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भजन - २५

28 December 2023

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(परम पूज्या पितामही श्रीधर्म्मराज कुंअरिजी से प्राप्त) सिवजी जे चलीं लें उतरी वनिजिया गउरा मंदिरवा बइठाइ ।। बरहों बरसि पर अइलीं महादेव गउरा से माँगी ले बिचार ॥१॥ एही करिअवा गउरा हम नाहीं मानबि सूरुज विचार मोही देहु ।। जव रे गउरा देई सुरुज गोड़ लगली सुरुज जे गइले छिपाय ॥२॥ इहो विरिअवा गउरा हम नाहीं मानवि अनिनि विचरवा मोहि देहु ।। जब रे गउरा देई अगिन हाथ लवलीं अगिनि गइली निझाइ ॥३॥ इहो किरिअवा गउरा हम नाहीं मानवि सरप बिचरवा मोहि देहु ।। जब रे गउरा देई सरप हाथ लवलीं सरप बरठले फेटामारि ॥४।। इहो किरिअवा गउरा हम नाहीं मानवि गंगा बिचरवा मोहि देहु ।। जव रे गउरा देइ गंगा बीचे पईठलीं गंगा गइली सुखाइ ॥५॥ फाटहु धरती हमहीं समाइवि अव ना देखवि संसार ।। अपना वचन जब सुनीला महादेव, छाती से लिहलीं लगाइ ।।६।। अव को गुनहिह्या गउरा हमरा के वकसहु होइवों मों दास तोहार ।।७।।

'शिवजी उत्तर बन की ओर चले और गौरी को घर पर रहने को छोड़ दिया। बारह वर्ष पर जब वे लौटे तो गोरी से सतीत्व का विचार कराने पर उद्यत हुए अर्थात् उनके सतीत्व की परीक्षा लेने लगे।' 

गोरी ने सत की परीक्षा दी; पर शिव को उससे सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने कहा, कि में इस परीक्षा को नहीं मानूंगा। हे गौरी! तुम सूर्य की परीक्षा दो।'

'गौरी ने वह परीक्षा भी दी। जब उन्होंने सूर्य को नमस्कार किया, तव सूर्य उनके तेज से मलिन होकर छिप गये।'

'शिवजी ने फिर कहा- हे गोरी, मैं इस परीक्षा को भी नहीं मानूंगा। मुझे अग्नि-परोक्षा दो।'

'गौरी देवी ने जब अग्नि में हाथ डाला, तो आग बुझ गई।'

'शिव ने तब फिर कहा- गोरो देवं !! मैं इस जाँच को भी नहीं मानूंगा। मुझे सर्प का विचार दो।'

'गौरी ने वह परीक्षा भी दी। जैसे उन्होंने सर्प के ऊपर हाथ रखा कि सर्प काटने के बजाय कुण्डली मारकर चुप बैठ गया।'

'शिव ने इतने विचारों में गौरी को उत्तीर्ण पाकर भी उन पर नहीं विश्वास किया और कहा कि इस परीक्षा को भी मैं नहीं मानूंगा। मुझे गंगा को परीक्षा दो।'

'वाह रे स्त्री धैय्यं ! उसको तो अपना सतोत्व साबित करना था। गौरी ने गंगा-परीक्षा भी दी। वे जैसे हो गंगा को बीच धारा में कूदीं कि गंगा सूख गई।'

'परन्तु अब तो कोई परीक्षा बाको नहीं था। और गौरी का सतीत्व सशंकित शिव के सामने पूर्ण रूप से प्रमाणित हो चुका था; पर साथ ही टूट चुका था गौरी का धैर्य ! उन्होंने कहा- हे धरती माता ! तुम फट जाओ। मैं तुम्हारी गोद में समा जाऊँगी। मैं अब इस झूठे संसार को नहीं देखूंगी।'

'इतनी बात के सुनते ही शिवजी दौड़ पड़े और गौरीजी को पकड़ कर वक्षस्थल से लगा लिया।'

पर वाल्मीकि के राम तो, जब सीता द्वितीय बार अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण साबित हुई और ऋषियों ने उनको पवित्रता प्रमाणित पाकर उनको अंगी- कार करने की आज्ञा भी दी, तब सीता को दौड़कर अंगीकार न करके प्रजा से अनुमति पूछने लग। इतने में मौका पा सीताजी पृथ्वी में प्रवेश कर गई। और राम हाथ मलते रह गये; पर गीत का यह रूप तो कोमल हृदया स्त्री कवि को स्वीकार नहीं था। उसने समय के पूर्व शिव को गोरो के सतीत्व के सामने नत मस्तक करा दिया और दुखान्त घटना को सुखान्त कर दिया।

नीचे का गोत शिव के व्याह का गोत है। यह एक साई से मुझे मिला था; पर अशुद्धियाँ बहुत थीं। गीत लम्बा होने से उसे ठीक स्मरण नहीं था। कितने चरण तो गायब ही थे। दो एक शब्दों से हो उनके अर्थ का • संकेत मिल जाता था। तब भी १२६ चरण तक हो लिखाया था। बाद के चरण उसे स्मरण नहीं थे। मुझे बीच के टूटे हुए चरणों में संशोधन तो करना हो पड़ा। अन्त में १२६ से १८२ तक के चरणों की रचना करके ब्याह समाप्त करना पड़ा। (इस गीत में कई रस पुष्ट हुए हैं; पर मैंने इसे करुणा में ही रखना उचित इसलिये समझा कि करुणा वाले अंश मुझे अधिक प्रिय मालूम हुए। यह गीत प्रतापगढ़ जिले में साइयों द्वारा गाया जाता है। वहाँ भी मैंने सुना है; पर उसको भाषा अवधी थो।

( २६ )

कैलास में वास करीले ज्ञानी ।

बम् जिओ महादेव शिव ध्यानी ।। शिव के जटा से गंगा बहेली, ओहि में असनान कइली पारबती ।।१।। माता के तरली गौरी पिता के तरलीं, चारों भुअन के देसवा तरलों,

गौरी जोग वर ना मिललन ॥२॥ माता बहिनिया घर में नाहीं, माथा तिलकवा चढ़त नाहीं ।।३।। बिना बतवले घर मिलत नाहीं, गौरी जोग वर ना पवलेन ॥४।॥

बम् जिओ महादेव शिव ध्यानी ।।

कैलास में बास करीले ज्ञानी ।। पतवन में पान पत्ता बड़ा, धमवन में चारों धाम बड़ा हो ।।५।। 

इनकर नाम त्रिया पारवती हो, माथा तिलकवा चढ़त नाहीं ॥६॥ कैलास में बास० ।। वम् जीओ ० सहर कनकपुर राजा हिमंचल, ते घरे जमलीं पारवती ॥७॥ ऊधोपुर जोहले माधोपुर जोहले, सात सौ नदी नार हेले के परले ।।८।। तवो गोरी जोग बर ना मिलले ।। बम् जिओ महा० ।। बम् पुरुब दिसा खोजे उदै अस्तले, दखिन खोजे गढ़ लंक पुरी ॥९॥ • बम् पछिम दिसा खोजे अजोध्या नगरी, उत्तरदिसि परवत धवला गिरी ।।१०।।

उहाँ सोने के घर लंका मिललन-

उहों बर घर दूनो खोजलन-

उहों दूनों नाहीं मिललन ।। वम् जिओ० ।। नउआ बराह्मन ठहना दीहलन, गौरा जोगवर ना मिललन ॥११॥ सिव सवा वित्ता के पलक बढवलीं, नव गजवा के जटा संवरली ॥१२॥ सवा गज के त दाढ़ी बढ़ी, सिव सरप भुअंग गरे लपटो ॥१३॥ केहू करम में पेड़ा त लड्डू बाड़े, सिव के करम में भाँग गोला बाड़े ।।१४।। केहू करमवा साला दुसाला बाड़न, सिव के करमवा मृगछाला बाड़न ।।१५।।

वम् जिओ० ।। कैलास में बास० ।।

वम् पावन रूप सिव अपन देखइह, तवन तवन जव संकट पइह ।।१६।। नउआ त बम्हना जाइ पहुंचले, महादेव के तिलक पहुँचवले ॥१७॥ दस दिनवा पएड़ा में लागल, दस महीना सेवा जू कइले ॥१८॥ सेवा करत सिव के नीदिया दुटली, भांग धतूर के गोला खइलों ॥१९॥

नउआ के देलन सिव सोने के पिड़ई, बाम्हन के देलेन सिव रूप के पिढ़ई ॥२०॥

बटु बईठु नौआ पंडित ज्ञानी, वम् जिओ महादेव सिव ध्यानी ॥२१॥ कैलास में बास० ।। वम् जिओ ।।

नत्र मन मध्यिा मंगल गवळीं, मुकुर सनीचर डवरू बजवलीं ॥२२॥ 

तिलकिया चढ़लें महादेव के ।।

वम् जिओ महादेव सिव घ्यानी ।।

एतना वचन बोलें नौवा पंडित ज्ञानी, तू त महादेव अन्तरजामी ॥२४।।

हमरो के कुछ करि दोहीं ना बिदाई ।।

वम् जिओ महादेव० ।।

एतना वचन बोले महादेव ज्ञानी, बम् पाव भर खरची घर में नाहीं ॥२५॥ डेहरी कोठिला घरे एको नाहीं, देखि आव एकहुँ वाढ़न नाहीं ॥२६॥ भांग बतूर के त करीला अहार, बनवा के पतिया खाइला चवाई ॥२७॥ हम कथि से करी तोर विदाई, कह त ओही से करि दी बिदाई ।।२८।।

बम् बोलो महादेव शिव ज्ञानी ।।

एतना बचन बोले नउआ बाम्हन ज्ञानी, तूही महादेव अन्तरध्यानी ॥२९॥ त ओही रखिये कर दीहीं ना विदाई, जवने रखिए रौरा धुइयाँ रमाई ।।३०।। एक मूठी रखिया नउवा के दीहलन, एक मूठी रखिया बम्हना

के दीहलन ॥३१॥

ऊहे राखि लेके दूनो चललन, चलत चलत पएड़ा के घइलन ॥३२॥ उहाँ जमुना तव बढ़िआ गइली, नउआ वम्हना खड़ा हो गइलनि ।।३३।। उहाँ जमुना जी थाह हो गइलीं, नउआ बम्हना तव पार हो गइलनि ।।३४।। नउआ रखिआ नउनिया के दीहलसि, नउनिया देखि जरि छार हो गइलिनि ।॥३५॥

एतना बचन तब बोलेली नउनिया, आगि लगाओ में तोरा कमइया ॥३६॥ नउआ आगि लागो तोरे इहो कमाई, एही कमाई से लरिका जीहें ॥३७॥ वम् पावन रूप सिव तोहि देखवले, तवने पर ईनाम ई दीहलें ॥३८॥ नाउनि खोलि राखि फैकि दीहले, एहि ले ढेर चुल्ही में लगवीं ।।३९।। ऊ रखिया से सोन घर बनल, देखि नउनिया पछतावे लागलि ।।४०।। चलल चलल नौवा पंडित के गइले, पाँव पकड़ि पवलग्गी कइलनि ।।४१। हमरी भभूतिया पएड़ों में गिरले से, दीहों पंडित कुछु अपना में से ।। एतना बचनिया नउवा के सुनके, बोलले पंडित मन में गुनिके ।।४३५ ।।४२।।

आधा भभूतिया ल लेइ ठाकुर, आधा हमरो के रहेतू दीह ।।४४।। नउआ खोलि भभूति सब लीहले, उहो रखिया नउनिया के दीहले ।।४५।। बाम्हन देवता काम ई कइलन, एक घर लिपलन दूसर घर लिपलन ॥४६। अगना ड़हरा भर कर दीहलन, ऊपर से चऊक पूरि पूरि दीहलन ।।४७।। तनी मनी रखिआ तवना पर छिटलन, मारे सोना सिव घरि भरि

दीहलन ।।४८।।

अपना घर से नौआ सुनि अइलन, बाम्हन के हलिया फेनि फेनि पुछलन ॥४९॥ बचन सुनत पंडित तव बोललन, मन में बिर्हसि बात असि कइलन ।।५०।। हमार हाल ठाकुर का पूछल, अपने देख ना सब घर भरल ।॥५१॥ जाके नउआ देखि खुस भइल, वावा के रखिया बड़ गुन भरल ॥५२॥

सोचलसि अउरो उठा ले आई, बाबा के राखि चल ले आई ॥५३॥ बम् जिओ महादेव सिव ध्यानी । कैलास० ।। उपट के बोललन बावा महादेव, जतना मन चाहे राखि उठा लेव ।।५४।। नऊभा तपनी बिटोर बांधि लिहलस, थोरी एक अउरी बगलीं

में धईलसि ॥५५॥

उहाँ से लेके जलदी चललसि, चलत चलत घरे जव अइलनि ।।५६।। देखि नउनिया मने खुस भइली, कहाँ उठवली कहाँ बइठवली ।।५७।। एक घर लिपलसि दूसर घर लिपली, गठिया से रखिया खोलि

