३०० वर्ष पहले के भोजपुरी गीत
छपरा जिले में छपरा से तोसरा स्टेशन बनारस आने वाली लाइन पर माँझी है। यह माँझी गाँव बहुत प्राचीन स्थान है। यहाँ कभी माँझी (मल्लाह) फिर क्षत्रियों का बड़ा राज्य था। जिनके कोट का टीला इस समय सरकार द्वारा संरक्षित है। वह डेढ़ मील की लम्बाई में है। इसो गांव में इसी राज्य के दीवान घराने के कायस्थों को काफी आबादी है। इसी वंश में शाहजहाँ के निधन और औरंगजेब को तख्तनसीनी के समय धरनीदासजी नाम के एक महान् सन्त हो गये हैं। ये इस राज-वंश के दीवान अपने पिता को मृत्यु के बाद बने थे; पर तुरन्त ही इन्होंने दिल्ली तख्त पर बादशाह ओरंगजेब के आसीन होते ही फकीरी ले लो थी। इन्होंने कहा-
शाहजहाँ छोड़ी दुनिआई, पसरी अवरंगजेब दुहाई। सोच विचारि आत्मा जागी, धरनी घरेउ भेस वैरागी।
इनके गुरु विनोदानन्दजी थे। उनका देहावसान संवत् १७३१ कृष्ण पक्ष, श्रावण मास की नवमी को हुआ था। "सतरह से एकतीस भवो सम्मत सरसौमी ।। कृष्ण पक्ष पर तच्छ सुभग सावन तिथि नौमी ।। करि विचार भृगुवार विनोदानन्द पधारे ॥...... ।।" इस छप्पय में धरनी- दासजी ने गुरु के देहावसान की तिथि बतायी है।
इन महान् सन्त ने उस समय को प्रचलित बोलियों में 'शब्द प्रकाश' और 'प्रेम प्रकाश' नामक दो प्रन्थ लिखे थे, जो आज भी प्राप्त हैं। ये दोनों ग्रंथ अप्रकाशित हैं। 'शब्द प्रकाश' को सन् १८८७ में बाबू रामदेवनारायर्णासह मु० चंनपुर जि० सारन ने पछवाया था। पर वह बहुत अशुद्ध है। मूल हस्त लिपि को १०० वर्ष पूर्व को लिखी कापी भी बाबू राजवल्लभसहाय जी, सा० मांझी के पास है। 'प्रेम प्रकाश' को पांडुलिपि भी मांझी के मठ में जो धरनीदासजी का मठ है, आज तक शिष्य परम्परानुगत वर्तमान है।
धरनीदासजी ने भोजपुरी में अपने 'शब्द प्रकाश' को रचना को है। उनकी हिन्दी में भी भोजपुरी को प्रबल छाप वैसो हो है, जैसी कि तुलसीदास जी की रामायण में अवधी को है। खाली भोजपुरी ही नहीं, बंगला, पंजाबी, मैथिली, मगही, मोरेंगी, उर्दू आदि भाषाओं में भी उन्होंने रचना की है, जो 'शब्द प्रकाश' में वर्त्तमान है।
निम्नलिखित करुण रस के गीत उसी 'शब्द प्रकाश' से इस संग्रह में, दिये गये हैं। इनमें प्रीढ़ता, सौन्दर्य्य, वर्णन शैली और रस परिपाक तथा काव्य के सत्यं शिवं सुन्दरम् के सभी लक्षण पाठक को तो देखने को मिले- होंगे, साथ हो भोजपुरी काव्य की प्राचीनता और उसको प्रीढ़ता भी इससे सिद्ध हुए बिना नहीं रहेगी। इस तरह के कितने प्रतिभापूर्ण काव्य नष्ट हो गये और जो हैं भी, वे ऐसे ही अंधकार में पड़े हुए हैं। उनको ढूंढ़ निका- लना और भोजपुरी साहित्य की प्राचीन निधि को पुष्ट करना, हर भोजपुरी भाषा-भाषी का परम कर्त्तव्य है। जो लोग कहा करते हैं कि भोजपुरी का अपना लिखित साहित्य नहीं है, उनके इस कथन के विरोध में यह काव्य प्रबल प्रमाण है।
इन गीतों का पाठ ठीक वैसा ही रखा गया है, जैसा कि मूल प्रति में है। इससे ३०० वर्ष पूर्व की भोजपुरी का नमूना मिलता है।
धरनीदासजी ने जहाँ प्रचलित भाषाओं में रचना की है वहाँ हर भाषा के प्रचलित छन्दों को भी भोजपुरी में अपनाया है। उन छन्दों का नामकरण भी उन्हीं देशों के अनुसार किया है; जैसे-राग पंजावी, राग मोरंगी, राग अंगाला, राग तिरहुती इत्यादि ।
निम्नलिखित गीत 'शब्द प्रकाश' को मूल प्रति से उद्धत हैं-
राग मंगल
(१)
