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भजन

27 December 2023

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ऊधव प्रसंग

( १ )

धरनी जेहो धनि विरिहिनि हो, घरइ ना धीर । बिहवल विकल बिलखि चित हो, जे दुवर सरीर ॥१॥

धरनी धीरज ना रहिहें हो, विनु बनवारि । रोअत रकत के अँसुअन हो, पंथ निहारि ॥२॥

धरनी पिया परवत पर हो, हिया चढ़त डेराइ । कर्वाह के पाँव डगमग हो, तब काँहा बाटे ठाउँ ॥३॥

घरनी धरक्त हिय जनु हो, होखे करक करेज । ढरकत भरि भरि लोचन हो पीया नहि सेज ॥४॥

घरनी धवल धवरहर हो, चढ़ि चढ़ि हेर । आवत पिया ना देखों हो, भइली अवेर ।।५।।

धरनी धिक से हो जीवन हो पर रे पुरुप तर आँचर हो जे ऊ जाउ बोहाए । दिहल डसाए ॥६॥

धरनी धनि धनि से हो दिन हो संग पवढ़ा सुख विलसावि हो मिलव जे नाह । सिर धरि बाँह ।।७।।

धन्य है, जिसके मन में 'धरनीदास कहते हैं- वह विरहिणी न धैय्यं है, न धोर है, जो विह्वल है, विकल है और जिसका चित्त सदैव प्रेम-विरह में रोया करता है। और जो विरह-दुःख में शरीर से दुवली हो गई है' ॥१॥

'वह विरहिणी धन्य है, जो बिना बनवारी के एक क्षण भी धैर्य्य धारण नहीं करती, जो पथ निहार-निहार कर निरन्तर रक्त के आँसू गिराती रहती है' ॥२॥ 

'धरनीदास का पति तो पर्वत पर है। इस पर्वत पर चढ़ते मन डरता है, सोचता है कि यदि पाँव डगमगाया तो कहाँ मेरा ठिकाना है। फिर धरनो- दास कहते हैं कि मेरा हृदय धड़का करता है। और कलेजे में टोस उडा करती है। नेत्र भर-भर कर आँसू ढरा करते हैं। हा, हमारा प्रोतम सेज पर नहीं है ।।३,४।।

'धरनीदास धवल धौरहर पर चढ़कर खोजते हैं; परन्तु प्रियतम आता हुआ दिखाई नहीं पड़ता, बहुत देर हो गई है, तब भो नहीं आया' ।॥५॥

'धरनीदास कहते हैं कि उसके जोवन को विश्कार है, वह रहे या जाय। जिसने पर पुरुष को पोठ के नोचे अपना आंचल बिछा दिया अर्थात् उसके साथ प्रेम किया' ॥६॥

'धरनीदास कहते हैं कि वह दिन धन्य होगा, जिस दिन में अपने प्रियतम से मिलूंगा और उसके साथ लोटकर अपनी बाँह पर उसका सिर रख कर सुख पाऊँगा' ।।७।।

(२)

सबी हो ई दूनो बालक ना बन जोग । कइसन हवें तोर मातु पिता हो, कइसन हवें तोरा नगर के लोग ॥१॥

कइसे जियेले तोर मातु पिता हो, कइसे जियेले अजोधिया के लोग ॥२॥

तुलसीदास प्रभु आस चरन के, हरि के चरन पर होई लवलीन ॥३॥ सखी हो ई दूनो बालक ना बन जोग ।।

'हे सखो, ये दोनों बालक बन जाने लायक नहीं।'

'तुम्हारे माँ-बाप कैसे हैं? तुम्हारे नगर के लोग कैसे हैं कि इन दो सुकुमार बालकों को उन्होंने बन भेज दिया ?' ॥१॥ 

तुम्हारे माँ-बाप कैसे जीते हैं! तुम्हारी अयोध्या के लोग किस तरह प्राण धारण किए हुए हैं ?' ॥२॥

'तुलसीदास कहते हैं कि हरि के चरण को हो आशा है। उन्हीं चरणों पर लवलीन हो जाओ।' ॥३॥

( ३ )

उमरिया हो वीति गइले प्रभु नाहीं अइले ।। बरह बरिसि के हमरी उमरिया, उमिरिया हो बीत गइले० ॥१॥

प्रभुजी के ढूंढे अजोधिया में गइलों, डगरिया सो भूलि गइले । प्रभु नाहीं अइले ॥२॥ प्रभुजी के ढूंड़े फुलवरिया मैं गइलो, फूलन अनुराइ गइलों प्रभु नाहीं अइले ।।३।। तुलसीदास प्रभु आस चरन के ओहि चरन लपटाइ गइलों प्रभु नाहीं अइले ।।४।। उमिरिया हो बीति गइले प्रभु नाहीं अइले ० ।।

राम के विरह में सखी कह रही है-

'अरे मेरो आयु बीत चली; पर प्रभु अभी तक नहीं आये। बारह वर्ष की हमारी अवस्था है, वह भी बीत चली, प्रभु नहीं आये ।'

'मैं अपने प्रभुजी को ढूंढ़ने के लिए अयोध्या चली, पर राह भूल गई। में यहाँ नहीं पहुँच सकी और प्रभुजी भी नहीं आये।'

'मैं अपने स्वान जी को ढूँढ़ने के लिए फूलवारी में गई। वहाँ फूलों के सदियं में उलझ गई। हा हमारे प्रभु न आये।'

'तुलसीदास बहते हैं कि मुझे प्रभु के चरणों की आशा है। मैं उन्हीं चरणों से लिपट गया हूँ। मुझे तो उन्हीं की आशा है। हा, वे अभी तक

नहीं आये ।' 

बसहर घरवा के नीच दुअरिया ऐ ऊधो राम्मा झिलमिऊ बाती । पिया ले में सुतलो ए ऊत्रो रामा अॅबरा डसाई ।।१।। जी (जी) हम जनितो ए ऊत्रो रामा पिया जइहें चोरी, रेशम के डोरिया ऐ ऊत्री खीचि बँधवा वैधितों ॥२॥

रेशम के डोरिया ऐ रामा ऊओ टूटि फूटि जइहें, बचन के बान्हल पियवा रामा से हो कहाँ पइवों ॥३॥

(इस चरण का दूसरा रूप भी भोजपुरी में गाया जाता है)

'प्रेम क वन्हल का पिश्रवा जीवे सँग जइहें जवनि डगरिया ऐ ऊत्रो रामा पिया गइले चोरी ॥४।।

तवनि डगरिया ऐ ऊधो रामा बगिया लगइत्रों बगिया का ओते बोते रामा केरा नरियर ॥५॥

अँगना ससुरवा ऊथो रामा दुअरा भनुरवा कइसे के बहर होलूँ रामा बाजेला नेपुरवा ॥६॥ गोड़ के नेपुरवा ऐ रामा फाड़े बाँधि लेवों अलपा जोबनवा ऐ को हिरदय (लगइत्रों) ।।७।। पात मधे पनवाँ ऐ ऊधो रामा फर मधे नरियर

तिवइ मधे राधा ऐ ऊधो रामा पुरुप मधे (कन्हइया) ॥८॥

कतले पहिरों ऐ ऊबो रामा कतले समुझा गुनवाँ सोने के सिथोरवा ऐ ऊधो रामा लागि गइले धुनवाँ ।।९।। मोरा लेखे आहो ए ऊधो रामा दिनवा भइले रतिया

मोरा लेखे आहो ए ऊधो! रामा जमुना भयावनि ॥१०॥ भर्नाह विद्यापति रामा (सुनहू) वृजनारी धरिजा धरहु ऐ राधा मिलिहें मुरारी ॥११॥ 

इस गीत को जी० ए० ग्रिअर्सन ने जनरल आफ रायल एशियाटिक सोसायटी ग्रेट ब्रिटेन ऍड आयरलैंड को नई सोरोज पृष्ठ १८८ पर उद्धृत करके यों लिखा है:,

The following (quoted above) song perports to be by the celebrated Maithili poct, Bidayapati Thakur, I would draw attention as contradicting a theory put forward with some confident in the Calcutta Review by Babu Shyam Charan Ganguli to the effect that the song of this poet are not known in the Bhojpurs area. This song was written for me by lady whose home is in Shahabad in the hearts of Bhojpur..... meatre is very irregular, probably owing to the fact that the song was originally written in Maithili and transformed in the course of centuries into Bhojpuri without regard to the quantities of the resultant syllables.

