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करुण रस जतसार

22 December 2023

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जतसार गीत जाँत पीसते समय गाया जाता है। दिन रात की गृहचर्य्या से फुरसत पाकर जब वोती रात या देव वेला (ब्राह्म मुहूर्त ) में स्त्रियाँ जाँत पर आटा पीसने बैठती हैं, तव वे अपनी मनोव्यथा मानो गाकर ही भुलाना चाहती हैं। इसी से जंतसार में स्त्री जीवन की सारी वेदनाएँ, सारी यातनाएँ जो गृहस्थी में उन्हें भोगनी पड़ती हैं वर्णित हैं। स्व० श्री मैथलीशरणजी गुप्त ने भी कहा है -

गीत गाने बैठतीं या दुख भुलाने बैठतीं। बोअलीं मों गोहुवाँ ऊपजि गइली अँकरी,

मेड़वा बइठल प्रभु संखेलें की। जनि प्रभु शंखहु जनि प्रभु झुरवहु, अँकरी बदलि गोहुवाँ पीसबि रे की ।।१।। पिनत कुटत मोरा धनि दुवरइली, कहतू त चेरिया लेअइतों रे की ॥२॥ चेरिया त आगे गइले सवति ले भइलें, सवति विरहिह्या कइसे सह्नि रे की ।।३।।

पुरिया पकइह ए गोतिनी जउरी जे रिन्हिह, परत परत महुरा लगहइहु

रे की ।।४।।

एक छिपा खइली सवत दुइ छिपा खइली, बेंचवे के वेरिया कपरा घुमरल

रे की ।।५।।

जऊँ तोरा बहुआ रे घुमरेला कपरा, सुति रहु प्रभु धवरहर रे की ॥६॥

हर जोति अइले कुदारी झामि अइले ओरि तर बइठे मनवा मारि रे की ।।७।। सभ केहुके देखे लों अँगना से घरवा में, पुरुवी बंगालिन नाहीं लऊके ले रे की ।।८।।

तोहरी बहुअवा बबुआ गरभी गुमनिया, सुतल बाड़ी धवरहर रे की ।।९।। एक पैना मरने दुमर पैना मरले, पुरुवी बंगालिनि नाहीं बोले ली रे की ।।१०।। 

मैंने गेहूं बोया था; परन्तु तमाम अँकरी (अन्न विशेष जिसकी घास की श्रेणी में गणना है) उपज आयी। इस दुःख के मारे मेंड़ पर बैठे हुए मेरे स्वामी चिन्ता कर रहे हैं ।॥१॥

स्त्री ने ढाढ़स बंधाते हुए कहा- हे स्वामी ! चिन्ता न करो। मैं अँकरी को बदल कर गेहूं की रोटी बनाऊँगी और तुम्हें खिलाऊँगी ॥२॥

पति ने कहा- हाय! कूटते पीसते मेरी स्त्री दुवली हो गयी। हे प्यारी ! कहो तो मैं तुम्हारे लिये एक चेरो लाऊँ ॥३॥

स्त्री ने कहा- मेरे स्वामी! मेरे लिये दासी लाने के लिये तो गये; पर ले आये सवत। हा! अब मैं सौत द्वारा दिये गये इस विरह को कैसे सहन करूंगी ।।४।।

उसकी गोतिनी ने समझा कर सलाह दी हे गोतिनो ! तुम जाउर, (खोर) और पूरी पकाना और उसके हर तह में विष लगा देता। स्त्री ने ऐसा ही किया। उसकी सौत ने एक थालखाया, फिर दूसरा भी खा डाला। उठकर हाथ धोने के समय उसका सर घूमने लगा ।।५।।

स्त्री ने कहा-री बहू ! यदि तुम्हारा सर दर्द कर रहा है, तो स्वामी के धौरहरे पर जाकर सो रहो दर्द अच्छा हो जायगा ॥६॥

स्वामी हल जोत कर और कुदाल चला कर जब खेत से घर लौटकर आया तो, ओरी के नीचे मन मार करके बैठ रहा ।।७।।

उसने कहा--सब किसी को तो आँगन और घर में देखता हूँ; परन्तु वह पूर्व देश को बंगालिन नहीं नजर आती ।।८।।

जेठानी ने उत्तर दिया हे बाबू ! तुम्हारी नई बहू गर्व और गुमान में माती हुई है। वह धौरहरे पर सो रही है ॥९॥

क्रोध में आकर वह धौरहरे पर चढ़ गया और पूर्व देश की बंगालिन को एक पैना (बैल हाँकने का डेढ़ हाथ लम्बा बाँस का पतला डंडा) मारा। तब भी जब वह नहीं उठी, तो दूसरा पंना मारा; परन्तु बंगालिन मर चुकी थो, बोले तो कौन बोले ।।१०।। 

सासु मोर चलली रे गंगवा नहाये रे ना,

ए राम सिकिए छिहुलवे चिन्हवा दिहली हो राम ।।१।।

ए राम घरवा लिपत चिन्हवा मेटल रे की।

सासु मोर अइली रे गंगवा नहाइ के नुरे राम ।

कवन रसिया चिन्हवा मेटवलसि हो राम ।।२।।

मोरा पिछुवरवा हजमा भइया होतिवा ना ।

ए राम गोविन आगा खवरि जनावहु रे की ।।३।।

भरली कचहरिया गोविन करहु बरखसिया हो राम-

ए गोविन ! तोरि मइया ठानेली किरिअवाहु रेना ।।४।।

उहह्वाँ से गोविना रे घरवा चलि अहले रे ना-

ए आमा ! कब कब दुखवा तोहरा अवहेला हो राम ।।५।।

गोविना ! तोरि धनि चिन्हवा मेटवली हो राम।

मोर पिछुवरवा सोनार भैया हितवा रे

भैया ! धनी जोगे गढ़ ना

मोर पिछुवरवा रंगरेज भैया

गहनवा हो

ना ।

राम ।।६।।

हितवा रे ना ।

भैया ! धनी जोगे रँग ना चुनरिया हो

मोर पिछुवरवा कँहार भैया हितवा रे

राम ।।७।।

ना ।

भैया ! घनी जोगे इंडिया फनावहु रे ना ॥८।।

मचिया बइठलि तुहुँ धनिया वढ़इतिन हो ना ।

धनिया ! तोरे नइहर भइया के

मोरा नइहइवा राजा भइया के

ए राजा ! भैया मोरे अहते

विअहह्वा रे ना ॥९॥

विअहवा रे ना ।

लिआवन हो ना ॥१०॥۲

दृअरे अइलनि बनि दुअरे से गइलनि रे ना-

तोहरा से भेटवा ना कइलनि रे की ॥११॥

ड़ि पहिरि धनिया ठाड़ भइलि अँगना हो राम ।

राम जस धनिया लागे गवनहरि रे ना ॥१२॥ 

एक वन गइलें दूसर वन गइले रेना- राम-तिसरा वनवा इंडिया विलमावे हो राम ॥१३॥ डिलवा जे परले धनि तोरि लामी केसिया । हमरी जे केसिया राजा ! ढिलवा जे पर ले हो ना राजा ! आमा मोरी हेरीहनि भउजी मोरी वन्हि हनि हो राम ।।१४।। अतना वचन राजा सुनही ना पवलनि हो राम । रामा काढ़ि के कटरिया जिअरा मरलनि हो राम ॥१५॥ एक ओर गिरेला धनिया के मुड़िया हो, राम । एक ओरिया बबुआ जदुननन हो ना ॥१६॥ फाँड़े वान्हि लिहले रे धनी गहनवा रे ना, ए राम कान्हे पारी ले ले जदुनन न हो राम ।।१७।। जऊ हम जनिती धनिया असापित हो राम, राम अइसन मयरिया मोगल वेचितों हो राम ॥१८॥ गलियन गलियन गोविन फेरिया लगवले हो राम- राम तनि एक दुधवा पिआवहु हो घरमें से निकसलि बवुई चमइनिया राम ।।१९।। रेना, ए राम बबुआ के मइआ का भइली हो राम ॥२०॥ बबुआ के मइआ चमइन मरि हरि गइली हो राम- ए राम रचि एक दुधवा पिआवहु हो राम ॥२१॥

मेरी सास जब गंगा स्नान को गई तब वह सोंक से रेख बोंच गई कि इससे बाहर मत जाना। घर लोपते समय मुझसे चिह्न मिट गया। सास गंगा स्नान करके जब लौटी, तो कहने लगी- अरे ! किस रसिक ने इस चिह्न को मिटाया है ? ॥१-२॥

मकान के पिछवारे नाई मेरा शुर्भाचतक रहता है। अरे भाई नाई ! गोविन्द के पास यह संवाद जाकर सुनाओ ॥३॥

नाई गोविन्द के निकट गया और कहा- हे गोविन्द ! भरी सभा बर- खास्त करो। तुम्हारी माँ तुम्हारी स्त्री से सौगंध ले रही है ॥४॥ 

गोविन्द ने अपने घर आकर माता से पूछा- माँ ! तुम्हें कीन दुःख है ? माता ने कहा- हे गोविद ! तुम्हारी स्त्री ने मेरो अनुपस्थिति

में मेरो खींची हुई रेखा को मिटाया है। गोविंद ने कहा- मेरे पिछवाड़े मेरा मित्र सोनार रहता है। उससे स्त्री के योग्य गहना बना देने को कहो और रंगरेज को सुन्दर चूनर रंगने का आदेश दो ।।५-६-७।।

मेरे पिछवाड़े कँहार बसता है। अरे भाई ! तुम मेरी स्त्री के योग्य एक पालकी तैयार करके लाओ ।॥८॥

इतना प्रबन्ध करके पति स्त्री के पास गया और कहा- हे धनि ! तुम घर में सम्मानित हो। तुम्हारे मायके में तुम्हारे भाई का विवाह है ॥९॥

स्त्री ने कहा- हे राजा! यदि मेरे मायके में मेरे भाई का विवाह होता, तो मेरा भाई अवश्य मुझे लिवाने यहाँ आता ॥१०॥

पति ने कहा- 'वह आया था; पर बाहर हो आया और बाहर हो से वापिस भी गया। तुमसे उसने भेंट नहीं को' ॥११॥

स्त्री कपड़ा लत्ता पहन कर आँगन में इस प्रकार खड़ी हुई, मानो वह गवन जाने बाली सुसज्जित वधू हो ॥१२॥

वह एक वन में गई। दूसरा बन पार हुआ। तोसरे वन में गोविद ने पालकी खड़ी करायो ।।१३।।

कहा-तेरे बाल में बहुत से जूं भरे हैं। (आओ में उन्हें साफ कर दू) ! स्त्री ने कहा- हे राजा ! हमारे केश में ढोल अधिक हैं, तो मेरो माता उन्हें खोजकर निकाल देगी। भाभी केस बाँध देगी। (यहाँ केस खोलने की क्या आवश्यकता है?)। इतनी बात सुनते हो राजा ने कटार निकाल कर स्त्री को मार डाला ॥१४-१५॥

एक तरफ स्त्री का मस्तक गिरा और दूसरी ओर उसे पुत्र उत्पन्न हुआ । पति ने (दुखित होकर) स्त्री के गहने उतार कर फाँड़ (धोती का अग्र भाग) में बाँचे और कंधे पर नवजात संतान को सुला कर रोकर कहा हा! यदि में जानता कि मेरी स्त्री गर्भवती है और इस तरह निर्दोष है तो मैं अपनी (झूठी, लांछन लगाने वाली) ऐसी माता को मुग़ल के हाथ बेच डालता। ॥१६-१७-१८॥

