नित्रिया के डाड़ि मइया लावेली हिंडोलवा कि झूलो झूली ना, मैया ! गावेली गितिया की झुली झूली ना ।। सानो बहिनी गावेली गितिया कि झूली० ॥१॥ झुलत-झुलत मइया के लगलो पिसिया कि चलि भइली ना मळहोरिया अवसवा कि चलि भइली ना। मलहोरिवा० ॥२॥ सूनलि वाड़ कि जागलि ए मालिन ! मोहि बूंद एक पनिया पिआवहु कि बूंद एक ना मोहि के पनिया० ॥३॥
कइसे में पनिया पिआई ए जगतारनि मइया ! मोरा गोदी ना, मइया बालका तोहार हो ।। कि मोरा गोदी ना वालका तोहार० ।।४।। बलका सुनाव मालिनि ! सोने के खटोलवा कि बूंन एक ना,
मोहि पनिया पिआव मालीन बूंन एक ना ।।५।। पनिया पीअहू पाटी वइडी ए सीतलि मइया ! कहीं ना हे नगरिया कुसलात मझ्या कहीं ना रछपाल ।।७।। हमरो नगरिया मालिनि खेम कुसलतिया भाला मालिनि चाहीले तोहार कि भाला मालिनि चाहीले तोहार मालिन। माला० ।।८।। जइसन मालिनि मोही के जुड़वलू कि ओइसन जुड़ाऊ धिअवा
एक हाथे लेली मालिनि ॲझर तमरुआ दोसर हाथे ना ए सिहासनपाट हो, दोसर हाथे ना ।।६।।
तोहार कि मालिनि। ओइसन जुड़ाऊ० ॥९॥
बीअवा जुड़इहें मालीन अपना ससुरवा कि पतोहिया तोरि सांझे
दीक्षग जग्डन्हें कि पनोहिया तोर। मइया के खिजमति करीहें
कि पतोहिया तोरि ।।१०।।
नीम को डाल पर झूला लगाकर माता भगवतो इस पर झूल-मूलकर गोत गाती हैं-सातो बहन देवीजी झूल-झूल कर गीत गाती हैं' ।।१।।
'झूलते-झूलते माँ को प्यास लगो। वे मालो के घर चल पड़ीं-वे माली के आवास पर पहुँचो' वहाँ उन्होंने कहा-
'हे मालिनि, तुम सोती हो या जागती हो। एक बूंद मुझे पानी पिलाओ --अरे एक बूंद भी जल मुझे पिला दो' ॥२॥३॥
'मालिनि ने कहा- हे जगतारिणी माँ, मैं आपको जल कैसे पिलाऊँ ? मेरी गोदी में आपका बालक है। मेरी गोदी में आपका बालक है। मैं जल कैसे पिलाऊँ' ॥४॥
'देवीजी ने कहा-'अरी मालिन, सोने के खटोरे पर बालक को सुला दो और मुझे बूंद भर जल पिलादो- हे मालिन मुझे बूंद भर जल पिला दो'
॥५॥
'मालिन ने एक हाथ में तांबे का गड़आ लिया और दूसरे हाय में सिहासन लेकर देवोजो से कहा- हे शोतला माँ, पानी पोजिए और इस सिहासन पर बैठिये। और हे मा, नगर की रक्षा का हाल कहिये।' ६,७।।
शीतलाजी ने कहा- अरे मालिन ! मेरी नगरी में तो सब कुशल है। तुम्हारी भलाई चाहा करती है- तुम्हारी भलाई चाहा करती हूँ" ।।८।।
'हे मालिन जिस तरह से तुमने मुझे जल पिला कर तृप्त किया वैसी ही तुम्हारी कन्या जुड़ाय, तृप्त होवे, वैसी ही तुम्हारी पतोहू तृप्त होवे। हे मालिन, तुम्हारी कन्या तो अपनो ससुराल में तृप्त होगो और तुम्हारी पतोहू देवी के यहाँ संध्या समय दोप जलावेगी। तुम्हारी पतोहू देवोजी की सेवा करेगी।'
( २ )
कथी केरा ककही सीतलि मइया, कथी लागल हो साल ए । कथी का मचीअवें सातों वहिनी झारे लामी हो केस ए ॥१॥ सोने केरा कहही सीतलि माई जी रूपे लागल हो साल ए । सोने का मचीअवें जगदम्मा माई झारे लामी हो केस ॥२॥