गिरवलसि ॥५८॥ सिव जी के रखिया घर भर घूमलि, मारे राखि आँगन सव भरल ।।५९।। थैली के राखि जे बाचल रहलीन, उहो ले जाके खोलि गिरवली ।।६०।। ओही में से छलकि के आनी घर भरल, सात रात दिन फेकत

लागल ।।६१।। फक्त फेकत नौवा हारि गइल, रखिया बढ़ि के बड़ेरी गइल ॥६२॥ हारि नउनिया बोललसि वानी, अव का करव शिव अंतरजामी ॥६३।। हे हो नडला तू घर छाड़ि देहु, मड़ई टाटी में चलि रहि लेहु ।।६४।। महादेव बावा दीद्दलन सराप, लालच बाउर कइली पाप ॥६५॥ 

टाटी मड़ड्या छाइ रहि जाई, सिव के सराप वृथा ना जाई ॥६६॥

वम् वोलो महादेव सिव ध्यानी ।।

गोरी जोग वर मा मिललनि ।।

दाढ़ी बड़वलन बार पकवलन मुहवा के, दांत सिगरी तुरवलन ।।६७।। भगवा खइलन मति बउराली, अइसन बिआह बलु नउजी होखी ॥६८॥

वम् जिओ महादेव सिव घ्यानी ।। गौरा जोग वर ना मिललन ।।

एतनी वचन बोले बाबा ध्यानी, सुन नीवा तपसी पंडित ज्ञानी ॥६९॥ एतना कहनवा मोर करब कि नाहीं देसे देसे नेवता दे अइव कि नाहीं ॥७०।।

एतना वचन बोले पंडित ज्ञानी, कइसे नाहीं करवि वावा सिव घ्यानी ॥७१।।

नउआ त बम्हना उठि परलन, देसे देसे देवे नेवता चललन ॥७२॥

नेवता दीहलन कीटा फतिगा के, नेवता दीहलन जिआ जनावर के ।।७३।।

नेअता दीहलन चीऊँटी माटा के, भूत वैताल के नेवता पठवलन ।।७४।॥

सुके दिन बरितया सजलन, सनीचर के फजीरे चलिये दीहलन ।।७५॥

दानव मुख ते मसाल वरलन, कुकर सिआर राह दिखवलन ।।७६॥ साजि बराति कनकपुर, चललन, पएड़ा में रूप कोर्टी के धइलन ।।७७।।

भनन भनन माछी भनके लागल, नवमन गूदरी देहि पर लादल ।।७८।। चाँद फुटल नाग कान्हें बइठले फन काढ़ि दुई गर में लटकले ।।७९।। गटई में सोभे रूड के माला, थुथुर साँप दूनों बाहि लपटाला ॥८०॥ बम् जिओ महादेव सिव ज्ञानी, गौरी जोग बर मिललन नाहीं ॥८१॥ जव रे महादेव मड़वा अइलीं, कलसा का ओटे ओटे गोरी बोललीं ॥८२॥ सामी, सखी सहेलरि से हँसि के बोलबि, पावन रूप आपन दिखलाइबि ।।८३।। नात सब हंसी करम हमार, घरवा में परी हाहाकार ॥८४॥ माई कही गउरा कइसे रही, दिने अछत साँप काटि खाई ॥८५॥ भऊजी हँसी सिव पागल हउएँ, पारवती के मामर तुरिहें ।॥८६॥ एतना सवद जब महादेव सुनलन, खिसिया के उठ मड़वा में गइलन ।।८७।। जाइ बगइचा में डेरा गिरवलन, लोग बाग अपने चलि अइलन ॥८८ 

घर के लोग तब राय कइलन, दूचार जना मनावे चललन ।। ८९ ।।

घनि हई बाबा महादेव रउर्जा, तीनो लोक के तारक रउआँ ।। ९० ।। जे पर खुसी निहाल ऊ होई, अकरम करम के ख्याल ना कोई ॥ ९१ ॥ बरम्हा विमुन त थर थर काँपसु, गन जमराज डेराइ भगावसु ।। ९२ ।। तिरिआ अलप बुद्धि कम जानत, ओकर कहल सेआन न आनत ।। ९३ ।। मति करें। खोज सिव का ऊ बोलुए, मति करी मात्र शिव ऊ का कहुए ।। ९४ ।। सव का विटोरि चलीं भोजन करी, गउरी के माँगे सेनूर भरीं ।। ९५ ।।

वम् जिओ महादेव सिव ध्यानी ।।

कैलास में बास करे ज्ञानी ॥

।। ९७ ।। ताल पोखर सव भरले वाटे, खोरि वजार रसद फेकले बाटे नाना ।। ९९ ।। ॥१००॥

।। ९८ ।। पहिला वीजे त तूही करिल, तब पीछे सव बरात पइहे गौरी दुआरे के आदमी बोले, का जइहें दूँ जाना नाम हंसइहनि

एतना बचन सुनि महादेव हँसले, सुक सनीचर चेला से कहले ।। ९६ ।।

सबके बटोरि के रउरो चलती, मंडप के त शोभा बढ़इती तरह के भोज बनल वा, सब कोई आस देखत पड़ल वा ॥१०१ ।

त डपट के बोले महादेव ज्ञानी ।।

वम्-त्रोले महादेव सिव ध्यानी ॥

अपने कहनवा त करत बाड़, हमार कहनवा सुनत ना बाड़ ॥१०२॥ सिव के डाँट सुनत सब डरलें, गाँव लोग सब थर थर कंपलें ॥१०३।। हाथ जोरि तब विनती कड़लें, चलीं ना शुक सनीचर रउरें ॥१०४।। सूयः शनीचर उठि चलि दीहलन, जाके जगह बइठाइ दीहलन ।।१०५॥ पहिले रमद थारे थोरे चलवले, फेनि खचिअन में भरि भरि डललन ।।१०६।। सात दिन सात रात खाते लागल, तनी तनी सब पेट में भरलें ।॥१०७।। तबहूँ भूख त लगले रहल, खीझि सनीचर तव डाटि के वोलल ।।१०८।। अबही त पेट ई नाहीं भरले, चल उठ अब पानी पीअ ।॥१०९।। गीरी के ओर से दूर जना अइलन, हाथ जोरि के विनती कइले ।।११०।। काहे रउरा पानी पिवि, एक घर रसद अउरी बाचल ।।१११।। 

उहो ले आके रसद परोसले, सूक सनीचर झट खाइ चलले ॥११२।। डाटि के कहलन जो पेट ना भरल, हीत नात घमि पानी मारव ।।११३।। गोरी के पत्र मिलि बातें कहले, दिना महादेव के पार न लगिहें ।॥११४।। दुई चार जना सिव पासे गइलन, हाथ जोरि के खाड़ा भइलें ॥११५॥ धनि हई रउरे महादेव बाबा, गोरी के घरे अब खरची नाबा ।।११६।। सूक सनीचर सब खाई घलले, रउरे हाथे अब त इज्जत रहले ॥११७॥ गोरी त हई सिव रउरे इज्जति, उन कर फजीहति रउरे फजीहति ॥११८॥ दूनो इजतिया रउरे हउअन, हमरे मान के अब कुछ नइखे ।।११९।। हंसि के वचन तव महादेव बोले, थोर थार अउरी रसद ले आव ॥१२०॥ गौरी के ओर से दू जना बोलले, साँच कही ला सिब कुछ ना बचले ॥१२१॥ एतना बचन तब सिव जी बोलले, दुइ एक चाउर त गिरिले होइहे ॥१२२॥ पंच आनि धड़ आगा दीहले, इहे खाइ सुक शनी अधइले ॥१२३॥ ओहि दुइ चाउर से दउरी टूटले, अघा वरिअतिया सगरे खइले ॥१२४॥ बाँचल लेके घर अइले, घरते मातर सब घर भरले ॥१२५॥ ओहसे छलक के आनो घर भरले, अन्न के मारे सत्र कोठिला फटलें ।॥ १२६॥ अतना बचन तब मैना बोलिला, रसद खवया अव केहू ना बचले ॥१२७।। हकरहुँ दुलहा मंडप सजावहु, परिछन के सब साज मंगाबहु ॥१२८॥ पाचों पवनी जाइ बोलावहु, बाजन गाजन सब लेइ आवहु ॥१२९॥ नेवतहरिन के खवर सुनावहु, हाथी घोड़ सब जनवासे पठावहु ॥१३०॥ गुरू उपरोहित उल्दी बोलावहु, नउआ वरिया के खवर जनावहु ॥१३१॥

वम् बोलो महादेव सिव ध्यानी ।।

कैलास में बास० ॥१३२॥ महादेव बाबा बरतिया सजलन, गन नायक सब धूधुक बजवलन ॥१३३।। डाकिनी साकिनी खप्पर लिहली, छाँई घुँइ करिके नाचन लगली ॥१३४।। बिना मुँह के हँसले बैताला, बिना गोड़ के धावेले पिचासा ॥१३५॥ कौनों के नाक न ता कौनों के कान ना एके आँखी कान कौनों. दोनों

आँख सूना ।।१३६५ 

गदहा प केइ चढ़ल मुसवा प केहू कूकुरा, सियार भूकि वजवा बजावे ।।१३७।। हँसि खनि चले सब गनवा के नायक, गाल तूरहिया दूनो उपरी बजावत ।।१३८।। सिव पावन रूप अमंगल घइले, सवा विता पलक बनवले ।।१३९॥ सावा गज के दाड़ी बढ़ले, नव गज के त जटा सजवले ।।१४०।। सेस नाग गटई में लटके, चांद फुटल नागिन काने बइठे ।।१४१॥ थुथुर साँप के बटुका बंधवलेन, कोरिया के रूप शिव अपने धइले ।।१४२ भनन भनन माछी भनकन लगली, नवमन गूदरी देहि पर लदलीं ।। १४३।। बूढ़ वएल पर भइलीं असवार, मुँह देने पीठि कइली पोंछि लगाम ।।१४४।। चील्ह कोवा उड़ि तम्मू तनले, गादुर डैन खोलि छाता लगवलन ।। १४५।। भूत पिचास गन डाकिनि साँकिनि, रंग बिरंग मुख आँखि अरु नाकी ।।१४६।। एहि विधि जव वरिअतिया सजली, तब सिब चल के हुकुम दिहलीं ।। १४७।। गावत, नाचत, रोअत, हंसति, लागे दुआर बरतिया चललि ।। १४८।। पीछवा से देवता हुलसत चलले, देखि देखि रूप सिव मन मुसकइले ।। १४९।। हसें विधि विसनू मुख दे रुमालि, देवता सेस हसें ठाठा मारि ॥१५०।। जब वरिअतिया दुअरवा लगली, सजि सजि तिवई परिछन के चलली ॥१५१। जइसे मैना देइ अगवाँ बढ़लीं, सिव बउरउले सरप फुफुकरले ।। १५२।। देखली नउनिया हाइ कइ भगली, कलसा लोरहा सूप पटकली ॥१५३॥ मैना मुरछाई के कहते गिरली, हाइ गौरी मोर जिअते मरली ।। १५४।। एक प एक सखी गीरत भगली, फिरि फिरि चितवत पाछा परइली ।। १५५।। मड़यों से सखियाँ भागि सब चलली, गौरी अकेल कलश पास रहली ॥१५६॥ तव गउरी मन चिन्ता कइली, पहिली पिरीतिया सिव मन धइली ।। १५७।। आपन करनी सिव समुझावल, दक्षराज के जज नसावल ।। १५८।। आपन जरल का सिव के तपसेया, सब के सोचली मन में गुनली ।।१५९।। वस सिव, यस सिव, बहुत सह्वली, पुरुव जनम के कमाई हम पवलीं ।।१६०।। इहां जनम रउरे हमहूं रउरे, लोक लाज सब रउरे रउरे ।।१६१॥ अब का अउरी बाकी बाटे, जे खातिर जिउ जीअत बाटे ॥ १६२॥ दोई सहाय नात कहीं ओइसन, कस मन अगुताइल का कहीं कइसन ।। १६३।। 

