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सुवचन दासी

9 December 2023

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अपकी गणना संत-कांर्यात्रयों में है। आप बलिया जिलान्तर्गत डेइना-निवासी मुंशी दलसिगार काल को पुत्री थी और संवत् १६२८ में पैदा हुई थी। इतनी भोली-भाली यी कि बचपन में आपको लोग 'बउर्रानिया' कदते थे। १४ वर्ष की अवस्था में आपका विवाइ बलिया-निवासी मुथी दुगनांकशारलाल से हुआ। व सरकारी नोकर थे। 

आप तपस्विनी थीं। लगभग १० वर्ष की अवस्था में आपने हीरादास नामक एक नानकपंथो साधु से दीचा ली। तभी से आपका मन संसार से विरक्त हो गया। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी आप योग को क्रियाओं में प्रवृत्त रहने लगीं।

संवत् १६८६ वि० में आप स्थायी रूप से बालापुर (गाजीपुर) में निवास करती थीं। साधु-सन्तों में पूर्ण प्रेम रखती थी।

आपके मजनों का संग्रह 'प्रेम-तरंगिनी' नाम से पाँच भागों में प्रकाशित है। आपको रचनाओं में शब्द-लालित्य नहीं है; किन्तु भाव अच्छे है। सोहर, लावनी, बॅतसार आदि गोतों में आपने अपने अनुभवों को आध्यात्मिक ढंग से प्रकाशत करने का प्रयत्न किया है।

तम चुनरी के दाग छोड़ाऊ घोबिया ॥ टेक ॥ सख चौरासी भूमिल चुनरिया, अबकी दाग छोड़ाऊ भोदिया ॥ सत गुरु कुंडिया में सउनन होई प्रेम-सिक्षा पढ़काऊ घोबिया ।। सान्ति-सरोवर शन में भोवा दे नाम के साबुन लगाऊ धोबिया ।। तनमन धन ह९ छाक धोबिया के स्वेत चुनरिया पेन्हाऊ धोबिया ।। 'सुवचन दासी' पुनर पेन्धि बइठस्ती हरि बोलीं गोद लगाय भोबिया ।।१।।

तन-रूपी चुनरी का हाग (पाप) हे बोनी (पाप घोनेवाले परमात्मा ) । चौरासी बाख योनियों में भ्रमण करते-करते मह शरीर रूपी चुनरी भूमिल हो गई है। हे बोनी, इस बार इसका दाग छोड़ा हो। सतगुरु-रूपी कुंडी में इस शरीर रूपी कपड़े को भोने के लिए भिगो कर और प्रेम-रूपी पाट पर पटक कर साफ कर, तब इस शरीर-रूपी कपड़े को शान्ति-सरोवर में नाम जप-रूपो साबुन लगाकर घो दो। उसके लिए मेरा तन, मन, बन निछावर है। निष्कलंक शरीर रूपी श्वेत चुनरी मुझे पहनाओ। सुषचन दाम्रो जव ऐसी चुनरी पहन कर बैठो, तब हरि ने उसे गोद में बिठा लिया।

राम मदारी

आप शादाबाद जिले के कवि थे। आपके जन्म स्थान का ठीक पता नहीं चला। आपके गीत थाहाबाद में गाये जाते हैं। आपका समय १६ वीं सदी का मध्यकाल है। मिवर्डन साहब ने अपने भोजपुरी व्याकरण में आपका निम्नलिखित अंतसार गीव उत किया है-

पिया बटिया जोहत दिन गैखों । तोरि खबरिया न पाइलों ॥

केसिया अपने गुधाइला ।

भराइक्षा ।

पिया के सुरतिमा त्रियरा हमार साइला । नैन नीरवा दरि गैलो ॥१॥

बाम्हना के बेटा बोलाइद्धा ।

पोथिया एकर खोक्षाइला ।।

साँचे सगुन सुनाइला ।

पिया नहस्ते आइक्षा ।।

जोबन हमार बद मैन ॥२॥

नौभा के छोकडा बोक्षाइला ।

पुरुब देसवा पठाइका ।।

उत्तर भइके आवेला ।

दखिन सुरत लगवलों || पच्छिम घरे घरे बलों ॥३॥

गुरु हुकुम मनाइक्षा ।

साजन घरवा भाइक्षा ।

सुब सुब भोज बनाइला ।

साजन के क्षेाइला ॥

राम मदारी गाइता ।

लोगन के सुनाइला । ॥

दुसमन सार अरि गैलो ॥५॥

अरे प्रीतम, तुम्हारी बाट जोहते जोहते दिन बीतता जा रहा है; कुछ नहीं मिल रही है। मैं अपना केश गुयाती हूँ और माँग में तुम्हारी सुरांत मन में आती है। उससे हृदय मेरा विष जाता है गिर पड़ते है ।।१।। परन्तु तुम्हारी खबर सिन्दूर भराती हूँ। और नेत्रो से आँसु

ब्राह्मण के पुत्र को बुलाती है। उससे पोथी खुलवा कर तुम्हारे आगमन का सगुन निकलवाती हूँ। यह सच्चा-सच्चा सगुन सुना देता है। हे पिया, तुम नहीं आते हो। यहाँ मेरी जवानी आ गई। ॥२॥

मैं नापित-पुत्र को बुलाती हूँ। उसे तुम्हें दूदने के लिए पूर्व-देश मेजती है। वह पूर्व में खोजकर उत्तर देश भी होता हुआ लौट आता है। तब दक्षिण देश में सुरति (ध्यान) लगती है। पश्चिम का तो घर-घर दू द ही बाला ॥१।।

गुरु के हुक्म को मानती हूँ। साजन पर आते हैं। मैं दिया भोजन बनाती हूँ और तुमको गेंवाती है। 'राम मदारी' गात गात है और लागों का सुनाते हैं। मेरे इस धीमाध्य को देखकर हुश्मन सारे (चाला) मर रहे है ||४|| 

सरभंग-सम्प्रदाय के कवि

उत्तर-बिहार के चम्पारन जिले में 'सरभंग' नामक एक तांत्रिक सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाब के अनुयायो अभक्ष्य वस्तुओं का मी मक्षण करते ।। बनारस जिले में भी इस सम्प्रदाय के मठ है। इस सम्प्रदाय में अनेक सन्त-कवि हो गये है, जिन्होंने अनेक रचनाएँ मोजपुरी में की है। चम्पारन के लोक-साहित्य मर्मज्ञ विद्वान् पं० गणेश चौबे का कहना है कि इन कवियों के असंख्य गीत लोक-करठ में आज भी बसे हुए है। नीचे सरसंगी कवियों का परिचय दिया जा रहा है-

१- भीखम राम

भोखम राम ग्राम माधोपुर (पाना मोतिहारी, जिला चम्पारन ) के निवासी थे। आप टेकमन राम कवि के गुरु थे। आपके समय का ठीक अन्दाज नहीं लग सका है। कविताएँ भी अधिक न मिल सकीं। आपका एक पद यहाँ दिया जाता है-

हंसा करना नेवास, अमरपुर में। चलै ना चरखा, बोले ना वॉती अमर चीर पेन्डे बहु भाँती ॥हंसा०॥ गगन ना गरजै, छुए ना पानी अद्भुत जलवा सहज भरि श्रनी ॥हंसा०॥ सुख नाहीं लागे, ना लागे पियासा; अमृत भोजन करे सुख बासा । हंसा० नाथ भीखम गुरु सबद विवेका। जो नर जपे सतगुरु उपदेसा ॥हंसा०॥

हे इंस (जीव), तुम अमरपुर (परमधाम) में निवास क्यों नहीं करते। वहाँ (जीवन का) चरखा नहीं चलता और धुनका (मृत्यु) की ताँत नहीं बोलती है। वहाँ तो सभो अमरता के चीर अनेकानेक तरह के धारण किये रहते है। हे इंस, उस अमरपुर में आकाश का गर्जन तथा मेघ. की वर्षा नहीं होती। वहाँ अमृत का जल सहज हो भरकर लाया जाता है। अरे इंस, वाँ तो भूख नहीं लगती और न प्यास सताती है। वहाँ दिन- रात अमृत का भोजन किया करो और सुख-सम्पन्न निवास में रहा करो। भीखमराम कहते है कि गुरु का शब्द ही विषेक है। जो उसको जपता है, वही सतगुरु का उपदेश देता है।

१- टेकमन राम्र

आप भीखम राम्र के शिष्य थे। समय का अन्दाज या रचनाओं का पता नहीं लगा है। आप फखरा ग्राम (थाना मोतिहारी, चम्पारन के निवासी थे। आप इस सम्प्रदाय के प्रमुख कवि थे। यापकी प्राप्त रचनाएँ नं.चे दी जाती है- 

समधिन ! भने हो भले, बिधहत बाद की कुर। सम० !

माता होई तुहु जग प्रतिपललू, भने हो भने० ।

जोइया होइ धन खालू। समधिन ! •

के कई होई दसरथ के ठगलू, भले हो भले ० रामजी के देलू बनबास । रुमधिन !० सीता होई रवनयो के ठगलू, भले हो भने० लंका गढ़ कइलू उसार, समधिन ! सिरी टेकमन राम निरगुन गावेले, भले हो भने० राम भीखम संगे साथ । समधिन० ! हे समधिन, (माया) तुम बढ़ी नेक हो। यह तो बताओ, तुम ब्याही दो अथवा अभी क्वाँरी हो। माता बनकर तो तुम जगत् का प्रतिपालन करती हो और पत्नी बनकर घन खाती हो। कैकेयी बनकर तो तुमने दशरथ को ठगा और रामलो को बनवास दिया । फिर सीता बनकर तुम्ने रावण को ठगा और लंका के गढ़ का सत्यानाश किया। भी टेकमन राम बहते हैं कि में भीखमराम के संग निगुण गाता हूँ। कवि ने समाधन का अर्थ माया माना है।

(२)

संत से अन्तर ना हो नारद जी ! सन्त से अन्तर ना० । भजन करे से बेटा हमारा स्यान रहनी रहे से गुरु हमारा, हम अंत जेवके तथही में जेइजे संत जिन मोरा संत के निन्दा कइले वाही पड़े से नाती । रहनी के साथी । सोए हम जागी । कास्त होइ लागी किश्वनिया से बीस रहीले नेहुआ से हम तीस । भजनानंद का हिरदा में रहिले सत का घर शीश संतन मोरा अदल सरोरा हम संखन के जीव । सब संतन से हम रमी रहीले जइसे मखन के भीब । श्री टेकमन महराज भीत्रम स्वामा अइसे मखन के श्रीव ॥

भशवान देवर्षि नारद से कह रहे है। हे नारद । सन्त से मेरा कोई अन्तर (भेद) नहीं है। जो मेरा भजन करता है, वह मेरा पुत्र है और जो शान पढ़ता है, बह पौत्र (अत्यन्त धारा) है। हे नारद, जो रहन (अच्छी चाल-चलन) से रहता (सदाचारी) है, वह मेरा गुरु है। में सदाचार का साथी हूँ। संतो को भोजन कराकर ही में भोजन करता हूँ और जय संत श्रोता है, तब में जगकर उनका पहरा देता हूँ। जो मेरे भक्त सन्तों की निन्दा करते हैं, उनका में महाकाल हूँ। कीर्तन करनेवालों से मैं सदा बोस। प्रसन) रहता है और नेह करनेवालों (भक्तों) से 'तीस' अर्थात् उससे भी अधिक प्रेम करता हूँ। मैं मानन्द से भजन करनेवालों के हृदय में रहता हूँ जाँ सत्य का बोलबाला रहता है, वहाँ में सदा उपस्थित रहता हूँ। संत मेरे शरीर है और मैं सन्तों का जीव हूँ। मैं सन्त बैसा ही रमकर रहता हूँ जिस तरह मक्खन में पी रहता है। टेकमन कवि कहते हैं कि मैं

और महाराज भीखम स्वामी वैसा ही मिला हुआ हूँ जैसे मक्खन का भी अर्थात् मैं उनका अनन्य भक्त है। कुलवा में दगवा बचहद्द हे सोहागिनि ! ऊँख से गुब, गुब से चीनी, मिसरी बनके रहिहऽ हे सोहागिनि । सीरी टेकमन राम दयाकर सतगुरु के, जगवा से नतवा लगइहड हे सोहागिनि ॥

दूध से दही, दही से मास्खन, घीउचा बनके रहिहऽ हे सोहागिनि ।

अरी सुदागिन, (भक्त की आत्मा) अपने कुल में दाग लगने से बचाना। दूध से दही और वहीं से मक्खन और मक्खन से घी बनकर रहना अर्थात् दिन-दिन साघना में उन्नति करते जाना। अपने को स्वच्छ बनाती (निखारती) जाना। श्ररी सुद्दागिन, ऊख से गुड़ बन जाना, फिर गुद से चीनी बनना और चीनी से मिश्री की तरह अपने को स्वच्छ बना लेना। श्री टेकमन राम कहते हैं कि दे मुद्दागिन, सत गुरु की दया का स्मरण करते हुए मृत्यु से रिश्ता जोड़ना।

बिना भजन भगवान राम बिनु के वरिर्दे भवसागर । पुरइन पात रहे जल मोतर करत पसारा हो । बुन्द परे जापर ठहरत नाहीं दरकि जात जइसे पारा हो । तिरिया एक रहे पतिवरता पतिबचन आयु तरे पति को तारे सारे कुल नहीं टारा हो । परिवारा हो । सुरमा एक रहे रन भीतर पिछा पशु ना धारा हो। जाके सरतिया हव लड़ने में, प्रेम मगन ललकारा हो। लोभ मोह के नदी बहत या लछ चौरासी धारा हो । सीरी टेकमन महराज भीखम सामी कोई उत्तरे संत सुजाना हो ।

