( १७)
पिआ पिआ कहि रटेला पपिहरा, जइसे रटेली बिरहिनिया ए हरीजी।।१।। स्याम स्याम कहि गोपी पुकारेली, स्याम गइले परदेसवा ए हरीजी ।।२।। बहुआ विरहिनी ओही पियवा के कारन, ऊहे जो छोड़ेलीभवनवा ए हरीजी।।३।। भवन छोड़ले पर पिअवा नताके, बहुअरि करेली सिगरवा ए हरीजी ।।४।। अमिकापरसाद जो पिया के मैं पइतों, सपने ना छोड़ती चरनवा ए हरीजी ।।५।।
पपीहा पीउ पीउ कह कर ऐसा रट लगा रहा है, जैसे विरहिणी प्रिय- तम को रट लगाये रहती है ॥१॥
श्याम श्याम कह कर गोपियाँ पुकार रही हैं, परंतु श्याम परदेश चले गये हैं॥२॥
वह भी उसी अपने प्रियतम के कारण विरहिणो हो रही है, जिसने अपना घर छोड़ दिया है ॥३॥
भवन छोड़ देने पर पति प्रियतमा को ओर ताकता तक नहीं, परन्तु तब भी बहू शृंगार कर रही है ।।४।।
अम्बिकाप्रसाद कहते हैं कि जो में प्रिय को इस बार पा जातो, तो स्वप्न में भी उनका चरण नहीं छोड़ती ॥५॥
( १८ )
तलफी जेठ के दुपहिरया क भुभुरिया हो राग ।। अरे राम-राम जी जे सीता के निकसलनि गरुये गरभ से हो राम ।।१।। रोवेलि सीतादेई अछन अछन कई अवरु विलखि कइ हो राम ।। अरे रामा के मोरे आगूपीछु होइहें कईरे होइहें धगरिनिया हो राम ।।२।। वनवा वे निकसेली बन तपसिनिया सीतहि समुझावेलीं हो राम ।। सीता ! हम तोरे आगू पीछू होखवई हमहीं होवई धगरिनि हो राम ।।३।। रोवेली सीता देई अछन छछन करि अवरू बिलखि कइ हो राम ।। हथवा गेणुअवा लिहले रिसि मुनि सीता समुझाबें हो राम ॥४।। सीता हम लाइवि वेल के लकड़िया त रतिया अंजोर करवि हो राम ।।५।। चइत केर तिथि नौमी तराम जगि रोपलनि हो राम ।। बिना रे कोता जगि सूना सीता लेई आवहु हो राम ॥६॥ आगाँ के घोड़वा बसिठ मुनि पाछावाँ भरत लाल हो राम ।। रामा अल्हड़े बछेड़वा लखनलाल सीताहि मनावन दोनवा गंगाजल पानी हो पतवा के चलले होराम ।।७।। राम ।। अरे रामा सौना भोवली गुरु के पइयाँ त मथवा चढ़ावेलीं हो राम ॥८॥
अतना अकलिया सोता तोहरे तू वृधि करि आगरि हो राम। सीता राम के कइसे विसरवलू अयोध्या तेजि देहलू हो राम ।।९।। सोनवा के अस राम तवलनि आगि भुजि कढ़लनि हो राम ।। गुरु ! अस कइ रामनोहि उहह्णनि सपनवाँ ना चित मिलई हो राम ।।१०।। तोहर कहल गुरु मानवि अजोधिया कई जाइवि हो राम। गुरु अइसन पुरुस के सनेहिया त विधि न मिलावसु हो राम ।।११।।
जेठ की दुपहरी है। रेत जल रही है। अरे ! इसी समय जिसका गर्भ पूरा हो रहा था, ऐसो सोता को रामजी ने घर से निकाल बाहर किया ।।१।।
सोता बिलख-बिलख करके फूट-फूट कर रो रही हैं और कह रही हैं कि हा राम ! अब मेरे आगे-पीछे सहायता देने वाला कोन होगा और कौन मेरे लिये धगरिन बनेगा ।।२।।
वन से धन को तपस्विनी निकलती हैं और कहती हैं है-तोता ! हम तुम्हारे आगे-पीछे तुम्हारे साथ रहेंगी और हम धरिन का काम करेंगी; तुम चिन्ता मत करो ।।३।।
तब भी सोता फूट-फूट कर रोती ही रहती हैं उनका बिलखना सुन हाथ में जल-पात्र लेकर ऋषि-मुनि आये और सोता को समझा कर कहने लगे- हे सीता, चिता न करो ! हम बेल को लकड़ी लाएंगे और रात में जला देंगे ।।४,५।।