लोर ढारि गउरी अँखिया मुँनलीं, विलखि विलखि के विनती कइलीं ।। १६४।। महादेव रउरा अन्तरजामी, मोर हाल सब जानत बानी ।।१६५।। होई सहाय नात हुकुम दीहीं, इहो तन जरि हे गउरी मरिहे ।। १६६।। ई पुकार सुनि शिवजी हंसलीं, प्रीति पुरनकी जगल ओसहीं ।। १६७।। फेनि मुसकइलीं कि सत्ती चेतलीं, आपन करनिया अपने जनली ।।१६८।। तव रूप पावन आपन बनवलीं, गउरी के आँखि में जाइ समइली ।।१६९।। गोरी धनि कहि गोड़े गिरलीं, प्रेम भुलाई मगन होई गइलीं ।।१७०।। ई रूप सिव अव माई के देखाई, धनिधनि हे सिव माई के बचाई ।। १७१।। इतना सुनत सिव दुअरा अइली, धाई के सखी सब मैना उठवली ॥ १७२॥ भोला देखत मैना पुलकित भइली, गीति गाइ के परीछन लगलीं ।। १७३।। सखी सलेहरि, मंगल गवली, सारी सरहज सवे हरखवली ।।१७४।। मैना शिव के गोड़े गिरलों, मन में प्रेम से गद्गद् भइली ।।१७५।। फेनि फेनि भोला के रूप सराहरु, गौरी के तप सारथ भाखसु ।।१७६।। मॅड़वा अइली भोला भँवरी दिहलीं, पुलकि पुलकि गउरी सात पग

चलली ।। १७७।। भइल बिआह गौरी कोहबर गइली, सारी सरहज सब चाउर

कइलीं ।। १७८।। अपने हंसली भोला सबके हंसवलीं, गउरी जुड़वली सिव सब

के जुड़वलीं ।।१७९॥ लोही लगते गोरी गवना चललीं, माई भउजिया धई धई रोअली ॥१८०॥

भाई भतीजा सब से भेटलीं, सखी सलेहरि गरवा

लगवली ॥१८१॥

सब जन मिलि के देली असीस, सेनुर पहिर गडरी लाख

बम् बोलो महादेव सिव ध्यानी ।। कैलास में वास करीं ज्ञानी ॥ 

कंलास में ज्ञानी शिव निवास करते हैं। महादेव शिव के ध्यान करने वाले भक्तगण चिरंजीवी हों। शिव को जटा से गंगा बहती हैं। उसमें पार्वती स्नान करती हैं। उन्होंने अपनी तपस्या से अपनी माता को तारा और चारों भुवन के देशों को तारा। फिर भी गीरी के योग्य वर नहीं मिला' ।॥१-२।।

'गौरी के घर में मा बहिन कोई नहीं। इससे उनके माथे पर तिलक नहीं चढ़ता अर्थात् ब्याह नहीं होता। बिना किसी के पता बताये अच्छा बर घर नहीं मिलता। गौरी को कौन है कि वर ढूँढ़ने में परिश्रम करे ? उनके योग्य वर नहीं मिला। महादेव के ध्यान करने वाले साधक तुरु चिरंजीवी रहो। कैलाश में शिव ज्ञानी बास करते हैं।' ।।३-४।।

'पत्तों में पान का पत्ता बड़ा होता है। तीर्य स्थानों में चारों धाम बड़े होते हैं। अरे इन्हीं का नाम सती पार्वती है। इन्हों के माथे तिलक नहीं चढ़ता। कैलाश में ज्ञानी शिव निवास करते हैं। हे शिव के ध्यानी साधक तुम चिरंजीवी रहो ।' ।।५-६।।

'कनकपुर नगरी में हेमंचल राजा रहते हैं। उन्हीं के घर पार्वती का जन्म हुआ। उन्होंने पार्वती के लिए सात सौ नदी-नाला पार कर ऊधोपुर और माधोपुर आदि नगरी सब कहीं ढूंढ़ डाला, तब भी गोरी के योग वर नहीं मिला। हे शिव के ध्यानी शिव बोलो और चिरंजीवी रहो ।' ।।७-८।।

'पूर्व और पश्चिम में उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक दक्षिण में लंका पुरी के गढ़ तक उन्होंने वर की तलाश की। फिर पश्चिम में अयोध्यानगर और उत्तर में धवला गिरि पर्वत तक वर की खोज की; लंका में सोने की धरती मिलो, पर वर नहीं। अन्य सर्वत्र भी वर घर दोनों कहीं नहीं मिले।

हे, शिव के साधक शिवजो को भजो। और चिरंजीवी रहो' ।।।९,१०।। 'नाई ब्राह्मण कैलाश पर्वत पर जाकर शिव के यहाँ धरना देकर बैठ गये अर्थात् जमकर विवाह ठीक करते रहे।' पर तब भी गोरी, तुम्हारे योग्य वर नहीं हो मिला। हे गौरी, वे शिव तो सवा बित्ता के पलक बढ़ाये हैं। चव गज लम्बी जटा बांधे हैं। सवा गज लम्बी दाढ़ी बढ़ी है। और इन शिवजी के गले में सर्व लिपटा हुआ है। हे गीरी, तेरे योग्य वर नहीं मिला। किसी के भाग्य में लड्डू पेड़ा हं.ते हैं; परन्तु शिव की किस्मत में भंग के गोले हो बदे हैं। किसी के कर्म में शाल दुशाला लिखा होता है; पर शिव के भाग्य में मृगछाला ही है। हे गौरी, तुम्हारे योग्य वर नहीं मिला। हे शिव के साधक चिरंजीवी रहो।' ।।११,१२,१३,१४,१५॥

'पर पार्वती ने मन में कहा- हे शिव, अपना पावन रूप दिख इयेगा, वह रूप, जो सभी संकट के समय दिखाया करते हैं।' और नाई ब्राह्मण से तिलक भेज दिया। नाई ब्राह्मण तिलक लेकर चलते-चलते कैलाश जा पहुंचे। उनको रास्ते में तो दस ही दिन व्यतीत करने पड़े; पर कैलाश पहुंच कर सेवा करके शिव का ध्यान तोड़ने में उन्हें दस मास लग गये। सेवा करते करते दस महीने में शिव की नींद खुली। तब उन्होंने भंग और धतूरे का गोला खाया और नाई को सोने का तथा ब्राह्मण को रूपे का पोढ़ा बैठने को दिया और कहा- 'हे नाई और हे ज्ञानी पण्डित, वंडते जाओ। हे शिव,

के ध्यान करने वालो तुम जिओ। और शिव का ध्यान करो।' ॥१६ से २२॥ 'तब नव मन मक्खियों ने मंगल गान किया और शुक्र और शनि ने डमरू बजाया और तब महादेव शिव का तिलक चढ़ा। हे शिव के ध्यान करने

वाले भक्त गण, शिव बोलो ओर चिरंजीवी बनो' । ॥२३॥ 'तब नापित और पण्डित ने तिलक चढ़ा कर शिव से कहा- हे महादेव, आप तं। अन्तर्यामी हैं। हम लोगों की कुछ विदाई होनी चाहिये । हमारी विदाई कर दोजिये।" शिव के ध्यानी बम् बोलो और जीवित रहो।' ॥२४।। तब शिव ने कहा, 'अरे, हमारे घर में तो पाव भर अन्न नहीं है। मैं भांग और धतूरे का तो आहार करता हूँ, घर में डेहरी और कोठिला क्या बढ़नी तक भी नहीं पाओगे। और वन को पत्तो चबाचबा कर रहता हूँ। मैं किस वस्तु से तुम्हारी बिदाई करूँ? कहो तो उन्हीं से अर्थात् भंग, धतूरा और बन की पत्ती से ही बिदाई कर दूं।" अरे शिव के ध्यानी बम् बोलो बम् बोलो।' ॥२५,२६,२७,२८।।

'तब नाई और ब्राह्मण ने कहा- हे महादेव, आप अन्तरयामी हो। हमें उसी राख से विदाई कर दीजिए, जिससे आप धुईं रमाया करते हैं।' महा- देवजी ने एक मुट्ठी राख तो नाई को, और दूसरी मुट्ठी ब्राह्मण देवता को दी। उत्ती राख को लेकर दोनों प्रसन्न मन विदा हुए। घोर वन में दूर तक चलने के बाद उनको रास्ता मिल गया। जब मार्ग मिला तब यमुना मिलीं। ये बढ़ी हुई थीं। नाई ब्राह्मण मजबूर हो खड़े हो गये। फिर यमुना तुरन्त याह में आ गयीं और ब्राह्मण नाई दोनों पार हो गये ।। २९-३४।।

नाई ने राख ला नाइन को दिया। यह राख तिलक के नेग में मिली है यह देखकर नाइन जल मरो। उसने क्रोध में आकर कहा, 'तुम्हारे इस कमाई में आग लगा दूंगी। हे नाई, तेरे इलो कमाई से मेरे बाल बच्चे जोते रहेंगे ? ऐसो कमाई में आग लगे। तुम कहते हो कि शिव ने तुम्हें अपना पवित्र रूप दिखाया। उसी का इनाम यह राख मिली है।' नाइन ने राख को खोलकर फेंक दिया और कहा कि 'इससे ज्यादा राख की ढेरों तो मेरे चूल्हे में लगी हुई है।' ॥३५-३९ ।।

जिस राख को नाइन ने बाहर फेंक दिया था उससे वहाँ सोने का घर बन गया। उसको देखकर नाई पछताने लगा। वह वहाँ से उठा और चलते चलते पण्डित जी के पास पहुँचा। पाँव पकड़ कर उन्हें प्रणाम किया और कहा कि 'हे पण्डित जो मेरी राख तो मार्ग में गिर पड़ी। अपनी राख में से ही कुछ मुझे भी दे दीजिये।' ॥४०-४२ ।।

इतनी बातें सुनकर पण्डित जी ने मन में विचारा और कहा, 'हे ठाकुर ! आधी भभूत तुम लेलो आधी मेरे लिये छोड़ देना।' पर नाई जब राख खोलकर लेने गया तो सब राख ले लिया और उसे घर ले आकर नाइन को दिया ।।४३-४५ ।।

उधर ब्राह्मण देवता ने एक काम किया। उन्होंने घर आँगन, सहन को लीप डाला और फिर अपना आँगन और बाहर की गली भी साफ करके उन्हें लीप दिया। उन पर चीक पूर कर उन्हें और पवित्र बना दिया। फिर उस पर वही राख छिड़क दो। बस सोना चाँदी से घर भर गया। इसकी सूचना जब नाई को मिली, तो वह ब्राह्मण के पास आया और उनसे बार-बार उनका हाल पूछा। तब नाई के वाक्य सुनकर ब्राह्मण देवता मन में हसे और हँसकर बोले-'तुम मेरा हाल क्या पूछते हो? देख आओ सब घर सोने चाँदी से भरे पड़े हैं' ॥४६-५१॥

'नाई ने जाकर उन्हें देखा और बहुत प्रसन्न हुआ। कहा कि 'शिव बाबा की राख में बड़े गुण हैं। हे महाराज, चलिये योड़ो सो, और राख उडा लावें । उसमें तो बड़े गुण हैं। शिव के साधक शिव भजो ओर जोवित रहो। शिव ज्ञानी कैलास में निवास करते हैं।' ॥५२-५३ ।।

'नाई के कैलास पहुँचते हो शिवजी ने डाँट कर कहा- तुझे जितना मन हो राख उठा ले।' इस पर तपसो नामक नाई ने राख बटोर कर पूरा चलने भर बाँध लिया और कुछ थोड़ी-सी राख जेवों में भी रख ली। वहाँ से वह राख लेकर जल्दी से रवाना हुआ और तेज चलता-चलता जब घर पहुँचा, तव नाइन उसे राख सहित लौटते देख कर बहुत प्रसन्न हुई। मारे खुशी के वह नहीं समझ सकी कि नाई को कहाँ उठावे और कहाँ बैडावे । झट उसने एक घर को लोपा फिर दूसरे को भी तुरंत पोत डाला और गाँठ से राख खोलकर सब जगह गिरा दिया। तब शिव के उस राख का प्रभाव ऐसा हुआ कि वह राख सारे घर में घूम गई और मारे राख के सर्वत्र घर आँगन भर गया। तब नाई ने (सोचा कि बची राख को भी छाड़ कर उसका प्रभाव देखें ।) थैली की जो राख बची थी, उसको भी वहीं ले जाकर गिरा दिया। अब राख इतनी बढ़ी कि बचे घर भी भर गये और नाई नाइन को सात दिन रात राख फेंकते फेकते लग गया। नाई हार गया तब भी राख नहीं फेंकी जा सकी। उल्टे बढ़कर वह बड़ेरी तक छू गयी। तब नाईन हारकर कहने लगी- 'हे अन्तर्यामी शिव अब क्या करोगे। हे नाई, अब तुम इस घर को छोड़ दो। चलो मड़ई बांध कर हम लोग अन्यत्र रह जायें। महा- देव बाबा ने यह शाप दिया है। लालच बुरी चीज है। मैंने बड़ा पाप किया। टाटी मड़ई छाकर अन्यत्र कहीं रहते जाय। शिव का शाप व्ययं नहीं जायगा।" शिव के ध्यान करने वालो शिव शिव बोलो। गौरी-भोग्य वर नहीं मिला। शिव दाढ़ी बढ़। ये रहते हैं। बार भी पके ही हैं। मुंह के दाँत भी सब टूट गये हैं। भाँग खाते हैं। मति सदा बौराई रहती है। ऐसा विवाह बल्कि न हो वही अच्छा है। हे महादेव शिव के भजने वाले तुम जोते रहो गोरी के योग्य वर नहीं मिला।' ॥५४ से ६८ तक ।।