बिना राम-भजन की सहायता के, इव भव-सागर को कौन तर सकता है। यद्यपि पुरइन का पत्र जल में फैला रहता है तथापि उसपर जब जल की बंद पढ़ती है तब पारे की तरह ढरक कर गिर जातो है। (उसी तरह से रे मन । अपनेको तुम इस संधार में निलिस रखो।) एक स्त्री जो पतिनता होती है और अपने पति के बचन को नहीं टालतो वह स्वयं तो तर ही जाती है पति को भी तारती है और कुलपरिवार को भी तार देती है। (अरे मन, तुम भी वैसा ही हरिभजन में लवलीन हो जाश्रो)। रण में एक सूरमा होता है जो पीछे पग नहीं रखता और जिसका सारा ध्यान लड़ने के लिए प्रेम-मग्न होकर ललकारता रहता है। (अरे मन, तू भी उसी रथा-चाँकुरे की तरह भगवद्-भजन में लगा रह)। इस संसार में लोभ और मोइ की नदी बह रही है। चौरासी लच योनियों की भारा उस लोभ-मोह की नदी में प्रवाहित हो रही है। महाराज भीखम स्वामी के शिष्य श्री टेकमन कहते हैं कि बिरला ही कोई सुजान (शानी) उस नदो को पार करता है ।

३- स्वामी भिनक रामजी

संत कवि मिनक रामजी चम्पारन जिले के थे। आपका जन्म-समय, स्थान, रचना- कान भादि शात नहीं है। कुछ रचनाओं के उदाहरण --

(1) भागि लागे बनवा जरे परबतवा,

मोरे लखे हो साजन रे नइहरवा । आवऽ भावऽ बभना बहुदु मोरा अंगना, सोचि देहु ना मोरा गुरु के अवनबा ||

जिम्हि सोचिर्दे मोरा गुरु के अवनबा, तिन्हे देवों ना साजन ग्यान के रतनवा ॥

नैना भरि कजरा जिलार भरि सेनुरा, मोरा लोने सतगुरु भइले निरमोहिया ॥ सिरी भिनक राम स्वामी गावल निरगुनवा, धाइ धरवों हो साधु लोग के सरनवा ॥

वन में आग लगी हुई है, पर्वत जल रहा है। (संसार में बासनाश्रओं की आग लगी है और बड़े-बड़े घीर पुरुष जल रहे हैं।) परन्तु हे साजन, मेरे लिए तो मानों मेरा मायका (शान चाम) ही जल रहा है। हे नाह्मण देव, आओ, इधर आओ, मेरे आँगन में टुक बैठ जाओ। मेरे गुरु कब आयेंगे, इसको सोचकर जरा बतला दो। अरे ! जो मेरे गुरु की श्रागमन-तिथि को बतायेगा, उसको मैं शान-रूपी रत्न प्रदान करूंगा। नेत्रभर काजल श्रऔर मांग भर सिन्दूर रहते भी मेरे लिए मेरे सतगुरु निर्मोही बन गये। वे मेरी सुधि दी नहीं लेते। भी भिनक राम स्वामी निर्गुण गाते है और कहते हैं कि मैं दौड़कर साधु लोगों की शरण पकडू गा ।

(२)

केंद्र ना जाइ अंग साथी बन्दे ! केऊ ना० ॥ जइसे सती हँसकर बन्छे ! ऊ काया जल जाती । दिन चार राम के भजिले बान्ह का के जबऽ गाँठी || भाई-भतीजा हितमिल के बहडे घोड़ी बेटा बोही नाती । अंत काल के काम ना अइहें समुझि समुझि फाटी छाती ॥ कम्गुराजा के पेश्रादा जब प्राण निकल बाहर हो अड्ने आइ रोक पॅट-छाती । गइले तन मिल गैले माँटी ॥ 

खाइल पीअल मोग बिद्धासच ई न बात संघ सा। सिरी भिनकराम क्ष्या सतगुरु के सतगुरु कहचे साँची ॥

अरे बन्दे (सेवक), तुम्हारे साथ कोई नहीं जायगा। जिस तरह सती हूँस कर (पति के शव के साथ) चली जाती है और काया जला देतो है, वैसे ही तुम भी हंस कर राम का भजन कर ले। संसार से चलते समय तू गाँठ बाँध कर क्या ले जायेगा। माई-भतीजा, सच दिल-मिल कर तुम्हारे साथ बैठेंगे। कोई अपने को बेटा करेगा और कोई नावी बतायेगा। परन्तु, अन्त काल में कोई काम नहीं आयेगा। तब इसको समझ समझ कर तुम्हारी छाती पश्चात्ताप की वेदना से फटने लगेगी। जब यमराज का प्यादा आया, और तुम्हारे कंठ और छाती को अवरुद्ध कर दिया तब तुम्हारा प्राण निकल कर बाहर हो गया और शरीर मिट्टी से मिल गया। श्री भिनक राम कहते हैं कि गुरु ने कहा या (कि गुरु की दया हो सब कुछ है), वह सत्य निकला।

(1)

पिअवा मिलन कठिनाई रे सक्षिया । पिश्रवा मिलन के चलती सोहागिनि धइले जोगिनीया के. मेसवा हो । रहली रॉब भइलो पहवाती सेतुरा नलिव पूह दुलहा के रूप ना देखत दुलहिन चलत सिरी भिनक राम दया सतगुरु के चरण चित सोहाई ॥ लजाई । लाई ॥ त्रिकुटी घाट बाट ना सूझे मोरा कुते चदल ना जाई ॥ श्ररी सखि । प्रियतम से मिलने में बढ़ी कठिनाई है। देखो न जोगिन का वेश धारण करके सुहागिन पिया से मिलने के लिए चली। पहले यह चाँ रॉक थी, परन्तु अन एहवाती (सधवा) हो गई है। उसके माथे पर सिन्दूर कितना सुन्दर मालूम होता है। अभी उसने इस दुलहे का रूप नहीं देखा है, इससे वह लजा-लजा कर चल रही है। श्री मिनक राम कहते हैं कि सतगुरु की दया से में उनके चरणों में वित्त लगा पाया हूँ। अब इस त्रिकुटी रूपी बाट पर पहुंचकर बाट नहीं सूझती। हे गुरु। मुझे अपने बल से इस घाट पर चढ़ा नहीं जायगा ? दया करो कि चढ़ जाऊ ।

() बटिया जोड़ते दिन रतिया बीती गइले । राम सुरतिया देखि के ना सतगुरु नैनवा क्षोभवने । तेजीं नह‌कुलछ लोगवा सासुर राम जोगिनिया बन के मा। कइली अपना साधु के संघतवा । सिरी भिनक राम स्वामी गावचे निरगुनिया। राम दरदिया भइने हो सतगुरु रवरा भेजुना कहरीमा ।

विरही मक्त विरह से ब्याकुल हो प्रभु से अपना सन्देश सुना रहा है। सीभी-सादी बातें हैं। सहज रूप से जो भावना उठती है, उसी को वह बिना किसी आडम्बर के प्रभु के सामने रख देता है। कहता है- हे प्रभु, बाद बोइते-बोइते रात-दिन दोनों न्बतीत हो गये; पर तुम नहीं आंबे । हे राम, तुम्हारो मूत्ति को दिखा कर सत गुरु जो ने मेरे नेत्रों को लुभा लिया। मैं सनुरात जाने के लिए जोगिन का वेश बनाया और अपने मायके के लच्च-लक्ष लोगों का परित्याग कर दिया। साधुओं की संगति की। परन्तु हे प्रभु, रात-दिन (यानी जवानी ओर बुढ़ापा ) दोनों व्यतीत हो गये और तुम अच तक नहीं आये। श्री भिनक राम स्वामी निर्गुण गाते हैं और कहते हैं कि विरहिणो कहती है कि मेरे हृदय में असह्य वेदना दो रही है; हे सतगुरु ! आप पालकी-कदार मेज दूँ कि में जल्द चली श्राऊ । हे नाथ, बाट जोहते-ही-जोहते रात-दिन दोनों व्यतीत हो गये ।

हचर बाबा

आप चम्पारन जिले के संत-कवि थे। आपका समय १६वीं सदी का प्रारंभ या १८८ वीं का अन्त माना जाता है। आपको एक रचना' नीचे दी जाती है। आप कचीर- पंथी सम्प्रदाय के थे ।

देखीं में ए सजनिया सइयाँ अनमोल के। दसो दुअरिया, जागे केबबिया मारे सबद का जोर से सून भवन में पिया निरेखो नयनवा दुनू जोर के । छत्तर निज पति मिलनड भर कोर के ||

अरो सजनी, मैंने अपने अनमोल सैर्षों को देख लिया। दसो दरवाजों में किवाद लगे हुए है। उनपर अनहद शब्द के धक्के जोरों से पढ़ रहे हैं। सुने भवन में अपने सैयाँ को, ध्यानमझ हो. जी-मर देखा। 'छत्तर' कहते हैं कि अहा! मेरा पति मेरी गोद में भरपूर मिला, अर्थात् मैंने अपने पति का जा-भर के श्रालिंगन किया ।

श्री जोगेश्वर दास 'परमहंस'

झापका जन्म-स्थान चम्पारन जिले के 'मधुवन' थाने का 'रूपवलिया मठ' है अ।पकी रचनाएँ बहुत प्रौढ़ और सुन्दर होती थीं। कक्ष जाता है कि ज्ञापने एक हजार पदों की रचना की थी। आप १६वीं सदी के अन्त में हुए। चम्पारन में आप परमहंस जोगेश्वर दास के नाम से विख्यात है।

हृटन पंचरंगी पिंजरवा हो, सुगना ऊबल सुगनू रहने पिंजरवा हो, सोना थरनि न सड़त पिंजरवा खाली हो, सब देखि के दुसो दरवजया जकरिया हो, क्षगजे रह कगन दुआर होइ भगते हो, तनिको ना जाय । जाय ॥ बेराय ॥ १ ।। टूरख० ॥ जाय । बुझाय ॥ २ ॥ टूटस्त० ॥ सभीगी भइले निरक्ष्या हो, अवघट ने जाय। सारा रचि धरत पिंजरथा हो, यो में अगिनी खगाय ॥ ३ ॥ 

सिरी जोगेसर दास काया पिंजरा हो, नित चलन लगाय । सेडु परने मरघटिया हो, ओ में अगिन बह‌काय ॥ ४ ॥ टूटा ||

शरीर की क्षणभंगुरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है- अरे, पंचरंगी (पाँच तत्त्ववाला) पिजरा (शरीर) टूट गया। उससे निकलकर मुरगा (जीब) भागा जा रहा है। जब सुग्गा, पिंजरे में रहता या तर शोमा का वर्णन नहीं किया जा सकता था; किन्तु उसके उड़ते हो पिजरा खाली हो गया और सब लोग उसे देखकर डरते हैं। दसो दरवाजों में जंजीर लगी ही रह गई। कहीं खुला नहीं। किस द्वार से होकर सुग्गा उड़ गया, यह शात नहीं हो सका। अरे, सभी हित-मित्र निर्देय बन गये। उष्ठ पिंजरे को उठाकर वे श्मशान भूमि की ओर ले चले। वहाँ सारा (चिता) को रच-रखकर लोगों ने बनाया और फिर उसमें आग लगा दी। श्री जोगेश्वर दास कहते हैं कि मैं भी अपनी जिस काया-रूपी पिजरे को नित्य धारण किये फिर रहा था, वह आज मरर्पोटया ( श्मशान भूमि) में पड़ा हुआ है और उसमें अभि घधक रही है। इसमें मरया-काल का भयानक दृश्य चित्रित है, जिससे विराग उत्पन्न होता है।

केसोदास जी

केसोदास सन्त-कवि थे। आप चम्पारन जिले के मोतिहारी थाने के 'पण्डितपुर' ग्राम के निवासी थे। आपका मठ बेलबनिया ग्राम ( याना मोतिहारी) में है। आप कबीरपंथी साधु थे। पूर्वोक्त छत्तररामजो कवि आपके गुरु थे। आपकी मृत्यु लगभग ५० वर्ष पहले हुई होगी। आपका जन्म-काल १८८४० ई० के लगभग माना जाता है। आपके पद सुन्दर और गम्भीरतापूर्ण होते थे।

(1)

भावे नाहीं मोहि भवनवाँ । हो रामा, बिदेस गवनवाँ || १|| जो एह मास निरासं मिखन मैने । सुन्दर प्रान गवनवाँ ॥२॥ केलो दास गावे निरगुनवाँ

ढादि गोरी करें गुनवनवाँ ॥३॥

अरे, मुझे भवन नहीं भाता। मेरे प्रीतम का विदेश गमन हुआ है। जो इस मास में भी निराशा ही से मिलन हुआ (आशा-पूचि नहीं हुई), तो निश्चय ये सुन्दर प्राय्या निकल जायेंगे। फेसोदास निरगुन गा रहे हैं और गोरी एसबी-लदी गुनावन (सोच) कर रही है। 

आजु मोरा गुरु के अवनों। जब में सुनीं गुरु के अवनों, चंदन लिपद्धों रे अंगनवाँ । गगन-मंडल से गुरु मोरा अइते, याजे अनहद निस्रनयाँ ॥ सिरी पंडितपुरवा में मोरा गुरु गदिया उतरावेक्षा हो रामा ॥ आजु मोरा०|| अरे, आज मेरे गुरु का श्रागमन है। जब मैंने अपने गुरु का आना सुना तब चन्दन से श्रआँगन को लिपवा लिया। गगन-मंडल से मेरे गुरु आये और अनहद शब्द का धौंसा ( निखनाँ) बजने लगा। श्री पण्डितपुर में गुरु आज अपनी गादी उतार रहे हैं, मेरे गुरु का आज आगमन हो रहा है।

(३)

