खाइ गइलें हों राति मोहन दहिया ।। खाइ गइलें ० ।।
छोटे छोटे गोड़वा के छोटे खरउओं,
कड़से के सिकहर पा गइले हो ।। राति मोहन दहिया खाई गइले हों ।।१।। कुछु खइलें कुछु भूइआ गिरवले, कुछु मुँहवा में लपेट लिहलें हो ॥२॥ राति मोहन दहिया खाइ गइले हों ।। कहेली ललिता सुन ये राधिका, बसल बिरिजवा उजारि गइलें हो ॥ ३॥ राति मोहन दहिया खाइ गइलें हो।।
ललिता सखी सबेरे उठकर राधिका से कुछ दुखित होकर और कुछ क्रोध में कह रही है। कुछ उलाहना का भी भाव उसके हृदय में छिपा दिखाई दे रहा है। राधिका की वजह से हो कृष्ण उधर आने के लिये आकर्षित हुए थे, जिससे उस टोले को उतनी हानि हो रही थी। नहीं तो क्यों ललिता कृष्ण के ऊवम का ऊलाहना यशोदा को देने नहीं गई ? यशोदा तो बेटे के लिये उलाहना सुनने को तैयार हो बंडी रहती थीं। सुनिये-
'हे राधा, रात मोहन सब दही खा गये।'
'उनके छोटे-छोटे पाँवों के छोटे-छोटे खड़ाऊँ के छाप सर्वत्र पड़े हैं। वे इतने छोटे होकर किस तरह सिकहर तक पहुँच पाये यह आश्चर्य है ? हे राधा, रात सब दही कृष्ण खा गये ! ' ॥१
'उन्होंने कुछ तो खाया, कुछ पृथ्वी पर गिराया और कुछ मुख में लपेट लिया। हे राधा, सब दहो रात मोहन खा गये । ॥२॥
'हे राधा, सच कहती हूँ, सुनो वे रात बसे-बसाये ब्रज को उजार करके भाग गये ।' ॥३॥
( २६ )
अब ना छोड़बि तोहार जान, मोहन ! करवल फजितिया ।
ठाढ़े कदम तर वॅसिया वजवल, सखिया के लिहल लोभाय ।। अव न छोड़वि तोहार जान, मोहन ! ।।१।।
दही बेचे जात रहलों मथुरा नगरिया, दहिया के लेलें छिनवाई । . अव ना छोड़बि तोहार जान, मोहन ! ॥२॥
दही मोर खइल दहेड़ी मोरा फेंकल, गेडुरी के दोहल वहवाइ । अब ना छोड़बि तोहार जान, मोहन ! ।
तू त करवल फजिहतिया ! ।।३।।
अवों से के कोठरिया में बन कर, ऊपर से भर जंजीरिया । अब ना छोड़वि तोहार जान, मोहन ! ॥४।॥
सूरदास प्रभु बास चरन के, हरि के चरन चित लाव।
मोहन करवल फजिहनिया ।। अब ना छोड़वि तोहार जान मोहन, तू त करवल फजिहतिया ।।५।।
'राधा कह रही है- है, मोहन, तुम्हारो जान (पिण्ड) अब में नहीं छोडूंगो। तुमने मुझे बड़ा तंग कराया' ।
'कदम के नोचे खड़े होकर तुमने वंशो बजाई, और हमारो सारो सखियों को लुभा दिया। अब में तुम्हरो जान नहीं छाड़तो। तुनने हो मुझे संमार में बदनाम कराया।' ।।१।।
'में तो दहो बेचने के लिये मथुरा नगर जा रहो यो। तुमने रास्ते में मेरा दही छिनवा लिया। अब तुम्हारो जान नहीं छोड़ सकतो। तुमने हो हमारो फजोहत कराई है।' ।।२।।
'हमारा दही भो खाया, ऊपर से दहेड़ी भो फाड़ डालो, ओर गेडुरो को बोच यमुना में बहा दिया। तुमने हो हमारो यह दुर्दशा कराई है। में अब तुम्हारा पिण्ड छाड़ने वालो नहीं ।' ॥३॥
'अब भो समय है। हमको लेकर अपनो का डरो में बन्द कर दो और बाहर से जंजोर चड़ा दो। (कि हनारो बदनामो अधिक न बढ़े।) अब तो में तुम्हारा पिण्ड छोड़ो नहीं। तुमने हो मेरो यह बदनामी करायी है।' ॥४॥
'सूरदासजी कहते हैं कि में तो प्रभु के चरणों में चित लगाये हूँ। मुझे उन्हीं के चरणों का आशा है। हे मोहन ! अब फजोहत मत कराआ।। अपने चरणों में अपना लो। में अब तुम्हारा पिण्ड नहीं छोड़ सकता। तुमने हो मेरो यह फजोहत कराई है।' ॥५॥
( २७ )
दही बेचे जात रहलो मथुरा नगरिया, भोराइ लिहलें हो बिरिजवा के रसिया ॥१॥
सासु के चोरी चोरी दही वेचे जात रहीं.
भोराई लिहले हो ई गोकुलवा के रहिया ।।२।। दही मोरा खइले दहेड़ी मोरा फोरले, बिगारि दिहले हो मोर वारी उमिरिया ।।३।।
'गोपी कह रही है- अरे, में तो दही बेचने मथुरा नगर जा रही थी। इस रसिया ने (मोहन ने मुझको भुलवा लिया। सास को चोरी से में दही बेचने निकली थी। सो इन्होंने गोकुल का रास्ता मुझे गलत बता कर मुझको भूलवा कर अपने पास बिलमा लिया। फिर मेरा दही खा लिया, दहेड़ो फोड़ डालो और मेरो बारी वयस को भी बिगाड़ डाला। हाय, अब में कहाँ जाऊँ ?' ।।१, ३।।
गोपी के इस निवेदन से पाठक ! क्या आपका हृदय कृष्ण के अत्याचार पर खोझ नहीं उठता ? उनको दो चार खरी खोटी सुनाने का मन नहीं करता ? राधा के इसी काण्ड को पुरुष कवि सूर ने पहले गोत में अभो भक्ति का जामा पहना कर एक दूसरा हो रूप दिया है। पर स्त्री कवियित्रो को कृष्ण का निर्जन वन में अकेली राधा पर भुलवा कर अत्याचार करने को घटना को भक्ति का जामा पहनाना सह्य नहीं हुआ। इसमें उसको जाति का अपमान था। साथ हो इससे राधा के प्रति किये गये अन्याय का स्त्रो द्वारा समर्थन भी होता था; अतः उसने कृष्ण को भगवान् मान करके भी उनके इस कृत्य की निन्दा की और उसे वंसे ही चित्रित किया, जिस तरह से वह संघटित हुआ था।
( २८ )
गोरी नैना तोरा वान रे। काहे के बोअवलू कुसुमिया कुसुम रंग देस रे, काहे के रंगवलु चुनरिया छएल परदेस रे ॥१॥ जात कुजड़िन ओड़न साथ रे, सूतेली टाँगि पसारि छएल परदेस रे ॥२॥
बड़ि जाति कोइरिन के खुरुपी हाथ रे,
आपन खेत सोहेली पिरितम साथ रे ।।३।।
वड़ि जाति रजपूत के तीहा आपन पति भेजेले रएन दिल, के, के बीच रे ।।४।।
गड्या के गोहरइया अहीरवा गइले सोइ रे, बिना रे केवट नैया डगमग होइ रे ।।५।।
सॅड़वा मारे सहिनिया अहीरवा गाइ रे, नउआ त मारे नउनिया कपड़वा खोलि रे ।।६।।
गोरो नैना तोरा बान रे ॥
'अहोर की किसी सुन्दर स्त्री को किसी नायक ने प्रलोभन दिया। चुनरौ दिखाकर प्रेम की भिक्षा माँगी। कहा- हे गोरी, तुम्हारी आँखें क्या हैं वाणः हैं? इस पर अहीर की स्त्री, जिसके बगल में उसका हट्टा कट्टा, पर दुनिया से अनभिज्ञ पति सो रहा था, और स्त्री अपने मन में काम-शर से बिध रही थी, कहने लगी- हे भगवान् कुसुम (पुष्प विशेष जिससे रंग नबाते हैं) रंग का देश है अर्थात् जहाँ कुसुम के रंग का बाहुल्य है, वहाँ तुमने कुसुम पुष्प क्यों जन्माये या वहाँ उसको कदर नहीं ? हे भगवान् ! तुमने यह चुनरी क्यों रंगाई, मुझे क्यों प्रदान की, मेरा छएल परदेश में है। अर्थात् यहाँ रहते हुए भी जब मेरे काम का नहीं, तो परदेशो है।' ॥१॥
'फिर वह आगे अन्य जाति को स्त्रियों को दशा चिन्तन कर अपनी दशा पर पश्चात्ताप करती है। कहती है-कुर्जाड़न को बड़ो अच्छो जाति होती है। उसका ओढ़ना हमेशा उसके साथ रहता है। जहाँ हुआ वहीं पर फैला कर (किसी यार के साथ) सो रहती है। (कोई उसको निन्दा नहीं करता) उसका स्वामी भले परदेश में रहे। उसे कोई चिन्ता नहीं सताती ।' ॥२॥
'कोइरिन की जाति क्या हो अच्छो होती है। उसके हाथ में खुरपो रहती है! पति अपने साथ अपना खेत उससे निरवाया करता है। पति काः साथ उसे हमेशा बना रहता है।' ॥३॥
'राजपूतिनी को जाति भो एक हो होतो है। उसके हृदय में बड़ी हिम्मत है। अपने पति को संग्राम के बोच में भेज देती है। (संग्राम में भो पति का बिछोह उसे नहीं होता' ।।४।।
'पर हाय, गाय को पुकारने वाला अल्हड़ अहोर घर आते हो आते सो गया। अब बिना केवट के हमारो धैर्य को नाव डगमगा रही है।' ॥५॥ 'अरे, साँढ़ तो साड़िनी को मारता है। अहोर गाय को मारता है। नाइ नाइनि को वस्त्र खोल खोल कर मारता है।'