वह नवजात संतान को कंधे पर सुलाये हुए गलो-गलो फिर कर सभी से प्रार्थना करने लगा कि मेरे बालक को दूध पिला दो ॥१९॥

तमाम घूमने के बाद अन्त में अपने घर से एक चमाइन निकली और बच्चे को लेकर बोली- अरे इस पुत्र को माँ क्या हुई ? गोविद ने कहा- हे चमाइन ! पुत्र की माता मर कर मुझ से छिन गई। अब तू इसे ईश्वर के नाम पर थोड़ा दूव पिला दे ॥२०-२१॥

यह गीत कितना दुखान्त है। माता को झूठी शिकायत करने पर पुत्र अपनी गर्भवती पत्नी को धोखे से बन में ले जाकर मार डालता है, पर निर्दोष स्त्री खङ्गः प्रहार के साथ हो पुत्र प्रसव करती है। अवश्य ही किसी सत्य घटना के आधार पर यह गीत बना होगा।

( ३ )

मचिया बइठलि 'टिकुली' झारे लामी केसिया हो ना । राम परी गइली इन्दरसिह नजरिया हो राम ॥१॥ मचीया बइठल तुहँ आमा हो वढ़इतिनि हो ना। आमा केकरी तिरियवा झारे केसिया हो राम ॥२॥ आगि लागो वबुआ ! तोहरा अकिलिया हो ना । बबुआ ! अपनी भवहिआ नाहीं चिन्हल हो राम ।।३।। होत पराते भसुर डुगिया पिटवलनि हो ना। रामा छोटे बड़ चलन अहेरिया हो राम ।।४।। हमरो जे धोतिया भइया ! घोविया घरवा बाड़ी हो ना । भैया ! हम कइसे चलवों अहेरिया हो राम ।।५।। हमरा पनहिया भइया ! चमरा घरवा बाड़ी हो ना । भइया ! हम कइसे चलवों अहेरिया हो राम ।।६।। 

लेहून बबुआ हो ! हमरी पनहिअ रे वबुआ चलि चल तुहुँत अहेरिया हो राम एक बने गइले दूसरे बनवाँ गइलें हो ना । 115. लड़इया हो राम ।।८।। गिरवले हो ना । रामा तिसरे वनवा ठाने लें ऊँचवे लड़वलें भसुर नीचवें राम चनन विरिछवाँ ओठघवले हो सभ दिन भसुर जेवे अँगला से घरवाँ राम हो ना । 1॥९॥ राम आजु भसुर जेवेलें डुडुडिया हो राम ॥१०॥ कथिए भीजेलि भसुर ! गोड़वा के पनहिया रे ना। भमुर ! कथिए भीजेलि ढालि तरुवरिया हो राम ।।११।। मितिए भीजलि भवह ! गोड़वा के पनहिया रे ना ए भवह ! सितिये भजेलि ढालि तरवरिया हो राम ।।१२।। घरि राति गइली पहर राति गइली रे ना, राम भुड़के ले सोवरन केवड़िया हो राम ॥१३॥ तूह कुकुरा विलरिया रे ना, किआ ए राम किआ तूं नगरवा केरा लोगवा हो राम ।।१४।। नाहीं हम हई 'टिकुली' ! कुकुरा विलरिया रे ना, ए 'टिकुली' ! नाहीं हई नगर के लोगवा हो राम ।।१५।। राम हम हई इन्दर सिह भसुरवा हो राम । तोहरा के छोड़ि भमुर आनक नाहो इवो रे ना ।। ए राम प्रभुजी के मुहाँ देखाव हो राम मभ कर घोड़वा रे बहरा से दुअरा राम प्रभुजी के घोड़वा काहे विसमादल रे ना ? ॥१६॥ हो राम ।।१७।। रे ना, कहाँ मरल भमुर ! कहाँ गिरवल राम कवने विग्छि ओठवल हो ना रे ॥१८।। उच्वे लड़यली भवह ! नीचवे गिरवलीं हो ना, ए भवह ! चन्नन चिरिछ ओढवलीं हो राम ॥१९॥ 

एक बन गइली डोली दूसर बनवाँ गइली रे ना, राम तीसर वने चिल्ह्यिा मेड़रइलीं हो राम ॥२०॥ जब लगि भसूर ! बिनों इन्हना लकड़िया रे ना, राम तवलगि अगिनी ले आवहु र्हो राम ॥२१॥ जवलगि भसुर अगिया आने गइलनि रे ना, राम फुफुतिनि अगिया धधकवली हो राम ॥ २२॥ राम दूनो रे वेकति जरि छरावा भइले होना, जहूँ हम जनती 'टिकुली' मोरि बुधि छरव् रे ना ।। ए राम डड़िया रे पइसि सतवा नसीती हो राम ।।२३।।

टिकुली मचिया पर बैठी हुई अपने लम्बे-लम्बे केश झार रही थी कि इतने में इन्द्रसिह की नजर उस पर पड़ गई ॥१॥

इन्द्रसिह ने अपनी माँ के पास जाकर पूछा- हे मचिया पर बैठी हुई मेरी पुरुखिनि माँ ! यह स्त्री जो बाल झार रही है, किसकी स्त्री है ? ॥२॥

माता ने कहा- हे पुत्र ! तुम्हारी समझ में आग लगे। तुम अपनी हो भवह को नहीं पहचानते ? ।।३।।

दूसरे दिन प्रातःकाल होते हो भसुर ने डुग्गो पिटवाकर गाँव में मुनादी करवायी कि छोटे बड़े सब शिकार खेलने चलें ॥४॥

छोटे भाई ने कहा- हे भाई ! मेरी धोतो तो धोबी के घर है। मैं अहेर खेलने कैसे जा सकता हूँ? मेरा जूता चमार के यहाँ बन रहा है मैं कैसे शिकार खेलने चल सकता हूँ ? ॥५-६۱۱

बड़े भाई ने कहा- हे भाई ! तुम मेरा जूता और मेरी धोती ले लो। शिकार खेलने चलो ।।७।।

दोनों भाई एक वन में गये। फिर दूसरे वन में पहुंचे। अन्त में तीसरे वन में इन्द्रसिंह ने लड़ाई ठान दी। ऊँची पहाड़ी पर लड़ाई हुई और नीची पहाड़ी पर उन्होंने छोटे भाई को नीचे गिराया अर्थात् मार डाला और लाश को चन्दन के वृक्ष के सहारे खड़ी कर दी ।।८-९।। 

(टिकुलो सोच रही है) ससुर तो सदा घर और आँगन में जेवनार करते थे; परन्तु आज वे डुड़ही (रसोई से सटी जगह) पर जेवनार करने बैठे हैं, सो क्यों ।।१०।।

टिकुली ने सब समझ कर पूछा- हे भसुर जी ! आपके पाँव का जूता किस तरह भीग गया और किस चीज से यह ढाल ओर तलवार भी भोग गई है ॥११-१२॥

एक घरी रात बोतो। पहर रात चली गई 'टिकुली' के घरके स्वर्ण कवाड़ को किसी ने भड़काना शुरू किया। टिकुली ने पूछा- अरे तुम कौन हो ? कुत्ता बिल्लो हो या शहर का कोई बदमाश ? ॥१३-१४।।

(बाहर से आवाज आई) मैं कुत्ता बिल्ली नहीं हूँ! न शहर का कोई

बदमाश ही हूँ। हे टिकुलो ! मैं भसुर इन्द्रसिह हूँ। दरवाजा खोलो।

'टिकुली ने कहा- हे भसुरजो में आपको छोड़कर दूसरे को नहीं बनूंगी ।

मुझे मेरे प्रभुजो का मुख एक बार दिखला दोजिये। सब के घोड़े तो स्वा-

भाविक रूप में बाहर भीतर हो रहे हैं। मेरे प्रभु का घोड़ा क्यों दुखी दिखाई

पड़ता है। हे भसुरजी! आपने उनको कहाँ मारा और कहाँ गिराया

और किस वृक्ष के नीचे उनके शव को रख दिया है ॥१५-१८॥

भसुर ने कहा-रो भवह! मैंने उसे ऊँची पहाड़ी पर तो लड़ाया और नीची पहाड़ी पर गिरा दिया और हे भवह ! उसके शव को मैंने चन्दन वृक्ष से टेक लगा दिया है ॥१९॥

भवह को डाँडो एक वन को गई। फिर दूसरे वन को उसने पार किया।

फिर जब तीसरे वन में पहुंची, तो वहाँ (लाश पर) चील्ह मंडरा रही थीं ॥२०॥ टिकुली ने भसुर से कहा- हे भसुर ! मैं जब तक यहाँ (दाह संस्कार के लिये) लकड़ी चुनकर इकट्ठी करती हूँ, तब तक आप आग जाकर ले आइए ॥२१॥

उधर भसुर आग लाने गया और इधर टिकुली को फुफती (साड़ी का चुंननदार वह भाग जो उदर पर रहता है) से आग धधक उठी और पति-पत्नो जलकर स्वाहा हो गये ।।२२॥ 

इन्द्रसिह जब लौटकर आया, तब उसने हाथ मलकर कहा-अरी टिकुली ! यदि मैं जानता कि तुम इस तरह मेरो बुद्धि छल लोगो, तो मैं पालको में ही पंठ कर तुम्हारा सतीत्व नष्ट कर देता ॥२३॥

नराधम इन्द्रसिह को मनोवृत्ति को अंतिम चरण में देख कर किस मनुष्य को उस पर क्रोध नही आयगा। यह गोल किसी सत्य घटना के आधार पर ही रचा गया है। आज भी ऐसे नर पिशाच हैं, जो ऐसे कृत्यों के अपराधी पाये जाते हैं; परन्तु यह गोत स्त्री-चरित्र को उज्ज्वल और पवित्र बनाने में कितनी सदियों से सहायक सिद्ध होता रहा है, यह ठीक-ठीक कौन कह सकता है? पुरुष ऐसी उपदेशात्मक चीजों को स्मरण रखने में सदा उदासोन देखा गया है; पर स्त्री खासकर हमारे भारतवर्ष की स्त्री ने तो इन निधियों को शताब्दियों से चुरा कर अपने कण्ठ में छिपा रखा है और मूक बनी हुई पुरुषों के अनेक अत्याचारों को निरन्तर सहनकर इनसे स्वयं लाभ उठाया है। उनके लिए शास्त्र, पुराण, ज्ञान और धर्म सबके द्वार सदा से तो बन्द ही थे। जो कुछ उनके पास उपदेश योग्य वस्तुएँ थीं, वे यह गीत थे, जिन पर हो उनकी आस्था थी, विश्वास था, और यो अटूट अन्धभक्ति। आज भी है। उन्हीं के सहारे तो उनका जोवन-निर्वाह होता है।

(४)