"निम्नलिखित (ऊपर उद्धृत हो चुका है) गोत मंथिली के सुविख्यात कवि श्री विद्यापति ठाकुर का रचा हुआ है। बाबू श्यामाचरन गांगुली ने 'कलकत्ता रिव्यु' में पूर्ण विश्वास के साथ अपना जो यह मत प्रकाशित कराया है कि भोजपुरी भाषी प्रदेशों में इस विद्यापति ठाकुर के गीत ज्ञात नहीं है, उसके प्रतिवाद स्वरूप में इस गीत की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करूंगा। इस गीत को एक महिला ने जिसका घर शाहावाद जिला में जो भोजपुरी का मध्य केन्द्र है, मेरे लिये लिख भेजा है। इस गीत में मात्रा आद्योपान्त एक समान नहीं है। सम्भव है कि यह इस कारण हुआ हो कि यह गीत पहले मैथिली में लिखा गया हो और फिर बाद को भोजपुरी में। शताब्दियों के समय के दौरान में मात्रा आदि के विचार का ख्याल रखे विना इस रूप में रूपान्तरित हो गया हो।"

बाबू श्यामाचरण गांगुली की यह धारणा कि विद्यापतिजी ने भोजपुरी में रचना नहीं को, या उनके गोत इस प्रांत में नहीं गाये जाते, बिलकुल निरा- धार है। केवल ऊपर का हो गोत नहीं, अन्य गोत में भी प्रस्तुत पुस्तक में विद्यापतिजो उद्धृत हैं। भोजपुरी में विद्यापतिजो इतने विश्वात ओर जनप्रिय हैं कि उतना सूर, तुलतो कत्रोर भी शायद नहीं हैं; क्योंकि भोज- पुरो में इनके गीतों का नाम हो 'विदापत' राग के रूप में दे दिया गया है। इसके गोतों के अतिरिक्त इस तर्ज ओर लय के अन्य गोत भो, जो अधिकांश विरह पक्ष के हो होते हैं 'विदापत' राग से सम्बोधित किये जाते हैं। आज हर दिहातो गायक को विदापत-गोत जरूर स्मरण होगा।

सही बात यह है कि सन्त कवि सभो जनप्रिय बोलियों में अपना संदेश सुनाना चाहते थे। उनको अपना उपदेश मनुष्य मात्र के पास तक पहुँचाना था; इसलिये जिस बोलो के मनुष्य के संसर्ग में आते थे, उस बोलो में वे रचना करते थे। इस कथन का सबसे प्रवल प्रमाण धरणोदासजी का शब्द-प्रकाश है। उसमें हिन्दी, उर्दू, पंजाबो, अवयो, भोजपुरी, मोरंगो, मैथिलो, मगही आदि सभी बोलियों में उनको रचना वर्तमान है। यहो नहीं, इन बोलियों में जो उस समय छन्द जनप्रिय और लोकमान्य थे, उन्हीं छन्दों में उन्होंने गोत रचकर उसका नाम 'राग पंजाबो' 'राग मोरेंगी' 'राग बँगला' आदि शोयंकों से रखा है !

फिर इस उपर्युक्त गोत के सम्बन्ध में ग्रियर्सन साहब को जो यह शंका है कि यह गोत भोजपुरी में रूपान्तरित हुआ होगा, वह भी गलत हो है। इसको पुष्टि में उनका कहना है कि इसको मात्रा आद्योपान्त ठीक नहीं है। प्रिवर्सन साहब को जो पाठ मिला था, उसको मात्रा अवश्य असम है; पर वह गोत को त्रुटि नहीं, पाठ को त्रुटि है। इस गोत का शुद्ध पाठ उसो गोत के साथ कोष्ठ में लिख दिया गया है। उसमें यह दोष नहीं है।

यह गोत १७-१२ के विश्राम से २९ मात्रा का गोत है जिसका निर्वाह आद्योपान्त ठोक तरह से हुआ है। कहीं-कहीं एक आब मात्रा को कमो-बेशो है, सो वह लिखने वाले को गलती ओर इतने काल से स्मृति रूप में चले आते रहने के कारण त्वाभाविक है। हमको हर गोत के पाठ प्रायः गलत मिले। 

लिपि भी अधिकांश में सुधारनी पड़ी। तो जव अशिक्षित स्त्रियों के कण्ठ द्वारा शताब्दियों से ये गीत गाये जाते रहे और उनका लिखित पाठ कहीं नहीं था, तब उनके रूप में - शब्दों में गड़बड़ी थोड़ी-बहुत हो जानी स्वाभाविक है और वह क्षम्य भी है।

इस पक्ष को तोसरी दलील उनको यह है कि इसके 'भहि, सुन्' आदि शब्द भोजपुरी के नहीं हैं। यह धारणा भी उनकी गलत है। क्रिया में 'हि' प्रत्यय लगाकर काल-ब्रोध कराने की प्रथा भोजपुरी में आज भी है और पहले भी थी। 'गार्वाह गीत चलार्वाह वान, बिनु धनुही विनु तोर कमान' को पहेली विशुद्ध भोजपुरी है। इसमें 'हि' का प्रयोग हुआ है। बैसे हो 'सुनु' का प्रयोग भी प्रस्तुत पुस्तक के गीतों में अधिक मिलेगा। धरनोदास- जी के 'शब्द-प्रकाश' के भोजपुरी गीतों में भी ये प्रयोग हुए हैं। 'सुनो', 'सुन' 'सुनूं' 'सुनू' आदि प्रयोग आज भी भोजपुरी भाषियों द्वारा नित्य प्रयोग में आते हैं। ये चारों रूप केवल 'सुनो' शब्द के पर्याय- वाची हैं।

फिर जब यह मानो हुई वात है कि विद्यापतिजी भोजपुरी प्रदेश के सरहद पर रहते थे; पर तब भी वे बंगला में लिखते थे, जो उनके निवास स्थान की बोली नहीं थो, बल्कि वहाँ से बहुत दूर के प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा थी, तब यही क्यों न माना जायगा कि भोजपुरी जो उनके निकट की भाषा यो और जिससे उनका नित्य का संसर्ग या, उसमें भी उन्होंने अपनी रचना की थी। अन्य सन्त कवियों की तरह विद्यापतिजी भी महान् सन्त कवि थे। उनको अपना संदेश हर भाषा भाषी को सुनाना था। जिस भाषा भाषो से उनका संसर्ग हुआ, उसको उसी की भाषा में उन्होंने अपना सन्देश सुनाया। प्रस्तुत पुस्तक के गोत नं० ५, ६, ७, बारह मासा, विद्यापतिजी के भोजपुरी गीत है। प्रमाण के रूप में पाठक देख सकेंगे।

"हे ऊधो, बाँस-घर का नीचा दरवाजा है, उसमें झिलमिल झिलमिल क्षीणकाय दीप जल रहा है।

उसी घर में प्रियतम को लेकर अपना अञ्चल बिछाकर में सोई। हे ऊधो ! जो मैं जानती कि मेरे प्रियतम चोरी चले जायेंगे, तो में प्रियतम को रेशम को डोरो से खींच कर बाँध रखती ।।१,२॥

हे ऊधो ! रेशम को डरो तो टूट जायगी? पर प्रेम की डोरी का बाँधा हुआ प्रियतम तो प्राण के साथ हो जायगा। वह कैसे भाग सकेगा ? ॥३॥

जिस रास्ते से हे ऊधो! हमारे प्रियतम चोरो गये, हे ऊत्रो ! मैं उसी रास्ते पर बाग लगाऊँगी और बाग के किनारे-किनारे केला और नारि- यल के वृक्ष लगाऊँगी। पर हे ऊधो ! मेरे आंगन में तो मेरे ससुर तथा दरवाजे पर मेरे जेठ रहते हैं। में उस बाग को देखने के लिये घर से बाहर होऊँ, तो किस तरह होऊँ, ऐसा करते मेरा नूपुर बजने लगता है ।४,५।।

हे ऊबो! पैर के पायजेब को तो मैं अञ्चल में बाँब लूंगी और अपने छोटे-छोटे जोवन को हृदय में लगा लूंगी ओर प्रियतम की स्मृति में लगाये हुए बाग को देखने चलो जाऊँगो ॥६॥

पत्तों में पान का पत्ता सुन्दर होता है और फलों में नारियल फल तया स्त्रियों में रावा ओर पुरुष में कान्ह सुन्दर और श्रेष्ठ हैं ।।७।।

हे ऊधो! कहाँ तक में वस्त्र पहनूं और कहाँ तक गुण सोखूं और समझें मेरे सोने के सिबोरे में तो घुन लग गया अर्थात् मेरा सुहाग क्षीण होने लगा ॥८II

हे ऊधो! मेरे लिए तो दिन रात हो रहा है और हे ऊधो ! यह सामने की जमुना मेरे लिए भयानक लग रही है। विद्यापतिजो कहते हैं कि हे

बजरानी ! सुनो हे राधा ! धोरज घरो, तुमको कृष्ण मुरारी मिलेगे।" इस गीत पर टिप्पणी लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है। पाठक स्वयं इस धारा में प्रवाहित होकर इसका स्वाद लें।