'विवाह ठीक हो गया था। तिलक भी चढ़ गया था। अव बारात जानो थी। इसलिए शिव ने बारात की तैयारी को। उन्होंने नाऊ ब्राह्मण से कहा- हे ज्ञानी पण्डित और तपसी नाई मेरी बात सुनो। तुम लोग मेरा कहना करोगे कि नहीं? मेरे विवाह का निमंत्रण देश-देश में जाकर दे आओगे कि नहीं ?" इस पर ब्राह्मण ने कहा, 'हे ध्यानस्थ शिव महाराज मैं आपका कहना कैसे नहीं करूंगा।" और नापित और ब्राह्मण देश-देश में निमंत्रण देने के लिये उठ कर चल पड़े। उन्होंने कोट-पतंग को निमंत्रित किया। विभिन्न जीव-जन्तुओं को निमंत्रण दिया। चींटी, माटा, भूत और बैताल को नेवता दिया ।।६९-७४ ।।

'इधर शुक्र के दिन बारात सजी और शनिश्चर को देव वेला में रवाना हुई। दानवों ने अपने मुख से मसाल जलाई और सिआर और कुत्तों ने मार्ग दिखाया। शिव बारात सज कर कनकपुर के लिये चले। उन्होंने मार्ग में कोढ़ी का रूप धारण कर लिया और अपने शरीर पर नौ मन गूदड़ी (चीथड़े) लपेट लिया और असंख्य मक्खियाँ भन्न भन्न कर उनकी देह पर भिनकने लगीं। बिर्षली नागिनें जिनके तालू विषाधिक्य के कारण फूट गये ये, दोनों कान पर बैठी हुई थीं, फन फैला कर नाग गले में लिपटा हुआ था। गले में नरमुंड की माला शोभा देती थीं। युथुर साँप दोनों बाँह में लिपट कर विजायठ बन रहे थे। हे शिव के ज्ञान रखने वाले भक्तजन तुम जीवित रहो। गौरी के योग्य वर नहीं मिला।' ॥७४ से ८१ तक ।।

'इस तरह रूप सजा कर जव महादेव मंडप में आये, तब कलश की ओट से गौरी ने कहा- हे स्वामी, आप मेरी सखी सलेहरों से हँस कर बातें करना और उन्हें पावन रूप भी दिखाना। नहीं तो सब मेरे भाग्य को हँसेंगों और घर में हाहाकार मच जायगा। मेरी मा कहने लगेगी कि गौरी इस वर के साथ फंसे रह सकेगी। दिन रहते हो उसे साँप काट खायेंगे। भावज हँसेंगी कि शिव पागल हैं। पार्वती का मान टूट गया !!' गौरी के इन शब्दों को सुनकर महादेव को क्रोध हो आया। वे उठ कर मंडप से चल दिये। निकट बाग में जाकर डेरा डाल दिया। और उनके सौथ ही सारे बाराती भी वहीं पहुँच गये। तब पार्वती के घर वाले आपस में परामर्श कर दो-चार जन शिव को मनाने के लिये चले। उन्होंने जाकर शिव की विनती की और कहा- 'हे महादेव बाबा, आप धन्य हो। तीनों लोक के आप ही तारक हो। आप जिस पर प्रसन्न होते हो वह निहाल हो जाता है। उसके सुकर्म और कुकर्म का आप कुछ भी विचार नहीं करते। आप से ब्रह्मा और विष्णु दोनों डर के मारे काँपा करते हैं। आपके गण यमराज को भगा देते हैं। स्त्री को सब जानते हैं कि वह अल्प बुद्धि होती है। उसकी बातों को विचार- बान नहीं सुनते। इसलिये हे शिव ! आप इसका विचार न करें कि पार्वती ने क्या कहा और उसने जो आपकी हंसी कराई। उसका भी आप माखन माने। आप सबको इकट्ठा करके चलें और भोजन करें और गौरी से विवाह करें। हे शिव के साधक ! बम् बोलो और चिरंजीवी होओ। ज्ञानो शिव कैलास में वास करते हैं।' ॥८२-९५ ।।

'इतनी बातों को सुनकर महादेवजी हँसकर कहने लगे-सुनो, हमारे शुक्र और शनिश्चर नाम के दो चेले हैं। सर्वप्रथम वे हो भोजन करें। तब पीछे सारी बारात भोजन करने जायगी' ।।९६, ९७।।

इस पर गौरी को ओर से आये हुए व्यक्तियों ने कहा- ये दो आदमी जाकर क्या करेंगे ? केवल बदनामी भर होगी। वहाँ बाजार और सड़क पर सर्वत्र रसद फकी हुई है। पानी के लिये तालाब ताल सब भरे पड़े हैं। हमारी प्रार्थना है कि सब के साथ आप भी चलते और मण्डप की शोभा बढ़ाते । वहाँ नाना प्रकार के भोजन बने हैं। सब आपको आशा देखते पड़े हैं।' 11९८-१००।।

'इसको सुनते ही डाट कर महादेव जी ने कहा-वम् बोलो ! शिव के ध्यान करने वालों बम् बोलो। तुम अपनी बात तो करते हो और मेरी कही हुई बातों पर ध्यान तक नहीं देते। उन्हें छाँट देते हो' ॥१०१-१०२॥ 

'शिवजी को डाट सुन कर सब डर गये। ग्रामवासी थर-थर काँपने लगे। सब ने करबद्ध होकर प्रार्थना की और कहा कि हे शुक्र और शनि- श्वर महाराज, आर्पही चलिये ' ॥१०३-१०४।॥

'शुक्र और शनिश्चर उठकर भोजन करने चले। सब ने उन्हें लिवा जाकर स्थान पर बैठा दिया। पहले भोजन थोड़ा-थोड़ा परसा गया। फिर टोकरी में भर-भर कर दिया जाने लगा। वे दोनों सात दिन और सात रात तक लगातार भोजन करते रह गये। जो कुछ भी सामने था, रत्ती-रत्ती उन्होंने पेट में डाल लिया, तब भी भूख लगी रही और इधर सभी सामग्री समाप्त हो गई। तब शनिश्चर ने खीझ कर कहा-अभी तो यह पेट भरा नहीं। हे शुक्र, चलो उठो अब पानी पीओ।' ॥१०५-१०९॥

'यह सुनकर गौरी की ओर से दो चार वयोवृद्ध आये और हाथ जोड़कर बिनती करने लगे-आप क्यों अभी पानी पीजिएगा। अभी एक घर रसद और बची है। वह लायी जा रही है। वह रसद भी ले आकर परोसी गई और उसे भी शुक्र और शनिश्चर ने झटपट खा डाला। तब डाँट करके उन दोनों ने कहा- आप लोग समझ रखें कि यदि हमारी क्षुधा तृप्त नहीं हुई, तो हम लोग आप के सब हित नातों के पास जाकर आपकी शिकायत करके आप की प्रतिष्ठा नष्ट कर देंगे।' ।।११०-११६ ॥

'तब गौरी के यहाँ के सभी वयोवृद्ध पंचों ने मिलकर आपस में सलाह की कि अब बिना महादेव की कृपा के यह पार होने को नहीं है। तब दो चार व्यक्ति शिवजी के पास गये और करबद्ध होकर सामने खड़े हो विनती करने लगे- 'हे शिव, आप धन्य हो। अब तो गौरी के घर में कुछ सामग्री (खाने का सामान) नहीं बचा। शुक्र और शनिश्चर ने जो कुछ सामान इकट्ठा था सवखा डाला। अब आप ही के हाथों में गौरी की प्रतिष्ठा है। हे शिवजी, गौरी की प्रतिष्ठा तो आपकी हो प्रतिष्ठा है। उसको दुर्दशा तो आपकी हो दुर्दशा होगी! दोनों प्रतिष्ठाएँ आपकी ही हैं। अब हम लोगों के वश की बात नहीं रही।' ११७-११९॥ 

तब महादेवजी ने हँसकर कहा-'अच्छा थोड़ी रसद और कहीं से ले आओ ।' ॥१२०॥

'इस पर गौरी की ओर से दो व्यक्तियों ने कहा- 'हे शिवजी, हम सच कह रहे हैं, घर में अब कुछ शेष नहीं है।' ॥१२१॥

तब शिव ने कहा- 'अरे दो-एक चावल तो अवश्य कहीं-न-कहीं गिरे

हो होंगे। उन्हीं को ले जाकर परोसो।' ॥१२२॥

'वहाँ से पंच लोग घर आये और भंडार से दो-चार चावल बीनकर शुक्र और शनि के सामने धर दिये। उन्हीं चावलों को भोजन कर इन दोनों को तृप्ति हो गई। फिर उन्हीं दो-चार चावलों से टोकरी भर गईं। और सारी बारात भोजन करके तृप्त हो गई। जो बचा, उसे ले आकर लोगों ने जब घर में रखा, तो उनके धरते-ही-धरते सारा घर अन्न से भर गया। फिर उसमें से उफन कर दूसरे के घर भी भर गये। और अन्न के आधिक्य से सभी कोठियाँ (अन्न रखने के स्थान) फट गये।' ॥१२३-१२६ ॥

तब मैना ने कहा- 'अब तो भोजन करने को कोई बाकी नहीं बचा। अब चलो, दुलहा को बुलाओ। मंडप सजाओ और परछन का सामान ठीक करो। पाँचों पवनों को बुला भेजो। बाजा गाजा सब ले आओ। नेवत- हरियों की बारात द्वारे लगेगी, इसकी सूचना पहुँचाओ। हायो-घोड़ा आदि सवारी जनवासे (बारात ठहरने का स्थान) को भेज दो। गुरु और पुरो- हितजी को शीघ्र बुलाओ। नाई-बारी को शीघ्र आने को खबर दो। वम् बोलो अरे शिव के भक्त बम् बोलो। शिव ज्ञानी कैलास में निवास करते हैं।' ॥१२७-१३२ ॥

'तब महादेव बाबा ने बारात सजाई और गण नायकों ने धूधूक (बड़ी दुंदुभी) बजाई। (बिगुल बजते हो बारात सज गई) डाकिनी और शाकिनी खप्पर ले झम्म झम्म कर के नाचने लगीं। बिना सिर के बैताल ठट्ठा मार-मार कर हँसने लगे। बिना पाँव के पिशाच गण इधर-उधर दौड़ने लगे। किसी के नाक कटी है, तो किसी के कान ही नहीं हैं। कोई एक आँख का काना है, तो किसी की दोनों आँख ही चौपट हैं। कोई गदहे पर चढ़ा है, तो कोई मूसक को हो सवारी बनाये हैं। कुत्ते और सियार भूक भूक बाजा बजा रहे हैं। गण नायक लोग हँसते और खेलते हुए आगे बढ़े। वे कभी गाल (वम अम करके) बजाते हैं, तो कभी तुरहो फूंकते हैं। दोनों गाल ओर तुरही क्रम से बजाते चले जा रहे हैं।' ॥१३३-१३८ ।।

'शिव ने अपने पवित्र रूप को अमंगल बनाया। उन्होंने सवा वित्ते को पलक बना लो सवा गज को दाढ़ी बढ़ाई और नव गज की जटा सजाई शेषनाग को गले में लटकाया और विपॅलो नागिन' जिनके तालू फूट चुके थे, कानों पर बैठीं। युथुर साँप का बटुका (कंकन) बंधवाया और आप महा गलित कोढ़ो का रूप बना कर आगे बढ़े। फिर नव मन गंदे चीथड़ों को शरीर पर लाद लिया। उन पर असंख्य मक्खियां भनकने लगीं। एक वृद्ध बैल पर उलटा सवार हो गया उसके मुंह की ओर तो अपनी पीठ को ओर पूंछ का लगाम बनाया। चोल्ह और कौआ आकाश में उड़कर उन पर छाया करने लगे। और चमगोदड़ों ने अपने डने खोलकर शिव पर छत्र लगाया इस प्रकार जब बारात सज चुको, तब शिवजी ने प्रस्थान करने की आज्ञा दी' ।।१३९, १४७ ।।