अहोर की स्त्री के विचार सचमुच सहो और सुन्दर हैं। उसको इर्बा भो स्वाभाविक हो है। सचमुच पति का बिछोह स्त्री के लिए सारो आपदा का कारण है। लाख दुःख उसे रहे पर; पति के प्रेम और मिलन को कमो न हो तो उसे कोई दुःख, दुःख नहीं मालूम होता। तुलसी ने कहा है-
"जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, वैहि नाथ पुरुत्र विनु नारी।"
रहीम ने भी इसी भाव को लेकर कहा-
घर में लाग मुहि अगिया, बेइ सुख लोन्ह । पिय के हाथ घरिलवा, भरि भरि दोन्ह ।।
तथा-
टूट मड़इया घर टपकन, टटियाँ टूट। पिय कर हाथ सिरहनवा, सुब का बड़ जाति कुरमिन कर खुरुवी नित उठि खेत निरावे पति के लूट ।। हाय । साथ ।।
फिर विहारी ने भी अपनी साहित्यिक भाषा में इसी भाव को यों दुहराया है-
पर पाँव भन्त्र काँकरी, सदा घरेई संग। मुन्बी परेवा जगत में, तू ही एक विहंग ।।
कतेक मरिया मारेला बिअहुआ र ननदी। माटी कोड़े गड़लों मों ओही मटिसनवा, लामी केसिया भीजेला गरदवा ए ननदी ॥१॥ भुजवा भुजन गइलों गोंड़वा लेनसरिया, रेसम चोलिया भीजेंला पसेनवा ए ननदी ॥२॥ रोटी पोवे गइलों में राम के रसोइया, रेसम सरिया भीजेला पसेनवा ए ननदी ॥ ३॥ पानी भरे गइली मैं ओही पनिवटवा, बाँके छैला रोकेला डगरिया ए ननदो ॥४॥
'हे ननद, मेरा बिअहुता पति मुझे कितनो मार मारता है। कितना दुःख देता है।'
'मुझे मट्टी की खान में मट्टी खोदने जाना पड़ा है। हे ननद, मेरे लम्बे-लम्बे बाल वहां धूल से भर गये। मेरा सारा श्रृंगार बिगड़ गया।'
'वहाँ से आई नहीं, कि हे ननद, गाँव के लेनसार में चबेना भुजवाने मुझे जाना पड़ा। वहीं मारे गरमो के हमारी रेशम को चोलो पसोने से भोग गई। मेरा सब किया कराया शृंगार नष्ट हो गया' ।
'फिर लौटते देर नहीं हुई कि मुझे रसोई में रोटो बेलने जाना पड़ा। वहाँ इतनी गरमो थी कि हमारी रेशमी साड़ी पसीने से तर हो गई। रहा सहा श्रृंगार भी मिट गया।'
'फिर जब वहाँ से निकली, तो मुझे उस पनिघट पर पानो भरने जाना पड़ा। वहाँ बाँके बनचले यार मेरी राह रोकने लगे। हे ननद, जो मेरा बिअहुता पति मुझे कितना दुःख देता है। कितना मार मारता है। देखो जरा भी सुख नहीं मिलला ।'
सचमुच एक हिन्दू गृहस्थ को पत्नी को सज-धज कर पति से मिलने को मनोकामना बिरले हो कभी निविघ्न रूप से चरितार्थ होतो हो। इसी भाव का चित्रण चूल्हा चक्को घर गिरस्तो में पिसने वाली गृहिणो ने इस गोत में किया है।
( ३० )
सूर स्याम तिआगि गइले जोगिनि कइके। नदिया किनारे कान्ह गइया चरावे, काली कमरिया कान्हें धइके ।।१।। मोर स्याम तिआगि गइले ० 11 सिरी विरिना वनके कुञ्ज गलिन में, कान्हा बसिया बजावे ओठन धइके ।।२।। सूर स्याम तिआगि गइले जोगिनि कइके ।।
'श्रीकृष्ण ने योगिन बना कर मुझे त्याग दिया और आप मुझसे दूर चले गये। कान्ह काली कमरी कन्धे पर रख कर नदी के किनारे-किनारे गाय तो चराते हैं; पर मुझे त्याग कर और योगिन बनाकर आप हमारे यहाँ से हट गये।'
'वे वृन्दाबन की कुन्ज गलियों में बंशी को अपने सुन्दर होंठों पर रख कर बजाते हैं; पर हमारे यहाँ से मुझे त्याग और योगिन बना कर वे सदा के लिए चले हो गये।'
( ३१ )
सवेरे उठि बवुई जइहें ससुररिया, आजु के दिन सोहावन ए सखिया लगनि मुहूरति घरिया।
सवेरे उठि० ।।१।।
आजु के भवन भयावन लागे, छछनत बाड़ी महतरिया । सवेरे उठि० ॥२॥
आजु के दिनवा से संग छुटत वा, भेंटहु भरि अकवरिया। सवेरे उठि० ।।३।।
भइल उदास बास लछिमी, वोनू, धनि धनि अवध नगरिया । सवेरे उठि० ॥४।।
बरवा बिलोके लोग समे, धनि धनि जनक नगरिया ।
सवेरे उठि० ।।५।।
बोलू भगवान जानकी सोता, चरन कमल वलिहरिया । सवेरे उठि० ॥६॥
'श्री सीता की विदाई के अवसर पर उनको सखी सलेहर उनसे भेंट करने आई हैं। वे आपस में वार्ता कर रही हैं।
'कहतो हैं-'कल प्रातःकाल उठते हो उठते कन्या सोता को बिदाई हो जायगो। वह अपने ससुराल चली जायगो। हे सखी! आज का दिन, यह लगन, यह मुहूर्त, यह घड़ी कितनी सुहावनी है कि कल प्रातःकाल सोता की बिदा होगो' ।
'आज रात जनक के ये भवन कितने भयावने दीख रहे हैं। सोता की मा कैसी बिलख विलख कर रो रही है। हे सखी, कल सूर्य निकलते हो निक- लते कन्या की विदाई हो जायगो' ॥२॥
'हे सखो, आज के दिन से हम लोगों का साथ सोता से छूट रहा है। चलो अंक भर-भर कर मिलती जायें। सवेरे बड़े तड़के सोता उठते हो उठते
बिदा हो जायेंगी।' ॥३॥ 'हा, एक इस लक्ष्मी के बिना यह निवास स्थान उदास हो गया।
अवध नगरी इसको पाकर आज धन्य हो गई। सबेरे कल सीताजी चली जायेंगी।'
'हे सखी ! चलो भगवान् रामचन्द्र और जानकी की हम जं बोलें और उनके कमल चरणों पर बलिहारी हो जायें।'
सीता को बिदाई का सुन्दर विदा-गान है।
( ३२ )
लागति नाहीं निनिया ए राजाजी। राजा के सुरति सड़किया पर देखली, हाथे लिये गुरदेलिया ए राजाजी ॥१॥
राजा के सूरतिया बगिया में देखली, हाथे में लेले पिंजड़वा ए राजाजी ॥२॥ राज के सूरतिया कुँअवा हाथे में धइले डोरिया ए राजा के सुरतिया सेजिया वायें सुतलि वा सवतिया ए लागति नाहीं निनिया ए पर देख कीं, राजा जी ।।३।। पर देखली, राजाजो ।।४।। राजा जी ।।
हे मेरे प्रियतम मुझे नींद नहीं आती। तुम्हारा रूप मंने सड़क पर देखा था। तुम हाय में गुलेल लिये हुए थे। (वह स्मरण कर नोंद उचट जाती है) ।' ॥१॥
'हे मेरे राजा, तुम्हारी मूर्ति की झांकी मैंने बाग में भी देखो थो। तुम्हारे हाथ में (श्यामा) चिड़िया का पिंजड़ा था। वह झाँकी स्मरण कर नींद नहीं आ रही है।' ॥२॥
हे स्वामी, तुम्हारी छबि मैंने कुआँ पर देखी थी। तुम हाथ में डोर लिए पानी खींच रहे थे। (वह मुझे भूलती नहीं)। उसी को स्मरण कर नींद नहीं आती।' ॥३॥
'अरे निष्ठुर प्रियतम, तुम्हारी शोभा मैंने सेज पर देखी। हा, तुम्हारे बगल में सौत सो रही यो। हा निष्ठुर स्वामी, मुझे इस विषतुल्य स्मरण से
नींद नहीं आ रही है।' ॥४।। देहात की भोली भाली विरहिणी पति के सब दर्शन, जो उसके लिए मन हर लिए थे, स्मरण कर अपनी विरह-घड़ियाँ गंवा रही हैं और सुना रही हैं, अपनो विरह वेदना को, उत्सी निष्ठुर पति की कल्पना को, जिसने सौत लाकर उसकी आँखों को नींद मिटा दी है।
( ३३ )
परदेसिया के जोरिया सदारे दुखिया । चारि महीना पिया जाड़ा परतु है,
कबहुँ ना सुतलों लगा के छतिया ॥१॥ चारि महीना पिया गरमी परतु है; कवहूँ ना सुतलों डोला के वेनिना ॥२॥ चारि महीना पिया पानी परतु है; कबहूँ ना सुतलों वा के बगिया ।।३।। परदेसिया के जोरिया सदा रे दुखिया ।।
'हे प्रियतम परदेशी को जोड़ी सदा दुखी हो रहती है।'
'चार महीने तो जाड़ा पड़ता है। पर में आज तक कभी छाती मिला कर नहीं सो सकी।' ॥१॥
'चार महोने को गरमी होतो है। हे प्यारे ! मैं कभी तुमको पंखो झलकर नहीं सो सकी ।' ॥२॥
'हे प्रियतम, चार महीने को वर्षा होती है। कभी भी हम तुम दोनों बाग में छप्पर डाल कर उसमे एक साथ नहीं सो सवेः । हे प्यारे ! इसी से कह रही हूँ कि परदेशी की जोड़ी सदा दुखी ही रहती है। ॥३॥
बिहारी ने भी इसो भाव पर कहा है-
पट पांखे भक कांकरी, सदा परेई संग। सुखी पेरवा जगत में, तूही एक विहंग ।।
( ३४ )