विद्यापतिजी का हास्य-रस भी भोजपुरी में मिला है, जिसका उद्धरण मैंने अपने 'भोजपुरी ग्राम गोत में गोरो का स्थान' शीर्षक लेख में बरसों पूर्व दिया था। जो का० ना० प्र० पत्रिका में छपा था, पृ० २७० में, तिथि नहीं स्मरण है। गीत यों हैं- देखि हम अइलो गौरा तोर अंगना ।। सेती ना पथारी सिव के गुजर एको ना । मॅगन्नी के आस बाटे वरीनों दिना ।। उधार लेवे गइलों अँगना । पड़च सम्पति देखकों एक भाँग घोटना ।। भर्नाह विदापति सुनु ऊमना । संकट हरन करू अइलों सरना ।।

(५)

भरत भाई ! लवटि जा नु घर के । भूखन के भइआ भोजन करइ, नगन के पहिरा दोह चोर ॥१॥ अवरू परनाम केकईजी से कहीह, अम्मा कोसिला के धरा दीह धीर ॥२॥ राम गइले बन के भरत गइले घरके, आरे, भरत भाई ! लवटि गइले घरके ।।३।। तुलसीदास प्रभु आस चरन के, हरि के चरन पर होइ लवलीन ।। भरत भाई लवटि गइले घरके ।।४।।

है भरत भाई, आज घर को लोट जाओ। हे भाई, वहाँ भूखों को भोजन देना और नंगों को वस्त्र पहनाना। और माँ केकई से मेरा प्रणाम कहना और माँ कौशल्या को धैर्य बंधाना ।' ॥१,२॥

'राम दन को गये और भरत अयोध्या गये। अरे ! भरत घर को लीट गये। ॥३॥

'तुलसीदासजी कहते हैं कि मुझे प्रभु की आशा है। भरत हरि के चरणों में लबलोन होकर घर को लौट गये।' ॥४॥ 

साम के संदेसा ऊधो पाती ले के अइहें जी ।। गोकुला से पाती अइले छाती से लगवळीं जी । घुँघट के नीचे नीचे उधो से बचवलीं जी ॥१॥ स्याम के०।। पतिया लिखत उनका लाजो न लागे जी । अपना पवरुसवा के भसम कइसे कइलीं जो ॥२॥ स्याम के ० ।

'हे सखी! श्याम के संदेश का पत्र लेकर ऊत्रो महाराज आये। मैंने गोकुल से आये उत्प्त पत्र को छाती से लगाया और अपने चूँवट के नोचे से देखती हुई उसे ऊभोजो को देकर पढ़वाया।' ॥१॥

'हे सखी! सन्देशा की पाती उधोजो लेकर आये।'

'हे सखो ! पत्र लिखते समय श्याम को लज्जा नहीं आई ? वे वहाँ कुजा के संग बसकर अपने पौरुष को नष्ट कर रहे हैं।' ॥२॥

(७)

जरा आजा मोहन तू मोरी गली ।। दरसन करवि नजर भरि देखबि, फेरि मधुवन के जाइबि चली ।।१।। जरा आजा तू मोहन ! तू मोरी गली ।। हीरालाल नवछावर करत्रों, अरे अपना गला के चम्पा कलो ।।

जरा आजा० ।।

सूर स्याम प्रभु आस चरन के, हरि के चरन में ध्यान घरी ।।

जरा आजा० ।।

'हे मोहन ! तुम मेरी गली में आजाओ। मैं तुम्हारा दर्शन करूँगो, एक दृष्टि देखकर फिर मधुबन को चली जाऊँगी।'

'हे श्याम ! मैं तुम्हारी मोहिनी मूर्ति पर अपने गले को चम्पक कली और होरा-लाल न्योछावर करूंगी।' 

सूरदासजो कहते हैं कि मेरो आशा प्रभु के चरणों तक हो सोमित है। में हेरि के चरणों पर हो ध्यान लगाये रहता हूँ।'

(८)

अब ना अवध में रहवों अवधा आगा आगा राम चलेले, पाछे लगेला उदास । लछुमन भाई ॥१॥ अव ना अवध ० ।।

हिरि फिरि जनकी घरवा निरेंखे, मन्दिरा लागेला उदास ॥२॥

जहाँ जहाँ राम करेले दतुनिया, हम गेडुआ ले ले ठाड़ ।।

अब ना अवध० ।।

जहाँ जहाँ राम के भूख लगेला, हम जेवना ले ले ठाढ़ ।।३।। अव ना अवध में ।।

जहाँ जहाँ राम के पिअसिया लगले, हम जलवा लेले ठाढ़ ।। अब ना अवध में ।॥४।।

जहाँ जहाँ राम के अमल लागे ला, हम बिरवा लेले ठाड़ ।। अब ना अवध में रहह्नों० ।।

जहाँ जहाँ राम के निनिया लागे, हम सेजिया लेले ठाढ़ ।।५।। अब ना अवध में रहबों ० ।।

सोता कह रही हैं- 'अब अवध में नहीं रहूँगी, अवध अच्छा ोहीं लगता, उदास लग रहा है। आगे आगे राम चले, उनके पोछे लक्ष्मण गये और दोनों के पीछे जानकी, फिर-फिर कर घर देखती जा रही थीं। यह सोच-सोचकर कि मन्दिर उदास लग रहा है। अब अवध में नहीं रहूंगी ।' ॥१,२॥

'जहाँ-जहाँ राम मुखारी करेंगे में गहुए में पानी लेकर वहाँ खड़ी रहेंगी। जहाँ-जहाँ वे स्नान करेंगे, मैं धोती लिए वहीं प्रस्तुत रहेंगी। जब ओर जहाँ राम को भूख लगेगी, मैं भोजन लिये वहाँ उसो क्षण पहुँच जाऊँगी। 

और जहाँ उन्हें प्यास लगेगी, मैं वहीं जल लेकर खड़ी रहूँगी। मैं अवध में

नहीं रहेंगी। अब अवध उदास लगता है।' ।।३,४।। 'जव राम को व्यसन की आवश्यकता होगी मैं पान का बीड़ा दूँगी। और जहां उन्हें नींद मालूम होगी, वहीं मैं सोने के लिए सेज बिछा कर प्रस्तुत कर दूंगी। मैं अवध में नहीं रहूँगो । अवध उदास लगता है।' ॥५॥

( ९ )

हरि कहाँ गइले विसराइ के ए ऊधो ।। घर ना सोहाला भवनवा ए उधो ! आरे जव सुत्रि आवे हरि के ए ऊबो ॥१॥

हरि कहाँ गइले० ।। जहिया से हरि मोरा गइले मधुबनवा छने छने वरेला करेजवा ए ऊबो ॥२॥

हरि कहाँ गइले० ।। अपने त जाइ मधुवनवाँ बइठले, आरे हमरी सुधिया वित्सरवले ए ऊबो ॥३॥

हरि कहाँ गइले० ।। नदिया किनारे कान्हा गड्या चरवलें, आरे वंसिया बजावें ओठवा बइले ।।

ए ऊधो हरि कहाँ गइले० ।।४।।

सूरस्याम प्रभु तुमरे दास के, हरि के चरनवा के आस ए ऊधो ।।५।।

हरि कहाँ गइले० 11

गोपी विरह में व्याकुल होकर ऊधों से पूछ रही हैं- हे ऊबो, हरि हमें भूल कर कहाँ चले गये ? हे ऊबो जब हरि को सुधि आती है, तब घर ओर भवन कुछ नहीं सुहाता । हे ऊधो, बताओ हमें बिसार कर कान्ह कहाँ गये ।' ।।१।।

'हे ऊधो, जिस दिन हमारे हरि गये, उस दिन से हमार। हृदय क्षण-प्रति- क्षण जला करता है। बताओं, हमें भूलकर श्याम कहाँ ले गये ?' ॥२॥ 'हे ऊधो, हरिजो तो आप मधु बन में जा बैठे और हमारी सुधि बिल- कुल भूल गये। बताओ वे कहाँ गये ।' ॥३॥ 

कृष्ण नदी के किनारे अपने सुन्दर होठों पर वंशी रखकर उसे बजाते थे। आज, हे ऊधो, हमको विसार कर वे कहाँ चले गये ? बताओं ॥४॥

'सूरदास कहते हैं गोपी कहती हैं कि हे ऊधो मुझे उनके दर्शन प्राप्त • करने के लिये उनके चरणों को कृपा को छोड़कर ओर कोई आशा नहीं है।' ॥५॥

( १० )

कान्हा विराजें आजु कँहवा बतला द ए ऊबो ? जो हम होइनों जल के मछरिया, कान्हा करिते असनान चरन धोइ पिअतों ए ऊबो ॥१॥