'तब बारात गातो, नाचतो, रोती और हँसती हुई द्वारचार के लिये चली। बारात के पोछे-पीछे देवतागण हुलस-हुलस कर चलने लगे और शिव के (अमंगल) रूप को देखकर मन में मुसकाने लगे। ब्रह्मा और विष्णु तो मुख पर रूमाल दे देकर भीतर ही हँसने लगे; पर शेष देवगण तो ठठ्ठा मार-मार कर हँसने लने। जब बारात दरवाजे लगी, तब स्त्रियां सज-सज करके परिछन के लिये दरवाजे से बाहर हुई। जैसे ही मैना देवी आगे बढ़ीं, वैसे ही शिव जो पागल बन गये और गले के सर्प फुफकार छोड़ने लगे। नाइन ने उसे देखा और हाय-हाय करके कलश, सूप, लोहा (परिछन के सामान) को बहीं पटक दिया और भाग चली। (पर मैना को भय कहाँ ? उसे तो शक ने घर दवाया) उसके मुख से निकला- 'हाय मेरी गौरी तो जीते ही मर गई।" और वाक्य समाप्त होते हो होते वह मूछित होकर वहाँ गिर पड़ीं। एक पर एक गिरती हुई सब सखियाँ भाग चलीं। वे फिर-फिर कर पीछे की ओर देखती जाती थीं और भागती जाती थीं। मण्डप से भी सब स्त्रियां भाग चलीं। वहाँ अकेली गौरी कलश के पास बैठी रह गई' ॥१४८, १५६॥

'तब गोरी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने शिव की पूर्व प्रीति को मन में स्मरण किया। पूर्व जन्म की अपनी करनो और शिव का बार-बार समझाना, दक्षराज के यज्ञ का नाश, अपना जल कर भस्मीभूत हो जाना, और फिर शिव की तपस्या करना, सब को उन्होंने सोचा और अपने मन में ध्यान किया। और तब (व्याकुल और अधीर होकर) कहने लगीं- "हे शिव, बस कीजिए, बस कोजिए। आपने बहुत दण्ड दिया। मैं अपने पूर्व जन्म की कसाई पा चुकी। यह (विवाह) यज्ञ आपका ही है। मैं भी आपको ही हूँ। और यह लोक-लाज सब आप हो को है- अब और क्या शेव है, जिसके लिए मैं अभागिनी जीवित हूँ? आप सहायता करें, नहीं तो वैसो बात कहें। इतना कहते गौरी को आँखों से आंसू गिरने लगे और उन्होंने पलकें मूंद लीं। फिर मन में विलख-बिलख कर बिनती करने लगीं- हे महादेव, आप अन्तर्यामी हो। मेरी सभी बातें आप जानते हो। अब रक्षा कीजिये, नहीं तो आज्ञा दोजिये, यह तन भी सती को तरह जल जाय।' ॥१५७-१६६ तक ॥

'पार्वती की इस आर्त-पुकार को जानकर शिवजो हँसे। पुरानी प्रोति पूर्ववत जाग उठी। फिर यह सोच कर कि सली अव चेत गई, अपना अपराव आप हो समझ गई। शिवजी मुस्कराये। तब उन्होंने अपना पावन रूप धारण किया और (मंडप पर अकेली शोकमग्ना बैठी हुई) गीरो की आँखों में प्रवेश किया अर्थात् उन्हें दर्शन दिया। गौरी (पावन रूप का) दर्शन पाकर धन्य-धन्य कह कर शिव के पैरों पर गिर पड़ीं और प्रेम में विभोर हो गई। वह गद्गद होकर फिर वोड़ीं- 'हे शिव, इस रूप को अब मेरी माता जो को दिखा दोजिये। हे स्वामी, आप धन्य हैं। अब मेरी माताजी को बचाइये।" पार्वती के इस वचन को सुनकर शिव भगवान् बाहर दरवाजे पर आये और सखियों ने उनके पावन रूप को देख दौड़ कर मैना को जगाया। 

भोला को देखकर मैना पुलकित हो गई। गोत गा-गाकर उनका परिछन होने लगा। तब तक सखियाँ भी आ गई और मंगल गाने लगीं। साली सर- हज सब हवित हुई। परिछन के बाद संना ने शिव को प्रणाम किया और मन में मारे प्रेम के गदगद हो उठीं। वे जार-वार भोला के रूप को सराहने लगीं और कहने लगीं कि गोरी को तपस्य अव सफल हुई। भोला मंडप में आये और पार्वती के साथ भांवर घूमे। गौरी पुलक-पुलक कर भाँवर के सात पग चलीं, विवाह हुआ, तब गौरी और शिव कोहबर (सुहाग भवन- में) गये। वहाँ साली और सरहज ने शिवजी से व्यंग-परिहास करना प्रारम्भ किया। शिव स्वयं हँसे और सब उपस्थित स्त्रियों से हँसो कर उन्हें भी हंसाया। इस तरह उन्होंने गौरी को कामना को पूरी किया साथ ही ससुराल की अन्य स्त्रियों को लालसा को भी पूरा किया। ठीक देववेला में शुक्रोदय के साथ हो गौरो का गवना हुआ। गौरी माता मैना और भावज को पकड़- पकड़ कर जाते समय बहुत रोई और भाई और भतीजों से भेंट कर अपनो सखियों के गले लगीं। सब ने मिल कर एक साथ गौरी को आशीर्वाद दिया कि तुम लाख वर्ष तक सिन्दूर धारण करो। हे शिव के ध्यान करने वाले बम् बोलो बम् बोलो। ज्ञानो शिवजी कैलास पर्वत पर निवास करते हैं' ।।१६७ से १८२॥

( २७ )

बउरहवा देखलों ये ननदी कमरिया ओढ़ले जाला रे ।। भांग धतुरवः चवात जाला गरवा मिरिग छाला रे ।।

बउरवा देखलों ए ननदी० ॥

बह बएल पर चढ़ल जाला संगवा में लेले वैताला रे ॥

बउरहवा देखलों ए ननदी० ।।

हाथ त्रिमूल गले मुंडमाला गीरी के वर मतवाला रे ।। बउरहवा देखलो ए ननदी० ।। 

भोली भाली ग्रामीण बहू मार्ग में शिव को जाते देखकर आश्चर्य्य चकित हो अपनी ननद से कह रही है- हे ननद, मैंने पागल शिव को तो अभी देखा। कमरी ओढ़े चले जा रहे थे। भंग और धतूरे की पत्ती चबाते हुए, गले में मृगछाला लपेटे वे चले जा रहे थे। वे वृद्ध बैल पर चढ़े मस्त आगे बढ़ते जा रहे थे और उनके संग में बैताल थे। उनके हाथ में त्रिशूल था। गले में मुंडमाला थी। हे ननद गौरी का वर तो निरा मतवाला है। मैंने अभी उसे देखा, वह सनकी है।'

कितना स्वाभाविक चित्रण है। भोलोभाली ग्राम-बधू का हृदय शिव के इस रूप से अधिक कह हो क्या सकता है ?

( २८ )

तोरे पर वारी सँवरिया हो दुलहा, तोरे १२ वारीं सवलियाँ हो दुलहा ।।

सिर पर चीरा, कमर-पटपीला, ओढ़े के गुलाबी चदरिया हो दुलहा ॥१॥

तोरे पर वारीं सवलियाँ हो दुलहा ।। तोरे० ।। गरे बीच हीरा मुख बीच वीरा, विहसिनि करेला कहरिया हो दुलहा ॥२॥ तोरे पर वारीं सवलियाँ हो दुलहा ।। तोरे० ।। छैला, छत्रीला, नोकीला, रँगीला, पहीरे ले जामा केसरिया हो दुलहा ।।३।।

तोरे पर वारों सवलियाँ हो दुलहा ।। तोरे० ॥ भहुआँ कमान, नयन बान तानि मारे, भरि भरि के काजर

जहरिया हो दुलहा ॥४॥ तोरे पर वारों सवलियाँ हो दुलहा, तोरे ।

मिथिला के डोमिनि सलोनी सुकुमारी, लागेली सारी सरहजिया

हो दुलहा ।।५।। तोरे पर वारी सवलियाँ हो दुलहा, तोरे ।। सुधि बुधि भूलि भइली प्रेम मतवारी, पड़तहीं बाँकी नजरिया

हो दुलहा ॥६॥ तोरे पर वारों सवलियाँ हो दुलहा तोरे ॥ 

अब त तोहार हम पीछवा ना छाड़वि, जइवों संग अवधि नगरिया हो दुलहा ।। ७ ।।

तोरे पर वारीं सवलियाँ हो दुलहा० तोरे० ।।

पतलों मड़इया बनाइ के बसवों तोहरे महल पीछुअरिया

हो दुलहा ॥ ८ ॥

तोरे पर वारीं सवलियाँ हो दुलहा ।। तारे० ।। सरजू किनारे हम जाके बहारवि, सांझ सबेरे दुपहरिया

हो दुलहा ॥ ९ ॥

तोरे पर वारी सवलियाँ हो दुलहा० तोरे० ।। ओहि ठइयाँ मिलबि नहाये जब जइव, प्रान जीवन धनु धरिया

हो दुलहा ।।१०।।

तोरे पर वारीं सवलियाँ हो दुलहा, तोरे० ।। तोरे लागि मांगवि दुकाने दुकाने, कउड़ी त बीच बजरिया

हो दुलहा ॥११॥

तोरे पर बारों डोमनिया हो दुलहा० तोरे० ।। नेह लगलि नाहीं जइहों अनत कहूँ, असहीं बिताइवों उमरिया

हो दुलहा ।।१२।। जनकपुर की डोसिन दुलहा के रूप में राम को देखकर उन पर मोहित हो कहती है'-

'साँवले रंग के बुलहा मैं तुझ पर वारि गई। सिर पर पाग है, कमर में पीत वस्त्र है, और गुलाबी चादर ओढ़े हो, हे दुलहा ! मैं तुम पर बलि- हारी हूँ।'

'तुम्हारे गले में होरे का हार है। मुख में पान का बीरा है। और हे सांवले, तुम्हारी हँसो तो मेरे हृदय में कहर मचा देती है। मैं तुम पर बलि- हारी हूँ ॥२॥

'तुम छैला हो छत्रीले और नोकीले हो और कितने सुन्दर केसरिया जामा पहने हो। हे सांवलिया! मैं तुम पर बलिहारी हूँ' ॥३॥ 

'तुम्हारी भौहें कमान हैं। कटाक्ष के वाण तान-तान कर मार रही हैं। और यहीं तक नहीं, उन बाणों को वे काजल रूपी विष से भर-भर कर चला रही हैं। और मैं घायल हो रही हूँ। हे दुलहा ! मैं तुम पर बलिहारी हूँ' ।।४।।

'हे सांवलिया में मिथिला को सलोनी और सुकूमारी डोमिन हूँ। मैं भी आप को साली सरहज रिस्ते में लगती हूँ। मैं आप पर बलि हारो हूँ' ॥५॥

'हे दुलहा, आपकी तिरछी नजर पड़ते हो मैं अपनी सुधि-बुधि भूल कर आपके प्रेम में बावली हो गई हूँ। हे साँवलिया, मैं आप पर बलि- हारी हूँ' ॥६॥

'हे राम, आपका पोछा अब नहीं छोडूंगी। आपके संग मैं अवध नगरी चलूंगी। और वहाँ सरपत को कुटिया बना कर आपके पोछे बसूंगी। मैं आप पर बलिहारी हूँ' ।।७,८।।

'हे प्रियतम, (मैं आपको कलंकित नहीं करूंगी) मैं सरयू नदी का किनारा सबेरे, शाम और दोपहर को जाकर बुहार कर साफ करूँगी और आपसे उसी स्थान पर, जब आप स्नान करने जायेंगे, तो मिल लिया करूंगी। हे मेरे प्राण जीवन रूपी धनुष बाण को धारण करने वाले राम जी, मैं आप पर वार गई बार गई ।।।९, १०।।

'हे राम' में (आप पर अपना बोझ नहीं दूंगी आपके पूजा अर्चन के लिये भी मैं आपसे कुछ नहीं मागूंगी) मैं आपके लिये बीच बाजार में दुकान दुकान घूम कर कोड़ी कोड़ी भिक्षा माँगूंगो (और उसी से अपना गुजर करूँगी और आप की पूजा करूंगी) मैं आप पर वार गई' ।।११।।

'हे प्रियतम, अब यह प्रेम की लता दूसरे ठोर नहीं जायगो। यह अब इसो तरह (आजन्म त्याग व्रत धारण कर आपके प्रेस में) अपनी आयु व्यतीत कर दूंगी। हे साँवलिया, अब मैं तुम पर वार गई। ॥१२॥

पाठक विचारें इस गीत में प्रेम का कितना सुन्दर और आदर्श रूप मिथिला की डोमिन ने खींचा है। कितनी सुन्दर सूक्तियाँ हैं। भावना को किस सूक्ष्मता और स्वाभाविकता से व्यक्त किया गया है। एक मलिक के मुख से जब मैंने इस भजन को सुना, तब मैं इतना विभोर हो गया था कि एक ओर तो डोमिन द्वारा वणित राम का कल्पित चित्र मेरो आँखों के सामने दिखाई पड़ रहा था और दूसरी ओर सलोनी, सुकुमार पर त्यागी योगिनो के रूप में डोमिन का स्वरूप महल के पीछे कुटिया में, सरजू तोर सांझ-सबेरे और दुपहरी में रास्ता बुहारने और राम के आने और दर्शन करने की प्रतीक्षा करते दृष्टिगोचर हो रहा था और उस समय मेरा हृदय तन्मय हो आँखों से आँसू बहा रहा या "असहीं बिताइबों उमिरिया हो दुलहा" को सुन-सुन कर। पाठक, त्यागो प्रेमिका का यह रूप मैंने अन्य कहीं पढ़ा है कि नहीं, यह मुझे स्मरण नहीं होता।

