ई बाति 1971 के है रेडियो पर एगो गीति अक्सर बजल करे-'मैं गोरी गाँव की तेरे हाथ ना आऊँगी।' तनी सा फेर- -बदल कके एगो अउरी स्वर हमरी आगे पीछे घूमल करे- 'मैं गौरी गाँव की, तेरे हाथ ना आऊँगी।' बाति टटका दाम्पत्य जीवन के रस भरल चुहुल के रहल बाकी येही का भीतर से पहिली बेर अपना गाँव के बोध हमरी भीतर उतरल ई नाम-पता लिखला के कागजी कारवाही न रहल, मन के परतीति रहे, मन का दरपन में उतरल खाली हमरे नाहीं, हमरे घर-परिवार, गाँव-जवार के झिलमिल झिलमिल रूप रहे।
हम गौरी गाँव के । मिश्र के गौरी मिसिर के गउरी हमार गाँव हमार नइहर जवने गाँवे जा के हमके ई बोध भइल, ऊहो हमरे खातिर कम महत्व के नइखे, ओकर आपन खासियत वा, आपन अहमियत बा। आजु का स्त्री-विमर्श का दौर में भले मानल जात होखे कि हिन्दुस्तानी समाज में स्त्री के ससुरे में नइहर का नाम से आ नइहर में ससुरे का नाम से जानल जाला, ओकर आपन सही के ठौर-ठिकाना कहीं ना होला बाकी हमके बुझाला कि हिन्दुस्तानी स्त्री का दू गाँव होला, दूनूँ ओकर आपन ह ई छमता ओही का भीतर बा कि ऊ नइहर ससुरा दूनूँ के अपना अँकवारी में भरि ले, दूनूँ के मान मरजादा के रच्छा करे। ओकरा खातिर जेतना खुसी आ गरब के बाति बेटी भइल ह ओतने पतोहि भइल ।
त हम मिसिर के गउरी के बेटी हुई। केतना आ कवने तरे ई गाँव हमरा भीतर समाइल बा, येकर कवनो हिसाब हो सकेला का? कवन नाता है ये गाँव से हमार? सुपुली मउनी के? गुरिया - पुतरी के? ना अइसन नाता अपना गाँव से हमार नइखे रहल। बस जनम के नाता रहल बा ईहें का हाथ भर जमीन पर हम भुइयाँ गिरनीं। ईहें के हवा पानी पहिली बेर हमरा हलफ का भीतर गइल, ये नाना नामरूपात्मक जगत के ढेर चीज के हम ईहें चीन्हे के सिखनों, माई ईहें अंगुरी में कलम घरउली आ ईहें से पाँखि पा के हम ये संसार का यात्रा पर निकलनीं बहुत दिन रहेके ना मिलल ये गाँव में जहाँ ले होस पड़ेला कब्बो लगातार छौ महीना नइखीं रहल, अधिक-से-अधिक दू-एक महीना आजु ले ये छोटी मुकी गाँव के ढेर घर अइसने वा जवना का अङना में लात नइखीं धइले दुई-चारि घर अइसन वा जवन आँखी से देखल वा बाकी सगरो काने से सुनल हमार माई-बाप अतिसय ज्ञान-पिपासु आ बड़वर विद्यादानी हवें गाँव के लड़का-लड़की के पढ़ाई में येह लोगन के बहुत जोगदान रहल बा। अपनी सन्तति के ई लोग पूरा मनोयोग से पढ़ावल- लिखावल। माई- बाबूजी का साथे हम बहुत छुटपन में गरहरा-बरौनी का रेलवे कोलनी में चली गइलों। छुट्टी में जब गरहरा से गाँवे आइल होखे तब्बो घर से निकलला के गुंजाइस ना बने। बड़ घर के बेटी गाँव-घर ना घूमें खूब ठीक से समुझावल रहे। एगो लड़की के बचपन के ये छोटवर छोटवर प्रसंग में ओ समय के समाज के जवन रूप छिपल बा, तवना के गुनी बिदवान लोग समुझ सकेला। हम त एतने कह सकतानी थोड़ा लिखना, बहुत समझना।