जो हम होइतों रामा मोतियन के माला, कान्हा पहिरिते रे हार त छतिये चमकतीं ए ऊबो ! ॥२॥

जो हम होइतीं रामा मोरवा के पंखिया, कान्हा जे करिते सिंगार मुकुट पर सोहतीं ए ऊधो ॥३॥

जो हम होइती रामा बांस के बँसुरिया, कान्हा बजइतें मधुर सुर भरितीं ए ऊधो ॥४॥ सूरदास प्रभु आस चरन के, हरि चरन पर ध्यान चरन चित लइतीं ए ऊधो ॥५॥ कान्हा विराजे आजु कहाँ बतला द ए ऊधो ।।

'हे ऊधो, आज कृष्ण कहाँ विराज रहे हैं यह बतला दो।'

'अगर आज मैं जल की मछली होती, तो हे ऊधो, जहाँ कृष्ण स्नान करते होते, वहाँ जाकर उनके चरणों को धोकर पोती । ॥१॥

'यदि में मंतो की माला होतो, तो कृष्ण के गले का हार बनतो और ऊधा ! उनकी छाती पर सदा चमका करतो ।' ॥२॥

हे 'में यदि मार की पाँख होतो, हे ऊधो! तो वे जब शृंगार करते, तो उनके मुकुट पर शोभा देतो' ॥३॥ 

'और अगर मेरा भाग्य वाँस को बाँसुरी बनने का होता, तो हे ऊधो! कृष्ण अपने होठों पर रखकर जब बजाते, मैं उसमें मधुर स्वर भरतो ।' ।।४।।

'सूरदास कहते हैं कि गंभी कह रही हैं कि मुझे एक मात्र कृष्ण के चरणों को हो आशा है। उन्हों का निरन्तर ध्यान बना रहता है। हे ऊबो! अब एक यही कामना है कि मेरा चित्त उसी में लोन हो जाता ।' ।।५।।

'हे उधो, आज कृष्ण कहाँ विराज रहे हैं?'

यह सूरदास का भजन भोजपुरी में है। इसकी सुन्दरता को क्या प्रशंसा को जाय। गोयो की कामना कितनी सुन्दर, सुकुमार और साथ हो स्वाभाविक भी है। सूर और तुलसी तो जन-हित को प्रेरणा से ही कविता लिखते थे; इसलिये जब उन्होंने देखा कि भोजपुरी को बोलने वाली जनता की संख्या भारत की जन-संख्या में गणना के योग्य है, तब उन्होंने उस भाषा में भी कृष्ण और राम-भक्ति का प्रचार करना उचित समझा और किया भी। और जो लिखा वह कितना सुन्दर लिखा।

( ११ )

व्याकुल कुंजवन ढूँड़ें सिया रामा। ढूंढ़े सियारामा कूड़ें भगवाना, व्याकुल कुंजवन ढूँड़ें सियारामा ॥१॥ हम तोसे पूछी ला चकवा चकइया, यदि दहे देखल सियाजी के जात ॥२॥ सोने के मिरिगा मारि हम त लवटलीं- सिया गइली कुटिया भुलाय ॥३॥

व्याकुल कुंज बन ढूंढ़ें सियारामा ।।

'व्याकुल होकर राम सीता को कुंज वन में सर्वत्र ढूंढ़ रहे हैं। भगवान राम व्याकुल होकर कुंज वन में सीता को ढूंढ़ रहे हैं।' 'उन्होंने चकवा चकई को दह में विहार करते देखकर पूछा- 'हे चकवा चकई, मैं तुमसे पूछता हूँ, इस वह में तुमने सीता को कहीं जाते देखा। 

सोने का मृग नारकर हम जब लौट आये, तब सोता कुडी से गायब हो गईं। व्याकुल होकर राम सोताजो को सर्वत्र कुंज वन में ढूंढ रहे हैं।'

( १२ )

अइसन हलिया हमार को साम विना । साम विना दीनानाथ विना अइसन हलिया हमार ऊथो साम विना ॥१॥ धरती मुखलीं परिविवि सुखली, विनु जलवा विनु पानी ॥२॥ गंगा जमुनवा ऊधो मुवलो, जइसे विरिजवा के नारी ॥३॥ पातर कुंइयाँ पातर पनिहारिन, पातर गिरिवर धारी ॥४॥ बान्हल घोड़वा घासि ना पइहें, कव दोना साम करीहें असवारी ।।५।। पतिया लिखत मोर छतिया फाटे अंग अंग सहाई ॥६॥ कहि पड़ओ ओही कूवरी से, काहे कान्ह राखे विलमाई ।।७।। सूरदास प्रभु भास चरन के, हरि के चरन अइसन हलिया हमार ऊधो साम बिना। गुनगाई ।।८।।

गोपी कह रही है- 'हे ऊवो, श्याम के बिना हमारी ऐसी हालत है। दीनानाथ के न रहने से हमारी दशा ऐसी हो गई है।'

'धरातल और पृथ्वी जल के बिना सूख रहे हैं। गंगा और जमुना भी पानी के अभाव से इसी तरह सूख गई, जिस तरह व्रज की नारी कृष्ण के प्रेमजल के बिना सूख रही हैं।'

'पतला कुआँ है। पनिहारिन भी पतिली ही है। भी पतले हो ठहरे। बँबे हुए घोड़े घास क्यों पावेगे ? और हे ऊधो, कृष्ण कौन ठिकाना कब कृष्ण उन पर सवारों करेंगे ? अर्थात् यह शरीर अब क्यों खिला-पिला कर पासा जाय ? कृष्ण के लिए इसको जिलाना था, सो वे आयेंगे या नहीं, इसका कुछ ठिकाना नहीं है।

'हे अत्री, पत्र लिखते मेरो छाती फटने लगती है, अंग अंग सिहरने लगता है। उस कूवरी से कहला भेजो कि क्यों उसने हमारे कान्ह को विलमा रखा है। क्यों नहीं आने देती ?' 

सूरदास कहते हैं कि मुझे प्रभु के चरणों को आशा है। मैं उनके चरणों के गुण गाता हूँ।'

ऊपर के चरण में जो गोपो ने कहा 'पातर कुइँयां पातर पनिहारिन, पातर गिरिवर धारी।' वह कितना गम्भीर अर्थ रखता है। किस तरह ब्याज से अपने प्रेम को दशा को राधा ने वर्णन किया है। प्रेम का कूप बहुत पतला है। उससे प्रेम-जल भरने वाली पनिहारिन अर्थात् वह भी पुष्ट नहीं कि उस पतले और गहरे प्रेम-कूप से प्रेम का घड़ा भरकर खींच ले। अब रहे कृष्ण, सो उनकी दशा तो बड़ी ही डाँवाडोल हो रही है। वे भी मन के बड़े 'पतले हैं। मथुरा जाकर कूबरी से लुभा गये। अब किस तरह यह प्रेम-प्रण पूरा हो, यहो समझ में नहीं आता। कितना बड़ा भाव छोटे से चरण में रख दिया। फिर सूर न ठहरे।

( १३ )

ऊधो हो हरिजी प्रान सनेही । प्रान सनेही, प्रान काढ़ि लीहलें ॥१॥ आप जाइ दुरिका में बइठली, मोर सुधि विसरवली ॥२॥ आप चलि गइलें दुआरिका विरजली, कबहीं के नाही साथी भइली ॥३॥ ऊधो हरि प्रान काढ़ि लिहलीं ।।

जो देखलीं ओही कोप-मंडप में, तब ही से साथी भइलों ॥४।। सूर हों दास प्रभु आस चरन के, हरिजो के भइलों दासी ॥५॥

ऊधो हो, हरिजी प्रान सनेही ।।

राधा, ऊधो को उलाहना दे रही हैं- 'हे ऊधो, हरिजी प्राणों के प्रेमी हैं। वे प्राण के प्रेमी हैं, मुझे छोड़कर तो उन्होंने मेरे प्राण को मेरे शरीर से निकाल लिया ।' ॥१॥

'आप तो जाकर द्वारिका में बैठ रहे और मेरी सुधि भुला दी। द्वारिका आप चले गये और वहीं कुवजा और रुक्मिणी के पास बैठ गये अर्थात् जिसे तरह से रखेलियों को पुरुष बैठा लेते हैं। उसी तरह रुक्मिणी ने कृष्ण को अपने यहाँ बैठा लिया। 'बैठना' में यहाँ इसी अर्थ का बोध करा कर राधा भवत ऊधो के हृदय पर चोट करना चाहती है और कहना चाहती हैं कि तुम जो कृष्ण के प्रेम पर इतराते हो, वह तुम्हें भी मेरो ही तरह नष्ट कर देंगे। हे ऊधो, कृष्ण कभी भी साथ देने वाले व्यक्ति नहीं रहे। आज वे मेरी सुधि क्या लगे ?' ॥२॥