सुधि कर मन बालेपनवा के बतिया ।

दसो दिसा के गम जब नाहीं, संकट रहे दिन रतिया ।

बार बार हरि से कौल कइबड, बसुधा में करबि भगतिया ॥ बालापन बालहिं में बीतल, तरुनी करके छतिया । काम कोच दसो इन्द्री जागल, ना सूके जतिया ना पतिया ।। अन्त काज में समुझी परिहें, अब अनु बेरिहें दुअरिया । देवा बेई सथे केठ हरिहें, मूठ होइहें जड़ी-बुटिया ॥ केसो दास समुझि के गावले, हरिजी से करेले मिनितिया । सामबिदारी सबेरे चेतिहऽ, अन्तऽ में केहूना संघतिया ॥ सुधि०|| अरे मन, अपनी बाल्यावस्था की बातों (गर्भाधान के समय) का स्मरण करो। जब दसो दिशाओं का गम नहीं था और जन दिन-रात संकट-दी-संकट सामने था, तब तुमने बार-चार कौल ( प्रतिशा) किया था कि बसुधा में मैं आपको भक्ति करूँगा। सो हे मन, तुम्हारा बालपन तो खिलवाद में बीत गया और जब तरुणाई आई, तब अपने शरीर के उभार में ही तुम भूल गये। काम, कोच तया दसो इन्द्रियाँ जामत हुई और जाँति-पाँति का विचार छोड़कर तुम पागल बन गये। अरे मन, अन अन्तकाल आमा, अब तुम्हें समझ पड़ेगा जब यमराज तुम्हारे घर का दरवाजा घेरेगा। अन देवता और देवो (अर्थात् ओका ई आदि) सब हार जायेंगे और सभी बड़ी-बूटियाँ भी बेकार सिद्ध होंगो। केोदाय इसको अच्चदो तरह समझ कर गा रहे है और इरिजो से विनय करते हैं। हे श्याम- निहारी (के.सोद.स का शिष्य) । सबेरे (पहले ही) से ही चेतो। अन्त में कोई तुम्हारा संगी-साथी नहीं होगा।

तोफा राय

तोफा राब सारन जिले के इयुभा-राज्य तथा अन्य राज्यों के राज-कवि थे। आप उख भाँट-वंश में उत्पन हुए थे, जिसमें बहुत अच्छे कबि आपके पूर्व भी हो गये थे। आपकी ख्याति छपरा जिले में अच्छी थी। पुरानी पीढ़ी के लोगों से आपकी रचनाएँ अधिकतर मिलीं। आप कुवरसिंह के समकालीन थे। आपने 'कुँअर-पचासा' नामक प्रन्थ भी लिखा था। जिसके बहुत-से कवित्त लोगों के कंठ से तथा कुछ लिखित भी, मुझे मिले थे। 'कुंअर पचासा' में हिन्दी और मोजपुरी दोनों में वीर-रस की कविताएँ हैं। आप बड़े अक्लब स्वमात्र के कांच ये और आवभगत में जरा भी कमी हो जाने पर तुरश्त निन्दा की रचना सुना देते थे। आप आशुकांव कहे जाते थे। अपके सम्बन्ध की अनेकानेक ऐसी घटनाएँ उस समय लोगों में प्रचालत थीं कि जिनको सुनकर आपकी प्रतिभा का पता चलता था। 'कुँअरन्यचासा' से आपको कुछ भोजपुरी घनाचरियाँ नीचे उद्‌धृत की जाती है। ये बीबीगंज (शाहाबाद) की लड़ाई के सम्बन्ध की है। बीबीगंज की लड़ाई में कुवर सिह की विजय हुई थी। उस लड़ाई में अगरेजी-सेना का कसान 'विसेंट आयर' था।

(1)

खलयल भइले तब कुँअर सिंह सेना बीच, बीबीगंज आइ आयर चागी, पर टूटलेनि न् । तोप आ बन्दूकि उगिने लाल आगि ओने से त ऐने टोंटा-हीन ही बन्दू कि लाठी बनलिनि नू ॥ भारा था गांगी के लड़ाई सब सोखि जेलसि टोटा बरुदि जे दानापुर से जवानि नू । सेनानी कुँअर त चिन्तित ना भइल रंच बंक करि नैन सेना जंगल धरवक्षनि नू ॥ बीचीगंज में कुंवर सिंह की सेना में तब खलबली मच गई जब आयर ने आकर बागियों पर हमला किया। उधर से तोपें और बन्दूकें काल आग उगलने लगी, किन्तु इस तरफ कुँअर सिद्द को सेना में टोटे-कारतूसों के अभाव के कारण बन्दूकें लाठी का काम दे रही थीं। आरा और गाँगी की लड़ाई में ही सब कारतूस, बारूद आदि समाप्त हो चुके थे। अब सिपाहियों के पास केवल कुछ तोड़ेदार देशो बन्दूकें और भाले-बरछे बदाई के लिए बच रहे थे; परन्तु इस विषम अवस्था में भी सेनानी हुँबर सिइ रंचमात्र भी चिन्तित नहीं हुए और नत्रों का इशारा करके सेना को पास के जंगल में ले गये।

(२)

एक एक पेड़ पीछे एक एक बीर ज्यान नेजा संगीन खाँदा गहि लिपि बइठल नू । दश्न-एन गोली चल्ने भाँड्-इ घहरे तोप क्रूफ पानी पदि मेघ घहरि लौका सडकक्ष नू ॥ भैल घमासान फिरंगी सेना आगे बदक्षि मार संगीन सुरु होखल नेजा बमकक्ष नू। मनि आइत रंग तब बीर कुचर गरजक्ष जब बिजली अस वरुभारि चमचमाइ तरजल नू ॥ 

सेना के जंगल में पहुँच जाने पर एक-एक पेड़ के पीछे एक-एक जवान बीर नेजा- संगीन, खाँदा श्रादि शस्त्रों के साथ छिपकर बैठ गये। उधर (अँगरेजी-सेना) से गोलियाँ दन-दन चल रही थी और घाय-धार्य करके तोपें बहर रही थी। इधर आकाश से कमा- झम पानी बरस रहा था। मेघ प्रहर रहे थे और बिजली चमक रही थी। घमासान युद्ध होने लगा और धीरे-धीरे फिरंगी सेना आगे बढ़ने लगी। संगीन की मार शुरू हो गई और माले-चरले चमकने लगे। युद्ध में उस समय रंग आ गया, जब वीर कुंवर सिंह ने ( पोड़े पर से) गरजना शुरू किया और उनकी तलवार बिजली-श्री चमचमाती हुई फिरंगियों की गरदन पर झुकने लगी।

(1)

खप्प करिअसि घुसे लोथि गोरा सिमस्त करत देखि गिरे भूमि थप्प आबर वहक्षछ नू । भूखल बाप अस बीर भोजपुरी दल पदल ललकारत हर बम्म बम्म देवता देखे लागल जोगिनी भने कहल नू ॥ जागति । गोरन के रक लाल पीके पेट भरक नू । ऊपर अकास गर्ने नीचे बीर कुँअर गर्ने गोरा फिरंग संग पावस होली खेलत नू ॥

तलवारें खप्प-खप्प करके फिरंगियों के शरीर में घुसने लगीं और थप्प-थप्प करके उनके लोग (शव) एक-पर-एक गिरने लगे। इस तरह गोरों और सिक्खों को करते देखकर अंगरेज-सेना के सेनानी आयर का दिल दहल उठा। इसी समय भूखे बाप की तरह वीर मोजपुरी दल ने ललकारते हुए तथा 'हर-हर बम-बम' कहते हुए दुगुने जोश से युद्ध शुरू किया। इस दृश्य को आकाश में देवता विमानों पर बैठकर देखने लगे और जोगिनियाँ गोरों के लाल-लाल गरम-गरम रक्त को दौड़-दौड़कर पीने लगीं तथा इतना पी चुकी कि उनके पेट भरकर फटने-फटने को हो गये। ऊपर से आकाश गरज रहा था; नीचे बोर कुँवर सिद्द गरन रहा था और फिरंगियों के साथ पावस में रक्त की होली खेल रहा था।

(8)

प्रपाप हुरी चललि लपाछप मूबी कदली टहध्ते सोनित के नदी कार बहति नू। चमकत उज्जैनी नेजा वीना दुधारी लेगा। कीर सिरोमांन केअर सेना क्षक्षकार नू ॥ इन्द्र दरे भागि मैल अमराज दौथि आइक्ष खप्पर से डाकिनी नाचे नाच रागछि न् । झूमत कुँअर बाका जैसे रन बीच जैसे कोपित सिंह दहात हाथी बुल पक्ष नु ॥ 

खपास्वप दुर्गा'ाँ चलने लगीं और ग्रुप-छुप मस्तक पद से अलग होने लगे। दहकते (चमचमात। हुआ। ताजा-ताजा) शोणित की नदो तेज धारा के साथ बढ़ने लगी। उज्जैन, जपूती रहे तथा दुध रे तेगे चमकने गे और वीर-शिरोमय कुंवर सि अपनी हेना को ललकारने लगे। ऐस भीषण युद्ध हुआ कि इन्द्र डर के मारे भाग गये ( अर्थात वर्षा न्द हो गई)। और यमराज के दूतों से जब इतना जल्दी जल्द मरत हुए पिरगियों के प्राण नीं निकल स तो स्वयं यमराज को दौड़कर आना पड़ा। (जब जोगिनियाँ रक्त पी-पांकर अधः गई और अधिक रक्त नहीं पी सकीं तब डागिनियो का नया दल खप्पर ले लेकर दौड़ पड़ा और नाच नाचकर रक्त पाने लगा इस महाबोर समाम के बोच म बाँका मरदाना कुँवर ठांक उसी तरह से झूनर.। था जिन तरह हाथयो के दल में क्रोधी सिह दहाड़ता हुआ प्रवेश करके झूमता है।

(4)

हारत देखलसि जो झायर चालाक तब पीछे मे घुमा के दुतरफी वार कैलसि नून् । जंगल के दुनो ओर जंग जुझार बिड़ल बीर सेनानी दूरों हाथ जोड़ा फेकलसि नू ॥ गजरा सुरई अस कटे लागल गोरा सिक्ख लोथि प लोथि गिरल बेरि काटि कैलसि नू । हार फिरंग होइव गोला ना सहाय होइव

अगर हरकिसुन दगा कुँअर से ना करितख नू ॥ इस भीषण युद्ध में जब चालाक आयर ने अपनी सेना को हारते देखा, तब उसने अपनी रिजर्व सेना को जंगल की दूसरी ओर घुमाकर कुँवर सिंह पर पीछे से हमला कर दिया और कुंवर सिंह को सेना पर आगे-पीछे दोनों ओर से दुतरफो बार होने लग। इस प्रकार से नब जंगल के दोनों तरफ जुझारू जंग छिन गय, तब बोर सेनानी कुँवर ने दाँत से घोड़े की रास पकड़कर अपने दोनों हाथों में लोहा (अस्त्र, तलवार, भ ला) मध्य करके वार करना शुरू किया। गाजर और मूली की तरह गोरो और क्खों के कर कटने लगे और लाश-पर-ज्ञाश गिरने लगो कुँवर ने सर काट-काट कर ढेर लगा दिया । कवि कहता है कि इस विषम परिस्थिति में भी फिरंगियों की ही हार हाती। उनके य भीषया गोले कुछ भी सहायक सिद्ध नहीं हो पाते, यदि हरकिसुन सिह ने कुँवर सिद्द से दगा न किया होता।

श्री लक्ष्मीसखी जी

लक्ष्मीसबी भोजपुरी के महाकवि थे। अपरा (बारन जिले के 'अमनौर' ग्राम में प्रापका जन्म एक कायस्थ-कुल में हुआ था। आपके पिता का नाम मुंशी जगमोहन दास या। आपकी मृत्यु संवत् १६७० में मंगलबार, १८ बैशाल को हुई यो। उस समय आपकी आयु ७० बर्ष की थी।

आप लड़कपन से ही विरक्त रहा करते थे। पढ़े-लिखे नहीं थे। सुन्दर कैयो लिख लेते थे। पहले आपका नाम लक्ष्मीदास था। आपने एक श्रऔध साधु से प्रभावित होकर औचक-पंथ अदा किया। फिर, अपने गुरु के आचरण को देखकर उनसे पृथा करने लगे। बद्दी से.भागकर टेरुक्षा (सारन) ग्राम में, थाकिग्रामी नदी के तट पर, आकर रहने लगे । यहीं आपको मृत्यु हुई।

गुरु ने कद्ध होकर आपको पकड़ लाने के लिए अपने अन्य शिष्यों को भेजा; पर के गाँववालों का विरोध कने में सफल न हा सके। टेरुआ में आपने तपस्या की। संवत् १६६२ तक आपका सिद्ध प्राप्त नहीं हो सकी थी। संवत् १८१६ ई० में, माघ मास के बृहस्पतिवार को आपको ईश्वरीय ज्योति के दर्शन हुए। उसके बाद से हो आपने भोजपुरो में रचना करनी शुरू की। उसके पहले आप कविता नहीं करते थे। श्रर कबीर, सूर और तुलसा क भजन गाया करते थे। ज्योति-प्राप्ति के बाद से कभी-कभी भोजपुरी में चन्द आप-ही-आप अपके मुख से निकल पड़ते थे। पहले तो आपने उधर ध्यान नहीं दिया; परन्तु अब रचना अधिक हाने जगा, तब आप लिखने लगे।

चार वर्ष को अवाभ में अपने चार अन्य विवध छन्दो और राग-रागिनियों में लिखे, जिनके नाम है- (१) अमर बिलास, (२ अमर फरास (३) अमर कहानी और (४) अमर सीढ़ी। इनमें कुल ३५२० छन्द है। 'अमर कहानी' में ७७५, 'अमर करास' में ६८५, 'अमर बिलास' में ८७५ और 'अमर सोदो' में ८८५ चन्द है। ये रचनाएँ अत्यन्त प्रौद और काव्यगुणों से सम्पन्न है तथा सभी मांक-मार्ग की है। आपने यथार्थ, भयानक और रोचक तीन तरह के भावों की अभिव्यक्ति की है। आपका सखी-मठ आज भी टेरुवा में भोजानकी सखी के प्रत्रन्ध में चल रहा है। आपके सबसे बड़े ष्य कामता सखा बो है, जो छपरा में सल्ली मठ स्थापित करके वहीं रहते हैं। आज भी बला-सम्पदाय में लक्ष्मी- सखी के चारों प्रन्थों को पून्' होती है। सिक्खों के 'अन्ध-स इन' की तरह इन पुण्य अन्धों को भी 'अन्यरामजा' का संशा दो गई है। और 'अन्य। मनो' के नाम से ही मठ की सारी सम्पत्ति है।