तुहुँ त जइव ए रामजी ! ओही मध्वनवा, हमरा के काई सँऊपबि ए रामजी ! काई सऊँपनि ए रामजी ! ॥१॥ तोहरा के सँऊपबि ए सीताजी ! अन्न धन लछीमी । तोहरा के सेंऊपबि ए सीताजी ! बूढ़ि तोहरा के संऊपबि ए सीताजी। अन्न धन लछीमी ए बुढ़ि महतरिया ए रामजी ! रामजी ! भागीरथि सभे उहो महतरिया । भएनवा ॥२॥ जइहें । जइहें ।। जइहें ॥३॥ उड़ि मरि भागीरथी भएनवा ए रामजी ! उहो घरे हमहू जे चलवों ए रामजी ! रउआ संगे सथवा । भूखिदः जे लगीं हें ए रामजी ! जेवना बनइवों ॥४।। पिअसिया जे लगिहें ए रामजी ! नींदिया जे लगिहें ए रामजी ? पएर पिरइहें ए रामजी ! हमहुँ जे चलवों ए रामजी ! जलवा पिअइवों । सेजिया डसइवों ।।५।। गोड़वा दबईवों । रउरा संगे सथवा ।।६।।

सीता कहती हैं- हे रामजी ! किन्तु मेरा सहारा क्या होगा ? आप तो स्वयं मधुवन जाइयेगा। मुझे भी लेते चलें ॥१॥

राम ने कहा- हे प्यारी ! तुमको मैं अन्न-धन और लक्ष्मी सब सौंप दूंगा और हमारी वृद्धा माता की देख-रेख भी तुम्हारे जिम्मे रहेगी। और फिर तुमको हो अपना भगीरथ भान्जा भी सौंप दूंगा ॥२॥

सीता ने कहा- हे प्रभु! अन्न, धन और लक्ष्मी ये सब उड़ जायेंगी। आपको वृद्धा माता भी मर जायेंगी। भगीरथ भान्जा भी अपने घर चला जायगा ।।३।।

हे प्रभु! (मैं अनाथ हो जाऊँगी)। इसलिये मैं भी आपही के साथ चलूंगी। जब आपको भूख लगेगी तो जेवनार बनाऊँगी, प्यास लगेगी तो पानी पिलाऊँगी, नींद लगेगी तो सेज बिछाऊँगी। और प्रभुजी जब आप के पाँव दुखगे में दबाऊँगी! मैं भी आप के संग में चलूंगी ॥४-६।।

(५)

जिन राम अँखिया न उतरसु पलक न बिसरसु हो राम- तिन्हि राम गइले मधुवन वा ए राम ।।१।। कथी केरा करो मैं कोर रे कगजवा नू ए राम ।।॥ कथिए करों मसिहनिया ए केकरा के बदवों कएथवा नू आँचर फारि फारि करिहे कोर कगजवा नयना कजरवा मसिद्दिह्निया नू ए राम । राम ॥२॥ नू ए राम । ए राम ।। 

देवरा के बदीहे चिठिया जे लिखीहे कयथवा नू ए राम । समुझाइके नू ए राम ॥३॥ मोरा पिछुवरवा हजमा भइया हितवा नू ए राम। एकहि चिठिया पहुँचाई देहू ना ए राम ।। एकलि चिठी राम हाथे दीह नु ए राम ॥४।॥ चारु चौखंड के पोखरवा त राम दतुअनिया करे ए राम । हजमा जे चिठिया कहुँवा के हडव लिहले ठाढ़ भइले ए राम।।५।। तुहुँ हजमा ! नू ए राम । राम ।।८।। राम। ॥९॥ केई भेजेला एक चिठिया नू ए राम ॥६॥ मथुरा कहईं हम जमा गोकुल कइले जाई ले ए राम। सीताजी भेजेली एक चिठिया नू ए राम ।।७।। हाथ लफाइ चिठिया लिहलनि, ठेहुनवा धई वचलनि ए राम ।। अत सबरी लिखेली वियोगवा नू ए सीता रोवे ले अछन छछन कई नू ए पटुकवे लोर पोछलनि नू ए राम अब राम चलले त मधुवनवा नु ए चुप होखु चुप होखु सीता नू ए सरब गुनवे आगर बाड़ तू नू ए फिरि से अइलीं मधुबनवा नू ए एक गोड़ चउकठवा दूसर पलँगरिया देले नु ए राम ।। आइ गइलीं सवरी सुरतिया नू ए रोवे ली सीता देई अहि महि नू ए पटु के पीछेली लोरवा नू ए राम । राम ॥१०॥ राम । राम ।।११।। राम ॥१२॥ राम। राम । आइल राम फिरी गइलनि नू ए राम ॥१४॥ सोताजी विलाप कर रही हैं जो राम मेरी आँखों से कभी उतरते नहीं ये पलक से क्षण मात्र बिसरते नहीं थे, हा! वे ही आज मधुवन को

चले गये ॥१॥ 

मैं किस चीज का कागज बनाऊँ और किस चीज की स्याही और किसको कायस्य (पत्रलेखक) बनाऊँ ? सखी ने कहा- अंचल फार करके तो उसे कागज बनाओ और अपने नेत्र के काजल की स्याही तैयार करो। अपने देवर को कायस्य (पत्रलेखक) बनाओ। वही समझा करके तुम्हारा पत्र लिखेगा ।।२-३-४।।

सीता ने कहा-पीछे पड़ोस में नाई मेरा हितैषी रहता है। हे नाई एक पत्र राम के पास पहुँचा दो। इसे राम के हाथ में हो देना ।।५।।

चार खूंट का (वर्गाकार) पोखरा है। उस पर राम दातुन कर रहे हैं और नाई चिट्ठी लिये हुए उनके सामने जाकर खड़ा होता है ॥६॥

राम ने पूछा- हे नाई ! तुम कहाँ के रहने वाले हो ? किसने इस चिट्ठी को भेजा है ।।७।।

नाई ने कहा- मैं मयुरा का नाई हूँ। गोकुला को जा रहा हूँ। सोता ने एक चिट्ठी भेजी है ॥८॥

हाथ बढ़ाकर राम ने पत्र लिया और उसे घुटने पर फैलाकर पढ़ा। सीता का वियोग, उनकी करुण दशा! वह दुपट्टे से आँसू पोछते हैं। सीता लिखती है कि अब राम मधुबन छोड़ दें। राम ने पत्र लिखा है सीता ! तुम रोओ मत, तुम सब गुणों से युक्त हो। मैं पुनः घर आऊँगा ॥९-१२॥

राम घर गये। एक पाँव चौखट पर रखा दूसरा पाँव पलंग पर रखा कि तुरन्त सबरी की स्मृति हो आयी। सीता सिर धुन-धुन करके रोने लगी। और दुपट्टे से आँसू पोंछने लगी और कहने लगी- हाय! राम आकर भी वापिस चले गये ।।१३-१४॥

इस गीत में स्त्री के अल्प ज्ञान का बोध होता है। वह राधिका के स्थान पर सीता का नाम रखकर अपनी विरह गाथा गाती है। कूबरी के स्थान पर सवरी का नाम प्रयोग करती है। वैसे ही गोकुला की जगह मथुरा और मथुरा के स्थान पर गोकुला का पाठ है। मैंने जैसा का तैसा पाठ रखा है। संशोधन नहीं किया। इससे यह पता चलता है कि स्त्री आप बीती बातों को हो सोता, राधा, राम और कृष्ण को पात्र मानकर दुहराती है और हृदय की कया कहती है। जहाँ पति का दुलार स्मरण होता है, वहाँ राम के आने का और सान्त्वना भरे पत्र का वर्णन हो उठता है और फिर जहाँ पति के तिरस्कार और अपने जलाये जाने का ख्याल आता है, वहाँ राम खाट पर पाँव रखकर भी कुबरी के लिये वापिस चले जाते हैं। उसे रोकर चुप हो जाना पड़ता है। यह कहकर सन्तोष करने का प्रयत्न करना पड़ता है कि जब राम ने ही सीता को त्याग दिया था, तो मेरे स्वामी ने जो मुझको त्याग दिया है, उसमें उसका क्या दोष है। ईश्वर का यही नियम है। नारो जीवन को पुरुष जाति ने कितना निरीह बना रखा है। यह अत्याचार क्यों हुआ और क्यों हो रहा है, इसका निर्णय कौन करे ?

( ६ )

बर तरे डोमिनि वीनेले रे चंगेलिया, आरे बर तरे। रजवा खेले ला फूल गेनवा, बर तरे ॥ १।। हटिखेल रजवा ! हो परेले छिटिकिया आरे वर तरे। तोरा लेखे डोमिनि हो बास केरे छलिनवा, आरे बर तरे ॥२॥ मोरा लेखे डोमिनि ! अगर रे चननवा, आरे बर तरे । जऊँ तुहुँ रजवा ! रे हमरा से लोभइल, आरे बर तरे। बनवा पइसि काटु रजवा रे बॅसवा आरे बर तरे ॥३॥ एक हाथ रजवारे काटे घन बँसवा, कि बर तरे। एक हाथ पोछे नैना लोरवा, कि वर तरे ॥४॥ किया तोरे रजवारे ! मइया मन परली आरे बर तरे । किया तोरे रजवारे ! किया तोरे रजवा रे! नाहीं मोर डोमिनी रे भइया मन रे परलें कि बर तरे। जाँघ के तिरिअवा आरे वर बरे ।।५।। मइया मन परली, आरे वर तरे। नाहीं मोर डोमिनी ! भइया मन परले, आरे बर तरे ।।६।। एक त जे मन परे जांघ के तिरिअवा, आरे बर तरे। दोसर जे सिर के सेनुरवा, आरे बर तरे ।।७।। 

राजा घरे रहिती डोमिनि ! रजवा कहइती, आरे बर तरे। लोग करतें नइ नइ सलमिया, आरे वर तरे ।।८।। तोरा घरे डोमिनि रे डोमवा रे कहलीं आरे बर तरे। जूठ मोर खइल ए रजवा! त पीठ लागि रे सूतल, आरे वर तरे ।।९।। जतिया कहवल तुहूँ डोमवा ए रजवा! कि बर तरे। बर तरे डोमिन रे बीने ले चंगेलिया, कि बर तरे ॥१०॥

वटवृक्ष के नीचे डोमिन चंगेली (टोकरी) बीन रही है और वहाँ राजा गेंदा का फूल खेल रहा है।

डोमिन ने कहा- हे राजा हट कर खेलो। वहाँ बाँस का छोलन पड़ा हुआ है, राजा ने कहा- री डोमिन ! तुम्हारे लिए यह बाँस का छीलन है पर मेरे लिए यह छोलन चन्दन और अगर के समान है। डोमिन ने कहा- हे राजा, अगर आप मुझ पर आसक्त हो, तो वन में जाकर मेरे लिए बांस काट लाओ ।॥३॥

एक हाथ से राजा धनी कोठ से बाँस काटता है और दूसरे हाथ से अपना आँसू भी पोंछता जाता है ॥४॥

डोमिन ने कहा- हे राजा, क्या तुमको अपनी माता का स्मरण हो आया अथवा तुम्हें तुम्हारा भाई याद पड़ा है। या तुमको अपनी जांघ पर बैठने वाली स्त्री स्मरण हुई है कि तुम इस वटवृक्ष के नीचे रो रहे हो ।।५।।

राजा ने कहा- हे डोमिन ! मुझको न अपनी माता स्मरण हुई और न अपना भाई ही। मुझे अपनी जांघ की स्त्री ही एक मात्र (इस समय) स्मरण हो रही है और स्मरण होता है, उसके सिर का सिन्दूर अर्थात् मेरे विरह में उसका वैधव्य जोवन ।।६।।