'हे ऊधो, उन्होंने मेरा प्राण निकाल लिया।' पाठक, ध्यान दें, 'कबही के ना सायो भइले' और 'ऊधो, ऊ प्रान काढ़ि लिहले' पर कहें, तो कितनी मर्मान्तक पोड़ा किस बेबसी और उलाहने के साथ इस छोटी-सी मोठी और सुन्दर पदावली में व्यक्त की गई है ॥३॥

'मैंने उनको उसो कोप मण्डप में गोवर्धन पर्वत को जब उन्होंने क्रोध करके उठा लिया था, तब देखा था। और तभी से मैं उनको सहचरी हो गई ।' ॥४।।

'सूरदासजी कहते हैं कि मुझे तो प्रभु के चरणों को ही आशा है; पर राधा बिलख-बिलख कर कह रही हैं- ' हे ऊधो, उसी गोवर्धन काण्ड से मैं हरिजी को दासी हो गई। हे ऊधो, (मैं सच कहती हूँ) हरि मेरे प्राण के प्रेमी हैं, मेरे प्रेमी नहीं।' 'प्राण के प्रेमी' में श्लेष है।' ॥५॥

एक पक्ष का अर्थ है कि वे मेरा प्राण लेकर मुझे मार रहे हैं। दूसरा अर्थ है-कृष्ण शरीर के द्वारा किये गये वाह्य उपचारों से प्रसन्न नहीं होते। उनको तो प्रसन्नता तब होतो है, जब कोई उनको अपने प्राण पण से प्रेम करे।

( १४ )

मन के मोह ना छुटे ए ऊधो ।। एक समय हरि हमरा घर अइले, हम दही महत रहलीं ॥१॥ हम अभिमानी अरबस कहली, चूपे कान्ह चलि गइले ॥२॥ मथुरा खोजली, गोकुला खोजली, पात पात विरिनावन खोजलीं ॥३॥ 

कान्हा कहाँ हो छपित होइ गइले ?

मन के मोह ना छुटे ए ऊधो ।।

चलत चलत हम गइलों कदम तर, पाँव पर भूरि निरखले ॥४।। खोलि पितम्बर भूरि झारि दिहले, ऊमनत्रा का भइले ए ऊबो ॥५॥ एहि पार मथुरा ओहि पार गोकुला, विचवा से जमुना बहे ॥६॥ अपने त कान्हा पार उतरले, हमरा के कछु ना कहले ॥७॥

राधा कहती है- हे ऊधो, मेरे मन का मोह नहीं छूटता ।'

'एक समय हरि हमारे घर आये, मैं बैठी हुई दहो मय रहो थो। अभि- मान बस मैंने अरबस उनको किया उनकी ओर उदास रही। मैंने नहीं जाना कान्ह कब चुपके से चले गये। ॥१,२।।

'मैंने (व्याकुल होकर) उनकी खोज मधुर। में को, गोकुल में भी सब कहीं उन्हें ढूँढ़ा और तब बृन्दावन के हर कुंज के पात को छान डाला; पर न मालूम कृष्ण कहाँ लुप्त हो गये, मुझे कहीं नहीं मिले। हे ऊधो, मेरे मन का यही मोह नहीं छूटता ।' ॥ ३॥

चलते-चलते में उस फेलि कदम्ब के नीचे पहुंची, तो मेरे पाँवों में धूल लग गई थी और मैं यक गई थी। प्यारे कृष्ण ने उसे देखा, वे तुरन्त अपना पिताम्बर खोल कर सामने आ उस धूल को झारने लगे। हे ऊधो, कृष्ण का वह मन हाय! अब क्या हो गया ?' ।।४, ५।।

'इस पार मथुरा है। उस पार गोकुल है। बोच से यमुना बहती है। आप तो कान्ह स्वयं पार उतर गये; पर उन्होंने मुझको कुछ नहीं कहा-कैसे पार आना। इस चरण में कितनी वेदना भरी है। कृष्ण मुझे निराधार नदी के इसी पार छोड़ कर आप नदी पार कर गये। मैं इस काली यमुना को अर्थात् काले संसार को कैसे पार करके गोलोक में उनसे मिलूं। मुझसे उन्होंने मथुरा, मृत्युलोक में प्रेम किया था, मेरे साथी बने थे और मुझको यहीं मृत्युलोक में हो छोड़ कर और बिना कुछ उपाय बताये कि मैं किस तरह पार जाऊँ-यमुना को पार करके गोकुल गोलोक में चले गये। हाय, ऊधोजी, मेरे मन का यह मोह नहीं छूटता। कितना सुन्दर विरह-वर्णन सजीव बनकर सामने खड़ा हो जाता है।

( १५ )

अब हरि आगे नाचु मीरा। अब हरि आगे० ।। मीरा के भाग जब हम जनलों, राज छाड़ि मीरा भइली फकीरा ॥१॥ जमुना किनारे कान्हा गउआ चरावें, साठि गोपी एक कान्हा ।।२।। अब हरि आगे० ।। हाथ सुमिरनी मुख में बोरा, सिर पर तिलक गले बिचे होरा ॥३॥ मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, हरिल नाथ मोरे दिल के पीरा ।।४।।

'हे मीरा, अब तुम हरि के सामने खुलकर नाचो। तुम्हारे भाग्य को हमने तब जाना, जब तुम राज्य त्याग कर फकोर बनीं ॥१॥

'यमुना के तीर पर कृष्ण गाय चराते हैं। वहाँ अकेले कृष्ण हैं और उनके साथ साठ गोपियाँ हैं' ।॥२॥

'उनके (गोपियों) हाथ में तो सुमिरिनी माला है। मुख में पान है। सिर पर तिलक है और गले में होरे का हार है। हे मीरा, वैसे ही तुम भी अब नाचो। तुम्हारे नाय गोवर्धन पर्वत के धारण करने वाले नागर हैं। हे नाथ, अब हमारे दिल को पोड़ा हर लो। अर्थात् दर्शन दो।' ॥३,४।॥ इस गीत का पाठ, जैसा मुझे स्त्रो-संग्रहकत्रों से मिला, वैसे ही मैंने यहाँ रखा है। निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि इसकी रचना भोज- पुरी भाषा में मीरा ही ने की थी, या बाद को मीरा के भजन को स्त्रियों ने भोज- पुरी में इसे गाते-गाते इसको भाषा बदल दो है। दोनों बातों की सम्भावना है; पर मेरा विचार है कि मोरा को संतों को सतसंगति में काफो पहुँच थी, तोर्याटन भी उन्होंने किया हो था, तुलसोदास से उनको घनिष्ठता भी यो हो, ऐसो दशा में भोजपुरी का साधारण ज्ञान उन्हें हो जाना और उसमें भजनों की रचना करना हो अधिक सम्भव है।

( १६ )

हमारो दिल राम के मन वसले। राम के मन वसले राम के मन वसले ।।

कांचहि ईटि बावा महल उठावेंलें, झझरो ही लगली केवाड़ी ।।

बाबा कहेलें जहर देइ मरवों, अम्मा कहेली देवों फोमी ।।

चाचा कहेले जहर देइ मरत्रों, चाची कहेली देवों फाँसी ।।

भइया कहेले जहर देइ मरवों, भोजो कहेली देवों फाँसो ॥

हमारो दिल राम के मन बमले ।।

देसही देस वावा जहर खोजवले पिसि पिसि देईले भेजि ।।

ए खोरा पीअलों दूसर खोरा पीअलों, जहर से लागल पिरोति ॥

सोने के थार कपूर के वाती, हरिजी के आरती उतारीं ।।

हमारो दिल राम० ।।

ऊपर के गोत में तो शंका हो सकती थी कि इसे मोरा ने भोजपुरी भाषा में लिखा या नहीं; क्योंकि उसको क्रियाएं और कुछ संज्ञाएँ ऐसी थीं कि वे कुछ ही मात्राओं के हेर-फेर से भोजपुरी या हिन्दी दोनों को कहो जा सकती थीं; पर इस गोत को भाषा में तो उपयुक्त शंका हो हो नहीं सकती। और यद्यपि इसमें मोरा का नाम नहीं आया है; पर है यह मोरा को हो रचना और उसी को आत्म-कहानी है। यह गोत निविवाद सिद्ध करता है कि मोरा ने भी भोजपुरी में भजन कहे हैं। मोरा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि रैदासजी से उनका सत-संग होता था। रैदासजो की रचना भोजपुरी में खूब पढ़ी जाती है। तब मोरा उनके भजनों की भाषा से क्यों न प्रभावित कही जायेंगी।

'हमारा दिल तो राम के मन में बसता है। वह राम के मन में बस रहा है। (उसे अपने शरीर को क्या चिन्ता) ।' 