पार बसे प्यारे प्रीतम ओर बसेरा मोर। गुरु-गम तहाँ चित लुबुधल जैसे पच धन मन चोर ।। जैसे चकोर चित चंदहि चितवत एक टक लाइ। जव होइ नैन के ओझल पुडुमी परै मुरुझाइ ।। जैसे चकई निसि कलपइ भोर निहारि निहारि । जब लगि, दरस-परस नहि उठत पुकारि पुकारि ।। धरनी विरह-भुअंगम उसेऊ अचानक आई। वेगि मिलो प्रभु गारुरी मरत न लेहु जिआई ।।
अर्थ-उस पार प्यारे प्रोतम रहते हैं, और मेरा बसेरा इस पार किनारे पर है। गुरु के बताने से मेरा चित्त उस प्रीतम पर इस तरह लुब्ध हो गया है, जिस तरह थके हुए चोर का मन धन को चुराने के लिए लुभाया करता है। वह उस तरह से उन पर आसक्त है, जिस तरह उस चकोर का चित्त जो चन्द्रमा को एकटक देखते हुए रातभर तो लुभाया करता है; पर चन्द्रमा के भोर में उसकी आँखों से ओझल होते हो वह पृथ्वी पर मुरझा कर गिर पड़ता है; अथवा मेरा मन गुरु के ज्ञान से उस चकई की तरह प्रीतम पर लुभा रहा है जो रात भर सवेरे की लालिमा की चिन्ता करके कलपा करतो है और जब तक चकवे का दरस परस उससे प्रातःकाल नहीं हो जाता, तब तक सारी रात पुकार-पुकार कर विलखा करतो है। धरनीदास कहते हैं कि मुझे बिरहरूपी साँप ने अचानक आकर डॅस लिया है। अब मैं मरना हो चाहता हूँ। साँप का मन्त्र जानने वाले हे प्रभु, मुझसे मिलकर आप मुझ मरते को क्यों नहीं बचा लेते?
मूल सव्द सुधि सुनइत जाग ली आतम नारी। नैहर नेह विसरि गैला गुरु सुरती ससुरारी ।। पूरन प्रेम प्रगट भउ उर उपजे ला अनुराग। भूखन भवन न पाव नैनन्ह नींद न लाग ।। संग सलेहरि सकुचति संगति सवति सोहाय । विरहिन बिरह बीआकुल निसिवासर अकुलाय ।। विलपति, कलपति, रोअति, शंखति झूखति सोइ। औषध दरस परस बिनु व्याधि बिनास न होई ।। जब लगि जुगुति जानेऊ रहलि अपावन देह। आपु आप नहि परिखत बाढ़त सहज सनेह ।। घरनी-रेखि अदेखिय निर्मल जोति प्रगास । तन, मन, प्रान, जीवन, घन बलि बलि धरनीदास ।।
अर्थ-मूल शब्द के सुनते ही आत्मारूपी नारो जाग उठी और उसको
नहर (मायका) अर्थात् इस शरीर की सुध भूल गई और गुरु की कृपा से ससु-
राल (परलोक) स्मरण हो आया। पूर्ण प्रेम प्रकट हुआ और हृदय में अनुराग
उत्पन्न हो गया। अब आभूषण आदि अलंकार और भवन नहीं भाते। आँखों
में नोंद का नाम नहीं। संग को सखियाँ अर्थात् दसों इन्द्रियाँ संकुचित अर्थात्
शिथिल हो रही हैं और सवति से संग हो रहा है अर्थात् ईश्वर-भक्ति में हो
सदा चित्त लीन रहता है। विरहिणी आत्मा व्याकुल है। रात दिन अकुला रही
है। बिलखती है-कलपती है- रोती और झीखती है और विरह में सूखती
चलो जाती है। औषध के बिना अर्थात् प्रीतम के दर्शन बिना उसको बिना
व्याधि ही का सन्निपात हो गया है। जब तक युक्ति नहीं जानती थी, तभी तक
शरीर अपावन था। अपने हो से अपने को नहीं पहचान सकती। सहज
(स्वाभाविक) प्रेम बढ़ रहा है। धरती पर जितनी रेखाएँ हैं अर्थात् संसार
की परम्परा की, रोति-रिवाज उन सब को भूल गई। निर्मल ज्योति के
प्रकाश से धरनीदास को विरहणो आत्मा तन, मन, धन, जीवन और प्राण से प्रीतम पर बलि-बलि जाती है।
इसमें कुछ संज्ञाओं को क्रिया बनाया गया है। भोजपुरी व्याकरण में संज्ञा को क्रिया बनाने का नियम इससे बहुत पुराना, सिद्ध होता है। सुरति को सुरतो करके सुरति दिलाने के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैसे ही अदेखिय का भी अदेख से क्रिया बना कर अदेख कर देने के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
राग हिंडोल
(१)