हे डोमिन ! अपने राजघर में राजा कहा जाता। प्रजा मेरी भक्ति में नत मस्तक रहती। और डोमिन ! तुम्हारे घर में डोम कहा जा रहा हूँ। डोमिन ने कहा- हे राजा ! अव तो तुमने मेरा जूठन खाया और मेरी पीठ से सटकर सोते भी रहे। और अब तुम्हारे डोम कहे जाने में क्या सन्देह है ॥१०॥ 

मचिह बइठलि तुहूँ अम्मा हो बढ़इतिन होना। ए आमा ! बावा के जेवनवा देई आवहु रे की ॥१॥ सुनहु बबुई! हो भगवति बबुई! नु है की। ए बबुई! लिलहा सरिखवे जेवना देई आवहु रे की ॥२॥ मचीहि बइठलि तूहूँ आमा हो बढ़इतनि रे की। ए आमा, 'बावा के नजरिया बड़ी बाऊरि होना ।।३।। चिठिआ जे लीखीले बाबू घूरमल सिंहवा रे ना। ए बबूआ ! अवकी नेवतवे तुहूँ अइहनु रे की ।।४।। चिठिआ बाचत इनर सिह मन मुसु कइलनि रेना। ए बाबा ! अबकी नेवतवे हम जाइवि रे की ।।५।। बबुआ ! बिनु रे गवनवे कइसन नेवत रे की ।।६।। मचिअहि बइठलि तुहुँ आमा ! वढ़इतिन रे ना। ए आमा ! अबकी नेवतवे हम जाइवि रे की ।।७।। ए बबुआ ! विनू रे गवनवे कइसन नेवत रे की ॥८॥ जब रे इनर सिह गाँव के बहर भइले रे ना। ए राम बायें रे दहिनवे कउवा वोले रे बोलु बोलु कउवा ! सुलछिनि बोलिया रे की ।।९।। ना। ए कउवा ! अबकी रएनिया जीति आइबि हो की ।।१०।। एक कोस गइले इनर सिह दुई कोसवा गइलनि रे की। ए राम तीसरे कोसवा रुननि अहेरिया नूरे की ॥११॥ ए बबुआ ! चलि चल केदली के वनवाँ नु रे को। ए बबुआ ! हम रउरा खेलवों सीकरवानु रे को ॥१२॥ सभ के हू मारेला हारिल चिरइया रेना। ए राम घुरमल सिह मारे आपन दमदा नु रे को ।।१३।। ऊँचर्वाह मरलनि नीचवें गिरवलनि रे ना। रामा ! चनन बिरीछवे ओठेंधवलनि नु रे की ।।१४।। 

कथीए भीजेला ए बाबा! पाँव के पनहिया रे ना ? ए राम ! कथिए भीजेला तरुवरिया नू रे की ।।१५।। सीतिये भीजेला वेटी! पाँव के पनहिया रे ना। ए राम ! खूनवें भीजेला तरूवरिया नू रे की ॥१६।। कहवाहि मरली वावा! कहाँ गिरवलीं रे ना। ए राम ! कवना बीरीलवे ओठघवलीं नु ए राम ॥१७॥ ऊचर्वाह मरलीं बेटी ! नीचवा गोरवलीं रे ना ।। ए राम-चनन वीरीछिए ओठंघाई देलीं रे की ॥१८॥ राउर छोड़ि बावा ! अनकर ना होइवों रे ए रामा ! रचि एक लोथिया देखावहु रे मोरा पीछुअरवा कहार भइया हीतवा हो ए रामा ! भगवति के इंडिया फनावहु रे एक कोसे गइलों दोसर कोसे राउर छोड़ि वावा ! अनकर ना होइवों रे ना ।। की ॥१९॥ ना ।। की ॥२०॥ गइलों रे ना ।। ए राम तीसर कोसवा चिल्हीया मेड़राइल रे की ।।२१।। ना ।। ए बाबा ! तनी एक अगीया ले आवहु रे की ॥ २२॥ जऊँ रउआ हई रे वारे के विअहुआ रे ना ।। रे की ॥२३॥ ए रामा फुफुतिन अगिया धधकावहु जवलक बाबा हे अगिआ ले अइलन रे ना ।। ए रामा ! फूफूतिनं अगिआ धधकवली नु रे ए रामा ! दूनों रे वेकति जरि की ॥२४।। गहलनि रे की ।। रोवेलें घुरुमलसिह मुहें दे रुमलिया रे ना ॥२५॥ भगवति नु रे की ।।२६।। ए रामा मोरि बुधि छरे वेटी

जहूँ हम जनिती भगवति मोरि बुद्धि छरवू रे ना ।।

ए रामा इंडिया पहसि जतीया नसीती न रे की ॥२७॥

भगवती ने कहा- हे ! मचिया पर बैठी हुई मेरी पूज्य माता ! बाबा

का भोजन दे आओ ॥१॥ 

माता ने कहा- हे बेटी भगवती ! हाय की कलाई बाहर करके तू हो भोजन रख आ ॥२॥

भगवती इसी तरह भोजन अपने बाबा को दे आई। लौटकर उसने अपनी माता से कहा- हे मा! बावा की नजर तो बहुत बुरी मालूम हुई ।३।।

बाबू घूरमल सिंह ने अपनी कन्या को ससुराल में पत्र लिखा कि है वत्स ! निमन्त्रण जा रहा है। इस नवेद पर तुम अवश्य आना ॥४।॥

पत्र पाते इन्द्रसिह ने (घूरमलसिह का दामाद और भगवति का पति) मन में हँस कर अपने पिता से कहा कि हे पिता जी! में इस निमन्त्रण पर ससुराल जाऊँगा ।।५।।

इन्द्रसिह के पिता ने कहा- हे पुत्र ! समझ में नहीं आता कि बिना गवन हुए यह निमन्त्रण कैसा ? ॥६॥

इस पर इन्द्रसिह ने अपनी माता के पास जाकर कहा--मचिया पर बैठी हुई हे मेरी पूज्य माँ ! इस निमन्त्रण पर मुझे ससुराल जाने दो ।।७।।

परन्तु माता ने भी इन्द्रसिह को ससुराल जाने से यही कह कर मना किया और कहा अभी गवन हुआ नहीं, तुम्हारा जाना उचित नहीं है ।।८।।

जब वे ससुराल के लिए बाहर निकले, तब उनके बायें दायें काग बोलने लगा ।।९।।

उन्होंने कहा-अरे काग! तू शुभ की बोली बोल। इस बार को लड़ाई में जीत कर आऊँगा ।।१०।।

इन्द्रसिह एक कोस गये, दूसरा कोस भी वे पार कर गये; किन्तु तीसरे कोस में उनसे लड़ाई ठन गयी ।।११।।

घूरमलसिह ने (मार्ग ही में भेंट कर अपने दामाद इन्द्रसिंह से कहा) हे वत्स ! केदली के वन में निकल चलो हम आप वहाँ शिकार खेलेंगे ॥१२॥

संसार में और शिकारी तो हरियल पक्षी आदि शिकार मारता है पर घूरमसिह ने तो अपने दामाद का हो शिकार किया। उसने इन्द्रसिह को ऊंची जगह पर मार कर नीचे गिरा दिया। हा राम ! उसने उसको लाश चंदन वृक्ष के सहारे खड़ी कर दी ।।१४।।

घर जाने पर घूरमसिह को कन्या भगवति ने पूछा- हे पिता ! तुम्हारे पाँव का जूता किस चोज से भोंग रहा है। और यह ढाल तलवार किस वस्तु से भोगो हुई है ? ॥१५॥

घूरमलसिह ने कहा- हे बेटी! सीत से तो पाँव को पनही भोग गयी है और खून से तलवार भोगो हुई है ।।१६।।

भगवति ने सारा किस्सा अपने पापी पिता का समझ कर ढाढ़स कर पूछा- हे पिता ! आपने उन्हें कहाँ मारा और किस वृक्ष के सहारे उनके शव को खड़ा किया ।।१७।।

कामो पिता ने समझा कन्या राजी है। उसने खुशी-खुशी कहा- हे बेटी मंने उसे ऊँची जगह पर तो मारा और नीचे गिरा कर चन्दन वृक्ष से लगा दिया ।।१८।।

कन्या ने छाती पर पत्थर रखकर अपनी सहज स्त्री-चातुरी से काम लिया और कहा- हे पिता जी ! में आपको छोड़कर दूसरे किसी को नहीं हो सकती; पर ईश्वर के नाम पर मुझे स्वामी की लाश तो दिखा दो ॥२०॥

घूरमलसिंह ने कहा- हे मेरे पिछवारे रहने वारे मेरे हितैषी भाई कहार ! भगवति के लिये पालको सजाकर ले आओ ।॥२१॥

भगवती एक कोस गयी, दूसरा कोस उसने पार किया। तीसरे कोस में उसने देखा कि चोले मंडरा रही हैं ।॥२२॥

उसने अपने पिता से यह कह कर कि वह उसी की होकर रहेगो, आग ले आने का आंग्रह किया ॥२३॥

पापो पिता आग लाने के लिए गया। इधर भगवती ने शव को लेकर कहा- हे राम ! यदि ये मेरी कुमारी अवस्था के विवाहित सत्य के स्वामो हो, तो। हे भगवान ! मेरो फुफुती (साड़ी का अग्रभाग) से अग्नि धधक उठे ।।२४।। 

जब तक घूरमलसिंह आग लेकर लौटा, तब तक इधर भगवति को फुफुती से आग प्रकट होकर धधकने लगी ॥२५॥

उस अग्नि में यह दम्पती जल कर स्वाहा हो गया। घूरमलसिंह मुंह पर रुमाल रखकर रोने लगा और कहने लगा-मेरी बुद्धि का हरण मेरो लड़की भगवती ने किया ॥२७॥

इसी भाव का एक और गोत हम जंतसार नं०३ में उधृत कर चुके हैं। किन्तु उसमें जेठ और भवह को गाथा है। और नायिका है टिकुली। पर इस गीत में नायिका भगवति है और नायक उसका पिता धरमल सिंह और पति इन्द्रसिह। वर्णन प्रायः एक सा है। कुछ चरण तो वैसे हो हैं। सती के सत का अच्छा परिचय है और दूसरों के लिये आदर्श पथ-प्रदर्शन भी। नराधम पिता के कुकृत्यों का गीत में सत्य रूप में रख छोड़ना ययार्थ चित्रण का ज्वलन्त उदाहरण है और इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि स्त्री कवि- यित्री ने भी सदा पुरुषों से होशियार रहने के लिये अपनी बहनों को उपदेश दिया है। यहाँ तक कि ऐसे नराधम पिता का भी अस्तित्व बता कर उससे सावधान रहने को शिक्षा दी है और पुरुष मात्र से स्त्री को होशियार रहने को कहा है।

(८)

गवना करवली ए पीअवा, घर बइठवलीं नू रे की ।।१।। ए मोरंग जीवरे अपने चलेले उतरी बनीजिया नू रे की ।। वरही बरिस पर अइले ए मोरंग जीवहो ढारे जिरवा गोनिया नू रे की ।। माई लेई घावे हो रामा आरे पिढ़वा से पनिया नू रे की ।। ए मोरंग जीव हो बहिनी ले अइली नव रंग वेनिया नू रे की ॥२॥ सभ के त देखीं ए आमा अंगना से घरवा हो रामा ।। ए मोरंग जीव हो पतरी तिरीअवा नाहीं देखीं ले हों की ।।३।। तोहरी तिरअवा ए बबुआ ! गरभी गुमनिया हो राम ।। ए मोरंग जीव हो-सूतल वाड़ी घर घवरहर हो की ॥४।॥ 

