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रामेश्वर सिंह काश्यप

14 December 2023

2 देखल गइल 2

आपका जन्म सन् १८१६ ई० में, १६ अगस्त को, सामाराम ( शाहायाद) ग्राम में हुआ था। पास की थी। सन् १३४ ई० में पान किया। इन तीनों परोक्षाओं के नजदीक 'सेमरा' आपने मैट्रिक की परीक्षा सन् १८४४ ई० में, मुंगेर जिला-स्कूल से पटना विश्वविद्यालय ने बो० ए० तथा सन् १६५० में एम० ए० में आपने प्रथम श्रेणी प्राप्त की थी।

यापका सादित्यिक जीवन सन् १६४२ ई० से आरम्भ हुआ था। आपको प्रथम हिन्दी-रचना दिन्दश मासिक 'किशोर' (पटना) में सन् १६८० ई० में ही छपी थी। सन् १८४३ ई० से आपने साहित्य-तंत्र में प्रसिद्धि प्राप्त कर लो और आपकी कविताएँ तथा अन्य रचनाएँ पन्त्र पत्रिकाओं में लगातार छपने लगीं। आप एक विख्यात नाटककार भी है। आपका लिखा भोजपुरी भाषा का नाटक 'लोहा सिद' प्रकाशित हो चुका है और जिसको प्रसिद्धि आकाशवाणी के द्वारा देश-व्यापी हुई है। यापका हिन्दी में लिखा किशोरोपयोगी उपन्यास 'स्वर्णरेखा,' हिन्दुस्तानी प्रेस, पटना से प्रकाशित हुआ है। आप हिन्दी के भी अछे नाटककार तथा अभिनेता हैं। आपके लिखे दिन्दी- नाटकों में ये मुख्य हैं-बत्तियाँ जला दो, बुलबुले, पंबर, आखिरी रात और रोबट। इनमें कई श्राकाशवाणी द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर अभिनीत एवं पुरस्कृत हो चुके हैं। इन नाटकों की विशेषता यह है कि ये रंगमंच के पूर्ण उपयुक्त है। आप अखिलभारतीय भोजपुरी कवि सम्मेलन सिवान (सारन) के सभापति भी हुए थे।

आपकी लिखो भोजपुरी कविताएँ बदी प्रसिद्ध हैं। भोजपुरी में मुक्त छन्द का प्रयोग जिस सफलता से आपने किया है, बद अन्यत्र दुर्लभ है। भोजपुरी में कविताओं के अलावा आपने निबन्ध, कहानी, उपन्यास आदि भी लिखे हैं। आजकल आप बी एन्० कॉलेज (पटना) में हिन्दी के प्राध्यापक है।

भोर

(2) गोरकी बिटियवार टिकुली लगा के पुरुब किनारे तलैया नहा चितवन से अपना जादू चला के ललकी चुनरिया के अचरा उड़ा के तनिका लजा, तब बिहस, खिलखिला के

नृपुर बजावत किरिनियों के निकलल, अपना अटारी के खोललस खिरिकिया", फैलल फजिर १२ के

(२)

करियकी बुदिया के डेंटलस १५, धिरवलस बुदिया सहम के मोटरी उठवलस

तारा के गहना समेटलम बेचारी चिमगादुर ३, उरुआ, अन्हरिया के संगे भागल ऊ स्वबहर ओर ।

भारी कुलच्चन आफत के पुड़िया, मारे सड़क के चिरइन के खोता अस उतपाती हूँ चंचल बिटियवा'० महल ई चिया १२ बहंगवा के टाटी १४ हो गइल ई माटी में जा के उबवलस सूतल मुरुगवन के कसके २२ बेश्वलस २३ कुकर के बद्दलन बेचारे चिहा २४ के, पगहा तुदवलन २६ सुन के, बेरा के २० ललको गुलाबी बदरियन के बड़२.२१

( ३ )

भगले ३०

()

कमल के लागल जगावे सूतल भँवरा के दल के रिकाचे, बोलावे चंपा चमेली के घूंघट हटाने पतइन ३२, फुनुगियन ३३ के कुलुआ ३४ सुलावे तलैया के द्रपन में निरखेले सुखबा कि केतना ३५ बानी ३६ हम गोर३०।

के

ओर ।

(4)

सीतल पवन के कस के लम्बेदलस ३८ सरसों बेचारी इवल सपनवा में रतिया के याकल झाड़ी में, सुरमुट में, सगरो ३९ बड़ेटलस जवानी में मातल ओकर पियरकी ४२ चुनरिया के चिंचनस

बहुत सरसों बेचारी के ॲस्त्रिया से दरकल ४५ बरजोरी४४ लागल गुदगुदावे, ओसवन  के, मोती के लोर  ।

(4)

परबत के चोटी के सोना बनवलस समुन्दर के इन्फा पर गोटा चढ़ श्लस बगियन-बगड्चन में हल्ला मचवलस गवई, नगरिया के निंदिया नसवलस किरिनियों के डोरा के बीनल अॅचरया, फैले लागल चारों ओर ।

(3) छप्पर पर आइल, ओसारा में चमकन चुपके से गोरी तब लागल स्त्रिरिकियन से जह वा ना ताके १२ के, अंगना में उत्तरल हंस हंस के कों के ओहिजो १२ ई ताके कोहबर 3 में सूतल मदुरिया हंगोरा १४ भइल, लाजे अपना सजनवाँ से बहियाँ चिहुँ क के फिर चुपके छोड़ा के ससुधा ननदिया के अस्त्रिया बधा के कमरिया" पर घर के ऊ भागल जल्दी से पनघट के ओर ।

२६१

रामनाथ पाठक 'प्रणयी'

आपका जन्म शाहाबाद जिले के 'घनडुहाँ' ग्राम में सन् १६२१ ई० में हुआ था। आप संस्कृत- म.था के साहित्याचार्य और ब्याकरणाचार्य को परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके हैं। आप सन् १८३३ ई० से ही भोजपुरी में रचनाएँ करते हैं। आप काशी से निकलनेवाली 'भारत-धो' और 'आरा' से प्रकाशित होनेवाली 'ग्राम पंचायत पत्रिका' के सम्पादक भी रह चुके हैं। आप संस्कृत और हिन्दी के भी अच्छे गद्य पद्य-लेखक के रूप में प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त आपकी मोजपुरी-भाषा की कविता- पुस्तकें भी संग्रह के रूप में प्रकाशित हैं, जिनमें 'कोइलिया,' 'सितार', 'पुरइन के फूल' आदि है। आजकल आप एक सरकारी बुनियादी शिक्षण-संस्था में अध्यापक है।

पूस

अगहन लवटि गइल आइल पूस महीना, काँपत हाथ पैर घर-घर मुस्कात जाड़ा-पाला के पहरा निकल चलन घर से बनिहारिन ले हँसुआ भिनसहरा धरत धान के धान अंगुरिया ठिदुरि-ठिठुरि बल खात आइल पूस महीना, अगहन लवकः गइल मुस्कात दोवत बोझा हिलत बाल के बाज रहल पैजनियाँ खेतन के लड़िमो खेतन से उठि चलली खरिहनियाँ

पहल पधारी पर लुगरी में लरिका था क्षेरियात आइत पूस महोना, अगहन राह-बाट में निहुरि-निगुरि नित हाय ! पेट के भाग चुरा ले पाक गिरत उड़ियात तबटि गइल करे गरीबिन मुस्कात बिनियाँ भागल सुख के मिनियाँ फूस दिन हिम-पहाव यद राप्त के आइल पूस महीना, अगहन लवटि गइल मुसकात लहस उठल जब गहुम-खूँट रे, लहसन १२ मटर-मसुरिया 3 रहल तीसी-तोरो पर छवि मीठ बंसुरिया पहिरि खेसारी के सारी १४ साँवर गोरिया अॅडिलात आइल पूस महीना, अगहन लवरि गइल मुसुकार

