आईं, मास्टर जी बइठीं। कहीं, आप डाक बंगला में कइसे चलि अइनीं।' कहि के लुटावन मनबोध मास्टर के बइठवले। मास्टर बइठि के पुछलें, 'का हो लुटावन, दिल्ली से कुछ लोग आवे वाला रहलन। ओह लोग के कुछ अता पता बा।' लुटावन चिहा गइले। कहलें दिल्ली से त नेता लोग कबो-कबो आवेंले। आजु त केहु की अइले के कवनो खबर नइखे। मास्टर कहलें, 'केहू नेता के अवाई रहत त हम काहे फेर में परतीं।' आरे ऊ बहुत बड़हन विदवान लोग हवें। बड़का लेखक लोग। जानेलऽ लेखक का होलें। लुटावन कहलें लेखपाल ह लोग। आजु काल लेखपाल त बड़का भूते बा लोग। मास्टर उठा के हँसले। कहलें, 'ज्जा हो लुटावन भाई। तुहऊँ बुरबके रहि गइलऽ।' लेखक लेखपाल नाहि होलें। किताब त मसीनी में छापल जाला न। आकि हाथ से लीखल जाला। लुटावन पुछलें। ...
मास्टर' अरे भाई ! पहिले हाथ से लिखाला तब्बे त मशीनी में छपाला।
तुलसीदास रमएनवां पहिले हाथे से लिखले रहले। तब्बे न आजुकाल छापि छापि
के लोग बेच रहल बा। लुटावन 'त का तुलसी बाबा अइसन साधू लोग के लेखक
कहल जाला ?' हॉस परले मास्टर। कहले 'नाहीं हो, साधू लेखक हो सकेले,
वाकि सगरी साधू नाहीं। लेखक केहु हो सकेला। तूं कुछ लीख त तुहऊँ लेखक
कहइब।' गान्ही महतमा नेता रहलें आ लेखकों रहलें। बहुत किताब लिखले बाड़े
क। जवाहिरो लाल बड़का लेखक रहलें। मनबोध मास्टर आपन बात पुरहर करें,
तबले एगो गाइ के हाता में ढूकल देखि के लुटावन ओके हाँके चलि गइलें। हाँकि
के लवटलें त पुछलें, 'मास्टर जी का कहत रहनी हैं। लीख त फूहर मेहरारून की
कपारें में होली स। आप लेखक के बतावत रहनी हैं।' मास्टर उदास हो गइलें।
कहलें जायेद लुटावन भाई। आजु ले लेखक नाहीं जनलऽ त अब बुढ़ौती में का
करबऽ जानि के। हमके इहे जानेके रहल ह कि दिल्ली से दू तीन जने आवे वाला
बाड़े। क लोग कब अइहें। साँझि ले एक बेर अउरी हम आके देखि लेबि। एह बीच
में आ जाव लोग व बता दोह, कि मनबोध मास्टर आइल रहलें। लुटावन कहलें,
ठीक बा हम बता देवि।' मनबोध मास्टर लवटि परलें। थोरही आगे बढ़ल रहले कि एगो गाड़ी हनहनाति आवति रहल। गाड़ी डाक बंगला कि हाता में दुकि गइल, त मनबोध मास्टर लवटि परलें। उनका बुझाइल कि कहे लोग रहल ह। जबले मनबोध मास्टर धावत-धूपत डाँक बँगला कि भित्तर पहुँचलें तबले दिल्ली से आवे वाला लोग डाक बंगला की कमरा में नहाए चलि गइल रहे। मनबोध मास्टर लुटावन से पुछलें-'का हो, ऊहे लोग ह न ? तूं हमार नाव बतवल ह। कुछ कहत त नाहीं रहल ह लोग।' लुटावन कपारे हाथ लगा लिहलें। कहलें, 'ई बताई रउरे एही कुल्हिन के बड़का लेखक कहत रहनों हैं। आ हम त गुनानि में परि गइल बानीं।' जब हम एकनी से बतवनी है कि मनबोध मास्टर जी आइल रहनी हैं त ओमें से एगो चिहा के पुछलसि कि मास्टर अकेले रहलें हैं कि उनकी साथे कवनो लइकनियों रहलि ह। एतना सुनते हमार त एड़ी से कपार ले जरे लागल ह। रउरा जानत बानी कि इ दूनू लम्पट हउवें सों। साल