जब आमा ! रहिती हो जांघ के तिरिअवा नू रे की ।। ए मोरंग जीव हो झांकि झुकी देखिती आपन पिअवा नू रे की ।।५।। तोहरो तिरिअवा ए बाबू ! गरभी गुमनिया नू रे की ।। ए मोरंग जीव हो डूवि मरली ओहोरे सगरवा नू रे की। कहाँ गइलू सत क तिरिअवा विहरे मोर छतिया नु रे की ।।६।।

पति ने स्त्री का गौना कराया। उसे घर में बैठा कर वह मोरंग देश व्यवसाय करने चला। बारह वर्ष के बाद व्यवसाय करके उधर से जब वह लौटा तब बैल की बरधी खोलकर उसे गिराया। माता बैठने के लिए पीढ़ा (काठ का आसन) और पीने के लिए पानी लेकर दौड़ आई और बहिन रंगीन पंखा लेकर उसके पास गई ॥१-२॥

मोरंग से लौटे पुरुष ने कहा- हे मा! मैं सब किसी को घर और

आँगन में देख रहा हूँ। लेकिन मेरी सुकुमार पत्नी कहाँ है ? ॥३॥

माता ने कहा- हे पुत्र ! तुम्हारी स्त्री बड़ी गर्वोली है। वह धौर- हर पर सो रही है ।।४।।

पुत्र ने कहा- हे मा ! अगर मेरी जांघ को स्त्री घवरहर पर होती, तो अवश्य इधर-उधर झाँक कर अपने पति को देखती ।।५।।

माता ने कहा- हे पुत्र ! तुम्हारी स्त्री बड़ी गर्ववती थी। उसने सामने के सागर में डूबकर अपना प्राण दे डाला।

पति ने दुःख के स्वर में कहा- हे भगवान् ! मेरे हृदय में गोला लगता और मेरो छातो फट जाती। मैं मर जाता और अपनी सतो स्त्री से स्वर्ग में ही भेंट करता ॥६॥

(९)

काहे के लबल हो आम इमिलिया काहे के लवल घनि बँसवारि ।। खाए के लवली हो अमवा इमीलिया त बंगला छावे के बँसवारि ।। रइनि लाई कईली तिरिअवा, ओही लागि जाइ लें बिदेस ॥१॥ 

सभवा बइठल तुहुँ बाबा हे बढ़इता देई बावा अपन असीस ।।

पाव के पनहिया बबुआ ! लेइओ ना लेहू, अवकी रइनिआ अइह जोति ॥ २॥ पसवा खेलत तुइँ भइआ हो बढ़इता ! देई भइया अपन असीस ।। हंसराज घोड़वा भइया लेइओ ना लेहू, अबकी रनिआ अइह जीति ।।३।। मचिया बइठल तुहुँ आमा हो बढ़इतिन, आमा अपन असीस ।। दूध भात खोरवा बबुआ ! जेंइओ ना लेहू, अबकी रइनिया अइह जोति ।।४।। भड़सर बइतल भउजी हो बढ़इतिन, देई भवजी अपन असोस ।। घोड़ा के चभुकिआ बबुआ लेइओ ना लेहू, अबकी रइनिया अइह जूझि ।।५।। सेजिया बइठल मोरि धनिया बढ़इतिन, देहु धनिया अपन असीस ।। सिर के पकवा हरिजो लेइओ न लीहीं, अवकी रइनिया आइबि जीति ।।६।। पहिली रइनिया जूझे रजवा के पूतवा नदिया भइलि छछकाल ।। पाव के पनहिया हमरा बाबा के दीह उन्हकर सभवा भइली सून ।।७।। हंसराज घोड़वा हमरा भइआ के दीह उनुकर टूटल दहिन बाँह ।। दूध भात खोरवा हमरा आमा के दीह उनुकर गोदिया भइले सून ।।८।। घोड़ा के चभुकिया हमरा भउजी के दीह, उनुकर पूजल मन के आस ।। सिर के पटुकवा हमरा धनिया के दीह, उनुकर सेनुरवा गइले छूटि ।।९।। पत्नी पूछ रही है- हे प्रियतम! आपने आम और इमली के वृक्ष

और सघन बाँस को कोठ किस लिये लगाया और किस हेतु मुझसे विवाह

किया। पति ने उत्तर दिया- खाने के लिये मैने आम और इमली के पेड़

लगाये और बंगला छवाने के लिये बाँस को कोठी लगाई। हे घनि ! मैंने

लड़ाई लड़ने के हेतु तुम से विवाह किया और उसी लिये विदेश भी जा रहा

हूँ ॥१॥ पति वहाँ से पिता के पास गया और कहा- हे सभा के मध्य में बैठे हुए पूज्य पिता ! आप अपना आशीर्वाद मुझे दोजिए। मैं रण में जा रहा हूँ। पिता ने आशीर्वाद देकर कहा- हे पुत्र ! मेरे पाँव का जूता तुम ले लो। इस बार संग्राम तुम जीत कर आना ॥२॥ 

फिर वह अपने भाई के पास जाकर बोला- पासा खेलते हुए हे मेरे बड़े भाई ! मुझे अपना आशीर्वाद दीजिये। भाई ने कहा- हे भाई ! मेरा हंसराज नाम का घोड़ा तुम ले लो। इस बार संग्राम जीत कर आना ।।३।। फिर उसने अपनो माता के पास जाकर कहा-मचिया पर बैठी हुई हे मेरो पूज्य माता ! मुझे आशीर्वाद दो। माता ने आशीर्वाद देकर कहा- हे पुत्र ! दूध भात खाकर जाओ। इस बार संग्राम जोत कर आना ॥४॥

भड़सर (घर में सामान रखने के लिये जो दोवाल में बाँस गाड़ कर मिट्टी लगाकर जगह बना लेते हैं, उसे भड़सर कहते हैं) में बैठी हुई भावज के पास जाकर उसने कहा- हे मेरी पूज्य भावज ! मुझे आशीर्वाद दो । भावज ने कहा- हे बाबू ! घोड़े की चाबुक ले लो। इस संग्राम में तुम जूझ जाना ।।५।।

वहाँ से पति ने अपनी स्त्री के पास जाकर कहा-सेज पर बैठी हुई हे मेरी धर्मपत्नी ! तुम मुझे अपनी शुभ कामना दो, जिससे में यह संग्राम जीत कर सकुशल लौट आऊँ। पत्नी ने कहा- हे मेरे प्रियतम ! मेरे सिर को चादर को आप अपने साथ ले लोजिये। इस संग्राम में आपकी जीत होगी ।।६।। पहली ही लड़ाई में राजपुत्र जूझ गया। रक्त को नदी बह चलो। उसने मरते, मरते सन्देश दिया। मेरे पाँव को पनही मेरे पिता को देना। मेरे

बिना उनकी सभा सूनी हो गयी ।।७।।

यह हंसराज घोड़ा मेरे बड़े भाई को देना। हा! मेरे निधन से उनका दाहिना हाय टूट गया और यह दूध भात का कटोरा मेरी माता को देना। हा ! उनकी गोदी अब सूनी हो गई ।।८।।

और यह. घोड़े की चाबुक मेरी भावज को देना, जिनके मन की कामना मेरे निधन से पूरी हुई। और मेरी यह सिर को पगड़ी मेरी पत्नी को दे देना । हा ! मेरे बिना जिसकी सेज सूनी हो गयी ॥९॥

इस गीत में बीर रस के साय करुण रस का बहुत सुन्दर सम्मिश्रण

हुआ है। वे विधवाएं, जिनके पति बोर गति को प्राप्त होते हैं, इस गीत को चक्को चलाते समय गाकर अपनी किन सुकुमार और करुण स्मृतियों के भाव चित्रित करती हैं यह पाठक अनुमान करें और विचार करें उनको उस वेदना-भरी टीस और मर्मभेदी स्थिति पर ।।

( १० )

पानी के पियासल जिरवा गइली पनिघटवा रे, घर के भसुर वटिआ रोके ले नु रे जी ॥१॥ छोड़ छोड़ भसुरा रे! मोर पनीचटवा रे, बरसेला पनीआँ भीजले जउँ तोरा जिरवा रे हमरो दुपटवा ओढ़ि तोहरे दुपटवा भमुर ! हमरी चुनरिया मोरि चुनरी नु रे जी ॥२॥ भीजे ले चुनरिया रे, लेवहु आगि सीतल वयरिया रे जी ।।३।। धधकाइवि, नु रे जी ॥४।॥ झोनी झीनी गेहुँआ जिरवा बाँस के चंगेलिया, जिरवा पीसे ली जंतसरिया तु रे जी ।।५।। एक झींक हृथवा दूसर झींकें जंतवा, देवर सनेसवा पसवा खेलत जावहु जैसिह रजवा रे जो ॥६॥ रे, तोरी धनि रोवे जँतसरिया नुरे पसवा लड़वलन राजा बेल रे बबर तर, जी ।।७।। झपटि के अइलें जंतसरिया नु रे जी ॥८॥ बइठवलनि, कोराँ ले उठवलनि जाँध अपनी रुमलिया अँसुआ पोछेनु रे जी ॥९॥ किया तोहि जिरवारे ! माइ गरिअवलिन, किया हो बहिनिया बिरहा नाहीं मोको अहो राजा नाहीं हो वहिनिआ बिरहा १३ बोलेहु रे जी ॥१०॥ सासु गरिअवलीं, बोलेनु रे जी ॥११॥ 

जवन भसुर मोरा अंगुठा ना देखलन, तवन भसुरवा वटिआ रोकेनु रे जी ॥१२।४ होखे दे विहान रइनि चढ़ाइ भड्या मरले T जिरवा ! लागे देनु लोहिया, भइआ मारवि रे जी ॥१३॥ जैसिह अकसर होइव, धनिया मरले दूसर धनिया नु रे जो ॥१४।।. मुहाँ अइसन रुमलिया सुलछनि देके हँसले जर्यासह, जिरवा धनियाँ नु रे जी । १५।।

पानी भरने के लिए जोरा नाम वाली स्त्री पनघट पर गई। उसके पति के बड़े भाई ने हो, जो उस पर मोहित था, उसे रास्ते में छेड़ना चाहा। जोरा ने पनघट को छेड़छाड़ को बुरा कहते हुए कहा कि पानी बरसने से उसकी चूंदर भीग रही है ॥१-२॥

भसुर ने कहा- अरे जोरा ! अगर तुम्हारी चूंदर भोग रही है, तो चादर ओढ़ लो ॥३॥

जीरा ने कहा- हे भसुर! तुम्हारी चादर में आग लगे, मेरो चूंदर से शीतल हवा चलती है ॥४।।

बढ़िया गेहूं लेकर-बॉस को छोटी टोकरी में जोरा गेहूँ जतसार में पीस रही है। उसने एक हाथ में झोंक लिया। दूसरे हाथ से झोंक डाला उसने अपने देवर से कहा कि हे देवर! मेरा सन्देश मेरे स्वामी के पास ले. जाओ ।।५-६।।