ज्ञान-पिपासु आ बड़वर विद्यादानी हवें गाँव के लड़का-लड़की के पढ़ाई में येह लोगन के बहुत जोगदान रहल बा। अपनी सन्तति के ई लोग पूरा मनोयोग से पढ़ावल- लिखावल। माई- बाबूजी का साथे हम बहुत छुटपन में गरहरा-बरौनी का रेलवे कोलनी में चली गइलों। छुट्टी में जब गरहरा से गाँवे आइल होखे तब्बो घर से निकलला के गुंजाइस ना बने। बड़ घर के बेटी गाँव-घर ना घूमें खूब ठीक से समुझावल रहे।
यू.पी. आ बिहार का डाँड़ें पर बसल हमार गाँव बिहार का जिला सीवान का सबसे पच्छिमी छोर पर बा। पूरुब से चलला पर बिहार का अन्तिम टीसन मैरवा से दोन दरौली वाली सड़क पर दोन से तनिए आगे आ दरौली से तनिए पहिले बा ई गाँव दोन में महाभारत- परसिद्ध द्रोणाचार्य के गढ़ बा आ दरौली में रामायण परसिद्ध अजोध्या से आवत सरजू मइया । सरजू मइया गउरी से येतने दूर बाड़ी कि बाढ़ ना आवेले गउरी तक आ ग के लोग गोड़े-गोड़े अतवार नहाये दरौली चलके आ जाला सड़किए पर ए पेड़ पालो में से झाँकत गठरी अइसे लउकेला जइसे घूघंट कढ़ले गउरा पारवती ।
आगे बढ़ला पर सबसे पहिले मिलेली काली मइया नीबिया की डाढ़ी पर हिंड़ोला डरले आ सबके असीसत गाँव के लोग ए जगही के डीघा कहेलें। डीघा पर बिच्चे में एगो बड़हन पोखरा बा ई केहू के खनावल पोखरा ना ह, अपने से ई अइसने ह। येकरा चारू ओर आम, महुआ, जामुन, बर-पीपर के पेड़ लागल बा। जब झूमत झेंपत चारू ओर से झुक-झुकि डीघा का दरपन में आपन रूप निहारेले त डीघवो इतराला डीघा का पूरब पुरनका जमाना के काली माई के मन्दिर बा, पच्छिम नवका जमाना के ईंटा के बनावल कई गो छट्ठी मइया के चउरा पहिले छट्ठी मइया डीघा में से गीलेमाटी निकालि के बनावल जायें। माटी के ये चउरी के सिरी सोख्ता कहल जाय। सिरी सोख्ता श्री स्वस्ति से जुड़ल शब्द ह। सिरी सोख्ता के पूजि के अंत में विसरजित क दिहल जाये। अब सिरी सोख्ता जइसे बिला गइली । ईंटा के छुट्टी माई एक दिन पुजाली बाकी दिन अगोरेली, एकदिन आदमी जल ढारेला तीसो दिन कुकुर ढारेला गउरी का एसे कवनो मतलब नइखे डीघा के दक्खिनी हिस्सा तनी ढेर उँचास बा। कहाला बरम भीटा आ स्थान ह डीह बाबा के ईहाँ एगो जुड़ले बर-पीपर बा। पिपरा में घण्ट बन्हाला बरम भीटा पर दसगातर आ श्राद्ध के किरिया करम होला । बर तर बरसाइत के पूजा होला। बरसाइत सावित्री के कइल व्रत है। ये व्रत के राखि के मेहरारू लोग अपनी सोहाग के अमर करेला, अपना भीतर ऊ संकल्प भरेला जवना का बल पर सावित्री सत्यवान के जम का घर से वापिस ले अइली । गौर कइल जाठ प्रतीकात्मकता पर पिपरा सरन के प्रतीक घण्ट के धारन करेला बरवा मरन से जीतल जीवन के प्रतीक बरसाइत के पूजा के, आ बा ई दूनूँ जुड़ल डीघा के उत्तरी हिस्सा नहाय वाला घाट है तीज, जिउतिया, पीड़िया, सावनी पूरनमासी ये सब तिउहारन पर ईहें मेहरारू अउरी विटियन के जुटान होला। डीघा गउरी के सांस्कृतिक केन्द्र ह। ईहाँ के प्राकृतिक सुन्दरता कुछ अइसन वा कि केतनो रसहूँछ केहू होखे बिना बिरमले आगे बढ़ि ना सके।
