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सुनरी मुनरी, चन्नन-मन्नन

10 January 2024

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'देखऽ एक बाति तू समुझि लऽ कि आगे से गाँव के एक्को पइसा हम तहरे हाथ में नाहीं जाए देबि ।' कहि के मुनरी उठि परलि। सवेरे उठते रमधन ओके समुझावे लागल रहलें कि चेक पर दसखत कऽ के उनके दे देव, ऊ बलाके पर जाके आगे के कामकाज करें। आजु ले ईहे न होत रहल। जब जब रमधन कहलें, मुनरी आपन नाँव लिखि दिहली। रुपेया ले आके ऊ उड़ावत पड़ावत रहलें। जब कौनो बाति होखे आ मुनरी कहें कि गाँव के विकास खातिर आइल धन से गँउवे के काम होखे के चाहीं, तऽ मुन्नर के बोला ल आवें रमधन। ऊ मुनरी देवी परधान के समुझा दें कि जवन रमधन कहताड़ें ऊहे कइले में फैदा बा। मुनरी देवी परधान हर बेर आपन नाँव लिखत लिखत सोचें कि ई काम ठीक नइखे होत, ई सरासर बेइमानी होत बा, बाकि अपने पति रमधन आ उप परधान मुन्नर की बुद्धि से हारि जायँ आ हारि पाछि के 'मुनरी देवी' लिखि दें।

कई बेर रमधन चपलूसी कऽ के उनसे दसखत करालें। कई बेर सफ्फा झूठ बोलि के करा लें। कहें कि बीडीओ साहेब कहलें हँऽ कि दस हजार के चेक ले आवड, गाँवें में नाली बने के बा। परधान उनके बात मानि के चेक दे दें। न कहीं नाली न नाला। कुछ दिन बाद रमधन कौनो नया झूठ गढ़िलें। एह बेर मुनरी देवी पक्का कवल कऽ लिहली कि अब रमधन के कहले पर कब्बो चेक पर दसखत नाहीं करिहें। अपने ओही कौल के निबाह कइल चाहत बाड़ी। उनके ओही बचन के तुरववले पर लगल बाड़े उनके पति रमधन। जब समुझावत, पोल्हावत, धमकावत हारि गइलें रमधन, त मुनरी के झोंटा पकरि के निहुरा दिहलें आ कहलें, 'एही दिन खातिर तहके परधान बनवले बानीं कि तू हमरे बाति ना मानऽ ? सोझे सोझे एह पर दसखत कऽ दऽ नाहीं त जानि लऽ तुहई रहबू कि हमही रहबि।'

पति की मुट्ठी में से आपन झोंटा छोड़ावत मुनरी कहली-'एक बाति जानि लऽ। अब हम चेक पर दसखत नाहीं करबि। तहरा जवन मन करे तवन कऽ लऽ। चाहऽ त हमके मुवा दऽ।'

मेहरी के ई बाति सुनि के रमधन चिहा गइले। झोंटा छोड़ि के रीसि में मातल गोड़ पटकत बहरा निकसि गइलें। रहि रहि के इहे सोचें कि एतना जबरजंग मेहरारू ई कइसे हो गइलि। एक बेर खेयाल आइल कि एके परधान बनवा के गलती हो गइल। पहिले हमार एक्को बाति नाहीं टारेवाली गाइ के सुभाव वाली ई मेहरारू एइसन कइसे हो गइलि। मुनरी के रूप रंग से लेके ओकरे सुभाव तकले कवनो बाति एइसन नाहीं रहल जवने पर निहाल न होखें रमधन, बाकि आजु के एकर रूप रंग ई का होगइल कइसे हो गइल? एक बेर एतना रीसि बरल कि लवटि परलें सचहूँ एके मुवाई देई, बाकि सम्हरि के फेरु लवटलें आ मुन्नर किहाँ जाके ढहि परले खटिया पर। मुन्नर इनके एह तरे देखि के चिहा गइलें। पुछलें 'का हो, सब ठीक बा नऽ?