रंग बैत आइत चैत महीना, फागुन रंग उड़ा के भागल गह-गह रात भइल कुछ रहके रह-रह उगल अजोरिया १८, सुन-सुन के गुनगुन भँवरा के मातल साँवर गोरिया, कसमस चोली कसल, चुनरिया राँगल, झमकल छागल २० आइल चैत महीना, फागुन उबा के भागल खिलल रात के रानी चेलो, चम्पा, बिहसल बगिय। ३१, भरल फूल से मूल रहस्त महुआ के लाल कुनुगिया, भिनसहरा के पहरा पी-पी रटे पपिहरा लागल भाइल चैत महीना, फागुन रंग उड़ा के घर के भीतर चिता सेज के सजा रहल धाँगन में गिर परल २२ पियामे २३ आम्हर २४ भइल हरिनियाँ, पाटुआ के ललकार पिछूती २५ बसवारी२७ में आइत चैत महोना, फागुन रंग उड़ा के सिडर-सिहर रोओं २८ रह जाता हहर-इहर के भागल बिरहिनियाँ, भागल भागल हियरा, हाय! लहर पर लहर उठत था जरल जवानी-दियरा २५, गली-गली में चैत। ३० गावत लोग भइल बा पागल आइल चैत महोना, फागुन रंग तदा के भागा

मुरलीधर श्रीवास्तव 'शेखर'

आप चौगा (शादाबाद) के निवासी है। आजकल छपरा के राजेन्द्र कालेज में हिन्दी-विभाग के गत है। आपका उपनाम 'शेबर' है। आप हिन्दी के भी कवि, निबन्धकार, आलोचक तथा वफा है। हिन्दी में आपको कई अच्दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी भोजपुरी-कविताओं की भाषा पूर्ण परिष्कृत है। 

(1)

भोर के बेरा ।

छिटकलि' किरन, फटल पौ नभ पर खिललि अरुन के लाली, खेलत चपरत सरस सतदल पर अलिदल छटा निराली । दित ? के छोर ध्रुवेला कंचन, किरन बह मधु-धारा, रोम-रोम तन पुलक भइल रे काँपल छबि के भारा। नया सिंगार साज सज आइति श्राज उसा सुकुमारी, किरन तार से रचल चित्र या मानो जरी किनारी । भोर बिभोर करत मन श्रानंद गहल थाकि कवि बानी, छबि के जाल मीन सन बाफल भइल उसा रसखानी । तार किरन के के चा बजावत सुर भर के नभ-बीना, ताल रहे करताल बजावत जल में लहर प्रबोना । उमड़ल कवि के हृदय देखि के सुन्दर सोन सवेरा, भइल गगन से कंचन बरखा ई परभात के बेरा।

(২)

हम नया दुनिया बसाइव हम नया सुर में नया जुग के नया कुछ गीत गाइब

(9)

बढ़ रहल जग प्रगति पथ पर गढ़ रहल नव रूप सुन्दर हम उहे संदेस घर-घर कठ निज भर के सुनाइब" (২)

भेद के दीवार तोदब प्रीत के सम्बन्ध जोदब भावना संकीर्ण छोड़व खुद उठब, सत्रके उठाइब"

(2)

भ्राज समता भाव जागल अब बिसमता दूर भागल स्नेह ममता नोक लागल हम जगबर, जगके जगाइब

विश्वनाथ प्रसाद 'शैदा'

आपका जन्म-स्थान डुमराँव (शाहाबाद) है। आपको बचपन से ही लोगों ने 'शैदा' कहना शुरू

किया। १५ वर्ष की अवस्था में ऐण्ट्र स-परीक्षा पास करके आपने सरकारी नौकरी शुरू की। आपने

टेलीग्राफी सीखी, एकाउण्टी सोखी, टाइप करना सीखा। अन्त में आप आजकल डुमरांव के ट्रेनिंग

स्थल में शिक्षक हैं। आपको पुरानी कविताएँ बहुत कण्ठस्थ हैं। आपकी भोजपुरी की रन्नाए

सुन्दर और सरस होती हैं। आप एक अन्ले गायक भी हैं। 

कजली

रहतीं करत दूध के कुल्ला, दिल के खात रहीं रसगुल्ला, सस्त्री इम त खुल्लम-खुल्ला, फूला कूलत रहीं बुनिया फुहार में, सावन के बहार में ना। कृला कृलत रहीं ०।।

अतोर इम त रहली रह-रह गोर, करत रहीं हम मोरा अखिया के कोर, धार काहाँ अहसन तेग ब। कटार में, चाहे तलवार में ना। मूला-फूलत रहीं० ॥

हसलीं चमकल मोरा दाँत, कइलस बिजुली के मात, रहे अइसन जनात, दाना काहाँ अइसन काबुलो अनार में, सुधर कतार में ना। कृला-फूलत रहीं० ।।

जब से आइल सबतिया १२ मोर, सुखवा लेलसिउ हम से छोर, करे अखियाँ से लोर १४, भड्या मोर परल बा 'शैदा' माहाधार में, सुखवा जरल भार १९ में ना। कूला-फूलत रहीं० ।।

बागे बिहने सस्त्री, फाँद चले के सखी, जइहड मति मूल । कइसन सुधर लगेला १८, जब करि के गिरेला, में बिने २० के मवलेसरी ३१ के फूल । बागे बिहने चले के० ॥

(२)

सुर-सुर २२, बहेला बेयार, कइसन परेला २७ फुहार, सखी, घरे ना चले के मन करेला २४ कबूल । बागे बिहने चले के० ।।

(३)

जोन्हरी २५ भुजावै घोनसरिया २५ चीं जा सत्री । जोन्हरी के लावा जइसे जुहिया के फुलवा, भूजत करेले फुलझरिया। चलीं जा सत्री० ।। काण्डु२८ से ना कल मोरा तनिको परत बा, देखली २९ हाँ एको ना नजरिया। चली जा सखी० ।। हाली-हाली ०चलु नात ननदी जे देखि लीही ३२, बोली बोले लागी ऊ जहरिया ३४। चलीं जा सत्रो०॥ कन-कन बखरी करत बा तू देख ना, भइल बाटे ठीक दुपहरिया ३७ । चलीं जा सखी० ॥ चुनरी मद्दल होले सखी घोनसरिया में, उही-उदी गिरेला कजरिया ३८ । चलीं जा सरत्री० ।। 

चुनरी में दाग कहीं साम्जी देस्वीरें तऽ, मूठ कह दोहन कचहरिया में। चलींजा सम्बी० ।।

भइया ! दुनिया कायम बा तुलसी बचा के रमायन में भारत से पूछड, बेलायत किसान से। हो भया० बाँचड, जाहिर वा सास्तर-पुरान से। से पूवुः, पूड़ऽ ना जर्मन जापान से । साँचे किसान हवन, तपसी-तिय गी०, मेहनत करेलें जिव जान से। हो भया ! दुनिया था कायम किसान से ।।

(२)

किसान

जेठो में जेकरा के खेते में पड़बड़, जब बरमेले आगि असमान से । हो भइया०।। झमकेला भादो जब चमकी बिजुलिया, हटिरें ना तनिको उमचान में । भया, पूलो में माधो में खेते ऊमुतिहें, दरिहें ना सरदी तूफान से ।

हो भया०॥

दुनिया के दाता किसाने हवन जा" पूड नः पंडित महान से।

गरीब किसान आज भूखे मरत बा. करजा-गुलामी लगान से । हो भया०॥

होई सुराज तऽ किसान सुख पइहें, असरा १८ रहे ई १५ भारत के 'शैदा' किसान सुख पावसु बिनवत बानी जुगान २० से भगवान से । हो भया०।।

मूसा कलीम

हो भया०।।

आप ग्रुपरा शहर के हिन्दी, उर्दू और भोजपुरी के यशस्वी कवि है। आपकी कविता बढ़ो सुन्दर होती है। आप अपनो भोजपुरी कविताओं को अच्छे ढंग से गाने भी हैं। बहुत प्रयत्न के बाद भी आपको विशिष्ट रचनाएँ नहीं मिल सकीं। बिहार राज्य के प्रचार विभाग में आई रचनाओं में से कुछ पंक्तियों दी जातो हैं-

