॥

शिवनन्दन मिश्र 'नन्द'

आप शादाबाद जिले के बक्सर सबडियीजन के 'सोनबरसा' ग्राम के निवासी है। विदान्, कवि और लेखक थे। आपके पिता का नाम ५० सत्यनारायण मिश्र थां। आप अच्छे आप हिन्दी, मंनिनी, बैंगना और भोजपुरी चारों भाषाओं में कविता करते थे। आपकी पुस्तकें, सुज्ञविलास प्रेस (पटना) ने प्रकाशित हुई हैं। यापने मैथिली भाषा में सुन्दर काण्ड रामायण और लीलापनों की टांका लिखी थी। आपने हिन्दी में 'द्रौपदी चीर हरणा' 'क्सर गुलबहार', 'प्रद लाद' और 'हरिश्चन्द्र नाटक' लिखे थे। सन् १६५३ ई० में गुमला (रांची) में लिखित आपकी एक भोजपुरी रचना सुन आापक पुत्र श्रीक्मला मिश्र 'बिन' से प्राप्त हुई। 'विप्र' स्वयं भोजपुरी के उदीयमान कवि है आपकी गाथ्यु ५ फरवरी, सन् १६१० ई० में ६० वर्ष की आयु में हुई।

पूर्वी राग

समय रूपर रुपया लेड़के, अहलों हम बजरिया हो, खातिर ना कुछु भीमनऽ सउदवा होरे, बेसाहे खातिर ना० ॥ बेसाहे

घुमन-घुमत इहाँ गौदि दुचरइली हो, फिकिरिया लगली मा भारी भइले माथे के मोटरिया येसाहे खातिर ना० ॥

धमके बजरिया श्रीचे लाहागों कचुड्यों 11 हो भोरावे १२ स्वातिर ना० ॥ बेसाहे खातिर ना० ॥

नीमन जोहत 13 'नन्द' उलटि के देखना उर बीतली उमिरिया हो, में निरमल सोनवा १४ हो, उलटि के देखड ना० ॥ बेसाहे खातिर ना० ॥

विहारी

आप जाति के अहीर थे। आपके समय का अन्दाज १०० वर्ष पूर्व है। ध्यापका निवास बने तो बनारस के पास किसी ग्राम में था, पर आपके जन्म के सम्बन्ध में कोई आपको 'बदायूँ जिते का कहता है और कोई 'मिर्जापुर' जिले का। आपने लोरकी सूच गाई है। आपकी रचनाएँ कवित्त और रुबैयों में भी मिलती हैं। आपको एक रचना मुझे महादेवप्रसाद सिंह 'घनस्याम' के 'भाई विरोध नाटक' में मिली है-

होत ना दिवाल कई बालू के जहान बीच, पानी के फुटेरा १६ चाहे सौ दफे कइला से ।। चाहे बरिआर १७ केह कसई १८ सजाय करी । खल के सुभाव कयो छूटत ना डेंटला से ॥ भोधर ३० दिमाग होत बड़का बुधागर ११ के। कहलहु ना धोबी जिद मार चाहे कहत 'बिहारी' मन समुझि कुकुर के पौछ सोकर होत नाहीं मरला १२ से ॥ बिचार करि, से ।। 

खुदाबक्स

थाप बनारसी कजरीबाज भैरी के समकालीन कवि थे। 'मेरो' से आपकी कजली की प्रतिद्वन्द्विना मुब चलती थी। आप जाति के मुसलमान थे। इन लोगों की होड़ में पहते तो अच्छी-अच्छी रचनाएँ सुनाई जाती थी; पर अन्त में ये लोग गालो-गतीन पर उताड़ हो जाते थे। कभी कभी लाठी भी चल जानी थी। अश्लीलता उस समय पराकाष्ठा पर पहुंच जाती थी। आपके गीत प्रकाशित करने योग्य नहीं हैं।

मारकंडे दास

मारकंडे दारा गाजीपुर के रहनेवाले थे। आपके पिता का नाम गयाप्रसाद था। बनारस में भी एक मारकण्डे जी थे, जो जानि के ब्राद्मण और सोनारपुरा मल्ला के पान 'शिवाला घाट' के रहने वाले थे, जिन्होंने भांडों को मण्डली भी कायम कर लो थी। पता नहीं, दोनों एक ही व्यक्ति ये या दो।

गाजीपुर के मारकण्डे दास द्वारा रचित 'सावन फड़ाका' नामक कजलो की पुस्तिका मुझे ग्राम हुई है। इनमें ६६ कजलियाँ हैं, जो अधिकांश भोजपुरी में हैं और अन्त में हरिश्चन्द्र का एक सवैया है तथा १० १६ पर जहांगीर नामक कवि की दो और पृ० २७ से १६ तक शिवदास कवि को कजलियाँ नोजपुरी में हैं और पृ० ३०-३१ पर अन्य दो कचियों की खदी बोलो की रचनाएँ है। अन्त में मंहस और मोती को भोजपुरी में ४ और २ कजलियाँ हैं। जो पुस्तक मु के मिली है, वह उसका पांचवां संस्करण है। मारकण्डे जो का समय १६ वीं सदी का अन्त और १० वीं सदी का प्रारम्भ

माना जाता है। आपको रचनाएँ सुन्दर और प्रौढ़ तथा भाषा बनारसी भोजपुरी है।

(1)