- 'का ठीक बा? ऊ बुजरी सफ्फा नाहीं क दिहलसि। कहतिया कि मुवा देबऽ तब्बों हम चेक पर दसखत नाहीं करबि।' कहि के रमधन चुपा गइलें। मुन्नर अलगे सोच में परि गइले। अब का होई ?

रमधन की मुट्ठी में से आपन झोंटा छोड़वले में बार के लच्छी टूटि के हाथे में आ गइल रहल। कपार तड़के लागल, बाकि मुनरी के जीउ एगो नवकी खुसी से हरियरा गइल। ओकरा बुझा गइल कि आजु ले मरद की बेइमानी की जवने सोकड़ि में बन्हाइल ऊ अपने मन के आ नेति धरम से उल्टा काम करति रहलि हऽ, ओह सीकड़ि के आजु तूरि दिहलसि। अब फेरु ओह सीकड़ि में बन्हइले के सवाले नइखे। अब जवन मन करे तवन करें। हमहूँ अब ऊहे करबि जवन हमार मन करी। चोर की लेखा मुनरी की मन में से एगो विचार झकलसि 'तहार मन का करी मुनरा ? जानत बाडू तहार मनवा कहाँ बा? तू तऽ बियाहि के एह घर में अइलू तब्बे से अपनी मन के डेहरी में मूनि के पेहान लगा दिहले बाडू। अपने मन के लुकवा के खाली बुद्धि की गाड़ी में नधा गइल बाडू। हमेसा ऊहे करेलू जवन बुद्धि कहेले। हरदम ईहे सोचेलू कि फलाने का कहिहें, चिलाने का कहिहें, लोग का कहीं, अरोस-परोस का कही ? आजु ले एक्को बेर ई नाहीं सोचलू कि तहार आपन कवनो मन बा! बटलों बा कवनो मन त कहवा बा ?

मुनरा अपने भितर से बोलत अपनी लुकववले मन के बाति सुनि के चिहुँकि गइली। उनका बुझाइल कि आसे पास खाड़ होके उनके मनवा उनके ललकारत बा। एहर ओहर ताकि के देखली। कहीं केहू नाहीं लउकल। आँखि मूनि के अपने मन के बाति सुनल चहली, त कुछु नाहीं सुनाइल। डेहरी में मूनल मन फेरु डेहरिए में मुना गइल रहल। बाकि एगो नशा एइसन बुझाइल। उनके रोवाँ रोवाँ ओह नशा में माति गइल। मुनरा उड़े लगली। रसोई बनि गइल रहल। ऊ चेक पर दसखत कऽ दिहले रहती, त रमधन खाइ के बलाक पर चलि गइल रहतें। अपनहूँ खा के छन भरि खटिया पर ओठगि रहती। आजु सब उलटि पुलटि गइल। ऊ बिना खइले चलि गइलें, त जासु। भूख लागी त बलकवे पर कहीं खालीहें। दारूवालन के का खाइल आ का पीयल ? फेरु जीव करूवाए लागल त होअर से धेयान हटा के अपनी नशा कावर कइली। आजु खाइल परल रहो। परल रहो घरदुआर। परल रहो अलाक बलाक। परल रहो गाँव गिराँव। सासु ससुर के खिया पिया के निश्चिन्त कइए दिहले बाड़ी। ऊ चलिए गइलें। लइका इस्कूले से सांझी के आई। अब मुनरी कुछु घरी अकेले रहिहें। सोचि के कोठरी में जाके ओठोंग गइली। आँखि मूनि के चहली कि सूति रहीं, बाकि कहाँ सूति पवली ? मन की भित्तर से लुकवावल मन फेरु निकड़ि के खाड़ हो गइल- 'का हो ?