दुसमन भागि गइल, देस अजाद भइल मिलि करों ई काम हो

गीत

कायम राम-राज हो । देस खातिर जिहीं-मरी२२, संकट से आवड लड़ीं बइठी से२७ रो के रही, इबि जइहें देश के लाज हो

कायम राम-राज हो ।।

শরৎ স্বরऽ आगे, मरद ना पाले भागे केतने हैं घाटा लागे, गिरे मत दऽ देसवा के ताज हो

कायम राम राज हो ।। 

शिवनन्दन कवि

आप मौजमपुर (बडहरा, शाहाबाद) ग्राम के निवासी थे। आप राष्ट्रीय विचार के आशु- कवि थे। आपकी वर्णन शैली बहुत सुन्दर, सरल तथा जन प्रिय होती थी। आप सन् १६४२ ई० के राष्ट्रीय आन्दोलन तथा उसके पूर्व के विश्व युद्ध के समय अपनी रचनाओं के लिए विख्यात हो गये थे। आपको कविताओं पर सामयिक पत्र पत्रिकाओं में कई लेख निकल चुके हैं। आप •भिखारी ठाकुर को कोटि के कवि माने जाते हैं।

युद्ध-काल में कवि कलकत्ता- प्रवासी था। जिस समय कलकत्ता पर जापानियों ने बमबाजी की थी, उसी समय का एक वर्णन नीचे दिया जाता है-

अव ना बाँकी कलकाता, विधाता सुनलः ॥ टेक ॥ धनि र जरमनी-जपान, तुरलसि बृटिश के शान हिटलर के नाम सुनि जांब घबदाता, विधाता सुनलः ।। सिंगापुर जीतकर, बरमा रंगून जीतकर, आई के पहुँचल कलकाता, बिधःता सुनलऽ ।। कलकाता में गुजारा नइखे, पइसा कौड़ी भारा नइखे, सताइस टन के बम पटकाता", बिधाता सुनलः ।। नगर के नर-नारी, रोवतारे पुका फारी, छूटि गइले बँगला के हाता, बिधाता सुनतः ।। जाति के बँगाली भाई छोड़ नगर बाप व माई संग में लुगाई ले पराता, विधाता सुनलः ॥ बड़े-बड़े मरवाड़ी, छोबिके दोकान बादी अपना मुलुक भागल जाता, विधाता सुनलः ।। 'चटकल' छोड़े कूली, आगा १२ अवरू काबुली छोड़ि के भागेले बही-खाता, विधाता सुनलऽ ।। कतने हिन्दुस्तानी १३, छोलिके भागे दरवानी, कतनो १४ समुझावे हित-नाता", विधाता सुननः ।। उदिया वो नैपाली छोड़िके भागे भुजाली १६, धोची छोदे गदहा, डोम छोड़े काता ७, बिधाता सुनलऽ ।। लागल बाट इने गम १८, कहिया ले" गिरी बम ? इहे गीत सगरो २१ गवात। २२, बिधाता सुनलः ।। टिकट कटावे बेरी२३, बाव्-बाबू, करी टेरी२४, नबहुँ १५ ना बाबू के सुनाता बिधाता सुनलऽ आफिस, घर अवरू बादी, मोटर अवरू घोड़ा गाड़ी सब काला रंग में रंगाता, विधाता रोशनी हो गइल कम शहर भर में चोर-द्राकृ करें उनपात। २०, विधाता सुनलः ।। भङ्गल तम सुनक्षः ।। 

बम गिरे धमाधम जीतिए के परी दम २,

खइला बिनु लोग मरि जाता, विधाता सुनलः ॥ फलकाता पर परत दुख, केहु के ना बाटे सुख, 'शिवनन्दन' कवि भागे में शरमाता, विधाता मुनलऽ ।।

गंगाप्रसाद चौबे 'हुरदंग'

ध्यापका जन्म स्थान सिकरिया (रघुनाथपुर, शाहाबाद) है। लिखते हैं। राजनीतिक चुनाव के अवसर पर आप जन-भाषा में करते हैं, जिसका असर जनता पर अच्छा पड़ता है। आप अधिक्तर प्रचार साहित्य भोजपुरी कविता करके प्रोपगेंडा

बुढ़ऊ बावा के बिआह

लालच में परी बाप खुद यर खोजेला, जेकर उमर दादा के समान है। करिया कलूट बर कोतह-गरदनिया हो, नाक त चिपरिया के सॉच हे ।। मुँह चभुलावे बनभाकर १२ समान हो थोड तऽ भलुइचाउके जानुहे। मोच्छ छेटवावे बर बने चौदहवा के ताके जइसे भड़कल सियार हे ।। केस के सिंगार देखि बिलाई मुसकात बादी, हांड़ियोले बदल बा कपार है। चसमा लगावे दुलहा लागे भटकोंवा मुंह, चले ऊँट डउकत३० वाल हे ।। कत बरनन करूँ ब्रह्मा उरेहे २१ रूप, बनलो जतरा बिगबाई २२हे। आज ले सऽ बरवा के हाड़ न हरदिया हो, ओहू जनम ३४ भइछ ना बिभाइ हे ।।

अजुनकुमार सिंह 'अशान्त'

आप सारन जिले के (पुराण-प्रसिद्ध दक्षप्रजापति के गंगा तटस्थ प्राचीन गढ़, अम्बिकास्थान) आमो ग्राम के रहनेवाले हैं। इन दिनों आप पुलिस-विभाग में है।

आपने खड़ीबोली एवं भोजपुरी में समान रूप से रचनाएँ की हैं। किन्तु, आपकी लोकप्रियता भोजपुरी रचनाओं के कारण ही है। आपके भोजपुरी गीत सामयिक पन्त्र पत्रिकाओं में प्रकाशित और आकाशवाणी केन्द्रों से प्रसारित होते रहे हैं। बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों में आप सम्मानित तथा पुरस्कृत हो चुके हैं। कविवर पंत ने एक बार आपकी भोजपुरी कविताओं के सम्बन्ध में लिखा था- "श्मशान्त जो ने भोजपुरी के ललित, मधुर मर्मस्पर्शी शब्दों को बाँधकर गीतों में जो चमत्कार उत्पन्न किया है, उसे सुनकर जनता मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रहती।" आपकी भोजपुरी-कविता श्रो का संग्रह 'अमरलत्ती' नाम से प्रकाशित हो चुका है। आप परिष्कृत भोजपुरी में 'बुद्धायन' नामक एक ललित और सरस काव्य-प्रन्थ लिख रहे हैं।

(4)

ऋतु-गीत

कुहुकि कुहुकि पतझर आइल, कुहुकावे २५ को इलिया, कुहु कि-कुहुकि कुहुकावे । उजबल बगिया मधु ऋतु में दुसिधाइल  फुनुगिया 

इन हरियर हरियर पलहून में, सुतल सनेड़िया जगावे कोइ लिया ॥ टेक ॥ म्पिसिकल मधु भानु उडल बजरिया चुवल कोचर, कर गइल मौजरिया पड़िया करकि चले तलफ भुभुरिया देहिया में अगिया लगावे कोइलिया ।। टेक ।। भुर्तास गइल दिन, अटेंसी के रतिया बरसे फुहार रिमझिम बरसतिया १२ करिया यत्रया के सजल करेजवा में, चमकि बिजुरिया बेरावे कोइलिया ।। टेक ।। उर्पाट १३ गइल भरि छिड़ली पोखरिया, बिइली भइल किंच-किंचर इगरिया सूनी बसवरिया १९ में धोबिनी चिरड्याँ घुघुआ। १८ पहरुआ जगात्रे कोइलिया ।। टेक ।। आइल शरद ऋतु उगल में जोरिया ३०, दुधषा में लउकेरे नहाइल नगरिया । सिहरी गाल सखि कृतिया निरखि चाँद, पुरवा मटकि२२ सिहरावे कोइलिया ।। टेक ।। ठिठुरि शरद ऋतु भोइले दोलट्या २३ फेकुरी२४ कुहरिया में कटेला समया भींगन उमिरिया ३५, जया के जगरम २८ अइसन सरदिया २५ मुआवे ३० कोइ लिया ।। टेक। सरमो, बेरड्या, सनड्या ३२ फुलाइल फिर फिर झिहिर शिशिर ऋतु आइल सलिया३३ गुजरि गइल, तबहूँ ना हलिया ३४, पुरुब मुलुकवा से आवे कोइलिया । टेक ।