टूटि गइली ककही फूलमती मइया मुरुकि गइली हो साल ए । कोपली जगदम्मा माई जी सोनरा घरे हो जांघ तोरि थाके ऐ सोनार बहियाँ लागे जवनी हाये गढ़ले रे सोनारा ककही केरे रोवले सोनरा के मइया लटि धुने रे अबकी गुनहिया सातो बहिनी माफ करो जासु ए ॥३॥ रे धून । साल ए ॥४। केस ए । हमार रोवेले सोनारा के जोइया लटि धूनि रे केस ए ॥५॥ ए। अबकी गुनहिए जगदम्बा मइया सेनूरा बकसे मोर ए ॥६॥ गढ़ि दीहे ए ककही सीतलि माई जो जोरी दीहलें रे साल ए । सोने के मत्रीअवे जगतारिन झारति बाड़ी लामी केस ए ॥७॥
'अरे शीतला माता को कंघी किस चीज को बनो है? उसमें किस चोज के साल लगे हैं? और किस वस्तु की बनी मचिया पर बैठकर सातो बहन लम्बे लम्बे बाल झारती हैं।' ॥१॥
'शीतला माता की कंघी सोने की है और उसमें रूपे के साल लगे हैं। और सोने की मचिया पर बैठकर जगदम्बा केस झारती हैं ॥२॥
'फूलमती माता को कंधी टूट गई। उनको बाह में उससे मोच आ गई। उन्हें क्रोष आया और वह सोनार के घर पहुंची। वहाँ पहुंचकर उन्होंने कहा, 'अरे सोनार' तेरी जांघ निर्बल हो जाय। और तुम्हारी उस बाँह में घुन लगे, जिस हाथ से तूने कंधी के साल बनाये थे' ।।३,४।।
'इस पर स्वर्णकार की माँ (लट धुन धुन) सिर पोट-पोट कर रोने लगो । और कहने लगी- हे माता, अबकी बार अपराध क्षमा करदो। मेरो गोद भरो। सोनार को स्त्री सिर पीट-पोट (केश धुन धुन) कर रो-रो कहने लगी-- हे जगदम्बे, अबकी बार अपराध क्षमा करो। मेरा सिन्दूर छोड़ दो। हे शीतलाजी फिर यह कंधो गढ़ देगा और टूटे सालों को भी बना देगा। हे जगतारिणी माँ, आप सोने को मचिया पर बैठकर बार झारना' ।। ५,६,७।।
कंवरू से जब चललों सीतलि मझ्या झालरि इंडिया फनाई जी ॥१॥ लाले लाले डड़िया ए माई जी सवूज ओहार जी ।
लागि गइले बतीसो कहार जी ॥२॥ डड़िया फनाई जव चलली जगदम्मा हो माई जी, चलि भइली माधो का दुआर जेसितला पुकारे ली माधव के मझ्या चिहाई हो ॥३॥ माधो के मूअले भइले छव मास आजु रउरा दीहली जगाई हो ।।४।।
कहाँ जरवले रे माधो सेवकवा रे सेही ठइयाँ देइ ना बताई रे ।।५।।
आगा आगा जाले माधो मइया रे ताही पाछे ए सितलि माई जी ।।६।।
धूरिया वटोरि ए माई जी कुरिया लगवलू हिललू खोइछवा
में वन्हिहो ।।७।।
सुमिरे त लगली माई जी अपनो देवतवा हो उठि के मघउआ मइले ठाढ़ जी ॥८॥ धनि धनि मइया तोहारि नांव गड्याँ धनि हई प्रभुता तोहार हो ॥९॥
'शीतला माता कामरूप देश से झालरों से सजो हुई पालकी में चलों। डाँडी लाल रंग से रंगी हुई थी और उस पर सब्ज रंग का ओहार पड़ा हुआ था और लगे हुए थे बत्तीस कहार' ॥१,२।। 'पालको फना कर जब जगदम्बा चलीं, तब सोधे माधव के दरवाजे पर आकर खड़ी हुई' ॥३॥
