बाघ के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में बहुत विद्वानों ने अधिकांश बातें अटकल और अनुमान के आधार पर कही है। किसी-किसी ने डाक के जन्म की गाया को लेकर घाष के साथ जोड़ दिया है। परन्तु इस क्षेत्र में रामनरेश त्रिपाठीजी ने सबसे अधिक छानबीन की है। उनके परिश्रम का फल यह हुआ कि बाघ के वंशघरों का पता ठीक-ठीक चल गया और उनके कार्य-क्षेत्र और स्थान का ठीक पता मिला।
बात यह है कि प्रतिभावालों का यश जब दूर तक फैल जाता है, तब कालान्तर में लोग उनको अपनाने की कोशिश करने लगते है और जबतक प्रामाणिक बातें सामने नहीं आती तबतक ऐसी ही अटकलबाजियाँ चला करती है। वही बात बाप के सम्बन्ध में भी हुई है। शिवसिंह-सरोज के लेखक से लेकर बाद के विद्वानों तक ने इनके सम्बन्ध में अनेक बातें कहीं और उनके जन्म स्थान को अलग-अलग कहा। 'पाप और भगुरी' नामक पुस्तक में यह विवरण उद्धृत है' ।
घाघ की जीवनी
भाष के सम्बन्ध में शिवसिंह ने अपने 'सरोज' में लिखा है:- "बाघ कान्यकुब्ज अंतर्वेद वाले सं० १७५३ में उ० ॥"
विख्यात है।"
"इनके दोहा, छप्पय, लोकोक्ति तथा नीति-सम्बन्धी उपदेश मामीया बोलचाल में मिश्रवन्धु अपने 'विनोद' में लिखते हैं:-
"ये महाशय संवत् १७५३ में उत्पन्न हुए और १९८० में इन्होंने कविता की मोटिया नीति आपने बड़ी जोरदार ग्रामीण भाषा में कही है।"
हिन्दी शब्दसागर के सभ्पादकों का कथन है :-
"घाघ गोडे के रहनेवाले एक बड़े चतुर अनुभवी व्यक्ति का नाम है, जिसकी कही हुई बहुत-सी कहावतें उत्तरीय भारत में प्रसिद्ध है। खेती-बारी, ऋतु काल तथा लग्न- नुहूर्त आदि के सम्बन्ध में इनकी विलक्षण युक्तियाँ किसान तथा साधारण लोग बहुत कहा करते हैं।
'भारतीय चरिताम्बुधि' में लिखा है:-
"ये कनौज के रहनेवाले थे। सन् १६६६ में पैदा हुए थे।"
भी पीर मुहम्मद मूनिस का मत है:-
'घाघ के पयों की शब्दावली को देखते हुए अनुमान करना पड़ता है कि घाघ चम्पारन और मुजफ्फरपुर जिले के उत्तरीय सरहद पर, श्ररिया मठ या बैरगनिया और कुड़वा चैनपुर के समीप किसी गाँव के थे।"
"अथवा चम्पारन के तथा दूद्दो सुद्दो के निकटवर्ती किसी गाँव में उत्पन्न हुए होंगे, अथवा उन्होंने यहाँ आकर कुछ दिनों तक निवास किया होगा ।"
श्री बी० एन० मेहता, आइ० सी० एस० अपनी 'युक्तमान्त की कृषि-सम्बन्धी कदावतों' में लिखते हैं:-
"घाघ नामक एक अद्दीर की उपहासात्मक कहावतें भी स्त्रियों पर आक्षेप के रूप में है।" रायबहादुर बाबू मुकुन्दलाल गुप्त 'विशारद' अग्नी 'कृषिरलावली' में लिखते हैं:- "कानपुर जिलान्तर्गत किसी गाँव में संवत् १७५३ में इनका जन्म हुआ था। ये जाति के ग्वाला थे। १७८० में इन्होंने कविता की मोटिया नीति बढ़ी जोरदार भाषा में कही।"
राजा साइन पडरौना (जि० गोररूपुर) ने स्वागत-समिति के सभापति की हैसियत से अपने भाषण में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गोरखपुर के वार्षिकोत्सव के अवसर पर कहा था कि घाघ उनके राज के निवासी थे। गाँव का नाम भी उन्होंने शायद रामपुर बताया था। मैंने जाँच कराई, तो मालूम हुआ कि इसमें कुछ भी तथ्य नहीं है।
'शिवसिंद सरोज' के आधार पर 'कविता-कौमुदी' (प्रथम भाग) में लिखा है- "घाष कन्नोज-निवासी थे। इनका जन्म सं० १७५३ में कहा जाता है। ये कबतक जीवित रहे, न तो इसका ठीक-ठीक पता है, और न इनका या इनके कुटुम्ब का ही कुछ दाल मालूम है ।"
इसमें भी पीर मुहम्मद मूनिस का मत सद्दी है। घाघ का जन्म छपरा जिले में ही हुआ था। इसको ५० रामनरेश त्रिपाठी ने मी घाघ के परिवार का निवास कनौज के पास 'अकबराबाद सराय पाप' से लगा कर अस्वीकार नहीं किया है। बात यह है कि घाष का जन्म छपरा जिले में हुआ और यहाँ उनकी प्रतिमा का विकास भी खूब हुआ। सम्माने भी उन्हें अच्छा मिला। किन्तु उनका प्रौढ समय दिल्ली दरबार में अकबर के पास बीता। इन्दोंने उन्हें जागीर दी और उन्होंने अपने और अपने बादशाह के नाम पर 'अकबरा बाद सराय घाच' असाया और वहीं वस गये। 'शिवसिंह-सरोज' के श्राधार पर जब राम. नरेश त्रिपाठी ने कन्नौज के पास पता लगाया तत्र उनको यहाँ उनके परिवारवाले भी मिले। उन्होंने लिखा है "मैंने प्रायः सब स्थानों की खोज की। कहीं-कहीं अपने आदमी भेजे। मैंने अवध के प्रायः सभी राजाओं और ताल्लुकेदारों को पत्र लिखकर पूछा। परन्तु कुछ ताल्लुकेदारों ने उत्तर दिया कि 'नहीं'। खोज के लिए कनौज रह गया था। मैं उसकी चिन्ता में ही था कि तिर्वा के राजा साहब के प्राइवेट सेक्रेटरी ठाकुर केदारनाथ सिंह, बी. ए० का पत्र मिला कि कन्नौज में घाघ के वंशधर मौजूद है। उनका पत्र पाकर मैंने कन्नौज में घाघ की खोज की, तो यह पता चला कि घाघ कन्नौज के एक पुरवे में, जिसका नाम चौधरी सराय है, रहते थे। अत्र भी वर्दा उनके वंशज रहते हैं। वे लोग दूब कहलाते है। घाव पहले-पहल हुमायूँ के राजकाल में गंगा पार के रहनेवाले थे। वे हुमायूँ के दरबार में गये। फिर अकबर के साथ रहने लगे। अकबर उनपर बढ़ा प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि अपने नाम का कोई गाँव बसाओ। घाघ ने वर्त्तमान 'चीधरी सराय' नामक गाँव बसाया और उसका नाम रक्खा 'अकबराबाद सरायघाघ'। अब भी सरकारी कागजात में उस गाँव का नाम 'सराय घाय' ही लिखा जाता है।
सरायभाष कन्नौज शहर से एक मील दक्षिण और कन्नौज स्टेशन से तीन फर्लांग पश्चिम है। बस्ती देखने से बढ़ी पुरानी जान पड़ती है। थोड़ा-सा खोदने पर जमीन के अन्दर से पुरानी ईंटें निकलती है। अकबर के दरबार में घाघ की बढ़ी प्रतिष्ठा थी। अकचर ने इनको कई गाँव दिये थे, और इनको चौधरी की उपाधि भी दी थी। इसीसे घाघ के कुटुम्बी अभी तक चौधरी कहे जाते हैं। 'सराय घाष' का दूसरा नाम 'चौधरी-सराय' भी है।" ऊपर कहा जा चुका है कि घाघ दूबे थे। इनका जन्म स्थान कहीं गंगा पार में कहा जाता है। अब उस गाँव का नाम और पता इनके वंशजों में कोई नहीं जानता। पाघ देवकली के दूबे थे और 'सराय घाघ' बसा कर अपने उसी गाँव में रहने लगे थे। उनके दो पुत्र हुए-मार्कडेय दूबे और घीरधर दूबे। इन दोनों पुत्रों के खानदान में दूबे लोगों के बीस-पचीस घर अब उस बस्ती में हैं। मार्कडेय दूबे के खानदान में बच्चू लाल दूबे और विष्णु-स्वरूप दूबे तथा धीरधर दूबे के खानदान में रामचरण दूबे और श्रीकृष्ण दूबे वर्तमान है। ये लोग घाघ की सातवीं या आठवीं पीढ़ी में अपनेको बतलाते हैं। ये लोग कभी दान नहीं लेते। इनका कथन है कि घाघ अपने धामिक विश्वासों में बड़े कट्टर थे, और इसी कारण उनको अन्त में मुगल-दरबार से हटना पड़ा था, तथा उनकी जमींदारी का अधि- फांश जब्त हो गया था।"
इस विवरण से घाघ के वंश और जीवन काल के विषय में संदेह नहीं रह जाता। मेरी राय में अब बाघ-विषयक सत्र कल्पनाश्रओं की इतिश्री समझनी चाहिए। घाघ को स्वाला समझनेवालों अथवा 'वराहमिहर' की सन्तान माननेवालों को भी अपनी भूल सुधार लेनी चाहिए।"
इस उद्धरण से सभी मतभेद समाप्त हो गये और घाघ के छपरा का निवासी होना भी मुहम्मद मूनिस के मतानुसार सिद्ध हो गया है। छपरा, मोतिहारी और शादाबाद तथा चलिया में घाघ की भोजपुरी कविताएँ खूच प्रसिद्ध है और कोई बुढ़ा या जयान गृहस्थ बिरले ऐसा मिलेगा जिसने घाघ की एक-दो कविताएँ नहीं याद की हों। घात्र के साथ उनकी पतोहू की रचनाओं का भी उद्धरण आता है। किस्सा है कि घाघ जो कविता करते थे, उसके उल्टा उनकी पतोहू कविता करती थी। लोग इसका खूच रस लिया करते थे। पाघ ने जाँ कविता लिखी कि उसे लोगों ने उनकी पतोहू के पास पहुँचाया और उसके जबाब को घाघ तक पहुँचा कर उनको चिढ़ा कर वे आनन्द लेते थे। इससे घाघ यहाँ से चिढ़कर कनीज चले गये जहाँ उनकी ससुराल थी। कन्नौज से उनका दिल्ली जाना सिद्ध है। यह भी सिद्ध है कि उनके साथ उनके दोनों पुत्र मार्कण्डेय दूबे और धीरधर दूबे भी गये; क्योंकि दोनों के वंशज यहाँ आज भी वर्तमान हैं।
अतः बाघ का छपरा का छोडना जीविकोपार्जन के हेतु ही अधिक सम्भव है; पतोहू के कारण नहीं। कन्नौज में उनका सम्बन्ध था। वहीं से वे दिल्ली गये; क्योंकि अकबर के दरबार में मेधावी पुरुपों का सम्मान होता था और बाँ जब जागीर वगैरह मिलो तत्र वहीं अपने नाम से पुरवा बसा कर वे बस गये। घाघ और उनकी पतोहू की कविताओं की नोक-झोंक के सम्बन्ध में निम्नलिखित पद्य देखिए, जिसे पं० रामनरेश त्रिपाठी ने भी उद्त किया है। पाय ने कहा-
मुये चाम से चाम कटावे, भुई सँकरी माँ सोवेर । घाघ कहे ये तीनों भकुद्मा, उदरि जाइँया रोवे ॥ उनकी पतोडू ने इसका प्रतिवाद इस प्रकार किया-
दाम देइ के चाम कटावे, नींद लागे जब सोवे। काम के मारे उदरि जाय जो, समुक्ति परे तब रोवे ॥
घाघ ने कहा-
पौला पहिरे हर जोते औ, घाघ कहें ये तीनों भकुआ, सुथना पहिरि निरावे। बोझ लिए जो गावे ॥
पतोहू ने कहा-
अहिर होइ तो कस ना जोते, तुरफिन होइ निरावे । दैला होय तो कस ना गाये, हलुक बोझ जो पावे ॥
बाघ ने कहा-
तरुन तिया होइ अॅगने सोवे, रन में चदि के छत्री रोवे ॥ सॉके सतुवा करे बियारी, घाघ मरे उनकर महतारी ।।
पतोहू ने कहा- पतिब्रता होइ अॅगने सोवे। बिना अस्त्र के हुन्री रोवे ॥ भूख लागि जब करें बियारी। मरे बाघ ही के महतारी ॥
भाष ने कहा- बिन गवने ससुरारी जाय। बिना मात्र घिउ लिचरी खाय । बिन बरस्था के पहिने पौश्रा। धात्र कहें ये तीनों कौधा ॥
पतोहू ने कहा- कास परे ससुरारी जाय। मन चाहे घिउ खिचरी खाय ॥ करे जोग तो पहिरे पौत्रा। कहे पतोडू भाषे कौत्रा ॥
पतोहू का शरीर जरा भारी था। पर भाष के पुत्र का शरीर पतला था। एक दिन क्रोध में श्राकर घाघ ने कहा-
पातर दुलहा मोटलि जोय, घाघ कहें रस कहाँ से होय ॥ लोगों ने यह मजाक पतोहू तक पहुँचाया। पतोहू कव चूकनेवाली थी ! उसने
कुढ़कर कहा-
घाघ दहिजरा अस कस कहे, पाती ऊख बहुत रस रहे" ।।
बाघ के मरने के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे अपनी मृत्यु का कारण ज्योतिष से जान गये थे कि जल में डूच कर मरेंगे। इससे वे जल में प्रवेश नहीं करते थे। पर एक दिन मित्र-गण उन्हें यह कहकर तालाब में नहवाने बलात् ले गये कि हम सब साथ ही तो है। पर नहाते समय उनकी चुटिया जाठ से फंस गई और वे डूब कर मर गये। मरते समय उन्होंने कहा था-
हे जनि जान बाध निवुद्धी ।
आवे काल बिनासे बुद्धी ॥
घाघ की कविताएँ, उत्तरप्रदेश, बिहार, कन्नौज तथा अवध में सर्वत्र पाई जाती हैं और लोगों ने अपनी-अपनी बोली में उन्हें खूब होशियारी से उतार लिया है। बैसवाड़े बाले 'पेट' को 'प्यार,' 'सोवें' को "स्वाबें' बोलते हैं। पर भोजपुरी ठीक उसी रूप में रखते हैं। रामनरेश त्रिपाठी की 'घाष और मकरी' नामक पुस्तक में जो कविताएँ संग्रहीत हैं, उनमें भी भोजपुरी पाठ की बहुत कविताएँ हैं। भी जी० ए० मीअर्सन ने भी घाघ की कविताओं को भोजपुरी पाठ के साथ 'विजेन्ट लाइफ आफ बिहार' में उबूत किया है। घाघ ने प्रारम्भ में भोजपुरी में ही अधिकांश कविताएँ लिखी होंगी; किन्तु बाद में उनकी उपयोगिता से आकृष्ट हो अन्य भाषा-भाषियों ने भी उनको अपनी भाषा के अनुकूल तोड़-मरोड़ कर बना लिया होगा; क्योंकि उनकी मातृ-भाषा भोजपुरी थी।
पं० रामनरेश त्रिपाठी का यह अनुमान है कि भाषा के आधार पर घाव का जन्म-स्थान कहाँ
निर्धारित करना ठीक नहीं, तर्क और युक्ति-सम्पन्न नहीं प्रतीत होता है। दाँ, पाच जब
कन्नौज में चस गये तथ कन्नौज के आस-पास बोली जानेवाली भाषा में उनकी रचनाओं की प्राप्ति स्वाभाविक है। किन्तु तब भो उनकी अधिकांश रचनाएँ भोजपुरी में ही है। अकचर का समय सन् १५४२ से १६०५ तक है। यही घाघ का भी समय मानना चादिए। यदि घाय के वंशजों के कथनानुमार वे हुमायूँ के साथ भी रह चुके होंगे तो अकबर के सिहासनारूद होने के समय उनकी अवस्था पचास वर्ष से अधिक ही रही होगी। घाघ के वंशधरी के कथनानुसार उनकी मृत्यु कन्नौज में ही हुई थी।
हर छोइ गोयेंदे खेत होइ चास।
नारि होइ गिहिथिनि भैइस सम्हार ||
रहरी के दाल जब्द्दन के भाव ॥
गारल नेवुआ श्री धीव तात ॥
सारस अंड दही जब होय ।
बाँके नयन परोसय जोय ॥
कह घाघ ई साँच ना कूठ ।
उहाँ छाबि इहवें बैकुण्ठ ॥
इस उक्ति में कवि ने गृहस्थ के सुखी जीवन की तुलना वैकुण्ठ से की है। गाँव के निकट द्दी इल चलता हो अर्थात् गोयड़े में ही खेत हो। खेत चास हो उठे हों। नारी गिद्दिथिन (घर गृहस्थी सँभालने में कुशल) दो और मैंस सन्दार (यानी दूध देनेवाली) हो। अरहर की दाल हो और जदइन धान का भात हो। उसपर नीबू का रस हो और तत-तप्त वृत ऊपर से डाला गया हो। सारस के अंडे के रंग का दही हो अर्थात् खून औटे दूध का लाल रंग का दद्दी दो। साथ ही बाँकी चितनवाली जवान पत्नी परोसती हो। तब चाप कहते हैं, साक्षात् वैकुंठ यीं है, अन्यत्र कहीं नहीं ।
घाघ की कहावतें
यनिय क सखरच ठकुर क हीन। बद क पूत व्याधि नहीं चीन्ह ॥
पंडित चुपचुप बेसवा महल। करें घाघ पाँचों घर गद्दल ॥
यदि बनिये का लड़का शाइखर्च (अपव्ययी) हो, ठाकुर का लबका तेजहीन पतला- दुमला हा, वैद्य का लड़का रोग न पहचानता हो, पंडित चुप-चुप (मुँहदुबर) हो और वेश्या मैली दो तो पाघ कहते हैं कि इन पाँचों का घर नष्ट हुआ समझो ।
नसकर खटिया दुलकन घोष। कहें घाघ यह विपति क ओर ॥ छोटी खाट जिस पर लेटने से ऍबी की नस पाटी पर पड़ती हो, जिससे वहाँ की नस में पाटी गहती होतथा दुलक कर चलनेवाला घोबा, ये दोनों घाघ कहते हैं कि विपत्ति के ओर (कारण) हैं।
नसकट पनही', बतकर जोय। जो पहिलॉडी बिटिया होय ॥
पातर खेत, बौरहा भाय। घाघ कहें दुख कहाँ समाय ॥
घाघ कहते हैं कि पैर की नस काटनेवाली जूती, बात कारनेवाली स्त्री, पहली सन्तान कन्या, कमजोर खेती और चावला माई जिनको हो; उनके दुख की सीमा नहीं होती है ?
