झूमर शब्व भूमना से बना। जिस गीत के गाने से मस्ती सहज हो इतने आधिक्य में गायक के मन में आ जाय कि वह झूमने लगे तो उसो लय को झूमर कहते हैं। इसी से भूमरी नाम भी निकला। समूह में जब नर-नारी ऐसे हो झूमर लय के गीत को भूमझूम कर गाते तथा ताली पीट-पीट कर नाचते हैं तब उस लय के गीत को झूमर कहते हैं और नाच को झूमरा मारना कहते हैं।
( १ )
मोरे राजा बदलि बलु जइहें, मोहनिया सुरतिया न बदली । राजा बदलि बलु जइहें सुरतिया न बदली ।। सोनेके यारी में जेवना परोसलीं, जेवना न जेवें मचलाय हो । मोरे राजा० ॥ १ ॥
सोने के गेड़आ गंगाजल पानी, पीये के बेर मचलाय हो ।
सुरतिया न बदली ।। मोरे राजा० ।। २ ॥
लौंगहि लाचीके विरवा लगावलीं बिरवा ना चाभे मचलाय हो ।
मोरे राजा० ।। ३ ।।
फूल नेवारी के सेजिया इंसवली सोवे के वेर मचलाय हो ।
सुरतिया न बदली । मोरे राजा० ॥ ४ ॥
'सखी ने शिकायत की कि तुम्हारे पति मनचले हो रहे हैं। इस पर नायिका ने संतोष करके अपने मन में धैय्यं धारण करते हुए कहा- हे सखी! हमारे स्वामी भले ही बदल जायें, लेकिन उनकी जो मोहनी सूरत मेरी आँखों में है, वह नहीं बदलेगी।'
मैंने सोने की थाली में उनका भोजन परोसा, पर उन्होंने भोजन नहीं किया। बल्कि मचलने लगे। लेकिन उनको जो सूरत मेरे मन में बैठ गई है, वह इस व्यवहार से कदापि नहीं बदलेगी ॥१॥
'मैंने सोने के गेडुआ में गंगा जल रखा। पर पीते समय वे रूठ चले । फिर भी वे भले ही बदल जायें, उनको मोहिनी सूरत इस व्यवहार से नहीं बदलेगी। अर्थात् में उन्हें वैसे ही प्रेम करती रहूँगो ।' ॥२॥
'मैंने लौंग और इलायची लगाकर विधिपूर्वक बोड़ा लगाया; पर उसे मुंह में; देते समय भी वे रूठ चले हैं; लेकिन वे भले हो बदल जायें, उनकी मोहिनी मूति मेरी आँखों में इस व्यवहार से कभी नहीं बदलेगो' ।।३।।
'मैंने नेवारी के फूल से सजाकर सेज लगाई, पर सोने के समय उस पर न सो करके फिर मचल उठे। हे सखी! वे भले ही बदल जायें; पर उनको मोहिनी मूति मेरी आँखों में बस गई है, वह कदापि नहीं बदलेगो ! अर्थात् वे हमारे आराध्य देव सदा बने रहेंगे। और में उन पर वैसी ही श्रद्धा और प्रेम करती रहूँगो, जैसा आज तक कर रही हूँ' ।।४।।
( २ )
धनि आवे ले गवन से कहे बतिया, पिया जात विदेसे से कहे वतिया ।। १ ।।
जा जा हो राजा तू त कुछ नाहीं कइल, मोरा वते गवन परदेस चलि दीहल ॥ २ ॥
लाली पलंगिया तोसकि तकिया, सुधि अइहें राजा ! आधी रतिया ॥ ३ ॥ देख बासी फूल कुछु बास नाहीं,
परदेसी राजाजी के आस नाहीं ।। ४ ।।
घनि आवे ले गवन० ।।
बातें कितनी सीधी सादो हैं; पर अर्थ पर जितना हो मनन कोजिये, रस निकलता जायगा और सामने आतो जायगो विरहिणो को विरह-वेदना को सजीव दिनचर्या । प्रौढ़ावस्था में तो उसका गयन हुआ। जवानी की मस्ती अब ससुराल में रंगलाने वाली यी; पर यहाँ आते ही आते पति ने विदेश को तैयारी कर दी। तैयारी ही नहीं, तैयार होकर बिदा माँगने भी नवागता प्रेयसी के सम्मुख जा खड़ा हुआ। इस चित्रपट को सामने रख कर कवियित्री ने शुरू किया।
'स्त्री गवन से पहले पहल ससुराल आई। विदेश जाते हुए पति से उसने बात की।' ॥१॥
'हे राजा, जाओ! जाओ !! तुमने कुछ नहीं किया। मेरे गवन आते ही आते आप परवेश चल दिये।' ॥२॥
इस वाक्य में कैसी व्यंग्योक्ति है और पति के कृत्य पर पश्चात्ताप भी कम नहीं। आशा यी कि इतने ही से पति समझ जायगा और अपनी यात्रा स्थगित कर रसरंग में लीन हो जायगा; पर ऐसा नहीं हुआ। इससे निराश हो, उसने आगे कहा-
'हे राजा, यह लाल पलंग, तोशक और तकिया, (क्रोड़ा की सारी सामग्री) देख रही हूँ अर्थात् मन में इसके उपभोग की इच्छा भी होती है। (पर तुम चले जा रहे हो? इससे) हे राजा, मुझे अर्घ रात्रि को सुधि आ रही है। अर्थात् अर्ध रात्रि में जब तुम नहीं रहोगे, तब और रसकोड़ा को इन सामग्रियों पर मैं सोतो होऊंगी, उस समय मेरी ब्या अवस्था होगी, उसी की सुधि मुझे व्याकुल कर रही है।'
इस पर वेदना और रस-भरी उत्तेजक बात से भी जब पति का मन नहीं बदला और वह जाने के लिए तैयार ही रहा, तब स्त्री ने निराश होकर कहा, 'मैंने देखा है, बासी फूल में (रात का तोड़ा हुआ फूल दूसरे प्रातःकाल में) बास नहीं होती। यहां श्लेष है- (१) बास टिकाव नहीं होता (२) बास = सुगन्ध रस नहीं होता है। अर्थात् (१) तुम जब लौटकर बासी होकर आओगे, तब तुम्हारा बास हमारे यहाँ नहीं हो सकेगा । (२) तुम जब लौटोगे, तब तुम बासी फूल ऐसे रसहीन हो गये रहोगे; इसलिए दोनों दशा में हे पति, अपने परदेशी स्वामी की आशा मुझे नहीं है, नहीं है।'
कितना सुन्दर चित्रण हुआ है। संक्षिप्त; पर भाव और रसमय ।
( ३ )
पइसा के लालच पड़ि के बूड़वा से सादी रे। सादी न कइले ईत मोर बरवादी रे ॥१॥
कोठा ऊपर कोठरी बूड़ऊ बोलावसु रे। जात सरमवा लागे राम बुड़वा के जोरू रे ॥२॥
सादी न कइले ईत मोर वरवादी रे। झीनी चदरिया ओढ़ के बगिया में गइलीं रे। मलिया हरामी उद्या मरलसि वूड़वा के जोरू रे ।।३।।
सादी न कइले ईत मोर० ।।
झोनी चदरिया ओढ़ि के इनरा पर गइली रे। ससुरिया हरामी ठट्ठा मरलसि बुहऊ के जोरू रे ॥४॥
सादी ना कइले ईत मोर० ।।
झोनीं चदरिया ओढ़ि के गलिया में लौंडा हरामी ठट्ठा मारे बुढ़वा के गइली रे। जोरू रे ॥५॥
सादी न कइले ईत मोर० ।।
'हे भगवन् ! यह अन्याय !! पैसे के लालच में पड़ कर मेरा एक बुड्ढे से व्याह कर दिया जाय ? मेरे माँ बाप ने मेरी शादी नहीं की है, मेरी बरवादी, विनाश किया है ॥१॥'
'कोठे पर एक कोठरी है। मेरे वृद्ध पति उसी में मुझे बुला रहे हैं। हे भगवान् ! मुझे वहाँ जाते शर्म लग रही है कि मैं बुड्ढे की जोरू हूँ। कैसे
उससे बातें करूंगी' ॥२॥ 'मेरे माँ बाप ने मेरी शादी नहीं की, यह तो मेरी बरबादी की है। हाय राम ! में क्या करूं।'
'मैं पतली चादर ओढ़ कर बाग में गयी। माली ने हँस कर मेरी खिल्ली उड़ाई। कहा यह बुड्ढे को जवान स्त्री है।'
'हे भगवान् ! मेरे माँ-बाप ने मेरी शादी नहीं की है, मेरा विनाश किया है।'
'झोनी चादर ओढ़ कर जब में इनारे पर पानी लाने गई, तो वहाँ भी चौके के काम करने वाले कहार ने मेरा ठट्ठो उड़ाया। यही बुड्ढे की स्त्री है ॥४।।