'वे 'माधव माधव' कहकर पुकारने लगीं और माधव की माँ माधव का नाम सुनकर आश्चर्य में पड़ गई। उसने कहा- अरे माधव को मरे छः मास बीत गये। आज आपने मुझे स्मरण करा कर मेरो निद्रा पुनः भंग कर दी ॥४॥
'देवी ने कहा- अरे तूने माधव सेवक को कहाँ जलाया? जिस जगह हो, वह मुझे बतला दो।' ॥५ः
आगे आगे माधव की माता चली और उसके पोछे शोतला माता चलीं' ।।६।।
'शीतला माता ने उस स्थान की धूल बटोर कर अपने अंचल में वाँध ली। और तब माता अपने इष्टदेव को सुमिरने लगी और माधव उठ फर खड़ा हो गया' ।।७,८।।
'माधव देवो की विनती करने लगा हे माता, तुम धन्य हो। तुम्हारा नाम धन्य है, तुम्हारी प्रभुता भी धन्य है' ॥९॥
निम्नलिखित गोत मुझे आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व अपनी लगभग ९० वर्षीया पितामही परम पूजनीया श्री धम्र्मराज कुँअरि से मिले थे।
( ४ )
अइली सीतलि मइया कलसवा भइली हो ठाढ़ि, घूरि घूरि चितवेली मैया वलकवा करे ओर ।।
रोवे ले बलका के मइया लट धुनि हो केस, कइसे कइसे सहवे रे वलका अगनिया के रे जोति ।।
तोरी लेखे आहो ए मइया आगिनी के रे जोति, मोहि लेखों आहो ए मइया सीतली वेअरिया हो ।।
सब के डलिअवा ए मइया अरिछों परिछीं, हमरे डलिअवा ए मया ठहरें तंवइले हो ।
सानु मारे खुदुके ए मैया ननद पारे गरिया हो, हो अनके जामलि गोतिनियाँ वझिनिया घरे हो नाँव ।।
अस मन करे मइया जहरवा खाइ मरितों हो दुई मन करे मैया अगिनिया जरि हो जाँउ ।।
चुप होयु चुप होग्नु वझिनी तिरिअवा अरे तोहरे बलकवा ए तिवई तोहि जुड़वइवों हो ।।
इस गीत का एक अपना इतिहास है, जो इस संग्रह से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है। शायद सन् १९२६ का वसन्त था। मुझपर पनिसहा माता का आक्रमण हुआ। कई दिनों के बुखार और बेचनी के उपरान्त जब माता प्रकट हुई और वरोगा हुआ, तब प्रथम गोत जो पितामहीजो ने देत्री को आराधना में गाया, वह यही गीत था। उस बेचैनी में जब घर लीप-पोत कर साफ करके मुझे पवित्र आसन पर सुलाकर कलस स्थापन कर देवीजी का पूजन, धूप- दोप आदि उपचारों के साथ किया गया और गोत से आराधना शुरू हुई, तो मुझे ऐसा लगा कि कलश के सामने पोतवस्त्रा देवी खड़ी हैं और उनसे मेरी स्वर्गीया माता गीत में वर्णित विधि से रो-रो कर प्रार्थना कर रही हैं। फिर गोल के करुण रस के स्रोत में में इस तरह डूबने-उतराने लगा कि मुझे प्रथम-प्रथम उसी समय यह स्वीकार करना पड़ा कि इन ग्राम-गीतों में कितना रस है। तभी मैंने गीत-संग्रह करने का संकल्प भी कर लिया। प्रथम गीतों का संग्रह मैने पूजनीया पितामहोजी से ही शुरू किया। उनकी उमर एक ८०-९० वर्ष की थी। गीत उन्हें बहुत पुरानी पुरानी तर्ज के स्मरण थे। उनके ऐसा सौन्दर्य हमें बाद के संगृहीत गीतों में कम मिला। भाषा में भी विशेष भेद मिला। करीब १०० के गीत, जिनमें अधिकांश भजन हो थे। मुझे उनसे प्राप्त हुए। उनकी पुण्य स्मृति बनाए रखने के लिए उनके द्वारा प्राप्त गीतों के ऊपर मैंने उनके द्वारा प्राप्ति लिख दी है।