गनरत चरन सरन में तोहसे हमपर करड दया तू भाज। आारसिद्धि नवनिधि के दाता, सकल सुधारेलाऽ काज । गनपत० । विचिन हरन बा नाम तोहसे सरबगुनन के साज । गनपत० । मारकण्डे दास खास तव किंकर राख लेहु मम लाज।

गनपत चरन सरन मैं तोहरो ।।१।।

(२)

जोवना महल मतवाल, वारी पिया निरमोहिया सक्त सँग भाधी आधी रतिया पछिले ऐसी निरमोदिया के पाले हम कोड़े मारकण्डे दूसर कर जैब ननदी ।।टेका। रीके भेजे नहीं तनिक हवाल वारो ननदी । पहरवा, लहरे करेजवा में श्राग वारी ननदी । पदलीं कब तक देखबि हम चाल वारी ननदी । छुट जैई सबदिन के चाल वारी ननदी ॥३॥

(३)

जरा नैके वजू न जानी गोरे गाल पर काला जमाना नाजुक बाटे ना। गोदनवा चमकत बाटे ना। जरा नैके० ।। 

भौहे कमान अस खंजर-सी झनकल मारकयडे कई देख के गुण्डा छुटकत बाटे ना। बाटे ना ।। जरा नैके० ॥८॥

शिवदास

शिवदासजी का परिचय अब तक अज्ञात है। अतिरिक्त आपने भोजपुरी में भी रचनाएँ की थी। परन्तु, आपको रचनाएँ प्रौद हैं। हिन्दी के आपको चार कत्रलियाँ मुझे पूर्वोक 'मावन- 'कडाका' नामक संग्रह पुस्तक में मिलीं। आपका समय १६ वीं सरी का उत्तरार्द्ध और बीसत्रों मही का प्रारम्भ कहा जायगा ।

(1)

नाहीं लागे जियरा हमार नहर में ॥ टेक ॥ एक तो विकल बिरहानल जारत दूजे बहे विसम बयार नहहर में ॥ कासे कहूँ दुख-सुख की बतियाँ वैरी भइले आापन पराय नइहर में। बिन बालम मोहि नेक न भावत भूखन भवन सिंगार नइहर में ॥ कवि शिवदास मोरे पिया के मिलावो दाबि रहीं चरन तोहार नइहर में ॥

दिलदार

आप शायर बनारस के ही रहनेवाले कवि थे और किसी कजली के अखाने के शिष्य थे। आपकी भाषा बनारसी भोजपुरी ही है। 'सावन-फटाका' में आपकी दो कजलियाँ है।

कजरी कल्डियाँ र झलक देखाय चल गइलू रतियाँ कहाँ बितवलू ना ।। बसन गुलाबी घानी पहिने हमें फंसवलू ना ॥ कल्हियाँ० ॥ कलबल में बलखाय के जनिया छलबल कइलू ना ॥ क० ॥ नैन लड़ाके धन सब खाके दुसमन भइलू ना ॥ क० ॥ करें 'दिलदार' प्यार ना कइलू, हँसी करवलू ना ।। कल्हियाँ० ॥५८ 11*

भैरो

याप बनारस के रहनेवाले थे। अरदली बाजार में आपका घर था। श्राप जाति के राजपूत थे; किन्तु थापका प्रेम एक हेलिन से हो जाने के कारण आपने उसे घर में रख लिया। इससे आप हेला (हलालखोर, भंगी) कहे जाने लगे। आप अपने समय में बनारस के मशहूर घड़ीसाज थे । अरदत्तो बाजार में दो आपकी घड़ी को दूकान थी। आप बनारस के मशहूर कवियों में एक थे। बनारस के कजली के अखाड़ों में, प्रधान अस्त्रादा आपका ही था। आपके प्रधान शिष्य दो थे- ललर सिंह और द्वारिकाप्रसाद उर्फ झिगई। आपके अखाने में शिष्यों की दो परम्पराएँ हो चुकी है। 

जन्मर सिंह को गत्यु अभी सन् १९४७ ई० में हुई है। शताब्दी का अन्त र २० वी शताब्दी का आरंभ है। भजन हिन्दी तथा भोजपुरी में खूब गाये जाने थे। कजली तो मशहूर ही थी। आपने काव्य- शास्त्र का अध्ययन भी किया था और चित्र बंध काव्य थादि भी करते थे। आप इतने नव-नय नती में रचना करने थे कि उससे आपकी ख्याति और अधिक बढ़ गई। आपने अपना मृत्यु के. पूर्व अपनी सभी रचनाओं को इकट्ठा किया और दशाश्वमेध घाट पर उनकी पूजा की तथा गंगा में उन्हें बढ़वा दिया। जो कुछ रचनाएँ शिष्यों को कण्ठस्थ थी, वे हो आज प्रचलित है। लनर सिंह आपको मृत्यु के बाद अखादा के गुरु हुए और उनके शिष्य पलदास हुए जो आज जोवित है। लन्जर सिंह, द्वारिकाप्रसाद (किगई) और पलटूदास चापके प्रधान शिष्य थे। पलदास की कई पुस्तकें छपा है।