में तीन चारि बेर आवेलें सों। हर बेरि एकनी कि साथे एगो पतुरिया रहेले। हर बेर नई लइकनी। रउवाँ एकनी के लेखक कहत रहुई। कहत कहत लुटावन चुपा कइलें आ मास्टर की ओर एहलेखा ताके लगलें जइसे मास्टर के दारु पीयत में पकड़ि लिहले होखें। मास्टर लुटावन के निगाह से घबड़ा गइलें। कहलें 'तू काहें एह लेखा ताकत बाड़ हो।' लुटावन कहलें 'हमके माफी देई मास्टर जी बाकि एक बाति बताई। ओमे से एगो ई काहे पुछलसि ह कि मास्टर अकेले आइल रहलें कि उनकी साथ कवनो लइकनियों रहलि ह। का आप कवनो लइकनी ले के आवे वाला रहनीं। आप एह नीच करम में कइसे फौस गइनीं।' मनबोध मास्टर जम्मा से बहरा हो गईलें। कहलें 'होस में आव ए लुटावन ! जानत बाड़ऽ कि केसे का कहत बाड़ऽ। हमार बेटी एमें में पढ़ि रहलि बा। ऊ हो किताब लिखेले। एह लोग से मिलल चाहत रहलि।' दिल्ली में एह लोग कि लग्गे चिट्ठी लिखले रहे कि मिलल चाहत बानी। ओकरे जबाव में चिट्ठी आइल कि फलाने तारीख के ई लोग एही डाक बंगला आई। एही जा आके भेंट करे। ओही खातिर हमहूँ तहसे पूछे आइल रहुईं। ओही से ईहो लोग तहसे पुछले होई। तू कहाँ से कहाँ अरथ लगावे लगलऽ।' रोस की मारे मनबोध मास्टर दाँत पीसि के रहि गइलें। लुटावन सम्हरले 'मास्टर जी, आप एकनी के जानत नइखीं, एही से हमार बात आपके जहर लागत बा। हम डाक बंगला के चौकीदारी करत करत बूढ़ हो गइलीं। उप्पर से उजरका लउके वाला एक से एक नेता आ बड़मनई लोगन के नरक देखि रहल बानी। जवने लोग के आप बड़का लेखक कहि रहल बानीं ई लोग केतना गइल गुजरल आदिमी ह हमसे पूछीं। आप हमरी पर खिसियाई मति। आपसे हाथ जोरि के कहत बानीं कि अपनी बेटी के परछहियों एकनी की लग्गे मति आवे देइबि।' लुटावन के आँखि भरि आइल। बोली बन्हा गइल। चुपा गइलें। मनबोध मास्टर के रीसि बुताए लागल। लुटावन के बहुत दिन से जानेंलें। चौकिदार हउवें त का भइल, अदिमी अच्छा हो। एकरी बात में ओजन होखी। कुछ सम्हरि के कहलें-'लुटावन भाई, बेटी वाला परसंग रहल हऽ एहो से रोसि लागि गइल ह। हम एह विदवानन के असलियत जनतो नइखीं। हम त ईहे जानल बानीं कि एकनी के बड़हन नाँव बा। किताब पर किताब लिखत रहेलें सो। पढ़वइया लोग एकनी की नउवें से अंदकि जाता। हम कइसे जानों कि एनहनी के विचार बात एइसन बा। लुटावन अपना के सम्हारि लिहले रहलें। कहलें 'आप हमार एगो बात मानि लेई'। एकनी से भेंट करों। कहि देई कि बेटी बेराम हो गइलि बा एही से आजु नाहीं अइलि ह। जीउ ठीक होई त बिहान परसो ओके लिया आईबि। आ अपने एकनि के देखा के लवटि जाई। कवनो लेखा एकनी के आँखि बचा के राति के आई त हम एकनी के लिल्ला देखाइबि। आप अपने समुझि जाइल जाई कि ई बिदवान असल में का हवें सँ। मास्टर मानि गइलें। एहर ओहर टहरत रहलें। दिल्ली वाला बिदवान नहा धो के बहरियाइल लोग। लुटावन चाह लेके दउरलें। चाह पीयत में एक जने पुछलें-'का हो लुटावन जवन मास्टर हमन के पूछत आइत रहुवे ऊ कहाँ बाड़े ?'