(২)

बिरहा ( विधवा-विलाप )

जिये के जियत यानी ३५, चाहीं ना जिए के हम पहाच ।

बारे जिगल

(۶)

रतिया ३३ के छलकत धौनी ३८ के गगरिया कि यह अमरितवा के धार,

फजिरे के ललकी टिकुलिया में लहरल सुतल सनेहिया ४३ हमारः ।। रेक।।

(২) हमर करमदाँ ४४ में नाहीं अमरित बाटे नाहीं बारे टिकुली-सिंगार जदिया४९ से डूबलऽ नयनों के जोतिया ४७ कि हमरो सरगवः ४८ अन्हार ४९ ॥टेक।। (३)

भवनवाँ सुहगवा के भूतवा के भरल रतिया या बसेर

माँगवा के ललकी लकिरिया ५२ रहले करमचाँ मिटाइल के फेर ॥ टेक ॥ 

बिरहा के अगिया, करेजवा के दगिया बगिया ३ भइल ५.३ सिंगार ॥ टेका। फुलवा के अंखिया खुलल नाहीं अबतक नदिया के घटल तुधार, मन के रेंगीनियाँ जोगनियाँ भइल बाटे टूटल सरगिय। के तार ॥टेका।

(४)

बिधना तोहरे हाथ बारे फुलवरिया कि दिने राते बहत बयार, नाहीं एहि पार बानी नाहीं ओहि पर हम फारत करेजवा हमार ॥टेक॥

२६६

उमाकान्त वर्मा

आपका जन्म स्थान छपरा नगर है। आपको शिक्षा काशी विश्वविद्यालय में हुई। उसी समय हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्री शिवमंगल सिंह 'सुमन' श्रीर सुपरिचित झालोचक धी शिलोचन शान्त्री के सम्पर्क से आपमें साहित्य-साधना की भावना जगो। आप हिन्दी और भोजपुरी में अन्डो कविता करते और गाते हैं। दोनों भाषाओं ने कहानी-लेखक भी हैं। आपकी दो पुस्तकें 'मकड़ी के जाला' (भोजपुरी कहानी-संग्रह) और 'दृ बिन्दू' (भोजपुरी उपम्यान) तैयार हैं। इस समय आप हाजीपुर (मुजफ्फरपुर) कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं।

रे दुलिया संसार । भरल हलाहल मधु के पिअलिया ले आइल उपहार, सकुचि लजाइल, उडि उडि आइल पल-पल लहर जुधार। रे इलिया संसार ॥ जान गइल जब आाजु के रोवल काल्हुर के गावल गीत, हार भइले यह आजु के पहले, रहते करमचों १३ के गीत । मिलल सनेहिया चिनिगिया १४ लगाये भइल जिनिगिया के भार ।

गीत

रे इलिया संसार ॥

बरमेश्वर ओझा 'विकल'

आप हिन्दी और भोजपुरी दोनों में कविला लिन्यने हैं। आप वंशनर (पुर, शाहाबाद) धाम के निवासी है। याप कुबर सिंह की जीवनी भोजपुरी में लिखी है। प्रस्तुत पुस्तक की पाण्डुलिपि मैयार करने में आपने मेरी महायना की है। 

ई' कइसन जुग आइल बा !

हुवले बीया कारी बदरिया, सूरुज जोति लुकाइल बा। ई कइसन जुग आत बा ?

(1)

बइठल सोना के डेरी पर, ऐगो" आपन हुकुम चलावत । ऐगो भीख माँगि के घर घर, कसहें अपन समय कटावत ।। बाप और बेटा के अब तक, नाते मा फरियाइल था। ई कइसन जुग आइल बा ?

(२)

जेकरा के। लूटि पाटिके मारत काटत, जहवाँ पावत जे आपन अब तऽ राज भइल बा, इहवाँ पूछत के केकरा अपने भाई के खूनवा से, सभ कर हाथ ई कइसन जुग आइल बा ? के ।। रंगाइल था।

(३)

करिया १४ एक बजार चलल बा, करिया चोर घुमत जवना १५ में। हिरदय में का ओकरा १६ बड़ए, दया धरम तनिको सपना में ।। सभकर पपवा के गठरी में, टेंगरी अय अकुराइल बा । ई कइसन जुग आइल बा ?

गोस्वामी चन्द्र श्वर भारती

आपका घर बोबारी (दरौंदा, सारन) है। आप अधिक्तर प्रचार गीत हो लिखते हैं। गये- नये तर्जी' में टेड भोजपुरी के गीत सामयिक विषयों पर आप बहुत अच्छा लिखते हैं। आप गायकों यी टोलो बनाकर, डोलक, झाल और हरमोनियम के साथ गा-गाकर अपनी रची पुस्तकें बेचते हैं। गाने का नया आकर्षक तर्ज और भाव प्रकाश का नया ढंग होने से लोग चाव से गाना सुनते और आपको पुस्तकें खरोदते हैं। आपकी एक किताब 'रामजी पर नोटिस' मुझे मिली है।

(1)

पानी बिना सूम्ब गहल देस भरके धान, ई का कहीं भगवान ! करजा काढ़ के खेती कहीं, मर मर रोपी धान। मोत के पैदा दहल २१ सूखन, रोवत। किसान ॥ ई का० ।। गहल दह३२, कहीं धार्मी२७ से बेकाम । ओडु से२४ जे बाँचल बा, बलेक२५ लेहले टान २५ ॥ ई का ॥ 

हम राज-किसान बनइती हो । घनी-गरीब-अमीर सभी के एक राह चलहर्ती हो। हक भर भोजन सबके दीती, दुस्खी न कहवडी हो । जेकरा घर में नहम्मे भोजन, चाउर में भरवही हो ।। जेका बारे टुटही मबड्या, खपड़ा से बनवइतों हो। कोटा के जो बात जे होइत, आपन नीति चलइती हो ।॥ बलेक-लीडर के बौधि पकनि के, फॉमी पर लटकती हो । बहमानों के जब घर पहीं, कारीख मुँह में लगइती हो । गदहा पर बह‌ठाइ उन्हें फिर खून से टीकवइती हो। बाल वृद्ध बोआह अंत कर, जोड़ा ब्याह १३ रचइती हो । उनहीं से अब भारत में फिर अरजुन-भीम बोलड़ती हो। खादर के जोगा५१४ जो करती धोरही में उपजइती हो ।। गडमाता के चरनेवाली परती ना जोतबड्तर्ती हो । छुआछूत के भूत भगइर्ती, सरिता-प्रोम बहती हो ।। हिन्दू-मुसलिम भाई के हम, एके मंत्र पढ़ती हो। बाँग अधिक खेत में बोहीं, चरखा बहुत बनहीं हो ।। भारत में बीधान बना के, घर घर सूत कतइती हो। अमर शहीदों के नामीले सुमिरन में लिखवइर्ती हो ।। सूली पर हँस चढ़े बहादुर, उनके सुची बनहती हो। मातृ-भूमि के बलिवेदी पर, 'चन्देश्वर' सीस चदइर्ती हो ।। जब-जब जनम जीती भारत में, बस्तियेदी पर जइतर्ती हो ।।

सूर्यपाल सिंह

आप चातर, (बयुरा, बदहरा, शाहाबाद) के रहनेवाले हैं। आपकी भाषा हिन्दी मिश्रित भोजपुरी है। आपके द्वारा रचित तीन पुस्तिकाएँ प्रकाशित है. जिनके नाम हैं- आजादी का तूफान; निगु ण भजन पंचरत्न और लम्पट लुटेरा। आपके शिष्य जवाहर हलुवाई छपरा जिने के हैं। वे भी भोजपुरी के कवि है।