'हाय हमारी यह शादी नहीं हुई बरबादी हुई है।'
'झीनी चादर ओढ़कर जब मैं मुहल्ले में निकली, तो लड़कों ने ठट्ठा उड़ाया। कहा--यही बुड्ढे की स्त्री है।॥' ॥५॥
'हे भगवान ! माँ बाप ने मेरी यह शादी नहीं को, बरवादी को है।' पाठक ! इस गीत में वृद्ध पति की युवती पत्नी ने उन्हीं बातों को कहा है, जिनसे उसके मर्मस्तल पर कठिन चोट लगी है। पत्नी को प्रथम तो अपनी काम-पिपासा की तृप्ति की अभिलाषा रही है। उसके बाद वह सुनना चाहती है कि पवनी वगैरह टोला- मुहल्ला सखी सहेली में तमाम उसके पति को सराहह्ना हो और लोग इसकी ईर्ष्या करें कि उसकी युगल जोड़ी सर्वाङ्ग पूर्ण है; पर इस बेचारी की दोनों अभिलाषाएं अपूर्ण ही रहीं।
( ४ )
हो गइले जेन्टल मएन रे जनिया, हो गइले जेन्टल मएन । बारह कोस पर बंगला उठवले ओहि में रखले मेम रे जनिया ॥१॥
हो गइले ।। घड़ी लगवले चैन लगवले हाथ में लिहले बेत रे जनिया ॥२॥ हो गइले ० ।।
सेज बिछवले रंडी बुलवले कहे लग ले गुड मैन रे जनिया ॥३॥ हो गइले० ।।
'हे सखो ! अब तो हमारे पति जेन्टलमैन बन गये। जेन्टलमंत हो गये।' बारह कोस की दूरी पर उन्होंने बंगला उठवाया। उसमें मेम साहब को रख लिया है। हे सखी अब स्वामी जेन्टलमैन हो गये ॥१॥
उन्होंने घड़ी लगायो, चेन पहन लिया और हाथों में बॅत ले लिया। हे सखी, वे अब पूरे जेन्टलमैन हो गये ॥२॥'
'उन्होंने सेज बिछाई। रंडी बुलाई और गुडमारनिंग कहना शुरू G कर दिया। हे सखी अब तो वे पूरे जेन्टलमैन हो गये ॥३॥'
आद्योपान्त व्यंग्य भरा है। आधुनिक शिक्षित पति को अच्छी खिल्ली उड़ाई गई है। उसको हृदय-व्यया की व्यंग्य ध्वनि भी सुनाई पड़ने से बच नहीं रहती। इस गीत की रचना का काल वर्तमान समय ही है। इससे सिद्ध होता है कि आज भी कवियित्रियों की संख्या कम नहीं है। आज भी देश-काल के अनुसार गीत बन रहे हैं और स्त्री-समाज में गाये जा रहे हैं।
( ५ )
अब के गइल कब अइबू हो, बनि ! रोई रोई अँखियाँ ॥१॥ आधी उमिरिया कानो किचवा, आधी उमिरि लड़िकइयाँ हो ।
धनि, रोई रोई अँखियाँ ।। अव के गइल० धनि रोई० ॥२॥
आधी उमिरिया विआहन अइहें, आधी उमरिया गवनवा हो ।
धनि, रोई रोई अँखियाँ ।।
अब के गइल कव अइलू हो, घनि ! रोई रोई अँखियाँ ॥३॥
'आशिक कह रहा है- हे कामिनी ! तुम्हारी आँखें रोनी-सी हो रही हैं, अब की गई तुम कब आओगी ? ' ॥१॥
'तुम्हारी आधी अवस्था तो लड़कपन में फांदो कोच खेलते हुए बोल गई। और आधी उमर तो तुम्हारी लड़कपन हो को रही।'
'हे कामिनी, आँख रोनी, सी हो रही हैं। अब को गई तुम कब आओगो ?'
'आधी उमर में तो तुम्हारे व्याह के लिये आयेंगे, आधी उमर में गवन होगा। हे कामिनी, तुम्हारी आँखें रोनी-सी हो रही हैं। अब को गई हुई तुल कब आओगी, कम मिलोगी।' नव विवाहिता से, जिसका तुरन्त ही गवना हुआ था और अब पुनः मायके जा रही है, पति बिदा देते समय यह सब कह रहा है।
( ६ )
गोरी गोरी बहियाँ नयन रतनारे, देंतवा जड़ल हो वतीसी । सोवे मो गइलों रे रंग महलियां सेज पर बुढ़वा रे बलमुआ ॥१॥ पाकलि दह्या नजरिया जे परले जिउआ जरल हमार ॥२॥ निक निक जेवन बूढ़ऊ जेववलनि, पेड़ा वरफो मंगाय ॥३॥ निक निक गहना रे बूढ़ऊ पेन्हवले गले तिलरी लगाय ॥४।। निक निक कपड़ा रे बुढ़ऊ पेन्हवले ओहि पर ओढ़नी लगाय ।।५।। अतना दुलार चेल्हिकवो ना कइले, जेतना बुढ़ऊ दुलार ।।६।। होत फजीरवा सूरज गोड़ लगलो, जीअसु बुढ़ऊ हमार ।।७।।
'गोरी गोरी बाँहें हैं। आँखों में लाल डोरे पड़े हैं। दांत में बतीसी जड़ी हुई है। ऐसी वह नवगता बहू है। उसने रात की बात अपनी सखो से बड़ी शोखो के साथ कहा- मैं सोने के लिए रंग महल में गई- पर हे सखी, वहाँ सेज पर बुड्ढा बालम मौजूद था। उसको पकी दाढ़ी पर जब नजर पड़ी, तब मेरा हृदर जल गया ।' ।।१, २।।
'हे सखी तब बुड्ढ़े ने मुझे उत्तम भोजन, वस्त्र, गहने दिये ॥३, ४।। 'हे सखो, जितना प्यार इस बुड्ढे ने किया, उतना प्यार तो मेरे यार ने नहीं किया था।' ।॥५॥
'प्रातःकाल होते हो मैंने सूयं भगवान् को नमस्कार किया और वर माँगा कि हमारे बुढ़ऊ वर दीर्घायु हों।' ।।६,७।।
'इसमें रूपर्गावता नायिका का वर्णन है। उसने सोचा कि जेवर, खाना, पीना सबका प्रबन्ध तो वृद्ध पति महाशय करेंगे हो। उसकी कमी नहीं होने पायेगी। रहा पति-प्रेम, सो उसकी उतनी मुझे आवश्यकता हो नहीं। बहुत स्त्रियाँ इस स्वभाव की होती हैं कि उन्हें स्वच्छन्द रहना ही अधिक प्रिय होता है। वस्त्राभूषण पति-प्रेम से कहीं प्रियकर समझती है।
इसो भाव को लेकर (नूरजहाँ) के सिद्धहस्त कवि गुरुभक्र्तासह ने एक मनचली जमीला के मुख से उसके वृद्ध पति से ब्याह होने पर कहलाया है।
"मिल गये कुतुब शौहर मुझको क्या खूब तमन्ना वर आयो।
दुनिया उनकी अनुभव है वह कभी नहीं गर्माते हैं। बातें क्या लातें भी खाकर वे गुस्से मुझको भी खूब मजा आता है रूठ को पी जाते हैं। रूठ तरसाने में। बातों बातों में उलझ उलझकर उन पर रोव जमाने में। उनकी आँखों में वसकर के गुलछरें खूब उड़ाऊँगी। अपना उल्लू सीधा करने की बुलबुल उन्हें बनाऊँगी। दाती बनकर सेवा करने कैदी बनकर घर में रहने। है कौन बावली जो जायेगी, युवक संग यह दुःख सहने। इससे मेरा अनुभव मानो, युवती बूढ़े से ब्याह करो। फिर कीन पूछनेवाला है, चाहे सफेद या स्याह करो।
( ७ )
कहाँ गइले राजा जी हमार, आफति में हमके डालि के। आफति में हमके० ।। सोने के थारी में जेवना पसोसलों, जेवना न जेवे राजा मोर आफति में हमके डालि के ।
कहाँ गइले राजा जी हमार आफति में हमके डाल के ॥१॥ 'हे भगवान, हमारे प्रियतम कहाँ चले गये। मुझको मुसीबत में डाल- कर, अरे वे कहाँ चले गये। मैंने सोने की थाली में भोजन परोसा, भोजन करने नहीं आते। मुझे आफत में डालकर वे कहाँ चले गये।'
'मनचले पति की नवागता वधू भोजन पर, बोती रात तक घर में बैठी-बैठी प्रतीक्षा किया करती है। उसको यही व्यया व्यक्त है, इन पंक्तियों में।'
( ८)
डूवलि जाले रे चननिया रजा बीनू नींदो ना आवे ।
समुई सुतवलों अइसे तइसे, जागेली वैरिनि गोतिनिया ।।
रजा वीनू नींदिआ न आवे ।।
गोतिनी सुतवलों अइसे तइसे, जागेली वैरिनि ननदिया।