'पिताजी ने कच्ची ईट का महल बनाया। उसमें झंझरीदार किवाड़ लगवाये। (पर उससे मुझे अपने राम को झांकते देखकर सभी क्रोधित हो उठे।)'

'मेरे बाबा ने कहा- मैं इसे जहर देकर मार डालूंगा। अम्मा ने भी उग्र होकर कहा फांसी दे डालो। (यह अभी से राम को वर बनाने को बात कहती है) ।'

'मेरे चचा ने कहा- कुछ नहीं, इसको जहर तुरन्त दे डालो। चाची ने बताया कि जहर नहीं, फांसी दे डालो।'

'उघर भाई ने जब जहर देने की बात जोर देकर दुहराई, तब भावज ने भी फाँसी की बात का हो अधिक जोरों से समर्थन किया।'

(पर इन धमकियों से कुछ नहीं हुआ। हमारा दिल तो राम के मन में बस गया था, वह वंसे हो बसा रहा)

'तब बाबा ने देश-देश से खोजकर विष मंगवाया और उसे पोस-पोस कर मेरे लिए मेजते रहे। मैंने एक कटोरा पी लिया। फिर दूसरा कटोरा भी पी गई; पर मुझे कुछ नहीं हुआ बल्कि उलटे उस विष से मुझे प्रोति हो गयी; अर्थात् विष के प्रकाप में जो राम की कृपा होती थी और विष मुझे व्याप्त नहीं होता था, उससे मुझे भगवान् के प्रेम से अपार आनन्द आने लगा और जहर से इसलिए प्रोति हो गई कि जहर-पान से भगवान् की कृपा को अनुभूत करने का बार-बार मुझे अवसर मिलता है।'

'फिर तो (मैं पगली हो गयी) सोने के यार में कपूर को बत्ती जलाकर हरिजी को आरती उतारना ही मेरा एकमात्र काम रह गया।' 'अरे मेरा दिल हरि के मन में बसता है, मुझे दुनिया से क्या काम !'

( १७ )

मगन भइली मीरा हरि गुनगान ।। मीरा कारण बात्रा जहर पठवलें, खौलि देखसु मीरा हो गइले पान ।। भीरा कारन बाबा भाग पठवलें, मीरा देखसु ऊत सालिगराम ।। 

'मोरा हरि नाम ले लेकर मग्न हो गई।'

'मोरा के लिए उसके बाप ने जहर भेजा। मोरा ने खोल कर देखा, तो वह पान बन गया था। मोरा के लिए बाप ने काला नाग पिटारे में बन्द कर भेजा; पर मोरा ने उसे खोल कर देखा, तो नाग के स्थान पर सालिग्राम की मूति रखो थी।'

'मोरा हरि नाम लेकर मग्न हो गयो ।'

( १८ )

लछुमन कहाँ सिया छोड़ि अइल हो, बनवाँ अँधेरी रात ।। किया सिया ले गइलें रावनराजा, किया सिया ले गइले बाघ ।।१।। गोड़ महावर मुख में बीरा, मोतियन भरली माँग ।। नासिया ले गइलें रावन राजा, ना सिया ले गइलें बाघ ॥२॥ कसीता बाड़ी गेहुरा का भीतरा, रामजी करीहें रछपाल ।। तुलसीदास प्रभु आस चरन के, हरि के चरन चित लाव ।।३।।

लछुमन कहा० It

राम जब स्वर्ण मृग मार कर लोटे आ रहे थे, तब लक्ष्मण को अपनी ओर अकेले आते देखकर वे घबड़ा गये। उन्होंने तुरन्त उनसे प्रश्न किया- हे लक्ष्मण, तुम सीता को कहाँ छोड़ आये? इस वन में इस अँधेरी रात में तुमने उनको कहाँ छोड़ दिया ? अरे उस सोता को तुमने अकेली बन में कहाँ छोड़ दिया, जिसके पैर में महावर लगो थो, मुख में पान पड़े थे और मांग मोती से भरी थी। अर्थात् जो शृंगार करके बैठी थी। क्या उसे रावण हर ले गया या बाघ ने खा डाला कि तुम अकेले चले आते हो ? लक्ष्मण ने धीर होकर कहा- 'न तो रावण राजा ने हो सोता का हरण किया और न बाघ ने ही उन्हें खाया। सोता को ब्रह्म परिधि के बीच में हमने कर दिया है। राम उनकी रक्षा करेंगे ?'

'तुलसीदासजी कहते हैं- मेरी आशा हरि के चरणों की है। हे मन, उन्हीं हरि के चरणों में लगे रहो।' 

मालिक सीता राम सोच मन काहे के करे । हरिनी हरिना 'चरेले जंगल में, व्याधा लगवले फांस ।। कूदि फाँदिके हरिनी निकसि गइली, हरिना का परि गइले फांस। तनि एक दूरि जाइ हरिनी पुकारेली, सुनु व्याधा मोरि बात ।। एक ही बुन्दवा के कारन हो, मोरा नाहक जाला राज । कुछ दूर जाइ के हरिना पुकारेलें, सुनु हरिनी मोर बात ।। व्याधा के घरवा खरची खुटइले, खइहें मसुइया के वेचि । अतना बचनिया व्याधा, सुनले, काटि दिहल गल फांस ।। ई तीनू वैकुष्ठ सिधरले, जनम सवारथ हो जात । सोच मन काहे के करे; मालिक सिता राम ।।

'हे मन क्या सोच कर रहा है? सोताराम मालिक हैं। उन्हीं का ध्यान घर।'

हरिणी और हरिण जंगल में चर रहे थे। व्याध ने फंदा लगाया। कूद- फांद कर हरिणी तो निकल गई; पर हरिण के गले फाँस पड़ गई। कुछ दूरी पर जाकर हरिणो खड़ी हो गई और पुकार कर उसने कहा- 'हे व्याध, मेरी बात सुनो, एक जल के बूंद के कारण हो मेरा राज नाहक नष्ट हो रहा है।' कुछ दूर बंधा हुआ जाकर हरिण ने पुकार कर कहा-- हे हरिणी' तुम मेरी बात सुनो। इस व्याध के घर में खाने को नहीं है। यह मुझे मारकर मेरे मांस को बेचकर खायगा। जाओ तुम प्रसन्न रहना, परोपकार में मेरा जीवन जा रहा है। इसकी चिन्ता न करना।'

'इतनी बात जव व्याध को सुनाई पड़ी, तब उसने हरिण के गले का फन्दा काट दिया और हरिण को छोड़ दिया।'

'तीनों को ज्ञान हो गया। ये तीनों वैकुण्ड को प्राप्त हुए और उनका जन्म सफल हुआ।' 

यह गीत भीख मांगने वाले ब्राह्मण या भाँट सब कहीं गाते रहते हैं। इससे स्त्रियों को त्याग की शिक्षा आदर्श रूप में मिला करती है। दधोचि आदि को पौराणिक गाथाएँ तो उन्हें न सुनने को मिलतो हैं और न उन पर उनकी आस्था ही होती है; पर हरिण का त्याग और हरिण का विलाप उनके हृदय के अनुकूल बैठ जाता है और वे इससे त्याग मंत्र को पूर्ण रूप से समझ लेती हैं।

( २० )

हम रघुवर संगे जाइवि माई ।। हम रघुवर संगे जाइवि माई ।। बनही में जाइवि बन फूल खाइवि, बनही में विपति गँवाइबि माई ॥१॥

हम रघुवर संगे० ।। कद मूल लछुमन ले अइहें, बनहीं में भोजन बनाइवि माई ॥२॥

हम रघुबर संगे० ।। कूस डाभ लछुमन ले अइहें, बनहीं में सथरी विछाइव माई ।।३।। हम रघुवर संगे० ।। फिरि घुमि रघुवर जब अइहें थाकल, बनही में चरन दवाइवि माई ॥४॥

हम रघुवर संगे ।।

सोता कौशल्या से कह रही हैं- है अम्मा, मैं रघुबर के साथ जाऊँगी। में रघुबर के साथ जाऊँगी। 1१11

'मैं वन में जाऊँगी। वन फल खाऊँगी। और वन हो में विपत्ति भो गंवाऊंगी।' ।।१।।

'लक्ष्मण कंद मूल वन से ले आवेगे और मैं वन में हो भोजन बनाऊँगी। हे मा! मैं रघुबर के साथ वन में जाऊँगी।' ॥२॥

'जंगल से कुस और डाभ (घास विशेष) काट कर लावेंगे और हे मा वन में हो मैं सथरी (घास का बिछावन) राम के लिये बिछाऊंगी।' ॥ ३॥ 