आप सली-सम्प्रदाय में एक दूसरे मत के प्रवर्तक थे। आपके सम्प्रदायवाले साबी झादि नहीं पहनते तथा खान-पान में हुआछूत का विचार नहीं रखते। आपके शिष्य 'कामता सली जी' दिगम्बर-वेश में रहते हैं। सखी-मठों में आपके ही मजनों को गा-गाकर शिष्य-यडत्री कीर्तन करती है। आपके प्रायः सभो प्रकाशित कराये जा चुके हैं। आपकी रचनाए हिन्दी के की भेया में रखी जा सकता है। अन्य भक्कां के द्वारा लयडशः अष्टछापो कावया की रचनाঙ্গা

कनार का हा अरने अन्तिम दिनों में आपने गुरु माना था। किसी पौष पूर्णिमा को अन्य समात हुआ था। आर, इससे पार-दिमा का आरक सम्प्रदाय में, महोत्सव मनाবা

जावा है। 

अष लागल है सच्ची मेज गरने चद्ध अब पिया जी के देस है।

ओहि रे देसवा में जगमग जोति, गुरुजी दिइने उपदेस है।

गगन गुफा में ऐगो सुन्दर मूरत देस्त्रत खागेला परमेस है।

रुप अनुप छबि बरनि ना जाला जनु कोटिन उगेला दिनेस है।

उगलो धाम तहाँ आठो पहरा माया-मोह फाटेला कुडेस है।

जनम-मरन कर छुटेला अनेसा जे पुरुष मिलेला अपेस है।

चारू ओर हिरा बाज के बाती इलन करेक्षा

उठेला गगन-गगन बन बोर महा भूनी अत भरेका

लक्ष्मिीसत्री के सुन्दर पियवा सुनि लेड पियवा के

मानुष अनम के चूकल पियवा फिर नहीं लगी हे

हे सखि, अब मेष गरजने लगा। चलो, इम

हमेस है।

जनेस है।

एनेस है ।

उदेस है।

पिया के देश को चलें। गुरुजी ने

उपदेश दिया कि उस देश में जगमग जगमग ब्योति सदा जलती रहती है। उस गगन-

रूपी गुफा में एक अत्यन्त सुन्दर मूत्ति है, जो देखने में परमेश्वर जान पड़ती है। उसका

रूप अनुग्म है और उसकी छवि का वर्णन करते नहीं बनता। ऐसा शात होता है. मानों

कोटि सूर्य उदित हो गये हो। वहाँ धूप आठो पहर निकली रहती है। माया मोह का

कुदरा सदा फटा रहता है। वहाँ जन्म-मरण को आशंका छूट जाती है और अवधेश पुरुष

(राम) मिल जाते है। वहाँ चारों ओर हीरा और लाल की बचियाँ सदा झिलझिल- फल-

फिल किया करती है। वहाँ आकाय में महास्वनि (की लपट) बनघोर-रूप से उठा

करती है। जलेश (इन्द्र) अमृत की वर्षा किया करते है। लक्ष्‌मीसस्खा कहते हैं कि मेरे

प्रियतम बड़े सुन्दर है। उनका सन्देश सुन लो। मनुष्य के जन्म में यदि उस प्रिय को पाने

से चूक गये, तो फिर आगे उसका पता लगना कठिन है।

(२)

सुन्दर सहज उपाय कहिजे, से करू ववन के सबसे होई रहु छोट बटिया चद्ध नवन के कई बेर आइक नियार सखिया पतिया गवन के अचकी घटल संजोग मिलि बेड्डू राधारमण से ना । ना ॥ १ ॥ ना। ना ॥ ५ ॥ माहीं छ बीतेक्षा बहार सक्षिया भादो सावन के ना। जे रह-रह उठेला झकोर आन्धी पानी पवन के ना ॥ ३ ॥ सुखसे आवेला नीन्द पिया संगे सेज फुलवन के ना। लक्ष्मिी सखिया स्वारय करी खेदु जीवन जनम-मरन के ना ॥ ४ ॥

अरी कामिनी, जी भर के कलोल कर ले। भवन की खिदकियाँ खुनी हुई है। अपनी कमर में तलवार बाँध कर निमा से मिलने को तैयारी कर। इसके लिए सुन्दर और सहज उपाय जो मैं कहता हूँ, उसे तू कर। तू सबसे अपने को छोटो बनाकर रह और नम्र होकर मार्ग चल। अरी कामिनी, बुलाने के लिए कई बार नियार (निमंत्रण) आया और गवना कराने के हेतु कई बार पाती आई। अबकी बार संयोग मिल गया है। तू राधारमण नी से मिल ले। नहीं तो हे सखि, इस सावन भादो की बहार, जो रह-रह कर श्रॉधी-पाना के रूप में प्रकट हो रही है, बोता जा रहा है। पुष्प-शय्या पर प्रोतम के संग लेटने पर मुख की निद्रा आती है। लक्ष्मः सखी कहते है, श्ररी सस्ती । अपने जीवन ओर जन्म-मरण का स्वार्थ सिद्ध कर ले।

आरती

आरती सतगुरु दीन दयाला, जेकरे पर हरेला तेकर करेला निहाला हो ॥

से महजे सहजे गगन चदि जाला, आपु-से-आपु उजे सुनेला ताजा हो ॥

()

लउकेला सगरे लाजे-लाला, जे माया के बंधन उभरी तु जाला हो । जगमग जगमग होला उजियाला दरसेला सुन्दर फरेला कपाला हो । छिमी सजी के सुन्दर पियवा उजे बिधना लिखेला मोरे माला हो ॥ आारती सत गुरु दीनदयाल का है। जिस पर बद्द ढल गई, उसी को निदाल कर दिया। वह व्यकि सहज रूप से गगन पर चढ़ जाता है और आप-से-आप उनका (अशान और मोह का) वाल। खुल बाता है। उसको सवत्र लाल-ही लाज (प्रेम का रंग) दिखलाई पढ़ता है। वहाँ जगमग जगमग उजाला ही उजाला रहता है और भाग्य का फल सुन्दर रूप ४ फलने लगता है। लक्ष्मा सखी कहते हैं कि विधि ने मेरे भाग्य में लिखा है, मरा सुन्दर प्रियतम मुझे । मलेगा । ( ४ )

जागु जागु मोरे सुरति-सोहागिन, हरि सुमिरन कर बेरा ॥ पिथवा नियोगिनो होखना जागिनी, करिते अजस्त्रकर फेरा ॥ सात सबेरी मजे लागल लगनी, करिले अमरपुर बेरा || करि बेडू सजनी सरजुग संजनी, सुन्दर खसम कर चेरा ॥ नांदमी सत्री क सुन्दर पियवा देखिने करम कर फेरा ॥ अरी मेरी सोद्दागिन सुरांत, (स्मृति) जाग, जाग, इरि का स्मरण करने (जपने) की यह बेक्षा है। अरी जोगिनी अपने प्रियतन की वियोगिनी बन कर अला प्रियतम के लिए फेर। शुरू कर इस बार सबेरे ही लम (शुभ मुहूत्र्च) आ गया है। अमरपुर (परलाक) में बेरा कर ले। श्ररी बजनी, तू सब युगी में भजन कर ले। सुन्दर पति का चेरी बन जा । लक्ष्मा सखी कहते हैं, मुझे तो सुन्दर पिया मिल गया। देखा, करम का फेर इसी को कहते है।

भजन (4)

सुजन चाहे नैया केंद्र बा सतलोक के जवैया ॥ चंदऽ ना व का करब ना अवैया, पाछे पछतैया || 

भव-जल अगम एक नाम के नैया सतगुरू मिलने खेवैया, त्रिकुटी में घाट गगन उतरैया, सखी पार मैली साइब सरनैया ||

नाविक (गुरु) यात्रियों (संसारियों को पुकार रहा है। नाव खुलना चाहती है। अरे, कोई सत् लोक को जानेवाला है। चढ़त हो तो चढ़ा, नहीं तो फिर নাৰ ( हरिनाम) आनेवाली नहीं है। फिर पछता कर क्या करोगे। इस संसार-धागर में अगम जल है। हरि नाम रूपी नौका ही एक मात्र सहारा है। अर। इस नाव को खेने वाले सत् गुरु जी मिल गये, यह नाम कमी नाव भृकुटी घाट (त्रिकुटी) पर तो लगती है; और गगन (ब्रह्मांड ) में पार उतरती है। लक्ष्मी क्षखो कहत हैं कि मैं इस नाव पर चढ़ कर मालिक की शरण में आकर भव-सागर पार कर गया।

( ६ )

बारह मासा

लागेला हिरोलवा रे अमरपुर में मूळेला चलु सखियन सुन्दर बर देखे खोलि लेडू येह पार गंगा ओह पार जमुन। बीचे बीचे धारू ओर उगेला जगमग तारा झलकेला संन रागन सुन्दर सुन्दर सुजान ॥ पेहान । भान ॥ चान । क्षक्ष्मी सखी के सुन्दर पियवा मिलि गइले पुरुष पुरान ॥ लागेला ।हरोलेवा रे अवधपुर जे मुलेला राम नरेस । चलुखी चलु अब देखन पियवा नीके तरी बाँधी बाँधी केस ॥ एक ओर सीया धनों एक ओर सखिया बीच में बड़ेला अवधेस । सोने कर बरह। रूपन कर पाटो भिलुहा कुलावे जा सेस ॥ क्षछिमी सखी के सुन्दर पियवा गुरुजी दिहले उपदेस ।

अमरपुर में हिडोला लगा हुआ है और सन्तों का समाज उसपर चढ़कर भूला भूल रहा है। हे जखयो । चलो सुन्दर बर देख आओ। अकाश का पेदान ( दकन अपात् ध्यान-पटल को खोन लो। इस पार गगा है, उस पार यमुना और बीन में सुन्दर सूख्ये है। (इदा और पिगला के बीच में शान है। चारों ओर जर मग जगमग तारे उगे हुर है और सुन्दर चन्द्रमः झलक रहा है (समा। ध-दशा में झलकनेवाले एक शपुन दीन पढ़ते है।) उसी स्थान पर लक्ष्मी सखो के सुन्दर पिया, जो पुरातन पुरुष है, मिल गये । अवघपुर में हिडोल। लगा हुआ है और राजा रामचन्द्र उसपर चढ़ मूला मूल रहे हैं। अरी सखी ! चलो पिया को देखने के लिए अच्छी तरह बालों को संवार लो। एक ओर तो सौम ग्यवत। सीता है और दूसरी ओर सखियाँ है, बीच में अवधेश राम बैठे हैं। सोने की रस्सा है, चाँदी की पटरी है और शेषनाग (लक्ष्मण) फूल। भुला रहे है। लक्ष्मी सखी के सुन्दर प्रीतम है। गुरु ने उनको ऐसा ही उपदेश दिया है। 

लागेला हिलोरवा कदम तरे गोभाजिनि करत बिहार ॥

एक ओर हम बनी एक ओर राधिका विचेविच्चे नम्दकुमार । चाह और साम घटा सक्षी गरजे कहर कहर कुहुकार ॥ बाजेला बंसी उजे बिगेला वान सागरवा पार । लक्ष्मिी स्त्री के सुन्दर पियवा के कत मिचेत्ता करतार ॥ कदम्ब के नीचे इिबोला लगा हुआ है। गोपी बिहार कर रही है। एक ओर में सुहागिन हूँ और दूसरी ओर राधिका है। बीच में नन्द के कुमार भीकृष्य हैं। अरी सकी, चारों ओर काली-काली घटाएँ गरज रही है। मेभ बरस रहा है। वंशी बजती है। बह सागर के उस पार तक अपनी तान फेंक रही है। लक्ष्मी सस्ती करते हैं कि हमारे प्रीतम तो बड़े सुन्दर है। वे कर्तार कहाँ मिलेंगे ?