कि रजा बीनू नोंदिया न आवे ।।
ननदी सुतवलों अइसे तइसे, जागि जाली रे सवतिया ।
कि रजा बीनू नोंदिआ न आवे ।।
सवति सुतवलों अइसे तइसे, जागी जाला हो होरिलवा ।
कि राजा वीनू नींदिआ न आवे ।।
डूवलि जाले रे चननिया कि राजा बीनू निदिया ना आवे ।।
बलका सुतवलों अइसे तइसे भोरे बोलेले चुहचुहिया।
कि राजा बीनू नोदिया न आवे ।
डूवलि जालेले चननियाँ कि रजा वीनू नींदिया ना आवे ।।
इस गीत में एक गृहस्य युवती गृहिणी को पति को प्रतीक्षा करते-करते सारी रात बीत जाती है। पर तब भी पति के आने का संयोग नहीं मिलता है। पति बाहर प्रतीक्षा कर रहा है कि अब घर वाले सो जायें, तो वह पत्नी के पास जाये और पत्नी अन्दर इस प्रयत्न में है कि कैसे सब सो जायें और एकान्त में पति आवें। उधर चाँदनी रात जल्दी-जल्दी बीतती चली जा रही है, जिसको देखकर प्रिय मिलन को उत्कण्ठा अधिकाअधिक बढ़ती जाती है। इससे सबको जल्दी-से-जल्दी सुला देने के लिए व्यवस्था भी वह करती है। किसी तरह जब वह सास, गोतिनो, ननद, सवत, सब किसी को सुलाने में सफल होती है और प्रिय मिलन की आशा करती है, तब उसका बालक हो रो उठता है। आता हुआ पति पुनः वापिस चला जाता है। फिर जब बालक सोता है और आशा होती है कि अब वह आते हैं और वह कान लगा उनको पदध्वनि की प्रतीक्षा करने लगती है, तब तक चुहचुहिया (रुवेरे बोलने वाला एक पक्षी) बोलने लगती है। जिससे प्रातःकाल होने की सूचना मिलती है और आगतपतिका की रही सही आशा पर भो तुवार पड़ जाता है। रात भर जग कर उसने पति की प्रतीक्षा की; पर वह भी अन्त में विफल हो रहा। कितना स्वाभाविक, कितना सुन्दर, कितना अनूठा वर्णन है। शायद ही किसी कवि ने इस भाव को लेकर इतना सुन्दर चित्रण किया हो। पाठक, हिन्दू-समाज के इस नियम से अवश्य अवगत होंगे कि पति सब के सो जाने पर ही पत्नों के पास चुपके से जाता है और सबके उठने के पूर्व हो वापिस भी चला जाता है। इसो प्रया के कारण लज्जाशील पति और लज्जाशीला पत्नी को पूनों को चाँदनी का सुख लूटने को कभी नहीं मिला।
अर्थ- 'हाय चाँदनी डूबती चली जा रही है। बिना प्रियतम के नींद नहीं आ रही है।'
'किसी किसी तरह उपचार आदि करके सास को जब सुलाया, त। गोतिनी जग गई। हाय, राजा के बिना मुझे नींद नहीं आ रही है।'
'किसी किसी तरह जब जेठानो को सुलाया. तब ननद जाग गई। हाय राजा के बिना नींद नहीं आ रही है।'
'किसी किसी तरह जब ननद को सुलाया, तब सोत जग गई। हाय राजा के बिना नींद नहीं आ रही है।'
'जब किसी तरह सौत को सुलाया, तब लड़का रोने लगा। हाय राम !
प्रियतम के विना नोंद नहीं आतो।'
'हाय, चांदनी डूबती चली जा रही है, राजा के बिना नींद नहीं आ रही है।'
'बच्चे को जव किसी तरह (ठोक ठाक कर) सुलाया, तब पक्षी बोल कर प्रभात की सूचना देने लगे। हाय राम (अब क्या करूँ) राजा के बिना नींद नहीं आती। चाँदनी डूयती चली जाती है।'
कोठे उपर पिया दोना मंगावें, आरे दोना के चोट मोरे छतिया ।।१।। ए राजा हमसे को दुई बतिया ।। कोठे ऊपर पिया गेडुआ मंगावें, आरे गेड़आ के चोट मोर झतिया ॥२॥ ए राजा हमसे करो दुइ बतिया ।।
प्रियतम को सम्बोधन करके नायिका चिन्तन कर रही है। जो जो उसके संयोग समय की मोठी घटनायें प्रेम से ओत-प्रोत थीं, वे सभी आज उसके मानस पर अंकित हो जाती हैं। यह विरह-व्याकुल हो कहती है- 'हे प्रियतम, मुझसे दो बातें तो करो। (क्यों इतने निष्ठुर हो गये ?) कोठे के ऊपर दोना भर भर कर तुम मिठाइयाँ मंगाते थे। उसे कितने प्रेम से मुझे खिलाते थे। आज वे मिठाइयों से भरे दोने (स्मरण हो होकर) मेरे हृदय में चोट पहुँचा रहे हैं!'
'कोठे के ऊपर गेड़आ में शीतल जल मॅगा मंगा कर तुम मुझे पिलाते थे। वे स्मरण हो होकर आज मेरे हृदय पर चोट दे रहे हैं। बालम ! मुझसे दो बातें कर लो।' ( १० )
कोल्हु अड़िया ।।२।। बेरी के वेरि तोहि बरजों छएलवा, उखिया जीन बोअ हो गोएँड़वा ॥१॥ कइए महीना लागे कोड़त खनत, कइए महीना छव महीनवा में कोड़त खनत, बरीस दिना सोरहों सिगार कइके गइलों कोल्हूवड़िया, अंगरिया फॅकिमारे कोल्हुअड़िया ।।३।।
कोल्हुबड़िया ।।४।। गोड़ तोरा लागी ले सोरही के बछवा, जुअठिया तूरि हो घरवा
आव हो राम ।।५।। जुअठिया त टूटले कपरो नु फूटले, घइया लठावे घरवा अईले
हो राम ।।६।। किया घड्या लठीहें रे माई बहिनिया, किया लठिहें भउजइया हो राम ।।७।।
किसान को युवती पत्नो चाहतो है कि पति घर-गिरस्ती के कामों से फुरसत पाकर रात को कुछ देर के लिए भी तो उसके पास रहे; पर किसान पति को खेती के कामों से इतनी फुरसत नहीं मिलती कि अपनो युवती पत्नी से प्रेम-आलाप करे। दिन-रात काम करते-करते उसको एड़ी-चोटी का पत्ती ना एक हुआ रहता है, तब कहीं घर में खाने भर को अन्न मिलता है; पर अन्न से हो युवत। पत्नो की भूख नहीं मिटती। पत्नी ने बार-बार उसे समझाया कि खेतो करो; पर ईख की खेती मत करो। इसमें बड़ा परिश्रम है और साल भर खेत ही पर गोड़ाई, निराई, सिचाई; रखवारी और पेराई में बीत जाता है, पर पति नहीं मानता। ऐसी ही पत्नी का चित्रण इस गीत में किया गया है।
'पत्नी कहती है- हे प्रियतम! मैंने बार-बार तुमसे कहा कि ईख गाँव के निकट न बोया करो। इसको गोड़ने और सोचने तथा रखवाली करने में कितने महोने लग जाते हैं; और कितने दिन लगते हैं कोल्हू चलाने में इसको पेरने और गुड़ बनाने में ?' ।।१,२।।
'छ महीने तो गोड़ने-गाड़ने में लगते हैं और साल भर कोल्हुआड़ का समय होता है ॥३॥
'यह साल भर का विरह मुतसे तहा नहीं जाता। मैंने सोलह शृङ्गार किया और कोल्हुआड़ में (जहाँ ईख पेरी जाती है) पहुँच गई; पर पति ने क्रोध में आकर मुझे डाँटा और अंगार फेंक कर मारा ।।४।।
'मैंने भी क्रोध कर मन ही मन मनाया और कोल्हू में जुते हुए बैल से प्रार्थना को- हे सुरभी गाय के बाछा, मैं तेरे पाँव पड़ती हूँ। तू जुआठ को तोड़ कर घर भाग जा। ऐसा उछलना कि जुआठ टूट जाय' ।।५।।
'बाछा जुआठ तोड़कर भाग गया। उसके नीचे बैठे हुए पति के सिर में ऐसी चंट आई कि सिर फूट गया। मजबूर होकर उसे घर पर घाव लठाने (सिर की चोट के। कपड़ा जलाकर भर देने और पट्ट, बाँध देने को लाठना कहते हैं) आना पड़ा।' ।।६।।