गरी चारू ओर से बड़हन बड़हन बगीचन से घिरल बा, जवना में सबसे बड़हन टांड़ी वारी गाँव का पच्छिम ई बिगहन में फइलल खाली आमे के बारी ह, घन अइसन कि दिनवे अन्हार । पहिले चोर लुकात रहलें सन अब उन्मुक्त जीवन के प्रशंसक लोगन के पसन्दीदा जगह है। जइसे डीघा परम्परा के निर्वाह करेला ओइसे टांड़ी तथाकथित आधुनिकता के का जानी पूरुव पच्छिम के ई कवन असर है अब धीरे-धीरे टांड़ी कटात जाता, खेत बनत जाता ।
चारू ओर के बगीचन के जोरेले गठरी के माटी-छोटहन-बड़हन खेत। गउरी की उत्तर आ पुरुब के माटी धनखड़ खेत के ह मेड़बन्दी कइल ये धाने के खेतन के किआर कहल जाला। किआर सायद किआरी के पुल्लिंग है। सावन में ई सब किआर गहीर हरिअर रंग में रंगा जाला । पहिले येह में एक्के फसल भई चाहे अगहनी धान के होत रहे अब दू फसल लिहल जाला। विज्ञान का जुग के असर कि गोहू के पैदावार भी किआर में होता बाकी येकर असर ईहो वा कि जेतना अगहनी धान के प्रजाति रहे अब नइखे बोआत अगहनी के सबसे महोन आ महकउवा धान कालीजीरा अब गउरी खातिर सपना हो गइल। पच्छिम के माटी तनी बलुगर ह आ दक्खिन के पुरहर बलुगर, एतना कि दक्खिन के बारी के नामे ह बलुहा। एने गेंहू, आ दलहनी फसल, मकई, टांनिन, मँडुआ बोवाला उत्तर के गड़ही नथलही में कचइटी माटी मिलेले। येके इहाँ के लोग मधमिसनियो माटी कहेलें। ई आजु के फैसनेवल सहराती लड़की लोगन के फेसपैक वाली मुलतानी मिट्टी से बीसे पड़ी उन्नीस ना। डीघा पर रेहि वाली माटी जहाँ-तहाँ मिलेले ई कपड़ा अइसन साफ करेले जइसन अमिताभ बच्चन के प्रचारवाली रिन एडवान्स्ड के खोज। पहिले ईहे धोबी लोगन का उपयोग में आवे। अब येके के पूछता?
अब रउरे सोचों कि खेती बारी आ दैनिक उपयोग लायक येतना तरह के माटी कवने गाँव में मिली? जवन चाहे तवन खाएँ-घाने के भात आ रहरी के दाल, गोंहू के रोटी आ आमे के गाद, महुआ के लिट्टी आ सरसो के साग गउरी के भौगोलिक रूप देखि के पुरखा लोगन की दूरदर्शिता के लोहा माने के पड़ेला । कृषि आधारित सभ्यता आ संस्कृति के विकास खातिर जवने जवने बाति आ चौजु के दरकार पड़ेला सब इहाँ बा
आजु जब ये गाँव का बारे में सोचतानी त कब्बो ई हँसत लउकता कब्बो रिसिआइल, कब्बो मनुआइल लउकडता, कबो कोहाइल बाकी दीन-हीन कब्बो नाहीं अपना में मगन, अपनी राह पर चलत। कई मामले में दोसरे सब गाँव अइसन, कई मामले में एकदम अलग। हम जब ये गैंडवा से दूर रहीले त येके मन पारे के मन करेला, नीयरे रहिले त मन में गूने के मन करेला मोरा लेखे ई गाँव बाबा-फुलवारी ह, जनक फुलवारी ह। जानकी की गठरी पूजन के पवित्र, मधुर क्षण के साकार रूप ह मिसिर के गउरी ।