जागु जागु मुरलिया वाला ना। महला दुमहला वाले सूतिले, जागु जागु झोपड़िया पेड़ा जलेवी वाले जागु जागु बरफिया वाला ना ॥१॥ सूति ले, वाला ना ॥२॥ बीरा सोपारी वाले सूतिले, जागु जागु सुरतिया वाला ना ।।३।।
नोमक तकिया वाले सुनिलें, जागु जागु कमरिया वाला न ॥४।।
परकोया स्त्रो प्रतीक्षा करतो-करतो बोतो रात गाती है।
'हे मुरलीधारी कृष्ण, अब जागो न। (अब तुम्हारे आने का समय हुआ, हमारे पास आओ)' ।।
'शहर के सभी धनी मानी, एक महला और दुमहला मकान वाले, अब सो गये अब झोंपड़ी के रहने वाले नायक तुम जागो अब तुम्हारे आने का समय हो गया। ॥१॥
'पेड़ा और जलेबी खिलाने वाले सभी रसिया शयन करने लगे। बरको खिलाने बाले हे नायक अब तुम जागो' ॥२॥
'पान और सोपारो खाने वाले सभी मुहल्ले के रईस सो गये। हे खइनो खाने वाले। (खइनी खाने से नींद नहीं लगती) मोहन तुम उठो । (अब तुम्हारे आने का समय हुआ)' ॥३॥
'तोशक और तकिया वाले शहर के सभी अमीर अब निद्रा को गोद में सो रहे हैं। हे काली कमली धारण करने वाले मुरारी, अब तुम अपनी निद्रा भंग करो। (तुम्हारे मेरे पास आने का सब से अच्छा अवसर आ गया, आओ) ।' ॥४॥
( ३५ )
ऊना मिलले जिनकर हम दासी । ऊना मिलले जिनकर हम दासी। छन्हिया पुरानी लमहर बाती, टपके ला बंद कर के मोरि छाती ॥१॥ ऊना अइले जिनकर हम दासी ।। खोजत खोजत हम गइलों कासी, ऊ ना मिलले जिनकर हम दासी ॥२॥
कासी के लोग बड़ा अविद्यासी, प्रीति लगा के लगावें रे फांसी ॥३॥ ऊ ना मिलेले ऊना अइले जिनकर हम दामी ।।
'में जिनको दासो हूँ, वे नहीं मिले। में जिनको दासो हूँ, वे नहीं मिले' ॥१॥
'हमारा फूस का छप्पर पुराना हो गया।
बाँस को बातियाँ नोचे को और लटक रही हैं।
को बूंद टपक कर मेरे स्तन पर गिर रही है।
मिले, जिनकी में दासी हूँ ॥२॥
उसको लम्बो-लम्बो
उनसे होकर पानो
हाव राम, वे नहीं
'में उनको खोजते-खोजते काशो गई। पर वे, जिनको में दासो हूँ, नहीं मिले।'
'काशी के रहने वाले बड़े अविश्वासो आदमी होते हैं। वे प्रेम करके दूसरे के गले में फांसी लगा देते हैं, पर अपने निकल भागते हैं। हाय! वे, जिनको मैं दासो बनो, वे नहीं मिले ।'॥३॥
इस गीत में रहस्यानुभूति को बातें हैं। संसार के सभी नाते-रिश्ते झूठे होते हैं। सच्चा नाता तो केवल परमेश्वर का है और उसका मिलना बड़ा कठिन है।
( ३६ )
टिकि जा हो मुसाफिर मोरे सोने के थार में जेवना जेवना लिहले अलसाइ गइलों दुकानि । परोसलों, जानि ॥१॥ सोने के गेडुआ गंगाजल पानी, गेडुआ लिहले अलसाइ गइलों जानि ॥२॥ पांच पांच पनवा के बिरवा लगवलों, विरवा थम्हले अलसाइ गइलों जानि ॥३॥
फूल नेवारी के सेजिया उसवलों, सेजिया ताकत अलसाइ गइलों जानि ।।४।। टिकि जा हो मुसाफिर मोरे दुकानि ।।
पति को प्रतीक्षा में बंडी-बैठो नायिका ऊत्र उठी। नित्य हो उनके आने की खबर आती है और नित्य ही बेचारो भोजन वना सेज डसा उनको प्रतीक्षा करतो है; पर वे नहीं आते। इससे खोझ कर आज दुकान पर आये बटोही से वह ठहर जाने के लिये अनुरोध करती है और अपने धैर्य के दिवाले- पन को कहानी यों सुनाती है-
'हे मुसाफिर, मेरी दुकान पर आज तुम ठहर जाओ।'
'में सोने को थाल में नित्य भोजन परोसती हूँ और रोज उनकी अवाई की प्रतीक्षा में उसे लिए लिए बीती रात तक बैठी-बंठी अलसा जाती हूँ (पर वे नहीं आते) ।' ॥१॥
'स्वर्ण पात्र में निर्मल गंगा जल रखती हूँ और नित्य बोती रात तक उनकी प्रतीक्षा करती करतो थक जाती हूँ।' ॥२॥
'पाँच पाँच पत्ते का पान लगाती हूँ और बोड़ा हाथ में लिए वोती रात तक उनके आने की प्रतीक्षा करते करते नींद आने लगती है।' ।।३।।
'उसी तरह हे पथिक, नेवारो पुष्प को चुन चुनकर में नित्य सेज बिछातो हूँ और उसे ताकती हुई उनके आने को प्रतीक्षा करती हूँ। आँख अलसा जाती है, पर वे नहीं आते ।' ॥४।।
'इसलिए हे पयिक, (अब हमारा धैय्यं छूट गया। आज भी ये सब सामान प्रस्तुत हैं।) तुम मेरी दुकान पर टिक रहो। और इनका उपयोग करो।'
स्वयं दूती की कितनी सुन्दर दलील है। किस चातुरी से उद्दीपन का प्रतिपादन करके अपने को कुलटा भी नहीं साबित करती और अपनी अभि- लाया भी प्रकट कर देती है। ऊपर से सारा दोष पति पर रखती है। आप निर्दोष, सती-साध्वी बनना चाहती है। और चाहती है पथिक का सहवास भी। संयोग श्रृंगार के साथ करुण रस का कितना सुन्दर प्रतिपादन हुआ है।
( ३७ )
चननिया छटकी, मो का करों राम ।।
गंगा मोर मइया जमुना मोर बहिनी, चाँन सूरज दूनो भइया ।
मों का करों राम। चननिया छटकी ॥१॥ सासु मोर रानी, ससुर मोर राजा,
देवरु हवें सद्धादामों का करों राम ।।२।। चननिया छटकी मों का करों राम ।।
इस गोत में एक युवती विधवा प्रकृति ओर अपनी अवस्था की प्रेरणा तथा देवर के प्रलोभनों से व्याकुल होकर अपना कर्तव्य निश्चय करना चाहती है। कितना मामिक ओर करुण चित्रण है।
कहतो है है रास, यह चाँदनी छिड़क रही है। में क्या करूँ? अब मेरा क्या कर्त्तव्य है। गंगा मेरो माता हैं। धर्म-कर्म को रक्षा करने वालो हैं। यमुना मेरो बहन को तरह मेरे लिए शुभ कामना बालो हैं। ओर आकाश के ये दोनों चाँद और सूर्य मेरे भाई हैं अर्थात् भाई को तरह दिन रात मेरो रखवारी कर रहे हैं ॥१॥
और घर में मेरी सास घर की रानी हैं, स्वसुर बाहर के राजा हैं। (अर्थात् दोनों के अधीन में हूँ) पर देवरजो शाहजादा हो रहे हैं अर्थात् मुझे छेड़ रहे हैं। ओर ऊपर से यह चाँदनो रात छिडको हुई मेरे भोतर काम- भावना उठा रही है। हे राम ऐसी परिस्थिति में जहाँ एक ओर तो धर्म के इतने पहरेदार दिन-रात हर घड़ो खड़े-खड़े मेरो रखवारो कर रहे हैं ओर दूसरी ओर चाँदनी का यह उद्दीपन और मस्त जवानो का यह उद्दोपन तथा देवर को यह छेड़खानी मुझे पथ-भ्रष्ट होने का संकेत कर रहे हैं, तुम्हीं बताओ में क्या करूँ ? हे राम, मेरा कर्त्तव्य क्या है, यह मुझे बताओ ॥२॥
पाठक विश्वास रखें, लिखने में अतिशयोक्ति नहीं की गई है। स्त्री जिस तरह से प्रेम-प्रदर्शन में तथा रस की बातों में पुरुष के सम्मुख स्वभाव से हो चुस्त और अनुदार होती है, वैसे वह इन गीतों में भी रस, विरह, काम, प्रेर आदि को वानों का व्यक्त करने में चहुत हो चुतगी से शब्दों ओर वाब में का प्रयत्न करती है। मनः नाव का व्यक्त करने में सदा व्यञ्जना से हो वह काम लेना चाहती है। चित्र को रेखा खींचते समय वह आवश्यकता से अधिक लाइनों को इसलिये छाड़ देती है कि उसको देखने से चित्र अधिक खुला प्रतीत होगा और उसकी निर्मात्री को स्वाभाविक लज्जा का उससे ह्रास होगा। इस तरह स्त्री कवियित्रियों का प्रयत्न सर्वत्र सीपी में सागर भरने के सिद्धान्त के अनुसार होता है। वह खुलना कहीं नहीं चाहती है। इस से गोत बहुत छोटे पर भाव बड़े होते हैं। और टीकाकार को सर्वसाधारण के लिये अधिक खुलना पड़ता है। और द्वियाचा भी कुछ लिख देना होता है, उस परिस्थिति का दिग्दर्शन करने के लिये जिसमें वह गीत गाया गया था।
( ३८ )