देवर ने जाकर जैसिह से कहा- हे भाई जे सिह ! तुम तो यहाँ पासा खेल रहे हो और तुम्हारी स्त्री जॅतसार में रो रही है ।।७।।

जैसिह ने झट से पासा बेल और बबूल के नोचे फेंक दिया और झपट कर जंतसार में जा पहुँचे ॥८॥

उसने रोती हुई अपनी स्त्री को उठाया और जांघ पर बैठा कर अपनो रूमाल से आंसू पोंछ कर कहा- हे जोरा प्यारी ! तुम क्यों रो रही हो ? तुमको मा ने गाली दी है, या बहन ने ताना मारा है ।।९-१०।। 

जोरा ने कहा- हे राजा! मुझको माँ ने गालो नहीं दी और न ननद ने ताना ही मारा है। जिस भसुर ने मेरा कभी पाँव का अँगूठा तक नहीं देखा, वही मेरा आज रास्ता रोक रहा था ।।११-१२।

जैसिह ने कहा--अरी जोरा ! सबेरा होने दे उस भाई को मैं रण पर चढ़ा कर मारूंगा ।।१३।।

जोरा ने कहा- हे जैसिह ! भाई को मारने से तुम अकेले हो जाओगे। पर यदि मुझको मार दोगे, तो दूसरी स्त्री तुम्हें मिल जायेगी ।।१४।।

जैसिह ने रूमाल से अपना मुख दाब कर किसी प्रकार हँसो रोक कर कहा-जोरा ! तुम मेरो मंगल की मूति शुभ लक्षणों से युक्त पत्नी हो ।।१५।।

( १२ )

आवत देखीं मो दुइ हो सिपहिया, एक सांवर एक गोर हो राम ।।१।। गोर हउवन मोरि माई क भुत्तवा, साँवर ननदजो के भइया हो राम ॥२॥ मचिहि बइडलि मोरि सासु बड़इतिनि, काइ वनावों जेवनरवा हो राम ।।३।। मॅढ़वा मसउड़े क सगवा कवनी कोठिलवहि वहुअरि सरेला कोदया, अगिया लगावों सासु सरली हो राम ।।४।। कोदड्या, बजर मसुहवा के सगवा हो राम ।।५।: खोलि देवई सासु हो झिनवा त चउरा, मुंगिया दरिय दरि दलिया हो राम ।।६।। जेवन बइठेले सार वहनोइया, सरवा के ढरेंली अँसुइया हो राम ।।७।। को तुहूँ सुरतेल मड्या के कलेउवा, की हो बहुअवा जी सेजिरिया हो राम ।।८।। 

नाहीं हम सुरतीला मइया के कलेउवा,

नाहीं त बहुअवा के सेजरिया हो राम ।।९।। चांद नूरज अइसन वहिनि संकलपेलीं, जरि जरि भइलि कोइलरिया हो राम ।।१०।। देहु न वहिनी हमके ढालि तरुवरिया हो, सावज अहेरिया हम जाइवि हो राम ।।११।। एक वन गइले दूसर वन गडले, तिसरे में मरलें बहनोध्या हो राम ॥१२॥ः केथियाँ हुबलि भइया पाँव के पनहियाँ केथियाँ डूबलि तरुवरिया हा राम ।।६।। सितिया हुबलि बहिनी पाँव के पहियाँ, रकत डूबलि तरुवरिया हो राम ।।१४।। हम त मरलीं बहिनी ! सगे बहनोइया, तोहरा से कहीं साँची बतिया हो राम ।।१५।। कहॅवहि मरल भइया ! सग वहनोइया, राम ।। १६।। कवने बिरीछवे ओठंधवल हो उचवहि मरलीं बहिनी नीचर्वाह ढकेललीं, चनन विरीझवे ओठबॅवलीं हो राम ।। १७।। के मोरा छइहें भइया ! राँड़ के मड़या, के मोर बितइहैं दिनवा रतिया हो राम ॥१८॥ हम तोरी छड्बों वहिनि राँड़ के मड़इया, भऊजी बितइहें दिनवा रतिया हो राम ।।१९।। दिन भर भइया ! भउजी चरखा कतइहूँ, सांझि बेरि देइहैं बूँद मड़वा हो राम ॥२०॥ मैंने दो सिपाहियों को आते हुए देखा। एक साँवला और दूसरा

गोरा। गोरा सिपाही तो मेरी माताजी का पुत्र है और साँवला मेरी ननद

का भाई है ॥१-२॥ 

मचिया पर मेरी पूज्य सास बैठी है। हे सास! मैं क्या जेवनार बनाऊँ ? स्त्री ने कहा ॥ ३।।

सास ने कहा- हे बहू! फिस कोठी में कोदो बिगड़ रहा है, उत्तो से कोदो ले लो। और खेत को मेड़ पर मसांड़ा का साग है हो, उसे बना लो ॥४।॥

बहू ने खोझ कर कहा- हे सास ! सड़े कोदो में मैं आग लगा- ऊँगी। मसोड़े के साग पर बज्र गिरेगा। में महीन चावल को कोठी खोलूंगी और मूंग दलकर उसे साफ कर दाल बनाऊँगी ।।५-६।।

जब साले और वहनोई खाने बैठे, तो साले को आंखों से आँसू गिरने लगे ॥७॥

बहनोई ने पूछा- हे भाई ! तुमको माता का कलेवा स्मरण हो रहा है या अपनी स्त्री को सेज याद आ रही है। तुम आँखों से आँसू क्यों गिरा रहे हो ? ॥८॥

साले ने कहा- हे भाई ! मुझे न तो माता का दिया हुआ कलेवा याद पड़ा है और न अपनी स्त्री को सेज हो। मैंने चाँद और सूर्य ऐसो सुन्दरी बहन का तुम्हें संकल्प किया और वह तुम्हारे यहाँ दुख से जल-जल कर कोयला हो गई ।।९-१०॥

इसके बाद वह अपनी बहन से ढाल और तलवार लेकर शिकार करने निकला ॥११॥

एक वन में गया। फिर दूसरे को भी उसने पार किया। तीसरे वन में उसने अपने बहनोई को मार डाला ॥१२॥

बहन ने पूछा- हे भाई ! किस चीज से तुम्हारे पाँव का जूता भीग गया और किस वस्तु से यह ढाल तलवार भो भीगो हुई है ? ॥१३॥

भाई ने कहा- हे बहन ! सोत से तो जूता भोगा है और रक्त से ढाल तलवार भोगे हैं ।।१४।।

हे बहन ! मैंने अपने सगे बहह्नोई को मार दिया। तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ ॥१५॥ 

बहन ने पूछा- हे भाई ! अपने सगे बहनोई को तुमने कहाँ मारा और किस वृक्ष के सहारे उसको लाश खड़ी को ? ।।१६।।

भाई ने कहा-मंने उसे ऊंची जगह पर मार कर नीचे गिरा दिया और चन्दन वृक्ष के नीचे लाश रख छोड़ी है ।।१७।।

बहन ने रोकर कहा- हे भाई ! मुझ रांड (विधवा) को मड़या (झोपड़ी) को कौन छायेगा अर्थात् में किसकी शरण और संरक्षकता में अब रहूँगी और किसके सहारे मेरे दिन बीतेंगे ? ॥१८॥

भाई ने कहा- हे बहन ! में तुम्हारी रक्षा करूंगा। तुम जो अब विधवा हो गई, तुम्हारी झोपड़ी भी मुझे हो बनानी होगी और तुम्हारी भावज तुम्हारे दुःख के दिन रात को बितावेगी ॥१९॥

बहन ने रोकर कहा- हे भाई ! दिन भर भावज मुझसे चरखा कता- बेगी और संध्या समय एक बूंद मांड़ [ चावल पक जाने पर जो जल निकाला जाता है] पीने को देगी ॥२०॥

यह गीत भी सत्य घटना के आधार पर रचा हुआ जान पड़ता है। कभी भारत में ऐसे मिथ्या दम्भ की प्रथा भी प्रचलित थी कि जिसमें पड़कर लोग ऐसे-ऐसे नृशंस कार्य भी वीरता और आत्म-गौरव समझते थे।

( १३ )

सभ के नगरिया 'चुरिला' बेंसिया बजावे राम ।। हमरा नगरिया काहे ना बजावहु रे की ।।१।।

कड़ने बजाई रानी रउरी नगरिया रे ।। कुकुरा भूकेला पहरू जागेला रे की ॥२॥

कुकुरा के देवों 'कुरिला' दूध भात खोरिया रे ।। पहरू के मद में मतइवो नु रे की ।।३।।

आधी राति अगिली पहर रात पिछली रे ।। दुअरा पर चुरिला रसिया ठाढ़ नु रे की ॥४॥ 

खोलु खोलु खोलु रानी सँकरी केवरिया रे ।।

दुआरे अइले चुरिला रसिया नु रे की ॥५॥ कइसे मैं खोली चुरिला संकरी केवरिया रे ।। अँचरा सूतेला राजा कुंअर रे की ।।६।। तोहरा जे पास रानी सुवरन छुरिया रे ।। अॅचरा कलपि चलि आवहु रे की ।।७।। राम ।। अँचरा कलपत चुरिला बड़ नीक लागे मुहुँवा देखत छतिया फाटेले रे की ॥८॥ एक कोस अइलों चुरिला दुइ कोस अइलों रे ।। चलत पइयाँ थाकल रे की ।।९।। चलत चलहु चलहू रानी थोरि के त रतिया रे ।। उहे त जे लउके मोर धवरहर रे की ॥१०॥ सूरज जे उगले चुरिला! मुख मोर चटपट रे ।। गोड़वा चलत चलत वज्जर रे की ॥११॥ बार बटोहिया तुहूँ मोर लगव भइया हो । कतहूँ देखल चुरिला धवरह रे की ॥१२॥ नाहीं हम देखली (ए बहिनी) नाहीं हम सुनलीं हो ।। कहाँ तू सुनलू चुरिला धवरहर रे की ॥१३॥ देखलीं मो देखली, ए बहिनी, हाजीपुर डीहवारे ।। चुरिला के मइया सुअर चरावेली रे जो मैं जनितो चुरिला जाति के दुसधवा की ।।१४।। रे ।। बाबा के नगरिया फॅसिया दिहतीनुं रे की ॥१५॥ लट पट पगिया चुरिला लामी लामी केसियारी ।। गोरी सुरतिया हम भूलि गहलीं नु रे की ॥१६॥ साथ ही में खइलू रानी ! साथ ही में सुतलू हो । अब कइसे जतियाँ तोर मेराई नु रे की ॥१७॥ 

सब के नगर में 'चुरोला' वंशी बजाता है। मेरे गाँव में क्यों नहीं जाता ?-- बहू ने पूछा ॥१॥

चुरिला ने कहा- हे रानी ! में तुम्हारे गाँव में कैसे बंशी बजाऊँ? सारी रात कुत्ते भूका करते हैं और पहरू (चोकोदार) जागते रहते हैं ।॥२॥

रानी ने कहा- हे चुरिला! में कुत्ते को दूध भात कटोरा भर कर दूंगी। और पहरेदार को दारू पिलवा दूंगी (तुम आना) ।।३।।

आधी रात बीत गई। पहर रात बाको रहो। रानी के दरवाजे पर रसिक चुरिला आकर खड़ा हुआ ।।४।।