'शीतला माता आई और कलश के पास खड़ी हो गई। देवी घूर घूर करके बालक की ओर देखने लगीं। उधर बालक की माता सिर पोट-पोट (लट धुन धुन) कर रो रही थी और कह रही थी हे वत्स, तुम किस तरह से अग्नि जोति का यह ताप सहन करोगे !' ॥१,२॥
पर बालक कह रहा था- अहो मा, तुम्हारे लिए तो यह ताप अग्नि, की ज्योति मालूम होता है; पर मेरे लिए हे माँ, यह ताप शीतल पवन ही है' ॥३॥
बालक की मा फिर शीतला जो से विनय करती है- हे माँ, आप सब कों डाली अरीछती परीछती हो अर्थात् सब के बालकों को रक्षा करती हो।
पर मेरो हो डाली (अर्थात् बालक) अपनी जगह पर हो धरो-धरी ताँ रही पर है'।।४।।
'हे देवी मेरी सास मुझे खुदुके (केहुनी से) से मारती है। ननद गाली देती है। और दूसरें की जन्मी हुई मेरी जेठानी मुझे बांझिन का नाम देती है। इससे हे माँ ! ऐसा मन करता है, जहर खाकर मर जाऊं। दूसरा मन होता है कि आग में जलकर प्राण दे दूँ' ।।५,६।।
'देवी जो इस प्रार्थना से द्रवित हो पड़ीं। कहा- चुप हो, चुप हो, अरो बाँझ स्त्रो शान्त हो। मैं तेरे बालक का दान कर तुझे जुड़ाऊँगी (शान्त करूंगी)'।।७।।
पाठक ! जिस समय यह गोत कोकिल कण्ठ के समान कण्ठ रखनेवाली स्त्रियों से आत्तं और करुण स्वर में गाया जाता है, उस समय सचमुच आतं माता के रूप में करुणा सजोव बनकर खड़ी हो जाती है।
( ५ )
(पूजनीया पितामहोजी द्वारा प्राप्त)
अपने सूतेली मैया ओही देवघरवा, ए मैया दुअरवा सेवकवा भइले ठाढ़ ।।१।। अपने सूतेली देवी ओही बँसहरवा, ए घरवा दुअरा तिवई भइली ठाढ़ ।।२।। काहे लागि ठाढ़ मइले भयरो भगतवा, ए मैया
काहे लागि ठाड़ि वा इ अवलवा ।।३।। जस लागि ठाढ़ भइले भयरो भगतवा, ए मैया पूत लागि ठाढ़ि
वा इ अवलवा ।।४।। जस लेहु जस लेहू भयरो भगतवा, ए मैया पूत लेसु घरे जासु अवलवा ।।५।। महि भगत जन दूनों करवा जोरि, राउर गुनवा अगम अपार ।।६।।
'देवी माता, आप तो उस देवघर में सोती हैं और बाहर दरवाजे पर सेवक खड़ा है। देवीजी आप उस बॅसवारि (बाँस की कोठ) में शयन करती हैं और बाहर घर के दरवाजे पर स्त्री खड़ी है' ॥१,२।।
देवी जी ने पूछा- अरे भैरो भक्त, किस हेतु तू खड़ा है और हे माई, किस लिए वह अबला खड़ी है ?' ॥३॥
'भक्त भैरो ने उत्तर दिया- हे माँ, यश के लिए तो भैरो भक्त यहाँ खड़ा है और हे माँ, पुत्र के लिए वह अबला खड़ी है।' ॥४।।
'देवीजी ने कहा-'ऐ भक्त भैरो, तुम यश लो और हे माई, यह अबला अपना पुत्र लेकर घर जाय ॥५॥
'भक्तगण दोनों कर जोड़कर देवी को आराधना करते हैं और कहते हैं कि हे देवि ! आपके गुण अगम और अपार हैं।' ॥६॥
( ६ )