रामचन्द्र जब घूम फिर कर जंगल से यके आश्रम पर आवेंगे, तब मैं उनके चरण दाबूंगी। हे मा! मैं रघुबर के साथ बन जाऊँगो, मुझे जाने दो ॥४॥

( २१ )

किरिपा निधान सुजान प्रान पति हरि के संगे बन जइबों जी ।

जो रघुननन संगो ना ले जइहें बिछुरत प्रान गंवइवों जी ।।

कंदमूल लछुमन लेइ अइहें, बहु बिधि भोजन बनइवों जी ॥ किरिपा निधान सुजान प्रा० ।।

कुस डाभ लछुमन लेइ अइहें बहु विधि सथरी डसइनों जी ।। किरिपा निधान सुजान० ।।

'कृपा निधान सुजान प्राणपति के साथ में बन को जाऊंगो। और यदि प्राणनाथ राम मुझे सँग न ले जायेंगे, तो उनसे बिछुरते हो मैं प्राण भी छोड़ दूंगी। बन में लक्ष्मण कंद मूल वन से ले आयेंगे, मैं विधिपूर्वक भोजन बना- ऊंगी। अरे हे मा ! कृपा निधान सुजान प्राणपति राम के साथ मैं बन (अवश्य) जाऊँगी। कूस और डाभ (कुश को एक जाति) लक्ष्मण बन से काट कर ले आयेंगे और मैं उसका (राम के लिये) बिछावन बिछाऊंगी। हे मा, कृपानिधान प्राणपति सुजान राम के साथ मैं बन जाऊंगो। अवश्य जाऊंगी।'

( २२ )

कइसे करों, कल वल सखि हो छल करि गइलें बंसीवाला ।।१।। लट पट पाग केसरिया जामा, गरे तुलसी के माला, कइसे करों कल बल सखि हो, छल करि गइले । वसीवाला ॥२॥ अपने त जाइ दुधारिका वइठलें, रोई मरे ली बिरिजवाला ॥३॥ कइसे करों कल बल सखि हो छल करि गइले बंसीवाला। अपने त जाई सवतिन से रिझलें, पी के मरे कइसे विष वाला, कइसे करों कलबल, सखी हो छल करि गइले बंसीवाला ।।४।। 

सावन मास घटा घन घेरि अइलें, वाढ़ि गइले नदी नाला, कइसे करों कल वल सत्री हो, छल करि गइले बसीवाला ।।५।।

'हे सखी, बंसीवाले छल करके चले गये। हे सखी, तुम कहती हो कि में बलपूर्वक शान्ति धारण करूं, सो में कैसे ऐसा करूं? बंशोवाले कान्ह तो हृदय पर चोट करके चले गये।' ॥१॥

'कान्ह के सिर पर टेढ़ी मेढ़ो पाग, शरीर पर केसरिया रंग का जामा और गले में तुलसी को माला थी। उनके इस रूप से मैं उन पर मोह गई हूँ। मैंने उन्हें इस रूप में देख कर भला मनुष्य समझा था; पर वे बंशी वाले तो छल करके चले गये, मैं कैसे बल से शान्ति धारण करूँ ?' ॥२॥

'हे सखी, उनके कर्म देखो। आप तो जाकर द्वारिका में बैठ रहे और यहाँ गोपियाँ रो-रोकर मर रही हैं। हे सखी, मैं कैसे बल करके कल धारण करूँ ? 'उन्होंने तो हृदय पर घाव कर हमें त्याग दिया है। ॥३॥

'सखी, और देखो। आप तो जाकर सौत से रीझ गये। अब उनको सौत के वश में पड़े देख कर ब्रज बालाएं विष पीकर हो तो मरेंगी, सो हे सखी' किस प्रकार कल बल धारण करूँ ! बंशी वाले ने तो हृदय में घाव कर हमें त्याग दिया ।।४।।

'सावन का महीना है। घनी घटा घिर आई है। सर्वत्र नदी-नाले (जो कल पानी के बिना निर्जीव से हो रहे थे वे भी) इस सावन में पानी से भर गये हैं (अर्थात् उनकी भी अभिलाषा पूर्ण हो गई) पर बंशी वाले कान्ह छाती में घाव कर चले गये। मैं बल और शान्ति लाऊँ तो कैसे लाऊँ' ॥५॥

विरहिणी गोपी का विचार कितना स्वाभाविक, कितना मामिक है ! चौथे चरण में स्त्री का सौत से द्वेष करने के स्वभाव का कैसा सुन्दर और मार्मिक चित्रण हुआ है! कान्ह के विरह में सुख से विष पान कर उनको आशीर्वाद देते हुए प्राण विसर्जन करना विरहिणी के लिए था; पर यह कदापि सह्य नहीं कि सौत उनके साथ-साथ विहार करे और विरहिणी विष-पान कर मर जाय कि वह निष्कंटक हो जाय। इसी को सौत का डाह कहते हैं। 

साम बिना अइसनि हालि हमारी। साम विना, रघुनाथ विना अइसनि हालि हमारी ।।

घरती सुखली पिरिथी सुखली, विनु बरखा बिनु पानी ।

ओइसे सुखली विरिजवा के नारी कब अइहें बनवारी । साम विना अइसन हाल हमारी ॥१॥

पातर कुइयाँ पातर पनिहारिनि, पातर गिरिवर धारी । बान्हल घोड़वा घासि न पड़ें, कब होइहें अमवारी ॥२॥ साम विना अइसन हाल हमारी ।।

'हा ! श्याम के बिना मेरो ऐसी दशा है! हा श्याम के बिना मेरो ऐसी दशा है ! ! ! जिस तरह पृथ्वी बिना पानी के सूख जाती है, वर्षा के अभाव में खेती जैसे मर जाती है, वैसे ही श्याम के बिना हमारी दशा है। कुंआ पतला है, पानी भरने वाली भी पतली हो है। गिरवर धारी कृष्ण भी पतले ही हैं। इससे इस प्रेम कूप से प्रेमजल निकालना असम्भव है। हा, बंधा हुआ घोड़ा रूपो यह शरीर अब क्यों घास रूपी भोजन पावेगा। अर्थात् अब मैं क्यों अपने को जीवित रखूँ ? न जाने कब इस पर सवारी हो, कब भगवान् के दर्शन हों।'

'हे सखी, श्याम के बिना हमारी ऐसी दशा है।'

( २४ )

(परम पूज्या पितामही श्री धम्र्मराज कुंवरिजी से प्राप्त)

मैं वैरागिन होइबों। मैं वैरागिन होइबों। जहाँ जहाँ भोला घुइयाँ रमइहें, तहाँ तहाँ छलवा उसइवों ॥१॥ कुंड़ियन कुंड़ियन भांग रगरत्रों, प्रेम पिआला भोला के पिअइवों ॥२॥

मैं वैरागिन होइवों० ।। अपना भोला के मों पार उतरवों बिनु जल नाव चलइयों ।।३।। मैं वैरागिन होइवो० ।। 

'अरे मैं बैरागिन होऊंगी। अरे, मैं वैरागिन होऊंगी। जहाँ-जहाँ शिव धूनी रमावेंगे, वहाँ-वहाँ मैं उनके लिए बाघम्बर बिछाऊंगी।'

'मैं कुण्डो-कुण्डी भांग रगड़ गो और भोला को प्रम का प्याला भर-भर कर पिलाऊंगी।'

'मैं अपने भोला को इस तरह सेवा कर करके पार उतारूंगी और बिना जल के भी नाव चलाऊंगी। अर्थात् प्रेम को नौका या अपने जोवन रूपी नौका को अपने प्रीतम के साय भवसागर पार कराऊंगी।'

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लेख
भोजपुरी लोक गीत में करुण रस
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"भोजपुरी लोक गीत में करुण रस" (The Sentiment of Compassion in Bhojpuri Folk Songs) एक रोचक और साहित्यपूर्ण विषय है जिसमें भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से लोक साहित्य का अध्ययन किया जाता है। यह विशेष रूप से भोजपुरी क्षेत्र की जनता के बीच प्रिय लोक संगीत के माध्यम से भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं को समझने का एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है। भोजपुरी लोक गीत विशेषकर उत्तर भारतीय क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से समृद्ध हैं। इन गीतों में अनेक भावनाएं और रस होते हैं, जिनमें से एक है "करुण रस" या दया भावना। करुण रस का अर्थ होता है करुणा या दया की भावना, जिसे गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। भोजपुरी लोक गीतों में करुण रस का अभ्यास बड़े संख्या में किया जाता है, जिससे गायक और सुनने वाले व्यक्ति में गहरा भावनात्मक अनुभव होता है। इन गीतों में करुण रस का प्रमुख उदाहरण विभिन्न जीवन की कठिनाईयों, दुखों, और विषम परिस्थितियों के साथ जुड़े होते हैं। ये गीत अक्सर गाँव के जीवन, किसानों की कड़ी मेहनत, और ग्रामीण समाज की समस्याओं को छूने का प्रयास करते हैं। गीतकार और गायक इन गानों के माध्यम से अपनी भावनाओं को सुनने वालों के साथ साझा करते हैं और समृद्धि, सहानुभूति और मानवता की महत्वपूर्ण बातें सिखाते हैं। इस प्रकार, भोजपुरी लोक गीत में करुण रस का अध्ययन न केवल एक साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भी भोजपुरी सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों की अद्भुत अभिवृद्धि को संवेदनशीलता से समृद्ध करता है।
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भोजपुरी भाषा का विस्तार