सुनरी मुनरी ? कइसे बाडू ए मुनरी ? ए हमार सुनरी मुनरी ?' एह बेरि चिहइली नाहीं। बन्न आँखि खोलबो नाहीं कइली। एगो

लहरि आइलि आ बहा ले गइलि अपने साथ।

पुछलें। 'एह में मेहरारू भइले के कवन बाति बा ? चिहा के चन्नन

- 'हम तहके मुनरी नाहीं कहब।' कहलें चन्नन।

- 'तब का कहबऽ हमके ?' पुछली मुनरा।

'तू मेहरारू हउवऽ का ?' मुनरा कहली।

- 'बाति बा नऽ ? आजु ले केहू मरद त हमके सुनरी मुनरी नाहीं कहले बा, हमार माई हमके खेलावे, त ईहे कहे 'हमार सुनरी मुनरी हऊ तू। चन्नन लजा गइलें। कहलें, 'जवन बाति तहार माई तहरा में देखले होइहें, ओह के आजु ले दूसर केहू नाहीं देखि पावल। समुझि लऽ कि ओह बाति के. एतना दिन बादि हमहीं तहरा में देखत बानीं। तहरा अपने रूप रंग के कुछु अन्दाज नइखे, एही से हमार बाति अबहिन नाहीं समुझत बाडू। जब अपने रूप रंग के जादू जानि जइबू तब हमार बाति मनबू कि तहके सुनरी मुनरी कहले बिना तहार नाँव पूरा नाहीं होला। तबसे मुनरी आ चन्नन के बीच एगो खेलि रोज होखे लागल। जब मिले लोग तऽ एक्के बाति 'काहो सुनरी-मुनरी' 'धत्'। काहो सुनरी मुनरी ? धत्। !

' एह खेल के जादू मुनरी पर धीरे-धीरे एइसन चढ़ि गइल कि ऊ जब जब ऐना देखें तब ओमे चन्नन के चहरा ऊगि आवे। अपनहीं कहे लागे- 'का हो सुनरी मुनरी ! 'का हो सुनरी मुनरी का हो ई खेलि खतम हो गइल पाँचे छव महीना में। चन्नन पढ़े खातिर सहर में चलि गइलें। मुनरी के मन पहिले त कुछ नाहीं बुझलसि, बाकि धीरे धीरे बुझाए लागल कि चन्नन एके रहलें जे ओकरा के नीक लागें। बेटी के उदास देखि के माई पुछलसि 'ए बेटी! काहे उदास बाडू ? इस्कूल में कुछ भइल हऽ? भा केहू कुछ कहल हऽ।' कुछ दिन एइसहीं चलल। एक दिन फेर माई ऊहे बाति पुछली-'ए बेटी, बतावऽ न, का भइल काहे उदास रहत बाडू ? हम तहार महतारी हई। हमसे कवन बाति छिपावत बाडू ?' मुनरी कहली- 'कुछ नाहीं रे, माई ! कवनो बाति नइखे कवनो बाति होखी त हम तोरे से कहबि न। अउर कंसे कहबि।' चत्रन आन गाँव के रहलें। माई उनके नउवो नाहीं सुनले रहलि। ऊहो मानि गइलि कि कवनों बाति नइखे।