उधार कादि ब्योहार चलावे, छप्पर डारे तारो ।
सारे के संग बहिनी पठवे, तीनिउ के मुँह कारो ॥
जो उधार लेकर कर्ज देता है, जो घास-फूस के घर में ताला लगाता है और जो साले
के साथ कहीं बद्दन को भेजता है, घाघ कहते हैं, इन तोनों का मुइ काला होता है। आलस नींद किसाने नासे, चोरे नाते खाँसी।
येखिया लीबर 3 बेसवे नासे, बाषे नासे दासी ॥
आलस्य और नींद किसान का, खाँसी चोर का, लीवर (कीचन) वाली आँखें वेश्या का और दासी साधु का नाश करती है। इसलिए किसान को आलस्य और अधिक नींद से, चोर को खाँसी से, वेश्या को गंदी आँखों से और साधु को दासी से इमेशा बॅचना चाहिए।
फूटे से बदि आतु है डोल, गंधार, फूटे से बनि जातु है फूट, कपास, अँगार ।
अनार ॥ ढोल, गॅबार और अँगार, ये तीनों फूटने से नष्ट हो जाते हैं। पर फूट (ककड़ी), कपास और अनार फूटने से बन जाते हैं अर्थात् मूल्यवान् हो जाते हैं। बाध, चिया, बेकहल, यनिक, बारी, बेटा, बैल।
ब्योहर, बढ़ई, बन, यथुर, बाल, सुनो ये छैल ॥ जो बकार बारह बर्से सो पूरन गिरदस्त ।
औरन को सुख वै सदा आप रहे अलमस्त ||
बाध (जिससे खटिया बुनी जाती है), बीज, बेकहल (पटुए या सन की छाल), बनिया,
बारी (फुलवादी), बेटा, बैल, ब्योहर (सूद पर उधार देना), बढ़ई, बन या जंगल, बबूल
और बात, ये बारह बकार जिसके पास हो, वही पूरा गृहस्थ है। यह दूसरों को सदा सुख
देगा और स्वयं भी निश्चिन्त रहेगा। गइल पेड़ जब बकुला मठ्ठल । गइल गेह जब मुबिया पठ्ठल ॥
गइल राज जहँ राजा लोभी। गइल खेत जहुँ जामल गोभी ॥ बगुले के बैठने से पेड़ का नाश हो जाता है, मुबिया (संन्यासी) जिस घर में आता- जाता है-बह घर नष्ट हो जाता है, जहाँ राजा लोभी होता है, वहाँ का राज्य नष्ट हो जाता है और गोभी (एक प्रकार को जलवाली घास) नभने से खेत नष्ट हो जाता है। बगुले को बीट पेड़ के लिए हानिकारक बताई जाती है और गोभी के जमने से खेत की पैदावार बहुत कम हो जाती है।
घर घोड़ा पैदल चले, तीर चलावे बीन ।
धाती घरे दमाद घर, जग में भकुआ तीन ||
संसार में तीन मूर्ख है- एक तो वह जो घर में घोड़ा होते हुए भी पैदल चलता है, दूसरा यह जो बीन-चीनकर (चुन-चुनकर) तीर चलाता है, और तीसरा वह जो दामाद के पर यातो (धरोहर) रखता है।
खेती, पातो, यीनती और घोड़े का तंग ।
अपने हाथ सँवारिये लाख लोग हों संग ॥
खेती करमा, चिट्ठी लिखना, बिनती करना और घोड़े का तंग कसना; ये काम अग्ने ही हाथ से करना चाहिए। यदि लाख आदमी भी साथ हों तब भी स्वयं करना चाहिए।
बैल बगीधा निरधिन जोय। वा घर ओरहन काहुँ न होय ।। बगीचे के नस्लवाला बैल और पिनीनी श्री जिस घर में हो, उस घर में उलाहना कभी नहीं आता।
बैते गुब वैसासे तेल। जेठ के पंथ शसाद के बेल ॥
सावन साग न भादो दही। कुआर करेता कातिक मही ।।
अगहन जीरा पूसे धना। माषे मिसिरी फागुन चना ॥
चैत में गुड़, बैसाख में तेल, जेठ में राइ, असाढ़ में बेल, सावन में साग, भादो में
दही, फार में करेला, कातिक में महा, अगहन में जीरा, पीष में धनिया, माघ में मिश्री और फागुन में चना हानिकारक है। इसी के जोड़ का एक दूसरा छंद है, जिसमें प्रत्येक महीने में लाभ पहुंचानेवाली चीजों के नाम है।
सावन हरें भादो चीत। कुआर मास गुर लायड मीत ॥ कातिक मूली अगहन तेल। पूस में करे दूध से मेल ॥ माघ मास घिउ खिचरी खाय। फागुन उठि के प्रात नहाय ॥ बैत मास में नीम बेसहनी। बैसाले में खाय जबहनी ॥
जेड मास जो दिम में सोवे। ओकर जर असाद में रोवे ।। सावन में हरें, भादो मास में चिरायता; कार मास में गुरु, कार्तिक में मूली, अगहन में तेल, पौत्र मास में दूचे, माघ मास में घी और खिचडी, फागुन में प्रातःकाल स्नान, चैत मास में नीम, बैसाख में जहहन का (पानी बाला हुआ बासी) मात, जेठ मास के दिन में नींद का जो सेवन करता है, उसको आषाढ़ में ज्वर नहीं लगता।
बूड़ा बैल बेसाहे झीना कपड़ा लेय । अपने करे नसौनी देव न दूषन देय ।।
जो गृहस्थ उद्धा बैल खरीदता है, बारीक कपड़ा ही करता है, वह देय को व्यर्थ ही दोष लगाता है।
बैल चांकना जोत में अरु चमकीली नार । ये वैरी हवें जान के कुसल करे करतार ॥ इल में जोतते वक्त चॉकनेवाला बेल और चटक मटक से रहनेवाली स्त्री, ये दोनो ही गृहस्थ के प्रायण के शत्रु हैं। इनसे ईश्वर ही बचावें । निरपछ राजा, मन हो हाथ। साधु परोसी, नीमन साथ ॥ हुकुमीर पूत धिया सतवार। तिरिया भाई रखे विचार ।। कहे घाघ हम करत विचार। बड़े भाग से दे करतार ॥ राजा निष्पक्ष हो, मन वश में हो, पड़ोसी सज्जन हो, सच्चे और विश्वासी आदमियों का साथ हो, पुत्र आज्ञाकारी दो, कन्या सतबाली हो, स्त्रो और भाई विचारवान् हो तथा
अपना ख्याल रखते हो। पाप कहते हैं कि हम सोचते हैं कि बड़े भाग्य से भगवान् इन्हें
किसी को देते हैं।
श्रीठ पतोहू चिया गरियार। खसम बेपीर न करे विचार || घरे जलावन अन्न न होइ। घाघ कह से अभागी जोइ ॥
जिसकी पुत्रवधू ढीठ हो, कन्या आलसी हो, पति निर्दय हो और पत्नी का ख्याल न करता हो, घर में जलावन तथा अन्न न हो; घाघ कहते हैं ऐसी स्त्री महाअभागिनी है।
कोपे दई मेघ ना होइ । खेती सूत्रति नैहर जोइ५ ॥ पूत बिदेस स्वाट पर कन्त। कहे घाघ ई चिपति के अन्त ॥
दैव ने कोप किया है, वरसात नहीं हो रही है, खेती सूख रही है, स्त्री पिता के घर है, पुत्र परदेश में है, पति खाट पर बीमार पड़ा है। घाच कहते हैं, ये सब विपत्ति को सीमाएँ हैं।
पूत न माने आपन डाँट । भाई लड़े चाहे तिरिया फलही करकस होइ। नियरा बसल दुहुट नित बाँट || सब कोइ ॥
मालिक नाहिन करे बिचार। घाघ कहे ई चिपति अपार ।। पुत्र अपनी डाँट-डपट नहीं मानता, भाई नित्य झगड़ता रहता है और बँटवारा चाहता है, स्त्री झगड़ालू और कर्कशा है, पास-पड़ोस में सब दुष्ट बसे हुए हैं, मालिक न्याय- अन्याय का विचार नहीं करता, घाघ कहते हैं कि ये सब अपार विपत्तियाँ है।
बैल मरखहा चमकल जोय। वा घर ओरहन नित उडि होय । मारनेवाला बैल और चटकीली मटकीली स्त्री जिस पर में हो, उसमे सदा उल्लाइना आता रहेगा।
पररुह्य पनिज, सँदेसे खेती। बिन बर देम्बे ब्याहे बेटो ॥
द्वार पराये गाबे थाती। थे चारो मिलि पीटें छाती ॥ दूसरे के भरोसे व्यापार करनेवाला, संदेशा द्वारा खेती करनेवाला और जो बिमा वर देखे बेटी ब्याहनेवाला तथा जो दूसरे के द्वार पर धरोहर गाढ़नेवाला, ये चारों छाती पीट कर आखिर में पछताते है।
अगते' खेती, अगते मार। कहें घाघ ते कबहुँ न हार ।
पाघ कहते हैं कि जो सबसे पहले खेत बोते है और झगड़ा होने पर जो सब से पहले मारते हैं, वे कभी नहीं हारते ।
सधुवे दासी, चोरवे खाँसी, प्रेम बिनासे हाँसी।
घाघ उनकर बुद्धि बिनाले, खायें जे रोटी बासी ॥
साधु को दासी, चोर को खाँसी और प्रेम को हँसी नष्ट कर देती है। घाघ कहते हैं कि इसी प्रकार जो लोग बासो रोडी खाते है, उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है।
ओछे बैठक, ओड़े काम। ओछी बातें आटों जाम ॥
घाघ बतावे तीन निकाम । भूलि न लीहऽ इनकर नाम ।।
जो ओछे आदमियों के साथ बैठता है, जो ओछे काम करता है और जो रातदिन ओछी बातें करता रहता है। पाप कहते हैं ये तीन निकम्मे आदमी हैं। इनका नाम कभी भूल कर भी न लेना चाहिए।
आठ कठौती माड़ा पीये सोरह मकुन्नी खाय ।
ओकरे मरे न कबहुँ रोहहऽ घर के दलिद्दर जाय ॥
जो आठ कठौता (काठ की पररात) मह। पीता हो और सोलह मकुनी (एक प्रकार की सत्तू भरी रोटी) खाता हो, उसके मरने पर कभी भी रोने की जरूरत नहीं। उसके मरने से तो मानों पर की दरिद्रता निकल गई।
चोर, जुवारी, गठकटा, जार ओ नार छिनार । सौ सौगंध खायें जो घाघ न करु एतवार ॥
पाप कहते हैं कि चोर, जुवारी गठकटा, जार और छिनार स्त्री यदि सौ सौगंध भी स्वायं, तो भी इनका विश्वास न करना चाहिए।
छज्जा के बैटल बुरा परछाही के छाँह । भीरी के रसिया बुरा नित उठि पकरे बाँह ||
छज्जे की बैटक बुरी होती है, परछाई की छाया बुरी होतो है। इसी प्रकार निकट का रहनेवाला प्रेमी बुरा होता है जो नित्य उठकर बाँह पकड़ता है।
नित खेती दुसरे गाय। नाहीं देखे लेकर जाय ।। घर बैठल जो बनवे बात। देह में वस्त्र न पेट में भात ॥
जो किसान रोज खेती की और एक दिन बीच डालकर गाय की देखभाल नहीं करता, उसके ये दोनों चीजें बरबाद हो जाती हैं। जो घर में बैठे-बैठे बातें बनाया करता है, उसकी देह पर न यस्त्र होता है, न पेट में मात - श्रर्थात् वह दरिद्र हो जाता है।
विप्र टहलुआ चिक्क घन भी बेटी कर बाद।
एह से धन ना घटे तो करे बदन से रार ॥ ब्राह्मण को नौकर रखने से, कसाई की जीविका उठाने से और कन्याओं की बढ़ती से भी यदि बन घटता नहीं है, तो अरने से जवरदस्त से झगड़ा करना चादिए । जाके छाती बार ना; श्रीकर एतवार ना। जिस आदमी की छाती पर एक भी बाल न हो, उसका विश्वास नहीं । माते पूत पिता ते घोड़। ना बढ़ती त धारों धोर ॥
माँ का गुण पुत्र में आता है और पिता का गुण बाड़े में आता है। यदि बहुत न श्रामा, तो कुछ तो जरूर आता दो है। यादे पूत पिता के धर्मे । खेती उपजे अपने कर्मे ।।
पुत्र पिता के धर्म से बढ़ता है; पर खेती अपने इ। कर्म से होती है। रॉक मेदरिया अनाथ मैना। जब विचले तय होवे कैसा || राँद स्त्री श्रीर चिना नाथ का भैंसा, यदि बदक जाय तो क्या हो । अर्थात् भयंकर अनर्थ द्दो।
जेकर ऊँचा बैठना जेकर खेत निधान। ओकर बैरी का करे जेकर मीत दिवान ॥
जिस किसान का उठना-पेटना ऊंचे दरजे के आदमियों में होता है, और स्वेत श्रास-पास की जमीन से नीचा है तथा राजा का दीवान जिसका मित्र है, उसका शत्रु यमा कर सकता है।
घर के खुनुस ओ जर के भूस्त्र। छोट दमाद बराहे ऊख ।
पातर खेती भकुत्रा भाय। घाघ कहें दुख कहाँ समाय ॥
घरं में रात-दिन का चखचख, ज्वर के बाद की भूख, कन्या से छोटा दामाद, सूखती हुई
ईख, कमजोर खेती और बेवकूफ भाई- ये ऐसे दुःख है कि बाप कहते हैं कि जिनका कहीं अन्त नहीं है। ई दूनों के जेठ सहे करे पराया काम ॥
माघ मास की बादरी श्रो कुवार के धाम ।
माघ की बदली और कुवार का बाम, ये दोनों बड़े कष्टदायक होते हैं। इन्हें जो सह सके, बद्दी पराया काम कर सकता है अर्थात् नौकरी कर सकता है। खेत ना जोतीं रादी, भैंस ना पोसी पाड़ी ।
राढ़ी घासवाला खेत न जोतना चाहिए, न पादी (बच्ची मॅस) पालनी चाहिए। सावन बोड़ी, भादो गाय। माघ मास जो भैंस चियाय ।
कहे घाध यह साँचे बात। आप मरे कि मलिके खाय ।। यदि सावन में घोड़ी, भादों में गाय और माघ के महीने में भैंस न्याये, तो घःभ कहते है कि यह बात निश्चित है कि या तो वह स्वयं मर जायगी या मालिक को है। खा जायगी। इरहट नारि बास एकबाह। परुवा बरद सुहुत हरवाह ॥
रोगी होइ रहे इकन्त। कहें घाघ ई विपति के अन्त ॥ कर्कशा स्त्री, गाँव के एक किनारे बसना, इल में बैठ जानेवाला बैज्ञ, सुस्त इलवाहा, रोगी होकर अकेले रहना, घाघ कहते हैं कि इनसे बढ़कर विपत्ति और नहीं ।
क्षरिका ठाकुर खुद दिवान। ममिला बिगर साँझ बिहान ॥
यदि ठाकुर ( राजा, जमींदार) बालक हो और उसका दीवान बुट्ठा हो, तो सारा
मामला सुचइ-शाम में ही चिगढ़ जायगा।
ना अति बरखा, ना अति धूप। ना अति बकता, ना अति चूप ।।
न बहुत वर्षों ही अच्छी है, न बहुत धूप ही। इसी प्रकार न बहुत बोलना अच्छा है, न बहुत चुप रहना ही ।
ऊँच अटारी मपुर बतास। कहें घाघ घरही कैलास । ऊची अटारी हो और वहाँ मंद-मंद हवा मिलती हो, तो बाप कहते हैं कि घर में ही कैलास है।
बिन बैलन खेती करे, बिन भैयन के रार ।
बिन मेट्ररारू घर करे चौदह लाख लबार ॥
जो गृदस्य यह कहता है कि में बिना बैलों के सहायता के दूसरों से झगड़ा करता हूँ और चिना स्त्री पीढ़ियाँ झूठी है। खेती करता हूँ, बिना भाइयों की के गृहस्थी चलाता हूँ, उसकी चौदह
बिलबिल बेंट कुदारी। हँसि के बोलै नारी ।। हॅसि के माँगे दाम। तीनों काम निकाम ||
कुदाल की बॅट ढीली हो, स्त्री हँसकर जिस किसी से बात करती हो और उधार दी हुई चीज का दाम हँसकर माँगा जाय तो इन तीनों को बिल्कुल चौपट ही समझना चाहिए। उत्तम खेती मध्यम बान। निर्धिन सेवा भीख निदान ॥
खेती का पेशा सबसे अच्छा है। वाणिज्य (व्यापार ) मध्यम और नौकरी सबसे घिनौनी है। पर भीख मांगना तो सबसे गया-गुजारा अत्यन्त खराब पेशा है। सब के कर। हर के तर ॥
सारे काम-धंचे इल पर निर्भर है। कीड़ी संचे ठीतर खाय। पापी के धन पर वे जाय ।।
कोडी (चींटी) अन्न जमा करती है, किन्तु तीतर पक्षी उसे खा जाता है। इसी प्रकार पानी का धन दूसरे लोग उड़ा लेते हैं।
भईसि मुम्बी जो डबरा भरे। रॉब सुली जो सबके मरे ॥ बरसात के पानी से गट्टा भर जाय तो भैंस बढ़ो बुश होती है। इसी प्रकार राँड तब पुरा होती है, जब सभी स्त्रियाँ राँद हो जायें।
मारि के टरि रहु। खाइ के परि रहु ॥