चारि पुस्त पहिले आजु जहाँ गउरी गाँव बा, ऊहाँ जंगल झाड़ रहे। वत्सगोत्री मिसिर लोग पेयासी से पुरुब कई गाँव में गइल लोग गोपालपुर एगो अइसने गाँव है। गोपालपुर बड़हन ताल का बिच्चे घिरल बा। बरसात का दिन में कहीं आइल गइल मुसकिल । धान पूरा के पूरा डूबि जाये। कुछ लोग गोपालपुर छोड़ दिहल आ थोड़े पच्छिम बढ़ि के गाँव बसावल-मसिरि के गउरी एक-दू पुस्त त गउरी गोपालपुर से जुड़ि के गउरी गोपालपुर कहाये बाकी येकरा बाद ये गाँव के आपन पहचान कुछ अइसन बनल कि गोपालपुर छूटि गइल आ मिसिर के गउरी परसिद्ध हो गइल । ई सब बाति बहुत पुरान ना ह येसे हर घर के आदमी का गाँव के इतिहास वर्तमान तरहत्थी पर रहेला आ ऊ कवनो सामूहिक निर्णय का बेरा भरपूर भागीदारी करेला आ वर्तमान अउरी भविष्य के बनावत बिगाड़त रहेला। जवन कुछ लोग गोपालपुर से आइल आ अपना पवरुख से गाँव बसावल, ओह में उदित बाबा सबसे ढेर प्रभावशाली आदमी रहनीं । कवि छत्रपति रामाशंकर मिश्र जी लिखले बानी-
सत्यवादी उदित नारायण जैसा और नहीं कुल में कोई / हरिश्चन्दजी उनके आदर्श थे कहते हैं यह सब कोई उनपर कर विश्वास उन्हें दुश्मन गवाह रखते थे। चाहे आए कोई विपदा, नहीं सत्य से वे डिगते थे। उनके पुण्य कर्मों का फल बेटों ने उनके पाया / यशोगान सर्वत्र हुआ, धन-सम्पति मान बढ़ाया / यही लोग और इनके पूर्वज ने गौरी गाँव बसाया / तब से ही यह गाँव मिश्र की गौरी है कहलाया । "
ई सब जगह-जगह से हर जाति का लोगन के ले आइल एक घर हजाम, एक घर गोंड़, दू घर लोहार, एक घर कोंहार, दू-चार घर अहीर, दू घर दुसाध आ दू चार नट- नट्टिन धोबी आ घगरिन आनी गाँव से आवें सोहगठरा से ई सब तिवारी लोगन के बोलावल तिवारी लोग मूलतः कसमीरी ब्राह्मन है। तिवारी लोग मिसिर लोगन के पूज्य रहलें दान दछिना लेबे जोग एह तरह से गउरी के समाज बनल। ये समाज में जाति रहल, छुआछूत रहल बाकी घृणा ना रहल। ये गाँव में आम गाँवन अइसन दक्खिन टोला नइखे। समाज में सबसे निचला पायदान पर माने जाये वाला दुसाध लोग मिसिर लोगन का नाक का नीचे एकदम दुआरी का सटले बसल बा ऊ जामुन के पेड़ जवना का नीचे गाँव भर के बइठकी होला दुसाध लोगन का दुआरे बा। काली माई का मन्दिर में कवनो जाति का अइला गइला पर रोक कबहूँ से नइखे रहल। गाँव में थोरे बहुत सही, खेत सबका परिवार का लगे वा, भूमिहीन परिवार गाँव में कब्बो नइखे रहल। नट अइसन घुमन्तू जाति के गठरी के माटी कुछ अइसन बन्हलसि कि ऊ सम्पत्ति भले ना जोड़लें, घर इहाँ जरूर बनवलें ई रहे गउरी की माटी के मोह सबके नइखे छुए के सबका साथे नइखे खाये के बाकी सबकर सबसे एगो मजबूत रिस्ता बायेकर एहसास सबका रहे। कवनो जाति के होखे, ऊ बड़ बा त तूं नाहीं ह रउरो ह, काका ह, बाबा ह, ईया ह, काकी ह ई संस्कार गठरी का खून में हा
गठरी के मिसिर लोगन के छोड़िके जानल ना जा सकेला ई कवनो परिवारवाद चलवले के मंसा वाली बाति नाहीं ह, खाँटी साँचि बाति ह आ येही का भीतर पइठि के आजु के गउरी के जानल जा सकेला उदित बाबा के अगिलकी पीढ़ी गजब के पराक्रमी रहल पूरा जवार में ये लोगन के जसगान होखे हिन्दुस्तान का इतिहास से मिलान कइ के देखल जाय त ई अंग्रेजी हुकूमत के ऊ समय ह जब जमीन्दारी प्रथा शुरू भइल। उदित बाबा के खानदान के सात गाँव के जमीन्दारी मिलल... गठरी, गोपालपुर, कुम्हटी, अगसड़ा, बलिया, लेजा, कनइला