'देखीं हउ का आवत बाड़ें' कहि के लुटावन गेट के ओर तकलें। आडर मिलल कि एक कप चाह मास्टर खातिर ले आवऽ। लुटावन चाह ले आवे गइलें। तबले मनबोध मास्टर नियरे आ गइलें। हाथ जोरि के पौलगी कइलें। दूनू विदवान एक सथहीं चिहाके उनके आवभगत कइलें 'आई मास्टर जी! बताई का हाल चाल बा।'
मास्टर कहलें 'सब ठीके बा। तनि बचिया के जीउ खराब हो गइल बा। काल परसों ले ठीक हो जाई। आपन कहल जाय। 'हमनो के हाल चाल ठीके बा। सोचत रहल गइल कि मधु आ जइती त कुछ कविता सुनल जाइत। आप कहत बानीं कि उनके जीठ खराब बा। का भइल बा ?'
'डाक्टर से देखावल गइल ह ?'
मास्टर कहलें 'एमें डाक्टर से देखावे लायक कवनों रोग नइखे। अरे मौसमी जर बोखार भइल बा। हो सकी त बिहने लिया के आईबि। अबहिन त आप लोग दू चारि दिन रहल जाई न। क त अपनहीं आप सबसे मिले के बेचैन बिया।'
मास्टर कनखिए से दूनू जने के चेहरा देखलें। उनका बुझाइल कि दूनू चेहरा उदास हो गइल बा। लुटावन से बाति नाहिं भइल रहत त मास्टर इहे समुझतें कि उनकी बेटी के बेमारी के हालि सुनि के लोग उदास हो गइल बा, बाकि अब उनका बुझाइल कि भुखाइल बाघ की समने से पाड़ा बहकि गइल होखे, एहसन उदासी विदवानन की चेहरा पर बा। कुछ अऊरी बतकही क के मास्टर दूनू जने से छुट्टी मंगले। कहलें-'मधु के जीउ हरियरा जाई त बिहान उनके लिया के आईबि जरूर।'
विद्वान लोग से रामरमी कइ के मास्टर लुटावन की लगे जाके कहलें-'अब हम चलत बानीं।' लुटावन कहलें एगो बाति मानीं, खा पी के एहि जा चलि आईं। जवने कमरा में विदवान लोग ठहरल बा ओकरे बगल वाला कमरा आजु खाली बा। हम चुपचाप रउवाँ के वोही में राखि देवि। एइसन जोगाड़ कर देवि की आप ए लोगन के बतकही सुनि लेईं। तब एह सब के असली चेहरा लउके लागी।
मनबोध मास्टर कहलें 'अच्छा देखल जाई। अबहिन त हम घरे जात बानीं।' कहि के मास्टर चलि गइलें। लुटावन साहब लोग की कमरा में जा के राति के खाना पीना के बारे में पूछे लगल। विदवान लोग के मुँह पिटइले एइसन लागत रहे।
एक जाने कहलें- 'का खाये के मन करत बा जी।'
दुसरका जाने खिसियाइल हँसी हँस के कहले 'अब जवन मिली तवने न खाए के परी।'
पहिलका जने कहलें 'आरे उदास काहे होत बानी डाक बंगला ह, जवने फुरमाइबि तवने हाजिर हो जाई।' लुटावन की ओर ताकि के आँखि मरले। 'का हो लुटावन हम ठीक कहत बानी न।' लुटावन बूझि गइले कि का कहत बानें, बाकिर अबूझ बनि के कहलें 'मुरगी मिलि जाई। अब देसी कहीं भा विदेसी जवन बजरिया में बिकाले ऊहे न मिली।'