मारकर टल जाओ और खाकर लेट जाओ। पहली बात से फिर स्वयं मार लाने की नीचत नहीं आती और दूसरी बात से स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
खाइ के मृते सूते बाँव। काहे के बैद बसावे गाँव ॥
खाकर पेशाब करे और फिर बाई करवट लेट जाय, तो वैय को गाँव में बसाने की क्या जरूरत है। यानी ऐसा करनेवाला सदा नीरोग रहता है।
सावन भैंसा, माघ सियार। अगहन दरजी चैत चमार ॥ सावन में भैंसा, माथ में सियार, अगइन में दरजी और चैत में चमार मोटे हो जाते हैं। सावन में भैंसे इसलिए, मोटे होते हैं कि उन्हें चरने को इरियरी खूच मिलती है। माघ में सियार इसलिए मोटे होते हैं कि उन दिनों में ऊख श्रादि मिश्री वस्तुएँ, मिलती है और यह मौसम उनकी जवानी का मौसम होता है। अगहन मास में किसानों के यहाँ अन्न हो जाने के कारण उनसे दरजी को खूत्र काम मिलता है और वे बदले में प्रचुर श्रन्न पाते हैं। इसी तरह चैत महीने में मवेशियों को ज्यादा बीमारी होती है और वे मरते है, जिससे चमारों को पूरा लाभ होता है।
खेती सम्बन्धी रचनाएँ
उत्तम खेती जो हर गहा। मध्यम खेती जो संग रहा ॥ जो पुद्देसि हरवाहा कहाँ। बीज बूदिगे तिनके तहाँ ॥ जो स्वयं अपने हाथ से हल चलाता है, उसकी खेती उत्तम; जो इलवाहे के साथ रहता है, उसकी मध्यम और जिसने पूछा कि इलवादा कहाँ है, उसका तो बीज लौटना भी मुश्किल है।
खेत ग्रेपनिया जोत्ते तव। ऊपर कुँआ खोदा ले जब ॥ जिस खेत में पानी न पहुँचता हो, उसे तब जोतो, जब उसके ऊपर कुँआ खुदवा लो ।
एक मास ऋतु आगे धावे। आधा जेठ असाद कद्दावे ॥ मौसम एक महीना आगे चलता है। आचे जेठ से ही आपाद समझना चाहिए और खेती की तैयारी प्रारम्भ कर देनी चाहिए।
बेला ऊपर चील जो बोले। गली गली में पानी ढोले ॥ यदि चोल ढेले पर बैठ कर बोले, तो समझना चाहिए कि इतना पानी बरसेगा कि गली-कूचे पानी से भर जायेंगे ।
अम्बाझोर चले पुरवाई। सब जानो बरखा ऋतु आई ।। यदि पुरवा हवा ऐसे जोर से बहे कि आम कढ़ पढ़ें तो समझना चाहिए कि वर्षा ऋतु भा गई ।
माघ के ऊखम जेठ के जाब। पहिले बरखा भरिगा ताल ॥
कहें घाघ हम होड्य जोगी। कुँआ स्लोदि के धोइहें धोबी ॥ यदि माघ में गरमी पड़े और जेठ में जाना हो और पहली ही वर्षों से तालाच भर जाय, तो घाघ कहते हैं कि ऐसा सूला पड़ेगा कि इमें परदेश जाना पड़ेगा और धोची लोग कुँआ खोदकर कपड़ा धोयेंगे ।
रात करे धापधुप दिन करे छाया। कहें बाघ तय वर्षा गया ।।
यदि रात साफ होने लगें और दिन में बादल की सिर्फ छाया पृथ्वी पर पढ़ने लगे, तो बाघ कहते हैं कि वर्षा का अन्त समझना चाहिए ।
खेती ऊ जे खबे रखावे। सूनी खेती हरिना खावे ।।
खेती वही है जो प्रतिदिन मेड पर खड़े होकर उसकी रखवाली करे, बगैर रखवाली के खेत को तो हिरन आदि पशु चर जाते हैं।
उलटा बादर जो चढ़े। निधवा खड़े नहाय ॥ घाघ कहें सुन भइरी ऊ बरसे ऊ जाय ॥ जब पुरवा हवा में पश्चिम से बादल चढ़े और विधवा खड़ी होकर स्नान करे, तब बाप कहते है कि हे भडुरी, सुनो, बादल बरसेंगे और विधवा किसी पुरुष के साथ चली जायगी।
पहिले पानी नदी उफनाय। तो जनिहुड कि बरखा नाय पहली हो बार की वर्षा से यदि नदी उपन कर बहे तो समझना चाहिए कि वर्षा अच्छी न होगी।
माघ के गरमी जेठ के जाब। कहें धाव हम होय उजाड़ ॥ माघ में गरमी और जेठ में सरदी पड़े तो घाघ कहते हैं कि इम उजद जायेंगे अर्थात् पानी नहीं बरसेगा ।
घोड़ा ओले बहुत हेंगावे। ऊँच न बाँधे आद ॥ ऊँचे पर खेती करे। पैदा होवे भाड़ ।।
खेती थोड़ा जोते, बहुत हेंगावे (सिरावन दे), मॅड भी ऊँचा न बाँचे और ऊंची जगह पर
करे, तो भदभदा घास पैदा होगी ।
गेहूँ बाहे धान गाई। ऊत्र गोड़े से हो आदे ॥
गेहूँ कई बाँद करने ( एक बार से अधिक छीटने) से, धान बिदाइने ( धान के पौषे उग श्रायें तब जोतने) से और देख कई बार गोड़ने से अधिक पैदा होती है।
रबहे गेहूँ कुसहे धान। गदरा के जद जहन जान ॥
फुलो घास रो देय किसान। ओह में होय आन के तान ॥ राह घास काटकर गेहूँ बोने के, कुरा काटकर धान बोने के और गहरा काटकर जदद्दन बोने के खेत बनाये जायें तो पैदावार अच्छी होती है। लेकिन जिस खेत में फुलद्दी घास होतो है, उसमें कुछ नहीं पैदा होता और किसान रो देता है।
जब सल खटाखट बाजे। तब चना खूय ही गाजे ॥
खेत में इतने देले हो कि इल चलते वक्त यदि बैलों के जुए की सैलें खट-खट बजती रहूँ तो उस खेत में चने की फसल अच्छी होगी।
जय बरसे तब बाँचे कियारी। यह किसान जे हाथ कुदारी ॥
जब बरसे, तब बयारी बाँधनी चाहिए। बदा किसान बद्द है जिसके हाथ में कुदाल रहती है।
माघ मधारे जेठ में जारे ॥ भादों सारे तेकर मेहरी बेहरी पारे ।॥
गेहूँ का खेत माब में खूब जोतना चाहिए, फिर जेठ में उसे खून तपने देना चाहिए जिससे घास और खेत की मिट्टी जल जाय। फिर मादों में जोत कर सहावे। जो किसान ऐसा करेगा, उसी की स्त्री अन्न भरने के लिए डेहरी (कोठला) बनायेगी। जोते खेत घास न टूटे। तेकर भाग साँके फूटे ॥
जोतने पर भी यदि खेत की घास न टूटे, तो उसका भाग्य उस दिन की संध्या आते ही फूटा समझना चाहिए ।
गहिर न जोते बोवे धान। सो घर कोठिला भरे किसान ॥
धान के खेत को गहरा न जोतकर धान बोना चाहिए। इतना भान पैदा हो कि किसान का घर कोठिलो से भर जायगा।
दुइ हर खेती एक इरवारी । एक बैल से भला कुदारी ॥
दो इल से खेती और एक से शाक-तरकारी की बादी होती है। और, जिस किसान
के पास एक ही बैल है, उससे तो कुदाल ही अच्छी है। तेरह फातिक तीन अपाद। जे चूकल से गइल वजार ।। तेरह चार का लिंक में और तीन बार आषाढ़ में जोतने से जो चुका, वह बाजार से
खरीद कर खायगा। अथवा काातक में तेरह दिन में श्रीर श्राषाढ़ में तोन दिन
में बो लेना चाहिए। जो नहीं चोयेगा, उसे अन्न नहीं मिलेगा।
जतना गहिरा जोते खेत । बीज परे फल अच्छा देत ॥
खेत जितना ही गहरा जोता जाता है, बीज पढ़ने पर वह उतना ही अच्छा फल देता है। जोधरी जोते तोड़ मेंड़ोर। तव वह डारे फोडिला फोर ॥
जोधरी के खेत को खूच उलट-पलट कर जोतना चाहिए। तब वह इतनी पैदा होगी कि अन्न कोठिले में न समायगा ।
तीन कियारी तेरह गोद। तब देख ऊरखी के पोर ॥ तीन बार सींचो और तेरह बार गोड़ो, तब ऊख लम्बी पोर (गाँठ की लम्बाई बाला
हिस्सा ) की अच्छी उपजेगी ।
धोर जोताई बहुत हंगाई ऊँचे बाँध किआरी । ऊपज जो उपने नहीं त घाघे दीह गारी ॥
थोड़ा जोतने से, बहुत बार सिरावन देने से और ऊंची मेढ़ आँधने से अन्न की उपज अच्छी होगी। यदि इतना करने पर भी न हो तो घाघ को गाली देना, अर्थात् ऐसा करने से अन्न अवश्य बहुत उपजेगा ।
एक हर हत्या दू हर काज। तीन हर खेती चार हरराज ॥ एक इल की खेती इत्या ही मात्र है, दो इल की खेती काम चलाऊ है, तोन इल की खेती खेती है और चार इल की खेती तो राज ही है।
गोबर मैला नीम की खली। एसे खेती दूनी फली ॥ गोबर, पाखाना और नीम की खली डालने से खेतो में दूनी पैदावार होती है।
गोबर मैला पाती सथे। तब खेती में दाना पड़े ॥ खेत में गोबर, पाखाना और पत्ती सहने से दाना अधिक होता है।
पुक्ख पुनर्वस बोबे धान। असलेस्खा जोन्ही परमान ॥
पुष्प और पुनर्वसु नक्षत्र में धान बोना चाहिए और अश्लेषा में जोन्ही बोनी चाहिए। सौवन साँवाँ अगहन जवा। जितना बोबे उतने लेवा ||
सावन में साँवाँ और अगइन में जी तौल में जितना बोया जायगा, उतना ही काटरा जायगा। अर्थात् उपज कम होगी।
अद्रा धान पुनर्वासु पैया। गया किसान जो बोवे चिरैया ।।
आर्द्रा में धान बोना चाहिए। पुनर्वसु नक्षत्र में बोने से कैथल वैया (बिना चावल का बान = संखरी ) हाय आयेगा। और उस किसान का तो सर्वनाश होगा जो चिरैया यानी पुष्य नक्षत्र में धान बोदेगा।
कातिक बोबे अगहन भरे ताके हाकिम फिर का करे ।।
जो कातिक में बोता है और अगहन में सींचता है। उसका हाकिम क्या कर सकता । अर्थात् वह लगान आसानी से दे सकता है।
पुरवा में मति रोपऽ भक्ष्या। एक धान में सोलह पढ्या ।।
हे भाई, पूर्वा नक्षत्र में धान न रोपना, नहीं तो एक धान में सोलह पय (रोग) लगेगा। अड़ा रेंड पुनस्बस पाती। लाग चिरैया दिया न बाती ||
धान आर्दा में बोया जायगा तो डंठल अच्छे होंगे, पुर्नवसु में पत्तियाँ अधिक होंगी और चिरैया (पुण्य नक्षत्र) लगने पर बोया जायगा तो घर में अंधेरा ही रहेगा - अर्थात् उस अन्न के भरोसे घर में चूल्हा नहीं जलेग। ।
बने घने जब सनई बोवे। तय सुतरी के आसा होवे ॥ सनई को पनी बोने से सुतली की आशा होगी।
कदम कदम पर बाजरा, मेढक कुदौनी ज्वार । ऐसे बोबे जो कोई, घर घर भरे कोठार ॥
एक-एक कदम पर बाजरा और मेढक की कुदान भर की दूरी पर ज्वार जो कोई बोवे, तो घर-घर का कोडिला भर जाय ।
फॉफर भला जी चना, फॉफर भला कपास ।
जिनकर फॉफर ऊखड़ी, उनकर छोड़ऽ आास || जी और चने तथा कपास के पीचे कुछ अन्तर देकर बोने पर अच्छे उपजते हैं; पर जिनकी ईख दूर-दूर पर है, उनकी आशा छोड़ो। कुदहत्व बोओ यार। तब चिउरा के होय बहार ।।
कुचद्दल (कोदी हुई) जमीन में भादों की फसल चोश्रो, तब चिउड़ा खाने को मिलेगा अभया धरती खोदकर भदई धान बोश्रो ।
यादी में बादी करे, करे ऊख में ऊख ।
ऊ घर ओइसे जइहें, सुने पराई सीख ।।
जो कपास के खेत में पुनः कपास श्रीर ईख के खेत में फिर दूसरे वर्ष भी ईख बोता है, उसका घर वैसे हैं। नष्ट हो जाता है जैसे पराई सोख सुननेवाले का घर नष्ट होता है।
बुध बढनी । सुक लडनी ||
बुध को बोना चाहिए और शुक को काटना चाहिए । दीवाली के बोये दिवालिया ॥ जो दिवाली को बोता है, वह दिवालिया हो जाता है। अर्थात् उसके खेत में कुछ नहीं पैदा होता ।
गाजर गंजी मुरी। तीनों बोबे दूरी ॥ गाजर, शकरकन्द और मूली को दूर-दूर होना चाहिए। पहिले कॉकरि पांचे धान। ओके कहिहऽ पूर किसान पूरा किसान व६ है जो पहले कफनी बोता है, उसके बाद धान । बाँधे कुदारी खुरपी हाथ। लाठी हेसुया राखे साथ काटे घास ओ खेत निराचे । सो पूरा किसान कहावे ॥
बद्दी पूरा किसान है जो कुदाल और खुरपी दाथ में, लाठी और हँसुग्रा साथ में रखता
है तथा पास कारता है और खेत निराता है।
माघ में बादर लाल रंग धरे । तय जानऽ साँचो पत्थर परे ॥
माघ में यदि लाल रंग के बादल हों, तो जानना कि सचमुच पत्थर पड़ेगा ।
जब वर्षा चित्रा में होय। सगरी खेती जावै खोय ॥
यदि चित्रा नक्षत्र में चर्षा हो, तो सारी खेती बरबाद हो जायगी।
चदत जो बरसे आदरा, उतरत बरसे हस्त । कितनो राजा हुँद ले, हारे नाहि गृहस्त ॥ यदि आद्रा नक्षत्र चढ़ते समय बरसे और इस्त उत्तरते समय, तो इतनी अच्छी पैदावार होगी कि राजा कितना ही दंड ले, पर गृहस्य नहीं हारेगा।
पुरष धनुही पच्छिम भान। घाघ कहें बरखा नियरान ॥ सन्ध्या समय यांद पूर्व में इन्द्रधनुष निकले, तो घाघ कहते हैं कि वर्षा निकट है।
चायू में जब वायु समाय। कहें घाघ जल कहाँ समाय ।। यदि एक ही समय श्रामने-सामने की दो इवा चले, तो बाघ कहते हैं कि पानी कहाँ समायगा ! अर्थात् बढ़ी दृष्टि होगी।
सावन मास बहे पुरवेया। बरधा बेंचि लिहऽ घेनुगैया ॥ सावन में यदि पुर्वा दवा बहे, तो वैल बेंचकर दूध देनेवाली गाय ले लेना; क्योंकि वर्षा नहीं होगी, अकाल पड़ेगा और बैल खरीदने में लगाये गये रुपये बेकार जायेंगे। जेठ में जरे माघ में ठरे। तब जीभी पर रोड़ा परे ।।
जेठ की धूप में जलने से और माघ की सरदी में ठिठुरने से ईख की खेती होती है और तब किसान को जोम पर गुद का रोड़ा पड़ता है।
धान गिरे सुभागे का गेहूँ गिरे अभागे का ।। खेत में भान का पौधा भाग्यवान का गिरता है और गेहूँ का पौधा अभागे का गिरता है। मंगलवारी होय दिवारी। हँसे किसान रोवे बेपारी ॥
यदि दिवाली मंगल को पड़े तो किसान हँसेगा और व्यापारी रोयेगा।
बैल सुसरहा जो कोई खे। राजभंग पाल में कर दे। प्रिया बात सब कुछ छुट जाय। भीख माँगि के घर-घर लाय ।।
जो किसान मुसरहा बैल (जिसको पूछ के बीच में दूसरे रंग के बालों का गुच्छा दो, जैसे काले में सफेद, सफेद में काला अथवा डील लटका हुआ) खरीदता है, उसका जल्द ही सच ठाट-बाट नष्ट हो जाता है-स्त्री, पुत्र सब छूट जाते हैं और वह घर-घर भीख माँग कर खाता है।
बबसिंगा जनि जीहऽ मोल। कुँए में डरब रुपिया खोल ।। चाहे रुपया खोलकर कुए में बात देना; पर बड़े लम्बे सींग बाला चैल न खरीदना ।
करिया काली घौरा बान, इन्हें छॉबि जनि बेसहिह आान ।।
काली कच्छ (पूँछ की जड़ के नीचे का भाग) और सफेद रंगवाले बैल को छोबकर दूसरा मत खरीदना।
कार कछौटा सुनरे बान, इन्हें छाँदि न बेसहिह आन ।।
काली कच्छ और सुन्दर रूप-रंगवाले बैल को छोदकर दूसरा न खरीदना । जोते क पुरबी लादै क दमोय। हेंगा क काम दे जे देवहा होय ।।
पूर्वी नस्ल का पैल जुताई के लिए, दमोय नस्ल का बैल लादने के लिए और देवदा नस्ल का बैल हैगा के लिए अच्छा होता है।