( पूजनीया श्रो पितामहीजी से प्राप्त। )
एक किअरिया मैया दवना मरुअवा दूसरे किअरिया में धूप । तीसरे किअरिया सातो बहिनी ठाढ़ीं घरि घरि नवरूप ।।१।। चल रे देसन लोगे बलक भोखि मांगी, पूत विनु सियरे अन्हार । पुतवा ना देवों मैया जोगिनी होइबों, रन बन रहबों छवाय ॥२॥ चल रे देसन लोगे पुतर मोखि मागे, पूत बिनु सियरे अन्हार ।
'हे मा, एक क्यारी में दवना (एक खुशबूदार घास जो गुलदावदी के समान होती है) और मरुआ (गोड़हुल) है। और दूसरी क्यारी में धूप का पौधा है। तीसरी क्यारी में सातो बहिन देवी नये-नये रूप धारण करके खड़ी हैं ॥१॥
'हे देश के निवासिनो, चलती जाओ, पुत्र की भिक्षा मांगो जाय। बिना पुत्र के सर्वत्र (सियरे, अन्धेरा हो है। हे देवीजी, आप यदि पुत्र न देगीं, तो हम योगिन हो जायेंगी और घोर वन में कुटिया छवाकर रह लेगी (पर घर नहीं जायेंगी)' ॥२॥
'हे देश की स्त्रियो, चलती जाओ, पुत्र की भिक्षा माँगें। पुत्र के बिना सर्वत्र अन्धेरा है।'
पूजनोया श्री पितामहीजी से प्राप्त।)
सातो वहिनी चलली नहाये, आगा आगा घाजा फहाय । पाछावा भगवता लागल जाय ।।
मइया होई ना सहाय मोर मन तरसे दरस के । मइया होई ना दयाल मोर जिअरा तरसे दरसे के ॥११७
किया तुह मारे लू बाम्हन हो, किया रे मारे लू घेनु गाई । कवना बिरोगे तिरिआ रोवे लू, मइया होइ ना देयाल, मोर जियरा तपेला दरस विनू ॥२॥
नाहीं हम मारीला बाम्हन जी, नाहीं रे मारीला घेनु गाई । कोखिया बिरोगे हम रोइ ला, मइया होई ना देयाल ।। मोर जिअरा तरसे दरस के ॥३॥
किया तुहू मारेलू सासु हो, किया तुहू तुलसी उखारेलू हो । कवना बिरोगे तिरिआ रोएलू, देवीं होई ना सहाय ।। मोर जिअरा तरसे दरस के० ॥४॥
नाहीं हम मारेला सासुजी, नाहीं हम तुलसी उखारीलें हो । एक बलकवा विनू रोइला, देवी होई ना देयाल ।। मोर मन तरस० ॥५॥
'सातों बहनें स्नान करने चलीं। उनके आगे-आगे ध्वजा फहरा रही है। पीछे-पीछे भक्त चला जा रहा है। और कहता जाता है- हे माँ, दयालु होइये। हमारा मन दर्शन के लिए तरस रहा है। हे माँ दयाल बनिये, हमारा हृदय दर्शन के बिना तप रहा है।'
'देवियों ने प्रश्न पूछा- क्या तुमने ब्राह्मण मारा है, या गोहत्या को है ? किस वियोग से हे स्त्री तू रो रही है और कह रही है कि माँ दयाल होइये, मेरा हृदय दर्शन के बिना तप रहा है ?'
'स्त्री ने उत्तर दिया- मैंने न ब्रह्महत्या को है और न गोहत्या ही। मैं कोख (पेट) के वियोग से (अर्थात् बाँझ होने की वजह से) रो रही हूँ और कह रही हूँ कि माता, दयाल होइये। मेरा हृदय दर्शन के बिना तप रहा है।'
'देवियों ने पुनः पूछा- क्या तुमने कभी अपनी सास को मारा है, या तुमने तुलसी बिरवा को उखाड़ फेंका है? किस वियोग से तुम रो रही हो और कह रही हो कि माँ, दयालु होइये, मेरा मन दर्शन के लिए तरस रहा है ?'