आ बेलसूई धन-सम्पत्ति पहिलही से बढ़िआइल रहे अब अउरी इजाफा हो गइल। अब ई पविवार पूरा गाँव में त विशिष्ट रहने कइल, मिसिरो लोगन में ये परिवार के आगे कवनो परिवार के जोड़ ना रहल। येही का कुछ आगे-पाछे मझौली राजा से जागीर मिलल। स्वाभिमान ये लोगन में येतना रहे कि मझौली राज से ई लोग बिरित (वृत्ति) लेबे के राजी ना भइल लोग। बिरित पर टैक्स ना लागत रहे जबकि जागीर पर टैक्स लागे। ओइसे त गउरी का समाज में प्रेम बेवहार येहू समय खूब रहे बाकी प्रभुता के छींटा से समाज बेअसर रहल होखे-ई कहल झूठ होई।
सरकारी स्तर पर सन् 1917 अउरी सन् 1926 में जमीन के सर्वे भइल। पहिलका सर्वे के साबिक आ दोसरका के हाल सर्वे का नाम से जानल जाला। साबिक सर्वे का मोताबिक ये गाँव के तउजी नम्बर रहे 1917 हाल सर्वे का मोताबिक तउजी नम्बर कई नम्बरन में वॉट गइल नम्बरन का बाँट बँटउवल आ नाम चढ़वले में तबसे जवन घमासान शुरू भइल, दिनोदिन बढ़ते जाता। 1917 से सन् 2007 आवे जाता हो सकेला 2017 आ जाये, येतना दिन में हिन्दुस्तान में काका भइल, दुनिया कहाँ गइल, बुझाला गठरी कुछ ना जाने सुराज मिलल जमीन्दारी टूटल, नई-नई जोजना बनल बाकी गठरी में चकबन्दी आजु ले ना भइल। एगो नहर नेपाल से निकसके हिन्दुस्तान आइल त गउरी के कगरिअवले आगे बढ़ि गइल। गठरी में बढ़ल का, त कलह रोज नया सिरा से पता चलेला कि फलाना खेत जोताला फलाना का नाम वा चिलाना के घमासान जब शुरू भइल त पहिले मिसिर मिसिर से भिड़लें, तिवारी तिवारी से, लोहार लोहार से, दुसाध दुसाध से।
कब कैसे के भिड़ि जाई कवनो भरोसा नइखे। आजु हालि ई बा कि एकाध खेत अइसनो बाटे जवन बोई केहू त काटी केहू डीह के जमीन सब आपन आपन रुन्हि रहल बा - ना ईंटा से त बसवे से लाठी भाला, बम-पिस्तौल, कतल फउजदारी सभका खातिर सभ तइयार बा गाँव ना ह लुत्ती ह, धधकत रही जरावे खातिर।
जब छोट रहनीं त बुझाय सब जरिए जाइत त ठीक रहित अइसन बुझाय, जब बड़का बाबू के पतोहि के देखीं। बड़का बाबू सरगे चलि गइल रहलें आ बड़का बाबू के बेटा सरगे के खोजे निकसि गइलें साधू का रूप में बड़का बाबू के पतोहि जिनिगी भर उनुका नाम के सेनुर पहिरली आ मरे का बेरा सब जमीन बेंचि के नइहर चलि गइली गाँव छोड़ि के एक जनी अउरी गइली । ऊ बाल विधवा रहली, सारी जिनिगी ऊ मेहरारू ओही घर में बिता दिहली गाँव भर बहुत मान-सम्मान दे बाकी जब पट्टीदार उनुके डेरवावे धमकावे लगलें, केहू उनुका पीछे खड़ा ना भइल, छूछ मान-सम्मान खइती कि पहिरती? एक जन साँच बोले खातिर अगुवइलें, उनुके मोकदिमा में फँसा दिहल गइल । ऊ थाकि हारि के रिस्तेदारी धइली जवना नइहर पर हमरा गुमान बा, ऊ ईहे त ह अपना पतोहि के माटी के देहि माटी में मिल जाये देवे भर के मौका ना दिहलस ई गाँव। अब सोचीलें, सब जरवले का पहिले छाँटे बीने के पड़ो का जरावें का सँचे येकरा खातिर बुद्धि-विवेक चाहीं । ई त दिनोदिन घटते जाता। सबका एक्के सूरि