सींग मुद्दे माथा उठा, मुँह का होवे गोल ।
रोम नरम चंचल करन, तेज बैल अनमोल ।।
जिस वैल के सींग मुझे (छोटे और एक दूसरे की ओर) दो, माया उठा हुआ हो, मुह गोल हो, रोऔं मुलायम हो और कान चंचल हों, वह बेल चलने में तेज और अनमोल होगा ।
मुँह के मोट माथ के महुअर। इन्हें देखि अनि भूलि के रहिह ।।
धरती नहीं हराई जोते। बैठ मेंद पर पागुर करे ।। जो बैल मुंह का मोटा होता है, और माथा जिसका पीलां होता है, उसे देखकर सावधान हो जाना। वह एक हराई भी खेत नहीं जोतता है, मेंद पर बैठा हुआ पागुर करता रहता है।
अमहा जबड़ा जोवडु जाय। भीस्त्र माँगि के जादु बिलाय ।। अमदा और जबद्दा नस्लवाले बेलों को जोतोगे, तो भीख माँगनी पड़ेगी और अन्त में तनाद हो जाओगे ।
हिरन सुतान श्री पतली पूँछ। बैल बेसाहो कंठ बेपूछ ।। जो हिरन की तरह मूनता दो ओर जिसकी पूछ पतली हो, वैसे बैल को बिना पूछे ले लेना ।
उपयुक रचनाओं के अधिकांश पद्म 'धार और मकरी' नामक पुस्तक में भिन्न पाठों के साथ उद्धृत है। मेरे संग्रह में शाहाबाद, छपरा तथा मोतिहारी के जिलों से जिस पाठ के छन्द मिले थे, कुछ संशोधन के साथ, उन्हीं पाठों के साथ वे ऊपर दिये गये हैं। भी मिश्रर्सन साइन ने अपनी पीजेन्ट लाइफ आफ बिहार' नामक पुस्तक में भी चाप, भङ्करी और डाफ की अनेक कहावतों और रचनाओं को उद्धृत किया है। निम्नलिखित छन्द बढ़ा से यहाँ उद्धृत किये गये हैं। जिन छन्दों में नाम नहीं है, उनकी भी मैंने धाप के साथ इसलिए रखा है कि मुझे उनकी शैली और भाषा में घाघ की रचना से साम्यता मालूम हुई । सम्भव है, वे डाक या किसी दूसरे की दो रचना हों।
बैल बेसाहे चलतद् अन्त, बैल बेसहिहऽ दू दू दन्त । देखिहड रूवा श्री धीर,
चार दोहऽ उपरीर ।।
जय देखिहड तू बैना, यही पार से करिहऽ बैना ॥
जब बैरिया गोल, करीहऽ मोल ।। करिश्रवा कन्त, देखिह कन्त ।। बैठ के देखिह जब फैला गोला
स्त्री अपने स्वामी से कहती है। है कन्त ! तुम पेल खरीदने तो चते; पर बेल दो दौत का द्दी खरीदना। जब रुभा-धौर यानी चांदी की तरह सफेद रंग का बेल देखना तो चार रुपया अधिक भी देकर खरीद लेना। जच तुम मना बैल देखना यानी जिसके दोनों सींग दिलते हो तब तुम विना पूछ-ताछ किये दो नदी के इसी पार से बेआना दे देना। जय तुम्हें बेरिया गोल यानी देर के रंग का लाल दल मिले, तब उसका मोल उठ- बैठ कर करना अधांत् किसी तरह उसे खरीदना। हे कन्त, जब तुम काले रंग का चल देव्जना, तब उसकी तुलना में कइल रंग का श्रीर साधारण लाल रंग का वल मत देखना। कइल और साधारण लाल रंग का बैल अच्छा नहीं होता। भोजपुरी की एक कदावत में कहा भी है- 'कइल के दाम गइल।' अर्थात् कइल वेल का दाम गया ही होता है।
सरग पताली भोया टेर ।
आपन खाय परोसिया हेर ।।
जिस बैल का डींग खरग-पताली हो, यानी एक ऊपर की ओर गया हो और एक नीचे की ओर हो और भीह उसकी टेढ़ी हो तो वह बैल अपने स्वामो को तो खादी जाता है, पड़ोसी के लिए भी घातक सिद्ध होता है।
वर्षा-सम्बन्धी उक्तियाँ 'पीजेन्ट लाइफ आफ बिहार से'-
मध्धा लगावे घग्घा, सिवाती लावस टाटी । कह ताड़ी हाथी रानी, हमहूँ आवत बाटीं ||
जब मघा नक्षत्र में मेद बहरे और स्वाती में बरसे, तब हस्त नक्षत्र में भी पानी बरसेगा ।
सावन सुकता सत्तमी, छिपके ऊगहिं भान । ती लगि मेघा बरसिहें जो लगि देव उठान ।॥
भायण शुक्ल सप्तमी को यदि सूर्योदय बादल से छिप कर हो, तो वर्षा तबतक होगी जचतक कातिकका देवठन (देवोत्थान) मत, नदीं हो जाता-पानी कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक वर्षा होती रहेगी।
सावन सुक्ला सत्तमी उगि के लुकहिं सूर। हाँकऽ पियवा हर-बरद, बरखा गैल बर्वाद दूर ॥
श्रावण शुक्ला सप्तमी को यदि सूर्य उदय होकर फिर बादलों में छिप जाय तो पानी बहुत दूर हो जाता है। किसान की पनी कहती है कि हे प्रीतम, इर-पैल अब हाँक कर घर ले चलो, वर्षा इस साल नहीं बरसेगी ।
सावन सुकला सत्तमी उदय जो देखे भान । तुम जाओ पिया मालवा हम जैवों मुलतान ॥
आवण शुक्ला सममी को यदि सूर्य का उदय साफ हो तो पानी की आशा नहीं है। तुम मालवा नौकरी करने जाओ और में मुलतान जाऊँगी।
हे प्रिय,
सावन सुकला सत्तमी जो गरजे अधिरात । तू जाओ पिया मालवा हम जैयों गुजरात ॥
श्रावण शुक्ला सप्तमी को यदि आधी रात को गरजे तो पानी की आशा नहीं। हे पिया, तुम मालवा जाना और में गुजरात जाऊगी। अर्थात् अकाल पड़ेगा। किन्तु भइडरी की भी एक उक्ति इसके कुछ विपरीत-सी जान पड़ती है, यद्यपि थोड़ा फरक अवश्य है। बद्द यां है
श्रावण सुकला सत्तमी हैन होइ मसियार । कह भड्डर सुनु भडरी परवत उपजे सार ।।
भिन्नता इसमें यह है कि रेन में इल्का बादल हो तो खूत्र वरसा होगी; पर घाघ कहते हैं कि श्राधी रात को गरजे तब पानी नहीं पड़ेगा। न मालूम क्यों, इस तिथि पर इतने सूक्ष्म भेद के साथ इतने शुभ-अशुभ फल निकाले गये हैं ।
सावन क पंछिया दिन दुइ चार, चुल्हि क आगे उपजे सार । भावण में दो-चार दिन जो पछेया बहे तो अच्छा पानी हो और चूल्हे के सामने की धरती भी अन्न उपज । वे ।
सावन क पड़ेचा भादो भरे, भादो पुरबा पत्थल परे ।
जो सावन में तो पत्थर पड़ेगा । पटुआ बहे तो भादो में जल पूरा होगा और भादो में जो पुत्वा बहे
जौ पुरवा पुरवैया पावे, सुरले नदिया नात्र चलावे । जो पुर्या नक्षत्र में पुरवैया यायु बहे तो सूखी नदी में भी नाव चलने लगे अर्थात् पानी बरसेगा ।
बाघ की तरह 'डाक' भी खेती सम्बन्धी कविता लिखने में बड़े जनप्रिय कवि थे। इनकी कविताएँ जनकण्ठ में आज भी प्रास होती है। गृहस्थ उनको खेती के लिए आ। दर्श वाणी मानते हैं। डाक की कविताएँ मुझे जच सर जार्ज ग्रिअर्सन द्वारा लिखित 'बिहार पिजेण्ट लाइफ' नामक पुस्तक में मिलीं, तब मैंने इनके सम्बन्ध में छान-बीन करना शुरू किया। मुंगेर जिले के निवासी बाबू सुखदेव सिंह (सदापक प्रचार अफसर, बाँका, भागलपुर ) ने बताया कि उनके जिले में डाक की कविताएँ, बहुत प्रचलि३ है और दो भागों में 'डाक-वचनावली' नामक पुस्तक छप भी चुकी है। उन्होंने ही डाक के जन्म के सम्वन्ध में यह लोक-प्रचलित कथा चताई-
'डाक के पिता ब्राह्मण और माता अद्दीरिन थी। एक दिन ब्राह्मण घर से दूर जा रहा था तो उसे विचार हुआ कि इस शुभ मुहूर्त में यदि गर्भाधान हो तो मद्दा प्रतिभावान पुत्र उत्पन्न होगा। उसे एक श्रद्दीरिन मिली। उसने अद्दीरिन से यह मेद सुनाकर रतिदान माँगा। श्रद्दीरिन ने स्वीकृति दी; पर बाताया ने इस शर्त पर भोग किया कि सन्तान ब्राह्मण की होगी। फलस्वरूप डाक का जन्म हुआा। जय डाक पाँच वर्ष का हुआ, तब ब्राह्मण-देव आये और अद्दीरिन से पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार ढाक को लेकर अपने घर चले। रास्ते में गेहूँ और जी के खेत मिले। गेहूँ के कुछ बीज जौ के खेत में पढ़ गये थे और जो के कुछ बीज गेहूँ के खेत में। बाक ने ब्राह्मण से पूछा- "पिताजी, इस खेत के गेहूँ का बीज उस खेत के जौ में मिल गया है। बताइये तो, यह गेहूँ किसका होगा। गेहूँ के खेतवाले का कि जौ के खेतवाले का ?"
ब्राह्मण ने कहा- 'जी के खेत में यह जन्मा है तो जी के खेतवाले का ही होगा।' डाक ने कहा- 'तब पिताजी, अपनी माता से छुड़ाकर मुझे क्यों ले जा रहे है ? यदि बीजवाला फसल का अधिकारी नहीं है, तो आपका अधिकार मेरे ऊपर माता से अधिक कैसे माना जायगा ?? ब्राढाणदेव चालक की इस युक्ति से निरुत्तर हो गये और उन्होंने बालक से कहा कि 'तुम अपनी माता के पास ही रहो। तुम मुझसे चतुर दो। 'मैं तुमको पढ़ा नहीं सकता ।' ठीक यही कहानी, थोड़े परिवर्तन के साथ, भङ्करी के जन्म के सम्बन्ध में भी, पं० राम-
नरेश त्रिपाठी ने अपनी 'घाघ और भङ्कुरो' नामक पुस्तक में, श्री वी० एन० मेहता, आइ सी० एस० तथा पं० कपिलदेव शर्मा के 'विशाल भारत' में छपे लेख से उद्घत की है। इन बातों से मालूम होता है कि ढाक की जन्म-कहानी भदुरी की जन्म-कहानी से मिल गई हो और उसमें कोई बास्तविक तथ्य नहीं हो। डाक के न तो जन्म-स्थान का पता है और न पिता तथा समय का। 'ढाक-वचनावली २० नामक पुस्तक के दोनों भागों में ज्योतिय सम्बन्धी विचार अधिक है। डाक का फलित ज्योतिष का ज्ञान अच्छा मालूम पड़ता है। उनकी वचनावली में, दरभंगा जिले से द्दी संगृहीत और प्रकाशित होने के कारण, अधिकांश रचनाएँ मैथिली की ही हैं। परन्तु 'बिहार पिजेण्ट लाइफ' में डाक की जो उक्तियाँ मुझे मिलों, वे प्रायः सभी भोजपुरी तथा हिन्दी की थीं। उक्त 'ढाक- बचनावली' में भी भोजपुरी और हिन्दी की काकी उक्तियाँ है।
डाक ने अपनी उक्तियों में भल्लरी नाम का सम्बोधन में प्रयोग किया है। इससे ज्ञात होता है कि 'भल्लरी' या 'भङ्कुरी' उनकी स्त्री का नाम था।
परन्तु 'डाक-वचनावली' में भल्लरी के स्थान पर भदुरी पाठ है। यह भी सम्भव हो सकता है कि डाक ने मशहूर कवि को सम्बोधन करके अपनी उक्तियों में अपना अनुभव कद्दा दो।
तीतिर पंख मेघा उद्दे श्रो बिधवा मुसकाय । कहे डाक सुनु डाकिनी बरसे इं जाय ॥ क
आकाश में यहि नीतर के पंख के समान ( चिठकनरा) मेघ दिखाई पड़े और विधवा त्रां मुस्कान बिखेरती दिखाई पड़े तो ढाक कहते हैं कि है ढाकिनी, वैसा मेघ अवश्य बरसेगा और बैसो विधवा अवश्य पर-पुरुष के साथ चली जायगी।
सावन सुक्ला सन्तमी, बादर बिजुरी होय । करि खेती पिया भवन में, हो निचिन्त रह सोय ॥
अर्थात् - सावन मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को यदि बादल और बिजली श्राकाश में दिखाई पड़ें तो दे प्रियतम! गृहस्थी करके, निश्विन्त होकर सो जाओ। फसल तो दोगी दी।
बाबा बुलाकी दास अथवा बुल्ला साइब
बुल्ला सादर का हो नाम बुलाकी दास था। बुला साहब का जन्म स्थान या समय ठीक-टोक अच तक शात नहीं था। श्री मुबनेश्वरनाथ मिश्र 'माधव' ने अपनी 'संत साहित्य'- नामक पुस्तक में उनका समय अनुमानतः विक्रम संवत् अठारह सौ का अन्त माना है। 'माधव'जी ने लिखा है कि उनका नाम बुलाकी राम था और जाति के वे कुनबी थे तथा भुरकुण्टा (गाँजीपुर) गाँव में रहा करते थे। परन्तु 'माघवजों' के इस अनुमान के पूर्व दी 'बलिया के कवि और लेखक" नामक पुस्तक में, उनका पूरा परिचम, उक्त पुस्तक के लेखक ठाकुर प्रसिद्धनारायण सिंह ने दिया है, जो नीचे उद्धत किया जाता है-
"आपका जन्म संवत् १७८० के लगभग मुल्तानपुर-नामक-ग्राम में हुआ था। आपके पिता बाबू जोच राय एक गरीब सेंगरवंशी राजपूत थे। आपकी स्त्री का नाम कुन्द- कुंवरि था। वे एक पढ़ी-लिखी महिला थीं और कविता भी करती थीं। कुन्दकु वरि का नाम आपके भजनों में प्रायः श्राया है। आप सिद्ध महात्मा थे। भोला साह्न के आप समकालीन थे। आपके विषय में बहुत सी आश्चर्यजनक किवदन्तियाँ प्रसिद्ध है। मृदंग बजाने के आप बड़े शौकीन थे।
"टेकारी (गया) के राजा के यहाँ आपका बढ़ा मान था। उन्होने तथा अन्य कई प्रतिष्ठित पुरुषों ने आपको कई सौ बीचे माफी जमीन दो थी, किन्तु श्राप ऐसे निर्लोभ ये कि कुल जमीन साधु-सन्तों को भेंट कर दी।
"आपका विवाद लगभग ३०-४० वर्ष की अवस्था में, आपके गुरु जुदावन पर्वत ने, रतनपुरा के निकट, मुस्तफाबाद में एक चौहान राजपूत के घर कराया। आप अपने गुरु की बात कभी नहीं टालने थे। यही कारण है कि इच्छा न रहते हुर भी आपको विवाद- बन्धन में बंधना पड़ा। विवाह के पश्चात् आप अपने जन्मत्थान से कुछ दूर उत्चर, अमनपुर मौजे में, कुटी बनाकर रहने लगे। यहीं आपके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
अब आपकी कुटिया एक छोटे ग्राम के रूप में परिवर्तित हो गई है और 'बुलाको दास को मठिया' के नाम से पुकारी जाती है।
आपने भोजपुरी भाषा में बहुत सुन्दर कविता को है। आपने कोई पुस्तक नहीं लिखी है। यदि आपकी रचनाओं का संग्रह प्रकाशित हो जाय तो वह भोजपुरी साहित्य में एक अनुपम पुस्तक होगा ।
अनुमान से कहना पड़ता है कि आप गाजीपुर जिले के ही थे। आपकी भोजपुरी कविताएँ नीचे दी जाती हैं।
पाँटो (चैत का गीत)
छोटोसुटि ग्वालिनि सिर ले मटुकिया हो रामा, चलि भइली । गोकुला सहर दहिया बेचन हो रामा, चलि भइली ॥ एक बन गहली, दूसर बनें गइली, रामा तीसर बनें, कान्हा मोर धरेला अॅचरवा हो रामा, तीसर बनें ।। छोबु छोबु कान्हा रे हमरो अॅचरवा हो रामा, पदि जइहें, दही के विटिकवा हो रामा, पनि जइहें ॥ तोरा लेखे ग्वालिनि दही के छिटिकवा हो रामा, मोरा लेखे । अगर चनन देव बरिसे हो रामा, मोरा लेखे ॥ दास हो बुलाकी चइत घोंटो गावे हो रामा, गाइ गाई, बिरहिन सखि स्मुकावे हो रामा, गाइ गाई ॥१॥