कुछ दिन बाद बाबूजी चहकत घरे लवटले कहीं से आ माई से कहलें- 'सुनऽ एगो बड़ा निम्मन बियाह अपनी मुनरी खातिर सेतिहे मिलि रहल बा। कहतू तऽ एही बैसाख में एके बियाहि देतीं। मुनरी के हमार फुफ्फा अपनी भतीजा से बियहल चाहत बाड़े। बड़ा निम्मन घर दुआर बा। लड़का पढ़त बा। खेतवारी घर दुआर बहुते नीक बा। अपनी ओर से कुछु नाहीं मंगिहें। जवन दिया जाई ओही में खुस हो जइहें। माई के छाती जुड़ा गइल। मुनरी का न नीक लागल ना बाउर लागल। बियाह हो गइल। सेनुर लगा के इस्कूल जात में लाज लागे एसे मुनरी पढ़ाई छोड़ि दिहली। पाँच बरिस बाद गवना भइल। ओह समें पनरे बरिस के रहली। गवने अइली त जइसे गाँव-जवार माई-बाप, सखी सहेली, खेत खरिहान भुलाइल, ओसहीं मन की मउनी में कवनो कोना अंतरा में लुकाइल चन्ननों भुला गइलें। अब त बनावल, खियावल सासु ससुर के सेवा टहल कइल आ रमधन के रंग में रँगाइल ईहे जिनगी हो गइल। बीस बरिस के भइलो त पहिलौंठी के बेटा भइल। सोचली एकर नाँव चत्रन धरिहें, बाकि ओह लइका के आजा-आजी नाव धरे के आपन अधिकार काहें छोड़े ? केहु कहबो नाहीं कइल कि छोड़ें। एक बेर सोचली कि सासु जी से कहें कि बेटा के नाव चन्नन राखल चाहत् बानीं, बाकि ई सोचि के सकुचा गइली कि पुछिहें कि काहें ईहे नाँव पसन्न बा, त का कहबि ? बस चन्नन के नाँव मन की मउनी में अउर अन्हारे में लुका गइल। लइका इस्कूल जाए लागल, तले गाँव में चुनाव आ गइल। पता चलल कि एह गाँव के परधान केहु मेहरारू होखी। गाँव में लागल खोज होखे कि कवन मेहरारू पढ़ल लिखल बा ? दू एक जनी मिलली, बाकि रमधन आ उनके बाप आपन जोगाड़ लगा के मुनरी के परधान बनवा दिहलें। अब परधानी में एगो नया रस मिले लागल बाकि.... ।

लहरि के बेग थम्हल। मुनरी के इयादि आइल कि परधानी के रस मिलले की पहिलहीं उनकी जिनगी में एगो जोन्ही चमकि गइल। परधानी के परचा भराए लागल। बोडीओ, एडीओ, ग्रामसेवक आ गाँव के लोग जुटल रहे। बीडीओ पुछलें- 'आपका नाम क्या है ?' कौनों जबाब नाहीं पवलें, त तनि जोर से पुछले, 'आप ही से पूछ रहे हैं, आपका नाम क्या है ? मुनरी का बुझइबे नाहीं कइल कि क का बोलें ? बीडीओ हँसि परलें। कहले- 'आपका कोई नाम तो होगा, जो आपके माँ बाप ने रखा होगा। वही नाम पूछ रहा हूँ।' तब जा के मुनरी देवी के अपनी माई के धइल नाँव 'मुनरी' मन परल। झट दे बोलि परली 'मुनरी हमार नाँव मुनरी हऽ।' बाकि एगो अजगुत बाति हो गइल। जइसहीं उनका आपन नाँव मन परल, तइसहीं चत्रन के चुनियाइल ओठ मन परि गइल, कहत में 'सुनरी मुनरी।' मन की मउनी में जोन्हीं एइसन भक से कुछु चमकि गइल। तबसे 'सुनरी मुनरी चन्नन मन्त्रन' मुनरी की मन में भितरे सुमिरनी एइसन घुले लागलि राति दिन सूतल बइठल, खात पियत-एक्के धुनि बाजत रहे सुनरी मुनरी, चत्रन मन्त्रन। सुनरी मुनरी, मन्नन-मनन। सुनरी । 

बहुत मेहनति करे के परल एह मंतर के बिसरवले में। धीरे-धीरे मुनरी के मन सहज भइल। घर के कामकाज कइले की साथे परधानी वाला कागज-पत्तर पर दसखत करे के परे। मुनरी एहर ओहर तनी सा पढ़ि के दसखत कऽ दें। एक दू बेर मीटिंग में बलाक पर जाए के परे। अफसर लोग जवन पूछे ओकर जबाब दे दें। कब्बों समुझिए ना पावें कि का कहें। घरे आके रमधन से पूछल चाहें, त ऊ एहर ओहर कुछ बता के फुसिला दें। मनुहारि तब करें जब चेक पर दसखत करावे के होखे। गाँव में एक दू जने कहें कि विकास के कामकाज जइसन होखे के चाहीं तइसन नइखे होत। बहुत सिकाइति हो रहल बा। मुत्रर से पूछें, त ऊहों एत्रे ओत्रे बतियावे लागें। धीरे धीरे परधानी छोड़े के आवाज उठे लागल। एही बिच्चे घर के चाल चलन में फरक आवे लागल। ससुर जी पुछलें 'ए बेटी, एतना रुपया रमधन कहाँ से पावत बाड़ें ?