पूर्वी

भारत आजाद भइले, हुलमेला २० मनवाँ, से झण्डः सोहे ना। बिजय देबी के समनवों ११ से झगडा सोह ना ॥ आंडा तिरंगा, बीच में चक्कर निसनवों २२, उड़ावल गहले ना। दिल्ली किला के उपरवा में उड़ावल० ॥ 

उनइस सो सैंतालिस रहले, शुक्रवार दिनवों, से जयहिंद ना। भहले चारो ओर सोरवा, मे जय० ॥ जुग जुग जियसु बाबा गाँधी, जवाहर से, बन्धन तोडले ना। माता कष्ट के हटवले, से बन्धन तोडले ना ॥

पाण्डेय कपिलदेवनारायण सिंह

यापका जन्म स्थान शीतलपुर (बरेजा, सारन) है। अपने साहित्यिक परिवार से हो आपको साहित्य सेवा की प्रेरणा मिली। आप हिन्दी और भोजपुरी दोनों के कचि तथा लेखक हैं। अभिनय- कला में भी आपकी रुचि है। ऋग्वेद के बहुत से सूक्तों, संस्कृत के श्लोकों और अंगरेजी की कविताओं का आपने हिन्दी और भोजपुरी में पद्यबद्ध अनुवाद किया है। आपके पूज्य पितामह स्वगांय श्रीदामोदर सहाय सिंह 'कविकिंकर' द्विवेदी युग के लब्धप्रतिष्ठ कवि थे। आपके पूज्य पिता पाण्डेय जगन्नाथप्रसाद सिंह हिन्दी के पुराने माने जाने लेखक हैं। आजकल आप बिहार-सरकार के अनुवाद विभाग में हैं।

जिनगी के अधार जियरा में उडेला दरदिया, नयेनवाँ से नीर बरे हो । अॅक्रिया में रतिया बीतबनी, सनेह के जोगवनी ।

से मन के भोश्वनी नु हो ।

आहे सखिया, पियवा बड़ा रे निश्मोडिया, ना जीया के कलेस हरे हो। छितरल धरती के कोरवा से अँखिया के तोरवा ।

जे ओस बनी भोरबा नु हो ।।

आहे सखिया,

छतिया के सुनगल "अगिया किरिनियाँ के रूप धरे हो। कनकेला हीया के सितार, मधुर झनकार ।

दरदिया के भार नु हो ।

आहे सखिया,

जिनगी के इहे बा अधार ने जिनगी में जान भरे हो। जियरा में उठेला दरदिया नयेनवाँ से नीर बरे हो ।

इन्द्र-सूक्त के अनुवाद यो जात एव प्रथमो मनस्वा, न्देवो देवान्कनुना पर्यभूपत् । शुप्माद्रोदसी अभ्यसेतो, यस्य नृग्गास्य महा स जनास इन्द्रः ॥१॥ जनमे लेत आदमी, सब में तुरते जे अगुआ हो गइल अपना वृतार से देवन के भी अपना कब्जा 13 में कइल, 

जेकरा साँसे भर लेला से, सरग श्रो धरती अक्षमा भइद्ध, जे बलवाला बहुत बबा बारे उहे इन्द्र भगवान ए लोगे ॥१॥

यः पृथिवीं व्यधमानाम हद् यः पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात् । यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो धामस्तभ्नात् स जनास इन्द्रः ॥२॥*

बहुत पसोजल धरती के थक्का पा ठोस बना दीहल जे, उड़त चलत परबत टील्हा के एक जगह बडा दहिलो, आसमान जे बदहन कइल, आसमान के नाप लीहल जे, जे श्राधार सरग के दीइल, उहे इन्द्र भगवान, ए लोगे ॥२॥

भूपनारायण शर्मा 'व्यास'

आप रायपुर (मानपुर, दिघवारा, सारन) ग्राम के निवासी हैं। आप कथावाचक हैं। आप मण्डली बनाकर कथा चहा करते हैं। श्राप भोजपुरी में सुन्दर रचना करते है। आपकी अबतक छह रचनाएँ प्रकाशित हो चुरी हैं। जिनमें अन्य कवियों की भी रचनाएँ हैं।

प्रकाशित पुस्तकें - (१) राम जन्म बश्या, (३) मिथिला बहार संकीर्णन (३) श्री सीताराम बियाह संकीर्णन, (४) सीता-बिदाई, (५) कोर्नन मंजुमाला और (६) थी गौरीशङ्कर-विवाह संकोनन। इनमें प्रथम चार का प्रकाशक-भार्गव पुस्तकालय, गायघाट, बनारस है।

कीर्त्तन

तो' पर बारी" संवलिया ए दुलहा ।। टेक ।। सिर पर चारा १२, कमर पट पीला, भोने गुलाबी चदरिया । गले बोचे होरा, चवावे मुख बीरा बिहसत करे कहरिया १४ ॥ छैल, अबला, रंगीला, नोकोला पहिरे जामा १५ केसरिया । भांडे कमान तानि नयन-बान मारे, भरिके काजर १७ जहरिया || मिथिला की डोमिन सलोनी सुकुमारी, तोहरे सरहज १९ वो सरिया २० सुध-बुध हार भई प्रोम-मतवालो, पड़ते ही बाँके नजरिया । हम तोहरो विड्व। २१ नहीं छोड़वो जैहों साधे अवध नगरिया ।। सरपत २२ के कुटिया बनाई हम रहबो, तोदगे महल पिठुवरिया २३ । सरयू सरित तारे-तीरे बहारवरे, साँझ-सधेरे-डुपहरिया । ताही ठौर मिलय नहाये जब जैबड२५, प्रान जीवन तोरा लागि माँगब दृकाने-दृकाने कौड़ी बीच नेह लगा और कतहीं न जाइब, अइसे बितइहों धनुधरिया २६ । बजरिया २७ । उमरिया २८ ॥ 

सिपाही सिंह 'पागल'

आप सारन जिले के बैकुण्ठपुर थाने के निवासी है। सन् १६४४ ई० में छपरा के 'राजेन्द्र कॉलेज' से आपने बी० ए० पास किया था। सन् १६५१ ई० में आपने पटना के ट्रेनिंग-कॉलेज से 'डिप्० इन्-ए की परोक्षा विशेषता के साथ पास की। काशी के साप्ताहिक 'समाज' में आपके भोजपुरी-सम्बन्धी कई लेख प्रकाशित हुए थे। आपने अंगरेजी के कवि 'शेलो', 'बड्सवर्थ' आदि की कविताओं का अनुवाद भोजपुरी में किया है।

जिनगी के गीत

सीखड भाई जिनगी में हँसे-मुसुकाए के, इचिकोर ना करऽ पीर तीर के सिलवा सिहरऽ ना सनसुख देख मुसकिलवा नदी-नाला परबत फाने के हियाव" राखऽ हारऽ ना हिया में, सीखड मस्ती में गावे के ॥ सीखऽ भाई० ॥

पथर से घुरहुड आँधी बहे, पानी पड़े तबहूँ ना जिनगी से मुँह सातो समुन्दर चाहे बड़का तबहूँ ना पीछा मुहँ बेग जहर पो के सीखड नीलकण्ठ पहाद मिले कहलावे के। सीखऽ भाई० ॥

शालिग्राम गुप्त 'राही'