अति अद्भुत एक रुखवारे। जित तिति विपरित डार ।। गुरु गम लाग हिंडोलवा रे। चढ़ मन राजकुमार ।। माँझ मझोर लगिआ रे। प्रेम के डोरि सुढ़ार ।। पाँच सखी सँग झूलहि रे। सहज उठत झझकार ।। अरध उरध झुकि झुलहि रे। गहि गहि अधर अधार ।। विनु मुख मंगल गार्वाह रे। सखि विनु दीप उजियार ।। धरनी जन गुन गाइआ रे। पुलकित बारन बार ।। जो जन चढ़ेऊ हिडोलवारे। सखि वहुरि न उतरनिहार ।।
अर्थ-एक अत्यन्त अद्भुत वृक्ष है। उसको डार इधर-उधर फैली हुई है। गुरु के ज्ञान का हिंडोला लगाकर मन रूपी राजकुमार उस पर चढ़ा। घोर बन के बीचो-बीच प्रेम के सुन्दर चढ़ाव उतार वाली रस्सी से वह झूला लगाया गया है। मेरे (मन रूपी) राजकुमार के साथ पाँच सखियाँ (पाँच इंद्रियाँ) झूला झूल रही हैं और सहज रूप से झंझा का झझकार उठा करता है। ये सब नीचे-ऊपर झुक झुक कर और निराधार का आधार ग्रहणकर कर के झूल रही हैं। बिना मुख के ये मंगल गाती हैं और हे सखी, बिना दीपक के हो उजाला करती हैं। यह धरणीदास ऐसे संत जन का गुण गाता है। वे बार-बार पुलकित होते हैं। हे सखी! जो पुरुष इस हिंडोले पर चढ़ता है, वह फिर लौटता नहीं है।
(२)
नइहर वड़ मोर सुखिना रे, हमरो जे वहुत दुलार। सासुर सुधि न जानीआ रे, देहुँ कसविध बेवहार ।। सासु सुनिअ बड़ी दारुनि रे, ससुरहि भावहि गारि। देवर देह निहार्राह रे, ननद निपट ननि वारि ।। टोले बसहि सब टोनहीं रे, सवति के सिर घरुआर । हम अवला नव जोवना रे, कठिन कुटिल संसार ।। रहत बनत नहि नइह रे, सासुर कैसे के जाउँ। धरनी बनि सिधि पावहु रे, जो वालम वसे यहि गाँउँ ।।
अर्थ-अध्यात्म पक्ष में विरह वर्णन है। सन्त लोगों की आत्मा ईश्वर के प्रेन में गा रही है। मेरे नहर में (स्वर्ग) मुझे बडा सुख है। मेरा बहुत दुलार होता है। मैं अपने ससुराल का स्मरण भूल गयी। वहाँ कैसा विधि व्यवहार होता था, यह भी स्मरण नहीं। सुनती हूँ सास बड़ी कठोर हैं, और मेरे ससुर को गालो हो भली है, मेरा देवर शरीर निहारा (देखा) करता है और ननद अत्यन्त नटखट है। पास पड़ोस में सवटोनही (टोना करने वाली) बसती हैं और सीत को ही घर का सारा अधिकार मिला है। में नयी उमर की अबला हूँ और संसार कठिन कुटिल है। मुझसे नैहर ही में नहीं रहते बनता ससुराल किस तरह जाऊँ। धरनीदास को विरहिणी आत्मा तभी सिद्धि पायेगी, जब बालम इसमें निवास करेंगे।
( ३ )
गरजि अमार्ह जनावर रे, प्रीतम समुझि सनेह। सहजे भवन पगु डारइ रे, नख सिख पुलकित देह ।।
सावन सन्द सोहावन रे, दादुर झींगुर मोर। पिय पिय रटत पपिहर। र, सांख अमिय सरिस घन घोर ।। भादव नव सत साजिय रे, कंत सुघर घर माँहि । सकल कलपना मेटिअ रे, सुखि भेंटि कैलप तरु छाहि ।। आसिन आस पुराइअ रे, पुरविल पुराने भाग। धरनी तिन्ह तिन्ह झुलिआ रे, जिन्ह जिन्ह उर अनुराग ।।
अर्थ- हे सखि ! यह आषाढ़ मास गर्ज गर्ज कर मेरे प्रीतम के स्नेह का मुझे स्मरण दिला रहा है। प्रोतम जिस भाँति नख से सिख तक सजकर और अंग-अंग से पुलकित होकर मेरे भवन में प्रवेश करते थे, उसका स्मरण यह मास मुझको दिला रहा है। हे सखि ! इस सावन में दादुर ओर झोंगुर तथा मोर के सोहावने शब्द सुन रही हूँ और उधर पपीहा पो-पो को रट लगा रहा है। सो हे सखि ! यह घनघोर वर्षा अमृत के सदृश्य जोवनदायक हो रही है। भादों मास में हमारे सुन्दर कंत घर आये। मैं अपने सत का नया साज साजने लगी। अब अपनी सारी कल्पनाओं को इस प्रिय-मिलन को छाँह में पूर्ण करूँगी। हे सखि ! आश्विन मास आया। मेरी आशा पूर्ण हुई। मेरे पुराने भाग जग उठे। धरनीदास कहते हैं कि जिन-जिन के हृदय में अनुराग है, वे सभी इस मास में इस प्रेम के झूले पर झूलने लगे।