'पत्नी प्रसन्न हुई कि उसकी मनोकामना सिद्ध हुई। अब आज तो कोल्हू बन्द हो रहेगा। पति घर रहेंगे। वह व्यंग्य ध्वनि में पूछने लगी। उसको पति का अंगार फेंक कर मारना भूला नहीं था। याप का घाव माताजी लाठेंगी या आपकी बहनजी इस पर पट्टी बाँचेगी या भौजी हो इसको मरहम पट्टी करेगी ! अर्थात् मैंने तो यह चोट दो है, विना मेरे पट्टी बाँधे घाव का दर्द नहीं कम होगा। आइये मेरे घर में, में दर्द दूर कर बेतो हूँ। दूसरा अर्थ यह भी है कि आखिर चोट लगी, तो मेरे हो यहाँ आना पड़ा। माँ, बहन, भौजाई कोई इस चोट के समय काम नहीं आ सकीं।'
( ११ )
रहरी में धुनेला रहरी के खुटिया, गगरी में धुने हो पिसनवा । गोरिया जे धुनेले अपन नइहरवा, पिअवा धुनेला कलकतवा ।।१।। पहिले पहिल हम गवने अइलीं, आगा पड़ल पुरिया रे जउरिया। पाँच कवर हम जेवहीं ना पवलीं, फेरेला जोबनवा पर रे हथवा ।। वोखि भइली पूरिया रे जउरिया ॥२॥
गवने से हम दोगे अइलों, राजा राखे पगरी के रे पेचवा । छएलवा राखे पगरी के रे पेचवा ।।३।। दोगे से हम तेंगे अइली, राजा करावे गोवरवा के हिलीया।
छएलवा करावे गोवरवा के हिलीया ।।४।। बरहों वरति पर पीअवा मोरि अइले, अइले पीअवा उमरिया ।
गंवाई के अइले गल गोछवा बड़ाई के ।।५।। तोरा गल गोछवा में तितिकी लगइयों, अइल बलमु उमिरिया गॅबाई के ।।६।।
इस गोत में शूद्र जाति की कोई बह गरोब स्त्री अपनो करुगा-भरो कहानी कह रही है, जिसको डोला से उतरते ही अपने पेट के लिए दूसरे के घर काम करने जाना पड़ा और उस घर के मालिक ने उस पर बुरी नजर डालो। वह किस वेदना से कहना शुरू करती है। उपमा वहो है, जिसे कि उसने अपने आँखों देखो सुनी है।
अरहर में अरहर को खूंटो में घुन लग रहे हैं। घड़े में रखा हुआ आटा घुन रहा है। और उधर अपने मायके में गोरी के शरीर में भी घुन लग रहा है अर्थात् उसको जवानो व्यर्थ बोत रहो है और उधर उसका प्रोतम पति भो कलकत्ता में पड़ा-पड़ा घुन रहा है।
व्यंग्यात्मक रूप से अपनी बीततो जवानी का कैसा सुन्दर वेदना-भरा
चित्र खींचा है। इसका दूसरा अर्थ है कि जिस तरह अरहर को खूंटी खेत में
छोड़ देने से घुनने लगती है, आटा गागर में रखा रखा खराब होने लगता
है, उसी तरह गोरो की जवानी नइहर में रहने से और पति की जिन्दगो
विदेश कलकत्ता में रहने से नष्ट हो रही है।
( १२ )
आरे ! लुंगी वाले सिपहिया! हमार तोर कइसे बिगड़े ला रे ? गोरी विटिउवा अंग पातरि रे, सिकिअन काजर दे, बीचे सड़किया पर बइठि के रे-
परदेसी बलमुआ के
मन हरि ले रे।
हमार तोर कइसे बिगड़ेला रे? वनि मेड़रावों । दिल चाहत बा यार मिलन के चिल्हिया चाहों पिया ले उड़ि जावों में, सूति करेज लगावों। हमार तोर कइसे बिगड़ेला रे ।। हमार तोर० ।। ए जुलफी वाला सिपहिया ! हमार तोर० ।। हमार तोर० ।। अमवा ले खट इमिलिया रे, गुड़वा से मीठ खांड़। आरे ईत तिरिया सेजिया पर मीठ रे सैंया भुलेओही रांड़ ।। आरे ओ टोपी वाले सिपहिया। हमार तोर कैसे ० ।।
नायिका और नायक में बिगाड़ हो जाता है। नायक परदेश जा उसे भूल जाता है। नायिका सूने स्थान में बैठकर विरह-गान गाती है। और सोचती है कि हमारे और प्रियतम के पारस्परिक बिगाड़ का कारण क्या है ? अपने पति की काल्पनिक मूति को सम्बोधन कर उसी से कहती है- 'हे लुंगी पहनने वाले मेरे प्रियतम सिपाही ! हमसे तुम क्यों बिगड़ गये ?'
'वह गोरे रंग को जो पतली लड़की थी, जो सोंक से काजर देतो यो और बीच सड़क पर बैठा करती थी, उसी ने मेरे परदेशी पति के मन को हर लिया है।'
'हे प्रियतम ! हमारी तुम्हारी अनवन कैसे हो गई ?'
'हमारा हृदय पति से मिलने के लिए चाह रहा है। मन में होता है कि चील पक्षी बन कर आकाश में उड़ और (जहाँ वह या।) वहाँ आकाश मैं चक्कर लगाऊँ। और (मुनमें ऐनो शक्ति हो जाय) कि तुरन्त झरट्टा मार कर पति को ले उड़ और कलेजा से चिपटा कर सो जाऊँ।'
'हे प्रियतम, हमारी तुम्हारी अनबन कैसे हो गई। ऐ जुल्फत्राले सिपाही, हमारी तुम्हारी अनबन कैसे हो गई।'
पाठक यहाँ विचारें कि विरहिगो पति-मिलन को अभिलाषा में कितनो विभोर है और कैसा मोठा, पर स्वाभाविक चिन्तन कर रही है। फिर उसे सौत की स्त्री-सुलभ ईर्षा धर दवाती है। मन में होता है, कि सीत निगोड़ी क्या मुझसे अधिक रसवती होगी कि प्राणनाथ उस पर लट्ट हो गये; पर इस प्रश्न को स्वीकार करने के लिए उसका स्त्री-सुलभ आत्माभिमान प्रस्तुत नहीं। देखिए इस भाव को कितनो सुन्दर उपमा देकर व्यंजना द्वारा एक साधारण ग्रामीण विरहिणी ने व्यक्त किया है। रूप गविता का कितना सुन्दर उदा- हरण है-
'अरे आम को खटाई से स्वादिष्ट खटाई इमली को होती है, और गुड़ के मिठास से खांड़ (चोनो) को मिठास कहीं अच्छी होती है। (अरे उस नवेली से उनको क्या संतोष होता होगा?) मैं वह स्त्री हूँ. जिसको मिठास सेज हो पर ज्ञात होती है।'
'हे टोपो वाले सिपाही, मुझे बताओ तो हमारा तुम्हारा बिगाड़ कैसे हुआ ? (तुम क्यों और कैसे मुझसे रूठ गये ?) हा, बालम उस रांड के पोछे भूल गये।' सुनु रे सखी! हम जोगिनि होइवों ॥ सुनु रे० ॥ पियवा अाई सुन जेवना बनवलीं, सुन रे सखी राजा जेवन नाहीं अइले ।। डसिती नगिनिया त हम मरि जइतों। सुनु रे सखी! हम जोगिनि होइवों ॥१॥
राजा के अवाई सुनि गेहुआ भरवलीं, पनिया पीअन ना अइले ।। डसिती नगिनियाँ त हम मरि जइतों, सुनु रे सखी ! हम जोगिनि होइवों ॥२॥
राजा के अवाई सुनि बिरवा लगवलीं, विरवा चाभन ना अइले ।। डसिती नगिनिया त हम मरि जइतों, सुन रे सखी ! हम जोगिनि होइवों ।।३।।
राजा के अवाई सुनि सेजिया उसवलीं, सेजिया सोवन ना अइले, इसिती नगिनिया त हम मरि जइतों ।। सूनो रे सत्री ! हम जोगिनी होइवों ।॥४॥
'हे सखी ! सुनो। मैं जोगिन बनूंगी।'
'प्रियतम की अवाई सुन कर मंने भोजन बनाया, पर हे सखी! वे हमारे यहाँ भोजन करने नहीं पधारे। नागिन मुझे डस लेती और में मर जाती। मुझसे यह दुःख (अपमान का) नहीं सहा जाता। हे सखी, में जोगिन बन जाऊँगी।' ॥१॥
'अपने राजा की अवाई सुन कर मंने गहुए में शीतल जल भराया, परन्तु वे पीने नहीं आये। कहीं दूसरी ही जगह जलपान किया। हे सखी !