आपका घर 'दरोटिया' (परसा, सारन) गाँव में है। आपका जन्म-काल सन् १८२६ ई० है । आपका पेशा वर्त्तमान समस्या-सम्बन्धो गीत, भजन आदि भोजपुरी में बनाना और छोटी छोटी पुस्तिकाओं में छपवा कर ट्रेन पर गा-गाकर बेचना है। आप की रची हुई दो पुस्तिकाएँ मुझे देखने को मिली - 'झगरू पुराण' उर्फ 'टोमल बतकहीं' तथा 'देहात के इलचल' । पहली पुस्तिका मोइन प्रेम (छपरा) में सन् १६४१ ई० में छपी है और दूसरी पुस्तिका कृषि प्रेस (छपरा) में सन् १६५ में छुपी है। पहली पुस्तिका में बोट-सम्बन्धी झगड-टोमल-वार्ता दोहा और अन्य छन्दरों में है। वार्ता समाजवाद के पक्ष में है। दूसरी पुस्तिका आपके आठ गीतों का संग्रह है।

(१)

इयाद रख

अन्हार १२ ना छिपा सकल, अॅजोर होके का भइल १४ जो थरथरी बनल रहल, तऽ घाम होके का भइत ।। हजार डींग हॉकले स्वराज हो गइल मरल गरीब भूख से, इ राज होके का भइल ।। अगर । 

अहसन परल ? अकाज बाप रे ।

अबकी लोग जरूरे मरी, चाहे कोटि घरीकुन करी । घट गड्लक एकबाल बाप रे! अइसन० ॥

जाति-पाँति के बाँध न टूटल, सये लोग सब काम में जूटल । पण्डित भइल कलाल बाप रे! अइसन० ।।

सेर-भर के खुद्दी" फटकल, देस्त्र के हमर दिमागे चटकल १२

दूध-दही घीव अमृत कलक कउन हलाल भइल, पाँचो मेवा पताले बाप रे! अइसन० ।। गइल"। उपजल टी० बी० काल बाप रे! अइसन० ।।

घर-दुआर सब दहिए गइल, तीन साल से फसल न भइल । हम सब भहीं बेहाल बाप रे । अइसन० ।। बाहर से गल्ला ना आई, तब हमनी का खायब भाई। इहे अजय सवाल बाप रे! अइसन० ॥

रामवचन लाल

आपका जन्म विक्रम संवत् १६७७ में भाद्र पूर्णिमा को हुया था। आप शाहाबाद जिले के बगादी गाँव के निवासी हैं। आप सन् १६४३ ई० में इलाहाबाद-बोर्ड से आई० ए० को परोक्षा पास कर माष्टरी करने लगे थे। सन् १६५२ ई० में आपने कार्श। विश्वविद्यालय से बी० ए० को परीक्षा पास की है। आप एक होनहार भोजपुरी कवि हैं। आपकी भोजपुरी की मुख्य रचनाओं में 'कुणाल', 'गीतांजलि', 'दिली दोस्त' (शेक्सपीयर के मर्चेण्ट अफ वेनिस के आधार पर) तथा 'रामराज' हैं।

राज-वाटिका-बरनन

रहे गह-गह३०, मह-मह३१ फुलवरिया, मधुरे-मधुर बोले मधुई बयरिया २२ । रंगे रंगे फर २३ फूल विरिछ २४- बँवरिया २५, रस ले मॅवरवा भरेला गु जरिया २५ ।। बन मन झारै, कहीं कुहुँके कोइलिया, हियरा में साले ले पपिहरा के बोलिया। बिहरें सगरवा में रंगलि मरिया, छूटेला फुहारा रंग-रंग झरझरिया ॥ पतवा३८ में तोतवा ३९ लुकाके कहीं कतरेला ३१, रसे-रसे उ२, रस लेइ-लेइ ३३ । जोदिया मयनवां के डदिया बइसि३५ भले, हियरा हुलास कहि देइ ।।

नथुनी लाल

आप मोरंगा (बेगूसराय, मुंगेर) गाँव के रहनेवाले हैं। आपको विशेषता यह है कि मुंगेर की अंगिका (छोका छोको) भाषा के बोलनेवाले होकर भी आपने भोजपुरी में रचना की है आपकी रचनाएँ समाज सुधार की होती हैं। आपको एक पुस्तिका है 'ताबोबेचनी', जो दूधनाथ प्रेस ( मलकिया. दवबा) से प्रकाशित है। दूसरी पुस्तिका 'आजाद भारत को पिस्तौल' हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, १६२/१, हरिसन रोड, कलकत्ता ने छपी है। पहलो पुस्तक की रचनाएँ भोजपुरी- लोक साहित्य की है। दूसरी में राष्ट्रीय गोत नये-नये तजों में है।

घुन पूर्वी

तोहर बयान सब लोग से कहत बानी, कनवाँ लगाइ सनी सुनऽ तादी बेचनी ॥ गाल गुलनार, डॉद सिंकिपा समान बाटे, जोबना बा काशी के अनार ताबीचेचनी । नित तू सत्रुनों लगावेलू बदनों में, पोखरा में करऽ असनान ताबीर्थचनी ।। नित तू सबेरे-शाम साबुन से असनान कर, तेलवा लगावे बासदार७ चिरनी लगाई कर, माथा के बँधाई लेले, सेन्दुरा में भरेले लिलार सड़िया रंगीन पेन्हें, बोली लवलीनवा से टिकली के अजब बहार बन्द्र के समान मुंह, गाल मलपुआ जइसे रोरी बुन्द" करेली लिलार कादा १२ लाड़ा 13 बिया १४, पहुँची, हाथ बालिया से हसुली पहिरे सबामेर तादी बेचनी । सोलो सिंगार करि, करें अभरन र प्यरी, बड्सेली सादी के दूकान तादोवेचनी ।। ताबीचेचनी । तादीचेचनी ।। तादीवचनी । हाांचेचनी ।।

वसन्तकुमार

भ्रापका जन्म-काल विक्रम संवत् १६-६ है। आपका जन्म-स्थान खजुह‌ट्टी (सारन) गांव है। आपका घरेलू नाम अयोध्याप्रसाद सिंह है और साहित्य क्षेत्र में बसंतकुमार। छात्रावस्था में आप 'रामचरित मानस' का नियमित पाठ करते थे। हिन्दी संसार के प्रसिद्ध साहित्यसेवों श्री राहुल स कृत्यायन की प्रेरणा से आप भोजपुरी कविता की ओर प्रवृत्त हुए। आपने भोजपुरी की अनेक कविताएँ लिखी, जिनमें अधिकांश रेडियों में प्रसारित हो चुकी है।

वद्रवा

[ धरती श्रीष्म में गर्म लोरे-सी तप रही है। खेतों की फसत्त चिलचिलाती धूप में सुलस पड़ी है। ठीक इसी समय श्रीष्म की हॉफ्लो हुई एक नौरव दुपहरी में एक किसान सुदूर परितप्त आकाश में बादल के एक सूखे टुकने को देखकर उसे सम्बोधित करने आशा-भरे लय में गा पड़ता है-] छितिज से फुडकत आउरे बदवा", अरु पनियाँ से मोर खेत दया नहीं लागे तोके मझ्या बदरवा, खेतवा मइल मोर रेत । संपवा समान लप लप करि लुकिया चलत, चंवरवा २१ उदास खेत के फसलिया मुलसी मुरकइली, आगे के न बाट किछु आस इनर ३२ बाबा के घर-घर होत गीत, पर बाबा नाहीं डरल बुम्फास ३३ जाऊ तर्नी२४ उहाँ के२५ मनाई देऊ भइया, चदि के पवन उनचास ममकत, बरसत, हसत-खेलव धरती सरस-सचेत करु के

खेतवा भद्दल मोर रेत । दिगमिगरेर करि उड़े स्वेतवा भदध्या, देखिकर जिया हुलुसाय ३७ हरियर पनिया में सिमटि मकड्या कस-मस करि खिद्याय पलेया', सहरि चले, मिटे पुरवड्या घानाँ उमॅकि लहराय रबिया के समय भी भूलु नाहीं मया, चकमक फसल फुलाय गहुँला का गोदिया में लिपटि केरउवा हुसे, नाही तोहदा समेत खेतवा महल मोर रेत ।