गोरकी दृ भतार हम सब के जुन्हरी कइलसि अःके ससुररिया में, दिल्ली सहर बजरिया में ॥१॥ बजरा, उनका माखन अंडा चाहीं । बीरन के हाथों में भयवा तिरंगा मंड। चाहीं ॥ कमन मजा उदत वा भारतबरस नगरिया में, दिल्ली सहर बजरिया में ॥२॥ हम सब के पसरो भर नाहीं, उनका भर-भर दोना चाही। हम सब के बा७ छान्हे-छप्पर उनका बैंगला कोना चाही। हम सब के बा कागज तामा, उनका चोंदी सोना चाहीं । अइसन अत्याचारी राजा के, मुँहवा पर हंटा कोड़ा चाहीं । अपने बनति का गोरकी, हमके करिया १२ बनावति बा। हमरे जूठन खा-त्रा के, लन्दन तक मालिक कहावति बा। हमरे मारे खातिर भयवा १३ गन मशीन लगावति बा। अपने बाल-वच्चन के चाँदी, कवर १४ खिलावति बा। भारत के लूट, महल ले गइल भरत पेटरिया में, दिल्ली सहर बजरिया में ।।३।। आके दू भतार कहलसि" गवर्नमेन्ट जिन्ना मिस्टर । दृनो के ग्वं लग्वलसि जब देवलसि१८ बुदड बाबा 'मेरो' बना के गाना गावे नई कइलसि अत्याचार जबर । के भागल २० लन्दन के अन्दर । लहरिया ३१ में, दिल्ली सहर बजरिया में ॥४॥

(5)

ठुमरी

पिया ध्रुवले ३३ परदेस, भेजले पाती ना संदेस मोरा जिया में अनेस सुनु मोरी सजनी ॥ पिया आाइल ३५ हमार, लेके डोलिया कहार, पुजल २५ कउल-करार २७ सुनु मोरी सजनी ।। 

करके सोरहो सिंगार, डोली चढ़ती कहार, चलनी ससुरा की ओर सुनु मोरी सजनी ॥ गोरी शेवेली जोर जोर कइली सम्बी से दीदार, युटल नहहर के दुआर, सुनु मोरी सजनी ॥ भैरव कहत पुकार नहर रहना दिन चार, आखिर जाना ससुराल सुनु मोरी सजनी ।।

कजली निगु न चंत चेत वारी धनिया एक दिन सासुर चक्षना ॥ टेक ॥ जेह दिन पियवा भेजी सनेसबा देसवा होइहें सपना । अपना होइहें सब दुसमनवा जब लेड़ चलिहें सजना ॥१।। चेत चेत० ।। परान परोसिन कह दुलहिन बइ‌ठइहें पलना । ले के चलिई चार कहरवा होइहें बन रहता ॥२॥ चेत चेत ।। माल-मता सब लोन मिलो फुलवन के गहना । गज भर देइहें लाल चुनरिया तोहरे तन के ढकना ।।३।। चेत चेत ।।

नइहर नगरी चल समुझि गोयाँ मान कहना। कहले 'भैरो' बन कुलवन्ती पिया घर होइहें चहना ॥४।॥ चेत चेत० ।। जिस दिन प्रियतम सन्देशा भेजेगा, उस दिन यह देद-रूपो देश स्वप्न हो जायगा अर्थात् छुट जायगा । उस दिन जब साजन प्रियतम तुमको ले चलेगा, यहाँ के सभी अपना करलानेवाले हित मित्र, माँ बाप तुम्हारे दुश्मन हो जायगें। पड़ोसिन और सखियाँ सभी दुलदिन बना कर तुमको अरथी रूपी पलना पर बैठा देंगी और चार कहार उस अरथी को उठाकर ले चलेंगे। तुमको वन में अर्थात् श्मशान में ररना होगा। मालमता सब छौन लिये जायेंगे और केवल धूल (चिता-भस्म) के गहने पड़ना दिये जायेगें। एक गज की लाल चुनरी कफन तुम्हारे तन को ढकने के लिए दी जायेगी। हे गोइयों (हे सहेली), मेरा कहना मान ले। समझ-बूझकर नइहर रूपी नगरी में चल। भैरो कवि कहते हैं कि है बारी धनि, तुम अपने को कुलवन्तो (कुल के मान-मर्यादा के अनुसार बरतनेवाली साध्वी स्त्री) बना लो, बस प्रियतम के घर तुम्हारी चाहना होने लगेगी।

कजली

लख चौरासी से बचना हो भजलेड मनवाँ सीताराम । बिना भजन उद्धार नहीं माटी के देहियाँ कउने काम ।। टेक ।। ते भी नर्क में पदल रहसि जब करत रहसि इसवर इसवर हमें निकालऽ जल्दी से मैं करिबों सुमिरन आठ पहर । जनम पौते हो १२ लिपट गये ते माया के बस होकर। ओह दिन के तोहे खबर नहीं जे मालिक से अइले कहकर । ओह बादा के भूल गये जब देखे यहाँ पर गोरा चाम ॥ १ ॥ बालापन ते खेल गॅववले" चढ़के गोद मतारी जवानी में खूब मजा उद्दौले सँग में सुन्दर नारी 

बुर भये कफ डॅकि लेल धूक्त बैठ दुआरी के । राम नाम नहि मुख से निबसत फूलत साँस उभारी के। कहूँ यार नहीं अब का करब धोत्रा में बीतन उमर तमाम ।॥ १ ॥ उहाँ के मंजिल बड़ा कदा वा करके बाँध कमर ले तू। तोरे वास्ते क्षगल हाट जे चाहे सौदा कर ले तू। पाप-पुन्न दुनो बीउल वा समझ के गठरी भर ले तू। जे में तेरा होय फायदा, ओह के गहडेर घर ले त्। मगर दलालन से मन मिलिहऽ नहीं त हो जैण्ड बदनाम ॥३॥ अंत समय जब काल गरामल बाप-बाप चिचिमाने लगे। माल मता सब छूटल जात अब हम दुनिया से जाने लगे । भैरो कहे अस प्रानी के हो मिलना मुश्किल सुरधाम ॥४॥