पहिलका विदवान कहलें 'अबहिन तू जा।' हमन के सोचि के बतावल जाई कि कवन खाना बनी।' लुटावन, जी हजूर कहि के चलि गइले। मनही मन चारि गारी दिहलें कि तहार मुर्गी के मरम त हम बूझत बानीं सरऊ बाकी, बेबस बानी। लुटावन सोचे लगलें कि हर बेरि त मुर्गी ई कुलि अपनी साधहीं लेके आवत रहलें, एह बेरी मास्टर की बेटी पर निसाना लगवले होइहें सँ, एह से एतना मिसमिसा रहल बाड़े सँ। लुटावन जैसन आडर पवलें खाना बना के दे दिहलें। ओहर साहेब विदवान लोग बोतल खोलि के खाए पीए बइठल, एहर मनबोध मास्टर आ गइलें। लुटावन चुप्पे-चुप्पे बगल वाला कमरा में ढुका दिहले। बत्ती नाही जरवलें। बन्द केवाड़ी के छेद देखा के मास्टर से कहलें 'एही में आँख सटा के देखत रहीं, राउर विदवान लोग का का कहत सुनत बाड़े। एह बाति के ख्याल राखबि कि कवनो अवाज नाहीं होखे के चाहीं। जानि जइहें सँ कि हम आप के कमरा में ढुकवले बानीं त हमार नोकरिए चलि जाई।'
मास्टर इसारा से कहलें 'जा कवनो आवाज नाहीं होखी।'
लुटावन चलि गइलें आ मनबोध मास्टर केवाड़ी की छेद से आँखि सटा के बइठि गइले। उनके कान अँखिये में सट गइल। बड़का विदवान कहलें 'जा मरदे आजु की रात कुली मजा बिगाड़ि दिहलऽ। एसे अच्छा त ई रहित की अइलें नाही रहतीं जाँ।'
'अरे साहब कुछु निम्मन चीज पावे खातिर तनी इंतजार करही के परेला। हो सकेला काल्हि परसो ले मामला फरियाइए जा।' कहि के छोटका लेखक आँखि दबवलें। गिलासे में लालपरी ढारि के एगो उनकी ओर बढ़वले, एगो मुँह से लगवले। पलेट में से भूजल मुरगी के टुकड़ा आ अण्डा के दूँगत दूँगत बड़का विदवान कहलें 'हमरा त बुझात बा मास्टर कुछ समुझि गइल बा।' बेरामो के त बहाना
बनावत बा।' छोटका जने कहलें नाहीं भाई ! मास्टर बड़ा सोझ मनई हवें। जब हम एह कसबा में रहनी तबसे ओके जानीले। कवि आ लेखक लोग के बड़ा आदर करेला। एही से अपनी लइकिया के लेखक बनावल चाहत बा।' बड़का जने
कहलें-'ओके लेखिका त बनइए देतीं बाकि आवे तब न।' केवाड़ी की पाछे मनबोध मास्टर की देहीं में आगि लागि गइल। जवन भाव दूनू लेखकन की चेहरा पर आ आँखिन में ऊ देखलें ओसे उनके खून खउले लागल। धीरे से कमरा खोलि के निकड़लें। लुटावन बहरा खाड़ रहले कि कहीं साहब लोग के कुछ फुरमाइस होखे त लेके धावें। मास्टर उनसे कहलें 'लुटावन तू ठीक कहत रहल। ई सारे त कातिक के कुकुर बाड़े सँ हो।