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एक त मैं पान अइसन पातरि, फूल जइसन सूनरि रे, ए ललना, भुइयाँ लोटे ले लामी केसिया, त नइयाँ वझनियाँ के हो ॥ १॥ आँगन बहइत चेरिया, त अवरू लउड़िया नु रे, ए चेरिया ! आपन वलक मों के देतू, त जिअरा जुड़इती नु हो

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राग सोहर

20 December 2023
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ललिता चन्द्रावलि अइली, यमुमती राधे अइली हो। ललना, मिलि चली ओहि पार यमुन जल भरिलाई हो ।।१।। डॅड़वा में वांधेली कछोटवा हिआ चनन हारवा हो। ललना, पंवरि के पार उतरली तिवइया एक रोवइ हो ॥२॥ किआ तोके मारेली सस

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करुण रस जतसार

22 December 2023
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जतसार गीत जाँत पीसते समय गाया जाता है। दिन रात की गृहचर्य्या से फुरसत पाकर जब वोती रात या देव वेला (ब्राह्म मुहूर्त ) में स्त्रियाँ जाँत पर आटा पीसने बैठती हैं, तव वे अपनी मनोव्यथा मानो गाकर ही भुलाना

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राग जंतसार

23 December 2023
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( १७) पिआ पिआ कहि रटेला पपिहरा, जइसे रटेली बिरहिनिया ए हरीजी।।१।। स्याम स्याम कहि गोपी पुकारेली, स्याम गइले परदेसवा ए हरीजी ।।२।। बहुआ विरहिनी ओही पियवा के कारन, ऊहे जो छोड़ेलीभवनवा ए हरीजी।।३।। भवन

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भूमर

24 December 2023
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झूमर शब्व भूमना से बना। जिस गीत के गाने से मस्ती सहज हो इतने आधिक्य में गायक के मन में आ जाय कि वह झूमने लगे तो उसो लय को झूमर कहते हैं। इसी से भूमरी नाम भी निकला। समूह में जब नर-नारी ऐसे हो झूमर लय क

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२५

26 December 2023
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खाइ गइलें हों राति मोहन दहिया ।। खाइ गइलें ० ।। छोटे छोटे गोड़वा के छोटे खरउओं, कड़से के सिकहर पा गइले हो ।। राति मोहन दहिया खाई गइले हों ।।१।। कुछु खइलें कुछु भूइआ गिरवले, कुछु मुँहवा में लपेट लिहल

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राग कहँरुआ

27 December 2023
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जब हम रहली रे लरिका गदेलवा हाय रे सजनी, पिया मागे गवनवा कि रे सजनी ॥१॥  जब हम भइलीं रे अलप वएसवा, कि हाय रे सजनी पिया गइले परदेसवा कि रे सजनी 11२॥ बरह बरसि पर ट्राजा मोर अइले, कि हाय रे सजनी, बइठे द

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भजन

27 December 2023
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ऊधव प्रसंग ( १ ) धरनी जेहो धनि विरिहिनि हो, घरइ ना धीर । बिहवल विकल बिलखि चित हो, जे दुवर सरीर ॥१॥ धरनी धीरज ना रहिहें हो, विनु बनवारि । रोअत रकत के अँसुअन हो, पंथ निहारि ॥२॥ धरनी पिया परवत पर हो,

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भजन - २५

28 December 2023
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(परम पूज्या पितामही श्रीधर्म्मराज कुंअरिजी से प्राप्त) सिवजी जे चलीं लें उतरी वनिजिया गउरा मंदिरवा बइठाइ ।। बरहों बरसि पर अइलीं महादेव गउरा से माँगी ले बिचार ॥१॥ एही करिअवा गउरा हम नाहीं मानबि सूरुज व

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बारहमासा

29 December 2023
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बारहो मास में ऋतु-प्रभाव से जैसा-जैसा मनोभाव अनुभूत होता है, उसी को जब विरहिणी ने अपने प्रियतम के प्रेम में व्याकुल होकर जिस गीत में गाया है, उसी का नाम 'बारहमासा' है। इसमें एक समान ही मात्रा होती हों

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अलचारी

30 December 2023
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'अलचारी' शब्द लाचारी का अपभ्रंश है। लाचारी का अर्थ विवशता, आजिजी है। उर्दू शायरी में आजिजो पर खूब गजलें कही गयी हैं और आज भी कही जाती हैं। वास्तव में पहले पहल भोजपुरी में अलचारी गीत का प्रयोग केवल आजि

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खेलवना

30 December 2023
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इस गीत में अधिकांश वात्सल्य प्रेम हो गाया जाता है। करुण रस के जो गोत मिले, वे उद्धत हैं। खेलवना से वास्तविक अर्थ है बच्चों के खेलते बाले गीत, पर अब इसका प्रयोग भी अलचारी को तरह अन्य भावों में भी होने

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देवी के गीत

30 December 2023
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नित्रिया के डाड़ि मइया लावेली हिंडोलवा कि झूलो झूली ना, मैया ! गावेली गितिया की झुली झूली ना ।। सानो बहिनी गावेली गितिया कि झूली० ॥१॥ झुलत-झुलत मइया के लगलो पिसिया कि चलि भइली ना मळहोरिया अवसवा कि चलि

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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पूरबा गात

3 January 2024
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( १ ) मोरा राम दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। भोरही के भूखल होइहन, चलत चलत पग दूखत होइन, सूखल होइ हैं ना दूनो रामजी के ओठवा ।। १ ।। मोरा दूनो भैया० 11 अवध नगरिया से ग

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कजरी

3 January 2024
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( १ ) आहो बावाँ नयन मोर फरके आजु घर बालम अइहें ना ।। आहो बााँ० ।। सोने के थरियवा में जेवना परोसलों जेवना जेइहें ना ॥ झाझर गेड़ वा गंगाजल पानी पनिया पीहें ना ॥ १ ॥ आहो बावाँ ।। पाँच पाँच पनवा के बिरवा

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रोपनी और निराई के गीत

3 January 2024
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अपने ओसरे रे कुमुमा झारे लम्बी केसिया रे ना । रामा तुरुक नजरिया पड़ि गइले रे ना ।। १ ।।  घाउ तुहुँ नयका रे घाउ पयका रे ना । आवउ रे ना ॥ २ ॥  रामा जैसिह क करि ले जो तुहूँ जैसिह राज पाट चाहउ रे ना । ज

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हिंडोले के गीत

4 January 2024
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( १ ) धीरे बहु नदिया तें धीरे बहु, नदिया, मोरा पिया उतरन दे पार ।। धीरे वहु० ॥ १ ॥ काहे की तोरी वनलि नइया रे धनिया काहे की करूवारि ।। कहाँ तोरा नैया खेवइया, ये बनिया के धनी उतरइँ पार ।। धीरे बहु० ॥

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मार्ग चलते समय के गीत

4 January 2024
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( १ ) रघुवर संग जाइवि हम ना अवध रहइव । जी रघुवर रथ चढ़ि जइहें हम भुइयें चलि जाइबि । जो रघुवर हो बन फल खइहें, हम फोकली विनि खाइबि। जौं रघुवर के पात बिछइहें, हम भुइयाँ परि जाइबि। अर्थ सरल है। हम ना० ।।

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विविध गीत

4 January 2024
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(१) अमवा मोजरि गइले महुआ टपकि गइले, केकरा से पठवों सनेस ।। रे निरमोहिया छाड़ दे नोकरिया ।॥ १ ॥ मोरा पिछुअरवा भीखम भइया कयथवा, लिखि देहु एकहि चिठिया ।। रे निरमोहिया ।॥ २ ॥ केथिये में करवों कोरा रे क

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पूर्वी (नाथसरन कवि-कृत)

5 January 2024
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(८) चड़ली जवनियां हमरी बिरहा सतावेले से, नाहीं रे अइले ना अलगरजो रे बलमुआ से ।। नाहीं० ।। गोरे गोरे बहियां में हरी हरी चूरियाँ से, माटी कइले ना मोरा अलख जोबनवाँ से। मा० ।। नाहीं० ॥ झिनाँ के सारी मो

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एगो किताब पढ़ल जाला

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