( २९ )

बसहा चढ़ल सिव अइलें वरिअतिया, बनवारी हो गोड़वा में फाटलि वेवाई ॥१॥

कवहूँ न भइले से भइले मोर दुअरिया, बनवारी हो आइ गइले मूत के बराति ॥२॥ अइसन बउराह बर से गउरा नाहीं विअह्नि, बनवारी हो

बलू गउरा हिहें कुआँरि ।।३।। नारद बावा के का हम विगरलीं, बनवारी हो हमरा के दीहलन उजारि ॥४॥

मैना शिव को बारात देखकर कह रही हैं।

'शिवजी बसहा बैल पर चढ़े हुए बारात में आये, हे बनवारी उनके पैर में बेवाय फटी हुई है।' ॥१॥

'हे बनवारी, जो कभी नहीं हुआ था, वही आज मेरे दरवाजे पर होकर रहा। हे बनवारी, भयानक भूतों की बारात द्वार पर आ लगी ।' ॥२॥ 'ऐसे बौराह वर से मैं गोरी का ब्याह नहीं करूँगी। हे बनवारी, गोरो चाहे कुँआर हो क्यों न रह जायें। मैंने नारद मुनि का क्या बिगाड़ा था कि उन्होंने मुझे उजाड़ दिया।' ॥३,४।। 

( ३० )

विरही सैयाँ हो तोरी बोलिया करेजवा में सालेला । बिरही सैयाँ ।।

भरल कटोरा दूध के, तामे परि गैले कौर । केते आसिक मरि गइले, केते भइले फकीर ।। पाती गिरलि पहाड़ से, पवन ले उड़ि के जाउ । संगति छूटल पीव के, ई दुख सहल न जाउ ।। राधा बइठलि सेज पर, धरि छाती पर हाथ । देव गोसइयाँ मउवति, नात पिया के साथ ।। बिरही सैयाँ हो तोरी बोलिया करेजवा में साले ।

अर्थ सरल है।

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुंवरि से प्राप्त भजन)

( ३१ )

देख सखी वंसी वाजे ला जनक घरे ॥ देख सखी ।। सोने के गेड़ आ गंगा जल पानी, पनिया लिए हम ठाढ़ि ।। देख० ।। बंसिया बाजेला सुनो बंसिया बाजे ला जनक घर हो ।। देख० ।। अर्थ साफ है।

( ३२ )

होली (भजन)

छवि देखलाइ जा वाँका संवलिया, ध्यान लागों पिया तोरे रे जिया ध्यान लागों जिया तोरा रे ।। बाँका चितवन नयन रसीला, चालि चलत मतवारी रे, सखी चाल चलत मतवारी ॥ २ ॥ ध्यान लागों ।। 

बन बन फिरली तोहरे करनवा, तापर से अँधिअरवा ए सखि ध्यान लागों जिया मोरा ॥ ३ ॥ ध्यान लागों ।। काह करों कित जाऊँ सखी हो, ना माने जिया मोरा रे, सजनी ना माने जिया मोरा ॥ ४॥ ध्यान० ।।

अर्थ साफ और सरल है।

( ३३ )

जा जा हो कन्हाई जहाँ राति रइनि गंवाई ।। सारे रइनिया सवति संग सोवल, हिलमिल रइनि गंवाई ।। भोर भइले पिया मोरे लगे अइल, कहे ल बाति बनाई ।। १ ।। जाजा०।। हम से ना बोल घुंघट मति खोल, मति छूञ नरम कलाई ।। देवों में सासु जगाई, सभे लाज खुलि जाई ॥२॥ जा जा० ।। अतर गुलाब राति दिन ऊड़े, दिन राति गाइ उड़ाई ।। हिलमिल रइनि सवति संग सोवल, हमसे करेल बड़ाई ।।३।। जा०।। अर्थ सरल और साफ है।

( ३४ )

होलो (भजन)

बन चलेले दूनों भाई कोऊ समुझावत नाहीं । आगे आगे राम चलेले पीछवा लछुमन भाई । ताहि पीछे सीता सूनरि सोभा बरनी ना जाई ॥१॥ कोई समुझावत० ॥

केकरा बींना सून अजोधेआ, केकरा बिना चौपाई । केकरा विना मोरी सूनी रसोइया, के मोरे भोजन बनाई ॥२॥ कोई समुझावत नाहीं ।।

भूखि लगले कहाँ भोजन पइहें, पिआसि लग ले कहाँ पानी । 

नीनिया लगले आसन कहाँ, काँट कूस गड़ि गाई ॥४॥ कोइ समुझावत जाहीं ॥

अर्थ सरल और साफ है।

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुंवरि से प्राप्त)

( ३५ )

घिमिर विमिर डमरू वाजेला सिव भइलें असवार । बसहा बैल चढ़ि उमत आवेलें, जगत देखलो ना जाय ।। धियाले में उड़वि, धियाले में बूड़वि, धिया ले में धँसबि पताल । अइसन वउराह वर के धिया में ना देवों, बलू गौरा रहिहें कुंआर ।। जनि आमा उड़नु जनि आमा वूड़हूँ जनि आमा बॅसहु पताल । पुरव जनम केर लिखल तपसिया से कइसे मेटल जाय ।। जाटा देखि डेरइबू हो बेटी, भभूति देख निर घार ।

सर्वात देखि बेटी मनहीं झुरइबू कवन विधि भुगुतवु राज ।। जाटा मोरे लेखे अगर चंदन, भभूति मोर अहिवात । सवति मोरा लेखे सखिया सलेरि, ओही विधि भुगतवि राज ।।

विवाह का समय है। शिव अपने अद्भुत साज-सामान से वारात ले आये हैं। उसको देख मैना का मातृ हृदय सन्तप्त हो उठता है। मैना ने झट निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो, ऐसे वीराह वर से गोरो का विवाह कदापि न होगा। रंगभंग होते देख गौरी ने हस्तक्षेप किया। माँ-बेटी का तर्क-वितर्क और अन्त में बेटी का शिव के प्रेम पर संतोषपूर्वक आत्मोत्सर्ग करना कितना सुन्दर स्वाभाविक तथा हृद्गत भावों का द्योतक है यह देखते ही बनता है। बारात और शिव का वर्णन कितना संक्षिप्त, साथ हो सजीव है। अर्थ देखिये -

'धीरे-धीरे डमरू बज रहा है। शिवजो सवार हुए। बसहा बैल पर चढ़े उमते हुए (ऊँघते हुए) चले आरहे हैं। उनका यह ऊँधना मुझसे देखा भी तो नहीं जाता।' 

'मैं कन्या को लेकर उड़ जाऊँगो, कन्या को लेकर डूब मरूंगी। अयवा कन्या को लेकर पाताल में समा जाऊँगी, किन्तु ऐसे बौराह वर को मैं कन्या नहीं दूंगी। चाहे वर कुमारी ही क्यों न रहे।'

'माँ ! तुम उड़ो मत, डूत्रो मत, पाताल में मत समाओ। पूर्व जन्म

का लिखा हुआ तो यह तपस्वी है। यह किस तरह निटाया जा सकता है।'

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुंवरि से प्राप्त)

( ३६ )

फुल लोहे चलली गउरा देई राम ओही फुलवारी । बसहा बैल चढ़ल महादेव लावेले गोहारी ।। फूल जानि लोढ़ गउरा हमरि दोहाई । लोढ़ल फुल ए गउरा देवों छितिराई ।। उहवा से अइली गउरादेई राम बइठे मन मारी । पूछेली माई मंदागिन बिलम कहाँ हमरा से का पूछेलू आमा पुछु सखिया से होई ।। रामा । बसहा चढ़त महादेव राम राखे बिलमाई ।। मति तोरा गइली ए गउरा अकिलि भुलाई । आपन पुरसवा ए गउरा सेहु ना चिन्हाई ।।

'पुष्प चुनने के लिए गौरी उसी पुष्प वाटिका में गईं, या जान बूझकर माता के द्वारा भेजी गई। बसहे पर बैल पर चढ़े भिखारी शिव आकर पुकारने लगे। उन्होंने तोड़े हुए फूल बिखेर देने की धमकी दी और अपनी दुहाई देते हुए बिना आज्ञा के फूल तोड़ने से मना किया।'

'वहाँ से गोरी घर आई और मन मार बैठ गई। माँ ने पूछा- देर कहां हुई। उत्तर मिला- मुझसे क्या पूछती हो, सखियों से पूछ लो। सखियों ने कहा- "यसहे बैल पर चढ़े हुए शिव ने आकर विलमा लिया था !' 

'माँ ने कहा- अरे गौरी, तेरी बुद्धि मारी गई ! तुझे अपना पुरुष भी नहीं पहचान पड़ा ?'

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुंवरि से प्राप्त) ।

(३७)

मोरे उमता बउरह्वा सिव केने गइले रे माई । भुला गइले रे माई ।।

जवनी बटिए महादेव जइहें लोगवा देखि डेराई । लोगवा देखि पराई ।।

केहू नाहीं हितवा अइसन असनिया दे बइठाई । मोरा उमंता बउरहह्वा० ।।

सिवजी का गोड़वा में फटली वेवाई । जो सिवजी घरवा अइतें करिती हम दवाई ।। मोरा उमता बउरहवा० ।।

गाया खोजलों कासीं खोजलों कतहीं ना मिलेरे भाई । सिव हईं भोलानाथ ए माई ।।

मोरा उमता बउरहवा सिव भुला गइले रे माई ।।

'हे माँ मेरे ऊँघते बौराह शिव किधर गये। हे माँ ! मेरे ऊँघते बौराह शिव भटक गये। जिस मार्ग से महादेव जायेंगे, लोग देखकर डरेंगे और भागेंगे। हमारा कोई ऐसा हितू नहीं जो उन्हें आसन देकर बैठावेगा। हे माँ, मेरे बोराहे शिव कहाँ गये? शिवजी के पाँव में बेवाय फड़ी है, यदि वे घर आते, तो मैं उनकी दवा करती। हे माँ, मेरे शिव भूल गये। मैंने गया और काशी में उन्हें खोजा। वे भोले शिव कहीं नहीं मिले। मेरे ऊँघते बौराह शिव भटक गये।' 

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुँवर से प्राप्त)

( ३८ )

तोहें के बुधि देला ए उमता। लोट ए उमता ।। लालि पलंगि पर पचरंग के तकिया छाड़ि भुइ साल दुसाल सिव मनहीं ना भावे मृगछाला ओढ़ि बइठ ए उमता ।। खोआ मलाई सिव मनहीं न भावे भाँग धतूर घोरि पीअ ए उमता ।। सोने के गजरा मोतिन के माला छाड़ि सरप गले लाव ए उमता ।। कोठा अंटारी सिव का मनहीं ना भावे टुटही मड़इआ में बइठ ए उमता ।। तोहें के बुधि देला ए उमता ।।

'हे उमता (मतवाले) तुमको कीन बुद्धि देता है, कौन सिखाता है कि लाल पलंग और पांचों रंग के तकिया को छोड़ कर पृथ्वी पर लेट रहते हो ? शाल-दुशाले तो अच्छे ही नहीं लगते। और हे उन्मत्त तुम मृगचर्म ओढ़कर बैठे रहते हो। तुमको (ऐसी) बुद्धि कौन देता है। हे उन्मत्त तुम्हें खोआ मलाई तो अच्छी नहीं लगती; किंतु भांग धतूरा घोंटकर पी लेते हो। सोने के गजरे और मोती की माला छोड़कर तुम सर्प गले में लपेटे रहते हो। कोठा और अटारो तुम्हारे मन को नहीं सुहाती और टूटी झोपड़ी में बैठ रहते हो। तुमको कौन बुद्धि देता है।'

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुंवरि से प्राप्त)

( ३९ )

माई पूछे धिजवा से जे अवरु हेतु लाइ, कइसे कइसे रहलू ए गउरा बउरहवा का पासें । कइसे कइसे रहलू ए गउरा तपसिया का पासें ।। भउजी जे रहतू, ए आमा कहितों समुझाई, तोहरो त सुनले ए आमा करेज फाटि जाई । भंगिया पीसत ए आमा हथवा खिअहइलें, धतूर मलत ए आमा जिअरा अकुलइलें । अइसे अइसे रहली ए आमा तपसिया का पासें ।। बाघछाला डासन ए आमा मृगछाला ओढ़न । भसम की झोरिआ ए आमा से हो सिरआसन ।। अइसे अइसे रहली ए आमा जोगिया का पास । लटियनि लटियन ए आमा नाग फुफुकारे ।। जटवनि जटवनि ए आमा विछिआ बिअइले । ओइसे ओइसे रहली ए आमा जोगिया का पास ।।

'और और कारणों से माता कन्या से पूछती हैं कि हे गोरी, किस भाँति तुम बौराहे शिव के पास रहीं? उस तपस्वी के पास कैसे रहीं ?'