राग भुमटा
(१)
सुभ दिना बाजु, सखो सुभ दिना । बहुत दिनन्ह पिय बसल बिदेस। आजु सुनल निज' आवन संदेस ।। चित्र चित्र-सरिआ मैं लिहल लिखाई। हृय कंवल घइलों दिअरा लेसाई । प्रेम पलंग तहाँ बैलों बिछाय। नख सिख सहज सिगार बसाइ ।। मन सेवकहि दीहुँ आगु चलाइ । नैन धइल दुइ दुअरा बसाइ । बरनी सोधनि पलु पलु अकुलाइ। बिनु पिय जीवन अकारथ जाइ ।।
अर्थ-विरहिणी कह रही है, हे सखी! आज का दिन लो शुभ दिन है।
हमारे प्रीतम बहुत दिनों तक विदेश में निवास करते रहे। आज उनके
आने का सन्देश मिला है। हे सखी! अपने बालम को अवाई की तैयारी में
मैंने अपने चित्त रूपो चित्रशाला को लिपवा कर स्वच्छ किया और उसमें
अपने हृदय रूपी कमल को जला कर दोप की जगह पर प्रकाश करने के लिए
रखा। फिर उस घर में स्वयं प्रेम का ही पलंग सुन्दर तरह से बिछा दिया।
और नख से सिख तक शृंगार करके अपने मन रूपी सेवक को प्रीतम को अगु-
आई में आगे भेज दिया और फिर अपने दो नेत्रों को द्वार पर प्रीतम के आगमन
को देखने के लिए बैठा दिया। धरनीदासजी कहते हैं कि प्रीतम-मिलन को
इन तैयारियों को पूरी करके प्रिय-मिलन की आशा में बैठी-बैठी वह विरहिणी
पल-पल पर अकुला रही है और सोच रही है कि हा! प्रियतम बिना मेरा
जीवन बेकार बीतता चला जा रहा है। ऐसी सुन्दर, स्वाभाविक और सरस
कविता मैंने बहुत कम देखी है।
(२)
जाहि भैला गुरु उपदेश अम्मां। अंग अंग मेटल कलेस अम्मां ।। सुनत सजग भैला जीव अम्मां। उर उपजल प्रभु प्रेम अम्मा ।। छुटिगला जाति व्रत नेम अम्मां। जब घर भइल अजोर अम्मां ।। तत्र मन मानल मोर अम्मां। देखल से कहल न जाय अम्मां ।। कहले न जग पतियाय अम्मां। धरनी तिन्ह धनि भाग अम्मां ।। जिन्ह जिय पिय अनुराग अम्मां ।।
अर्थ- हे माता ! जिस दिन गुरु का उपदेश हुआ, उसी दिन मेरे अंग- अंग का क्लेश मिट गया। उस उपदेश के सुनते ही मेरा जीव सजग हो गया। और अपने हृदय में अपने प्रभु का प्रेम उत्पन्न किया। इस उपदेश से हे माँ ! मेरी लौकिक जाति, नियम और व्रत आदि का प्रपञ्च दूर हो गया। हे माँ ! जब इस तरह से शरीर रूपी घर में अँजार हो गया, तब मेरे मन के लिये सबेरा हो गया। और हे माता! जो कुछ मैंने देखा, वह कहा नहीं जाता। और जो कहने का प्रयत्न करती हूँ, तो संसार उस पर प्रतोति नहीं करता। धरनीदास कहते हैं कि हे माता! उनका भाग्य धन्य है, जिनके ऊपर प्रीतम का अनु- राग हो।
(३)
की मोरे देसवा सखि मोरे देसवा, एक अचरज वात मोरे देसवा ।
तर के ऊपर भैला ऊपर के हेड। जेठ लहुर होला लहुरा से जेठ ॥ १।। आगु के पाछु होला पाछु होला आगू। जागल सुतैला सुतल उठि जाग् ॥२॥ नारि पुरुष होला पुरुष से नारी। माई मानहू नाहीं सवति पिआरी ॥३॥ आइल से गइल गइल चलि आऊ । धरनी के देसवा कै अइसन सुभाऊ ॥४।॥
अर्थ- हे सखो ! हमारे देश में एक आश्चर्य को बात है। वहां नीचे दबा हुआ मनुष्य को ऊपर उठा हुआ और ऊपर वाले को नोचे माना जाता है। जो आगे है, वह पीछे समझा जाता है और जो पोछे है, वह आगे को जानेवाला माना जाता है। जो जगा हुआ है, वह तो सोता हुआ है और जो सोता हुआ है, वह जागता हुआ समझा जाता है। स्त्री जो है वह तो पुरुष मानी जाती है और पुरुष स्त्री। माता को तो माना नहीं जाता; पर सवति प्यारी होती है। हे सखी! इस देश में जो आता है वह तो गया हुआ समझा जाता है और जो चला जाता है, वहीं आया हुआ समझा जाता है। हे सखी! धरनी (श्लेष है-पृथ्वी का एक अर्थ है और दूसरा अर्थ धरनीदास का है) के देश का यही स्वभाव है।