उसने कहा- हे रानी! किवाड़ को जंजीर खोलो। तुम्हारा प्रेमो चुरिला आ गया ।।५।।

रानी ने कहा- हे चुरिला! मैं कैसे दरवाजे को साँकल खोलूँ। मेरे अंचल पर तो राजकुमार सो रहा है ।।६।।

चुरोला ने कहा- हे रानी तुम्हारे पास सोने को छुरी है। अपना अंचल काट कर चली आओ ।।७।।

रानी अंचल काट कर बाहर आई। उसने चुरला से कहा- हे चुरिला अंचल काटते समय तो बड़ा सुख मिला; पर चलते समय राजकुमार का मुंह देख कर छाती फट गई ॥८॥

मार्ग चलते-चलते रानी ने थक कर कहा- हे चुरिला! में एक कोस आई। दूसरा कोस भी चल चुकी। अब तो चलते-चलते मेरे पैर थक गये ॥९॥

चुरिला ने कहा- हे रानी ! बस पर बढ़ाओ। अब तो बहुत थोड़ी रात बाकी है। वह सामने मेरे घर का बुर्ज दिखलाई पड़ता है ॥१००॥

रानी ने कुछ चलकर सवेरा होने पर फिर कहा- हे चुरिला ! सूर्योदय हो गया, प्यास से मेरी जीभ तालू में लग कर चट चट कर रही है और पांव चलते-चलते बज्ज्र ऐसे भारी हो गये हैं। हे पथिक भाई ! तुमने कहीं चुरिला के घर की बुर्जी देखी है ॥११-१२॥ 

पयिक ने कहा- हे बहन ! हमने चुरिला का धौरहर न देखा है और न सुना हो है। तुमने कहाँ सुना कि चुरिला के घर धौरहर है। है बहन ! हाजीपुर बाजार में मंने देखा कि चुरिला को बहन सूअर चरालो है ।।१४।।

रानी ने कहा- हे चुरिला! अगर में यह जानती कि तू जात का दुसाध है, तो में अपने वावा के नगर में ही तुझे फांसी दिलवा देतो ॥१५॥

हे चुरिला! में तुम्हारी लटपट पाग और लम्बे-लम्बे केस पर भूल गई और आसक्त हो गई तुम्हारी गोरी सूरत पर ॥१६॥

चुरिला ने कहा- हे रानी ! अब तो तुमने मेरे साथ भोजन किया और मेरे शरीर से लग कर तुम अब तक सोती भी रही हो। अब तुम फिर किस तरह अपने ऊँचे कुल में मिल सकती हो ? ॥१७॥

यह गीत Hugh Fraser नामक अंग्रेज लेखक ने 'Folk lore from Eastern Gorakhpur' नामक पुस्तक में प्रकाशित किया था। उसी से यह पद संगृहीत है। आज भी यह शाहाबाद में गाया जाता है।

( १४ )

अवध नगरिया से सीता देई रे राहे बाटे बोले कागा वोलिया हो काग के बचनियाँ सुनि सीता मन चलली । राम ॥ १॥ रे झुखे । राम ॥२॥ समनवा। काहे देवरु ! नयना मोरे फरके हो घोड़वा के वेग देवरु पवन सेहू घोड़वा पावें पावें चलेला हो राम ? ॥३॥ तोहरो सुरतिया देवरू! सुरुज के जोतिया ? सेहू काहे धुमिल हो गइली हो राम ? ॥४॥ सुनु-सुनु सीता देई ! हमरी भउजिया हो !! राम भेजेलें तोहकें वनवा गह्वर बन जाई सीता हो राम ।।५।। परिहरहू । हो राम ।।६।। 

कवना कमइए देवरू! हम धनि रे चुकलीं।

काहे के भेजेले हमके बनवाँ हो धोविया वचनियाँ सुनि राम दुख राम ।।७।। पवले । ताहि लागि बनवा तोहि भेजलनि अजस मोटरिया हो राम ।।८।। देवरू! हमरे लिलरवा । प्रभु के मुजनवा सब होखे हो राम ।।९।। जो नाहीं रहिते देवरु ! हमरी गरभिया। एही छन जिउआ देई दिहितों हो राम ॥१०॥ एतना सुनत सेस लोटे ले धरनि पर। ताहि छन अइली मुरुछवा हो राम ।।११।। अॅचरा डोलाइ सीता लखन के उठवली। तोहरा के राम जोहत होइहें हो राम ॥१२॥ जव लें लखन सीता वन तेजि चलले । सीता देई भइँआ लोटि परली हो राम ।।१३।। सीता के वियोग सुनि के बन के चिरइया। सीता के निकट वेगि अइली हो स्रम ।।१४।। ससना सुनत मुनि अइले रे निकटवा । सीता मने वोववा करवले हो राम ।।१५।। हो। जगत जनति माता धरु न धीरजवा तोरे लागि कुटिया छवइवो हो राम ।।१६।। चलु चलु सीता देई हमरो बहिनिया हो। सब. भांति सुखवा पहुँचइवो हो राम ।।१७।। हो। जो कोई सुनि राम सीता का वियोगवा अमिका अमरवा होइ जाई हो राम ॥१८॥

अयोध्या से सीता चलीं। रास्ते में सब जगह कोवे को बोली सुनाई

पड़ी। कीवे की बोली से सीता के मन में भय पैदा हुई और वे भय से सूख गई। उन्होंने लक्ष्मण से पूछा- हे देवर! मेरी दाई आंख क्यों फड़क रही है ? यह पवनगामो रथ क्यों मन्द पड़ गया है? इसके घोड़े इतने निर्जीव और दुखी क्यों लग रहे हैं? और तुम जो सदैव सूर्य की तरह तेजस्वी दिखाई पड़ते थे, इस समय श्रोहोन क्यों हो रहे हो ? ।।१-२-३-४।।

लक्ष्मण ने कहा- हे मेरो भावज सीता देवी! रामचन्द्रजी ने तुमको बनवास दिया है, तुम्हें घोर जंगल में ले जाकर छोड़ देने को उन्होंने आज्ञा दी है। इसीलिये में तुमको वन में ले चल रहा हूँ ।।५-६।।

सोता ने कहा- हे लक्ष्मण ! मेरे किस अपराध पर उन्होंने मुझे वनवास दिया ? ।।७।।

लक्ष्मण ने कहा कि रामचन्द्र ने धोबी के अपवाद पर प्रजा-विश्वास के लिये तुम्हें बनवास देने का निश्चय किया ।।८।।

सीता ने कहा- हे देवर ! अपयश का भार उठाने और उसका फल भोगने से मुझे भय नहीं। प्राणेश्वर को सदैव यश मिले। यदि गर्भवती रहने के कारण विवश न होती, तो में इसी क्षण प्राण दे देती ।।९-१०।।

सोता को इस हृदयबेधी बात से लक्ष्मण को मूर्च्छा आ गई। बह पृथ्वी पर गिर पड़े ।।११।।

सीता ने अंचल से हवा कर लक्ष्मण को होश कराया और कहा- हे लखनलाल ! तुम घर जाओ, रामजी तुम्हारे लिए चिन्तित होंगे ॥१२॥

जब लक्ष्मण सोता को वन में छोड़कर चले गये, तव सोता पृथ्वी पर गिर कर रोने लगीं। सोता का वियोग-रुदन सुन कर वन के पक्षो उनके निकट आकर बैठ गये ।।१३-१४।।

सोता के इस क्रन्दन को सुन कर मुनि वाल्मीकि वहाँ आये और सोता को समझाने लगे। हे जगत् जननी ! तुम धैर्य धारण करो। में तुम्हारे लिये कुटी छवा दूंगा ।।१५-१६।।

हे सीता देवी! तुम चलो। दुख न मानो। तुम मेरी बहन हो। मैं सब प्रकार से तुमको सुख दूंगा ।।१७।। 

अम्बिकाप्रसाद कहते हैं कि जो कोई सोता के इस वियोग को सुनेगा, वह अमर हो जायगा और बंकुण्ड चला जायगा ।।१८।।

अम्बिकाप्रसाद आरा में मुखतार थे। इनके समय का ठीक पता नहीं चलता; परन्तु सम्भवतः जिस समय प्रिअरसन भोजपुरी पर खोज कर रहे थे, उस समय यह अवश्य रहे होंगे। इनके अधिक गोत मुझे शान्त रस के मिले हैं। ग्रिअरसन ने भी इनके गोतों का संग्रह किया है।

( १५)

रोइ रोइ पतिया लिखेली सब सखियाँ हीजी ।।१।। हमरा से । हरिजी ॥२॥ कव होइहें तोहरे अवनवा हे कवन अइसन चुक भइली हरिजी तेजि गइलीं मधुवनवा हे पिरिती के रीति कुछु रउरा नाहीं जनलीं। हई रउआ जाति के अहिरवा हे हरिजी ।।३।। पछिली परिति करों कवहूँ इयदिया रे । का कहिके गइलीं कुब्जा घरवां हे हरिजी ।।४।। अम्बिकाप्रसाद दरसन तोहरा से पवलीं। छोड़ितों न रउरी चरनिया है हरिजी ।।५।।

सब सखियाँ रो रो कर पत्र लिख रही हैं। हे कृष्ण! तुम्हारा गोकुल में कब आना होगा। हे हरिजी! हमसे कोन-सी ऐसी चूक हुई कि आप हम लोगों को त्याग कर मधुवन में चले गये। ॥१,२॥

आपने प्रोति करने को रीति को नहीं समझा। आखिर आप जाति के अहीर ही तो हैं ॥३॥

हे हरि ! पिछलो प्रोति को अब भी तो याद कोजिये कि आप हमसे क्या-क्या कह कर मथुरा पुरी कुब्जा के घर गये थे ॥४।।

अम्बिकाप्रसाद कहते हैं कि सखियाँ कहती हैं कि हे कृष्ण ! अगर हम आपके दर्शन पा जातीं, तो चरणों को फिर कभी नहीं छोड़तों ॥५॥ 

मधुपुर मधुपुर हम सुनीला ऐ उधो जी। मध्पुर कइसन देसवा ओहि मधुपुरवा बसे कुवरी रे से ही कइली हरिजी के टोनवा ए उधोजी ।।१।। ठगिनिया । ए उधोजी ॥२॥ जवना कल्हइया लेइ के निसु, दिन हम विहरों, सेह रे कन्हइया भइले निरमोहिया ए ऊधोजी ।।३।। सूर से सइयाँ प्रभु सखि सब विरहे मिलि के विछुड़ले बेआकुल ए उधोजी ॥४।॥

सखियाँ कहती हैं- हे उद्धव ! मधुपुर मधुपुर हम हमेशा सुना करती हैं। यह मधुपुर कैसा देश है बताइये तो ! उस मधुपुरी को क्यों लोग प्रशंसा करते हैं, वहाँ तो कुबरी ऐसी ठगिन निवास करती है, जिसने हमारे हरिजी पर टोना (जादू) कर दिया है ॥१-२॥

हे उद्धव ! जिस हरि के साथ हम रात-दिन विहार किया करती थीं, वह हरि आज निर्मोही हो गये ।।३।।

सूरदास कहते हैं कि सखियाँ कहती हैं कि हे ऊधो! हमारे स्वामो हमसे मिलकर भी बिछुड़ गये। हम सब सखियाँ विरह से व्याकुल हो रही हैं ॥४॥