घेरि बइलो बदरिया मों न जीओं ॥ सोने के थारी में जेवना परोसलों, जेवना ना जेवें सोने के गुडुआ न गंगाजल पनिया ना पीयें मों लांग मों डोभि डोभि वीरवा बीरवा ना चाभे मां न फर नेवारी के सेज सेजिया ना सावे मां ना घेरि अइली बदरिया मां ना न जीओं ॥१॥ पानी, जीओं ॥ २॥ लगवलों, जीओ ।। ३।। डसवलों, जीओं ॥४॥ जीओं ॥०॥
हे सखी, वादल घेर आये। अब मेरा जोवित रहना बड़ा कठिन है।' आगे के चरणों का अर्थ साफ है।
( ३९ )
मूलि फिरों मधुवनवा में स्याम बिना । पान पेटरिया सरि गइले हो, फुलवा गइले कुम्भिलाय, स्याम ० ॥१॥ फूल के गजरा हम साजि गुबळी, लागे उदास ननलाल बिना, भूलि फिरों मधुबनवां में स्याम विना ॥२॥
'मैं सधुवन में भूलो फिरती हूँ, बिना श्याम के सधुत्रन में मैं भूली फिरती हूँ।'
'हाय हमारे पान पिटारे में रखे रखे हो सड़ गये और फूल धीरे-धीरे मुरझा गये। बिना श्वान के सब ब्वर्य हुआ ॥१॥
'फूल को माला मैंने सज्जित कर बताई थी, परन्तु हाय उसका गूंथना बेकार गया हरि नहीं आये। सर्वत्र उनके बिना उदास लग रहा है' ।।१।।
'हाव में हरि के बिना आज मधुवन में भूली भूली फिर रही हूँ' ।॥२॥
राधा को कैसी दयनीय दशा कृष्ण के विरह ने कर रखो है। वह अपने हृदय को भावनाओं को बस इन्हीं दो चरणों में उद्दोवकों को चर्चा के द्वारा व्यक्त करना चाहती है। एक हो सवारी - भूलि फिरों मधुबन में- के वाक्य में कह कर शेज सञ्चारियों का भी समझ लेने के लिये पाठ रु से संकेत करा दिया है। पाठक देखें, सोपी में सागर यहाँ भरा गया है या नहीं।
(
४०
)
मारत वा गरिआवत बा, देख इहे करिखह्वा मोहि मारत बा ।।१।। आँगन कइलों पानी भरि लइलों, ताहु ऊपर लूलूआवत वा ।।३।। अंस सौतिन के माने माई, हमरा बदर बनावत बा ।।३।। ना हम चोरिन ना हम चटनी, झुरुहूँ अछरंग लगावत या ॥४।॥
सात गदहा के मारि मोहि मारे, सूअरि अस घिसिआवत वा ।।५।। देखहु रे मोरे पाट परोसिनि, गाइ पर गदहा चढ़ावत वा ।।६।। पिअवा गंवार कहल नाहीं वृझत, पनिया में आगि लगगात वा ।।७।। हे अमिका तुही बूझि करो अव, अचरा ओढ़ाइ गोहरावत वा ॥८॥
इस गीत में जहां एक ओर पाठक पति के पत्नी पर किये गये अत्याचार को सुनेंगे और पत्नी के विलाप से रो उठेंगे वहाँ दूसरी ओर भोजपुरी के मुहावरेदार प्रयोगों को सुन कर तारीफ किये बिना नहीं रहेंगे। पति पत्नी को मार रहा है और अपढ़ मूर्ख पत्नी चिल्ला-चिल्ला कर गोहार मचा रही है। कहती है-
'अरे देखो, यह कलमुंहा मुझे गाली देता है, मारता है।' ॥१॥
'मैंने आँगन बुहारा। पानी भर लाई तिस पर भी मुझे कुवाक्य कह कह कर पददलित कर रहा है। (ललुआ रहा है)' ॥२॥
'सौत को खूब मानता है। पर मुझे सदा दोषी ही ठहराया करता है।'
'मैं न तो चोर हूँ। न चटनी हूँ। झूठ मूंठ मेरे ऊपर अछरंग (दोष) लगा रहा है।' ।।४।।
'मुझको सात गदहे की मार मारता है। ऊपर से सूअर (बिहार में दिवाली के दूसरे दिन जीते सूअर को टांग बांध कर मवेशियों के सामने अहोर घसीटते हैं और उनसे उसे मरवाते हैं। इसको गाय डाढ़ कहते हैं। अब यह प्रथा नष्ट हो चली है इसी से यहाँ सूअर ऐसा घसीटने का मुहावरा है।) घसीट रहा है।' ॥५॥
'हे मेरे पड़ोस की रहने वाली बहनो, यह तमाशा देखो। गाय के ऊपर गदहा को यह चढ़ा रहा है अर्थात् मुझ दीन निर्दोष अबला को इस तरह एक रखेली के कारण अपमानित कर रहा है' ।।६।।
'मेरा पति गंवार है। कहा नहीं मानता। निरर्थक यह पानी में आग लगा रहा है। अर्थात् जल की तरह शीतल और शान्त मुझ अबला को निर- यंक उभाड़ रहा है, मुझे क्रोध दिला रहा है, यानी हमारी शान्त गृहस्थी को जलाना चाहता है' ।।७।।
अम्बिका कहते हैं कि 'हे भगवान् आप ही इसका अव निर्णय करना । यह मूर्ख अब तो मुझे अंचल ओढ़ाकर अर्थात् अपना बना कर इस तरह शोर मचा रहा है-खुले आम मुझे बदनाम कर रहा है।
इस गीत को डा० ग्रिअरसन ने अपने 'भोजपुरी ग्रामर' में उद्धृत किया है।
( ४१ )
अपने पिया के मों खोजन निकसों, पेन्हि लेलों रंगि लाली चुनरिया ॥१॥ गोकुल खोजलों बिरिनावन खोजलों, खोजि अइलों कासो नगरिया ॥२॥ जंगल खोजलों परवत खोजलों, कतहीं ना मिले मोरे पिया के खबरिया ।।३।। अमिका पिया के घरहीं में पवलों, मिलि गइले रे मन मोहनी सुरतिया ।।४।।
'मैं लाल रंग की चूनर पहन कर अपने प्रियतम को खोजने घर से निकली ।' ॥१॥
'मैंने उसको गोकुल में खोज की, वृन्दाबन में ढूँढ़ा और वहाँ जब वे नहीं मिले, तो काशी नगर में भी जाकर खोज आई' ॥२॥
फिर बन में ढूँढ़ा, पहाड़ पर ढूँढ़ा, लेकिन कहीं भी हमारे प्रियतम की कोई सूचना मुझे नहीं मिली। अम्बिका कवि कहते हैं कि अन्त में प्रियतम को मैंने अपने हो घर में पाया। बस मुझे मेरा मन हरण करने वाली मोहनी सूरत मिल गई' ॥३,४।॥
छायावाद की उक्ति है। आध्यात्म पक्ष की कविता है।
( ४२ )
कवन गुनहिए चुकलों ए बालम, तोर नयना रतनार । सवती के बतिया करेजवा में साले, काँपेला जिअरा हमार ।।१।। अपने पिया लागि पेन्हली चुनरिया, ताकत देवरा हमार । अमिका पिया जब हँसि हँसि बोलिहें करबों मैं सोरहो सिगार ॥२॥
हे बाउन ! तेरे नयन रतनार हो रहे हैं- क्रोध में वे लाल रंग धारण कर रहे हैं। मैंने कौन-सी चूक की कि तुम इतने कुपित हो गये ?' 'सौत की तोखी बातें ऐसे ही मेरे हृदय में गड़ रही हैं। उस पर तुम्हारा यह कोध देख कर हमारा हृदय और थर-थर काँप रहा है' ।।१।।
'हाय राम, मैं तो अपने प्रियतम के लिये यह चूंदर पहने थो, पर वे क्रोध से लाल हो रहे हैं। और इधर देवर इसे देख रहे हैं। (ऐसी दशा में उसे उतार फेंकना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है)। अब तो तभी मैं सोलह शृंगार करूंगी, जब मेरे स्वामी मुझसे हँस-हँस कर बात करने लगेंगे; अन्यया अब शृंगार मेरे लिये व्ययं है।' ॥२॥
( ४३ )
धनी चलेली नइहरवा बलमु सुनुकी देइके रोवें । कोठवा पर रोवें अटरिया पर रोवें, खटिया सिर देइ रोवें बलमु सुसुकी देइ के रोवें ॥१॥
वाग में रोवे बगइचा में रोवें, घरवा केवाड़ी देइ रोवें बलमु सुसुकी देइ के रोवें ॥२॥
'स्त्री मादके जा रही है। पति सिसक-सिसक कर रो रहा है। वह कभी तो कंठा पर जाकर रोता है, कभी अटारी चढ़ कर रोने लगता है, और कभी स्त्री की खाट पर सिर पटक-पटक कर रोता है ॥१॥
'कभी खुपके से पास की अमराई में जाकर रो लेता है, तो कभी पुष्प-
बाटिका में बैठकर आँसू गिराने लगता है। और वहां से उठता है तो घर में
किवाड़ बन्द कर सिसक-सिसक कर रोना आरम्भ करता है।' ॥२॥
जिस कवियित्री ने इस गोत को रचना को होगो, सचपुच उसने अपनी आँखों अपने स्नेहो पति को यह दशा देखी होगी। और मायके में सूनी घड़ियों में पनि बिदा होते समय की बातें स्मरण करके इसको गाकर अपने हृदय को हल्का करती रही होगी।
असों के गवनवां सइयां घरे रहु, घरे रहु ननदी के भाई । हथिअन देवों हथिसरवां, घोड़वन देत्रों घोड़सार ।। तोहरा के देवों प्रभु वितसरिया, करजोरि रहयों मों पास ॥१॥
अनों के सवनवा० ॥०॥
घोड़वन देवों सामी, घीवे के मलिदवा हथियन लवनियां के डारि । तोहरा के देवों प्रभु घीव खीचड़िया, अरचन करवि बयारि ॥२॥
नीचे नीचे बोअ सामी धनवा, त ऊँचे ऊँचे हेवती कपास । वीचे वीचे बोअ सैयां केरा नरिअरवा, सेती कर छाड़ वेअपार ।॥३॥
असों के सवनवा सँथा घरे रहु० 11011