मैं छोटी-सी ग्वालिन सिर पर सटुकी लेकर गोकुल ग्राम में दही बेचने के लिए गई। एक वन से दूसरे वन में गई और तब तीसरे बन में कृष्ण ने मेरा आँचल पकड़ लिया। ग्वालिन ने कहा- अरे कान्छ, मेरा श्राँचल छोड़ दे, नहीं तो दही के छींटे पढ़ जायेंगे। इसपर कृष्ण ने जवाब दिया- "हे ग्वालिन, तुम्हारे लिए ये दही के छींटे हैं, पर मेरे लिए तो मानो देवता अगर-चन्दन की वर्षा कर रहे हैं।" इस तरह बुलाकीदासजी चैत मास में बाँटो गा-गाकर विरहिणी स्त्रियों का मन बहलाते है।
ननदी का अंगना चननवा हो रामा, ताही चदि, कगवा बोलेला सुलच्छन हो रामा, ताही चदि ॥ तोहे देवों कगवा हो दूध भात स्रोरवा हो रामा, तनीएक, साँ कुसल बतलइते हो रामा, तनीएक ॥ पिया पिया मति करड पिया के सोहागिनि हो रामा, तोर पिया, लोभले बारी तमोलिनि हो रामा, तोर पिया ॥ कड़ितों में अपन कटरिया से मरितों जियरवा हो रामा, मोरा आगे, उदरी के कइल बखनवाँ हो रामा, मोरा आगे ॥ दास कुन्द बुलाकी चइत घोंटो गावे हो रामा, गाइ गाई, ॐ वरि समुझावे हो रामा, गाइ गाई ॥
ननद के श्राँगन में चन्दन का पेड़ है। उसपर सुलक्षण (शुभ संवाद सुनानेवाला) कौश्रा बोल रहा है। स्त्री कहती है कि अरे काग, तुझको कटोरे में दूध-भात दूगी, जरा मेरे स्वामी का कुशल-सन्देश बतला दे। इसपर कौए ने कहा- सोहागिन नारि, तू पिया- पिया की रट अब न लगा। तेरे पिया अल्प-बयस्का तमोलिन पर लुभा गये हैं। इसपर नायिका कहती है-काश, आज में अपनी कटारी अपने हृदय में भोंक लेती। उस उढ़री (रखेलो) का बखान इस काग ने मेरे सामने किया। बुलाकी दास चैत मास में घाँटो गा-गाकर, कुन्द कुंवरि (अपनी पत्नी) को समझाते हैं।
महाकवि दरिया दास
महात्मा दरिया दास २ का जन्म शाहाबाद जिलान्तर्गत ससराम सत्रडिवीजन के दीनार थाने के घरकंधा ग्राम में हुआ था। आपका जन्म संवत् १६६१ में और निधन संवत् १८३७ में हुआ। फलतः आपका जीवनकाल १४६ वर्ष का था। बेलवेडिअर प्रेस, इलादाबाद से मुद्रित "दरिया सागर" में आपका जन्म-संवत् १७३१ लिखा है। किवदन्ती है कि आप उज्जैन (पम्मार) जाति के क्षत्रिय थे। कहते हैं कि आपके पिता मुसलमान हो गये थे। आपने बरियादासी सम्प्रदाय चलाया। आप एक सन्त-महात्मा कवि थे। आपने अग्रज्ञान, अमरसार, काल चरिन, गणेशगोष्ठी, दरिया, सागर, निर्मल शान, प्रेममूल नडा-बटान्त, बक्ष-विवेक, भक्तिरेतु, मूत्तिंउखाद, यज्ञसमाधि, विवेक-सागर, शब्द (बीजक) और सदखीनाम्नी-नामक २० कविताबद्ध धर्म ग्रन्थ लिखे। आपके बहुत-से छन्द विशुद्ध भोजपुरी में हैं। ऐसी रचनाओं में भी पूर्ण दार्शनिक तत्व मिलते हैं। आपकी कुछ भोजपुरी रचनाएँ यहाँ दी जाती है
मोहिन भावै नैहरवा, ससुरवा जइबों हो । नैहर के लोगवा पिया के बचन सुनि बागेला पिया एक बोलिया दिहल पाँच पचीस तेहि लागेला नैहरा में सुख-दुख सासुर में सुनलों सहलों अरिआर । बिकार ॥ भेजाय । कहाँर ॥ बहुत । खसम मजगूत ॥ नेहरा में बारी भोली ससुरा सत के सेनुरा अमर कडे दरिया धन भाग दुलार । भतार ॥ सोहाग । पिया केरि सेजिया मिलल बद भाग ॥
मुझे नैहर (इहलोक) भाता नहीं है। मैं ससुराल (ईश्वर के लोक) जाऊँगी। इस नैहर के लोग बड़े अरिआर (इठो, अड़ियल) है। इनको प्रियतम (ईश्वर) का वचन नहीं सुहाता । पिया ने मेरे लिए एक ढोली (देह) मेज दी है, जिसमें पाँच और पचीस कहार लगे है। मैंने नैहर में बहुत सुख-दुःख सहन किया। सुना है कि ससुराल में मेरे खसम (स्वामी) बड़े मजबूत है। नैहर में तो मैं अल्प-वयस्का और भोली कही जाती हूँ; परन्तु ससुराल में ही मेरा दुलार होता है। वीं सत्य का सिन्दूर मिलता है और अमर भर्ता से भेंट होती है। दरिया कहते हैं कि ऐसे सोहाग का भाग्य धन्य है। पिया की शम्बा का मिलना (ईश्वर का सानिध्य) बड़े भाग्य की बात है।
घाँटो
कुबुधि कलवारिनि ३ बसेले नगरिया हो रे ।
उन्हक मोरे मनुओं मतावल हो रे ॥
भूति मैले पिया पंथवा द्रस्टिया हो रे। अवघट परली भुलाए, हो रे॥
भवजल नदिया भेआवन हो रे।
कवने के विधि उतस्य पार हो रे ॥ दहिया साहब गुन गावल हो रे।
सतगुर सब्द सजीवन पावल हो रे ||
इस शरीररूपी नगर में दुष्ठबुद्धि माया बसो हुई है। उसने बासनाओं की शराब पिलाकर मेरे मन को मतवाला बना दिया है। इस कारण वह पिया (परमात्मा) के पाने का रास्ता भूल गया और दृष्टि भी मदमूच्छित हो गई। विषयों के बीहड रास्ते में उलझ गया। संसार-रूपी भयावनी नदी को यह जीवात्म। कैसे पार करेगी। दरिया साइब गुरु का गुणगान करते हैं कि जिससे उपदेश-रूपी संजीवनी प्राप्त हो गई है।
घरनी दास
सारन जिले में सरयू तट पर माँझी नाम का एक प्राचीन ग्राम है। यहाँ कभी क्षत्रिय
राजाओं की राजधानी थी। पुराने किले का टीला अबतक वर्तमान है। उक्त राज्य के
दीपान-घराने में, शाहजहाँ के निधन के समय में, घरनी दास नाम के एक महान सन्त कवि
हो गये हैं। ये अपने पिता की मृत्यु के बाद उक्त राजवंश के दीवान हुए। पर,
इन्होंने दिल्ली के तख्त पर बादशाह औरंगजेब के आसीन होते ही फकीरी ले ली।
फकीरी लेते समय इन्होंने यह दोहा कहा था-
"साहजहाँ छोबी दुनिआई, पसरी औरंगजेब दुहाई । सोच-विचार आतमा जागी, धरनी घरेउ भेष बैरागी ॥"
इनके पिता का नाम 'परसुराम' तथा माता का नाम 'विरमा' था। इनका बचपन का नाम 'गैत्री' था। इनके गुरु का नाम विनोदानन्दजी था। इनका देहावसान विक्रम- संवत् १७३१ में, श्रावण-कृष्ण-नवमो को हुआ था। बरनीदासजी ने भोजपुरी और हिन्दी-दोनों भाषाओं में 'प्रेम-प्रकाश' और 'शब्द-
प्रकाश' नामक दो काव्य-ग्रंथ लिखे थे, जो आज भी प्राप्य है। 'शब्द-प्रकाश' तो सन् १८८७ ई० में बाबू रामदेवनारायण सिंह, चैनपुर, (सारन) द्वारा नासिक प्रेस (छपरा) से प्रकाशित हो चुका है; पर 'प्रेम-प्रकाश' अभी तक अप्रकाशित है जो माँझी के धरनीदासजी के मठ में प्राप्य है। 'राब्द-प्रकाश' की छपी कापी के अलावा एक और पाण्डु-लिषि माँझी-निवासी बाबू राजवल्लम सहाय द्वारा डॉक्टर उदयनारायण- तिवारी को मिली थी, जिसकी प्रतिलिपि उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक को दी। उसे देखने से पता चला कि जिस पाण्डुलिपि से भी रामदेवनारायण सिद्द ने 'शब्द-प्रकाश' छपवाया था, वह चुन्नीदास द्वारा लिखी गई थी। उन्होंने माँकी के महंथ रामदासजी के लिए लिखी थी। यह संवत् १६२६ में वैशाली पूर्णिमा (सोमवार) को समाप्त हुई थी। उक्त छभी प्रति में अन्त के कुछ छन्द नहीं है। परन्तु जिस पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि मुझे डा० उदयनारायण तिवारी ने दी थी, वह संवत् १८६६ में फाल्गुन- बदो-पंचमी (सनीचर) को तैयार हुई थी। इससे यह सिद्ध है कि यह पाण्डु-लिपि दूसरो है जो छुपी पुस्तक की पाण्डुलिपि के लिखे जाने की तिथि के २७ वर्ष पहले की है।
'शब्द-प्रकाश' की प्रधान भाषा हिन्दी है। उसके बाद प्रधानता भोजपुर को मिली है। किन्तु 'शब्द-प्रकाश' में बंगला, पंजाबी, मैथिली, मगद्दी, मोरंगी, उर्दू आदि भाषाओं का भी प्रयोग किया गया है। छन्दों का नामकरण भी इन्होंने उन्हीं भाषाओं के नाम यर किया है, जैसे राग मैथिली, राग बंगला, राग पंजाबी इत्यादि ।
इमने भोजपुरी के गीत या छन्द 'शब्द-प्रकाश' की पाण्डुलिपि और छपी प्रति, -
दोनों से यदाँ उद्धृत किये है। दाँ, कहीं-कहीं अशुद्ध पाठ को शुद्ध कर दिया गया है। अतः पाठकों को ३०० वर्ष पूर्व की भोजपुरी का भो नमूना इनमें देखने को मिलेगा। घरनी दास की भोजपुरी कविता में छन्दों की प्रौढ़ता, सरसता और स्वाभाविकता देखते ही बनतो है। उसमें भोजपुरी भाषा की व्यापकता ओर शब्द-सम्पत्ति का दर्शनीय उदाद्दरण मिलता है।
सुमटा
सुभ दीना आजु सनि सुभ दीना ॥
बहुत दीनन्ह पीअ बसल बिदेस । आजु सुनत निजु आवन संदेस ।
चितः चितसरिभ में जीहल लेखाइ । हिरद५ कँवल धइति दोधरा ले जाइ । प्रेम पर्नेग तहाँ धइलों बिदाइ।
नस्त्र - सिख सहज सिंगार बनाइ ।
मन सेवक हि दी हुँ आगु चलाइ ।
नैन भइल दुइ दुअरा बैसाई ।
धरनी सो धनि पलु पलु अकुलाइ । बिनु पिक्षा जीवन अकारथ जाइ ।।
हे सखि । आज मेरा शुभ दिन है। बहुत दिनों से प्रियतम विदेश में बस रहे है। आज मैंने उनके आगमन का सन्देश सुना है। अपनी चित्तरूपी चित्रशाला में मैंने उनकी छत्रि अंकित की और अपने हृदय-कमलरूपी दीपक को जलाकर उस चित्रशाला में प्रियतम की छत्रि के सामने रखा। फिर वहाँ प्र मरूपी पलंग बिछा लिया और नख-शिख सहज सिगार करके मनरूपो सेवक को मैंने प्रियतम की अगवानी (स्वागत) में आगे मेज दिया। और, अपने दोनों नेत्रों को उनकी प्रतीक्षा में, उनके आगमन को देखने के लिए, द्वार पर बैठा दिया अर्थात् दरवाजे को निहारने लगी। घरनी दास कहते हैं कि इन तैयारियों को करके प्रिय-मिलन की आशा में बैठी विरहिणी प्रियतम की प्रतीचा में पल-पल अकुला रही है और सोच रही है कि उनके बिना यह जीवन अकारथ (बेकार) बीता चला जा रहा है।
विश्वराम
ताहि पर ठाढ़ देखल एक महरा अवरनि बरनि न जाय । मन अनुमान कहत जन धरनी धन जे सुनि पतिभाय ॥
मैंने उसी चक पर खबर एक महरा (ईश्वर) को देखा जो अवर्णनीय है। मन में अनुमान करके जनसेवक घरनी दास कहते हैं कि वे घन्य है, जो सुनकर ही इसपर प्रतीति करते हैं।
महाई
आराव दुबी पडता परम झलकार। दुरहर स्याम तन लाम लहकार || जैमहरि केसिथा पतरि करिहाँव। पीअरि पिछोरी कटि करतेन आय ॥ चंदन खोरिया भरेला सब अंग। धारा अनगनित बहेला जनु गंग ॥ माये मनि मुकुट लकुट सुठि लाल। झीनवा तीलक सोभे तुलसी के माल ॥ नीक नाक पतरी ललौहि यदि ऑखि। मुकुट मझोर एक मोरवा के पॉखि ॥ कान दुनौ कुंडल लटक लट फूल। दारही मोछ नूतन जैसन मखतूल ॥ परफुलित बदन मधुर मुसुकाहिं । ताहि छवि उपर 'धरनी' बलि जाहि ॥ मन कैला दंडवत भुइयाँ धरि सीस। माथे हाथे धरि प्रभु देलन्हि असीस ॥ उन आराध्य देवता के दोनों चरण सुन्दर 'पावे' की तरह अत्यन्त चमकीले दीख रहे है। दृश्टुर (चमकीले) श्यामल शरीर, लम्बे और लद्दकार (लइकतो हुई प्रज्वलित श्रग्नि-
शिखा की तरह देदीप्यमान) केश है और करिहांव (कमर) पतली है, जिसमें पीताम्बर की शोभा अवर्णनीय है। चन्दन की खोरि (छाप) से सच अंग भरे हैं और उस चन्दन के लेप की धारा अंगों में ऐसी सोम रही है जैसे गंगा की धारा बह रही हो। माये पर मणियों का बना हुआ मुकुट है और हाथ में सुन्दर लाल लकुटी है। माये पर पतला तिलक है और गले में तुलसी की माला है। नाक सुन्दर तथा पतली है और श्रास्खें बढ़ी एव तलौदो (दल्को गुलाबी) रंग की है। उस मणि-मुकुट के बीच मोर का पंख लगा है। दोनों कानों से कु'डन लटके हुए है और उनके ऊपर लट कूच रही है। दाढ़ी और मूछें अभी-अभी निकल रहा है, और रेशम के लच्छे की तरह शोभित हो रही है। मुखारबिन्द प्रफुल्लित है तथा मुस्कान अत्यन्त मधुर है। घरनी दास इस छबि पर न्योछावर हो जाते है और उनके मन ने पृथ्वी पर शीश रखकर दंडवत् किया और प्रभु ने उनके माथे पर हाथ रखकर आशीवाद दिया ।
चेतावनी
जीव समुझि परबोधहु हो, भैया जनि जानहु खेलबाड़। जा दिन जेतवा पसरिहे हो, भैया करबहि कवन उपाय । मंत्र सिस्स्राइ कवन सिधि हो, भैया जंत्र जुगुति नहिं काम । नहिं बट करम करम कटि हो, भैया अवर करम जपटाइ । ऐडि बिसतास विगरव ।। हो, भैया देव दीहल दहिनाय । 'धरनी' जन गुन गावल हो, भैया भजु लेड आतम राम ।
हे भाई, सभी प्राणियों को जीव समझकर उनके साथ अच्छा बर्ताव करो, इसे खेलवाब मत समझो। जिस दिन भगवान तुम्हारे कर्मों का लेखा करेंगे उस दिन, हे माई, तुम (अपने बचने का) कौन उपाय करोगे। मन्त्र सिखाने से कौन-सी सिद्धि होगी तथा यन्त्र और युक्ति किस काम आयेगी, यदि तुम जीव को जीव समझकर व्यवहार नहीं करोगे। हे भाई, पट्कर्म करने से कर्म-फल नहीं कटेगा, बल्कि तुम कर्म में और लिपटते जाओगे। हे मित्र, तुम इस विश्वास को धारण करके बिगड़ोगे हीं; बल्कि जो ऐखा विश्वास तुम्हारा हो। जाय तो समझो कि ईश्वर तुम्हारे दाहिने (अनुकूल) हो गये । भक्क धरनीदास गुया गाकर कहते हैं कि है भाई, तुम आत्मा (परमात्मा) राम को भक्ष लो ।
[ इस पद में कवि ने भोजपुरी के 'वादन' शब्द को क्रिया के रूप में व्यवहृत करके भोजपुरी भाषा का लचीलापन दिखलाया है।]
बगरि चलति धनि मधुरि नगरिया, वीचे साँवर मतवलवा है ना ।। अटटि चलनि लटपटी योनि, धाइ लगवले अकॅर्वास्या हे मा ॥ साथ सक्षिश्र सब मुखहूँ ना बोलें, कौतुक देखि भुलानी हे ना ॥ मद फेरि बासक्ष महल मोरि ननदिया, भाइ धदल, ग्रहमंडे हे ना ।। तबहिं से हो धनि भक्षो मतवलिया, बिनु मरद रहलो ना जइ हे ना ॥ प्रेम मगन तन गावे जन धरनी, करिलेडू पंदित बिचार हे ना ॥