( ४ )
जब लगि तव वारि कुर्वारि अम्माँ लगि दुलहि दुलारि अम्माँ सुभ दिन परल निआर अम्मां अलि रूप बलम हमार अम्माँ मो धनि हो कुल उजिआरि अम्माँ जहें प्रभु सचल धमारि अम्मा धरनी मनिहि समुझावल पुरब लिखल फल पावल अम्माँ अम्माँ
अर्थ- हे अम्मा ! मैं जब तक कुमारी थी। तब तक तो प्यारो दुलही समझी जातो थी। मेरा पूरा दुलार होता था। हे माँ ! मेरे जाने को तिथि निश्चित हो गयी। भ्रमर के रूप में तो मेरा बालम है। हे अम्बे ! उस स्त्री का कुल उज्ज्वल हो जाता है, जहाँ (जिसके साथ) प्रभु ने धमार (धील घप्पा, क्रोडा) मचाया। हे अम्बे ! धरनीदास अपने मन को समझाते हैं कि मैंने अपने पूर्व जन्म का फल पा लिया। मेरा जोवन सफल हो गया।
करता राग
(१)
हम धनि सुतलि धवरह रहोदृहूँ दिसरहु रखवार सपन सुभ भैला। तहाँ एक पुरुप प्रगट भैला हो बैइसल से पलंग मझार ।। बोलिआ बोलत सुबोलिआ हो सवद परल मोरे कान। नैनन्ह देखलन जरी भरी हो देखत हरल मन मोर ।। जम चाहैला तस सानैला हो कलवल कछु न बसाय । कहउ जे जम मन भावला हो मोहि नहि अवरी सोहाय ।। धरनी धनि धनव्रती भैली हो पुनि पति से हो पतिआय ।।
अर्थ-में विरहिणी धौरहर (परकोटा) पर चढ़कर सो रही थी। दो पहरेदार दो दिशाओं में बैठ रहे। मेरे सामने एक स्वप्न शुभ हुआ। एक पुरुष मेरे कमरे में प्रकट हुआ और मेरे पलंग के बीच में आकर बैठ गया।
बह सुन्दर बोली बोलने लगा। तब उसके शब्द मेरे कानों में पड़े। नेत्रों ने नजर भर उस पुरुष को देखा और देखते हो मेरा मन हर लिया। जिस तरह उसने चाहा, उस तरह मुझसे केलि करता रहा, अर्थात् जिस तरह से चाहा उस तरह से मेरे साथ कोड़ा की। उसके सामने मेरी कल-वल कुछ नहीं चला। जिसके जो मन में आवे वह मेरे सम्बन्ध में कहे अर्थात् मेरो निन्दा करे, मुझे तो उसके अतिरिक्त अब दूसरा कोई पुरुष नहीं सुहाता। धरनीदास कहते हैं कि ऐसो व्रत वाली धनि (स्त्री) धन्य है, जिसका प्रीतम ने फिर से पूर्ण विश्वास प्राप्त किया।
(२)
हमउ मतैली हमउ मतैली हमउ मतैली भाई रे। हमरे साथ कबहूँ जनि लागे जाके चित चतुराई रे ॥ घरहि के भूत ब्रह्म होय लागल को करि सकै निकाई रे। बड़उ मताह हम जानल जेन अजहूँ पतिआई रे ।। जेउ मतैहि नामदेव कविरा जैदेव मीराबाई रे। जेउ मतैहि संत घनेरे अगिनित-गनि न सिराई रे ॥ धरनीदास कहत भाइ संतो सुनहु सकल दुखिआई रे। अवर के भले भये कुछुओ नहि जी जगदीश सहाई रे ।।
अर्थ- हे भाई ! मैं पागल हो गई, पागल हो गई, अरे मैं पगलो हूँ। मेरे साथ वह कभी न लगे, जिसके चित्त में चतुराई हो। घर का ही भूत ब्रह्म होकर मेरे ऊपर लगा हुआ है, इसको कौन निकाल सकता है। जो सबसे बड़ा पगला है, उसको मैंने जान लिया, परन्तु आज तक यह विश्वास नहीं हुआ कि मैंने उसे जान लिया है। जिसने नामदेव, कबीर, जयदेव, मीराबाई को पागल बना दिया और जिसने अनेक सन्तों को, जिनकी संख्या गिनने से नहीं चुकती, पागल कर दिया है। धरनीदास कहते हैं भाई सन्तो और सारे दुनियादारो, सुनो, दूसरे किसी के अच्छे और बुरे होने से कुछ नहीं होता, जो जगदीश सहायक हों।
हो बंगालनि बरुउ बंगाले धुर पूरबते आओ रे। जे नरनारि प्रचादि मिलै सो तहाँ गुन अपन चलावो रे ।। सवद सनेह पानी पड़ि डारउ जुगुति जरी घरी प्याओं रे। नैनन्ह हेरी हरी मन ताको बोलि बचन अपनावो रे ।। गुरुव ज्ञान खवाएँ तूरति तहाँ भी जल नदिआ सुखावो रे। सिंघ सरीखै जी होय आवै गाउर करि देखरावो रे।॥ ती सांची सतगुरु की सेवकिनि गगन को तार तोरावो रे। धरनी धनि अति बिरह वियोगिनि जोगिनो तवहि कहावो रे ।।