ललर सिंह

ललर जो भैरो जी के शिष्य थे। आप भैरो जी को कजली के अस्त्राने के प्रधान शिष्यों में ने थे। आाप जाति के राजपूत थे। आपके शिष्य पलद्वदास जीवित है। आज भी इस असार का बोलबाला बनारस में है। ललर की कमलो बनारस में बहुत प्रसिद्ध है। थापका समय १ध्वी नदी का अन्त और २०वीं सदी का पूर्वार्द्ध था। आपकी निम्नलिखित रचना आपके शिष्य पलदास ने भैरो के भजनों के साथ प्राप्त हुई है। आप बहुत सुन्दर कविताएँ करते थे। अपनी लयदारी के लिए आप विख्यात थे।

(1)

घेर लेले ले ग्वाल वृन्दाबन छैल अगारी१० से।

माँगत बा दधि के खेराज" ब्रिजराज आज बिजनारी से ॥

रोज-रोज छिप छिप के दहिया बेंवि-बेंचि कर जार्ती हव ।

दान-दही के देली ना अब तक कइसन १२ सब मद्‌माती हव ।।

मिल गैत्र १३ आजु मोका १४ से त ऍडि बतियाती इव ।

सब दिन के दे दान कान्ह कहते वृवभान-दुलारी से ॥

(२)

बोललि सनिया मुनऽ कान्छ यदि ज्यादा उधम मचइवऽ लूँ । कह देवि जा कंस राजा से फिर पीछे पछतऽ तू ॥ कहल मानितः ना अगर जो दहिया छोन गिरवलऽ तू । मांच कहांला नन्द जसोदा समेत बाँधि के जड्यऽ१९ नृ ।। फयलवन्ने बाद जाल-चाल चलते गूजरी १७ गवारी से ॥२॥ 

कहल कृस्न हम समझ लेल हाँ तुम सब के बा जे-जे चाल । दधि-माखन के करऽ बहाना बेंच हीरा मोती लाल ॥ रेसम चोली के भीतर दू चौधि गडरिया होइ निहाल । धोखा दे-दे जालु हटिया बेच के आवड करऽ कमाल ॥ देखा दऽ दू गोल खोल के चोली पारा-पारी से।

(४)

रिस भरि के स्वालिन बोललि बस अब ना बात बनावः । मुह संभाल के बोल कर अब मत मठोल मसकावऽ कब से दानी हरि भइनऽ तूं साफ-साफ समुझाव तू। केह-केह से दान लेलऽ बार-बार काहे रार कर हा सब खाता खोल दिखावा तू ॥ लूँ ललकार के खारा-खारी से।

(५)

कड़े गुजरी 'हटो जान देव' मन मोहन हंस भुजा बदाय । सिर से अथरी उत्तार लेल सब, देख ग्वालिनी रही चुपाय ॥ मनसा पूरा भइले सभके 'घड़ीसाज' कह गइल सुनाय । मस्त मास पावस में मातृ-दधि-लीला दे बंद सुनाय ॥ 'ललर सिंह' कर जोरि कडे, लागी लगन विहारी से।

रूपकला जो

रूपकला जो उच्च कोटि के महात्मा थे। आपके प्रभाव से हजारों पथभ्रष्ट आन्त नास्तिकों ने भगवान् वी सत्ता स्वीकार करके सन्मार्ग का अवलम्बन किया, हजारों दुराचारियों के जीवन सुधर गये। श्रीरूपकलाजी पर आरम्भ से ही भगवत्कृपा रही। आप जिस आश्रम में रहे, उसके नियम का तत्परता से पालन किया और उसी में अपनी उन्नति की। तोस वर्षों तक बिहार प्रान्त में शिक्षा- विभाग में उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर रहे। आप ससी-भाव से रामजी की भक्ति करते थे। चौवन वर्ष की उम्र में आपने सरकारी पद का परित्याग किया। श्राप अयोध्या में रहते थे। आपके गुरु हंसकला जी थे। वि० संवत् १६०६ में पौष शुक्ला एकादशी को तीन बजे दिन में, अयोध्या में आपका साकेतवास हुआ। आपका जन्म सारन जिले में हुआा था। आपकी 'भक्तमाल' की टीका परम प्रसिद्ध है। आपका पूरा नाम श्री भगवानप्रसाद सीतारामशरण था। आप हिन्दी के भी अच्छे लेखक थे।

आरती

सामि लेली" भूषन सँवारी लेली बसन से हाथ लेली री। कनक धार आरती से हाथ लेली री ॥ ओदी-पहिरी सुन्दरी, सहेली सखी सहचरी, ओही १२ बीचे री । से विराजे श्रीकिसोरीमा ताही बीचे री ॥ 

मिथला जुवति गन गावेली मुदित मन, साथ लेली री। ए सामग्री गौरी पूजन से साथ लेली री ॥ हरियर फुलवरिया ललिता गिरजा-बरिया सखिन बोच्च री। ले बिराजे श्रीकिसोरीजी सखिन बीचे री ॥ सियाजी के पूजा से प्रसन्न भइली गौरी जो असीस देलों हरी। से सुफल मनकामना, असीस देलों री ॥ 'रूपकला' गावेली श्री स्वामिनी बुझावेली, बिनु जोगे-जापे री। ए प्रीतम प्रेम पावेली, बिनु जोगे-जापे री ॥