(c)

नइहर. में मोरा जागेला हिरोलवा जगमग जनक फूलवार। कइसे चढ़ों क्षाज सरम कर बतिया पिया मोर भइने ससुरार ॥ एक ओर हम बनी एक ओर सखिया बीचे-बीचे सुन्दर सवार । चलु सखी चक्षु सुख करि बेडु सजनी ना व नाटक जात्रा हार ।। लङ्गिमि सखी के सुन्दर पियवा क्षेत्रित्लेड्डू अधम उधार ॥

मेरे मायके में जनक की जगमगाती फुलवारी में दिखोला लगा हुधा है। मैं वहाँ कैसे जाऊ ! लाज को बात है। मेरे पिया ससुराल आये हुए है। एक ओर में बैठती और दूसरी ओर मेरी सखियाँ बैठती है और बीच में सुन्दर पिया बैठते है। अरी सख्खी, चलो (लाज छोड़कर) इम सुख कर ले। नहीं तो इस संसार रूपी नाटक के खेज में इमारी हार होने जा रही है। लक्ष्मी सखी कहती है कि हमारे प्रीतम बड़े सुन्दर हैं। अपमों के उद्धारक उस पिया को तुम देख लो।

()

जागेला हिरोलवा गगनपुर जहुँचा मूळा सूजेबा मोरे कंत । कइसे चों लाज सरम सश्री मोरा ससुर भसुर सभ संत॥ रात कर बोलिया सुरत कर कोरिया सुम्दर बइठेला महंप । चारू ओर ए सखी अदभुत सोभा हीरा लटकेला लड़िमी सत्री के सुन्दर पियवा पुरुष मिजेला लटकत || सगवंत ॥ अगमपुर में हिडोला लगा हुआ है। जहाँ मेरे प्रियतम मूजा मूल रहे हैं। अरी सली, मैं यर्दा कैसे जाऊ? मुझे लाज लगती है। वहाँ सब संत मेरे ससुर और मसुर हूँ। मैं तो ।त रूपी बोली में सुरति की बोरी से हिंडोला लगाऊँगी, अर्थात् राव को ब्यान घर कर मूलू गौ। उसी में सुन्दर कंत लेकर बैटू गी। उसके चारों ओर अद्भुत शोभा होगी और हीरों के तमाम लटकन वहाँ लगे होंगे। लक्ष्मी सस्ती को सुन्दर पिया के रूप में परम पुरुष भगवान् मिल गये ।

(१०)

चक्ष सखी चद्ध घोचे मनवा के महती । कमी के रेहिया कयी के घइली। कवने घाट पर सठनन चितकर रेडिया सुरतकर बहली। त्रिकुटी घाट पर सउनन ब्यान के सबद से काया धोअल गइली। सहजे कपडा सफेश हो सइद्धी ॥ भइली ॥ कपडा पहिरि लक्ष्‌मी सति आनंद भइली। बोबी घरे भेज देहली नेवत कसइली ॥ सखी कहती है-'अरी सखी, चलो मन की मैल बोलें। किस चीन की रेह (सोदार मिट्टी) हांग और किसका पका होगा। किन बाट पर सउनन (सबी मिट्टी में कपड़ों को सींगोना) होगा। पहली सखो उत्तर देती है-चच की तो रेह होगी और सुरात (सुमिरन ) का बड़ा बनेगा और त्रिकुटी घाट (ध्यान) पर सौंदन होगा।' अतः दाना साखी आकर त्रिकुटी घाट पर शान के शब्दों से शरीर भोती है सहज ही उनका शरीर-रूपी वस्त्र स्वच्छ हो गया। लक्ष्मी सस्तो कहते हैं, घाए हुए स्वच्छ वरून को पहनकर हमारी सखो आनंद-मम हो उठीं। उन्होंने बोबी के घर (गुरु के घर) निमंत्रण की सुपारी मेज दी ।

(११)

मानऽ मानऽ सुगना हुकुम हजूरी ॥ वन-मन-चन सब मिलि जइहें पूरी । वृनो हाये करणे जइसन मिलिई मजूरी ॥ रती भर घाट ना होई मजूरी। एक दिन मरे के परी काटि काटि पूरी ॥ क्षक्ष्मी सनी कहे अबहूँ ले ना व अगहू आके मुँहे सुधे चेतो। पूरी ॥

कारे होता (आत्मा), तू हुजूरी (सरकारी आशा) को मान। तेरे तन, मन, बन सब एक दिन धूल में मिल जायेंगे। तू दोन हाथों से जैसा कर्म करेगा, बैसी ही मजदूरी मी तुझे मिलेगी। रक्षी-भर भी कमी-बेशी मजदूरी में नहीं होगी। एक दिन तुझे खुरी काट- काट कर (ऍकी रगढ़-रगडकर ) मरना पड़ेगा। लक्ष्मी सल्ली कहते हैं कि अनसे भी तू चेत जा; नहीं तो भमराज भाकर मुँह को खून शूर (कुचल) देगा ।

( १२ )

नागिये अबभेस ईस को अवस्ने कछु बनख झुन्दर ऐनो कुटी राध दो विद्यास बसिक्षा-इकान मॅगवाइये। नाहीं अब राममंडल में रथि रैनिया बनवाइएं ॥ चाइये। बाइये ॥

जैमें खुलि-मुति राम राम नाम गुष्यख गवाइये । जे खोआ-लांब बरफी बड्डू यद्दल-बहरुल खवाइये ।। सुद्दी नारी जूरे ताको अमृत से भासाक श्रो पोपाक खांद्धमी स्त्रि के सुन्दर राम नाम ना भजे छिनि जंगे पियवा नात सनशड्ये । बैठयाइये ॥ भरवाहये । ताको ठाइ करवा‌ये ||

यहाँ भगवान् को बढ़ई (कारीगर) के रूप में मानकर लक्ष्मो सखी ने स्तुति को है। हे अवध के मालिक ईश्वर), जागिए। अब बमूल। श्रऔर रूखानो मंगवाइए। अब तक जो कुछ नहीं बन, उसको आप अन भी बनवाइए। मेरे लिए गगनमंडल में एक सुन्दर कुटी ५वा जिए। उसमें रास-विलास करके मेरो रात्रि को सानन्द व्यतीत कराइए । उस कुटी में मुझे मूला झुलाकर राम नाम क. गुण गवाइए। खोआ, मिसरी, बरफी, बड्डू. आदि को उस कुटी म बैठे-बैठे मुझे खिभाइर। जिसको खुदी ( तण्डुल का ) नहीं जुड़ता हो उसे अमृत से ना हुआ भोजन दो।बर । वेष-भूग्रा का छीनकर उसे नग्न बैठ। इए; अथ त् उसके सभा भेद-भावो को मिटाकर अपने में मिलाइए । लक्ष्मो बली के प्रियतम ड़े सुन्दर है। हे प्रियतम, अप मुझसे पूरा नाम भरवा ली।जए; अर्थात् नाल उठव कर कवरत करा लीजिए। जो राम-नाम नहीं भजे, उसे दिन-रात हमेशा खड़ा रखने का दंब दानिज र ।

यह छन्द विशुद्ध भोजपुरी का है, परन्तु अन्त के क्रियापद हिन्दी के है।

वेगअली 'वेग'

आप बनारस के रहनेवाले मुसलमान कवि थे। आपकी लिखी एक पुस्तक 'बदमाश- दरपया' प्राप्त हुई है। यह पुस्तक कांव की प्रौढावस्था की रचना जान पड़ता है। इसलिए, अनुमान है कि वि का जन्म उन्नत्सवी सदी पूवाद्ध के अन्त में हुआ होगा। पुस्तक उदू' 'शेर' के छन्द में लिखो गई है। आद्योपान्त गजलें हैं। इसको इम

वेगझलां का भोजपुरी 'दीवान' कह ७कते है। पश्विमाय माजपुर। का शुद्ध रूप इसमें मिकता है। यह एक उब कोटि का काव्य है। लाला भगवानदीन कहा करते थे कि काव्य का बहुत भीढ़ रूप भादमाश-दरपया' में व्यक्त किया गया है। इस पुस्तक की कविता की भोजपुरी में बनारसीपन का पुट अधिक है।

आंख सुन्दर नाहीं यारन से लदावत बाटऽ । जडर क पूरी करेजवा में बजावत बाटऽ ॥१॥ 

सुरमा आँखी में नाहीं ई तू छुलावत यारऽ। बाद' दुतर्फी बिछुआरे पे चढ़ावत बारऽ ॥२॥ अत्तर देही में नाहीं तू ई लगावत यारऽ । जहर के पानी में तरुसार बुझावन बाटऽ ॥३॥ रोज कह जालऽ कि आइक्षा से आवत यादऽ । सात चौदहऽक ठेकाना तू लगावत बाटऽ ।॥४॥ सच कहऽ बूटी कहाँ छानलड सिघा राजा । श्राज कल काहे न बैठक में तू आवत यारऽ ॥५॥ तार में वृटी के मिल्लऽ कि तुम्हें ले गैली। लामे-लामे जे बहुत सान सुझावत बैंके कोदो तू करेजा पे दरलऽ ई हमनन के भक्षा काहे सुआवत बाट९ ॥६॥ बरबस । बाटऽ ॥७॥

X

भौं चूम लेइला केहू सुन्दर जे पाइला । इम ऊ हई' जे ओठे पर तरुचार खाइला ॥८॥ चूमीला माथा जुलफी क लट मुहे में नाईला । संझा सबेरे जोभी में नागिन डसाईला ॥९॥ चवाइला । डंन कैके अपने रोज त रहिला राजा' के अपने सुरमा श्री बंदिया चभाइला ||१०|| सौ सो तरे१२ के मूचे वै जोखिम उठाइला । पै राजा तूहें एक बेरी १४ देख कहली के फाहे आँखों में सुरमा हँस के कहलें छूरी के पत्थर जाइला ॥११॥ लगावलऽ ? चटाइला ॥१२॥ पुतरी मतिन रक्खब तुहें पक्षकन के भाद में। तोहरे बरे१६ हम आँखो में बैटक बनाइला ॥१३॥ हम खरमिटाव फैली हाँ रहिला चवाय के । मॅवल धरख वा दूध में खाजा तोरे पदे ॥३४|| अपने के लोई बेहलो हाँ कमरी भी बा धईल"। किनली हाँ राजा लाल दुसाला तोरे बदे ॥१५॥ अत्तर तू मल के रोज नहायत कर रजा ।

बीसन २० भरत बद्दल चा कराबार तोरे बदे ॥१६॥ 

नागिन मतिन त गाले वे जुलफी क बार बाय।

भी भी बरीनी रामचेर बिच्छी क आर बाय ॥१७।। तरुधार तीर बर्दी और अंजर क धार बाय । खूनीक इमरे ऑस्व दुरी था एक दू मिट्टी तू ओठे क रामचै तेग बहुत दिन से कटार बाय ॥१८॥ की दऽ राजा । भुखायल बादे ॥१९॥ भंगार बोरसी क बाइड बनल तू जादा में।

गरम करऽ कथी हमरो बगल सुनऽत सही ॥२०॥ जब से फंदा में तोरे जुलको के आयल बार्टी । रामथै भूल भुलैया में भुलावल बार्टी ॥२१॥

मून-मून ऑत्र तोहें देखीला राजा रामचै । न त बूटी क नसा या न उँधायल बार्टी ॥२२॥

साथ परद्धाही मतिन राजा फिरीला दिन रात । बन के पुतरी तोरे ऑखी में समायत बार्टी ॥२३॥ राजगद्दी बस हमें तेग राजा दे देलें। जब कइलें कि तोहरे हाथ बिकायल रिसी सुनी से भी तोरे बड़े बदल न दाना खात हुई औ न पोयत जल बार्टी ॥२४॥ बाटी। बार्टी ॥२५॥

कहे-सुने के ऐ संगी गुरु भयल बार्टी । ले एक पंछी के चंग पर हम चढ़ल बाटीं ॥२६॥

ऐ राजा देखीला जुलफी के जान से तोरे । छुटब न रामप्रै चिरई मतिन बझल बार्टी ॥२७॥ जेहल में तोवली हैं बेड़ी और हथकड़ा डण्डा । से तोहरे जुलफी के फंदा में हम फसल बाटीं ॥२८॥ पत्थर के पानी श्राग के बायू के सामने । जा जा के रजा मुर झुकाइला तोरे बड़े ॥२९॥

जुल्फी तू अपने हाथे में पैसे कसम ई खा । नागिन इसे हमें में कभी तोसे बल करब ॥३०॥ 

महाराज खङ्गचहादुर मल्ल

भी खङ्गवहादुर मल, राज्य मझौली (गोरखपुर) के राजा थे। आप बड़े मधुर प्रकृति के पुरुष थे। सन् १६१० ई० में इलाहावाद में जो नुमाइश हुई थी, उसी में आग लग जाने के कारण आपका स्वर्गवास वहीं हुआ। आप का उपनाम 'लाल' था। आप हिन्दी और भोजपुरी के बड़े सुन्दर कवि थे। आपने भोजपुरी में 'सुधाबू द' नामक पुस्तक कजली गीतों में लिखी है। आपकी कजलियाँ बहुत रसोत्पादक है। उनकी तारीफ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी की है। 'सुधाबू द' के सभी छन्द भोजपुरी में नहीं है, कुछ ब्रजभाषा के भी है। आपकी भोजपुरी भाषा में पछादी भोजपुरी और गोरखपुरिया अवभी का भी पुट है।

(१)

सखी । बांसे की बँसुरिया जियरा मारे रे हमार ।। नीच जाति मोहन-मुँह लागलि, बोले नाहिं संभार । लाल अधर रस पान करति है विस्त गिलति निरधार ।। सखी, बाँसे० ॥

(२)

प्यारे । धीरे से सुलाव झोंका सहक्षो न जाय ।। जसऽ जसऽ पेंग परत इत-उत सों, तस-तस जिया सहाय ।। प्यारे ! धीरे० ।।

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कैसे मूळे रे हिडोरा जिनके सैंया परदेस । औरन के संग प्रीति लगाई, घर के किछु न संदेस ।। कैसे सूबे

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तोर पिया बोले बदी बोल, मोरी ननदी ! केतनो कहीं वनिको नाहीं माने, कूटे-मूठे करेला ठठोल, मोरी ननदी । बांहि पकरि बरबस बिलमावे, लुटेला जोबन अनमोल, मोरी ननदी !

(4)

परदेसिया के प्रीत जहसे बत्रा के छौ ।। प्रीति लगा के निरणाह करत नहिं, नाइक पकरे बाँदि । जाळ चारि दिन नेह क्षगाके दाग देत जिय माहिं ।। परदेसिया ।।

(1)

अबहीं थोरी-सी मिरिया सेजिया चड़तो बेराय ।। बाँह गहत तन घर-घर कॉपे, उर पकरत घबराय । अंक लगायत लाळ बाळ, वह बार-चार बक्षस्ताय ।। अवर्दी पोरी० ॥ 

अब त छोटकी रे ननदिया कुछ तिरछाचे जागलि नैन ।। मुरि मुसकाये लागति निज सन ताकि ताकि, करे लागलि कुछ-कुछ सैन । छिपि-दिपि क्षात याल सखियन से सुने लागति रस बैन ॥ अथ त छोट०॥

(८)

पिया निरमोहिया नाहीं अवे रे भवनवाँ रामा, रहि रहि आवेला झवनवाँ २ रे हरी ! काहे मोरे अंधरा से लें जोरले रे दमनवाँ शमा, केहि कारन ले अइले गवनवाँ रे बदली जवनियों दूजे बहेला पवनवाँ तीजे जियरा मारेला सवनवाँ रे हरी ! हरी ! रामा,

(९)

आये रे सवनों नाहीं आये मन-भवनों रामा, रोहते दुखाली दूनो संखिया रे हरी ! केहू ना मिलाने उलटे मोहे समुझाने रामा, दुख नाहीं चूकें प्पारी सखिया रे हरी ! केहि बिधि जाई उदि पिया के में पाई रामा, उदलो ना जाये बिना पॅखिया रे हरी !