सुन्दरी स्त्री कहती है कि मैं माया मधुर नगर (संसार) के मार्ग पर चली जा रही थी कि बीच में दी साँवला (जीव ) मतवाला मिल गया। उसको चाल अटपटी थी और बोली लटपट । (उसने दौड़कर) मुझे अकवार में भर लिय। मेरे साथ की सब सखियाँ (वासनाएँ) मुख से कुछ नहीं बोलीं। प्रीतम के इस कौतुक को देखकर भूल-सी गईं। मेरी नाक में मद (प्रेम) की गंध लगी और वह सीचे ब्रह्म । यद्ध (मस्तक) तक चढ़ गई। तब से में भी मतवाली हो गई। अब मुझे विन। मर्द । जीवात्मा ) के रहा ही नहीं जाता। धरनीदास प्रेम में मगन होकर गाते है और कहते हैं कि हे पण्डित-
जन | इस रहस्य पर विचार कर लेना। हाय गोद पेट पिडि कान ऑखि नाक नीक
साँथ मुँह दाँत जीभि ओड बाटे ऐसना ।
जीवन्हि सताईजा कुभच्छ भच्द साईजा, कुलोनता जनाईला कुपंग संग बैसना ॥
चक्षि ला कुचाख चाक्ष ऊपर फिरेला काक्ष,
साधु के सुमंत्र बिसराईला से कैसरमा । ऐसना में चेती ना तड, धरनी कहे भैया
शानि क्षेबि ता दिना चीरारी गोक पैसला ॥
( मनुष्य सर्वांग सुन्दर और अमूल्य जीवन नष्ट कर देता है और चित्वारोहण के समय तक भी नहीं चेतता। इसी पर कवि की यह उक्ति है।) मेरे हाथ, पाँव, पेट, पीठ, कान, आँख, नाक, माय, मूह, दाँत, जीम और ओठ सुन्दर है, परन्तु मैं जीवों को सताता हूँ। भक्ष्याभक्ष्य भोजन करता हूँ और कुगियों के साथ
फूलोन होकर भी संसार में कुमार्गी होकर अपना
बैठता हूँ। तिसपर भी अपनी कुलीनता दर्शाता हूँ। मैं बुरी चाल चलता हूँ, परन्तु सर पर मंडराते हुए काल का ध्यान नहीं कर पाता हूँ। तत्र भो साधुधो के सुस्वर मन्त्रों ( उपदेशों ) को भुला देता हूँ। भरनीदास ऐसे मनुष्यों से कहते हैं कि हे माई, ऐसी वद्या में भी यदि नहीं चेतोगे तो चीरारी (चिता) में पैर रखने पर पता चलेगा।
शैयदअली मुहम्मद 'शाद'
'शाद' साहब के पौत्र श्री नकी अहमद सिवान में जुडिशियल मजिस्ट्रेट हैं। इनके यहाँ 'शाद' साइन की लिखी हुई 'फिकरेबलीग' नामक पुस्तक की पाण्डुलिपि वर्तमान है। इसमें 'शाद' की उन रचनाओं जो १८६५ से १८८७० तक लिखी गई, का समावेश है। इस पुस्तक में शेरों और गीतो की आलोचनाएँ तथा टिप्पणियाँ भी है। इस पुस्तक के पृष्ठ ११२ या ११४ में भोजपुरी के निम्नलिखित गीत लिखे गये हैं, जो 'शाद' की रचनाएँ है। इर गीत के ीचे अर्थ लिखते हुए टिप्पणी भी है। इससे स्पष्ट है कि 'शाद' ने भोपुरी में लोकगीतों की अच्छो रचना के है ये गीत भोपुरी प्रदेश में प्रचलित भी है।
'श'द' उदू के मशहूर वि थे। आपकी रूयाति अच्छी है। हैदराबाद के सर निजाम जंग ने 'लय लात शाद नमक पुस्तक का अंगरेजी में अनुवाद किया है। हिस्ट्री आफ उर्दू-लिटरचर पुग्तक में भी आपका जिल्द है।
'शाद' साइन का पूरा नाम श्री सैयद अली मुहम्मद था। आप विहार के एक प्रमुख उदू-कवि थे। आपका जन्म सन् १८४६ में पटना में हुआ था। आप जनवरी, १६२७ ई० में दिबंगत हुए। आपको अंगरेजी सरकार से 'स्वाँ बहादुर' की पदवी भी मिली थी। आपके पूर्वज बहुत ऊचे खानदान के थे जिनका सम्बन्ध बादशाहों से भी था। आपके कई पूर्वज मुगलकालीन सल्तनत में ऊँचे-ऊंचे पदों पर थे। आपके परिवारवालो के हाथ में बहुत दिनों तक इलाहाबाद, मुल्तान, अजीमाबाद, पूथिया, हुसेनाबाद अदि स्थानों की सुबेदारी थी। आपको अँगरेजी सरकार से पेंशन मी मिलती थी जो गदर के साय सहानुभूति रखने के कारण बन्द हो गई ।
अ।पने बचपन में हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन एक ब्राह्मण पंडित की देखरेख में किया था। आपकी शिक्षा-दीक्षा फारसी और अरबी में समयानुकूल हुई थी। बहुभाषा- विज्ञ होने के नाते आप अनेक भाषाओं में कविता किया करते थे। आपकी शैली बढ़ी हो चुस्त, आसान और मुहावरों से भरी रहती थी। अपने भोजपुरी भाषा में भी कु गीत लिखे हैं।
चैत
काहे अहसन हरजाई हो रामा । डोरे जुलुमो नयना तरसाई हो रामा ॥ सास ननद मोका ताना देत हई' छोटा देवरा हँसि के बोजाई हो मोरा संयाँ मोरो बात न रामा ॥ पूछे तपि-ताप सारी रैन गंवाई हो रामा ॥ नाजुक चुनरी रंग 并 बोरो बाला जोबनवा कइसे छुपाई हो रामा ॥
शाद' पिया को द्वे इन निकसी गलिअन गलियन खाक उड़ाई हो रामा ॥ -फिकरे वलीग', पृष्ठ- ११२ ।
सावन
९९
असों के सवनार सहयों घरे रडु, घरे रहु ननदी के भाब ॥ साँप छोदेला साँप केचुल हो, गंगा छोदेती अरार ॥ रजवा छोदेला गृह आपन हो, घरे रहु ननदी के भाय ॥१॥ धोदवा के देवो मलोदवा न हथिया जबगिया के बार ॥ रहरा के प्रभु देवो घीव सिंचड़िया, घरे रहु ननदी के भाव ॥१॥ नाहीं घोदा खइहें मलीदवा, हाथी न लबेंगिया के डादि । नाहीं हम खइयों घीव बीचड़िया, नैया बरी लदयो बिदेस ॥३॥ नैया यहि जइहें मतधरवा, बरचि चोर लेह सोहि प्रभु मरिहें घरवरवा, घरे रहु ननदी के नैया मोरी जइहें धोरहि धीरे, बरधी न चोर लेइ जइहें रे॥ जाय ॥ भाय ॥५॥ तोहि धनि चेचचों सुगलया हाये, करबो में दोसर विश्राही ॥५॥ इस गांत के केवल दो पद गफकरे-बलिग' के ११२ पृष्ठ में हैं। किन्तु यह पूरा गीत आजतक भोजपुरी लोगों के कण्ठ में बसा हुआ है।
रामचरित्र तिवारी
आप डुमराँव राज ( शाहाबाद) के दरबारी कवि थे। आप भोजपुरी के अतिरिक हिन्दी में भी रचनाएँ करते थे। आपके निवास स्थान का पता नहीं प्राप्त हो सका। किन्तु आपकी भोजपुरी रचनाओं की माषा से ज्ञात होता है कि आप शाहाचाद जिले के निवासी थे। कलकत्ता से श्री यशोदानन्दन अखौरी के सम्पादकत्व में निकलनेवाले हिन्दी 'देवनागर' नामक मासिक पत्र के विक्रम संवत् १६६४ के चौथे अंक के पृष्ठ १५८ में आपकी पाँच भोपुरी रचनाएँ छपी है। उसी में आपके डुमराँव राज-दरबार के कवि होने की बात भी लिखी हुई है। उसी पत्र में मुद्रित परिचय से आपका समय १८८४ ई० है। संवत् १६६४ विक्रमी संवत् के पूर्व आपका स्वर्गवास हो चुका था; क्योकि 'देवनागर'- पत्र में आपके नाम के पूर्व स्वर्गीय लिखा हुआ है।
(१)
देखि देखि भाजु कालि हाकिम के हालि-चालि । हमनीकार खुस होके मन में मनाइले ॥
राम करे ऐसने निभाई बदसाह रहे । क्षेकरा२ भरोसे समै सुख से बिवाइले॥ बेकरा से बब बब बादसाह द्वारि गइले । इमरों मुलुक रहि रैपति कहाइजे ॥ बनि महारानो पिकटोरिया के राज बादे । जाइते ॥ बुझि बुझि बुचि बक्ष बति बलि
(२)
कोकरा मुलुक में कानून का निसाफ से । सवात दाते हमनी का हफ-पद पाइले ॥ जेकरा पर्साद से सवारी रेलगाबी चांद । छोटे-छोटे दामे बड़ी दूर देखि भाइले ॥ लेकरा पर्तापे अव वार में प्रवर भेजि । खगले कहाँ कहाँ के हात्ति ले जानि आइले ॥ संकरा के राम करै रोज-रोज राज बादे । शुभि बुझि बुधियल बलि बति जाइले ।।
(2)
शय सरकार सब उपकार इमनी का साहेब से तिरिन करते या । हमनी के कवन हरज वा ।। ना होमि । इमनी का साँचे सरकार के करज या ।। कहाँ से कहीं मालिके से। सगर १३ गरज ३ बा ।। असे व साइंचे से उरवू बदलि देव नागरी' इहे एगो साहेब से ५ घरी अवर चले । अरज वा ।।
शंकर दास
आपका जन्म स्थान ग्राम इसुचार (परगाना - गोआ; जिला-सारन) था। आपके पिता का नाम शोभा चांचे था। अन्त सभ्य में आप वैरागो हो गये थे।
जब आप जवान थे, तब की एक उक्ति सुनिए-
(1)
हमरो से बैठ-छोड के बिभाइ होठ हमरो जात ॥१॥ प्रभु जी हमरा के देवी रडरा २ नव तन कनिया। इटिथा जहूर्ती तज जे अहती, खारी राति क्षेतीं सुभमिया (अपूर्ण)
राम राम भजन कर, अनि कर कहा ।। सुमती सताइ रहो, बेकती सब एक मत दिने दिने भन बढ़े, रहे व एकाट्ठा ||१|| जाही घरे सुमती सलाइ ना, रात दिन झगरा परत रही प्रेम के दद्दी सही रही तड़ रहा ॥२॥ जेंवर मन परसन्न रही मन में कचोट १३ रही तब परोस महा ||३||
हे गृहस्थ, तुम राम-राम का भजन करो। उद्घा (हँसी-खेल) न किया करो। तुम्हारे बर में सुर्मात और सलाह (एकता) सदा बनी रहे। सब परिवार एक मत होकर रहे और परिवार के सब लोग इकट्ठा रहें, तब तुम्हारा दिन-दिन घन बढ़ेगा। जिसके घर में मेल-जोल नहीं है, रात-दिन झगडा-झसेजा है, उसके घर में सम्पत्ति के स्थान पर अरहर का बंठल भर ही रह जायगा। प्रेम का जमा हुआ दही खूच खाश्रो, तब मन प्रसन्न रहेगा। यदि मन में कचोट रहेगी, तो तुम्हारे आगे दद्दों के स्थान पर महा है। परोसा जायगा ।
(३)
राम राम राम राम राम सरन अइली लोग का बुझे से ईहाँ तजे लोक त गंवार परलोक सीतापति राम चन्द के पीछा हम भइली ।। भला हाय अब धइर्ती ।। ठाकुर जी के आरती नइखेद भलीभाँति से चनाइमरित बातभोग १५ हरिप्रसाद् साइली ॥ राम राम ||२||
मैं तो राम की शरण में आया हूँ। किन्तु दुनिया के गया हूँ। इस लोक के त्यागने से परलोक में भला लोगों की समझ में गंवार बन होता है। इसलिए बीता-पति श्री रामचन्द्र का पीछा मैंने पकड़ा। ठाकुरजी की आरती तथा नैवेद्य भली-भाँति (भद्रा से) मध्यण करके चरणामृत, बालभोग, इरिप्रसाद पाया ।
बाबा रामेश्वर दास
बाचा रामेश्वर दास के पिता का नाम चिन्तामणि ओझा था।
आप (सरयूपारीया) काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। आपका जन्म शादाबाद जिलान्त- गंत 'कवल पट्टी' नामक ग्राम में (थान बदहरा) संवत् १७७५, वि० में हुआ था तथा मृत्यु १८८५ के ज्येष्४-कृष्ण अष्टमी को हुई।
आपके पित। जो का देहावसान आपके बाल्यकाल में हुआ। इससे अपनी माता के साथ आप अपने ननिहाल 'बम्हन गाँवा' नामक ग्राम में रहने लगे जो बड़द्दरा थाने में ही आरा से ६ मील की दूरी पर है। आप अपने बनाढ्य मामा के पास अपनी युवावस्था तक रहे और वहीं आपके विवाहादि संस्कार भी हुए। आप बड़े लम्बे-तगड़े और पहलवान थे । सत्यवादी और भगवद्-भक्त थे। अपने मामा की छोटी-मोटी सेना के आप सेनापति भी थे। आप अक्सर अपने मामा के मकई के खेतों की रखवाली में भी जाया 'करते थे।
कहा जाता है कि आपके मामा के यहाँ एक दिन सत्यनारायण की कथा थी अथवा ब्राझण-मोजन के लिए बाहर से निमन्त्रण भाया हुआ था। तब भी आपने मकई के खेत में रखेवालो के लिए विना खाये-पीये भेजा गया। 1कसी कारण से आपके पास खेत में उस रात भोजन भी नहीं पहुँचाया जा सका। अतः जब बहुत बिलम्ब हुआ तब आपके साथ के 'दुबरिया' नामक नौकर ने कहा- "जान पड़ता है कि आज हमलोगों को भूखे ही रहना पड़ेगा। भोजन अब तक नहीं आया।" इसपर आपने कहा:-
हमरा तोरा रामजी के आस रे दुबरिया । तय काहे परब जा', उपास रे दुवरिया ।। इस पद्य से आपका ईश्वर पर अटूट विश्वास प्रकट होता है। इसके थोड़ी देर बाद
ही भोजन जिये हुर एक व्यक्ति आया और आप दोनों को मकई के मचान २ पर ही भोजन करा कर बरतन वापस ले गया। दूसरे दिन घर जाने पर जब आपने रात्रि में भोजन की बात मामा के घरवालो से कही और उन लोगों ने जब घर से भोजन न भेजने की बात चताई तब आपको आश्चर्य हुआ और विश्वास हुआ कि भगवान ने ही भेष बदल कर आपको भोजन कराया था। उसी समय श्रापको वैराग्य हुआ और श्राप घर छोड़कर यह कह कर निकल पड़े कि अब मैं किसी तरह ईश्वर को छोड़कर सांसारिक बंधनों में नहीं फंसू गा।
जाते थे । योग-जिज्ञासुओं की बोग्यता को पूर्ण-परीक्षा लेकर ही योग-शिक्षा प्रदान करते थे। उनका आश्रम शादाबाद के 'कर्जा' नामक गाँव में, गंगातट पर, था। अप की अलौकिक प्रतिभा को जैसे उन्होंने देखा, वैसे ही इन्हें योगज्ञान प्राप्त करने को अनुमति दी। थोड़े ही दिनों में आपकी योग-सिद्धि हुई। उनके अनन्तर अपने ननिहाल 'बम्हनाँवा' के निकट 'गु'डी' ग्राम के पास वन में श्राकर आप गुप्त रूप से तपस्या करने लगे। कई वर्षों के बाद जब आपके घरवालों को आपके वहाँ रहने की जानकारी प्राप्त हुई तब उनलोगों ने आपसे घर पर रहने की प्रार्थना की। जब आप सहमत नहीं हुए तच आपके लिए बद्दों मठ बनवा दिया गया। आपकी नी भी आपके साथ आकर भगवद-भजन करने लगी और फिर स रा परिवार आकर वहीं अस गया। आपके चार पुत्र थे जिनके नाम थे-गोपाल श्रोकर, परशुराम ओझा, ऋतुराज श्रोक' तथा कपिल श्रओका। परशुराम ओझा के वंशज आज मी 'गुंडा' के पासबाले मठ में बसे हुए हैं। आप हिन्दी में भी अच्छी कविता करते थे ।
आपके सम्बन्ध में श्रनेक चामात्कारिक घटनाओं का वर्णन किया जाता है। एक बार आपके किसी पुत्र को ज्वर या गया था। बद बहुत मंतप्त हो गया था। उसकी माता ने आपसे कहा। आपने पुत्र का शरार छूकर कहा र्हा, ज्वर तो बहुत अधिक है और तत्क्षण हिन्दी में एक सवैया बना डाला। सबैपा पाठ के बाद ही ज्वर उतर गया।
एक चार किसी आवश्यक कार्यवश आप गंगा-पार जा रहे थे। पश्चिमी इवा जोर- शोर से बढ़ती थी। बहुत लोग घाट पर इकट्ठे हुए थे। घटवार तेज हवा के कारण नाव खोलने से लगातार अस्वीकार करता गया। आपका जाना जरूरी था। तत्काल श्रापने एक सबैया बना पश्चिनी पत्रन से बिनय की। इवा शान्त हुई। नाव खोली गई।