द्वारिकानाथ 'झिगई'

श्री द्वारिकानाथ 'किंगई' आति के बरई पनेरी (तमोलो) थे। आपको पान को दूकान चुगी- कचहरी के सामने बनारस में आज मो है। ग्रापका लड़का उस दूकान को आज भो चला रहा है। आप 'भैरोजी' के परम प्रिय शिष्य थे। आपको भोजपुरी रचनाएँ बहुत सुन्दर और प्रौढ होतो थीं। विषय अधिकतर धार्मिक होता था। आप अच्छे योगाभ्यासी भी थे। आप कजली और अनेका नेक तर्ज के गीत अधिक लिखते थे। आपने कजली-छन्द में रामायण का पूरा किष्किंधाकाराड भोजपुरी में लिखा था। आप चित्रबन्धकाव्य की रचना करने में सिद्धहस्त कवि थे। आपको रचनाएँ थापके पुत्र के पास आज भी वर्तमान है। यापकी मृत्यु १६३७ ई० के लगभग में हुई थी। आपके पुत्र का नाम शंकरप्रसाद उर्फ छोटक तमोली है। आपकी रचनाएँ प्राप्त नहीं हो सकीं।

दिमाग राम

आपके गीत 'झूमर-तरंग' में मिले हैं। जान पड़ता है कि आप बनारस के आस-पास के मस्ताने कवि थे। आपके इस उ‌द्भुत गीत को पचास वर्ष पूर्व मैं जोगीका के नाच में सुन चुका हूँ। आज भी यह गाया जाता है। इसने आपका समय १०वीं सदी का आरंभ है।

(1)

कौना मास बाबा मोरा फूले करइलिया से, कौना मास पसरले डार करलिया, से कौना मासे ।। सावन मास बाबा मोर फूले करइलिया से, भादो मास पसरले बार करइलिया । जैसे-जैसे बाबा मोरा कृते करलिया से नमेन्सने ननदी होनों जुधान करइलिया ॥ वाया नार्दो मानेले भैया नाहीं मानेले ।। भौजी मोरा रखली निभार करइलिया । 

पहिले-पहिले हम गवना सेजिया रचलीर हमह जे मुतलों कुबजाउ मुतेला खीचड़ी पकाय हम से रहरी में बोलेला जे गहूर्ती, करलिया ॥ लाली रे पलगिया, खरिहान करइलिया । ले गइली खरिहनियाँ, करइलिया ॥ गोड़ तोरा लागीला हुँ डरा रे मया, कुबजा के ले जा घिसिआइ करइलिया । गावत 'दिमाग राम' यही रे सुमरिया, से टूटी जैई तोहरो गुमान करइलिया ॥ कवन रंग मुंगवा कवन रंग मोतिया, कवन रंग हे ननदी तोर

(२)

भैया ॥

भैया ॥

भैया ॥

भैया ॥

लाल रंग मु गवा, सफेद रंग मोतिया, सॉवल रंग हे भौजी मोरा

कान सोभे मोतिया, गले सोने मुँ गवा, पलंग सोभे हे ननदी तोर

दृटि जैहें मोतिया, छितराइ जैह में गवा, रुसि जैर्दे हे भौजी मोरा

चुनी लेबों मोतिया, बटोरि" लेबों मुंगवा, मनाइ लेबों हे ननदी तोर मया ॥ इस गीत में ननद भीजाई की रस-भरी हास्य से परिपूर्ण वार्ता में कितनी शोत्री और चुलबुलाहट है ?

(३)

जाही दिन सइयों मोरा दुवले लीलरवा १२, से ताही दिन ना, नैहर भइले रे दुलमवों। गोद लागी पैयाँ पहें सैयों रे गोसड्यों । से दिनवा चारी हम जैहीं ना नइहरवा ॥ गंगा बदि अइले जमुना बदि यइले । से कौना विधि ना ।।

धनियाँ उतरबि पारवा, से कवना बिधि ना ॥ काटयों में केरा यम" बाँधवों में बिरिया, से वाही चढ़ी ना सैंया उत्तरबि पारवा ॥ जब तूह जइबू१८ धनियाँ अपनी नइहरव । से इस अड्‌यों ना अपनी ससुररिया ॥ जब तह अइबड सैयाँ मोरा नइहरवा । उम्फित २० देबो ना, बोरसी २१ चारो-अगिया ३२३॥

उझिल देवों ना ॥ जब तह उझिलवू धनियाँ 'बोरसी के अगिया, से हसे लगिहें ना मोर साली-सरह जिया ।। 

मोती

आप मिर्जापुर के कवि थे। १८वीं सदी का अन्त और १०वीं नामक संग्रह पुस्तक में प्राप्त हैं। वहाँ के कजली के किसी एक अखादे के शिष्य थे। आपका समय सदी का प्रारंभ है। आपकी तीन कजलियाँ पूर्वोक्त 'सावन-फटाका' आपको रचनाएँ 'कमलो कीचुदी' में भी हैं।

कजली

पिया सूते लेके सत्रतिया कैपे कटिहें ना। बिरह-अगिन तन जरत जिया दुस्ख कैरे घटिहूँ ना ॥ निस दिन की मोर हाय-हाय विपतियों के पे हटिड़ें ना। कहा मोती मोसेउ तोले मन कैने पटिइँ ना ॥