१०)

पिया बिनु पर्पापहा की बोली मोसे सहलो ना जाय । 'पीड कहाँ' कहि र्यले पारी एक हुन रहलो ना जाय। लाल मैलन अइसन निरमोही अब कुछ कहलो ना जाय ।। पिया बिनु पपि० ।।

(११)

मनभावन चिन रतिया सावन के भयावन भइलो ना ।। बादर गरजे जियरा लरजे, बरजे पपिहा न कोय, देया मूनी मंजिया सॉपिन-सी भयावनि भइलो ना ।। प्यारी भइली अब तो कृवरी रे सवतिया उनके लेखे, मोरी बदली जनियाँ हाय अपायन भइलो ना ।।

( १२ ) माचे दे-वे रोरिया नई-नई गोरिया,

सुहिनि मिलि गावेली फजरिया ।। 

मोहनी मुरतिया उठली दुनो छतिया, लगाये जाली बाँकी रे नजरिया ।। नाके सोहे मोतिया पहिरे धानी घोतिया, उजारी दारें लगली बजरिया ।।

(१३)

उनके मुँहों के उजेरिया देखि, चन्दा छिप छिप जाय ।। निर्राख अलक कारी घुघुरारी नागिनहू बल खाय । लाल लाला के साँहे विम्बा फत्त सुरझाय ॥ उनके मुहवों ॥

( १४ )

कलपत बीते सखी मोहे सारी रतिया, लहरी, लड़िका छयलवा तबो जागेना ।। मुहवीं में चूमों-कूमों ले-ले उनके कोरवा, लहरी अॅखिया ना खोले गरवां लागे ना ।। केतनों सिखि सिखाओं समुझाओं, तहरी कौनो विधि मुरहा रस पागे ना ।।

(१५)

कैसे में बिताओं सखी सावन के महिनों, लहरी मैया निरमोही परदेसवा ना ।। गवनवाँ ले आये मोहे घर बैठाये, लहरी, दूर्बार भइलो एही रे अँदेसवा ना ।। आपी नाही आावै पापी, भेजे नाहीं पतियश, लहरी केहू से पठावेला संदेसवा ना ॥

( १६ )

फड़कै बिजुलिया धनकै छतिया मोर अनिया तापर रिमि-झिमि बरसेला सवनवाँ रे भावे ना भवनवाँ पिय बिन भावेला झवनों सरिख कष होइहैं मोरा गवनवाँ रे केह ना सुनावे हरी ! रासा हरी ! जियरा मारे पूरवा टोपीवलबा के अवनवाँ रामा पवनवाँ रे इरी !

(१७)

चमकै रे बिजुलिया, पिया बिन कड़ कै मोरी छतिया रामा,

कल ना परेला दिन रतिया रे हरी !

हमें बिसराय भइजे, कुबरी के संघतिया १२ रामा,

आखिर तो अहिरवा के जतिया रे हरी । 

आपु नाहीं आवे पापी भेजे नाहीं पतिया रामा, कैसे के थिताचो मरसतिया रे हरी !

(e)

सोरी अॅखिया रे मशाली, भौहें चढ़ती कमान कनुना घायल इत-उस लोटें बतुना सजले परान । लाल भये कितने दीवाने वक्त अन-के-आन र तोरी अॅखिया रे नशीली भीई चढ़ती कमान ।।

पण्डित बेनीराम

श्राप काशी के रहनेवाले थे। आपका समय इरिश्वन्द्र जी के समय से कुछ ही पूर्व था। आप केवल कजली लिखा करते थे। काशी और मिर्जापुर में कजली गाने की प्रथा बहुत अधिक है और मनच्ले कवि इस छन्द में अच्छी रचनाएं करते हैं। भारतेन्दु इरिश्वन्द्र जो ने अपनी पुस्तक 'हिन्दी-भाषा' में कजलो छन्द का इतिहास लिखा है बिससे इस छन्द की प्रसिद्धि शात होती है। उन्होंने आपका भी नाम उदत करके आपकी एक कजली का उदाहरण भी दिया है, जो नीचे उद्दत है। आपका पता हमें उसी पुस्तक से लगा । आपने काफी रचनाएँ की थीं।

(1)

काहे मोरी सुचि पिसराये रे बिदेसिया ! तदपि - तदपि दिन रैना गँवायो रे काहे मोसे नेहिया लगाये रे बिदेसिया ! अपने तो कूवरी के प्रेम भुलाने रे मोह लिख जोग पठाये रे बिदेसिया ! जिन सुत्र अधर अमी रस पाये रे तिन विष पान कराये रे बिदेसिया ! करें 'बेनी राम' लगी प्रेम कटारी रे उधोजी को ज्ञान भुलाये रे बिदेसिया !

चावृ रामकृष्ण वर्मा 'बलवीर'

श्राप काशी के कवि येथे। हिन्दी (ब्रजमाषा) में आपने काफी रचनाएँ की थीं। झाप 'रक्षाकर' जी के मित्रो में थे। काथी के साप्ताहिक 'भारत-जीवन' के आप सम्पादक थे । 

सन् १८६५ ई० में आपने भोजपुरी में वेगश्रभी 'वेग' द्वारा लिखित 'बदमारा दर्पण' का सम्पादन करके प्रकाशित किया था। सन् १६०० ई. में आपने भोजपुरी में 'चिरहा-नायिका-मेद' लिखा और उसे 'भारत-जीवन-प्रे७' से प्रकाशित किया। बिरहा- नायिका मेद बहुत प्रौढ़ काव्य है। कुछ उचियाँ यहाँ दी माती है

आलम्बन विभाव

जजिया दयावे मनमथवा सतावे मोसे, एको छैन रहलो न जाय । क्षखि 'बलबिरवा' जमुनबा के तिरवा री हियरा के धिरवा नसाय ॥१॥

नायिका

रूपवा के भरवा व गोरी से पयरवार रे सोझा चरल नाहीं जाय । लचि-जचि जाला देया गोरी की कमरिया, जोवनदों के बोझवा दबाय ॥२॥ तसवा की सरिया में सोने के किनरिया उजरिया करत मुख जोति । अगर बगर जर तरवा लगल बद जोबना उलहिया री नवकी दुलहिया हो गोरा चकवा सरिस तोश जोयना लसत देह, दिपै गोरिया छबीली तोरी अँखिया रसीली भोरी मुख चंदवा बिमल दोउ जोबना-क्रमल 'बलविश्वा' के जियश-ररान ॥५॥ अगर-मगर दुति होति ॥३॥ गोरा गोरी तोरा गाल । मानो सोना के मसाल ॥४॥ बतिया रंगीली रसखान ।

आज बरसाइत रगरवा मचाओ जिन नहके १३ झगरवा उठाव । अपनो ही बरवा 3 मैं पूजी 'बलविरवा' पीपरवा १४ पूजन तूही जाव ॥६॥

स्वकीया

(मुग्धा) अज्ञात यौवना

तैहूँ न बतावे गोइयाँ कूडै भरमाचे काहे सवती के मुहयाँ नराज । मोरी बुतिया पै बरवा सुख 'बलबिरवा' री अँखिया सुंदत केहि काज ॥७॥ भर-भर आवे मोरी अँखिया न जानू काहे, देखे के जागज यद चाव। भोडू मोहे छिप छिप सजनी निहारे 'बलबिरवा' के मतवा बताव ॥८|| बईद- इकीमवा बुलाओ कोह गुइयाँ, कोई लेयो री खबरिया मोर ।

बिरकी से खिरकी ज्यों फिरकी फिरत दुभो, पिरकी उठल बचे जोर ॥९॥ अर्थात् - अरी सली, तू भी नहीं बताती। तू भी मुझे झूठे ही बहला रही है। मेरी सौत का मुख श्राज उदास क्यों है। भाज क्यों मेरी छाती पर हाथ रखकर सुख से किस काम के लिए बलवीर प्रीतम आँखें मूंद देते थे ? मेरी आँखें श्राज भी भर आतो है। मैं नहीं जानती कि क्यों उसे देखने के लिए चढ़ा चाव हो रहा है। वे भी छिप छिप- कर मुकको निहार रहे हैं। री सखी, उम्र बनबोर का मेरे साथ क्या रिश्ता है, चताओ । अरी रात्री, किसी वैद्य इकोम को बुला ले आओ, जो मेरी खबर ले। मुझे दो पिर की ( दो कुन) बड़े जोर की उठ श्राई है। मैं इस खिड़की से उस खिड़की तक फिरकी को तरह ( छटपटाकर) दौड़ा करती हूँ।

ज्ञात यौवना

हथ-गोदवार के ललिया निरख के छविलिया मगन होली मनवों मेंझार । हरी-हरी जोबना निहारे दरपनवों में बेरि बेरि श्रेचरा उधार ॥१०॥ उडलें जोवनवाँ नैहर के भवगयाँ गवनत्रों भयत दिन चार । भावे नादीं गोरिया के गुड़िया के खेल नीक लागे बलबिरवा भतार || ११॥ फिरती रोहनियों 3 जोधनों के पनियों जवनियाँ बदल घनघोर । रोवेली सवतियश निरखि के पिरितिया, बढ़त 'बलबिरवा' के जोर ॥१२॥ तोदरी नजरिया ही माण पिपरिया मरिया कहेले कवि लोग। तोहरा जोबनवा त बेलवा के फल 'बलबिरवा' के थवा ही जोग ॥१३॥

नबोढ़ा

हथवा पकरि दुआओ बहियाँ जकरि पिय, सेजिया बैठावे जस लाग ५ । झटक-पटक मानो बिजुरी छडक 'बलबिरबा' के कोरवा से भाग ॥ १४॥

विश्रब्ध नवोड़ा

धुकुर-पुकुर सब अपनै छूटल अब, रसे-रसे जियरा धिरान । सेजिया के भीरी गोरी जाके देवे लागल 'थलविरवा' के हथवा में पान ॥१५॥

मध्या

बगरे सुतैलो मोरी ननदी जिडनियों वियहवल दुलहवा मैं लजाउँ। रतियां के उडै सेयाँ चोरवा की नैाँ लाजन भरतिया गरि जाउँ ॥ १६॥ तजिया की बतिया ई कैसे कहीं ऐ भीजी जे मोरे बूते कहलो न जाय । पर १२ के फगुनवाँ के सिपली चोलियवा में, असोन जोबनवा अमाय १४ ॥ १७॥ प्रतियाँ लगति रस बत्तियाँ पगति सारी रतियाँ जगति बिध केल । मैया भैया न सुदावै मनमथवा सतावै मन भावै 'बलबिश्वा' के खेल ॥१८॥

परकीया

जनम जनम कर पुनर्वा१५ के फल मोरे गडरि-गोसाइनि१६ हेरि। मध्या ! जोर करवा में माँगो इहे बवरा जे कीजे 'बलबिरवा' की चेरि ॥१९॥ 

गुप्ता परकीया

ननदी निठनियाँ रिसायें चाहे गोइयाँ मारे मोहिं ससुरा भतार । बगरे की कोटरी में सूतव न देया बहाँ, कपटेला मुसवा-बिलार ॥ २० ॥

वचनविदग्धा

सखी न सहेली में तो पड़ीं अकेली, मोरी सोने-सी इजतिया बचाव । हथगोदवा में मेंहदी लगल 'बलबीर' मोरा, गिरडलर अचरवा धरराव ३ ॥ २१ ॥

रूपगर्विता

मोरी यहियाँ बतावे 'बलबिरवा' सरोजवा, त हवा गरवा में कि न देत । जब मुँहवाँ पहला मोर चंदवा सरिस, कहु बँदवै निरखि कि न लेस ॥ २२ ॥

भावार्थ- है सखि । वह नायक, मेरी बांहों को कमलनाल कहता है तो उस को क्यों नहीं हार बनाकर अपने गले में डालता है। यह मेरे मुख को चन्द्रमा के समान कहता है तब उसने कद्दो कि चन्द्रमा को ही देख लिया करे ।

फुलिहें अनरवा सेमर कचनरवा पलसवा गुलबवा अनन्त । बिरहा क बिरवा लगायो 'बलबिरवा' सो फुलिहें जो आयो है बसंत ॥ २३ ॥ रजवा करत मोर रजवा मधुरवा में हम सब भइलों फकीर । हमरी पिरितिया निबाहे कैसे ऊधो, 'बलबिरवा की जतिया अहीर ॥ २४ ॥

प्रोपितपतिका

खंडिता

ओठवा के छोरवा कजरवा, कपोलवा प पिकवा के परली लकीर। तोरी करनी समुझ के करेजवा फटत, दपनवाँ निहारो बलबीर ॥ २५ ॥ तोरी लटपट पगिया श्री डगमग डेगिया" तू अगिया लगावे मोरे जान । जावो छावो १२ वोही गेहिया लगाबो जहाँ नेहिया, तू जावो बलबिरऊ सुजान ॥ २६ ॥

उत्कंठिता

बगरा १४ के लोगवा से झगरा भइल किधों बगरा १५ के लोगवा नराज १६ ।

सगरा रमन मोहि तकतै बितन बलबिरवा न आयल केहि काज ॥ २७ ॥ 

स्वाधीनपतिका

मुखवा निहारे तन-मन सोपे बारे चाडो हुन रहेला हजुर । अपने हाथन तोर बरवा सँवारे 'बलबिरवा' त भइल या मजूर ॥ २८ ॥ प्यारे की पियरिया जगत से नियरिया सुनरिया अनूठी तोरो चाल । गोरी तोड़ कोरवा में अपने यइसवले होला प्यारी 'बलबिरवा' निहाल ॥ २६