अर्थ- हे बंगालिनि! तुम अत्यन्त पूरब से आती हो, बंगाल में बस कर
वहाँ पर जो कोई तुम्हें नर और नारी मिले, उनमें अपने गुणों का प्रचार करो। उस पर अपने शब्द और प्रेम-रूपी जादू के पानी को मन्त्र पढ़कर डालो। युक्ति रूपी जड़ी घिस कर उसे पिलाओ। अपने नेत्रों से देखकर उसके मन का हरण करो और मोठे वचन कह कर उसे अपना बनाओ। गुरु के ज्ञान को शिक्षा देकर तुरीयावस्या का बोध कराओ और उनके संसार रूपो नदी के जल को सुखाओ। सिंह होकर जो सामने आवे, उसे अपने सरस व्यवहार से भेड़ ऐसा बना दो, तब तुम सचमुच अपने गुरु की सेविका हो और तभी तुम आकाश के तारों को तोड़ सकोगी; अर्थात् प्रीतम को पा सकोगी। धरनीदास कहते हैं कि हे स्त्री ! तुम तभी धन्य होगी और विरह में धन्य योगिन तभी कहाओगी भी।
(४)
काहि से कहो कछु कहिवो न जाय। चरन सरन सुमिरन जिन्ह दीन्हों ।। विन् ममि विपरित अंक बनाय । बिनु बाजन अति सबद गहागहि ॥
सुनि सुनि पुनि पुनि अधिक सोहाय । त्रिकुटि के ध्यान पेहान उधरि गयो । जगमग जगमग ज्योति सनमुख रहत सलोनी तेहि देखत जियरा जगाय । मूरति ।। ललचाय । धरनीदास तासु जन वलि बलि । जे रघुनाथ के हाथ विकाय ।।
अर्थ-किससे कहूँ, कहा नहीं जाता। जिसने चरणों में शरण दी और सुमिरन करने को शक्ति दो, उसी ने विना स्याही के विपरीत अंक बना दिया; अर्थात संसार में अनेक विध्न बाधाएँ भी खड़ी कर दीं। बिना बाजा के अनादि शब्द बज रहा है, जिसे बार-बार सुन-सुनकर अधिकाधिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। जिससे त्रिकुडो के ध्यान रूपो पिटार का ढक्कर खुल गया और जगमग जगमग ज्योति जागने लगी है। सामने सलोनो मूति रहने लगी, जिसे देख-देखकर हृदय ललचने लगा। धरनीदास उस पर बलिहारी होते हैं, जो रघुनाथ के हाथ बिक गया है।
(५)
डगरी चललि धनि मधुरि नगरिया, बिच साँवर मतवलवा हो ना ।। अटपटि चलन लटपटी सी वोलनि, धाय लगल अंकवरिया हो ना ।। साथ सखिअ सब मुखडू न बोले, कवतुक देखि भुलानी होना ।। मद केरी बास लगल मोरो नकिया, जाय चड़ल ब्रह्मण्डे हो ना ।। तवहि से हो धनि भैली मतवलिया, विनु मद रहल न जाइ हो ना ।। प्रेम मगन तन गावे जन धरनी, करी लेहु पण्डित विचरवा हो ना ।।
अर्थ- स्त्री सुन्दर मधुर नगर के मार्ग पर चली जा रही थी कि बोच हो में साँवला मतवाला मिल गया। उसको चाल अटपटी थो। बोलो लटपटा रही थो। उसने दौड़कर अपनी छाती से मुझको लगा लिया। मेरे साथ की सब सखियाँ कुछ मुख से भी नहीं बोलीं। प्रीतम के इस कौतुक को देखकर भल-सी गयीं। मेरी नाक में मद (प्रेम) को गंध लगी और वह सोधी ब्रह्माण्ड पर चढ़ गयी। तब से मैं स्त्री भी मतवाली हो गयी। और अब मुझसे बिना मद के रहा ही नहीं जाता। धरनीदास प्रेम में मगन होकर गाते हैं और कहते हैं कि हे पण्डित जन, इस गीत का विचार कर लेना।
राग मोरंगी
प्रेम प्रकट भैला भाजि भरम गैला, उर उपजे ला अनुराग रस पगिलो ।। तेहि मन माने माया कल ना परत काया, गली मुख पिआसे सुघरवा से लो ।। पचि गइली पंडिताई चली गइली चतुराई, नींदन उठलि दिन राति नासोहात लो ।। परिहरि ज. ति पाँति कुल करतूत भाँती, विसरेली वरन बड़ाई प्रभुताई लो ।। जपतप योग जाति रीधि सीधि करमति, करम घरम कविला से नहि आस लो ।। घरनी भिछुक भनितुहें प्रभु चितामनि, मिलहु प्रगट पर खोलि मुख बोलि लो ।।