व्यापारो पति हर साल सावन में व्यापार करने दूर विदेश में निकल जाता था और घर पर उसकी पत्नी का पावस से व्वयं व्यतीत हो जाता । लम्बे जीवन में कब तक यह दुःख विरहिणी सहा करे ? जवानो भो बोलतो चली जा रही थी। फिर व्यापार का प्रश्न एक-दो वर्ष का था नहीं। जोवन- पर्यन्त का यह प्रश्न था। बेचारी स्त्री को कैसे बोध हो ? उसने त किया कि व्यापार को जीविका ही छोड़ दी जाय और खेती शुरू की जाय। पर बरसात भर खायेंगे क्या? इसके लिये उसने स्वयं अपने पास से रुपया देना निश्चय किया। उसने इस दृढ़ निश्चय हो आषाढ़ लगते हो पति के पास जाकर वकालत करनी शुरू की। फल क्या हुआ? यह तो ज्ञात नहीं; पर स्त्री की दलील को तो सुन हो लीजिये। कितना सुन्दर भावो सुख- मय जोवन का चित्र पति को पत्नी ने समझाया है। सचमुच हर पति इस आदर्श जीवन का चित्र देख कर कन-से-कम एक बार तो अवश्य उसका अनुसरण करेगा।
'हे प्रियतम, इस साल सावन महीना में तुम घर पर ही रहो। हे ननद जी के भाई ! इस सावन में तुम घर पर ही रहो।'
मैं तुम्हारे हाथियों के रहने के लिये हथितार का प्रबन्ध करूंगी। घोड़ों के रहने के लिये अस्तबल बनवा दूंगो। और हे मेरे आराध्य देव, तुम्हारे रहने के लिये मैं अपनी चित्रशाला दूंगी, जहाँ मैं हाथ जोड़ तुम्हारे पास सदा प्रस्तुत रहेंगी।'
'हे स्वामी, इस सावन में तुम घर रहो, हे ननदजी के दुलरुवे भाई ! तुम इस वर्ष वर्षा घर पर हो बिताओ।'
'तुम्हारे घोड़ों को मैं घो का मलोदा (शक्कर और घी मिलाया हुआ रोटी का चूर्ण खाने को दूंगी) हाथियों को लवंग को डार खिलाङ्गो और तुमको हे मेरे प्रभु, घी और खिचड़ी परोसूंगी और सामने बैठ कर अपने अंचल से हवा करूंगी।'
'हे संया ! इस वर्ष का सावन तुम घर हो पर व्यतीत करो। हे ननद- जो के भाई ! वर्षा घर पर काट दो।'
'हे प्रभु, तुम घर पर बैठे न रहना। खेती करना। उससे कम लाभ नहीं होगा। नीचे के खेतों में तो तुम धान बोना। पानी की दिक्कत नहीं रहेगी। ऊँचे के खेतों में हेवती कपास बोना। (उसको अच्छो पैदावार होगी। कपास ऊँची जमीन पर बोया जाता है। उसको सिचाई की आव- श्यकता नहीं पड़ती।) और समतल भूमि वाले खेतों में तुम बोच-बीच में, हे प्रियतम, केला और नारियल लगा देना।'
(४५)
बाबू दरोगाजी कवने गुनहिये वन्हलीं पिअवा मोर ।।
ना मोर पिअवा चर रे चमरवा, ना मोर पिअवा चोर । मोरा त विश्रवा मधुआ के मातल, रहलें सड़किया पर सोइ ॥१॥
अन्नी दुअनी सिपहिया के देवों, पाँच रुपइया जमादार । ई हूनों जोबना कलक्टर के देवों, पिअवा के लेवों छोड़ाई ॥२॥
बाबू दरोगाजी कवने गुनहिया बन्हली पिअवा मोर ।।
यह गीत उस समय का है, जब अंग्रेजों की लूट भारत में आज से कहीं अधिक बड़े जोर से मची हुई थी। घूसखोरी और व्यभिचार छोटे नीकरों से लेकर बड़े-से-बड़े पद वाले कर्मचारियों तक चल रहा था।
यह गीत ही इस बात का साक्षी है कि यह सर्व साधारण की जानकारी की बात थी और कोई भी सुन्दर स्त्री या रुपया वाला व्यक्ति रूप और यौवन के बल पर भारी से भारी काम यहाँ तक कि कानून को हत्या भी बड़े-से-बड़े अफ़सरों से करा सकता था।
रूप गविता भठियारिन कह रही है-
'हे दार गाजी, आपने किस अपराध में मेरे पति को कंद कर रखा है ?' न तो मेरा पति पासी चमार है न वह चोर ही है। अरे हमारा यह पति तो शराब में मस्त था, सड़क पर सो रहा ।।१।।
'हे दारोगाजी आपने किस अपराध में मेरे स्वामो को बांध रखा है।' ॥२॥
'होश में आइए। इसे छोड़ दीजिए। नहीं तो मैं इसे आपके देखते देखते छुड़ा लूंगी। मैं एक दो आना पैसा जमींदार के सिपाही को देकर जमींदार के यहाँ पहुँचूँगी और वहां पाँच रुपया उसे देकर कलक्टर के पास उसके जरिये पहुँच जाऊँगी। फिर वहाँ? आप इन दोनों जोबनों को देखते ही हैं। इन्हीं दोनों जोबनों की डालो कलक्टर के सामने लगाऊँगी और अपने पति को छुड़ा लूंगी।'
पाठक विचार करें, इन ग्राम-गीतों के संग्रह सेस्त्रो-स्वभाव, स्त्रो-संस्कृति का पता तथा साहित्य-विनोद को ठोस सामग्री का संग्रह ही नहीं होता; बल्कि जगह-जगह ऐतिहासिक तथ्यों का अन्वेषण भी हो जाता है, जिनको सिद्ध करने के लिए ऐतिहासिकों को एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ता है।
यह गीत मुझे एक मुसहर से मिला। नीचे के ११ गोतों का संग्रह भी उसी गाने वाले मुसहर ने दिया।
से झुरू भूरू ना फागुन बहेले वयरिया, से झुरू झुरू ना ।। अपना अटरिया प सूते बारी धनिया, से झुरू झुरू ना फागुन बहेले बयरिया ॥१॥
कोटवा चड़ि धनि चितवे पुरुत्रा, से नाहीं अइले हो अलगरजू बलमुआ। से नाही० ॥२॥
आरे, जे मोरा कहिहें पिया के अवनवा, उनके देवों, नइहर पालल जोवनवा से उनके देवो ० ।। से उनके देत्रों हो दूनों हाथ के कॅगनवा। से उनके देवो ० ॥३।।
'फागुन की हवा धीरे-धीरे झर-झर स्वर से बह रही है। अल्पवयस्का स्त्री अपनी अटारो पर सो रही है और फागुन की हवा धीरे-धीरे झुर-झुर स्वर करती हुई बह रही है' ।।१।।
'उसके मन को इस हवा से उत्तेजना मिली। वह व्यप्र हो कोडे के ऊपर वाली छत पर चढ़ गयी और पूरव की ओर (जिवर उसका स्वामो गया था) देखने लगी। किसी को आता न देखकर निराश हो कहने लगो-अरे मेरा अलगरजी बालम नहीं आया। अभी तक नहीं आया। अरे जो कोई मुप्ते प्रियतम की अवाई को सूचना देगा उसे में अपने मायके के पाले हुए यौवन का दान करूँगी। अपने दोनों हाथ के कंगन इनाम दूंगी।' ।।२,३।।
सचमुच विरह-बावली बाला पति के मिलनार्य क्या नहीं कर बैठती। इसी से शास्त्रों में सदा बाहर रहने वाले पति की स्त्री को आज्ञा है कि वह दूसरा विवाह कर ले।
( ४७ )
कवने अवगुनवा पिया हमे विसरावे ला, पिया जी के मतिआ बउराइलि हे राम ।।
आधी रात गइले बोलले पहरुआ, घड़ घड़ घड़के ला जियरा पिया बिनु ए रान ॥
चड़ल जवानी सैया माँटी में मिलवले, इहो हजए पूरब कमाई है राम ।।
आरे कवने अवगुवना पिया हमरा के जारताड़े, रियाजी के मतिआ बउराइल हे राम ।।
'अरे किस अवगुण के कारण स्वामी मुझको भुला रहे हैं? उनकी मति मारी गई है।'
'आधी रात में जब चोक दार बोलता है, तव बिना स्वामी के डर के मारे मेरा हृदय धड़-धड़ करके धड़कने लगता है।'
"हाय, मेरी चढ़ी हुई जवानी को स्वासी ने मिट्टी में मिला दिया। यह तो पूर्व-जन्म की मेरी कमाई है। हाय, किस अपराध के कारण मेरे स्वामी मुझे जला रहे हैं। उनकी बुद्धि मारी गई है।'
( ४८ )
नजर लागलि राजा तोरे बंगले में, नजर लागलि राजा तोरे बँगले में। जो हम रहितीं बेला चमेली, गमक रहिती राज तोरे बंगले में ।।
'हे राजा, मेरी नजर तेरे हो बंगले पर लग गई। तेरी आखों ने मुझे वश में कर लिया। यदि बेला चमेली होती, तो तुम्हारे बंगले में फूल कर मह कती और तुम्हें प्रसन्न करती तथा तुम्हारा सहवास प्राप्त करती।' इस गीत के और चरण भी हैं; पर मुझे मिल न सके।
( γε )
'हमरा पिछुअरिआ लवेंगिआ के गछिया, से गमकि रहे सारी रतिया ।
देहु मोरे सामु सुपवा बड़निया, लवंगा बहारे हम जाइवि-गमकि
रहे सारी रतिया ।।
लवंगा बहारि हम ढेर लगवलीं, से लादि चलले आहो बनिजरवा