मुनरो कहली- 'विकास के कामकाज आधो तिसरी नइखे होत। केहू केहू ईहो कहत बा कि सब रुपया परधान आ बीडीओ मिलि के खा लेत बाड़े।'

एक दिन एक जने पत्रकार आ गइलें। उनके साथे कई जने रहले। फोटो खीचे वाला रहलें। 'पत्रकार हई इहाँ का, महिला परधान सब के इंटरव्यू करे आइल बानीं। आप से कुछ पूछे के बा आ आपके फोटों खीचे के बा। आप तइयार होके आ जाई।' बहुउद्देश्यीय कर्मी बठक जी कहनीं।

मुनरी के मन में लाज आ हुलास एक्के साथे भित्तर से उम लागल। उनका बुझाला कि एह छोट नाव के जवन दुसरका अरथ बा ओही की ओर इसारा कऽ के लोग चिढ़ावल चाहत बा। ऊ कहेली 'ग्राम अधिकारी जी।' पहिले ग्राम विकास अधिकारी कहले जात रहल। ग्राम अधिकारी के सभे बउक जी कहेला, मुनरी देवी अधिकारी जी कहेली, एसे ऊ बहुत खुस रहेलें। उनके बात सुनि के जब मुनरी देवी भित्तर जाके ऐना की सोझे खाड़ भइली आ फोटो खिंचावे खातिर आपन रूप देखली त, पहिले

उदास हो गइली। कहाँ ऊ दमकत चेहरा, आ कहाँ अब बुढ़ात... धत्। भित्तर से केहु टोकल- 'कहाँ बुढ़ात बाडू ? अबहिन त धाहत बाडू। भित्तर से बोले वाला के रहल, एह फिकिर में नाही परली, ऊ जे होखे, उनके आपन मनवे काहें न होखे, ओकर बाति नीक लागल। 

जल्दी-जल्दी बनि सँवरि के बहरे आ गइली। फोटो खिचाइल। पत्रकार जी पूछल सुरू कइलें आपका नाम ?

'मुनरी। मुनरी देवी।'

'आपकी पढ़ाई लिखाई ?

'दर्जा चारि में पढ़त रहनीं, तव्वे पढ़ाई छूटि गइल।'

' क्यों ? पढ़ाई क्यों छूट गयी ?'

पत्रकार जी के सवाल सुनि के मुनरी चुपा गइली। का बतावें कि काहें छोड़ि दिहली पढ़ाई ? मन में एगो जोन्हीं उगि आइल। भक देना चन्नन मन परि गइलें। ऊ स्कूल छोड़ि के सहर नाहीं गइल रहते त मुनरी के मन इस्कूल से भागल नहीं रहत। जीव कड़ा क के कहली 'बियाह हो गइल, पढ़ाई छूटि गइल।'

पत्रकार चिहा के कहलें 'जब आप चौथे दर्जे में पढ़ रही थीं, तभी आपकी शादी हो गयी ?'

मुनरी हुँकारी भरि के बतवली।

ओकरे बाद कई बाति ऊ पुछलें, उनके घर दुआर के ले के, बाकि मुनरी मुँह नाहीं खोलली।

पत्रकार जी बुझि गइलें कि घर-दुआर, लोग लइका के ले के अब ई कवनों बाति नाहीं बतइहें। तब कहलें 'अच्छा प्रधान जी ! एक बात बताइए। प्रधान बनने से सबसे बड़ा लाभ आपको क्या हुआ ?'