मतई

आपका नाम बनारस और मिर्जापुर दोनों शारों में कजली गायकों में प्रसिद्ध है। आपकी रचनाओं का संग्रह 'मिर्जापुरी घडा' नामक संग्रह में मिला है। आपके समय का अनुम्मान २० वी सदों का प्रारम्भ है। आपकी रचना में मिर्जापुर अंचल को भोजपुरी की पूरी छाप है। 'मिर्जापुरी घटा' नामक उक्त संग्रह-पुस्तिका से आपकी रचनाएँ उद्धृत की जाती हैं

कजली

(1)

थच नाहीं वृज में ठेकान बा, जिया उबियान" था ना । दही देखने में आई कान्हा रार मचाई, मोपे मांगत जोचनवों क दान बा जिया उवियान या ना ।। अय नाहीं० ॥ १ ॥ मुरली मधुर बजाई, चितै चित लीहेनि चोराई, मारत तिरछी नजरिया क सान बा जिया उबियान बा ना ।। अब नाहीं० ॥२॥ मोरे नरमी कलाई, धरकर मुरकाई प्यारे मनमोहन सबै देखान था, जिया उबियान था ना ।। अब नाहीं ॥ ३ ॥ अइसन ढीठ कन्हाई, उसे लाज न आई, अहसन 'मतई' के दिल में समान बा, जिया उबियान वा ना ।। अव नाहीं० ॥ ४ || जुआ छोड़ मोर राजा, मान ऊ बतिया ना । कौड़ी लेआई बुराई माल जैहें सब बिलाई

(२)

तब त मारल-गारत फिरबऽ'० दिन- रतिया ना ॥ जुआ०।। 

राजा नल अजमाई अपना हड्डी की बनाई - कौड़ी, उनकर भी गंवाई जजतियार ना ॥ जुम्रा० ॥ घरे माल नाहीं पाउब, बाहर ताला चटका उब³, चोरी करे बदे होई तोर नियतिया" ना ।। शुभा० ॥ पीआ पकबि जय जयः सजा साल भर के पड्बड, तब तो 'मतई' लगइई आपन घतिया ना ॥ जुआ० ॥

(३)

गइल रहिउँ नदी तीर, उँहा रहल बड़ा भीर, कंगन खोय गयल माफ करड कसूर बलम् । न जानी ढील रहा पेच, न जानी लिहेसि कोई संच, आप जे करीं से है अब मंजूर बलम् ॥ ० ॥ एक त बुधि लड़कैयों, न जानत रहिउँ सइयाँ, बंया ऐसन लगलेन मिरजापुर हार गड्यूँ हर-हर १० वासे ना मिलल न रहल उहाँ बलम् ॥ कं० ॥ भयल बड़ा देर, कृर १२ बलम् ।। कं० ॥

रसीले

रसीलेजी की रचना मुझे 'सावन-दर्पण' संग्रह-पुस्तिका में मिली है। दूसरी पुस्तिका, जिसमें आपकी रचनाएँ है-'भूलन-प्रमोद संकीर्तन' है। अतः आपका समय १६३७ ई० के पूर्व है। आपकी रचना की भाषा बनारसी भोजपुरी है। अतः बनारत जिते में अथवा बनारस नगर में ही आपका निवास स्थान होगा। आप बनारसी कजली के अखाने के प्रसिद्ध गायक माने जाते हैं।

कजलो

(1)

ऐसे मौसिम में मुलायम जियरा धबधब-धनकै ना।

दमकि दमकि दामिनि दईमारी तब तब तबके ना ।।

भूमि भूमि झुकि काला बद्रवा कब-कब कड़के ना ।

सुनि-सुनि मोर-पपीहन की पुनि जोबना फड़के ना ।

कहत 'रसीले' नेह लगाके कहाँ सबके ना ॥ १ ॥ 

गरजे बरसे रे बदरका पिया बिनु मोहि ना सोहाय । अरे पपिहरा कोकिला, नीलकंठ अलि मोर । नाचि नाचि कुहुकन लगे, हरस्खि-हरखि चहुँ ओर ॥ दम दम दमके रे दामिनियाँ, नैना क्रिपि क्रिपि जाय ॥१॥ शीतल पवन सुगंध ले, बहे भरे ना धीर । मदन सतावे री सखी, करू कौन तदबीर ।। ऊँची-ऊँची रे जोवनवाँ, चोलिया चादर ना सोहाय ॥२॥ कहत रसीले का करी अंग-रंग फहरात । रेन अंधेरी देखि के, रहि रहि जिया घबरात ।। ऐसे मौसिम में कन्हैया, घरवा अजहूँ नाहिं आय ॥३॥

मानिक लाल

मानिक लाल भी बनारस के हो किसी कजलो के अखाड़े के शिष्य थे। आपका समय भी २० वी सदी का प्रारम्भ है। आप के गोत मुझे 'सावन का गुलदस्ता' नामक संप्रह-पुस्तिका से प्राप्त हुए ।

कजली

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हरवा गढ़ दऽ सेठजीर हाली गरवा बाटे खाली ना ॥ टेक ॥ एक चीज पहिले दे देताऽ सोनवाँवाली ना" ।। पत्ता मुमका श्री लटकनवा कान की बाली ना ।। बहुत दिना टरकउलऽ अब तू सुनबऽ गाली ना ।। मानिकलाल सुन इनकर बतिया सुन्द निराली ना ॥

(२)