बा, आपन लाभ येतना रहित तब्बो का जानी गूजर हो जाइत, बाकी येकरो से आगे जब जोरि दिहल जाय, दोसर के नोकसान, तब केकरा पर आस कइल जाय? का कइल जाय? हमार गउवा आजु-काल्हि येही चस्मा के पहिरले बा गँउ नाहीं, ई हाल पूरा जमाना के बा। केहू ठहरि के, अस्थिर से सोचल-समझल नइखे चाहत, अपना से अलगा दूसरा का बारे में सोचल नइखे चाहत, आ ई हिन्दुस्तानी समाज अइसे बा जइसे अझुराइल लत्ती । एगो के सझुराई त दोसरका टूट जाई, दोसर का के थाम्हीं त तीसरका अझुरा जाई। ये हिन्दुस्तानी समाज के जाने चीन्हें चलीं त थोड़े दूर चलला पर बुझाई अबहिन जवन निष्कर्ष निकलनी तवन गड़बड़ाता, अब कवनो नया समीकरण ढूँढ़े के पड़ी तमाम अन्तर्विरोध, परस्पर व्याघात का भीतर पइठला बिना काम ना चली। ई साहस करेके परी
हमके ईहो साहस अपना गँउवे में लउकेला । हमरा गाँवें एक जने तिरलोकी नाथ बाबा बाड़ें। ई बाबा सतनरायनो भगवान से ढेर जगता हवें। सबका गाँवे में एगो अइसन बाबा जरूर होत होइहें, भले नाम बदल जात होई, काम आ सुभाउ ना बदलत होई। हमार सगरो गाँव मानेला कि जवन मनकामना सतनरायनो बाबा ना पुरवें, ऊ तिरलोकी नाथ पुरा देलें । इनिकर कथा कहवावे खातिर पूरनमासी अगोरे के ना परेला। जब भक्त बोलाई, भगवान हाजिर। अन्हार पाख अँजोर पाख, एकम चतुर्दसी जब मन करे बोला ल। कई मामले में ई सतनारायन भगवान से अलगे हवें सतनारायन भगवान खाली सत् का साधे रहेली ई सत्- असत् दूनों का। आखिर तिरलोकी नाथ जे ठहरलों! तिरलोक में साँचो बा झूठो बा। ईहाँ के कथा दिन में ना राती के होला, अंगना में ना दुआरे होला। कथा खातिर पण्डित-उपरोहित के कवनो दरकार नइखे । केहू कथा कहि दो, केहू कहवा ली। जाति-बिरादरी के कवनो टण्टा नाहीं तिरलोकी नाथ बाबा का पंचामृत आ मोहनभोग के परसादी ना चढ़ेला। बतासा आ खइनी चढ़ेला, ईहे परसादी बँटाला जेकरा कथा कहवावे के होला ऊ साँझी के सबके जुटा ली, एगो दीआ बारि के घ दी आ केहू से कथा कहवा ली। कथा मुँह जबनिओ हो सकेला आ पोथिओ बँचा सकेला। बीच-बीच में तिरलोकी नाथ बाबा के जयकारा होत रही कथा पूरन भइला पर पांच बेर जयकारा बोलल जरूरी है। अन्त में बतासा खड़नी बँटा जाई। अइसन परतापी, जगता अउरी सबका खातिर सुलभ तिरलोकी नाथ बाबा सतनरायन बाबा से ढेर जगता हुईं त एमें अचरज का? शास्त्र हारि सकेला, लोक ना हारे हमरा लोक पर पूरा भरोस बा, ऊ आपन राहि उजियार क ली।
सब गाँव अइसन हमरो गाँव के रोजी-रोटी के साधन खेती है। माटी के माई मानि के सब ओके पूजत रहल बा आ ओकर दिहल अन-धन माथे चढ़ावत रहल बा। अब ये भाव में कमी लउकता ढेर लोग चाहत नइखे कि गोड़े कनई लागे। माटी आ मनई के भावनात्मक रिस्ता टूटि रहल बा। जे थोड़े लोगन का मन में बचल बा, ऊ दोसरे तरह से परेसान बा । खेती में भरती ढेर लागता, ओतना आवे कहाँ से? ना पइसा के जोर ना जाङर के जोर मजूर मिलत नइखें, घर के लड़के बबुआ भइलें जे हाथे में कलम ध लिहल ऊ कुदारी कइसे घरी?