अर्थ-प्रेम प्रकट हुआ और भ्रम भाग गया। हृदय में अनुराग उत्पन्न हुआ और विरहिणी रस में पग गयी। इस प्रेम को मन भाया मानता है और तब भी शरीर को कल नहीं पड़ती। अरे मेरो भूख प्यास भूल गयी और घर का रहना भी भूल गया। मेरो सारी पंडिताई भूल गई। चतुराई नष्ट हो गई। सब छूट गये अपना वर्ण बड़ाई और प्रभुता सभी भूल गयी। जप तप योग धन रिद्धि सिद्धि आदि कर्तव्यों को और धर्मो को भूल गयी और उनसे सुख भोगना या आशा रखना भी विस्मृत हो गया। भिक्षुक धरनीदास कहते हैं कि है चिन्तामणि प्रभु, प्रकट होकर और पट खोलकर मुझसे मिलो । अब विरह नहीं सहा जात' ।
राग छुटा
बालमु मोहि बहुत बिसारी। जबते गबन कॅल मोरे प्रीतम बहुरि न सुरति संभारी ।। बारह बरस वालापन बीते अव तजि गात भैल भारी ।।
कबहु के चलत परबि पगु नीचे तव गति कवन हमारी ।। तुम प्रभु नागर सब गुन आगर हम धनि नारि गँवारी ।। दीह दरस परस परसोतिम धरनी धनि बलिहारी ।।
अर्थः-विरहिणी अपने प्रोतम (ईश्वर) से रो-रोकर प्रार्थना कर रही है। हे बालम ! आपने मुझे बहुत बिसार दिया। हे प्रोतम ! तुमने जब से गवन कराया, तब से मेरी फिर कभी सुध नहीं ली। मेरे बारह वर्ष बालपन के बोत चले। अब तो वात भारी हो गयी। अर्थात् अब तो जवानो शुरू हुई। इसमें बिना तुम्हारे मैं कैसे निमूँगी। अगर कभी चलते-चलते मेरे पाँव नीचे पड़े, तो हमारी कौन दशा होगी। यह तुम विचारो । हे प्रभु! तुम नागर हो, सब गुणों से सम्पन्न हो। और मैं गंवार स्त्री हूँ। हे पुरुषोत्तम ! तुम दर्शन दो ओर मुझे अपनाओ। धरनोदास की स्त्री रूपो आत्मा बलि- हार हो रही है।
राग धाँटी
घर मह घाँटो घरहू किन विटिया, कवन काज कोहँरा घर जाहू। फुल लोढ़े गैलहि मनमति बिटिया की फुलवारी से हो परलो भुलाय । चहुँदिसि हेरि हेरि झखैली विटिया कवन वाटे घर अवाइये जाय। मगहि मिलि गैला मीत मलहोरिआ कि जिन्ह देला पंथ सुपथ चड़ाई । वायें दहिन पथ परिहर बिटिया कृष्ण मुखे देखु आपन दुआर। मन के मर्म तज मन मीत मिलि लिहि सुख भैला धरनी सच पाउ।
अर्थ- हे कन्ये ! तुम किसलिये कुम्हार के घर जाति हो? अपने ही घर में क्यों नहीं घाँटो धारण करती। बेटी मनमत फूल चुनने के लिये फुल- बारी में गयो। वहाँ वह राह भूल गयी। चारों दिशाओं में खोज खोजकर बेटी वहाँ झाँखने लगी। रोरोकर कहने लगी किस रास्ते से अब मैं घर जाऊँ। मार्ग ही में मित्र माली उसे मिल गया। उसने उसे अच्छा मार्ग बता दिया। उसने कहा- हे बेटी! तू दाहिने बाये चलना छोड़ दे। कृष्ण के सामने अपना दरवाजा देखो। हे मनमत बेटी ! तुम अपने मन के भ्रम को छोड़ कर कृष्ण से मिल लेना। धरनीदास कहते हैं उससे तुम सुख पाओगो।
राग बिनोको
आतम दुलहिन वर मन मान। तैयो परमातम ते जिन आन ।। सतगुरु शब्द कइल अगुवाइ । बावा रे करम सेनी रहले ठगाई। भँवरा लै ऐलहि लगन लिवाय ।। माया मोरी माई परेली मुरछाई ।। तीन भइया मोर बाजन बजाव। पाँच बहिनी मिलि मंगल गाव ।। कोवर भरहु पचीसो चेरि। न चलिहि मनमति वेरहि वेरि ।। धरनी बीनीकी गावे दसमदुआर। जिन्ह विसदास मिलल परिवार ।।