एक चार आपकी प्रशस्ति सुन कर एक मंत्रतंत्र-सिद्ध विदुषी अति सुन्दरी कामिनी, संन्यासिनी वेश में आपकी परीक्षा लेने के विचार से आपके पास आई। कहा जाता है कि वह श्रारा नगर के प्रसिद्ध मठ के संत बालकिसुन दास की मेजी हुई थी। उसने जब बालकिसुन दास से पूछा कि किसी सिद्ध महात्मा के दर्शन मुझे हो सकते हैं तब उन्होंने कहा--"हाँ, आरा से दो कोस उत्तर की ओर रामेश्वरदास नाम के एक महात्मा है। शायद उनसे आपकी सन्तुष्टि हो सकती है।" वह सीधे आपके पास चली आई और नंगी हो गई। आपके निकट ही एक स्थानीय जमींदार 'काशीदास' बैठे हुए थे। उन्होंने दृष्टि बचाने के लिए अपनी रेशमी चादर संन्दासिनी के ऊपर फेंक दो, परन्तु वह उसके निकट पहुँचते ही जल गई। इसपर अपने अपना पीताम्बर फेंका। तब उसने कहा- "बाचा, कृपया न फेंकिए।" आपने कहा- "नो माता, मेरा पीताम्बर कदापि जलने का नहीं।" निदान पीताम्बर जला नहीं। संन्यासिनी ने आपकी सिद्धि का लोहा मान लिया ।
आरके भोजपुरी छन्द का उदाहरण-
ताक्ष काल मृदंग खोजबी गावत गीत हुलासा रे कचहूँ इंसार चले अकेला कहीं सगी पनासा रे गेंडी दाम न खरची बाँधे राम नाम के भासा रे रामचन्द्र तोरे अजब चाकरी रामेश्वर बिस्वासा रे ।।
परमहंस शिवनारायण स्वामी
आपका जन्म वक्रम-संवत् १७५० के लगभग हुआ था। बलिया जिले के चन्दवार नामक ग्राम आपका जन्म स्थान था। आपके पिता का नाम बाबू बाघराय था। आप संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। आपने अपनेको गाजीपुर का रहनेवाला लिखा है। धापके गुरु का नाम 'दुबइरन' था।
आप 'शिवनारायणी' पन्ष के प्रवर्तक थे। श्राप एक समाज-सुधारक भी थे। छूत- अछूत का मेद-भाव नहीं मानते थे। विशेष कर इरिजनवर्ग के लोग आपके शिष्य थे। उन्हीं लोगों के लिए आपने भोजपुरी में रचनाएँ कीं। उनमें गंबारू बोली में श्रनमोज उपदेश भरे पड़े हैं। आज भी आपके हजारों अनुयायी आरके अन्धों को पढ़ी प्रतिष्ठा करते हैं।
आपके बनाये १३ अन्य है- (१) लाल अम्प, (२) संत बिलास, (३) भजन अन्य, (४) संत सुन्दर, (५) गुरु अन्याय, (१) संतचारी, (७) शान-दीपक, (८) संतोपदेशे, (६) शब्दावली, (१०) संत परवाना, (११) संत-महिमा, (१२) संत-सागर और (१३) संत-विचार ।
आपने अपने अनुयायियों को वैरागी बनने का उपदेश न देकर उन्हें गृहस्थाश्रम के महत्त्व को द्दी बतलाया है।
मन तू काहे ना करे रजपूती,
असही काल घेरि मारत है, जस पिजश के तूर्त। । पाँच पच्चीस तीनों दल ठाके इन संग-सैन बहूती ।
रंग महल पर अनहद बाजे काहे गहलऽ तू सूती ।
'सिवनारायन' चढ़ मैदाने मोह-भरम गइल छूटी।
अरे मन, तू राजपूती क्यों नहीं करता ? अर्थात् चहादुर की तरह विघ्न-वाघ'ओं का सामना क्यों नहीं करता। ऐसे हो (अनायास) काल चारों ओर से घेर कर पिजड़े में बन्द तूती की तरह जीवों को मार डालता है। सामने देखो, ये पंचतत्त्व और उनकी पचीस प्रकृतियाँ तथा काल- ये तीनो दल खड़े है। इनके साथ बहुत ही अन्य सेनाएं (विन-वाघाश्रो, उत्पातों तथा रोगों की भी हैं। तुम्हारे रंगमहटल (ब्रह्मांड मस्तक) पर अनहद शब्द हो रहा है। अरे मन, तू सो क्यों गया है। शिवनारायण कहते हैं कि मैं तो संग्राम के हेतु मैदान पर चढ़ आया हूँ। मेरा मोह भ्रम सब छूट गया है। सुतल रहों नींद भरी गुरु देलें हो जगाइ ।। गुरु के सबद र गाँजन हो, लेलों नयना लगाइ ।
तबहीं नींदो नाही आवे हो नाहीं मन अलसाइ ॥
गुरु के चरन सागर हो निव सबेरे नहाइ ।
जनम जनम के पातक हो हुन में देले दहवाइ ॥
पेन्हलों में सुमति गहनों हो कुमति दीहतों उतार ।
सबद के माँग संवारों हो, दुरमत दहवाइ ॥
पियलों में प्रेम-पियलवा हो, मन गइले बउराइ ।
बइटलों में ऊँची चडपरिया हो, जहाँ चोर ना जाइ ।
शिवनरायन-गुरु समरथ हो, देखि काल डेराइ ॥
अरे, मैं गहरी नींद (मोइनिद्रा) में सो रहा था, गुरु ने मुझे जगा दिया। गुरु के शब्दों (ज्ञानोपदेशों) को रच-रच कर मैं ने अंजन बनाया आर उसे नेत्रों में लगा लिया। तबसे मुझे नींद नहीं श्रावी और न मन ही अलसाता है। गुरु के चरण-रूपी सागर में में नित्य सवेरे उठकर स्नान किया करता हूँ और उसमें जन्म-जन्मान्तर के पापों को क्षणमात्र में ही बहवा दिया करता हूँ। मैं ने सुमति के आभूषणों को पहन लिया और कुमति के गहनों को उतार दिया। मैंने गुरु-वचन-रूपी माँग को संवार लिया और अपनी कुमति को धो बढ़ाया था। मैंने प्रेम का प्याला पी लिया जिससे मन मतवाला हो गया। परमात्मा के प्रेम में बेसुध हो गया। मैं उस ऊंचे चौपाल (शान के अंधकार) पर जा बैठा, जहाँ (विकाररूपी) चोरों की पहुँच नहीं है। शिवनारायण कहते हैं कि गुरु की कृपा से इतना समर्थ हूँ कि अब मुझको काल मो देखकर बरता है।
भव सागर गुरु कठिन अगम हो, कौना बिधि उत्तरब पार हो । असी कोस रुन्छे बन काँटा, असी कोस अम्हार हो ।॥ असी कोस बहे नवी बैवरनी, लहर उठेला धुन्धकार हो। नइहर रहलों पिता सँग सुकुरी नाहिं सात-खेलत सुधि भुलि गइली सजनी, से मातु धुमिलाना हो ॥ फल आगे पाया हो । खाल पर्षाद जम भूसा भरिहें, बढ़ई चीरे जइसे आरा हो । अबकी बार गुरु पार उत्तारऽ, अतने बाटे निहोरा हो ।
कवि अपने गुरु से पूछ रहा है, (जीवात्मा परमात्मा से पूछ रही है।) हे गुरु जी, भवसागर तो अगम-अपार है। किस तरह से मैं पार उतरूंगी ? अस्सी कोसों तक का मार्ग सो घनघोर जंगली काँटी से बँधा हुआ है और अस्सी कोसों तक घोर अन्धकार है। फिर अस्सी ही कोस में फैली हुई बैतरणी नदी बह रही है, जिसमें गरजती हुई कदरें उठ रही है। मायके ( संसार में में पिता (मन) के संग भकुरी (मोक्ष्यस्त) पढ़ी रही। परन्तु तब भी मेरी माता (प्रश् ति) धूमिल नहीं हुई। हे सजनी ! खाने खेलने में पढ़कर निज वरूप की सुधिल गई थी, उच्का फल अगे मिला। यम खाल खींच कर उसमें भूखा भरेगा और बढ़ई यमदूत) इस शरीर को आग की तरह चीर डालेगा। अतः हे गुरु जी ! अब आपसे इतना है। मेरा निद्दारा (प्रार्थना) है कि इस बार मुझे पार उतार दें।
पातर कुर्थों पताल बसे पनियाँ, सुन्दर हो ! पनियाँ भरन कैसे जाँव ॥ खेलत रहली में सुपली २ मउनियाँ 3 अवचक आ गइले दिन, सुन्दरह हो ! अबचक सुन्दर हो ! गइले निधार । के मोरा धइले दिन-सुदिनबों सुन्दर हो !
के मोरा भेजलन निआर । सुन्दर हो, के मोरा भेजलन निधार ।।
ससुरा मोरा चैत्तन दिनवें सुन्दर हो ! संयाँ मोरे मेजलन निधार ।।
सुन्दर हो, संया मोरा भेजलन नियार ।
लागि गइले बतिस्रो कहार ।
लाली लाली डोलिया सत्रुजि ओहरिया सुन्दर हो ! मिलि लेडु मिलि लेडु सखिया-सलेदर सुन्दर हो !
सुन्दर हो, लागि गइले यतिसो कहार ।।
अबसे मिलन गहले दूर ।।
सुन्दर हो ! अब से मिलन गइले दूरः ।।
पतला तो कुँआा है और उसका पानी भी बहुत नांचे है। हे सुन्दरि, में पानी भरने कैसे जाऊं ? हे सुन्दरि, में मुरली मौनी से खेल रही थी कि अचानक मेरे बुलावे का दिन आा गया। हे मुन्दरि, किसने मेरे जाने का सुदिन ठीक किया और किसने बुलाने के लिए नियार मेजा। स्वसुर ने मेरे जाने का दिन निश्चित किया और मेरे स्वामी ने नियार भेजा। मेरी ढोली तो लाल रंग की है, उसमें हरे रंग का श्रोहार लगा हुआ है जिसमें बत्तीस कदार लगे हुए हैं। हे सखी सहेली, श्रश्रओ, मुझसे मिल लो; नहीं तो अब फिर मलने का श्रवसर बहुत दूर हो जायगा ।
पलटूदास
फैजाबाद जिले में मालीपुरी स्टेशन से दस या बारह मील पूर्व जलालपुर नामक एक कसबा है। पलटूदास और इनके गुरु गोविन्द साइन यद्दों के रहनेवाले थे। बचपन से ही दोनों बड़े जिज्ञासु थे। गो बन्द साइच जाति के ब्राह्मण और पलटूदास का न्दू भदभूजा) थे । गोविन्द साइच पलटूदास के पुरोहित भी थे। दोनों व्यक्ति एक बार दीक्षा लेने के लिए अयोध्य। गये । उन्होंने इनको उस समय गाजीपुर जिले में रहनेवाले बाचा भीखमराम के पास जिस सन्त से इन लोगो ने दीक्षा मांगो जाने की राय दो। गोविन्द साइब वहाँ गये और पलटूदास इसलिए रुक गये कि गोविन्द साइय के दोच्चा लेकर लोटने पर ये उन्हीं से दीच्चा ले लेंगे। गोविन्द साहब के दीक्षित होकर लौटने पर पलटूदाव उनके शिष्य हुए। गोविन्द साढ्य ओर पलटू दास बड़े ऊंचे भक्तों में गिने जाते है। गोविन्द साहब के नाम पर प्रसिद्ध मेला श्रान भी लगता है।
पलटूदास के नाम पर आज भी पलटू-पंथी सम्प्रदाय है। इनके कितने मठ हैं। इनकी सभी रचनाएँ श्राज भी जलालपुर के पास के मठ में बत्तमान है। इनका समय भान से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व का कहा जाता है। वेलबेडियर प्रेस (प्रयाग) से पलटूदास की रचनाओं का जो संग्रह छुपा है, उसमें भी उनका यही समय उल्लिखित है।
(3) सनेहिया हो, अब तुरत न जाय । काहे के लगावले जब हम रहलों लरिकवा द्दो वियवा आयहि जाय ॥ अब हम भलों सयनिया हो, पियवा ठेकलें बिदेस । पियवा के भेजलों सनेसवा २ हो, अइहें पियवा मोर ॥ हम धनि पड्यों उठि लागबि हो, जिया भइत भरोस । सोने के यरिश्रवा जेवनवा हो, हम दिहल परोस ॥ हम धनि चेनिया बोलाइव हो, जैवेले पियवा मोर । रतन अदछ एक झरिया हो, जब भरल अकास ॥ मोरा तोरा बीच परमेसर हो, ए कहते पलटू दास ॥
हे प्रेमी, तुमने क्यों स्नेह लगाया। अब तो यह मुझसे तोड़ा भी नहीं जाता। जब मैं कमसिन थी तत्र पिया निःसंकोच आते-जाते थे, पर अत्र जब में सयानी हुई तब मेरे प्रीतम विदेश जा चसे। मैंने अपने पिया के पास सन्देशा भेजा है। मेरे पिया अवश्य आयेंगे और तब मैं सोद्दागिन उठकर उनके पाँव पढ़ेगी, ऐसा मुझे विश्वास हो गया है। तब मैं सोने की याल में जेवनार परोसू गां और मेरे प्रीतम भोजन करने लगेंगे और मैं सामने बैठकर पंखा झलने लगेगी। रत्नजडित एक झारी है। मैं उसमें आकाशरूपी जल भरकर पिया के पीने के हेतु रखूंगी। पलटूदास कहते हैं कि मेरे और तुम्हारे बीच में केवल परमेश्वर का नाता है। दूसरा कोई नहीं।
कइ दिन मेरा तोरा जिधना पे', नर चेतु गँवार ॥ कोंचे माटी कर घइलवार हो, फुटत लागत न घेर । पनिया ग्रीच बतसवा हो, लागल गलत न देर ॥ पुचों केरा घवरहर हो, बालू फेरा भीत ! लागत पवन झरि जाले हो, तृन ऊपर जस कागद कई कलई हो, पाकल फलबा सपने केरा सुत्र सम्पति हो, अइसन बॉस केरा धन पिंजरा हो, पंडी लिहले यसेरा हो, ताहि बीच दस लागल उड़त न आतसबाजि तन भइलेह, हाथे काल के सीत ॥ डारि । संसार ॥ दुआर । यार ॥ आागि । पलटू दास उदि जइबहु हो, जबहीं देइहें दागि ॥ इमारो-तुम्हारी कितने दिनों की जिन्दगी है? रे गवार, जरा तू चेत जा। जिस तरह कच्चे घड़े को फूटते देर नहीं लगती तथा जिस तरह से पानों के बीच अताशे को गलते विलम्ब नहीं होता; जिस प्रकार धुएँ का धौरहर और बालू की दीवार तथा बास के ऊपर पड़े हुए शीतकरण इवा लगत ही विलीन हो जाते हैं; जिस प्रकार कागज पर की हुई कलई और डाल का पका फल तथा सपने में सम्पत्ति क्षणभंगुर है, उसी तरह यह संसार है। बाँस का बना हुआ बना पिजदा (शरीर) है, उसमे दस दरवाजे (इन्द्रियाँ) लगे हैं। उसमें पंछी (आत्मा) बसेरा किये हुए हैं। उसको उड़ते देर नहीं लगती। अरे नर, यद शरीर आतिशबाजी है। कान के दाथ में आग है। पलटूदास कहते हैं कि जिस क्षण काल इस श्र। तिराचाजी में श्राग चुला देगा, उसी क्षय जल कर उड़ जायगा।
(a) बनिया समुझि लादु लनियाँ । ई सब मीत काम ना अइहें, संग ना जइहें करधनियाँ ॥ पाँच मने के पूँजी लदले, अतने में गरत गुमनिया । करलेड भजन साधु के सेवा, नाम से लाउ लगनिया ॥
सउदा चाहसि त इहवें करिले, श्रागे न हाट दुकनियाँ । पलटू दास गोहराइ के कोरले. अगवा देस निरपनियाँ ॥ अरे वांगणकू, समम-यूफ कर तुम नदीनी करो। ये सभ मित्र किसी काम नहीं आयेंगे । हमर की करथनी भा तुम्हार साथ नहीं जायगी। तूने पाँच मन (पंचतत्त्व) की पूजी की सदांनी की और इसने में ही गुमान से पागल हो उठे। अरे यदिक, साधु की सेवा और ईश्वर के नाम से लगन लगा। यदि तुम सचमुच कुछ सौदा (शुभकर्म) करना चाहते हो तो वहीं इस लोक में कर लो। श्रागे कहीं दाड या दूकान (शुभकर्म करने का स्थान) तुमको नहीं मिलेंगी। पलटूदास पुकार कर कहते हैं कि आगे का देश बिना पानी का या बिना हाट-बाजार का (साघनद्दीन) है।
रामदास
रामदास जी 'बुल्ला साइव' (चुलाको दान) के शिष्यों में से थे। आप के जन्म-स्थान का पता ठीक नहीं लग सका। अनुमान है कि आपका जन्म स्थान तथा कार्य-क्षेत्र बलिया और गाजीपुर में ही कहीं रहा होगा। आपकी रचनाओं की बढ़ो प्रसिद्धि है। देहातों में, अनेक अवसरों पर, काल-दोलक के साथ उनको लोग सम्मिलित रूप में गाते हैं।
(1)
रामऽ चइत अजोधेआ में राम जनमले हो रामा, घरे घरे, बाजेला अनंद यधड्या हो रामऽ लवेंग-सोपरिया के बोरसो २ रामा । घरे घरे० भरवलो हो रामा रामा ॥ घरे घरे० त राम नहवावों हो रामा चन्दन काठी, पसंगिक शरार्थो हो रामऽ सोने के चर्डाच्या रामऽ चेरिया लउँदिया आई पानी भरे हों रामा। घरे घरे० रामऽ केई सखि डालेलो अंगुठिया सुंदरिया ५ हो रामा रामा कवन सखी डालेकी रतन ए पदारथ हो रामा । घरे घरे० राम केकई डालेली अँगुठिया, सुमितरा सुनरिया दो रामा कोसिला दालेली, रतन पदास्थ हो रामा ॥ घरे बरे० रामदास ए बुढाकी चइत घाटों गावे हो रामा गाइ गाइ, जियरा बुझावे रामा ।