मुनरी चुपा गइली। समुझिए नाहीं पवली कि का कहें। पत्रकार जी कहलें- 'देखिए इस सवाल का जबाव देना ही पड़ेगा। जब तक आप नहीं बोलेंगी, हम बैठे रहेंगे। सभी महिला प्रधान इस का जबाब देती हैं।'

मुनरी गुननि करे लगली। का बतावें? तब ले बीडीओ के बाति मन परि गइल। जब बीडीओ उनके नाँव पुछलें, त पहिले उनका आपन नाव मने नाहीं परल। जब से बियाहि के अइली तबसे गाँव के लोग रमधन बऽ, दुलहिन, कनिया, ईहे कुलि कहे। जब बेटा हो गइल तबसे लोग 'पप्पू के माई' कहि के बोलावे। जब बीडीओ माई-बाप के दीहल नाँव पुछलें, तब 'मुनरी' मन परल। पत्रकार जी से कहली 'परधान भइले से हमार, सबसे बड़हन लाभ ई भइल कि हमरा अपनी माई के धइल हमार नाँव मन परि गइल।' पत्रकार जी के चेहरा दमके लागल। कहलें 'एह देस में ईहे एगो बड़हन काम भइल बा कि आपन नाँव भुलवा देवे वाली लोगनि के आपन नाँव मन परि गइल।'

मुनरी कहली- 'आप भोजपुरी कइसे एतना अच्छा बोलत बानीं ? पत्रकार की मुँहे का ओर देखली त ओह पर कुछ चिन्हाइल। ई कहीं चत्रन त नाहीं हवे ? बाकि कहें कइसे ?

तब ले पत्रकार जी कहलें 'सुनरी मुनरी।' मुनरी खुसी से भरि गइली, बाकि मुँहे से कुछु नाहीं बोलली। आँखि आँखि में एतना दिन के बाति छन भरि में हो गइल। जब चले लगलें, पत्रकार जी कहलें 'आपसे एक प्रार्थना है, आपके पति की बहुत बदनामी है कि विकास का सारा धन वे उड़ा देते हैं। आप इसे रोकिए।'

आपसे एक ठो अरज बा। आप मुनरी लहरि की बहाव में से बहरा अइली। साँझि होखे वाली रहलि। उठि के दुआर पर गइली। सासु ससुर दुअरिए कोर देखत बइठल रहलें। मुनरी समुझि गइली कि चाह के जूनि हो गइल बा। लवटि के भित्तर गइली। चाह बनवली। भूजा छवकि के कल्हारि दिहली। चाह लेके सासु ससुर के दिहली आ कहली 'बाबू जी कहीं, त हम परधानी छोड़ि देईं। आजु जब हम चेक पर दसखत कइले से इनकार कऽ दिहनी हँड, त राउर बेटा हमार झोंटा उखारे लगले हँऽ। अब हम परधान तब्बे रहबि जब गाँव के विकास खातिर आवे वाला धन ओही काम में लागी। ई आपन बानि छोड़िहे नाहीं आ हम इनके एक्को पइसा देइबि नाहीं। एसे अच्छा बा कि हम परधानी छोड़ि देई।'

'नाहीं बेटी ! परधानी छोड़ि देबू त मुन्नर के चारज मिलि जाई। आ तोहरे रहले पर जवन थोर बहुत कामकाज होत बा, ऊ हो तब नाहीं होखी। तू परधान रहऽ। रमधन की हाथ में एक्को पइसा नाहीं परे, एह मामिला में हमहूँ तहार साथ देबि। ओकरे हाथ में पइसा नाहीं रही त पियलको कम होई। तू लड़ऽ अपने खातिर आ अपने गाँव खातिर। हम पंच तहार साथ दीहल जाई।'

मुनरी के मन में बिसरावल मंतर बाजे लागल 'सुनरी मुनरी चन्नन-मन्नन, सुनरी-मुनरी, चनन-मनन।'

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