बाय टेका। बाय ।। कहिया देबऽ सेठजी चिजिया० दुलहा मोर कोहायल नकिया में के मोर नर्वेगिया, बाहूँ हरायल १२ छल्ला सुंदरी और करधनी सब बन के आयल देख-देख सौतिन के घरवा जाके लोभायल बाय ।। बाय ।।

मानिकलाल कई धीरज घरडु सब नगिचायक्ष बाय ।। गोरिया तोरे बदन पर गोदना आला चमकत बाटे ना ।। जूही चमेली फुले क्षगेलू गमकत बाटे ना ।। हार हुमेल १५ नाक में नथिया लटकत बाटे मा ।।

(3)

कट 'मानिक'

राह में देखा तरसत

बाटे ना ।। 

रूपन

रूपन जॉबनारस के ही कजली गायकों में से एक थे। आपका समय भी २०वीं सदी का प्रारम्भ था। आपको एक कजली 'सावन का गुलदस्ता संग्रह-पुस्तिका से चुझे मिली है। उसी पुस्तिका से नांचे की कजली उढ़त है। अन्य रचनाएँ विभिन्न संग्रह पुस्तिकाओं में से उद्धृत है।

कजली

(१)

सुगन। बहुत रहे हुसियार विलइया इधर-उधर से आपन घतिया कर्षों पदै गफलत की निंदिया, बोलत बाटे ना ।। खोजत बाटे ना ॥ जोहत बाटे ना ।। बाटे ना ।। बाट ना ॥ ऐ मन मुरुख चेत जल्द तू सोक्त कहे 'रूपन' धर ध्यान देख अगोरत

(२)

शुभा खेलेलन बलमुआ। सारी रतिया ना ।। बलमा मिलल बा जुधारों, कैने कहें में पुकारी ॥ गोड्यों फूटी गइली मोरी किसमतिया ना ॥ जुधा०।। गहना गइलन" सब हार, हममे कहे दे उत्तार। अपने नकिया से झुलनियाँ तीनपतियार ना ॥ जुआ०।। केतनो उनके समुझावे, बतिया एको नाहीं भावे । गोड्यों कऽइसे के कड़े 'रूपन' से गोरी, नाहीं एक दिन होइ हैं बच्ची दुरमतिया १३ ना ।। जुआ०।। कहना मान पिया मोरी । तोहरो संसतिया १४ ना ।।

(३)

पिया तजके१५ हमें गइले परदेसवा ना। गये हमसे करके घात १६, सुनऽ सौतिन के साथ, नाहीं भेजलऽ जबसे गइले सन्देसवा ना ॥पिया०॥ नाहीं कल दिन रात, जबसे चढ़ल बरसात, कब अइहें मोहिं ऐही १८ वा अन्देसवा ना। झींगुर बोले झनकार, सुनके पपिह। पुकार, गोइयाँ बढ़ गइले जिगर में कलेसवा ना ॥ पिया०।। गोरिया कहै समझाय, बलमा से दऽ हमें मिलाय, 'रूपन' नाहीं तो हम धस्वैर जोगिन भेसवा ना ॥पिया०।।

फणीन्द्र मुनि

आपके दो सोह-गीत मुझे 'बदो गोपालगारी' नामक संग्रह पुस्तिका में मिते हैं। गीत को भाषा और उसके तर्ज से अनुमान होता है कि आप बनारस कमिश्नरी के किसी जिते के रहनेवाले थे। समय भी १६वी सदी का अन्त है।

सोहर राम अवतार चैत नौमो

जॉचत अज महादेव अनादि, जन्म लेले हो ललना। दशरथ गृह भगवान कौसिल्या गर्भ अइले हो लजना ।। सुदित नृपति सुनि कान बसिष्ठ के भवन गइले हो ललना । ललना करह गर्म-विधान यथा श्रति रचि-रचि हो ललना ।। करत परस्पर मंगल गर्भ दिन पूजल हो ललना। बढ़त गर्भ अस चन्द तबै रानि पियर भइली हो ललना ।। सव ग्रह भइले अनुकूल नत्र पुनर्वसु हो ललना । चैत सुदी भइले नौमी प्रगट हरि तन घरे हो ललना ।। मुदित भये नरनाह बोलावत भूसुर हो ललना । हसि हंसि बोले बगरिनियाँ चितै देहु न तुम उर-हार तबै नार अलख निरंजन रूप हँसत कौसिना जी गोद खेलावत मुखरानी हो ललना ।। काटय हो ललना। मुख छोर बावत हो ललना ।। पिाश्ववत हो ललना ।। गावत हो ललना। धावत हो ललना ।। संकर ध्यान लगावत बेद श्रुति निगु न बह्म स्वरूप आँगन मगन सुदित मन देव गायत फूल बरसावत हो ललना। ललना भक्त बछल भगवान 'फणीन्द्र मुनि' गावत हो ललना ।।

सोहर कृष्ण अवतार जन्माष्टमी

भादों रैन भयानक चहुँ दिसि धन घेरे हो ललना। सुभ रोहिनी तिथि अष्टमी अ‌द्भुत लाल भइले हो ललना ।। कीट मुकुट घनश्याम कुण्डल सोहे कानन हो ललना। संत्र चक्र गदा पद्म चतुर्भुज रूप किये हो ललना ।। गदा पानि महुँ राजे भृगु पद उर सोहे हो ललना । विहसि बोले भगवान पूर्व बरदान तोह के हो ललना ।। जो तुम कंस से दरहु जसोदा पहें धरि आश्रो हो ललना ।। छुटि गहने बन्धन जंजीर तो खुलि गईले फाटक हो ललना । बमुदेव हरि लिये गोद पहरु सब सोई गईले हो ललना ।। बिहंसि बोलत महाराज सात जनि डरपडु हो ललना। ले चलो जमुना तू पार कमर नहिं भाँहि हो ललना ।। यह सुनि के बसुदेव जी सूप लेई आवत हो ललना । जसोदा के घर बजत बधाई 'फणीन्द्र सुनि' गावत हो जलना ।।