'स्त्रो ने निवेदन किया- हे देवोजो, मैंने न कभी सास को मारा है और न कभी तुलसी के बिरवा हो को उखाड़ फेंका है। केवल एक बालक बिना मैं रो रही हूँ और विनती कर रही हूँ कि मां दयाल होइये। मेरा जी दर्शन के बिना तप रहा है।'
स्त्री के हृदय में सन्तान की कामना कितनी उत्कट होतो है, यह इस तरह के अनेक गीतों से सिद्ध होता है। बिना पुत्र के सम्पन्न स्त्री भी दुखो ही रहती है। यह भाव पुरुष में भी है; पर उतने उत्कट रूप में नहीं।
( ८ )
(पूजनीया श्री पितामहीजी प्राप्त ।)
चारों ओरि जल थल अगम गंभीर मइया ताहि बीचे मंदिल हो तोहार । मार्घाह पुसवा के परेला दूसरवा ए मइया, भरली जमुनवाजी के नीर ।। पनिया भरत मोरा केस उधिअइले ए देवी थर थर काँपेला करेज । देवघर वहरइत मोरा अंचरा धूमिल भइले मंदिल लिपत हथवा खिआय ।। एक वलकवा के कारन ए गोद भरनि मइया, घइलीं सरनिया में तोहार । बरहो बरसि ह्म सेवा रउरी, कइलीं मइया तवहूँ ना पूजे मन के आस ।।
'वंध्या पुत्र-कामना से देवी को सेवा करते थक गई, तब भी उसकी आशा नहीं पूरी हुई (निराश हो किस वेदना से वह गा रही है) ।'
'चारों तरफ गंभीर जल और अगम थल के बोच हे माँ तुम्हारा मन्दिर खड़ा है। माघ और पूस का तुषार पड़ रहा है और मैं उसी जाड़ा में यमुना जी से नीर (स्नान करके) भर रही हूँ। पानी भरते समय हे देवो, मेरे केश हवा में उड़ रहे हैं और कलेजा थर-थर काँप रहा है। हे देवी, तुम्हारा देवघर बहारते-बहारते मेरा अंचल धूमिल हो गया और मंदिर लोपते-लोपते हाय घिस गया।'
'हे गोद भरनेवाली भवानी जगदम्बे ! केवल एक बालक के हो कारण से मैने तुम्हारी शरण पकड़ी थी; परन्तु बारह वर्षों तक निरन्तर आप को सेवा एक समान करते रहने पर भी मेरे मन को आशा पूरी नहीं हुई।'
( ९ )
( पूजनोया श्री पितामहोजी से प्राप्त।)
निविया का डार्हि देवी झूले झूलना । मइया तहाँवाँ बलकवा के बावा लोटे लोटना । निविया के० ।। १ ।।
मझ्या तहाँवाँ बलकवा मइया ओड़े अँचरा । देवी हमरा बलकवा के देहू भिछा ना । निविया के० ॥ २ ॥
मइया तहाँवाँ बलकवा चाचा लोटे लोटना । मड्या हमरा बलकवा के देह मिछा ना । निविया के० ॥ ३ ॥
मइया तहाँवाँ बलकवा के चाची ओड़े अँचरा । मइया हमरा बलकवा के देहू भिछा ना। निविया के० ।। ४ ।।
'देवी नीम की डाल पर झूला झूल रही हैं। माँ नीम को डाल पर झूला झूल रही हैं। वहाँ बालक का पिता पृथ्वी पर लोट रहा है। माँ नीम की डाल पर झूला झूल रही हैं' ॥१॥
'वहाँ बालक की माँ अंचल पसारे खड़ी कह रही है कि हे देवी, मेरे बच्चे को भिक्षा में मुझे दे दीजिए। नोम की डाल पर देवी झूला झूल रही हैं ॥२॥
'वहाँ बालक का चचा पृथ्वी पर लोट रहा है कि हे माँ मेरे बच्चे को भिक्षा में मुझे दे दीजिए। देवी नीम की डाल पर झूला झूल रही हैं' ।।३।।
'वहाँ बालक को चाचो अपना अंचल पसार खड़ी-खड़ी कह रही हैं कि है देवो, मुझे मेरे बच्चे को भिक्षा दोजिए। नोम को डाल पर देवो झूला झूल रही हैं' ।।४।।
देवी के ऐसे प्रार्थना भरे गीतों से रोगो को एक ओर तो सान्त्वना मिलती है तथा मन बहलता है ओर दूसरो ओर उसको ओर घरवालों को इच्छा-शक्ति का प्रभाव रोग अच्छा होने में भो पड़ता है; इसलिए विज्ञान को दृष्टि से यह प्रया शून्य हो सो बात नहीं।
( १० )
(पूजनोबा श्रो पितामहोजो से प्राप्त ।)
झिल मिल झिल मिल रउरी मंदिरवा ए मइया हीरा मानिक लागल बा केवार ।।१।।
ओहीं रे मंदिरवा में सूतेली जगतारन मइया दूअरा तिवइया मइली ठाढ़ ।।२।।
जागल बाड़ कि सूतल ए जगतारनि मइया दूअरा तिवइया वाड़ी ठाढ़ ।।३।।
कवन संकट तोरा परेला तिवइया बारे नोदिया मोर दोहलू जगाइ ।।४।।
सात बालक रउरा देली ए जगतारनि मइया सातो बलकवा के निदान ।।५।।
अठवें गरभ अवतरले ए गोद भरनी मैया, सेकरो भरोसा नाहों बाय ।।६।।
चुप होखु चुप होखु तिरिआ अभागति मैया अवकों करव रछपाल ।।७।।
'हे देवीजी, आपका मंदिर दूर झिल-मिल झिल-मिल नजर आ रहा
है। उसमें हीरे और माणिक के किवाड़ लगे हुए हैं। हे जगतारणी भवानी !