सूरदास के और भी भजन शान्त रस में मुझे मिले हैं।

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लेख
भोजपुरी लोक गीत में करुण रस
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"भोजपुरी लोक गीत में करुण रस" (The Sentiment of Compassion in Bhojpuri Folk Songs) एक रोचक और साहित्यपूर्ण विषय है जिसमें भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से लोक साहित्य का अध्ययन किया जाता है। यह विशेष रूप से भोजपुरी क्षेत्र की जनता के बीच प्रिय लोक संगीत के माध्यम से भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं को समझने का एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है। भोजपुरी लोक गीत विशेषकर उत्तर भारतीय क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से समृद्ध हैं। इन गीतों में अनेक भावनाएं और रस होते हैं, जिनमें से एक है "करुण रस" या दया भावना। करुण रस का अर्थ होता है करुणा या दया की भावना, जिसे गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। भोजपुरी लोक गीतों में करुण रस का अभ्यास बड़े संख्या में किया जाता है, जिससे गायक और सुनने वाले व्यक्ति में गहरा भावनात्मक अनुभव होता है। इन गीतों में करुण रस का प्रमुख उदाहरण विभिन्न जीवन की कठिनाईयों, दुखों, और विषम परिस्थितियों के साथ जुड़े होते हैं। ये गीत अक्सर गाँव के जीवन, किसानों की कड़ी मेहनत, और ग्रामीण समाज की समस्याओं को छूने का प्रयास करते हैं। गीतकार और गायक इन गानों के माध्यम से अपनी भावनाओं को सुनने वालों के साथ साझा करते हैं और समृद्धि, सहानुभूति और मानवता की महत्वपूर्ण बातें सिखाते हैं। इस प्रकार, भोजपुरी लोक गीत में करुण रस का अध्ययन न केवल एक साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भी भोजपुरी सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों की अद्भुत अभिवृद्धि को संवेदनशीलता से समृद्ध करता है।
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भोजपुरी भाषा का विस्तार

15 December 2023
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भोजपुरी भाषा के विस्तार और सीमा के सम्बन्ध में सर जी० ए० ग्रिअरसन ने बहुत वैज्ञानिक और सप्रमाण अन्वेषण किया है। अपनी 'लिगुइस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' जिल्द ५, भाग २, पृष्ठ ४४, संस्करण १९०३ कले० में उन्हो

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भोजपुरी काव्य में वीर रस

16 December 2023
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भोजपुरी में वीर रस की कविता की बहुलता है। पहले के विख्यात काव्य आल्हा, लोरिक, कुंअरसिह और अन्य राज-घरानों के पँवारा आदि तो हैं ही; पर इनके साथ बाथ हर समय सदा नये-नये गीतों, काव्यों की रचना भी होती रही

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जगदेव का पवाँरा जो बुन्देलखण्ड

18 December 2023
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जगदेव का पवाँरा जो बुन्देलखण्ड में गाया जाता है, जिसका संकेत भूमिका के पृष्ठों में हो चुका है- कसामीर काह छोड़े भुमानी नगर कोट काह आई हो, माँ। कसामीर को पापी राजा सेवा हमारी न जानी हो, माँ। नगर कोट

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भोजपुरी लोक गीत

18 December 2023
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३०० वर्ष पहले के भोजपुरी गीत छपरा जिले में छपरा से तोसरा स्टेशन बनारस आने वाली लाइन पर माँझी है। यह माँझी गाँव बहुत प्राचीन स्थान है। यहाँ कभी माँझी (मल्लाह) फिर क्षत्रियों का बड़ा राज्य था। जिनके को

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राग सोहर

19 December 2023
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एक त मैं पान अइसन पातरि, फूल जइसन सूनरि रे, ए ललना, भुइयाँ लोटे ले लामी केसिया, त नइयाँ वझनियाँ के हो ॥ १॥ आँगन बहइत चेरिया, त अवरू लउड़िया नु रे, ए चेरिया ! आपन वलक मों के देतू, त जिअरा जुड़इती नु हो

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राग सोहर

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ललिता चन्द्रावलि अइली, यमुमती राधे अइली हो। ललना, मिलि चली ओहि पार यमुन जल भरिलाई हो ।।१।। डॅड़वा में वांधेली कछोटवा हिआ चनन हारवा हो। ललना, पंवरि के पार उतरली तिवइया एक रोवइ हो ॥२॥ किआ तोके मारेली सस

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करुण रस जतसार

22 December 2023
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जतसार गीत जाँत पीसते समय गाया जाता है। दिन रात की गृहचर्य्या से फुरसत पाकर जब वोती रात या देव वेला (ब्राह्म मुहूर्त ) में स्त्रियाँ जाँत पर आटा पीसने बैठती हैं, तव वे अपनी मनोव्यथा मानो गाकर ही भुलाना

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राग जंतसार

23 December 2023
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( १७) पिआ पिआ कहि रटेला पपिहरा, जइसे रटेली बिरहिनिया ए हरीजी।।१।। स्याम स्याम कहि गोपी पुकारेली, स्याम गइले परदेसवा ए हरीजी ।।२।। बहुआ विरहिनी ओही पियवा के कारन, ऊहे जो छोड़ेलीभवनवा ए हरीजी।।३।। भवन

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भूमर

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झूमर शब्व भूमना से बना। जिस गीत के गाने से मस्ती सहज हो इतने आधिक्य में गायक के मन में आ जाय कि वह झूमने लगे तो उसो लय को झूमर कहते हैं। इसी से भूमरी नाम भी निकला। समूह में जब नर-नारी ऐसे हो झूमर लय क

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खाइ गइलें हों राति मोहन दहिया ।। खाइ गइलें ० ।। छोटे छोटे गोड़वा के छोटे खरउओं, कड़से के सिकहर पा गइले हो ।। राति मोहन दहिया खाई गइले हों ।।१।। कुछु खइलें कुछु भूइआ गिरवले, कुछु मुँहवा में लपेट लिहल

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राग कहँरुआ

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जब हम रहली रे लरिका गदेलवा हाय रे सजनी, पिया मागे गवनवा कि रे सजनी ॥१॥  जब हम भइलीं रे अलप वएसवा, कि हाय रे सजनी पिया गइले परदेसवा कि रे सजनी 11२॥ बरह बरसि पर ट्राजा मोर अइले, कि हाय रे सजनी, बइठे द

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भजन

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ऊधव प्रसंग ( १ ) धरनी जेहो धनि विरिहिनि हो, घरइ ना धीर । बिहवल विकल बिलखि चित हो, जे दुवर सरीर ॥१॥ धरनी धीरज ना रहिहें हो, विनु बनवारि । रोअत रकत के अँसुअन हो, पंथ निहारि ॥२॥ धरनी पिया परवत पर हो,

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भजन - २५

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(परम पूज्या पितामही श्रीधर्म्मराज कुंअरिजी से प्राप्त) सिवजी जे चलीं लें उतरी वनिजिया गउरा मंदिरवा बइठाइ ।। बरहों बरसि पर अइलीं महादेव गउरा से माँगी ले बिचार ॥१॥ एही करिअवा गउरा हम नाहीं मानबि सूरुज व

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बारहमासा

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बारहो मास में ऋतु-प्रभाव से जैसा-जैसा मनोभाव अनुभूत होता है, उसी को जब विरहिणी ने अपने प्रियतम के प्रेम में व्याकुल होकर जिस गीत में गाया है, उसी का नाम 'बारहमासा' है। इसमें एक समान ही मात्रा होती हों

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अलचारी

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'अलचारी' शब्द लाचारी का अपभ्रंश है। लाचारी का अर्थ विवशता, आजिजी है। उर्दू शायरी में आजिजो पर खूब गजलें कही गयी हैं और आज भी कही जाती हैं। वास्तव में पहले पहल भोजपुरी में अलचारी गीत का प्रयोग केवल आजि

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खेलवना

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इस गीत में अधिकांश वात्सल्य प्रेम हो गाया जाता है। करुण रस के जो गोत मिले, वे उद्धत हैं। खेलवना से वास्तविक अर्थ है बच्चों के खेलते बाले गीत, पर अब इसका प्रयोग भी अलचारी को तरह अन्य भावों में भी होने

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देवी के गीत

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नित्रिया के डाड़ि मइया लावेली हिंडोलवा कि झूलो झूली ना, मैया ! गावेली गितिया की झुली झूली ना ।। सानो बहिनी गावेली गितिया कि झूली० ॥१॥ झुलत-झुलत मइया के लगलो पिसिया कि चलि भइली ना मळहोरिया अवसवा कि चलि

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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पूरबा गात

3 January 2024
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( १ ) मोरा राम दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। भोरही के भूखल होइहन, चलत चलत पग दूखत होइन, सूखल होइ हैं ना दूनो रामजी के ओठवा ।। १ ।। मोरा दूनो भैया० 11 अवध नगरिया से ग

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कजरी

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( १ ) आहो बावाँ नयन मोर फरके आजु घर बालम अइहें ना ।। आहो बााँ० ।। सोने के थरियवा में जेवना परोसलों जेवना जेइहें ना ॥ झाझर गेड़ वा गंगाजल पानी पनिया पीहें ना ॥ १ ॥ आहो बावाँ ।। पाँच पाँच पनवा के बिरवा

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रोपनी और निराई के गीत

3 January 2024
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अपने ओसरे रे कुमुमा झारे लम्बी केसिया रे ना । रामा तुरुक नजरिया पड़ि गइले रे ना ।। १ ।।  घाउ तुहुँ नयका रे घाउ पयका रे ना । आवउ रे ना ॥ २ ॥  रामा जैसिह क करि ले जो तुहूँ जैसिह राज पाट चाहउ रे ना । ज

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हिंडोले के गीत

4 January 2024
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( १ ) धीरे बहु नदिया तें धीरे बहु, नदिया, मोरा पिया उतरन दे पार ।। धीरे वहु० ॥ १ ॥ काहे की तोरी वनलि नइया रे धनिया काहे की करूवारि ।। कहाँ तोरा नैया खेवइया, ये बनिया के धनी उतरइँ पार ।। धीरे बहु० ॥

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मार्ग चलते समय के गीत

4 January 2024
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( १ ) रघुवर संग जाइवि हम ना अवध रहइव । जी रघुवर रथ चढ़ि जइहें हम भुइयें चलि जाइबि । जो रघुवर हो बन फल खइहें, हम फोकली विनि खाइबि। जौं रघुवर के पात बिछइहें, हम भुइयाँ परि जाइबि। अर्थ सरल है। हम ना० ।।

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विविध गीत

4 January 2024
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(१) अमवा मोजरि गइले महुआ टपकि गइले, केकरा से पठवों सनेस ।। रे निरमोहिया छाड़ दे नोकरिया ।॥ १ ॥ मोरा पिछुअरवा भीखम भइया कयथवा, लिखि देहु एकहि चिठिया ।। रे निरमोहिया ।॥ २ ॥ केथिये में करवों कोरा रे क

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पूर्वी (नाथसरन कवि-कृत)

5 January 2024
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(८) चड़ली जवनियां हमरी बिरहा सतावेले से, नाहीं रे अइले ना अलगरजो रे बलमुआ से ।। नाहीं० ।। गोरे गोरे बहियां में हरी हरी चूरियाँ से, माटी कइले ना मोरा अलख जोबनवाँ से। मा० ।। नाहीं० ॥ झिनाँ के सारी मो

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एगो किताब पढ़ल जाला

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