मुझे नागिन डस लेती और में मर जाती, यही इच्छा अब हो रही है। हे सखः ! सुन रख अव में योगिन बनूंगी' ॥२॥
'अपने राजा की अवाई सुन कर मैंने सुन्दर सुन्वर पान के बोड़े लगाये; परन्तु वे उसे खाने मेरे यहाँ नहीं आये। ऐसा जी होता है कि नागिन डस लेती और में मर जाती। हे सखी! सुन अब में योगिन बनेंगी ।' ।।३।।
'अपने विछुड़े पति के शुभागमन को सुनकर मैंने सेज बिछाई। (आज तक जब से वे गये हैं, कभी सेज विछाई नहीं थी। सो वे इतने दिनों पर आये भी और मैंने उनकी प्रतीक्षा में सेज भी बिछाई। तो हे सबो ! मेरे राजा सोने नहीं आये। कहीं और हो सो रहे। मुझसे यह नहीं सहा जाता। नागिन डसतो और में मर जाती। हे सखो अब सुन रख में योगिन बनंगो।'
( १४ )
मैं सुन्दरि मोरा राजा नगीनवा ।। सोने के गेड़आ गंगाजल पानी, पानी ना पीये राजा जाले दखिनवा ।।१।। मैं सुन्दरि मोरा राजा नगौनवा ।। सोने के थाली में जेवना परोसलों, जेवना न जेवे राजा जाले दखितवा ॥२॥
मैं सुन्दरि मोरा राजा नगीनवा ।।
'हे सखो, में तो सुन्दरी हूँ; पर मेरे स्वामो सौंदर्य के रत्न हैं। पर मुझे दुःख है कि वे मेरे (योवन रूपी) स्वर्ग गडुए में रखा हुआ इस मद रूपो गंगाजल का पान नहीं करते और दक्षिणदेश को प्रस्थान कर रहे हैं।'
'हे सखी में सुन्दरी हूँ; पर मेरे स्वामी सोन्दर्य के रत्न हैं।' 'हे सखी मैंने (हृदय रूपी स्वर्ण थाल में मनोरथ रूत्री) भोजन सजाया; पर स्वामी जेवनार नहीं करते अर्थात् उसका उपभोग नहीं करते और दक्षिण देश के लिये प्रस्थान कर रहे हैं।'
स्त्रियों के गोत्रों में पाठक प्रायः ऐसा पावेंगे कि जहाँ विरह-वर्णन आया है, वहाँ सोने के थाल में भोजन परोसना और पति का न खाना, तथा संाने के गहुए में गंगाजल रखना और प्रोतम का उसे न पीना कहा गया है। इससे लोग साधारणतः अविधा द्वारा हो सोधा अर्थ जेवनार और जल से लगा लेते हैं; पर वास्तव में बात ऐसो नहीं है। लज्जाशोला ज्ञात यौवना नायिका वहाँ अविधा में नहीं, बल्कि व्यंजना में बोलकर गहुआ से अपने उभरे सुडील स्तन का संकेत करती है और गंगाजल से उसमें भरे अपने निर्मल प्रेम-रस की उपमा देती है। इसी तरह वह सोने के थाल से अपने हृदय की उपमा समझाती है। ओर जेवनार से तदजनित अभिलाषाओं, मनोकांक्षाओं, और सुकुमार भावनाओं का बोध कराती है। परोसना शब्द का अर्थ है सजा-सजा कर खाने के लिए पात्र विशेष में वस्तु रखना। तो हृदय थाल में अभिलाषा, मनोकांक्षा और सुकुमार भाव को परोसने का अर्थ भी इसी भाव में लगाने से गोत का रस कितना सुन्दर, कितना मीठा हो जाता है, इसे पाठक मनन करके हो अनुभव करें।
फिर विरह हो में नहीं शृंगार-वर्णन में ऐसे हो प्रयोग मिलते हैं। जैसे किसी ने कहा है-一
सोने के गेड़आ गंगाजल पानी, पानी ना पीये निहारे जोबना । सोनेके थरिया में जेवना परोसलों, जेवना न जेंवें निहारे जोबना ।।
इसका सोवा अर्थ तो साफ है कि पानो न पोकर यौवन निरखा करता है; पर अगर इसी को ऊपर के बताये अर्थ के अनुसार व्यंजना द्वारा समझने का हय फष्ट करें, तो अर्थ कितना सुन्दर हो जाता है। अर्थात् छाती में भरे निर्मल प्रेम-जल को न देखकर यह काम। पति केवल उसके बाह्य रूप को हो निहार रहा है। अर्थात् उस निर्मल विशुद्ध प्रेम-जल का स्वयं पान करके मुझे भी वैसा ही प्रेम-जल पान न करा कर मेरे और अपने जीवन का बाह्य रूप हो कामातिरेक में निहार रहा है, वैसे हो ऊपर बताये अर्थ के अनुसार हृदय रूपी सोने की याल में रखे हुए मनोकामना रूपी जेवनार को न पान करने का भी अर्थ समझिये ।
( १५ )
दरद निचुला लेके अइह हो राजा ।।
जऊँ तुहुँ राजा वेमारी के सुनीह, जऊँ तुइँ राजा वेमारी के सुनीह पटना से बएदा भेजइह, नवज घरवइह हो राजा ॥१॥
नवज धरइह हो राजा ।।
दरद निबुला लेके० ।।
जऊँ हम राजा हो मरि हरि जाईं
चनन चइली ले गंगा पहुँचइह
हो राजा दरद० ॥२॥
जउँ तोहि राजा हो दिल घबराये, छोटकी सारि लेके जिया बहलइ हो राजा ।।३।। दरद निवुला लेके अइह हो राजा।
'हे राजा, तुम दर्द रूपी नीबू का बिरवा लगा कर और उसे पाल पोस कर आना ! अर्थात् जब तुम्हारा दिया हुआ दर्द इतना बढ़ जाय कि में बोमार पड़ जाऊँ, तब तुम आना।'
'हे राजा, (इसी बीच) अगर तुम्हें हमारी बीमारी की बात सुनाई पड़े, तो (स्वयं मत आना) पटना से वैद्य भेज कर मेरा नब्ज धरवा देना।' (इसमें कितना व्यंग्य और कितनी वेदना है? लोक के सामने तुम्हारे इस कृत्य से तुम्हारा यह दोष तो मिट हो जायगा कि पत्नी बीमार पड़ो ओर दवा नहीं कराई गई। साथ ही सखियाँ भी मुझे नहीं हंसेगी; पर हे राजा, वास्तव में दवा कराने की अब जरूरत नहीं है, केवल दिखाऊ रूप से नब्ज भर वैद्य से पकड़ा देना कि अपयश भी मिट जाय और में अपनी सखियों के सामने अन्त समय हँसी न जाऊँ?) सच है, विरहिणी को विरह से अधिक कष्ट अपनी सखियों के सामने पति द्वारा तिरस्कृता होने में होता है ॥१॥
'अगर में मर जाऊँ, तो तुम चन्दन की लकड़ी कटाना और प्रसन्न होकर मेरो लाश को गंगा पहुंचा देना।' ॥२॥
'हे राजा ! मेरे बरने के बाद शायद तुम्हारा दिल घबड़ाय, तो तुम अपनी उस छोटी-सी सालो को बुला कर उससे अपना दिल बहला लेना ।' ॥३॥
'हे राजा, तुम दरद रूपो नीबू का विरवा लगाकर और उसे पाल पोस कर बड़ा करके तब हो आना। ऐसे मत आना।'
यह गोत उस पत्नो का है, जिसका पति ससुराल तो गया; पर वहां अपनी साली से उसका प्रेम हो गया। यहाँ पत्नी उसकी चिन्ता में बीमार पड़ कर मरण-शय्या पर पड़ गई, तव भी जब वह नहीं आया, तो उसने लोक-लाज की रक्षा के साथ अपनी हृदय-वेदना गा डाली। कितना संयम और कितनो कसक है इस गीत में। करुणा मानों मूति बनकर सामने खड़ी हो जाती है।
( १६ )
राजा के बंभी बगइचा में वाजे, राजा के बंसी बगइचा में बाजे ।