आप उसी मंदिर में शयन करती हो और बाहर दरवाजे पर स्त्री खड़ी है। बह कह रही है- हे गोद भरने वाली माँ, तुम सोतो हो या जागती हो। तुम्हारे द्वार पर (दुआर घर का वह भाग जो जनानखाने से बाहर पुरुषों के रहने के लिये निर्धारित रहता है।) एक स्त्री खड़ी हुई है' ।। १, २, ३ ॥
'देवीजी ने भीतर हो से पूछा- अरे स्त्री, तुझे कोन-सा ऐसा संकट पड़ा कि मुझे कच्ची नोद में ही जगा दिया' ।।४।।
'आगता स्त्री ने विनती की, हे जगतारणी माता, आपने मुझे सात- बालक दिये; पर सातों का निधान (निधन) हो गया। आठवें गर्भ से, हे गोद भरने वालो मां, एक बालक हुआ, उसकी अब आशा (जीने को) नहीं है ।।५, ६, ।।
'देवी ने कहा- हे अभागिनी स्त्री चुप हो, चुप हो। इस बार देवोजो
रक्षा और पालन करेंगी ।' ॥७॥
( ११ )
(पूजनीया श्री पितामहीजी से प्राप्त ।)
साँझि मइले ए मइया घरम के बेरिया हो । आरे उठु सेवकवा सांझ मनावहु घरम के हो बेर ।।१।।
घरवा नाहीं घरनी ए मइया बसनवा नाहीं तेल । कइसे के साँझा मनाई सीतलि रउरी हो दरवार ॥२॥
घरवा बाड़ी घरनी ए सेवका बसनवा बाड़े तेल । उठ सेवका साँझ मनावहु सीतलि के हो दरबार ।।३।।
कथि केरा दीअरा महा मइया कथी सुत हो बाती । कथि के रे तेलवा ए मैया जरे सारी हो राती ।।४।।
सोने केरा दीअरा ए सेवका रेसम सुत हो बाती । सरसों के तेलवा ए सेवका जरइ सारी राती ॥५॥
जरी गइले तेलवा संपूरन मइली हो बाती । खेलत खेलत सातो बहिनी गइली अलमाई ।।६।।
'हे माता, संध्या हुई। धर्म करने का समय हुआ। हे सेवक उठो संध्या मनाओ । धर्म का समय है।'- देवी ने कहा ॥१॥
'सेवक ने उत्तर दिया- हे माँ घर में घरनी नहीं है और न बासन में तेल ही है। हे शीतला देवो, मैं आपके दरबार में कसे संझा मनाऊ।' ॥२॥
'देवी ने कहा' हे सेवक, तेरे घर में घरनी है। और वासन में तेल भी है। तुम उठो शीतला के मंदिर में संझा मनाओ' ॥३॥
'सेवक ने पुनः पूछा- हे महामाया, किस चीज का दीप और किस सूत की बत्ती तथा किसका तेल मगाऊं कि दोप सारी रात जलता रहे' ।।४।।
'महामाया ने कहा- हे सेवक, सोने का दीप मगाओ, रेशम के सूत को बत्ती बनाओ और सरसों का तेल रखो, तो दीप सारी रात जलता रहेगा' ।।५।।
'तेल जल गया। बत्ती सम्पूर्ण हो गयी। और खेलती-खेलती सातों बहनें अलसा कर सो गयीं।'
( १२ )
नइह सीझे ला जउरिया रे आल्ला, आला ससुरा में लगले गमकिया रे आला ॥१॥ आला अगिया बहन नइहर जाइब रे आला, आला भउजी उठेली दरप से रे आला ॥२॥ आला चूलिया खखोरि अगिया देली रे आला, आला ढकनी फुटेली चउकठिया रे आला ।।३।। आला ढकनी के बाड़ा चोट लागल रे आला, आला सासु गरिआवे बावा मुअनी रे आला ।।४।।
आला ढकनी के बाड़ा दुख देलसि रे आला, ढकनी कारन बहुआ बनवा सेवे रे आला ।।५।।
बाट रे बेटोहिया मोर भइआ के आला, आला ढकनी कारन धीआ बन वासल रे आला ।।६।।