ओर जोर, के शोर चिरई समान फुडुकत कहु भक्ष्या, सरपट जात कित तुइँ तर हिमाचल के सेज पर बिहत हमनी के दुरकत जदी ना तू अब अकाल पनि जइहें, मचि जइहें भूखवा अन बिनु मोर देस भइल तबाह भइया, तिकवत तहरे सोना-चाँनी बग्सड दाता रे बद्रवा, सुसहाल होय बेतवा भहत मोर रेत । ही ओर मोर देस

नाचु तुई उमदि-घुमदि के अकसिया १२ बिजुरी के ले मुसुकान चेवर डोलावे तोके शीतल बेयरिया, मिट जाय आन्हों१३ बो तूफान छिनकु १४ सुरस-धार रिमझिम रिमझिम, लाइ जासु सकल जहान बिरहा के तान छेदि रोपनी १५ में लागे सब तुहुँ गाव गरजन-गान तुरक पद्म तू सब ओर हे बदरवा, मनवाँ के करु ना सकेत १७ खेतवा भइल मोर रेत ।

हरेन्द्रदेव नारायण

आप भोजपुरी के स्वनामधन्य सुकवि स्वगांय श्रीरघुवीरनारायण जी के सुपुत्र हैं। आपका अन्म सारन जिले के 'नया गांव' नामक ग्राम में, सन् १८१७ ई० में हुआ था। आपने सन् १८३७ ई० में बी० ए० पास किया था। आप हिन्दी के एक प्रतिभाशाली कचि और आलोचक हैं। सन् १८३३ ई० में आापकी पहलो कविता 'बांसुरी' पटना से प्रकाशित साप्ताहिक 'बिजली' में छपी थी और उस समय उसको काफी प्रसिद्धि हुई थी। तबसे आप निरन्तर हिन्दी साहित्य की सेवा करते आ रहे हैं। आपकी पत्नी श्रीमती प्रकाशवती नारायण भी हिन्दी की नवयित्री और कहानी लेख्किा है। आपने सन् १६५७ ई० में पहले-पहल भोजपुरी में 'कुवरसिंह' नामक महाकाव्य लिखा है, जो भारा नगर के एक प्रकाशक द्वारा प्रकाशित किया गया है। उसी के द्वितीय सर्ग का एक अंश यहाँ उद्भुत है-

बैठकलाना कुँवरसिंह के, बाहर खूब जमल बा ८, झालर लागल बा नफीस, चंदोवा एक टॅगल बा। दियाधार २० के दीपन से, मृदु-मन्द जोत भावत था, एक गुनी बैठल बा, सारंगी पर कुछ गावत बा ॥ अइलन बाबू 'कॅवरसिंह', सहसा भीतर से बाहर, कोलाहल कुछ भदल बिपिन में. बाहर आइल नाहर । हड्डी ठोस, पेसानी २२ दमकत, पुष्ट वृषभ-कंधा था, अस्सी के बा उमर महल, का करे बुद ? अन्धा था ।। 

सिंह चलन, रवि जलत नयन, जुग सुगठित चंड भुजा था, अइसन बोलेला जसे, डोलेला विजय-पताका । नवजुग के हम दूत कहीं, या जय के याकि विभा के केन्द्र-बिन्दु मानुस सपना के, साहस, सत्य, प्रभा के !! छोटन रागन के समाज में, महाराग आवेला, फूसन के डेरन में जइसे, कहीं आग आवेला । जिनगी के अधियाली में, या पुन्न भाग आवेला, कोलाहल मय स्वार्थ बीच जइसे बिराग आला ।। बइसे अञ्जन कुँवरसिंह जी, जय जय, जय जय गंजल, ब्राह्मन-कुल वो जहसे अहला भोरहरी के बन्दीजन के चिरमंगल लय गंजल । से प्रभात के, चिदिया-कुल चहकेला, हवा चले तो कमल फूल महकेला ॥ जिनकर हङ्गो में सिमटल होखे, जोती के सागर, जिनकर मांसपेसियन में, सूतल हो असित प्रभाकर । जिनकर चमकत नयन-पुत्तली, में सूरज चन्दा हो, बंक हि में सब कुभाल के, जहाँ मरन फंदा हो । जे हो महासिन्धु साइस के, जहाँ गिरे सब धारा, जे यासीम गौरव हो, जेकरा" में ना कहीं किनारा । अइसन माँझी जे आंधी में नौका सोज बलेला, सलहत्यों में भाग मले १२, ओकरा के वृद्ध कडेला ।। जय हो सत्य, सोल के पुतला, जय साहस के सागर, जय जागृति के अद्‌भुत कारन, नरकुल वंस-उजागर । छाती, जइसे अटल हिमालय, करुणा नव निरफरनी, कबा सब के आसा माया, असरन-मंगल-करिनी ॥ आज दुआरी १३ पर आकर के, किरन खड़ा बा, बोही १४ मद में दिसा-ओट से भव्य पुकारत बा, राउर पग चूमे के, जुग जुग तक झूमे के। नवजुग आवत बा, ये रतिया में अमर जागरन गांत नियति गावति बा ।। मानुस जीवन के तरनी के, जय हो बोर वेवैया दमकी राउर प्रान-दामिनी, आइल उहे १९ समैया ।।

दुर्गाशंकरप्रसाद सिंह

आप दिलांपपुर (शाहाबाद) के निवासी हैं। आपके पिता का नाम श्री विश्वनाथप्रसाद सिह था। आपका जन्म विकत्र-संवत् १६५३ में, मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, सोमवार को हुआ था। आपने सन् १६२१ ई० में मैट्रिक की परीक्षा पास की। आपके पितामह श्रीनर्मदेश्वर प्रसाद सिंह 'ईश' हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और विद्वान् लेखक थे। सन् १६३३ ई० से आपने हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश किया। 

तबसे आप बराबर हिन्दी की सेवा करते आ रहे हैं। हिन्दी में आपकी १० पुस्तकें प्रकाशित और २० पुस्तकें अप्रकाशित हैं। भोजपुरी-लोक-साहित्य-सम्बन्धी अनेक लेख समय-समय पर पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी की प्रकाशित पुस्तकों में 'भोजपुरी लोकगीत में कथ्यारस' हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन (प्रयाग) से प्रकाशित है। यह पुस्तक सन् १६४४ ई० में ही प्रकाशित हुई थी। अत्रकाशित पुस्तकों में भोजपुरी-सम्बन्धी पाँच पुस्तकें मुख्य हैं- (१) भोजपुरी लोकगांत में शान्त-रस, (२) भोजपुरी लोकगीत में श्रृंगार और बीर रस, (३) भोजपुरी निबन्ध संग्रह, (४) कु वरसिंह नाटक और (५) गुनावन। इन पाँच के अतिरिक्त यह प्रस्तुत पुस्तक (भोजपुरी के कवि और काव्य) आपकी उल्लेखनीय कृति है।

(१)

सोहर

केरी र राति, सघन घन घेरि रहे । अइलो भदउवा बाबु चढ़लीं रयनि नभवा से गिरे करि-करि धार, तुपक रन बाबू के घोड़ा करें काटि, कड़क गोरा टपाटप बाजे धोके टाप, छत्रा-छप अधिराति, फिरंगी दल काँपि रहे ॥ गोली करे । काटि रहे ॥ गिरे । तब घेरले फिरंगिया एकाहू, अजब बाबू युद्ध करे ॥ दैतवा से पहले चर लगाम, दुनो हाये बार करे । पर्येतरा प दडदे लागे घोड़, झन झन्न खड़ग चले ॥ बीबीगंज १२ चले । लदे ॥ मारि कहे। टूटि परे ॥ भइले धमसान, धमाधम तोप होखली 3 संगीनवा के मारि, दुनो दलवा जूमि गिरले आयर अरराय, छाती मुका बाबू गजब फेंके तरुरि, बाजे अस धन१७ ऊ मतरिया जे लाल, सिलौधा जनु जनम दई । अब जइहें३० फिरंगिया के राज, बच्वलो से नाहीं बचे ॥ - (भोजपुरी नाटक 'के वरसिंह' का एक गीत)

(२)