से लादि ० ।।
दमड़ी अर्थला रके लवेंगा विकइलें, वे बुरवकवा लेखा ना जाने से ई बुरवकवा लेखा ना जाने ।।
'मेरे पिछवारे लवंग का एक पेड़ है। लवंग गिर-गिर कर सारी रात महका करता है।'
'हे मेरी सास ! मुझे झाडू और सूप दो। मैं लवंग बटोरने जाऊँगी। यह सारी रात महका करता है।'
'मैंने लवंग बटोर कर ठेरी लगा दी। पर अरे! यह क्या ? हमारे वनजारे साहब तो उसको लाद कर बेचने चल दिये। नाहक यह विपत्ति मैंने अपने सिर अपने हाथों बुलाई।'
'दमड़ी और अधेले का तो लवंग बिकेगा। उसके ऊपर से खरचा पड़ेगा, यह बेवकूफ बनजारा इस हिसाब को नहीं समझता। नाहक मुझे इस जाड़े की रात में कष्ट पहुंचा रहा है।'
( ५० )
छोटी चुकी गछिया लगले टिकोरवा, मों ना जानी झरि जाला पतझ्या मों ना जानी० ॥१॥
सब कोई देला पइसा कउड़िया, मों ना जानी सैयां रुपड्या ॥२॥ सत्र के बलमुआ पतुरिया नचावे, मों न जानी पिया जोगिनि नचावे ।।३।। सव के बलमुआ रंडी से राजी, मां ना जानी पिया लौंडा से राजी ।।४।।
इस गीत के प्रथम चरण को आप जितना हो मनन करेंगे, उतना हो उससे रस निकलेगा। नायिका अज्ञात यौवना है। अपने शरीर को वह एक छोटे वृक्ष से उपमा देती है और कहती है कि जिस तरह वृक्ष पर छोटे-छोटे फल समय से तो लग आते हैं, पर तुरन्त उनको छिपाने वाले पत्ते उस बृक्ष से गिर पड़ते हैं, उसी तरह मेरे शरीर रूरी वृक्ष में ये नव विकसित स्तन रूत्री टिकोरे लगे तो सही; पर उस शरीर रूपो वृक्ष का पति रूपी रक्षक, जो पत्ते के समान है, जिससे यह जीवन ढक सकता था, वह इन नए टिकोरों को उत्पत्ति के साथ ही यहाँ से हट गया; पर इन सारी बातों को नायिका तब तक समझ नहीं सकी, जब तक सबो ने खोल कर उसे सम- झाया नहीं। हमने इसी भाव का एक चरण बिदेसिया गाना से कित्ती तरुणी को कहीं गाते सुना था। जो आज तक कानों में वैसे ही गूंजा करता है--
'अमवा मो जरि गइलें लगले टिकोरवा कि दिन पर दिन पियराइ रे विदेसिया' ।
अर्थ सरल है।
कामशास्त्र जाननेवालों का कहना है कि पत्नी पति के सभी अपराधों को क्षमा कर सकती है। उसके पर स्त्री-गमन को भी वह भूल सकती है। पर इसे और इसी के जोड़ी दूसरे दुष्कृत्य को वह आजन्म स्मरण नहीं रखती; बल्कि इसी कारण पति से घृणा भी करने लगती है। कितनी स्त्रियों के बंवा- हिक जीवन हो इससे नष्ट हो गये हैं। इन वैज्ञानिकों को इस धारणा को पुष्टि जब मुझे अज्ञात यौवना नायिका के गोत से होती है, तब उस की तथ्यता निविवाद मान लेनी पड़ती है।
( ५१ )
बाबा मोरे रहलनि वगिया लगवलनि, मां फुलवा लोहे गइलीं ये चार गोइयाँ ॥१॥
फूलवा मो लोर्हि लोर्हि भरलों चगेलिया, सिउ प चढ़वलीं ये
चार गोइयाँ ॥२॥ सिउ प चढ़वली कवन फल पवलीं, बलमुआ मिलल मोर छोट न ए चार गोइयाँ ।।३।
मिउ प चड़इ हम घर लवटली, चउकठिया धइले ठाढ़ सैया ए चार गोइयाँ ।।४।।
हमरा ले छोड़ी छोटू भइली लरिकोरिया, करमवा भइले खोट ए चार गाइयाँ ॥५॥
कइगे हम धीरज धरीं मन समुझाई, बजर परे तु पिया वारी ए उमिरिया ।।६।।
खोजी खोली सासु नौर बजर केवरिया, भीजेला मोर छतिया नू ये चार गोड्यां ।।७।!
कड़से मों खोलीं बहु बजर केवरिया, कतेक बाड़ी रतिया नू ये चार गोड्या ।।८।।
'मेरे पिता ने वाग लगाया। मैं वाटिका में पुष्प तोड़ने गई। हे मेरो सखी ! पुष्प तोड़ तोड़ कर मैंने अपनी चंगेली भर ली। तब उसे शिवजी पर मैंने चढ़ाया।' ॥१, २।।
'लेकिन हे सखी, मैंने शिव पर फूल तो चढ़ाया पर उसका फल मुझे यही मिला कि छोटे पति से मेरा विवाह हुआ।' ।।३।।
'शिवजी को पूजा कर जब में घर लौटी, तो हे सखो, देखतो क्या हूँ कि मेरे छोटे बालम चौकठ पकड़े खड़े हैं।' ॥४।।
हे मेरो सहेलियो, अपनी बात क्या कहूँ? हमसे छोटो छोटो उसर वाली सखियों के तो बाल वच्चे हो गये, पर मुझे, आज तक कुछ नहीं हुआ। हे सखो ओर क्या कहूँ ? मेरा कर्न हो छोटा खोटा है!' ॥५॥
'हे सबो ! में किस प्रकार धैर धारण करूँ? कैसे अपने मन को समझ ऊँ ? पति की इस छोटो उज्ज्र पर, हे सखी, वज्त्र पड़े।' ॥६॥
हे सास बज्र किवाड़ शोघ्र खोल दो। अब उन्हें कब तक बन्द रखोगो ! मेरो छातो भीग रही हैं। अर्थात् पुत्र कामना के कारण उरोज पयोज रहे हैं। विरह-वेदना ऊपर से है।' सास कहती है-
'हे बहू, में कैसे बज्र किवाड़ खोल दूँ ! देखतो हो, अभी कितनो रात बाकी है। (वयस्क होने में अभी बहुत देर है में अनी हो से कैसे कपाट खोल हूं, यानो बाल पति को तुम्हारे साय कर दूँ)' ।।७,८।
पति इतना छोटा था कि अभी वह मा के पास ही सोता था। सो रात्रि में जब पत्नी को पुत्र कामना और प्रेम ने सताया, तो उसने सास के दरवाजे पर हो पहुँच कर दरवाजा खुलवा कर पति को अपने पास लाना चाहा, जिसे सास ने देने से इनकार इस वजह से किया कि अभी रात बाको यो; पर बहू को तो रात में ही प्रीतम की जरूरत यो न।
( ५२ )
बिलखि विलखि के रोवे लो माई जनको मोके रखना हरले जाई ।। जटवा बड़ाइ के भभूति रमाइ के तिलक विराजे लिलार रे माई ॥१॥ ह्यवा कवंडल गरवाँ में माला हरि के भजन भल गाई ।। जोगिया के रूप धइ रवना पिसचवा हमके हरले हे लछुमन मोरे देवरु दुलरुवा तोहरो न दोस कछु मरम बचन हम तोहरा के कहलों वहियाँ के बल जाहु जाहु बदरा कहिह सनेसवा राम लखन दूनो नाथ सरन गहि विपति गवाई ले लेई जाई ॥२॥ आई ।। चलि जाई ।।३।। भाई ।। एहि अवसर जाई ॥४॥
सीता रावण द्वारा हरी जाने पर मुसहर कवियित्री की कल्पनानुसार विलाप, कर रही हैं-
'मा जानकी बिलख-बिलख कर रो रही हैं और कह रही हैं कि हाय,
मुझको रावण हर लिये जा रहा है। वह योगी वेश में, जटा, भस्म, त्रिपुण्ड,
कमण्डल और माला लिये है। हे राम ! इस तरह योगी का स्वांग बनाकर रावण मुझे हर लिये जा रहा है। ॥१,२॥ 'हा, देवर लक्ष्मण! तुम्हारा अपराध कुछ नहीं है। मंने तुमको जब मर्म बचन कहा, तब तुम्हारे बाहु का बल कम पड़ गया । ॥३॥
'हे आकाश के बादल ! चले जाओ, चले जाओ, उधर ही राम और लक्ष्मण दोनों भाई कहीं मिलेंगे। उनसे मेरा यह सन्देशा कहना और यह बताना कि में राम की शरण में हूँ- में नाय की शरण में हूँ। यही रट लगा- लगा इस विपत्ति को गंवा रही हूँ।' ॥४॥
( ५३ )
बनवा के दीहल हो माई, बनवा के दीहल हो माई ।। अगवां राम चलल जालें बनवां पछवां लछुमन भाई । उनका पछवां सीता सुनरि, जोहत बाट चलि जाई ॥१॥
केकरा विना मोरि सूनि अजोधिआ, केकरा विना चउपाई । केकरा बिना मोरि सूनि रसोइया, के मोरा जेवना बनाई ॥२॥
बनवा के दहील हो माई ।।
राम बिना मोरि सूनि अजोधिया, लछुमन बिन चउपाई। सीता बिना मोरि सूनि रसोइया, के मोरा जेवना बनाई ॥३॥
बनवा के दीहल हो माई ।।
रिमि झिमि रिमि झिमि देव बरिसलें, पवन बहे चउआई । कवन बिरिछ तर भीजत होइहै, राम लखन दूनो भाई ॥४।॥ बनवा के० ।।
भूखि लगे काहाँ भोजनि पइहें, पिआसि लगे नीदि लगे कहाँ डासन पइहें, कांट कूसि कहाँ पानी । गड़ि जाई 11५18 बनवा के० ॥
तुलसीदास प्रभु आस चरन के हरिके चरन बलिहारी । बनवा के दीहल हो माई ।।६।।
'कौशल्या विलाप कर रही हैं, पूछती हैं- हे भाई, उन लोगों को
किसने बनवास दिया ? हे भाई, राम सीता लक्ष्मण को किसने बन भेजा ??