आगे आगे आवे ढकनीं के बरघी रे आला, आला पाछावा से आवे भएरो भइया रे आला ।।७।।
काहाँ बइठावों ढकनी के वरधी रे आला, काहाँवाँ बइठइवों भएरो भइया रे आला ।।८।।
आला अँगना बइठइवों ढकनी के बरघी रे आला, आला अँचरो बइठइवों भएरो भइया रे आला ।।९।।
लेहुना सासु ढकनी के बरधी रे आला, आला ढकनी कारन चिया वनवासल रे आला ।।१०।।
यह देवी का गीत है, जो मुसलमानों के यहाँ निकसारी के समय गाया जाता है। यद्यपि हिन्दुओं के संसर्ग में आकर उन लोगों ने इस प्रथा को अपना लिया है; पर देवी का नाम न रख कर ढकनी आदि सज्ञाओं को देवी के स्थान पर वे रखते हैं।
'हे अल्लाह ! नइहर में तो मेरे खोर पकती है; पर ससुरा में मुझे उसकी गंध मिली। मैंने गंध पाकर (नइहर में देवो को निसारी सुनकर) कहा, मैं अग्नि का ताप बहन करने के लिये नइहर जाऊँगी। मैं नइहर गयी, तो वहाँ मेरी भावज दर्ष कर के उठी और चूल्हा से आग खखोर मुझे दे दिया। हे अल्ला ! चौकठ पर औंधी हुई ढकनो फुट गयो' ।।१, २, ३॥
'अरे अल्ला ! इसके ढकनी को बड़ी चोट लगी। मैं सासुरे आई, तो सास ने बाबा मारनी कह कर गाली दी। उन्होंने कहा- अरो (नादान) तुमने ढकनी को बड़ा दुख दिया। और ढकनी के कारन तब मैं वहू बन में रहने लगी' ।।४,५।।
मैंने कहा- हे बाट के बटोहो, तुम मेरे भाई हो। ढकनी के कारण मैं बनवासित हुई हूँ ।' ॥६॥
'आगे-आगे ढकनी को वरधी आतो है और हे. अल्ला, पोछ से भरो भाई आता है। हे अल्लाह, मैं ढकनी के बरधी को यानी देवी को कहाँ
बैठाऊंगी और भैरो भाई को कहाँ बैठने का आसन दूंगी ?' ।।७,८।। 'हे अल्लाह ! आँगन में तो देवी को बरथो (लदा हुआ बैल) को बैठाऊगी और सेवक भैया भैरो को अपने अंचल बिछाकर आसन दूंगी'
॥८,९।।
'हे सास, (ढकनी को प्रसन्न करके वापिस लायो) अब ढकनी की बरवी को ले लो। अरे अल्लाह, ढकनी के कारण ही बहू वनवास करती थी।'
हम लोगों के यहाँ भी देवो का पूजन कलश के पास होता है, और और दरवाजे पर तथा आँगन और बाहर के फाटक पर बड़ी वृद्धा लोग पीसकर उसका देवी को आँगन में अर्घ्य देती हैं तदुपरान्त उस स्थल पर जहाँ अञ्जलि जल गिरता है, स्त्री अपनी नाक रगड़ कर पुत्र दान माँगती है। फिर उस स्थान को कटोरे से या मिट्टी की ढकनी से ढक दिया जाता है। इस प्रथा को छाक देना कहते हैं। इसके बाद औरतें आसन के पास बैठकर देवी के गोत गाकर आराधना करती हैं। तब मालो आकर कलश को पूजा करता है और झाल बजाकर देवो को आराधना करता है। मुसलमानों में कलश स्थापन शायद नहीं होता; पर छाक की प्रथा है और उसी के आधार पर 'ढकनी' शब्द का प्रयोग देवी के अर्थ में आया है।
प्रस्तुत गीत में बालक को माता से यहो ढकनी फूट जाती है, जिसके कारण उसका वनवास होता है और वहाँ वह देवो को भैरो सेवक द्वारा प्रसन्न करती है और पुनः मनाकर घर वापिस लाती है।