मलिनिया होके सुनवि राउर बंसी ।।
राजा, राउर वसी सीतार नीअर बाजे ।।१।। राजा के बंसी बजरिया में बाजे, रंडिअवा हो के सुनवि राउर बंसी।
राजा राउर वसी सीतार नीअर बाजे ।।२।। राजा के बंसी सड़किया पर बाजे, सिपहिया हो के सुनवि राउर वंसी ।
राजा राउर बंसी सीतार नीअर बाजे ।।३।। राजा के बंमी कुअनवा पर वाजे, पनिहारिन होके सुनवि राउर बंसी।
राजा, राउर बसी ०।।४।। राजा के बंसी अंगनवा में बाजे, भउजिया हो के सुनवि राउर वंसी। राजा राउर बंसी ।।५।।
राजा के बनी घरवा में बाजे, भवह्यिा होके सुवि राउर बंसी। राजा राउर बंसी ०।।६।।
राजा को बंशी सेज पर बजती है। हे राजा! मैं सवत बन कर वहाँ भी उसे सुनूंगी और अवश्य सुनूंगी। मेरे प्राणनाय, तुम्हारी बंशी सितार ऐसी सुरीली बजती है। ॥७७॥
पाठक देखें, ग्रामीण विरहिणो को मनोकामना। क्या शिक्षित और क्या अशिक्षित सब के हृदय में भीतरी भावना एक-सी ही है। इसी प्रिय मिलन को कानना को पढ़े और लिखे अनेक-अनेक रूपकों के साथ व्यक्त करते हैं; पर अपढ़ विरहिणी उसे अनुभूति की उसी मात्रा में करती है; पर व्यक्त करते समय उसके ज्ञान को छोटी सोमा उसे अपने अन्दर से बाहर नहीं जाने देती ।
( १७ )
कइसन दाँत ? कइसन दांत ? मिसिया मजेदार साजन रहब कि जइव। अन्हिरिया वा राति साजन रहब कि जइव ।।१।।
कइसन आँखि ? कइसन आँखि ? कजरा मजेदार साजन रहव कि जाइव। अन्हिरिया वा राति साजन रहब कि जइव ॥२॥
कइसन जोवन कइसन जोवन ? चोलिया मजेदार साजन रहा कि जइव । अन्हरिया वा राति साजन० ॥३॥
कइसनि कमरिया ? कइसनि कमरिया ? लहंगा मजेदार साजन रहब कि जइव । अन्हरिया वा राति साजन० ॥४।।
भादों को अँधेरो रात है। पत्नी का मन किसी और हो रंग में
रंग उठा है। रात्रि के लिए उसने सारी तैयारी कर लो है। अंग-अंग का
शृंगार रच-रच कर पूरा किया है। पर पति आया और कहीं जाने को
बात कह सुनाने लगा। नायिका रोके तो कैसे रोके ? अनेक व्याजों से
उसने उनके मन में उद्दीपन लाना चाहा और उन्हें रोकने को व्याज
स्तुति की।
अर्थ सरल है।
पाठक टुक देखें किस वाक्य-चातुरी से कामातुरा नायिका प्रीतम को एक ओर तो अपनी सुन्दरता का ध्यान दिला दिलाकर उत्तेजना दे रही है, और दूसरी ओर अंधेरी रात का स्मरण करा करा कर और बार-बार उनसे यह पूछ कर कि तुम रहोगे कि जाओगे-यात्रा रुकवाना चाहतो है! कितना सुन्दर चित्रण है। स्त्री सुलभ लज्जा की रक्षा भी हो, मुँह से कुछ कहना भी न पड़े और मनोकामना भी सिद्ध हो जाय। प्रत्येक पुरुष को स्मरण रखना चाहिये कि स्त्री अपने मुख से कुछ नहीं कहतो; पर संकेतों से हो सभी वातें प्रकट कर देती है; पर इस पर भी यदि हमारे इस नायक सदृश पतियों की बुद्धि मारी गई हो तो, मूक स्त्री हृदय को साध कैसे पूरी हो ? किसी अंग्रेज लेखक ने कहा है।
"women never surrender but always yield"
( १८ )
मोरे आंचर उड़ि जाला हरी।
सोने के थरिया में जेवना परोसलीं । जेवना जेवे ना अइलें हरी ।।१।। मोरे नयना लागल रहेला हरी। मोरा आंचरि उड़ि उड़ जाला हरी ॥२॥
स्त्री के वक्षस्थल पर से अंचल प्रायः तब बार-बार हट जाता है, जब वह कामातुर रहती है। यह बात पुरुष भले न समझे; पर स्त्री को तो यह आप बाती बात ठहरी। वह अपनी विरह-वेदना इन्हीं संकेतों द्वारा प्रकट भी करती है।
'हे हरी, हमारे वक्षस्थल पर से अंचल आज उड़ उड़ जाता है।' ॥१॥ 'मैंने (अपने हृदय रूपो) स्वर्ण-याल में विविध (मनोरथ रूपी) जेव- नार को सजा-सजा कर परोसा था। (आशा लगाये यो कि तुम आओगे और जेवनार खाओगे अर्थात् मेरे मनोरथों को पूरा करोगे) पर हे निष्ठुर हरि। तुम जेवनार जेवने नहीं आये- नहीं आये। हा, हमारी आँखें तुम्हारी और लगी हो रहती हैं। हे हरि ! हमारे स्तन से आज अंचल हठात् उड़-उड़ जाता है, हट हट जाता है। (तुम कहाँ हो?)' ॥२॥
कितनी सरल, सुन्दर और स्वाभाविक उक्ति है। श्रृंगार की अति- शयता हो कर भी कहीं भी अश्लीलता नहीं आ पायी है। सूनी घड़ियों में जब मन्द मलयानिल चलता हो और पत्नी बीती रात तक पति की प्रतीक्षा में मनोरथों के या भोजन के थाल पर से बैठी हुई प्रिय मिलन के लिए उत्सुक हो, उस समय उसके मन में सुकुमार भावों का उतार-चढ़ाव जैसा होता है, ठीक वैसा ही इस गीत में वर्णित है। इतनी कम पंक्तियों में वेदना की कितनी बड़ी गाथा गाई गई है, यह पाठक को मनन करने पर हो ज्ञात होगा। इस गीत ने आगतपतिका का रूप सामने खड़ा कर दिया है।
( १९ )
आरे हो गइलें पसिजरवा में देरी, हो गइलें ।। अवहीं मोरे राजा अइले ना रे अइले ना ।।१।। आरे हो गइले पसिजरवा में देरी, हो गइले ।। सोने के यरिया में जेवना परोसलों, जेवना लेले अलसइलीं ।। आरे जेवना लेले आरे मोरे राजा ना कुम्भिलड्लीं ।।२।। अइले ०।।
हो गइले ० ।।
'पसिन्जर ट्रेन से पति आने वाला था। स्त्री जेवनार प्रतीक्षा करते-करते यककर बीती रात गा रही है- बनाकर उसकी
पसिन्जर गाड़ी आने में देरी हो गई। अभी तक हमारे राजा नहीं आये। पसिजर में देरी हो गयी। सोने के थाल में जेवनार परोसकर लिये हुए में बैठी हूँ। बैठी-बैठी अलसा गई। मन कुम्भिला गया। अभी तक हमारे पति नहीं आए।'
यह गीत अवश्य किसी रेल कर्मचारी के पवार्टर में बैठी हुई स्त्री द्वारा रचा गया है।
राजा अँगूडी के नगीना रे, राजा अँगूठी के नगीना रे ।।
राजा मन भावे सोनारिन हो, राजा मन भावे सोनारिन हो ।। 11
देहु ना सासु हो छुरिया कटरिया, कतल कड़ घलवों सोनारिन हो ।।१।।
राजा मन भावे सोनारिन हो ।॥०॥
काहे कतल कर घलवू ए बहुआ, कतेक दिन रहिहें सोनारिन हो ॥२॥
राजा अँगूठी के नगीना हो ।॥०॥ 11011
जयसे बहे दरिअउवा के पनिया, ओसे बहिसे गहि सोनारिन हो ।।३।।
राजा अँगूठी के नगोना हो ।।०।।