अर्थ-आत्मा तो दुलहिन है। बर मन माना है। तब भी परमात्मा ने दूसरी अर्थात् मेरी सौत (माया) का त्याग नहीं किया। सत् गुरु के उपदेश ने अगुआई की और भौरा लगन लिवा लाया और पिता कर्म से ठग गये। मेरी माँता माया मुरझा गयो । मेरे तीनों भाइयों ने बाजा बजाया। मेरी पांचों बहनों ने मिल कर मंगल गाया। मेरो पत्चीसों चेरी कोहबर (सोहाग घर) को तैयारो को। धरनोदास कहते हैं, मन मत नारि दसो दरवाजे पर विनीको (विवाह में स्त्रियाँ मिलकर पड़ोस जाकर गाना गा जो भिक्षा माँगती हैं, उन्हों को विनाँकी माँगना कहते हैं।) गा-गाकर भिक्षा माँगती हैं और बार-बार नाचती हैं, जिनको इस पर विश्वास होता है, उनको अपना मूल परिवार अर्थात् ईश्वर मिल जाता है।
राग सोहर
(१)
पिय मोर बसय गउर गढ़ में परयाग हो राम। सहजहि लागल सनेह उपजु अनुराग हो राम ।।
असन वसन तन भूखन भीन न भावई राम । पल, पल, समुझि सूरति मन गहवरि आवइ राम ।। पथिक न मिर्लाह सजन जन जिनहि जनावउँ राम । विह्वल बिकल विलखि चित चहुँ दिसि धावउँ राम ।। कोइ अस मोहि लेइ जाइ कि ताहि लेई आवई राम । ताकर में होइवि लउड़िया जे वटिआ वतावइ राम ।। तहि त्रिया पत्ति जाइ दोसर जब चाहइ से राम। एक पुरुप समरथ धनि बहुत विआहह्य राम ।। बरनी गति नहि आनि करहु जस जानहु राम। मिलेहु प्रगट पट खोलि भरम जनि मानेहु राम ।।
अर्थ-मेरा प्रीतम गांड देश में रहता है और में प्रयागराज में बसती हूँ। स्वभाव से ही मेरा उनसे प्रेम हो गया और हृदय में अनुराग उत्पन्न हुआ ।
हा राम ! अब भोजन, वस्त्र, शरीर, गहना घर, ये सब मुझे कुछ नहीं भाते। पल-पल पर उसकी सूरत याद आती है और मेरा मन व्याकुल हो उठता है।
कोई पथिक ऐसा सज्जन नहीं मिलता, जिससे मैं अपने हृदय का हाल कहूँ। बिलख-बिलख कर विह्वल और विकल मेरा चित्त चारों तरफ दौड़ा करता है।
मन में ऐसा होता है कि मुझको उनके पास कोई ले जाता या उन्हीं को कोई मेरे पास ले आता। जो ऐसा करेगा और मुझे रास्ता बतायेगा, उसकी में दासी होकर रहूँगी।
स्त्री का पत तो तभी चला जाता है, जब वह दूसरे पुरुष को स्वीकार करती है; परन्तु एक ही समर्थवान पुरुष अनेक स्त्रियों से विवाह करता है। धरनीदास कहते हैं कि हे प्रभु! मेरे लिये दूसरो गति नहीं है। तुम जैसा जानो वैसा करो। हे प्रीतम ! तुम प्रकट होकर मेरे आवरण हटाकर मुझसे मिलना जरा भी भ्रम न मानना ।
एक पिय मोरे मन मानेउँ पतिव्रत ठानेउ राम । अवरि जौ इन्द्र समान ती त्रिन करि जानेउँ राम ।। जहाँ प्रभु वसु सिहासन आसन डासन राम। तह तव वेनिआ डोलइवउँ बड़ सुख पइवउँ राम ।। जो प्रभु करहि लमासन पउड़ि करवि उपासन राम । गोड़तरियन पगु सहइवउँ हियरा जुड़इवउँ राम ।। धरनी प्रभु चरनामिरित नितहि अचइवउँ राम। सनमुख रहवइ ठाड़ी अनत नहि जइबऊँ राम ।।
हे राम ! मैंने एक ही प्रियतम को अपने मन में माना और पातिव्रत धर्म पालने का व्रत लिया। किसी दूसरे पुरुष को चाहे वह इन्द्र के समान हो क्यों न सुन्दर हो, में तृण हो के समान समझती हूँ ॥१॥
हे प्रभु ! तुम जहाँ बैठोगे वही मेरे लिये सिहासन है, और उसी को मैं
अपना आसन डासन समझती हूँ। वहीं मैं तुमको पंखा झलूँगी और उससे
मुझे बड़ा आनन्द मिलेगा ॥२॥
हे प्रभु ! जहाँ आप लम्बासन कर लेट जायेंगे, वहीं मैं आप के पंताने बैठ कर आपके पाँव सहलाऊँगी और अपना हृदय शीतल करूंगी ।।३।।
धरनीदास कहते हैं कि में अपने प्रभु के चरणामृत से नित्य आचमन करूंगा और उनके सामने सदा खड़ा रहूँगा। अन्यत्र कहीं नहीं जाऊँगा।
सोहर गीत ग्राम-गीतों में बहुत प्रचलित है। तुलसीदासजी ने भो इस गीत के लय को अपनाया है। सोहिला शब्द से सोहर बना है। शुभ, जैसे-पुत्र जन्म आदि विषयक जो गीत होते हैं, उन्हीं को मुख्यतया प्रारम्भ में सं। हर कहा जाता होगा; पर अब उस लय में विरह, करुणा, हृदय-वेदना भी गाते हैं।