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लेख
भोजपुरी के कवि और काव्य
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लेखक आ शोधकर्ता के रूप में काम कइले बानी : एह किताब के तइयारी शोधकर्ता श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह कइले बाड़न. किताब के सामग्री : १. एह किताब में भोजपुरी के कवि आ कविता के चर्चा कइल गइल बा, जवना में भारतीय साहित्य में ओह लोग के योगदान पर जोर दिहल गइल बा. एह में उल्लेख बा कि भारत के भाषाई सर्वेक्षण में जार्ज ग्रियर्सन रोचक पहलु के चर्चा कइले बाड़न, भारतीय पुनर्जागरण के श्रेय मुख्य रूप से बंगाली आ भोजपुरियन के दिहल। एह में नोट कइल गइल बा कि भोजपुरिया लोग अपना साहित्यिक रचना के माध्यम से बंगाली के रूप में अइसने करतब हासिल कइले बा, जवना में ‘बोली-बानी’ (बोलल भाषा आ बोली) शब्द के संदर्भ दिहल गइल बा। भोजपुरी साहित्य के इतिहास : १. एह किताब में एह बात के रेखांकित कइल गइल बा कि भोजपुरी साहित्य के लिखित प्रमाण 18वीं सदी के शुरुआत से मिल सकेला. भोजपुरी में मौखिक आ लिखित साहित्यिक परम्परा 18वीं सदी से लेके वर्तमान में लगातार बहत रहल बा। एह में शामिल प्रयास आ काम: 1.1. प्रस्तावना में एह किताब के संकलन में शोधकर्ता श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह जी के कइल महत्वपूर्ण प्रयास, धैर्य, आ मेहनत के जिक्र बा। एहमें वर्तमान समय में अइसन समर्पित शोध प्रयासन के कमी पर एगो विलाप व्यक्त कइल गइल बा. प्रकाशन के विवरण बा: "भोजपुरी कवि और काव्य" किताब के एगो उल्लेखनीय रचना मानल जाला आ बिहार-राष्ट्रभाषा परिषद के शुरुआती प्रकाशन के हिस्सा हवे। पहिला संस्करण 1958 में छपल, आ दुसरा संस्करण के जिकिर पाठ में भइल बा।
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आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक प्रारम्भिक काल

7 December 2023
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प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी के इतिहास का वर्णन करते समय बताया गया है कि आठवीं सदी से केवल भोजपुरी ही नहीं; बल्कि अन्य वर्तमान भाषाओं ने भी प्राकृत भाषा से अपना-अपना अलग रूप निर्धारित करना शु

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घाघ

8 December 2023
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बाघ के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में बहुत विद्वानों ने अधिकांश बातें अटकल और अनुमान के आधार पर कही है। किसी-किसी ने डाक के जन्म की गाया को लेकर घाष के साथ जोड़ दिया है। परन्तु इस क्षेत्र में रामनरेश त्रिप

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सुवचन दासी

9 December 2023
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अपकी गणना संत-कांर्यात्रयों में है। आप बलिया जिलान्तर्गत डेइना-निवासी मुंशी दलसिगार काल को पुत्री थी और संवत् १६२८ में पैदा हुई थी। इतनी भोली-भाली यी कि बचपन में आपको लोग 'बउर्रानिया' कदते थे। १४ वर्ष

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अम्बिकाप्रसाद

11 December 2023
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बाबू अम्बिकाप्रनाद 'आारा' की कलक्टरी में मुख्तारी करते थे। जब सर जार्ज क्रियर्सन साहब श्रारा में भोजपुरी, का अध्ययन और भोजपुरी कविताओं का संग्रह कर रहे थे, तब आप काफी कविताएँ लिख चुके थे। आपके बहन-से

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राजकुमारी सखी

12 December 2023
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आप शाहाबाद जिले की कवयित्री थीं। आपके गीत अधिक नहीं मिल सके। फिर भी, आपकी कटि-प्रतिभा का नमुना इस एक गीत से ही मिल जाता है। आपका समय बीसवीं सदी का पूर्वाद्ध अनुमित है। निम्नलिखित गीत चम्पारन निवासी श्

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माताचन्द सिह

13 December 2023
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आप 'सहजौली' (शाहपुरपड़ी, शादाबाद) ग्राम के निवासी हैं। आपकी कई गीत पुस्तके प्रराशिन है पूर्वी गलिया-के-गलियारामा फिरे रंग-रसिया, हो संवरियो लाल कवन धनि गोदाना गोदाय हो संवरियो लाल ।। अपनी मह‌लिया भी

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रामेश्वर सिंह काश्यप

14 December 2023
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आपका जन्म सन् १८१६ ई० में, १६ अगस्त को, सामाराम ( शाहायाद) ग्राम में हुआ था। पास की थी। सन् १३४ ई० में पान किया। इन तीनों परोक्षाओं के नजदीक 'सेमरा' आपने मैट्रिक की परीक्षा सन् १८४४ ई० में, मुंगेर जिल

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