देह ना गोतिनी छुरिया कटिया, कतल कर घलवों सोनारिन हो ॥४।।
राजा मन भावे सोनारिन हो ||0||
देहु ना ननदी छुरिया कटरिया, कतल कई घलवों सोनारिन हो ।।५।।
राजा मन भावे मोनारिन हो ।।०।1
काहे कतल कइ घलवू ए भउजी, कतेक दिना रहि नोनारिन हो ।।६।।
राजा अंगूठी के नगीना हो ॥०॥
'हमारे राजा अँगूठी पर के रत्न हैं। हमारे राजा अँगूठी पर के रत्न हैं। राजा का मन सोनारिन पर लुभा गया है। हे सास जो, मुझे छुरो कटारी दे दो। में सोनारिन को कत्ल कर डालूंगो। राजा उस पर मोहित हैं ॥१॥
'बहू को इस बात को सुनकर सास ने कहा- हे बडू, तुम सुनारिन को क्यों कत्ल करोगी? कितने दिन वह तुम्हारे राजा को आर्कावत हो करेगो ? जिस प्रकार नदी का जल बह जाता है, वैसे हो सोनारिन भी तुम्हारे राजा के मन से बह जायगो। तुम्हारे राजा अंगूडी के नगीना हैं।' ॥२, ३॥
'तब बहू ने अपनी जेठानी और ननद से कहा- हे जेठानी, मुझे छुरो कटारी दो। में सोनारिन का गला काट डालूंगी। राजा के मन में वह स्थान कर रही है। हे ननदजी, मुझको छुरी और कटारी दे दो। में सोनारिन को काट डालूंगी। वह हमारे राजा के मन में बस गई है। ॥४, ५।।
'जेठानी ने तो कोई उत्तर नहीं दिया, पर ननद ने कहा 'हे भावज, तुम क्यों सोनारिन को निरर्थक काटोगी। वह कितने दिनों तक तुम्हारे राजा को लुभायेगी ? तुम्हारे राजा अंगूठी के नगीना हैं। (व्यर्थ की शंका कर रही हो।)' ।।६।।
इस गीत में स्त्रो को ईर्षा पराकाष्ठा तक पहुँच गई है। सचमुच वह प्रेम, प्रेम नहीं है, जो अनन्य भावना से ओत-प्रोत न हो। कबीर ने कहा- "आओ प्यारे मोहना, पलक बीच मुंदि लेहू। ना में देखी तोहि को, ना कोइ देखन देहूँ" ।।
( २१ )
बाबा मतरिया मोर पइसा के राजी, करेले बुढ़वा से सादी ।। आरे मोरे राजा! मैं थर थर काँपों ।। आरे मोरे राजा मो० ।।१।६ जब रे बुढ़वा पलॅगीया पर अइले, हमरा से मांगे गल चूमा ।। आरे मोरे राजा ! मैं गन गन काँपों ।। मैं गन गन काँपों ॥२॥ जब बुढ़वा गल चूमा लेवे, आरे गड़ेला पाकल दाड़ी ।। मैं थर थर कापों ए मोरे राजा! मैं गन गन कांपों ॥३॥ बाप मतरिया मोर पइसा के राजी० ।।
'पैसे के लोभ में मेरे पिता, माता ने मेरा विवाह बुड्ढे के साथ कर दिया। में उसके डर से यर-थर काँप रही हूँ' ।
'जब बुड्ढा वर पलंग पर गया, तो मुझसे मेरे कपोलों का चुम्बन मांगने लगा। अरे, हे भगवान्! मेरे शरीर में रोमांच हो आया और में मारे भय से थर-थर काँपने लगो।' पाठक, 'गन गन काँपों का पर्यायवाची शब्द या बाक्य हमें हिन्दी में ठीक उसी भाव में नहीं मिला। छोटी टेंगर नामक मछली जब पकड़ कर वंशी द्वारा जल से बाहर की जाती है और तब जो वह क्रोध, पीड़ा, भय और प्रििहंसा की भावना से मुंह में बंशी लिये गन गन स्वर करती हुई कांपती है और अवसर पा कांटा मारती है, उसी को भोज- पुरी में गन-गन काँपना कहते हैं। इसमें सुकुमारता, नवोढ़त्व, भय, क्रोध, प्रतिहिंसा और अज्ञात कोमल भावना को मोठो पर तीखो सिहरन - गुद- गुदी भी मोजूद है। ॥१,२॥
'जब बुड्ढे ने मेरे कोलों का चुम्धन लिया, तो उसको पको दाढ़ो मेरे गालों में गड़ने लगा ओर में यर-पर कांपती रही। अरे हे भगवान्, मारे भय, क्रोध ओर घूगा के मैं गन गन कापतो रहो। अरे मेरे मां-बाप ने पैसे के लोभ में मेरा विवाह एक बुड्डे के साथ कर दिया।' ॥३॥
यह गीत बहुत छाटा है; पर भाव सचमुच बड़ा चोखा है। उस अवस्था का सजोव चित्र सामने खड़ा कर देता है- 'देलन में छोड़ी लगे, घाव करत गंभीर ।' वालो बात इतो से चरितार्थ होती है। बाबू शिवपूजनसहाय- जी ने जब इस गोत को पड़ा, तब 'गन गन कोनों', के प्रसाद-गुग और उसके अर्थ पर मुग्ध हो गये। कहा- इसका पर्यायवाची शध्द मुप्ते हिन्दी या संस्कृत में स्मरण हो रहा है या नहीं, नहीं कह सकता ।।
( २२ )
कल ना परेला विदु देखले हो, नाहीं अइले गोपाल। कुबरी बसे ले ओही देसवा हो, जहाँ मदन गोपाल ।।१।। चनन रगरि के भारवलसि हो, जसोदा जी के लाल। झिसिअन बुंदवा वरिस गइले हो, अब मुसरन धार ॥२॥ सून मोरा लागे भवनवा हो, नाहीं अइले गोपाल । सूरदास बलिहारी हो, चरनन के दास ।। ३।।
'अब बिना देखे कल नहीं पड़ती। गोपाल नहीं आये। (हमें शंका हो
रही है।) कुबरी उसी देस में बसती है, जहाँ मदन गोपाल गये हुए हैं। अवश्य उसने चन्दन घिसकर के मेरे यशोदा के लाल को भुला लिया है।' 'हा ! वर्षा को फुहो घोरे-त्रोरे बरस गई। अब मूसलाधार वर्षा भो होने लगो। हा! अब तो गृह भी सूना लगने लगा। गोपाल नहीं आये। सूरदास कहते हैं कि हे गोपाल में तुम पर बलिहारी हो रहा हूँ। में तुम्हारे चरणों का वास हूँ।' ॥१, २, ३॥
किसी सूरदास नामधारी ने भोजपुरा में और भी कितने गीत लिखे हैं, जिनका रस और गीत, क्रम के अनुसार यथास्थान दिया जायगा ।
( २३ )
जा चरा आव गड्या ए मोहन । कब से खड़ी खड़ी अरज करत बानो, ठीक भइल दुपहरिया ए मोहन ।।१।। जा चरा आव गड्या ए मोहन ।।
मन जे हो चरवहिया मैं देवों, नाहीं तो देवों कमरिया ए मोहन ।।२।।
जा चरा आव
गड्या ए मोहन ।।
सूरदास प्रभु आस चरन के हरि केके, चरन लपटइह ए मोहन ।।३।।
जा चरा आव गड्या ए मोहन ।।
गोपी रो रो कर कह रही है। और गोपाल मचल रहे हैं। 'हे मोहन ! जाओ हमारी गाय चरा ले आवो। में कब से खड़ी-खड़ो तुमसे बिनती कर रही हूँ; पर दोपहर हो गये अभी तक तुम नहीं गये। गाय अभी तक खूंटे पर ही बंधी हैं। जाओ, गाय चरा लाओ।' ॥१॥ 'तुम्हारा जो मन होगा वहो में चरवाहो को मिहनत में तुम्हें इनाम दूंगी। कुछ न मांगोगे तो काली कमरी हो दूंगी। जाओ गाय चरा लाभो ।' ॥२॥
'सूरदास कहते हैं कि मुझे प्रभु के चरणों को आशा है। हे मन, तुम हरि, जो के चरणों में लिपट रहना।'
( २४ )
मरलसि मरलसि मरलसि हो कुबरी जदुआ डललसि हो।