(२)
राम जमुना किनरवा सुनरि एक रोवे हो रामा राम एही दहे" सानिक हेरइले हो रामा राम गोद एही दहे तोर लागों में केवट मलद्दा हो रामा डालू महजलिया हो रामा एक जाल डलेले दोसर झाल बलने हो रामा बाकी गइले घोंधवा सेवरवा हो रामा राम तोरा लेखे २ मलहा घौधवा-सेवरवा हो रामा मोरा लेखे, उगले चनरमा हो रामा । रामदास रे बुलाको आरे गावेले घटेसरि हो रामा
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गाइ गाइ, जियरा समुझावे हो रामा । आप का निम्नलिखित गीत प्रियर्सन साध्य द्वारा सम्पादित और संगृद्दीत होकर अंग्रजी पत्रिका में छप चुका है।
घाँटो (1)
रामा एहि पार गंगा, ओहि पार जमुना हो रामा । तेहि बीचे कृभ्ण खेलले फुलगेनवा हो रामा ||१॥ रामा गॅना जब गिरलें मजधरवा हो रामा । तेहिरे बीचे कृष्ण खिलले, राम लट धुनि केलिया पतलवा हो रामा ||२॥ जसोमति मैया हो रामा । एहीं राहे मानिक हमरो हेराइल हो रामा ॥३॥ राम गोड तोहि लागो, केवट मलहवा हो रामा । पूही रे दहे बालु महाजलवा हो रामा ॥४॥ राम एकऽजात बीगले, १० दोसर जाल बीगले हो रामा | बाझि ११ गइले घांघवा सेवरवा हो रामा ॥५॥ रामा पठि पताल, नाग नाथल हो रामा । रामा काली फन ऊपर नाच कइलन हो रामा ॥६॥ रामदास बुलाकी संग घाँटो गावल हो रामा । गाइ रे गाई, बिरहिन सखि समुझावल हो रामा ||७||
गुलाल साहब
गुलाल साहब के जीवन का निश्चित समय शात नहीं है। ये जगजीवन साइन के
गुरु-भाई थे, इसलिए इनका समय भी सं० (७५० से १८०० सं० तक माना जाता है।
जाति के ये क्षत्रिय थे। ये 'बुल्ला साहब' के शिष्य थे।
पावल प्रेम पियरवा हो ताही रे रूप ।
मनुआ हमार विवाहल हो ताही रे रूप ।।
कॅच अडारी पिया छावन हो ताही रे रूप । मोतियन चटक पुरावल हो ताही रे रूप ।। धराम पुनि बाजन बजावल हो ताही रे रूप । दुलहिन दुलहा मन भावल हो तादी रे मन || भुजभर कंठ लगावल हो ताही रे मन । 'गुलाल' प्रभुवर पावल हो ताहो रे पद ॥ मनुश्रा न प्रांत लगावल हो ताही रे पद । उसी (ध्यानस्थ ) रूप में मैंने अपने प्रियतम को पाया। मेरा मन उसी रूप से ब्याहा गया। मेरा प्रियतम ऊँची अटारी (आसन) पर विराजमान है। वहीं मोतियों का चौक पुरा हुआ है। फिर उसी रूप के लिए अनहद शब्द का भाजा बन रहा है। दुलहिन रूपी मन की उसी रूपी का दुलदा मन भाया। इसीलिए फिर दुलदिन-रूपी मन ने दुलई को अकवार में भरकर गले लगाया। गुलालदास जी कहते हैं कि मैंने अपने उसी प्रभु का सामीप्य पा लिया। मैंने उस पद की प्राप्ति कर उन्हीं में प्रोति लगाई है। गुलाल सादव की अधिक रचनाएँ प्रकाश में नहीं आ पाई है।
रामनाथ दास
अनुमान है कि आप शिवनारायण जी के शिष्यों में से एक सन्त कवि थे। आपका प्राप्त नहीं हो सका। संग्रहीत गीतों में आपके इस तरह के गीत मिले है-
परिचय अपन देसवा के अनहद काले कहीं जी अपन देसवा के मोरा देसवा में नित पुरनमासी सन्तो, कचहुँ ना अनहद कासे सन्तो, कहीं। यहूँ ना लागे अमवसया । जागे अमवसवा । धूप ना छाह तादाँ सीतल ना ताप नाहि सूख न वियासवा । - सन्तो अपना देसवा के || मोरा देसवा में बादल उमदे, रिमि किमि बरिसे ले।
देव, सन्तो, रिमझिम बरिसे देव, सन्तो ॥ ठाद रही जंगल मैदान में कतहूँ ना भांजेला देह सन्तो । भीजेला देह
कतही ना सन्तो ॥ अपन देसवा मोरा देसवा में बाजन एक बाजे, गहिरे उठेले अवाजा। सन्तो गहिरे उठे अवाजा ॥ अपन देसवा ०॥
रामनाथ जय गढ़गाजा सन्तो सगन भैले ठाइ रहे ते । बाढ रहे चे गढ़ अपन गाजा ॥
भक्त अपनी सिद्धि के बाद अपने मानस-देश की दशा को अन्य साधकों से बता रहा है।
हे सन्तो, मैं अपने देश के अनहद शब्द की बहानो किससे कहूँ? मेरे देश में नित्य पूर्णमासी ही रहती है। यहाँ कभी अमावस्या नहीं आतो अर्थात् सदा ज्ञान का उजाला ही रहता है, अज्ञान का अन्धेरा कभी नहीं होता। हे सन्तो, बाँ न भून है, न छाया है, न शोत है और न ग्रीष्म है। वहाँ न भूख लगती है, न प्यास सताती है। मेरे देश । हृदय में बादल (भक्ति की घटा) उमढ़कर आते हैं। रिमझिम रिमझिम मेह बरसता है, अर्थात् आनन्द बरसता है। हे सन्तो, उस वर्षा में मैं जंगल-मैदान में कहीं भी खड़ा रहता हूँ. मेरा शरीर नहीं भींगता। (केवल हृदय ही सिक्क होता है। ; मेरे देश में एक अनहद बाजा बजता है जिसकी आवाज बहुत गहरी होकर उठती है। रामनाथ जब ध्यानमग्न होते हैं तब वे आनन्द-रूपी गढ़ पर सद। खदा रहते हैं।
भीखा साहब
भीखा साइब की जन्मभूमि बलिया जिला (उत्तर प्रदेश) नहीं है, किन्तु उनकी कर्मभूमि ही बलिया है। उस जिले के बड़ा गाँव के आप निवासी थे। बड़ा गाँव में जाँ आप रोज बैठते थे, वहाँ एक चबूतरा है। विजया दशमी के दिन वहाँ एक बढ़ा भारी मेला लगता है। लोग चबूतरे को पूजते और भेंट चढ़ाते हैं। बड़ा गाँव ( रामशाला) के आदि मद्दन्य इरलाल साहब के आप ही गुरु थे। आप बारह वर्ष की ही अवस्था में गृहत्यागी बन गुरु की खोज में लग गये। आप जाति के ब्राह्मण (चीवे) थे। घरेलू नाम मोखानन्द था। आप आजमगढ़ के 'खानपुर बोइन।' गाँव में, संवत् १७७० आस-पास, पैदा हुए थे। यापके गुरु का नाम गुलाल साद्य था।
बड़ा गाँव में किवदन्ती प्रचलित है कि "जब आप एक ऊंचे चबूतरे पर बैठे हुए थे, तब श्राप से मिलने के लिए एक मीनांबाबा, सिद्द पर सवार होकर आये। कोई दूसरी सवारी पास न होने के कारण थापने चबूतरे को ही चलने की आशा दी। चबूतरा चलने लगा और तभी से उसका नाम 'दुम-दुम' पढ़ गया। आप ५० बर्ष की अवस्था में स्वर्गवासी हुए।" •
हे मन राम नाम चित चौथे।
काहे इव उत धाइ मरत हव अवसिक ३ भजन राम से धौबे ॥ गुरु परताप साधु के संगति नाम पदारथ रुचि से श्रीचे ३। सुरति निरति अन्तर लव लावे अनहद नाद गगन घर जौबे ॥
रमता राम सकल घर ब्यापक नाम अनन्त एक उह थे। तहाँ गये जगों जर २ टूटत तीनतान 3 गुन श्रौगुन नसौबे ॥ जन्म स्थान खानपुर बोहना सेवत धरन 'मित्रानन्द' चीचे ॥१॥
दुल्लह दास
आपका परिचय अशात है। कहीं-कहीं कुछ पद मिल गये है। नइहरे में दाग परल मोरी चुनरी । सवगुरु धोबिया से चरचो ना कइलो रे, उम्ह घोविया से कवन बजरी ॥ नहहरे ० ॥ एक मन लागे के सी मन लगले, महंग साबुन श्रीकाला पिा के नगरी || नइहरे ० ॥ चुनरी पहिर के सधूरा चलल', ससुरा लोग कहे यद फुदरी ॥ नइहरे ॥ दुल्लह दास गोसाई जग जीवन, यिनु सत संग कइसे केहू सुधरी ॥ नइहरे ।।
मेरी चुनरी (चोला) में नैहर (नंसार) में हो दाग पढ़ गया। मैंने इसकी चर्चा अपने सतगुरु-रूपी धोबी से नहीं की। उन धोबी से दूसरा और कौन अधिक स्वच्छ है अर्थात् मल-(पाप) नाशक है। एक मन मैल लगने के बदले सौ मन मैल लग गई। पिया के नगर में तो साबुन ( तत्त्व-शान) बहुत महङ्गा बिकता है। बद्दी चुनरी (चोला) पहनकर मैं ससुराल (परलोक) को गई; पर वाँ के लोग कहने लगे कि यह बदी फूड नारी है। दुल्ल इ दास कहते है कि मेरे मालिक जगजीवन दास ५। इस संसार में बिना सत्संग के कोई कैसे सुधरेगा ?
नेवल दास जी
आपका जन्म सरजू पार उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में हुआ था। आपकी मृत्यु सं० १८५० मे, १०० वर्ष की आयु में हुई। आपके माता-पिता के नाम शात नहीं है। आपके गुरु जगजीवन जी थे। आप सन्त कवियों में प्रसिद्ध है।
अपने घर दियरा बाद रे।
नाम के तेल, प्रेम के बाती, ब्रह्म अगिन उद्गारु रे ॥ जगमग जोति निहारु मैदिक्षवा में, तन मन धन सब बारु रे । झूठ ठगिनि जानि जगत के आसा बारहि बार बिसारु रे। दास नेवन भष्ठ साई' जगजीवन आपन काज संवारु रे ॥
अरे, अपने पर (हृतय) में ज्ञान का) दीपक जलाश्रो। राम नाम का तेल बनाओ। उसमें प्रेम की बत्ती लगाओ और ब्रह्माग्नि की लौ जनायो। तब अपने मन्दिर (अन्तः- करक) में जगमगाती ज्योति को निहारो। उस ज्योति पर तन-मन-धन सबको न्योछावर कर दो। जगत् का भ्राशा को तुम ठगिनी का तरइ समझो । उसका कभो अपने पास न फटकने दो। नेवल दास कहते है कि गुरु जगजीवन को भजकर अपना काम बनाओ।
बाबा नवनिधि दास
आपका जन्म बलिया जिले में 'लखउलिया' नामक ग्राम में हुआ था। जाति के
कायस्थ और मु ंशी शिवदयाल लान के पुत्र थे। चन्दाढीवाले कविवर रामचन्द्र
उपनाम 'चनरूराम' आपके गुरु थे। पद्दले आप 'वधुद्धी' निवासी मुथी प्रयागदत्त कानूनगो
के यर्दा मोसद्दी थे। वहीं आपके हृदय में बैराग्य उत्पन्न हुआ और आपके मुँह से
निकल पड़ा- "मोहि राम नाम सुधि बाई। लिखनी अब ना करब रे भाई ॥"
"अरे मुझे राम नाम की सुधि आ गई। अब हे भाई, में लिखनी नहीं करूंगा " यह कहते हुए आप उठ पड़े और संन्यासो बन गये। आपका रचना-काल संवत् १६०५ है, यह आपकी एक रचना से प्रमाणित है। संन्यास आपने लगभग ५०-६० वर्ष की अवस्था में ग्रहण किया था। आपका जन्मकाल अनुमान से संवत् १८१० के आस-पास हो सकता है; क्योंकि ११० वर्ष की अवस्था में संवत् १९२० के लगभग आपका देहान्त हुआ था। 'मंगलगीता' आपकी प्रसिद्ध पुस्तक है। आपके अनुयायी उसका पाठ करते हैं। लोगों का विश्वास है कि आपकी 'संकटमोचनों' पुस्तक के पाठ से सब प्रकार के संकट दूर हो जाते है।
कहीं-कहीं आपकी रचनाओं में कबीर की छाप मिलती है। आपने अपनी 'ककहरा' पुस्तक में जो योग-सम्बन्धी बातें बताई है, उनसे पता लगता है कि आप एक सिद्ध योगी थे।
काहे मोरि सुधि बिसरवलऽ हो, बेदरदी कान्द । ऊ दिन यादि २ करऽ मनमोहन गलिअन दूध पिभवलऽ हो।
सेंदर दी कान्ह । भद्र-उद् विच तू मोहि के इललः कुपरी कंत कवलऽ हो, बेदरदी कान्ह, नृम्दावन हरिरास रचयलऽ ताँ कुलकानि मॅचयलऽ हो, बेद्रदी कान्ह । कहे 'ननिदि' सुनः करुनामय आपन बनाइ बिसरवलऽ हो, बेदरदो कान्ह।
बाबा शिवनारायण जी
बाबा शिवनारायण जी बलिया (उत्तर प्रदेश) के रहनेवाले थे। कहते हैं, आप 'ननिधिजी' के शिष्य थे और बाबा कीनाराम आपके शिष्य थे। आपने 'मंगल गीत' नामक पुस्तक लिखी थी। आप एक जमींदार के दीवान थे; बैठे-बैठे बही-खाता लिख रहे थे। एकाएक आपके मन में शान का उदय हुआ। बाबा नवनिधिदास के समान आप भी यह कहते हुए घर से निकल पड़े-
"लिखनी अब ना करवि हे भाई । मोहि राम नाम सुबि भाई ॥"
आप बहुत बड़े सिद्ध पुरुष माने जाते हैं ३। आपकी एक रचना मुझे 'झूमर-वरंग' नामक पुस्तक में मिली है, जो नीचे दी जातो है-
चलु सखि खोजि लाई निज सड्यौँ ।
पिया रहने अबहीं साथ में ऊ छोड़ि गइले कवन ठड्याँ। बेला से पूछों चमेली से पूछों मैं पूछू बम बन कोड्यों ५ ॥ ताल से पूछों वलया से पूछों, पूलू' में पोखरा कुइयाँ। सिवनारायन सखी पिया नहीं भेटें हरि खेले मन अदुरइया || १
बाबा रामायण दास
आपका गृहस्थ-जोवन का नाम पंडित संसारनाथ पाठक या । अापका जन्म-संवत् १६०७ वि० के अगइन में हुआ था। आप भारद्वाज गोत्रीय काम्यकुन्ज लाक्षया थे। श्राप के पूर्व पुरुत्र बलिया जिले के 'मुरारपाही' ग्राम में रहते थे। पर, लगभग दस-बारह पुश्त से आपके पूर्वज शादाबाद जिले के बढ़का डुमरा' नामक गाँव में रहते आये है। आपका जन्म भी उसो गाँव में हुआ।
आपके पिता पं. काशीनाथ पाठक चारा की फौजदारी कचहरी में नाजिर थे। आप छह भाई थे। बाल्यावस्था में ही आपके पिता का देहान्त हो गया। बहुत छोटी अवस्था में आपने अपनी बुद्धि का चमत्कार दिखलाया। आपकी स्मरण-शक्ति तीक्ष्य यी । अपने २५ वर्ष की अवस्था में: १६३२ विक्रमी संवत् में, नौकरी की और संवत् ५४ तक श्रारा, हजारीबाग इत्यादि जगहों में काम करते रहे। आप साधु-सन्तों की सेवा में गृहस्थ-जीवन में भी जगे रहते थे। आपने संवत् १९५५ में अपनी खुशी से पेंसन ली। छोदते समय आपने यह पद्य कहा था-
अस कीय जानि छोडल कचहरिया । 'क' से काम 'ब' से वन चिन्ता 'ह' से हरि नहीं आवे नजरिया । 'री' से रिस बिन कारन देखत यहि लागि मैं माँगनै भगरियाँ २ ।
देवीदास
आप सन्त-कवि थे। आप दुाद दास और जगजीवन दास के सम्प्रदाय के ही कवि थे और दुलह दास के शिष्य थे। इस हिसाब से ईसवी सदी १६. वीं का प्रारंभ आपका समय कहा जाता है।
धन सुमंगल भरिया आजु मोरा धन सुमंगल घरिया । भाजु मोरा अइले संत पडुनवा का ले कबि नेवतरिया ३ ।। अन, धन, वन लेइ अरपन करबो, मातल प्रेम लहरिया । आज मोरा देवीदास बरन लिनि दुलन दास गोसाई आजु मोरा घन सुमंगल बरिया ॥ पठवों सब रंग लाली जुनरिया । जगजीवन मातेले प्रेम धनि सुमंगल लहरिया || बरिया । आज मेरी पद मंगलमय बड़ी घन है। आज मेरे यहाँ संत पाहुन के रूप में आये है। मैं उनका स्वागत क्या लेकर करूंगा। मैं अन्न, घन, तन, अर्पण करके और प्रेम की लहर में मस्त होकर स्वागत करूंगा। देवीदास कहते हैं कि अक्छर (प्रेम-पत्र )
लिखकर प्रीतम के पास मेजू गा कि मेरी आत्मा पूर्ण अनुरक्त हो गई है। दुल्लह दास और
जगजीवन दास से दीक्षा प्राप्त करक में ईश्वर प्रेम की लहर में उन्मत्त हो उठा हूँ।