प्रवत्स्यत्-प्रतिका

दुखवा के बतिया नगीचको न आत्रे गुइयों हंसी-खुसी रहला हमेस । बजुभा सरकि कर-केंगना भइल सुनि प्यारे के गवनवाँ बिदेस ॥ ३० ॥

परस्पर भाग्य-वर्णन

लम्बि बनमाली सत्र तिरिया सिहाली १२ धन-धन गोरी तोहरा सोडाग। तोरी-सी पिरिया १३ के गरवा लगावै धन प्यारे 'बलबिरवा' के भाग ॥ ३१ ॥

रूपक

गोरा गोरा रंग हो भभुतवा रमीने मानो सेलो लाल ललिया लकीर । रुपवा के भित्रियापकिया में माँगे 'बलचिरवा' की अस्त्रियाँ फकीर ।। ३२ ।। झपझप झपकलीमोई मानो गोरिया री कुक-कुक करेली सलाम । (तोरे) गोडवा क पुरिया बरीनियों में पोउँ 'बलबिरवा' क अॅखिया गुलाम ॥ ३३ ॥

महाराजकुमार श्री हरिहरप्रसाद सिंह

महाराजकुमार श्रीहरिहरप्रसाद सिंह शाहाबाद जिले के दीपपुर ग्राम के निवासी थे। आप के पिना का नाम महाराजकुमार श्रीभुवनेश्वरप्रसाद सिंह था। आपका वंश परमार (গুডর্সন) गजानी का है। शाहाबाद में परमार (उज्जैन) राजरत ११ फसली में, धार नगर (उज्जैन) ने, महागज शान्तनगाह के नेतृत्व में, आये और यहाँ के चेरो और हेहेय वंशी राजाओं को परास्त करके उन्होंने अपना राज्य कायम किया। इसी वंश में आपका जन्म हुया था।

यापकी हिन्दी-रचनाएँ बहुत सुन्दर, प्रौढ़ तथा सरस होती थीं। आपने अपने अल्प जीवनकाल में ही हिन्दी की कविता की पांच पुस्तकें लिखीं, जिनकी हस्तलिखित प्रतियां मिली है। प्रथम पुस्तक 'नग्वनिम्ख' है, जिनके केवन्त तीन पृष्ठ प्राप्त हैं। दूसरी पुस्तक 'हरिहर शतक' है। इसमें १०० कविन और नवैया छन्दों में शिव-पार्वती की स्तुति है। तीसरी पुस्तक 'अस्मरनो या बिश्मरनी' है। इमक कविनों में अपने इंकार जीवन-यापन पर पश्चात्ताप है।

इस 'विस्मरनी' की एक प्रति भोजपुरी में भी है। माजूम होता है, कवि ने प्रथम भोजपुरी में मूल रचना की, फिर उसका उल्था अजभाषा में किया। चौथी पुस्तक 'अस्फुटावली' है। इसमें अम्फुट छन्दी' का संग्रह है। पांचवी पुस्तक 'षट्पदावली' है। यह अध्यात्म-विषयक है।

' हरिहरप्रसाद सिंह को एक पुत्र हुआ जिनका नाम महाराजकुमार गिरिजाप्रसाद सिंह था। वे भी भोजपुरी में ही रचनाएँ करने थे। उन्होंने प्रचलित गीतों के छन्दों में बहुत-से गीतों की रचना को थी। पर वे सब आज अप्राप्य हैं। 

हरिहरप्रसाद सिंह के अन्यों का प्रकाशन होने पर ही उन कविताओं की मरसता तथा आफ्ना प्रतिभा का पता पाठकों को लगेगा। वंश परम्परा की प्रथा के अनुसार अस्त्र-शस्त्र कला तथा पार भी सवारों यादि के याप बद प्रेमी और ज्ञाता थे। चिडिया पालने के भी थाप शांकीन थे। यापकी 'बिस्मरनी' का भोजपुरी पाठ नीचे उद्धृत किया जाता है और उसका अर्थ हिन्दी में लिखने के स्थान पर उनको ब्रजभाषावाली रचना हो, प्रत्येक छन्द के नीचे दो जायगो।

कवित्त

(1)

लवलों ना मन केहू देवन के अराधे में, सधर्ती ना मंत्र-तंत्र तीरथ ना नहीं हम, नाहीं देलों कान कबो कथा ओ पुरानन में, एको बेर रुफिके ना हरिगुन गवली हम । लेलीं ना नाम कबो ध्यान कहीं ना जाम में भी, ऐसन विधि बाम काम कवनो ना अहीं हम । एक प्रभु बरन सरोज रति पवले बिना, बिसय लुभाइ दाइ समय बितवलों हम ॥१॥

ब्रजभाषा

लायो मैं न सन कोऊ देवन के अराधन मैं, साध्यो में न मंत्र नहिं तीरथ अन्हायो में। दियो में न कान कबो कया औ पुरानन में, एक बार हूँ म अभिराम गुन गायौ मैं। लियो में न नाम-ध्यान कियो नहिं जाम में, ऐसी विधि बाम काहू काम हूँ न आयो में। एक, प्रभु चरन सरोज रति पाये बिना, विषय लोभाग हाय समय बितायो मैं ॥१॥

(२)

जपली ना जाप सत्त बरत ना कहीं कबो, जोग जस्य दान में ना रति उपजवीं हम । शुवलीं ना कुटी बन, जल में ना सैन कइली, लापन में तपि के भी तन ना लपवली हम । तिरपित ना कहीं तर्पन से पितरन के, देके पिण्ड-दान गया रिन ना चुकवीं हम । एक प्रभु चरन सरोज रति पवजे बिना, विषय लुभाइ हाइ समय बितवलीं हम ॥२॥

ब्रजभाषा

जप्यो नहिं जाप सत मत को न कियो,

कथो जोग अन्य दाम में न रति उपजायो मैं।

छायो म कुटी बन जल सैन हूँ म लियो,

काय तप तापन में तन को लपायो में। 

तृप्स न कियो मैं सपनादिक तें पित्रनि को, देह पिण्ड दान गया रिन न चुकायो में। एक प्रभु चरन सरोज रति पाये बिना, विषय लोभाय हाय समय बितायो मैं ॥२॥

(३)

बइठवीं ना देव को मन्दिर न बनवलीं, चटिया-चटसार के खरच ना चुकौली हम। लोदवली ना कूप कबो पंथी पथ जीवन के, हेत बिसराम घर भी ना उठवली हम, नवर्ती ना आराम जे आराम के देवैया जग, बौली खोदवली ना तड़ाग बनबवलीं हम । एक प्रभु चरन सरोज रति पवले विना, बिसय लुभाइ हाइ समय चितवलीं हम ॥३॥

ब्रजभाषा

थाप्यो मैं न देव कबो मंदिर बनायो नहीं, नहीं पाठशालन को वरच चुकायो मैं। लोद्यौ मैं न कूप कों पंथी पथ जीवन के, हेत बिसराम पथगृह न उठायो मैं। लायौ म अराम जे अराम के देवैया जग, बापी हूँ सुनायो न तदाग बनवायो में। एक प्रभु चरन सरोज रति पाये बिना, विपय लोभाव हाथ समय बितायो मैं ॥३॥

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यहीं बहुत सिंधु खोदीं बहुत भूमि, गारि-गारि मूरि रस धातु के गलौली हम। कोरली अनेक सिला फोरर्ती कनेक गिरि, बहली अनेक गढ़ लोभ जलचीली हम ।। जतन त काली बहुत कंचन स्तन हेतु, पवर्ती ना कुदुओ वृया बुद्धि के धकवलीं हम । एक प्रभु चरन सरोज रति पवले बिना । विषय लोभाइ हाइ समय बितवीं हम ॥५॥

ब्रजभाषा

बोड़ो मैं बहुत सिन्धु खोथो मैं बहुत भूमि, हारि-द्वारि मूरि रस धानुहि गलायो तोरयो में बहुत सिला, फोर्यो में बहुत गिरि, दायो में बहुत गढ़ लोभ ललचायो में॥ जतन कियो मैं बहु कंचत रतन हेतु, पायो में कडू न कृया बुद्धि ही पकायों में। 

एक प्रभु चरन सरोज रति पाये बिना । विपय लोभाय हाय समय बितायो मैं ॥४॥

(५)

पवर्ती ना कयो हा बिनोद वर विद्या के, चौसठों कक्षा में ना एको अपनवलीं हम । कर्म में बसौली ना उपासना में मन लवली, नाहीं चित्त मात्र सत रूप में टिकवर्ती इम ।। लोको ना समीं परलोक के ना सधर्ती काम, हाय बृपा पाइ नर-जनम गॅववली हम ।। एक प्रभु चरन सरोज रति पवले बिना । बिसय लुमाइ हाइ समय बितवलों हम ।।५।।

ब्रजभाषा

पायो मैं न कयो विनोद वर विद्या को, चौसठों कला में हूँ न एक अपनायो । कर्म में बसायो न उपासना में लायो मन, नहीं चित्त मात्र सत-रूप में टिकायो मैं ।। लोक को न साध्यो परलोक को न साध्यो काम, हाय नृया पाय नर-जनम गंवायो । एक प्रभु चरन सरोज रज पाये बिना। बिसय लोभाय हाय समय बितायो मैं ॥५॥

कवि टाँकी

आप गया जिले के भाँट कवि थे। आपका समय उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध था, जब रेलगाडी बिहार में पहले-पहल दौड़ी थी।

चलल रेलगाड़ी रंगरेज तेजधारी

बोझाए खूब भारी हहकार कहले जात था।

बहसे सब सूबा जहाँ बात हो अजूबा,

रंगरेज मनसुबा सब लोग के सुहात बा ।।

कहीं नदी अउर नाला बाँचे जमुना में पुन,

कतना हजार लोग के होत गुजरान था ।।

कड़े कवि टॉकी बात रात्रि बाँधि साँची

हवा के समान रेलगाड़ी चलि जात था ।।

साहेब दास

आप शाहाबाद जिले के भाँट कवि थे। आपको भोजपुरी-रचनाएँ भाँटों के कण्ठ में बहुत है।

यापका समय ईस्टई डिया कम्पनी का राज्य काल था।

कम्पनी अनजान जान नकल के बना के सान,

पवन के छिपाइ मैदान में धरण जे का। 

तार देत बार-बार खबर लेत आर-पार चेत करु टिकटदार गाड़ी के बोलवले बा ।। कहना से करे काज झालर अजबदार, जे जइसन चढ़नहार ओइसनर घर पवले बा ।। कड़े कवि 'साहेब दास अजब चाल रेल के, जे जहाँ चाहे ताके तहाँ पहुँचवले वा ।।

रमैया बाबा

रमैया बाबा शाहाबाद जिले के 'डिहरी' गाँव में रहा करते थे। ये कीनाराम बाबा के चेलों में से अपनेको कहते थे। आपका मत श्रीधरु-पन्थी था। आपके शिष्य का नाम सुब्बा बाबा था। खुथ्या भी कविता करते थे। रमैया बाबा के भोजपुरी के गीत जन-वराटों में आज भी वर्णमान है। डुमरांव, शाहाबाद के पचपन वर्षांय 'शिवपूजन साहु' से उनका परिचय और एक गीत के कुछ चरगा प्राप्त हुए है। आपका समय १६ वी सदी के अंत और १० वी के प्रारम्भ का है।

रमैया बाबा जगवा में मूल बा रुपेया ।।

माई कहे ईत 5 3 बेटा आपन भगिनी कहे संगर्भया,

घर के नारि पुरुष सम जाने निति उठि लेत बलैया ।।

परन्तु ये सभी रुपये के अभाव में क्या करती हैं- माई कहे बेटा ई कइसन बहिनी कहे कइसन भाई। घर के नारि कुकुर अस जाने निति उठि लेति लड़ाई ।

श्री बकस कवि

आप शाहाबाद जिले के रहनेवाले थे। आपका समय १६ वीं सदी का उत्तरार्द्ध है, जब रेत बिहार में जारी की गई थी। आपका विशेष परिचय तथा कविताएँ प्राप्त न हो सकीं।

घनाक्षरी

भकभक करत, चलत जब हक हक, धक धक करत, धरती थम धमके कम-कम चले में बाजि रहे कम कम श्रम-छम चले में चमचम चमके कहे 'बकस' असमान के विमान जात सोभा उद्दाते, असुले दाम टटके अहसों में चटक कहीं न देखों अटक* धारीदेखि भटके, आपिस पर पटके 

लछुमनदास

लघुमनदास के गीत तो बहुत-से प्राप्त है, पर नाम-प्राम का ठिकाना नहीं मिला। आपके प्राप्त गीतों में श्रृंगार और शान्त गीत अधिक मिले हैं। आप शाहाबाद या सारन जिले के निवासी थे।

आपके एक गीत में 'तिलंगा' शब्द का प्रयोग हुआ है जिससे ज्ञात होता है, कि आप सन् १८५७ ई० के राजविद्रोह के समय या उसके बाद तक जीवित थे।

खेमटा

(1)

पनिघटवा नजरिया सटल २ बाटे ३ ।। टेक ।।

काली काली पुतरी मिलल एक दिसे४ उपरा पलकिया इटल बाटे। टारे नजर नहीं, हारे गुजरिया, बाँका सँवलिया इटल बाटे ।। करेला लघुमन श्री राधे के मनवा, स्यामसुनर से पटत बाटे ।।

पनघट पर श्याम की नजर (सटी हुई) लगी हुई है। काली काली पुतलियाँ उसी दिशा में लगी हुई हैं और उनके ऊपर की पलकें हटी हुई हैं अर्थात् निर्निमेष श्याम पानी भरती हुई राधा को निहार रहे हैं। श्याम की नजर राधिका की भोर से हटती नहीं और राधिका भी उन्हें एकटक निहारने में हार नहीं मानना चाहतीं। बाँका कृष्या इस नजर के युद्ध में इटा हुआ है। लक्ष्मणदास कहते हैं कि श्री राधिकाजी का मन श्यामसुन्दर से खूब लग गया है।

(२)