आषु त जाइ विरिना वन छवले मोर हरि सुधि विसरवले हो ! कुवरी जदुआ डललसि हो ।।१।। बापनो ना अइले पनिओ ना भेजले काहे हरी विसरवले हो ॥२॥ कुबरी जदुआ डललसि हो ।।
यमुना पिअत जल सरजू करे अचवन, आरे यमुना के जल निचकवलसि हो ।। कुत्ररो जहुआ डललसि हो ।।३।।
'अरे, कूबरो ने जादू डाल दिया। हरि, जाकर वृन्दावन बैठ गये। हमारो
कोई सुधि उन्होंने नहीं लो। क्यों वे हमारो सुधि भूल गये। कुबरो ने जावू मार दिया। ॥१॥ खुद आये नहीं। एक पत्र भो नहीं भेजा। क्या कारण है कि वे हमारी सुधि भूल गये? कूवरो ने जादू डाल दिया कि वे हमारो सुधि भूल
गये ।' ॥२॥
'उन्हें तो वहाँ यमुना का जल हो पोने को मिलता होगा। सरजू का
निर्मल जल तो केवल मुंह हाय धोने भर को मिलता होगा; पर यमुना का जल तो भीतर काला है। मोहन पर कोई बुरा प्रभाव उसने अवश्य डाल दिया। कूवरो ने कहीं उन पर जादू तो नहीं कर दिया । ॥३॥
गोपी कृष्ण को चिन्ता करना और कूबरी पर शंका लाना कितना सुन्दर और स्वाभाविक है। फिर यमुना का काला जल पोकर कृष्ण का स्वभाव काला हो जाने की उक्ति भी कितनी सुन्दर है।
( २५ )
खाइ गइलें हों राति मोहन दहिया ।। खाइ गड़लें ० ।। छोटे छोटे गोड़वा के छोटे खरउओं, कड़से के सिकहर पा गइले हो ।। राति मोहन दहिया खाई गइले हों ।।१।। कुछ खइलें कुछ भूइआ गिरवले, कुछु मुँहवा में लपेट लिहलें हो ॥२॥ राति मोहन दहिया खाइ गइले हों ।। कहेली ललिता सुन ये राधिका, बसल बिरिजवा उजारि गइलें हो ॥३॥ राति मोहन दहिया खाइ गइलें हो ।।
ललिता सखी सबेरे उठकर राधिका से कुछ दुखित होकर और कुछ क्रोध में कह रही है। कुछ उलाहना का भो भाव उसके हृदय में छिपा दिखाई दे रहा है। राधिका की वजह से हो कृष्ण उधर आने के लिये आकर्षित हुए थे, जिससे उस टोले को उतनी हानि हो रही थी। नहीं तो क्यों ललिता कृष्ण के ऊधम का ऊलाहना यशोदा को देने नहीं गई ? यशोदा तो वेटे के लिये उलाहना सुनने को तैयार हो बंडी रहती थीं। सुनिये-
'हे रावा, रात मोहन सब दही खा गये।'
'उनके छोटे-छोटे पाँवों के छोटे-छोटे खड़ाऊँ के छाप सर्वत्र पड़े हैं। वे इतने छोटे होकर किस तरह सिकहर तक पहुँच पाये यह आश्चर्य है ? हे राधा, रात सब दही कृष्ण खा गये ! ' ॥१॥
'उन्होंने कुछ तो खाया, कुछ पृथ्वी पर गिराया और कुछ मुख में लपेट लिया। हे राधा, सब दही रात मोहह्न खा गये । ॥२॥
'हे राधा, सच कहती हूँ, सुनो वे रात बसे-बसाये ब्रज को उतार करके भाग गये ।' ।।३।।
( २६ )
भब ना छोड़वि तोहार जान, मोहन ! करवल फजितिया । ठाड़े कदम तर वेंसिया वजवल, सखिया के लिहल लोभाय ।। अव न छोड़बि तोहार जान, मोहन ! ।।१।।
दही बेचे जात रहलों मथुरा नगरिया, दहिया के लेलें छिनवाई । . अव ना छोड़बि तोहार जान, मोहन ! ॥२॥
दही मोर खइल दहेड़ी मोरा फेंकल, गेडुरी के दौहल वहवाइ । अब ना छोड़बि तोहार जान, मोहन !।
तू त करवल फजितिया ! ।।३।।
अवों से के कोठरिया में बन कर, ऊपर से भर जंजीरिया । अब ना छोड़बि तोहार जान, मोहन ! ॥४।।
सूरदास प्रभु आस चरन के, हरि के चरन चित लाव।
मोहन करवल फजिहनिया ।। अब ना छोड़वि तोहार जान मोहन, तू त करवल फजितिया ।।५।।
'राधा कह रही है- है, मोहन, तुम्हारो जान (पिण्ड) अब में नहीं छोडूंगो। तुमने मुझे बड़ा तंग कराया' ।
'कदम के नोचे खड़े होकर तुमने वंशो बजाई, और हमारो सारो सखियों को लुभा दिया। अब में तुम्हरो जान नहीं छाड़गो। तुमने हो मुझे संमार में बदनाम कराया।' ।।१।।
'मैं तो दहो बेचने के लिये मधुरा नगर जा रहो यो। तुमने रास्ते में मेरा दहो छिनवा लिया। अब तुम्हारो जान नहीं छोड़ सकतो। तुमने हो हमारो फजोहत कराई है।' ।।२।।
'हमारा दहो भो खाया, ऊपर से दहेड़ी भो फाड़ डालो, ओर गेडरो को बोच यमुना में बहा दिया। तुमने हो हमारो यह दुर्दशा कराई है। में अब तुम्हारा पिण्ड छाड़ने वालो नहीं ।' ॥३॥
'अब भो समय है। हमको लेकर अपनो का डरो में बन्द कर दो और बाहर से जंजोर चढ़ा दो। (कि हतारो बदतानो अविरु न बढ़े।) अब तो में तुम्हारा पिण्ड छोड़ो नहीं। तुमने हो मेरो यह बदनामो करायी है। ॥४॥
'सूरदासजो कहते हैं कि में तो प्रभु के चरणों में चित लगाये हूँ। मुझे उन्हीं के चरणों को आशा है। हे मोहन ! अब फजोहत मत कराआ।। अपने चरणों में अपना ल।। में अब तुम्हारा पिण्ड नहीं छोड़ सकता। तुमने हो मेरो यह फजोहत कराई है।' ॥५॥
( २७ )
दही बेचे जात रहली मथुरा नगरिया, भोराइ लिहले हो बिरिजवा के रसिया ।।१।।
सासु के चोरी चोरी दही बेचे जात रहो.
भोराई लिहले हो ई गोकुलवा के रहिया ।।२।। दही मोरा खइले दहेड़ी मोरा फोरले, बिगारि दिहले हो मोर वारी उमिरिया ।।३।।
'गोपी कह रही है- अरे, में तो दही बेचने मथुरा नगर जा रही थी। इस रसिया ने (मोहन ने मुझको भुलवा लिया। सास को चोरी से में दही बेचने निकली थी। सो इन्होंने गोकुल का रास्ता मुझे गलत बता कर मुझको भुलवा कर अपने पास विलमा लिया। फिर मेरा दहो खा लिया, दहेड़ो फोड़ डाली और मेरी बारी वयस को भी बिगाड़ डाला। हाय, अब में कहाँ जाऊँ ?' ।।१, ३।।
गोपी के इस निवेदन से पाठक ! क्या आपका हृदय कृष्ण के अत्याचार पर खोझ नहीं उठता ? उनको दो चार खरो खोटी सुनाने का मन नहीं करता ? राधा के इसी काण्ड को पुरुष कवि सूर ने पहले गोत में अभो भक्ति का जामा पहना कर एक दूसरा हो रूप दिया है। पर स्त्रो कवियित्रो को कृष्ण का निर्जन वन में अकेली राधा पर भुलवा कर अत्याचार करने को घटना को भक्ति का जामा पहनाना सह्य नहीं हुआ। इसमें उसको जाति का अपमान था। साथ हो इससे राधा के प्रति किये गये अन्याय का स्त्रो द्वारा समर्थन भी होता था; अतः उसने कृष्ण को भगवान् मान करके भी उनके इस कृत्य की निन्दा की और उसे बंसे हो चित्रित किया, जिस तरह से वह संघटित हुआ था।