'गौरी ने कहा-- हे अम्ना ! यदि तुम भावज होतो, तो मैं कुछ समझा कर कहती भी। तुम्हारा कलेजा तो सुनते ही फट जायगा। हे अम्मा ! भांग पीसते-पोसते तो मेरा हाथ घिस गया। धतूरे को मलते-मलते मेरा जी ऊब गया। हे माँ ! इस तरह में बीराहे के पास रही। हे माँ ! व्याघ्र चर्म तो बिछौना और मृगचर्म ओढ़ना था। हे माँ ! भस्म की झोली तो सिरहाने (तकिए का काम देती थी) थी! इस तरह से हे माँ ! मैं योगी के पास रही। हे माँ, बाल की लटों में नाग फुफकारा करते और जटाओं में बिच्छू बच्चे दिये रहते थे। हे माँ ! इस तरह मैं योगी के पास रही।'

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुंवरि से प्राप्त।)

( ४० )

मोर सिव चललें विआह करे हो । आहो मोर० ।। आँधी पानी घेरि अइले हो ।।

आँधी अंधकउलि अइले पानी छछकाल अइले हो । आहो भींजत भीजत सिव अइले ओरी तरे ठाढ़ भइले हो ।। 

खोल गौरा खोल गौरा सुवरन केवरिआ नु हो ।। आहो गौरा खोल ना सुवरन केवरिआ त ओरी तरे ठाढ़ भइली हो ।। फाँटी मोरा तेलवा ना बोरसी मोरा आगीवाड़े हो । कोरवा सुतल वेटा गनपत ओरी तरे सिव लोटि रहीं हो ।। काँटी भरल तेलवा बोरसी भरल आगीवाड़े हो ॥ खटिआ सुतल वेटा गनपित उनगन गोरा मति कर हो । आहो तोहरा बाप मोरा हाथे वेचलनि गीरा ठनगन मति कर हो ।।

केंगला के चिअवा भिखरिआ के बहिनी तू हो ।।

'अरे! हमारे शिव विवाह करने चले। अरे ! हमारे शिव विवाह करने चले। आँधी चलने लगी-और पानी बरसने लगा। आँधी से अँधेरा हो आया। पानी से (छछकाल) कोच और पानी सब और भर गया।' 'अरे ! भीगते-भोगते शिव आये और ओरोके नीचे खड़े हुए पुकारने लगे-अरी गौरी स्वर्ण कपाट खोलो। अरी गौरी ! स्वर्ण कपाट जल्द खोलो। मैं औरी के नीचे खड़ा खड़ा भीग रहा हूँ।'

'गौरी ने कहा- मेरे तेल को कांटो में तेल नहीं है कि इस अँधेरे में दोप जलाकर केवाड़ खोलूं। न बोरसी में लकड़ी के अभाव से आग ही है कि अंजोर करके कपाट खोलूँ। मैं स्वयं भी खाली नहीं। गोदी में बेटा गणपति सो रहा है। हे महादेव ! आज रात ओरी के ही नीचे सो रहिये।'

'शिव ने मुस्करा कर मानिनी के मान से टुक आहत होकर कहा-अरे ! काँटी में तो तेल भरा है। बोरसी में आग भी भरी है। और बेटा गण- पति तो खाट पर सो रहा है। हे गोरी! तुम झंझट न मोल लो। तुम कंगाल को कन्या हो। भिखारी की बहन हो। तुम्हारे पिता ने तुम्हें मेरे हाथ बेच दिया है। हे गौरी! मुझसे ठनगन न करो।'

कितना सुन्दर चित्रण है हास्य और करुणा दोनों रसों के संमिश्रण का! कितना सुन्दर परिपाक रसों का हुआ है ! 

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुंवरि से प्राप्त)

आँई ए माई! सपना के करीना विचार। कवना देस बजन एक बाजेला, केकर होला बिआह ॥ तूही अयानी गौरा ! तूही गिवानी गौरा ! तूही पंडितवा के धीय ! मोरंग देस बजन एक बाजेला, सिवजी के होला बिआह । किआ हो महादेव ! चोरिनी से चटनी ? किआ हम कोखिआ विहीन ? किआ हो महादेव ! सेवा से चुकलीं। काहे कइलीं दूसर बिआह ? नाहीं ए गीरा देई ! चोरिनी से चटनी। नाहीं तूहूँ कोखिआ विहीन । नाहीं ए गीरा देई ! सेवा से चुकलू भावी कइलसि दोसर बिआह । पहिरु गोरा देई ! इजरी से पीथरी सवति परिछि बलु लेहु । किआ मोरी हउई जर रे जिठानी किजा हउई पूत बहुआरि । इहो त हई मोरा जनमे के सवतिया मोरा पीठि दरेली अँगार । इंड़िआ ज्यारि जब देखेली गउरा देई, इत हुई बहिनी हमार । तीनू भुवन बहिनी ! बर नाहीं जूरल, भइलू तू सवति हमार ।।

( ४१ )

'गोरी कह रही हैं- हे मां ! मेरे स्वप्न का विचार करो। रात मैंने एक स्वप्न देखा है कि किसी देश में बाजा बज रहा है और किसी का विवाह होने जा रहा है। सो हे माँ ! किस देश में यह बाजा बजता है और किसका विवाह हुआ है ?'

'गौरी की माँ शिव के दूसरे विवाह के होने की बात सुनकर खोझो हुई थी हो। गौरी पर भी नाखुश थी कि इतनी भोली है कि इस संबंध में कुछ ज्ञान हो नहीं रखती। उन्होंने झल्लाकर कहा-अरी गोरी ! मुझसे क्या पूछती है। तुम खुद ही तो मानो ज्ञानी हो, तुम स्वयं ही पंडित की कन्या भी हो। अरी बावली, यह बाजा मोरंग देश में बजता है और तुम्हारे शिवजी का ही दूसरा विवाह हो रहा है।' 

माता के इस सरोव व्यंग को सुनकर गोरो के होश अब ठिकाने आये । उनको अव चेत हुआ। वे दौड़कर शिव के पास गई और पूछा-कहिए भगवान् ! में पूछती हूँ कि क्या में चोरनो हूँ या चटनी हूँ? या में बन्ध्या हूँ अर्थात् बाँझ हूँ। यह भी बताइये कि मैं क्या कभी भी आप को सेवा से चूकी हूँ ? यदि नहीं, तो आपने क्यों दूसरा विवाह किया ?'

'शिव ने कहा- हे गोरी देवी! तुम न तो चोरनो हो न चटनी हो हो और न तुमसे कभी मेरी सेवा में कोई चूक हो हुई और न तुम सन्तान विहोन बांझ स्त्री हो हो। हे देवो! क्या कहूँ यह प्रारब्ध था कि दूसरा विवाह करना पड़ा। हे गोरी देवो! पोला वस्त्र पहनो और अपनी सौत को परोछ कर उतार लाओ।'

'गौरी ने कहा-अरे यह क्या मेरो जेठानी हैं? या यह मेरे पुत्र को बहू है कि मैं परीछने जाऊँ, अरे! यह तो हमारो जन्म को सवति है! यह सदा से मेरी पीठ पर अंगार मलती चली आई है।'

'परन्तु इतना रोष करने पर भी सती का जो पति से विरोध करने का नहीं हुआ। पति की आज्ञा का उल्लंघन गौरी से नहीं हो सका। छाती पर पत्थर रखकर वह सोत परोछने के लिए निकल पड़ीं। डाँड़ी का ओहार उधार कर उन्होंने जो भीतर देखा, तो चिल्लाकर कह पड़ीं-अरे, यह तो हमारी यहन है। हे बहन ! तीनों लोक में तुझे कहीं वर नहीं मिला कि तुम मेरी सौत बनने यहाँ आई ?'

कितना मामिक वर्णन है।

(परम पूजनीया पितामही श्री धर्मराज कुंवरि से प्राप्त)

( ४२ )

मित्र जी जे चललें उत्तरो वनिजिया गउरा मदिलवा बइठाइ हो । बारह वग्सि पर बइले महादेव, गउरा से मागेंले विचार हो ।। ए गउरा से मांगेले विचार हो ।। 

राम दोहाई परमेमर किरिए दोसर पुरुस कइसन होइ हो । एहो करिअवा गउरा ! हम नाहीं मानवि अगिनि विचरवा मोहि देहु हो ।। जब रे गउरा देई अगिनि हाथ लिहली अगिनी रइली मुरुझाई हो । इहो किरिअवा गउरा ! हम नाहीं मानवि तुलसी विचरवा मोहि देहु हो ।। जब हो गउरा देई तुलसी हाथे लिहली तुलसी गइली झुराई हो । इहो किरिअवा गउरा ! हम नाहीं मानवि मुरुज विचरवा मोहि देहु हो ।। जब हो गउरा देई सुरुज माथ नवली सुरुज छपित होई जाई हो । इहो किरिअवा गउरा ! हम नाहीं मानवि गंगा विचरवा मोहि देहु हो ।। जब हो गउरा देई गंगा बसली गंगा में परि गइलें रेत हो । इहो किरिअवा गउरा ! हम नाहीं मानबि सरप बिचरवा मोहि देहु हो ।। जब हो गउरा देई सरप हाथ लिहली सरप बइठले फेटा मारि हो ।. फाटहु धरती ! हमहूँ समाइबि अब नाहीं देखबि संसार हो ।। अबकी गुनहिए गउरा ! बकसहु हमरा के होई जइबों दास तोहार हो ।

'शिवजी तो चले उत्तरा खण्ड की ओर और गोरी को मंदिर में बैठा गये। बारह वर्ष पर महादेव आये और गौरी से विचार मांगने लगे। बारह वर्ष पर महादेव आये और गौरी से उनके सतीत्व का प्रमाण माँगने लगे।'

'गौरी ने कहा-राम को दुहाई है, परमेश्वर की शपय है, मैंने नहीं

जाना कि दूसरा पुरुष कैसा होता है।'

'शिव ने कहा- हे गौरी! यह शपथ मैं न मानूंगा। मुझे अग्नि परीक्षा दो। जब गोरी देवी ने आग को हाथ में लिया, तब आग ठंडी हो गई।' 'महादेव ने पुनः कहा- हे गोरी! इस शपथ को भी मैं नहीं मानूंगा। मुझे तुलसी की परीक्षा दो। जब गौरी देवी ने तुलसी के बिरवा को हाथ में लिया, तब वह सूख गया' ।।

'शिव ने पुनः कहा- हे गौरी, इस शपथ को मैं नहीं मानूंगा, मुझे सूर्व को परीक्षा दो। जब गौरी ने सूर्य को माया नवाया, तब सूर्य भगवान् छिप गये । 

महादेव ने कहा-अरी गौरी! इस शपथ को मैं नहीं मानूंगा। मुझको गंगा की परीक्षा दो। जब गौरी देवी ने गंगा में प्रवेश किया, तब गंगा में रेत पड़ गई।'

'महादेव ने इस बार फिर कहा- हे गौरी! इस शपथ को भी मैं नहीं मांगा, मुझको सर्प की परीक्षा दो। जब गौरी ने सर्प को हाथ में लिया, तब सर्प कुण्डली मार कर बैठ गया।'

'इस परीक्षा के बाद गौरी देवी से अधिक नहीं सहा गया। बारह वर्ष का वियोग ही बिना आधार अकेली कुटिया में क्या कम यातना थी कि अब यह परीक्षा पर परीक्षा ली जा रही है। उन्होंने बसुन्धरा को सम्बोधन करके कहा- हे धरती माता! तुम फट जाओ। मैं तुम में समा जाऊँ। अब इस संसार को मैं नहीं देखूंगो' ।

'तब शिव ने चिल्लाकर पुकारा - हे गौरी देवी, इस बार मेरा अपराध क्षमा करो। अब से मैं तुम्हारा दास होकर रहूंगा।' किन्तु इस वाक्य को सुनने के पूर्व हो गौरोजी वसुंधरा में प्रवेश कर चुकी थीं और शिव हाथ मलते रह गये थे, या वे यह वाक्य सुनकर शंकर को क्षमा कर पुनः उनके लिये रह गई यह कुछ साफ नहीं है। केवल शिव से हादिक पश्चात्ताप करा और क्षमा मंगाकर ही कवियित्री चुप हो जाती है। कितना सुन्दर अंत है। दुखान्त और सुखान्त दोनों का मिश्रित रस है।