पैया लागों, सुरतिया दिखाये जा ।। टेक ।। एक त जंगल में मोर बोलत बाटे, दूजे कोइलरि करे सोर । मोरे राजा, अटरिया पर आजा ।। बिरहा सतावे मदन सारी रतिया, जोबना करेला जोर । मोरे राजा, नजरिया लदाये जा ।। कडे लाडुमन तरसावो न श्रावो, महलों बदनाम होला सोर । मोरे राजा मुरलिया बजाये जा ।।

हे श्याम मैं । पाँव पड़ती हूँ। अपना रूप तू मुझे दिखा जा। एक ओर तो जंगल में ये मोर बोल रहे हैं और दूसरी ओर यह कोयल शोर मचा रही है। हे मेरे राजा । (इस बरसात में) तू अटारी पर शा जा। मुझे सारी रात तुम्हारा बिरह सताया करता है और मदन ऊपर से परीशान करता रहता है। मेरा यौवन जोर मार रहा है। हे मेरे राजा, तुम एक बार तो आकर मुझसे आंखें लबा जाओ। लक्ष्मण कहते हैं कि हे मेरे बालम, अब अधिक न तरसाओ। कृपा करके जल्द आओ। में तुम्हारे लिए बदनाम हो गई हूँ। तमाम इस बदनामी का शोर हो रहा है। हे मेरे राजा, जरा आकर तू मुरली भी तो बजा जा।

(३) सनी देखो सिपाही बने मजेदार ॥ टेक ॥ कोई सिपाही ओ कोई तिलंगा, कोई सखी साजे ठाट सूबेदार ।। 

कोई भुजाली ौ कोई कटारी, कोई दुनाली कसे हर बार ।। बन-ठन के राधा चलली कु'जन में चोर धरेली ललकार ।। लछुमन दास हाथ नार्थी भावत भागल फिरेला जसोदा-कुमार ।। सनी देखो० ॥

(गीत में सन् १६५७ ई० के विद्रोह के समय के सिपाहियों का चित्र खींचा गया है।) कावे कहता है-जरा देखो नो ये सिपाही कितने मजेदार हैं। कोई तो सस्त्री-सिपाही है और कोई तिलंगा है, (अंगरेजों की सेना के तैलंगी सिपाही)। कोई सिक्स सूबेदार के ठाठ में सजी है। किसी के हाथ भुजाली है और कोई कटारी से लैस है, तो कोई दुनाली बन्दूक से ही सुसज्जित है। इस तरह से बन उन कर सैन्य सजाकर राधा बज में दधि-माखन के चोर (कृष्णा) को पकड़ने के लिए चली और कुज में ललकार ललकार कर चोर (माखन चोर और चित्तचोर) पकड़ना चाहती हैं। पर, लक्ष्मणादास कहते है कि यशोदा कुमार राधा के हाथ नहीं लगता। वह भागता फिरता है (सखियों की सेना को कवि ने अँगरेजी सेना के ढंग पर कितना मजेदार सजाया है।)

()

राजा हमके चुनरिया रंगाइ दऽ ।। टेक ।। सुरुवर चुनरिया जरद हो टियाँ, ओरे-ओरे४ गोटा-किनारी टॅकाइ दऽ ।। अगिया अनोखी मदनपुरी सारी तापर बदामी चदरिया मॅगाइ दऽ ।। 'लछुमनदास' मगन जब होने तनी एक हँसिके नजरिया मिलाइ दऽ ।।

सुन्दर ( वेश्या )

भारत में जब अँगरेजों का राज्य स्थापित हुआ था तब उनके विरुद्ध आवाज उठानेवाले देश- प्रेमियों को बदमाशों की श्रेणी में गणना करके वे जेल भेजबाते थे और फांसी तक चढ़ा देते थे। कुछ अंगरेजों के दलाल भी थे। उन्हीं दलालों में से मिर्जापुर का एक 'मिसिर' नामक व्यक्ति था। उसने एक भले घर की 'सुन्दर' नामक कन्या को बलात् पकर मंगाया था और उसे वेश्या बनाकर रख लिया था। इधर काशो में 'नागर' नामक पहलवान अंगरेजों के हर बुरे आचरण और मिसिर जैगे बदमाशों की हर बुरी हरकत का विरोध कर रहा था। उसने एक दिन मिसिर को भाँग छानने की दायत दी और मिसिर ने भी भोजन का निमन्त्रण दिया। 'श्रोझल' नामक नाले पर, चाँदनी रात में, दोनों दलों ने भांग बूढो छानो और पूरी तरकारी खाई। भाँग छानकर और भोजन कर लेने पर दोनों दलों में लाठी चलने लगी। मिसिर का दल परास्त हुआ। मिसिर के साथ आई 'सुन्दर' नामक बेश्या ने नागर से अपनी करुण कहानी सुनाई। 'नागर' ने उसी क्षण अभय दान दिया और उसे अपनी बहन पहा। इस घटना के बाद नागर पर मिसिर ने पुनः आक्रमण किया; पर मिसिर मारा गया। 'दुखदुल' के मेले में भी अँगरेजों के खुशामदी मुसलमानों के ताजिये को 'नागर' ने फार दिया। मुकदमा चलने पर 'नागर' को कालापानी को सजा दी गई। नागर ने निभांक भाव से निर्णय सुना और रोते हुए शिष्यों को सान्तना दे 'सुन्दर' वेश्या की जीविका के प्रबन्ध का आदेश दिया। मुन्दर द्वारा रचे भोजपुरी के पदों से जान पड़ता है कि वह प्रतिभाशोल कवयित्री थी। लोग जब 'नागर' के मुकदमे का निर्णय सुनाने सुन्दर के पास चले, तब वह सब समझकर गंगा किनारे 'नार-प्राट' पर बैठी रोकर गा रही थी-

(1)

अरे रामा नागर-नैया जाला कालापनियों रे हरी ।

सभके त नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा,

'नागर नैया जाला कालापनियाँ रे हरी । घरवा में रोबै नागर भाई ओ बहिनियाँ रामा, सेजिया पे रोवे बारी धनियाँ रे हरी।

खुटिया वै रोवै नागर ढाल-तरवरिया रामा, कोनवों में रोबै कड़ाबिनियाँ रे हरी।

रहियाष में रोखें तोर संघी और साथी रामा, नारघाट वै रोर्वे कसबिनियाँ रे हरी ।

ओझला के नरवा पै भऽइल लबड्या रामा, अरे रामा चले लागल जुलमीए भाला रे हरी। मिसिर के

संगै बाटे सौ-सौ लाठीबजवा रामा, हरि-हरि नागर संग बाटे छुरीयजवा रे हरी। पहर अढ़ाई लाठी-विद्युचा चलल रामा,

कुंडा अस गुंडा भहरइ‌लें रे हरी। कहाँ तू छोड़त नागर डास्त-तरवरिया रामा,

कहाँ तू छोबल कदाबिनियाँ रे हरी। 'ओझला' वै छोदली साहेब, दाल-तरवरिया रामा,

नारघाट छोदली कदाचिनियाँ रे हरी । निहुरि निहुरि १२ हाकिम बांचेले कगदया रामा, बड़े साहेब भेजे कालापनियाँ रे हरी ।

पुरुब के देसवा से भरि भरि कुरुई १७ आवै टोपीवक्षवा रामा, डेरा बारे सुन्दर के अंगनवा रे हरी। सोना देवै टोपीवलवा रामा,

नागर-नैया मत लेजो कालापनियाँ रे हरी।

जो मैं जनतीयूँ नागर अड्यऽ कालापनियाँ रामा, छोरे लगे अवतीयूँ बिनु गवनवाँ रे हरी। 

साम' नामक पुरुष और 'सुन्दर' नामक बेरया का प्रश्नोत्तर-

(२)

इतना आँख न दिखावर तनी धीरे बतिभाव, नाहीं हमरे ऐसन पड़दूर सहरिया में । बानी सुधर जवान कहना मानों मेरी जान, रोज फजिरे ४ नहाइले पोखरिया में। हई ऐसन रसीला भाँग तीनों बेरार पी ला, मजा लुटीले घुमा के दुपहरिया ऐसन तोहरों के बनाइय, रोज भेगिया सुनाइय, बदे माजा पढ्दू धीव के टिकरिया में। नोट रुपया जेआइब तोहरे हाथ में थमाइब जानी९ गिनऽ-गिनः रखिहुड पेटरिया में। में।

(१)

'बरसाती बॉद', पृ० १३

आँख रोज हम दिखाङ्ग तोहसे टेक बत्तिश्राइब, १० नाहीं केहुये " बेराइब हम सहरिया में। बाद सुघर जवान ठीक चूहा मारल करिहऽ रोज तोहरे पेसन भँगेरी रोज मुसहर १३ समान, तू बधरिया में। चाटै हमार ऍड़ी, गैर के भुलावड, भोरे आइके हमरे ओसरिया १४ में। हमें शेस्त्री ना दिखावा कोई तोहरे बजर परे धीव के मोहर रुपया से नोट गिनी - इमरे भरत बाटे अपने टिकरिया में। बड़ा और छोट, पेटरिया में।

'बरसाती चाँद', |  

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लेख
भोजपुरी के कवि और काव्य
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लेखक आ शोधकर्ता के रूप में काम कइले बानी : एह किताब के तइयारी शोधकर्ता श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह कइले बाड़न. किताब के सामग्री : १. एह किताब में भोजपुरी के कवि आ कविता के चर्चा कइल गइल बा, जवना में भारतीय साहित्य में ओह लोग के योगदान पर जोर दिहल गइल बा. एह में उल्लेख बा कि भारत के भाषाई सर्वेक्षण में जार्ज ग्रियर्सन रोचक पहलु के चर्चा कइले बाड़न, भारतीय पुनर्जागरण के श्रेय मुख्य रूप से बंगाली आ भोजपुरियन के दिहल। एह में नोट कइल गइल बा कि भोजपुरिया लोग अपना साहित्यिक रचना के माध्यम से बंगाली के रूप में अइसने करतब हासिल कइले बा, जवना में ‘बोली-बानी’ (बोलल भाषा आ बोली) शब्द के संदर्भ दिहल गइल बा। भोजपुरी साहित्य के इतिहास : १. एह किताब में एह बात के रेखांकित कइल गइल बा कि भोजपुरी साहित्य के लिखित प्रमाण 18वीं सदी के शुरुआत से मिल सकेला. भोजपुरी में मौखिक आ लिखित साहित्यिक परम्परा 18वीं सदी से लेके वर्तमान में लगातार बहत रहल बा। एह में शामिल प्रयास आ काम: 1.1. प्रस्तावना में एह किताब के संकलन में शोधकर्ता श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह जी के कइल महत्वपूर्ण प्रयास, धैर्य, आ मेहनत के जिक्र बा। एहमें वर्तमान समय में अइसन समर्पित शोध प्रयासन के कमी पर एगो विलाप व्यक्त कइल गइल बा. प्रकाशन के विवरण बा: "भोजपुरी कवि और काव्य" किताब के एगो उल्लेखनीय रचना मानल जाला आ बिहार-राष्ट्रभाषा परिषद के शुरुआती प्रकाशन के हिस्सा हवे। पहिला संस्करण 1958 में छपल, आ दुसरा संस्करण के जिकिर पाठ में भइल बा।
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आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक प्रारम्भिक काल

7 December 2023
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प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी के इतिहास का वर्णन करते समय बताया गया है कि आठवीं सदी से केवल भोजपुरी ही नहीं; बल्कि अन्य वर्तमान भाषाओं ने भी प्राकृत भाषा से अपना-अपना अलग रूप निर्धारित करना शु

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घाघ

8 December 2023
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बाघ के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में बहुत विद्वानों ने अधिकांश बातें अटकल और अनुमान के आधार पर कही है। किसी-किसी ने डाक के जन्म की गाया को लेकर घाष के साथ जोड़ दिया है। परन्तु इस क्षेत्र में रामनरेश त्रिप

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सुवचन दासी

9 December 2023
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अपकी गणना संत-कांर्यात्रयों में है। आप बलिया जिलान्तर्गत डेइना-निवासी मुंशी दलसिगार काल को पुत्री थी और संवत् १६२८ में पैदा हुई थी। इतनी भोली-भाली यी कि बचपन में आपको लोग 'बउर्रानिया' कदते थे। १४ वर्ष

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अम्बिकाप्रसाद

11 December 2023
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बाबू अम्बिकाप्रनाद 'आारा' की कलक्टरी में मुख्तारी करते थे। जब सर जार्ज क्रियर्सन साहब श्रारा में भोजपुरी, का अध्ययन और भोजपुरी कविताओं का संग्रह कर रहे थे, तब आप काफी कविताएँ लिख चुके थे। आपके बहन-से

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राजकुमारी सखी

12 December 2023
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आप शाहाबाद जिले की कवयित्री थीं। आपके गीत अधिक नहीं मिल सके। फिर भी, आपकी कटि-प्रतिभा का नमुना इस एक गीत से ही मिल जाता है। आपका समय बीसवीं सदी का पूर्वाद्ध अनुमित है। निम्नलिखित गीत चम्पारन निवासी श्

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माताचन्द सिह

13 December 2023
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आप 'सहजौली' (शाहपुरपड़ी, शादाबाद) ग्राम के निवासी हैं। आपकी कई गीत पुस्तके प्रराशिन है पूर्वी गलिया-के-गलियारामा फिरे रंग-रसिया, हो संवरियो लाल कवन धनि गोदाना गोदाय हो संवरियो लाल ।। अपनी मह‌लिया भी

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रामेश्वर सिंह काश्यप

14 December 2023
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आपका जन्म सन् १८१६ ई० में, १६ अगस्त को, सामाराम ( शाहायाद) ग्राम में हुआ था। पास की थी। सन् १३४ ई० में पान किया। इन तीनों परोक्षाओं के नजदीक 'सेमरा' आपने मैट्रिक की परीक्षा सन् १८४४ ई० में, मुंगेर जिल

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एगो किताब पढ़ल जाला

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