खेती का अलावा कमाये खातिर पहिलके जमाना से लोग बहरा जात रहल बा । पुरनका जमाना में कलकत्ता आ आसाम-दू जगह लोग जात रहे अब लोग लुधियाना- पंजाब आ दिल्ली का ओर मुँह कइले बा ओइसे कस्मीर से लिहले आन्ध्र ले आ गुजरात से लिहले आसाम ले गठरी के लोग रोजी-रोटी का जोगाड़ में फइलल बा। हर जाति के ये सूची में सामिल कइल जा सकेला येकरा बावजूद ई ना कहल जा सकेला कि गठरी धन धान्य से भरल-पूरल बा। इहाँ गोवरउर के धोवल नाज त कब्बो ना खाइल जात रहे, नून-रोटी सबका जुरे, बाकी पौष्टिक भोजन कुछे लोग क पहिलहूँ नसीब में रहे, आजुवो था। जीवन के समुचित सुविधा सबका बस के नइखे। आजु की भाषा में कहल जाय त गरीबी रेखा का नीचे कई घर वा जाति आ गरीबी में कवनो जरूरी रिस्ता नइखे।
गउरी का गोदी में अनेक लायक सपूत भइलें । एकाधे गाँव अइसन होई जहाँ के लोग अपना-अपना क्षेत्र में अइसन महारत हासिल कइले होई जइसन गउरी के लोग। अंगरेजन का जमाना के नामी दरोगा पं. कमलानन्द मिसिर अपराधी खातिर जेतने कठोर रहनी निरपराध खातिर ओतने नरम गउरी आजुवो इहाँ के सरधा से सीस झुकावेले ।
गउरी में एगो रहनीं पं. भगवती बाबा। ढेर लोग इहाँ के काका कहे, कानून के बरीकी
के ठीक से जाने चीन्हेवाला, न्याय-अन्याय का बीच के महीन सूत के परिखि लेबे वाला। गाँव- -जवार के सगरो समस्या के समाधान इहाँ का लग रहे। एक बेर इहों का चकरावेवाला मामला का बिच्चे पड़ि गइनीं मामला दू सवति का बीच के रहे। गँडवा में एगो घर रहे। रहेवाला दुनूँ सवति आ छोटके एगो लइका दुनूँ जनी में हरदम उनल रहे, दुनूँजनी पट- ऊपट एक दिन छोटकी जनी तनी कमजोर परि गइली। मामला लेके काका लगे अइली- देखीं काकाजी, अब अतिसय अति हो गइल बा काका जानल चहनीं भइल का, त बेवरा मिलल रोज-रोज जोखि के खरची मिलेला, ओतना में दूजनों के पेट पोसा ना सके। हम लरकोर मेहरारू, अधपेटवे रहीं त पिआई कइसे आ पेट भरी त इनिके का दी? ई बूढ़ पुरनिया भइली इनिकर पेट जरी त हमके कहाँ ठेकान मिली? पेट जारत जारत देहि झवान होत जाता।' छोटकी जनीं धारधार रोवत कहली।... आ ई. चोरउघ कोसिला करें- बाति
अब पूरा भइल।
काका अबहिन कुछु कहीं तबले बड़की जनी के दाँत टूटल मुँह आपन बाति खोजे लागल। ऊ रोवें ढेर बोलें कम 'का करी? जोखि के ना दीं त बैवत कइसे बान्हीं? आ चोरउघा कोसिला ना करों त आगम कइसे बनाई?"