पाठक कहेंगे कि इसमें तो राम-सोता की कया शिव के साथ मिला दी गई है। मेरा निवेदन है कि यह गीत इतिहास नहीं है, यह तो अशिक्षिता कवियित्री के मन का उद्‌गार है। इसके रस आदि पर विचार करें और वर्णन-शैली को सरलता देखें। ऐतिहासिक खोज के लिये तो पुराणों के पन्ने उलटने चाहिये थे। इस पुस्तक में ही नहीं, सर्वत्र के लोक गीतों में आप देखेंगे कि राम के लिये कृष्ण आये हैं, अयोध्या के लिये मथुरा आया है, शिव को जगह पर राम और राधा को जगह पर सीता का प्रयोग हुआ है। इससे पता चलता है कि स्त्रियों को अपना भाव प्रगट करना मुख्य ध्येय रहा है। हम पुरुषों ने हो तो उन्हें साक्षर होने से बञ्चित रखा है वे कूपमंडूक हैं। उन्हें ठीक जानकारी इन बातों को नहीं है।

नं० ३१ भजन से नं० ३६ तक सात भजन मेरे 'भोजपुरी ग्राम गीत में गौरी का स्वान' नाम लेख से लिये गये हैं। जो 'द्विवेदी -अभिनन्दन-ग्रंथ' के लिये बाबू शिवपूजनसहायजी के आग्रह से लिखा गया था, पर बिलम्ब से लेख पहुँचने के कारण उसमें न जाकर वह काशो नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। पाठक यह भी स्मरण रखें कि ये सब गोत मुझे अपनी पूजनीया पितामहो श्री धर्मराज कुँअरिजी से मिले थे।

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लेख
भोजपुरी लोक गीत में करुण रस
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"भोजपुरी लोक गीत में करुण रस" (The Sentiment of Compassion in Bhojpuri Folk Songs) एक रोचक और साहित्यपूर्ण विषय है जिसमें भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से लोक साहित्य का अध्ययन किया जाता है। यह विशेष रूप से भोजपुरी क्षेत्र की जनता के बीच प्रिय लोक संगीत के माध्यम से भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं को समझने का एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है। भोजपुरी लोक गीत विशेषकर उत्तर भारतीय क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से समृद्ध हैं। इन गीतों में अनेक भावनाएं और रस होते हैं, जिनमें से एक है "करुण रस" या दया भावना। करुण रस का अर्थ होता है करुणा या दया की भावना, जिसे गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। भोजपुरी लोक गीतों में करुण रस का अभ्यास बड़े संख्या में किया जाता है, जिससे गायक और सुनने वाले व्यक्ति में गहरा भावनात्मक अनुभव होता है। इन गीतों में करुण रस का प्रमुख उदाहरण विभिन्न जीवन की कठिनाईयों, दुखों, और विषम परिस्थितियों के साथ जुड़े होते हैं। ये गीत अक्सर गाँव के जीवन, किसानों की कड़ी मेहनत, और ग्रामीण समाज की समस्याओं को छूने का प्रयास करते हैं। गीतकार और गायक इन गानों के माध्यम से अपनी भावनाओं को सुनने वालों के साथ साझा करते हैं और समृद्धि, सहानुभूति और मानवता की महत्वपूर्ण बातें सिखाते हैं। इस प्रकार, भोजपुरी लोक गीत में करुण रस का अध्ययन न केवल एक साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भी भोजपुरी सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों की अद्भुत अभिवृद्धि को संवेदनशीलता से समृद्ध करता है।
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भोजपुरी भाषा का विस्तार

15 December 2023
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भोजपुरी भाषा के विस्तार और सीमा के सम्बन्ध में सर जी० ए० ग्रिअरसन ने बहुत वैज्ञानिक और सप्रमाण अन्वेषण किया है। अपनी 'लिगुइस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' जिल्द ५, भाग २, पृष्ठ ४४, संस्करण १९०३ कले० में उन्हो

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भोजपुरी काव्य में वीर रस

16 December 2023
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भोजपुरी में वीर रस की कविता की बहुलता है। पहले के विख्यात काव्य आल्हा, लोरिक, कुंअरसिह और अन्य राज-घरानों के पँवारा आदि तो हैं ही; पर इनके साथ बाथ हर समय सदा नये-नये गीतों, काव्यों की रचना भी होती रही

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जगदेव का पवाँरा जो बुन्देलखण्ड

18 December 2023
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जगदेव का पवाँरा जो बुन्देलखण्ड में गाया जाता है, जिसका संकेत भूमिका के पृष्ठों में हो चुका है- कसामीर काह छोड़े भुमानी नगर कोट काह आई हो, माँ। कसामीर को पापी राजा सेवा हमारी न जानी हो, माँ। नगर कोट

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भोजपुरी लोक गीत

18 December 2023
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३०० वर्ष पहले के भोजपुरी गीत छपरा जिले में छपरा से तोसरा स्टेशन बनारस आने वाली लाइन पर माँझी है। यह माँझी गाँव बहुत प्राचीन स्थान है। यहाँ कभी माँझी (मल्लाह) फिर क्षत्रियों का बड़ा राज्य था। जिनके को

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राग सोहर

19 December 2023
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एक त मैं पान अइसन पातरि, फूल जइसन सूनरि रे, ए ललना, भुइयाँ लोटे ले लामी केसिया, त नइयाँ वझनियाँ के हो ॥ १॥ आँगन बहइत चेरिया, त अवरू लउड़िया नु रे, ए चेरिया ! आपन वलक मों के देतू, त जिअरा जुड़इती नु हो

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राग सोहर

20 December 2023
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ललिता चन्द्रावलि अइली, यमुमती राधे अइली हो। ललना, मिलि चली ओहि पार यमुन जल भरिलाई हो ।।१।। डॅड़वा में वांधेली कछोटवा हिआ चनन हारवा हो। ललना, पंवरि के पार उतरली तिवइया एक रोवइ हो ॥२॥ किआ तोके मारेली सस

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करुण रस जतसार

22 December 2023
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जतसार गीत जाँत पीसते समय गाया जाता है। दिन रात की गृहचर्य्या से फुरसत पाकर जब वोती रात या देव वेला (ब्राह्म मुहूर्त ) में स्त्रियाँ जाँत पर आटा पीसने बैठती हैं, तव वे अपनी मनोव्यथा मानो गाकर ही भुलाना

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राग जंतसार

23 December 2023
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( १७) पिआ पिआ कहि रटेला पपिहरा, जइसे रटेली बिरहिनिया ए हरीजी।।१।। स्याम स्याम कहि गोपी पुकारेली, स्याम गइले परदेसवा ए हरीजी ।।२।। बहुआ विरहिनी ओही पियवा के कारन, ऊहे जो छोड़ेलीभवनवा ए हरीजी।।३।। भवन

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भूमर

24 December 2023
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झूमर शब्व भूमना से बना। जिस गीत के गाने से मस्ती सहज हो इतने आधिक्य में गायक के मन में आ जाय कि वह झूमने लगे तो उसो लय को झूमर कहते हैं। इसी से भूमरी नाम भी निकला। समूह में जब नर-नारी ऐसे हो झूमर लय क

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26 December 2023
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खाइ गइलें हों राति मोहन दहिया ।। खाइ गइलें ० ।। छोटे छोटे गोड़वा के छोटे खरउओं, कड़से के सिकहर पा गइले हो ।। राति मोहन दहिया खाई गइले हों ।।१।। कुछु खइलें कुछु भूइआ गिरवले, कुछु मुँहवा में लपेट लिहल

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राग कहँरुआ

27 December 2023
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जब हम रहली रे लरिका गदेलवा हाय रे सजनी, पिया मागे गवनवा कि रे सजनी ॥१॥  जब हम भइलीं रे अलप वएसवा, कि हाय रे सजनी पिया गइले परदेसवा कि रे सजनी 11२॥ बरह बरसि पर ट्राजा मोर अइले, कि हाय रे सजनी, बइठे द

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भजन

27 December 2023
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ऊधव प्रसंग ( १ ) धरनी जेहो धनि विरिहिनि हो, घरइ ना धीर । बिहवल विकल बिलखि चित हो, जे दुवर सरीर ॥१॥ धरनी धीरज ना रहिहें हो, विनु बनवारि । रोअत रकत के अँसुअन हो, पंथ निहारि ॥२॥ धरनी पिया परवत पर हो,

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भजन - २५

28 December 2023
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(परम पूज्या पितामही श्रीधर्म्मराज कुंअरिजी से प्राप्त) सिवजी जे चलीं लें उतरी वनिजिया गउरा मंदिरवा बइठाइ ।। बरहों बरसि पर अइलीं महादेव गउरा से माँगी ले बिचार ॥१॥ एही करिअवा गउरा हम नाहीं मानबि सूरुज व

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बारहमासा

29 December 2023
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बारहो मास में ऋतु-प्रभाव से जैसा-जैसा मनोभाव अनुभूत होता है, उसी को जब विरहिणी ने अपने प्रियतम के प्रेम में व्याकुल होकर जिस गीत में गाया है, उसी का नाम 'बारहमासा' है। इसमें एक समान ही मात्रा होती हों

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अलचारी

30 December 2023
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'अलचारी' शब्द लाचारी का अपभ्रंश है। लाचारी का अर्थ विवशता, आजिजी है। उर्दू शायरी में आजिजो पर खूब गजलें कही गयी हैं और आज भी कही जाती हैं। वास्तव में पहले पहल भोजपुरी में अलचारी गीत का प्रयोग केवल आजि

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खेलवना

30 December 2023
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इस गीत में अधिकांश वात्सल्य प्रेम हो गाया जाता है। करुण रस के जो गोत मिले, वे उद्धत हैं। खेलवना से वास्तविक अर्थ है बच्चों के खेलते बाले गीत, पर अब इसका प्रयोग भी अलचारी को तरह अन्य भावों में भी होने

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देवी के गीत

30 December 2023
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नित्रिया के डाड़ि मइया लावेली हिंडोलवा कि झूलो झूली ना, मैया ! गावेली गितिया की झुली झूली ना ।। सानो बहिनी गावेली गितिया कि झूली० ॥१॥ झुलत-झुलत मइया के लगलो पिसिया कि चलि भइली ना मळहोरिया अवसवा कि चलि

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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पूरबा गात

3 January 2024
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( १ ) मोरा राम दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। भोरही के भूखल होइहन, चलत चलत पग दूखत होइन, सूखल होइ हैं ना दूनो रामजी के ओठवा ।। १ ।। मोरा दूनो भैया० 11 अवध नगरिया से ग

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कजरी

3 January 2024
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( १ ) आहो बावाँ नयन मोर फरके आजु घर बालम अइहें ना ।। आहो बााँ० ।। सोने के थरियवा में जेवना परोसलों जेवना जेइहें ना ॥ झाझर गेड़ वा गंगाजल पानी पनिया पीहें ना ॥ १ ॥ आहो बावाँ ।। पाँच पाँच पनवा के बिरवा

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रोपनी और निराई के गीत

3 January 2024
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अपने ओसरे रे कुमुमा झारे लम्बी केसिया रे ना । रामा तुरुक नजरिया पड़ि गइले रे ना ।। १ ।।  घाउ तुहुँ नयका रे घाउ पयका रे ना । आवउ रे ना ॥ २ ॥  रामा जैसिह क करि ले जो तुहूँ जैसिह राज पाट चाहउ रे ना । ज

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हिंडोले के गीत

4 January 2024
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( १ ) धीरे बहु नदिया तें धीरे बहु, नदिया, मोरा पिया उतरन दे पार ।। धीरे वहु० ॥ १ ॥ काहे की तोरी वनलि नइया रे धनिया काहे की करूवारि ।। कहाँ तोरा नैया खेवइया, ये बनिया के धनी उतरइँ पार ।। धीरे बहु० ॥

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मार्ग चलते समय के गीत

4 January 2024
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( १ ) रघुवर संग जाइवि हम ना अवध रहइव । जी रघुवर रथ चढ़ि जइहें हम भुइयें चलि जाइबि । जो रघुवर हो बन फल खइहें, हम फोकली विनि खाइबि। जौं रघुवर के पात बिछइहें, हम भुइयाँ परि जाइबि। अर्थ सरल है। हम ना० ।।

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विविध गीत

4 January 2024
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(१) अमवा मोजरि गइले महुआ टपकि गइले, केकरा से पठवों सनेस ।। रे निरमोहिया छाड़ दे नोकरिया ।॥ १ ॥ मोरा पिछुअरवा भीखम भइया कयथवा, लिखि देहु एकहि चिठिया ।। रे निरमोहिया ।॥ २ ॥ केथिये में करवों कोरा रे क

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पूर्वी (नाथसरन कवि-कृत)

5 January 2024
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(८) चड़ली जवनियां हमरी बिरहा सतावेले से, नाहीं रे अइले ना अलगरजो रे बलमुआ से ।। नाहीं० ।। गोरे गोरे बहियां में हरी हरी चूरियाँ से, माटी कइले ना मोरा अलख जोबनवाँ से। मा० ।। नाहीं० ॥ झिनाँ के सारी मो

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एगो किताब पढ़ल जाला

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