'आगे-आगे राम बन चले जा रहे हैं, उनके पीछे लक्ष्मण भाई जाते हैं और उनके पीछे सुन्दरी सोता भार्ग जोहती हुई चली जा रही हैं। अरे भाई, इनको किसने बनवास दिया ? ॥१॥
'किसके न रहने से मेरी यह किसके बिना यह चौपाल उजाड़ हो अयोध्या नगरी सूनी हो गई? गया ? और किसके चले जाने से रसोई घर सूना हो गया ? अरे ! अब मेरा भोजन कौन बना- वेगो ?' ॥२॥
'अरे राम के न रहने से मेरो अयोध्या सूनी है और लक्ष्मण के बिना यह चीपाल सुना है तथा सीता के चले जाने से रसोई सूनी दीख रही है। अब मेरा भोजन कौन बनावेगी ?' ॥३॥
'रिम झिम, रिम झिम, करके मेघ बरस गया, ऊपर से चौआई हवा बह रही है। हाय! मेरे वे राम लखन दोनों भाई, किस वृक्ष के नीचे खड़े- खड़े भीगते होंगे ? किसने बन को भेजा ?' ॥४।।
'भूख लगने पर उन्हें भोजन कहाँ मिलता होगा? प्यास लगने पर उन्हें पानी कहाँ प्राप्त होता होगा? और नोंद लगने पर वह कहाँ बिछावन पाते होंगे ? वे कांट कुश पर सो रहते होंगे और वे कांट कुश उनके कोमल अंगों में गड़ जाते होंगे? हाय, इन कोमल बालकों को किसने बन भेजा ?' ॥५॥
'तुलसीदासजी कहते हैं कि कौशल्या विलाप कर कह रही हैं कि अब तो मुझे प्रभु के चरणों की ही आशा है। मैं उन्हीं के चरणों पर बलिहारी हूँ !'
पाठक देखें, तुलसीदास ने भी भोजपुरी को अपनाया है और किस कुश- लता के साथ और वह गोत आज ३०० वर्ष बाद भी सब से नीच श्रेणी के लोगों के बीच आज तक गाया जाता है। ऐसे ही कवि की लेखनी सफल कहो जायगी, जिसका गीत मुसहर की झोपड़ी से लेकर राजमहल तक और रंडी के कोठे से लेकर साधु-महात्माओं के आश्रमों तक सर्वत्र एक समान गाया जाता हो।
मिननी करी ले रजा राम लखन फिरि जाना हो घर के ।। पिता दसरय जिव प्रान तिअगले, नाई जहर लिहलो हाथ । बिआकुल भइले अवधपुर के लोगवा, भैया भरत जे बेहाल ॥१॥
लखन फिरि जाना हो घर के ।। बन पात ओढ़न, बन पात डासन, बन फल होखेल अहार । बाघ सिघ बन बहुत बिआये, रउरा बानी लरिका नदान ॥२॥
लखन फिरि जाना हो घर के ।। जनम जनम हम दास कहाई लें, जहाँ पठाइबि ताँ चलि जाई लें । एक त न जइवो नम्र अजोधिआ, जहाँ प्रान वेचि के बिकाइले ॥३॥
लखन फिरि जाई न घर के ।।
केकई के दोस कुछ नाहीं बाटे, लिखल लिलार न टरिलें । 'तुलसीदास' प्रभु आस चरन के, अब देवता लोग भइले बलिहारी ॥४॥
लखन फिरि जाना हो घर के ।
'रामचन्द्र लक्ष्मण से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे लक्ष्मण तुम घर को लौट जाओ।' कहते हैं--
'हे भाई ! पिताजी ने प्राण त्याग दिया। माताजी की हालत ऐसी है कि वे हर घड़ी हाथ में विष लिये प्राण देने पर तुली हैं। अवध के सभी लोग व्याकुल हो रहे हैं और भाई भरत बिकल हैं। हे लक्ष्मण ! यह सब जान कर तुम घर को लौट जाओ' ।।१।।
'हे भाई ! बन में पत्ता हो ओढ़ना पड़ता है और बन के पत्ता का हो बिछावन भी बनाया जाता है। बन के फल-फूल हो आहार के लिये एक मात्र साधन हैं। और इसके अतिरिक्त बाघ, सिंह बन में भरे पड़े हैं। है भाई ! इसके अतिरिक्त तुम नादान बालक हो। तुम घर लौट जाओं ॥२॥ 'लक्ष्मण ने उत्तर दिया- हे भाई, में आपका तो जन्म-जन्म का दास हूँ। मुझे आप जहाँ भेजें मुझे जाना ही होगा; परन्तु एक ही जगह नहीं जाऊँगा और वह जगह अयोध्या नगरी है, जहाँ जाने से मेरे प्राण बेचने से बिक जायेंगे। मैं वहाँ स्वतन्त्र न रह सकूंगा। मेरा प्राण दूसरे के अधीन हो जायगा।'
'हे भाई, केकई मा का कोई दोष नहीं है। भाग्य का विधान नहीं मिटता है। तुलसीदास कहते हैं कि लक्ष्मण ने कहा कि हे भाई ! मेरो आशा आपके चरणों को है। लक्ष्मण के इस वाक्य से देवगण वलिहारो हो गये।'
तुलसीदासजी को शब्द-योजना इस गोल में वहो आज भी रह गयी है जिसको उन्होंने प्रथम में रखा था इसमें मुझे शक है; क्योंकि इसमें कहीं कहीं यति-भंग का दोष है; पर यह अवश्य है कि यह रचना उनको हो यो। समय के प्रभाव से गोत के स्मरण में त्रुटियाँ आ गई हैं। इसी से तो उनका नाम इसके साथ चला आता है। हमारी स्त्री कवियित्रियों में दूसरे के नाम से अपनी कविता कहने को प्रया न कभी यो ओर न आज है। यह प्रया तो विद्वान् पुरुष कवियों हो में मिली है।
( ५५ )
कठिन बान तू मरलू हो केकई ! भला काम ना कइलू । कहेली कोसिला रानी सुन हो केकई! हम त तोहार कछु नाहीं विगरली । बसलि अजोधिया तू काहे के उजरलू, हमरा राम लखन के गॅववलू ॥१॥
कठिन बान मरलू हो केकई! कठिन बान० ॥ एक वर मंगितू, दूसर वर मँगितू, माँगि लोतू सो रहो भंडार । अपना भरतजी के राज तू दीहि तू, राम के घरवा राखि लोतू ।।
राखि लीतू प्रान हमार ए केकई ॥२॥
कठिन बान ० ॥ जरि जाले राज, जरे सुख सम्पति, हरि बिना जरे ससुरारी । 'तुरुसीदास' प्रभु आस चरन के, अहो तू त चित्रकोट दिखलवलू ।।३।। कठिन बान०
चित्रकूट जाते समय कौशल्या रो-रोकर केकई से कह रही हैं- 'हे केकई, तुमने बड़ा कठिन बाण मारा। अच्छा काम नहीं किया।'
'कौशल्या रानी केकई से कह रही हैं- हे केकई! मैंने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा था। तुमने क्यों बसो हुई अयोध्या नगरो को उजाड़ दिया और हमारे राम लक्ष्मण को गर्वां दिया। मैंने तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा था। हे केकई! तुमने कठिन बाण मुझे मारा।' ॥१॥
'तुम भले हो एक वर मांग लेतीं, भले ही दूसरा वर भी माँग लेतीं, और तुम भले ही सोलहो भण्डार भी माँग कर अपने भरत जी को राज्य देतीं। पर हे केकई, हमारे राम को तुम घर रहने देतीं- हमारा प्राण भर रहने देतीं। हा, तुम ने बड़ा तीक्ष्ण बाण मारा है।' ॥२॥
'हे केकई! यह राज्य जल रहा है, सुख-सम्पत्ति भी जल रही है। और राम के बिना यह हमारी ससुराल अयोध्या भी जली हुई है। तुलसी- दास कहते हैं कि कौशल्या कहती हैं कि अब तो मुझे ईश्वर के चरणों को आशा है। हा! तुमने तो उन्हें चित्रकोट दिखला दिया।' ॥३॥
कितना सजीव वर्णन है। करुणा का रूप खड़ा कर दिया है। वात्सल्य प्रेम हर वाक्य से टपका पड़ता है-पुत्र को ममता और माता का स्नेह हर अक्षर के साथ-साथ लिपटी हुई रो रही है। क्यों ऐसा न हो ! तुलसीदास की लेखनी क्या कमाल नहीं दिखला सकती !