अब बोली बिलात रहे। काका धीरज देत रहनीं । कइसो कसो बड़की जनी आपन बाति पुरवली- 'रउरे त जानउतानों, सन्तान के मुँह देखे खातिर चउथेपन में मालिक के बिआह करवन राम जी मनसा त पुरवलें बाकी मालिक के उठा लिहलें। ई नान्ह बार लड़का आ येकर नाया उमिर के महतारी। हमहूँ आँखि मूनि लेब त कहाँ जइहें सन येही से काका जी, चाह तानी तनी आथि अलम हो जाये दूगो नरिया थपुआ धरा जाये। येही खातिर...।' बड़की जनी के अँचरा भीजत रहे ।
के अपराधी ? कवन न्याय? काका दूनूँजनी में मेल कराके वापिस कइनीं। गाहे- बेगाहे अइसन अइसन वाकया गउरी में होत रहेला।
एक दिन उत्तर का किआरे लहसत बिआड़ में एगो गाइ परल रहे। बड़का भइया देखन आ गाइ हँकवा के अपना दुआरे बन्हवा लीहन साँझ भइले गइया वाला पहुँचल- 'हमार गाइ दी।' भइया कहनी-'ना मिली, जा काल्हि अइह5' गइया वाला का रीस लागल- 'चारि दिन से नोकरी के लवटि के आइल बानी त नाया राह निकाल तानी, गोरू हाँकि दिहल जाला कि बान्हि लिहल जाला ?' भइया का ओहू से ढेर रीस भइल- तूं गल्तिओ करब आ मनबो ना करब ? केतना नोकसान भइल, पंच खून-पसीना जरा के काम करी आ तूं गाइ खोलि देब? जा गाइ काल्हि मिली।'
गइया वाला तनी तेज भइल- 'कवनो रउरे खेत में परल रहल है, खेत केहूके आ रखवार केहू।' 'केहू के खेत होखे, जजाति त जजाति ह, नोकसान हमार होखे चाहे दोसरा के हमसे देखि ना जाई।' बड़का भइया के मुँह लाल हो गइल ।
बाति बढ़त देखि दू चार जन जूटि गइलें, त पता चलल, जेकर खेतवा रहे, ओही के गइयों रहे। समदरसी खातिर का आपन आ का आन? बड़का भइया बाड़ें आ सबका कल्याण में जुटल रहेलें।
अइसन मानुष रतन के चीन्हल मुस्किल है।
गउरी बड़हन बड़हन लोगन के छोटीमुकी गाँव है। बिहार के जानल मानल सर्जन आ आइ.ए.एस. कैडर पावे वाला यशस्वी डाक्टर, अनेकन एक्ज्क्यूटिव इञ्जीनियर, प्रोफेसर, आइ.ए.एस. अफसर, कृषि अधिकारी, सेना अधिकारी, रेल अधिकारी, वकील, बंगला देश में भारत की ओर से गइल सेना में शामिल सैनिक अउरी अकन विद्वानन के गाँव हई। बाकी जे साहेब भइल, ऊ गाँव से चलि गइल। महतारी बाप के सेवा भाव से प्रेरित होके उनहूँ के शहरे बोला लिहल। सोचीलें, येही क्रम में हमरो माई-बाप शहरे रहे लगिहें तब? गोसाईं बाबा कहले 'तहई अवध, जहँ राम निवासू।' तब का गउरी हमरा खातिर ऊ ना रही जवन आजु ले रहल बा ? सोचि के आँख का कोर में लोर अझुराता चाहतानी नइहर, नइहर रहे, नइहरे के दुबिओ दुलारी।