बिरह-निवेदन

कइसे करीं गुनावन २ प्रीतम, सोचत गुनत ३२ बहठल बानी २३ । एही गुनावन में नू तूहुँ २४, रहि-रहि मनमें भासत जालः ॥१॥ भादो रैन अन्हरिया ३५ जइसे, गरनि केहू चमकत जाला । हिय के अन्धाकूप में साजन २५, ओइसे तूहूँ झलकत जालऽ२७ ॥२॥ सूल भीतरे साक्षत जाला, बिरहा २८ ऊपर दागत आाला २५ पिया-प्रेम मन माँतल जाला, दूर तबो तू भागते जालः ॥३॥ 

मन में गुनावन नित्त करीला, पिया तु परम कठोर बुझाक्षऽ'। पसिजि-पसिजि के पाहन भी नू बहि-बहि के हिलकोर में जाला ॥४॥ पर प्रीतम, तू जरा ना दरवड लखि के हाल हमार ना तरसः । सावन-भादो ऑखि के सरवल, तोहरा लेग्ने रिमझिम बरिसल ॥६॥ सूल हिया में चुभावत जालड, बिरह से तन के जारत जालऽ । पागल अस मन माता कहके, निरमोही अस हटते जातः ॥६॥ भादो के अन्हरिया देखलीं, कातिक के अंजोरिया तकलीं। राति-राति भर ले सेज तड़पलों, तब हूँ पिया तू, भागते जालः ॥७॥ होयतीं जल के हम् मदरिया, बलिती जा जैह विया नहइते । चुयुके चरनन चूमि अघइती, चिर संचित मन साथ पुजइ‌तीं ॥८॥ बनि पद्दतीं जो बन के कोइलिया, करिती बास बिंदावन बिचवा । स्याम रचते राति उहाँ जब, कुटुकि-कुटुकि हिय बिधा सुनती ॥१०॥ -( 'गुनावन' से)

(३)

विरहानुभूति

लउकत। १२ पहाव मानों सूतल हो इअदिया। आन्हर अजगर अस दिसो १५ गुमसुम बिश्र। धुँआ में सनाइल रबि थोरिके १८ उपरवा । डूबत आवे नीचे जइसे मन के सपनवा ॥ गते गते १५ सिखरा ३० पर सूरज जी उतरली। मलिन मुखवे ताकि मोके नीचे तनी-सा ललाई अडयो २२ लउकतिया २३ जनु कबनो बिरही के काटल करिया २५ ओड़नियाँ ओदि साँकि चति अइली। डेरा दनीं ।॥ ओडिजिय। २४। हो करेजिया ।। बकुलन के पाँत ओके २५ गजरा पेन्हवली ।। कोइली एने कुहुके पपीहा ओने २८ पीह के । हियत में धक संनी२५ सूतल केहू जगली ।। नसवा में सनकि३० हवा बद्री उबवली। मनवा के सुख जनु ओके सँग बहवली ३१ ।। ललकी ३२ लुगरिया फेनु३३ बिरहिन के प्रान कादि पक्ष्मि में इसवली ३४। ३५ सुतउत्ती ।।

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लेख
भोजपुरी के कवि और काव्य
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लेखक आ शोधकर्ता के रूप में काम कइले बानी : एह किताब के तइयारी शोधकर्ता श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह कइले बाड़न. किताब के सामग्री : १. एह किताब में भोजपुरी के कवि आ कविता के चर्चा कइल गइल बा, जवना में भारतीय साहित्य में ओह लोग के योगदान पर जोर दिहल गइल बा. एह में उल्लेख बा कि भारत के भाषाई सर्वेक्षण में जार्ज ग्रियर्सन रोचक पहलु के चर्चा कइले बाड़न, भारतीय पुनर्जागरण के श्रेय मुख्य रूप से बंगाली आ भोजपुरियन के दिहल। एह में नोट कइल गइल बा कि भोजपुरिया लोग अपना साहित्यिक रचना के माध्यम से बंगाली के रूप में अइसने करतब हासिल कइले बा, जवना में ‘बोली-बानी’ (बोलल भाषा आ बोली) शब्द के संदर्भ दिहल गइल बा। भोजपुरी साहित्य के इतिहास : १. एह किताब में एह बात के रेखांकित कइल गइल बा कि भोजपुरी साहित्य के लिखित प्रमाण 18वीं सदी के शुरुआत से मिल सकेला. भोजपुरी में मौखिक आ लिखित साहित्यिक परम्परा 18वीं सदी से लेके वर्तमान में लगातार बहत रहल बा। एह में शामिल प्रयास आ काम: 1.1. प्रस्तावना में एह किताब के संकलन में शोधकर्ता श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह जी के कइल महत्वपूर्ण प्रयास, धैर्य, आ मेहनत के जिक्र बा। एहमें वर्तमान समय में अइसन समर्पित शोध प्रयासन के कमी पर एगो विलाप व्यक्त कइल गइल बा. प्रकाशन के विवरण बा: "भोजपुरी कवि और काव्य" किताब के एगो उल्लेखनीय रचना मानल जाला आ बिहार-राष्ट्रभाषा परिषद के शुरुआती प्रकाशन के हिस्सा हवे। पहिला संस्करण 1958 में छपल, आ दुसरा संस्करण के जिकिर पाठ में भइल बा।
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आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक प्रारम्भिक काल

7 December 2023
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प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी के इतिहास का वर्णन करते समय बताया गया है कि आठवीं सदी से केवल भोजपुरी ही नहीं; बल्कि अन्य वर्तमान भाषाओं ने भी प्राकृत भाषा से अपना-अपना अलग रूप निर्धारित करना शु

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घाघ

8 December 2023
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बाघ के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में बहुत विद्वानों ने अधिकांश बातें अटकल और अनुमान के आधार पर कही है। किसी-किसी ने डाक के जन्म की गाया को लेकर घाष के साथ जोड़ दिया है। परन्तु इस क्षेत्र में रामनरेश त्रिप

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सुवचन दासी

9 December 2023
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अपकी गणना संत-कांर्यात्रयों में है। आप बलिया जिलान्तर्गत डेइना-निवासी मुंशी दलसिगार काल को पुत्री थी और संवत् १६२८ में पैदा हुई थी। इतनी भोली-भाली यी कि बचपन में आपको लोग 'बउर्रानिया' कदते थे। १४ वर्ष

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अम्बिकाप्रसाद

11 December 2023
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बाबू अम्बिकाप्रनाद 'आारा' की कलक्टरी में मुख्तारी करते थे। जब सर जार्ज क्रियर्सन साहब श्रारा में भोजपुरी, का अध्ययन और भोजपुरी कविताओं का संग्रह कर रहे थे, तब आप काफी कविताएँ लिख चुके थे। आपके बहन-से

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राजकुमारी सखी

12 December 2023
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आप शाहाबाद जिले की कवयित्री थीं। आपके गीत अधिक नहीं मिल सके। फिर भी, आपकी कटि-प्रतिभा का नमुना इस एक गीत से ही मिल जाता है। आपका समय बीसवीं सदी का पूर्वाद्ध अनुमित है। निम्नलिखित गीत चम्पारन निवासी श्

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माताचन्द सिह

13 December 2023
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आप 'सहजौली' (शाहपुरपड़ी, शादाबाद) ग्राम के निवासी हैं। आपकी कई गीत पुस्तके प्रराशिन है पूर्वी गलिया-के-गलियारामा फिरे रंग-रसिया, हो संवरियो लाल कवन धनि गोदाना गोदाय हो संवरियो लाल ।। अपनी मह‌लिया भी

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रामेश्वर सिंह काश्यप

14 December 2023
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आपका जन्म सन् १८१६ ई० में, १६ अगस्त को, सामाराम ( शाहायाद) ग्राम में हुआ था। पास की थी। सन् १३४ ई० में पान किया। इन तीनों परोक्षाओं के नजदीक 'सेमरा' आपने मैट्रिक की परीक्षा सन् १८४४ ई० में, मुंगेर जिल

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