( ५६ )
घरें आ गइले लछुमन राम अवधपुर आनंद भए ।। घरें आ गइले० ।।
आवते मिललें भाई भरत से, पाछे सभवा बइठल देवता मिलले, घरें आ गइलें लघुमन राम कोसिला माई । अव धनि केकई हो माई ॥१॥ अवध पुर आनंद भए, अवधपुर आनंद भए ।।
सीता सहिते सिंहासन बइठरें, हलिवेंत चवर डुलाई । मातु कोसिला अरती उतरली, सव सखि मंगल गाई ॥२॥ अवधपुर० ।। अवधपुर० ॥
कर जोरि बोलेलें राम रघुराई, सुनताड़ केकई हो माई ! तोहरा परतापे हम जगत भरमली, तू काहे बइठेलू लजाई ॥३॥ अवधपुर० ।। अवधपुर० ।।
कर जोरि बोलताड़ी केकई हे माई, सुन बाबु राम रघुराई ।। इहो अकलकवा कइसके छूटिहें हमरा कोखी जनम तोहार होइ जाई ॥४।। अवधपुर० ।। अवधपुर० ।।
दुआपर में माता, देवकी कहइह, हम होईवि कृस्न जदुराई । 'तुलसीदास' प्रभु आस चरन के, तोहर दुध नाहि पीअवि रे माई ॥५॥ अवधपुर० ।। अवधपुर ० ।।
यहाँ पर तुलसीदास ने केकई और राम का मनोमालिन्य दूर करके 'राम के हृदय की कसक और केकई की लज्जा को कितने सुन्दर रूप से व्यक्त किया है।
'राम और लक्ष्मण गृह लौट आये। अवधपुर में आनन्द को धूम है।' 'श्री रामचन्द्र आते ही आते भरतजी से मिले। इसके पीछे कौशल्या के चरण छुए। फिर उन्होंने सभा में बंठे हुए देवतागण से भेंट को। और, तब प्रसन्न मन केकई के पाँव पड़े। ॥१॥
'तब सीता के साथ सिहासन पर बैठे। हनुमान चंवर डुलाने लगे। माता कौशल्या ने आरती उतारी और सब सखियाँ एक स्वर से मंगल गान करने लगीं। ॥२॥
'मंगल गान समाप्त होने पर राम ने हाथ जोड़कर कहा- हे केकई ! माँ !! सुनती हो। मैंने तुम्हारे प्रताप से जगत् भर का भ्रमण किया। तुम क्यों इस तरह लजाकर चुप बैठी हो।' ॥३॥
केकई ने उठकर आँखों में आंसू भर कहा- 'हे रामचन्द्र, मेरा यह कलंक फंसे छूटेगा ! जानते हो? जब मेरो कोख से तुम्हारा जन्म हो जायगा तब। अन्यया यह कलंक कभी नहीं छूटेगा ।' ॥४।।
राम ने केकई को क्षमा किया और कहा- हे माता ! द्वापर में तुम देवकी बनोगी और मैं यदुपति कृष्ण कहलाऊंगा और मैं तुम्हारे गर्भ से प्रकट होऊंगा। पर हे ना! तब भी मैं तुम्हारा दूध न पोऊंगा।'
'तुलसीदास कहते हैं कि मुझे तो प्रभु के चरणों को हो एक मात्र आशा है।'
पाठक ! अन्तिम चरण पर ध्यान दें-- 'तोहरा दूध नाहि पोअबि ए माई।'
राम ने हर एक वाक्य से ही अपने १४ वर्षों से गड़े हुए कोट को हृदय से निकाल फेंका है। ठोक है। कितना हो हृदय पवित्र क्यों न हो और उससे मेल कितनो क्यों न धो डाला गया हो; पर उस पर को लगी हुई चोट की कसक को कोई तभी मिटा सकता है, जब चोट पहुंचाने वाले के हृदय पर भी उसके निकासने से कुछ वैसा हो घाव हो जाय कि जिससे वह समझ सके कि उसको दी हुई चोट की पीड़ा दूसरे को इसी तीक्ष्णता से अनुभूत हुई होगी। यहाँ राम ने केकई का मुँह माँगा वर उसे दिया तो सही पर अपने हृदय को चोट जिते वे १४ वर्षों से हृदय में वहन कर रहे थे- अवसर पाकर इस सुन्दर रूप से बाहर किया कि केकई के हृदय में पहले से भो अधिक दुखद घाव आपहो आप उत्पन्न हो गया। केकई राम की माता बनेगी। उसका उन्हें बनवास देने का कलंक मिट जायगा। इससे वह कृत्यकृत्य हो जायगी; पर राम उसका पुत्र होकर भी उसका दूध नहीं पीयेंगे। पाठक ! विचारें तो इस वरदान से केकई को सन्तोष हुआ होगा या पश्चात्ताप ? वह तो सोचने लगी होगी कि इससे तो अच्छा यही था कि में जो कलंक वहन करती थी, वहीं किवा करतो । राम सौत के पुत्र थे। उनके ऊपर किये गये अत्याचार को वह कलंक क्यों अनुभूत करे ? यदि वह कलंक ही है, तब भी वह इस वरदान से अच्छा ही है, क्योंकि दूसरे जन्म में तो उसके उदर के पुत्र होकर भी उससे उसके पूर्व जन्म के कृत्यों के कारण घृणा करेंगे - उसके दूध को पोने से अस्वीकार कर देंगे। वह अपने आत्मज के इस तिरस्कार को क्यों और कैसे सहन कर सकेगी ? इसलिए केकई राम के इस वरदान, से प्रसन्न नहीं; बल्कि अधिक दुखो हुई होगी। सचमुच कलाकार तुलसी ने केकई के करतूतों का बदला राम द्वारा उसे इस आत्मग्लानि ओर पश्चात्ताप में दिलवा कर कला के 'सत्यं शिवं सुन्दरं' को परिभाषा को खूर निभाया है। वह कला, कला नहीं, जिसमें स्वयं पापी को अपने करतूतों से हो आत्म-ग्लानि और पश्चात्ताप न उत्पन्न हो जाय। और वही बात यहाँ हुई भी है। राम ने उदारता अवश्य दिखाई-अपना बड़प्पन भी निभाया; पर एक ऐसी बात कह दो कि जिससे केकई को आत्म-ग्लानि से अपने कुकृत्यों से अपने कुकृत्यों के लिए नरक- यातना आजन्म भोगना पड़ा।
( ५७ )
हम त सुनीले सखी रामजी होत बिहाने चलि जइहें नीको ना लागे सखि अँगना निकहू ना लागे भवनवा हो ५हुँनवा, लाल ! दुअरवा से, हो लाल ।।१।। हमनीका जनतीं जे राम निरमोहिआ, त हमहू किरिअवा खिअइतों हो लाल । नेहिया लगा के मोरा मोहले सजनवा, से देखहूँ के भइले सपनवा हो लाल ॥२॥ जो हम जनितीं जे राम जइहें चोरिया, सपनों सनेहिया ना जोरितों हो लाल । कहत महेन्दर मोहले सबके परनवा से, लगा' के दागा कइले हो लाल ॥३॥ नेहिया लगा
जनकपुर की सखियाँ रो-रो कर आपस में कह रही हैं- हे सजी ! मैं सुनती हूं। रामजी अतिथि हैं। कल प्रातःकाल हो वे यहाँ से चले जायेंगे।'
हे सखी ! मुझे आंगन द्वार कुछ अच्छा नहीं लगता, अर्थात् घर का काम-काज करना कुछ नहीं सुहाता। यह घर आज काटने दौड़ता है। यदि हम जानतो कि रामजी निर्मोही हैं, तो हम पहले हो उनसे प्रेम को शपथ खिला लेतीं। हा, नेह लगाकर सांजन ने मुझे मोह लिया। अब स्वप्न में भी उनका दर्शन दुर्लभ हो गया, या उनका देखना अब स्वप्न हो गया ।॥१,२॥
हे सखो ! जो हम जानतो कि राम चोरी जायेंगे तो स्वप्न में भी उनसे स्नेह नहीं लगाती। महेंद्र मिश्र कहते हैं कि राम ने हम सबका 'प्राण मोह लिया। उन्होंने नेह लगाकर दगा दिया ।।३।।
इस गोत के निर्माण का समय १५-२० वर्ष पूर्व का है। पाठक देखें कि आये दिन भी कितने सरस गीत भोजपुरी में बन रहे हैं। महेंद्र मिश्र छपरा जिले के रहने वाले हैं। ये बड़े रसिक जीव हैं। इनको जाली नोट बनाने में सजा भी हो गयी थी। इनके रचे संकड़ों गीत कई जिलों में गाये जाते हैं। इनके गीतों के तीन संग्रह भी छपे हैं।
( ५८ )
जोगिनिया बनि हम आइवि हो। हमरा बलमूजी के कारी कारी जुलफी, ककही पर ककही चलाइबि हो ।।१।। हमरा बलमूजी के बड़ी बड़ी अंखियां, मुरुमा पर सुरुमा लगाइबि हो ॥२॥ हमरे बलमूजी के छोटे छोटे दैतवा, विरवा पर विरवा चभाइवि हो ।।३।। हमरे बलमूजी के गोरे बदनवा, कुरता पर कुरता पेन्हाइवि हो ॥४॥ हमरा वलमूजी के पतरी कमरिया, घोनिया पर धोतिया पेन्हाइवि हो ॥५॥
हमरा बलमुजी के छोटे छोटे गोड़वा, पनही पर पनही पेन्हाइवि हो ॥६॥ जोगिनिया बनि हम आइवि हूँो ।।
इस गीत में श्लेष है। एक पक्ष में हमें प्रेम-विह्वला विरहिणी के प्रेमोद्गार मिलते हैं, तो दूसरे पक्ष में इसी को अनमेल विवाह की बनी हुई प्रौढ़ा नायिका की व्यंग्योक्ति भी कह सकते हैं। अपने छोटे पति के प्रति खीझ खीझ कर वह यह व्यंग गीत गा रही है।
( ५९ )
बावा पइसा के लोभे बिआह कइले । बारह वरिसवा के हमरी उमिरिया अस्सी वरिसवा के वर खोजले ।। मिलहु सखिया रे मिलहु सलेहरि मिलि जुलि चलीं जा बर देखले ।। दाँत जे टूटि गइले चाम जे झूलताड़े वरवा चंबर भइले ।। सोरहों सिगार करिके चढ़लों अटरिया मथवा के ऊपरा से बुडवा बोलावे लगलें ।॥ बावा पइसा के लोभे बिआह कइले ।।
अर्थ सरल है।