चंत को नोमो तिथि को राम ने यज्ञ का निरूपण किया। राम ने कहा- अरे ! बिना सोता के मेरा यह यज्ञ सूना हो रहा है। सोता को जाकर कोई ले आओ ।।६।।
आगे के घोड़े पर वशिष्ठ मुनि सवार हुए पीछे के घोड़े पर भरतलाल आसीन हुए और अल्हड़ बछेड़ पर लखनलाल सवार होकर सोता को मनाने चले ॥७॥
सीता ने पत्तों का दोना बनाया। उसमें गंगा जल भर लाई और गुरु जी के पाँव धो कर चरणामृत लिया ॥८॥
वशिष्ठ मुनि ने कहा- हे सोता! तुम तो इतनी बुद्धिमती हो। हम तुम्हारो प्रशंसा करते हैं किन्तु तुमने रामचन्द्र को क्यों भुला दिया और अयोध्या को क्यों त्याग दिया ? ॥९॥
सीता ने कहा- हे गुरुजी ! रामजी ने मेरो अग्नि-परोक्षा लो, आग में जलाकर भी उन्हें प्रतीति न हुई। हे गुरुजी! राम ने ऐसा मुझे दुःख दिया है कि अब स्वप्न में भी मेरा चित्त उनसे नहीं मिलेगा ? परंतु तब भी हे गुरु ! में आपका कहना मांगी। अयोध्या को जाऊँगी। परन्तु हे गुरु ! विधि से यही प्रार्थना रहेगी कि ऐसे पुरुष को प्रीति को वह फिर न दे ॥१०-११॥
इसी भाव को आगे के सोहर और जंतसार गोत में भी दिया गया है। और वहाँ भी रस की ऐसी हो पुष्टि की गई है। इस गीत के पद-पद में करुणा भरी है। सोता का अन्तिम जोवन कितना करुणाजनक रहा। वे गर्भवती अकेली बन में छोड़ दो गईं? यह नहीं विचार किया गया कि उस सतो पर क्या बीतेगी ? यदि पत्नी को हैसियत से वे राम के सामने रजक वाक्य को सुन कर हो त्याज्य समझो गई, तो क्या रामराज्य को एक प्रजा होने को दृष्टि से उनके ऊपर लगाये गये इस अभियोग को विना जांच किये ही फंसला कर देना राम के न्याय को कलंकित नहीं करता? और फिर उस पर भी सीता की यह सहनशीलता कि राम के प्रति एक कुवाक्य नहीं। गुरु को आज्ञा शिरोधार्य कर अयोध्या जाने तक को तैयार हो जाना; पर दिल की कसक गुरु से कैसे छिपातीं ?
"गुरु ऐमन पुरुस के सनेहिया त विधि ना मिलावसु हो राम।"
कितना संयम है-कितनी वेदना और व्यंग है?
( १९ )
मोरंग मोरंग मो सुनोला मोरंग न जानी हो राम। अरे रामा ! मोरा पिया चले मोरंग देसवा त हम कइसे जीअवि हो राम ।।१।।
केकरा तू संऊंपेल अन धन केकरा त लछिमी हो राम । अरे पिया केकरा तू सऊँपेल नौरंग वगिया त तू चलल मोरंग हो राम ॥२॥ बाबा के सउँपली त अन धन माई जी के लक्षिणी हो राम ।। भइया के सऊँपली मों नवरंग वगिया हम चलीं मोरंग देस हो राम ।।३।। देइ गइलें चनन चरखवा ओंठगन क मचिया हो राम। आरे पिया! देइ गइले अपनी दोहइया धरम जनि छोड़िहउ हो राम ।।४।।
घुन लागे चनन चरखवा ओठगन क मचिया हो राम।
आरे पिया ! छूटे चाहे तोहरी दोहइया धरम चाहे डोलइ हो राम ।।५।।
मन के विरोगिनि तिरियवा त सासुजी से पुंछइँ हो राम ।।
सासू ! बिना रे पुरुस तिवड्या उमिरि कइसे
तुलवा के अँगिया सिआवहु छत्तीसो बँदवा लावहु हो राम।
बहुअरि ! जिअरा में राखहु वियोग बएस बीति जइहें हो राम ।।७।।
ऊपरा ले लवलीं बेइलिया त निचवाँ सदाफल हो राम ।
हमरे हरिजी के लवलि बेइलिया बेइलि कुम्भिलाइलि हो राम ।।८।।
आवहु सखिया सलेहरि मिलिजुलि आवउ हो राम ।
हमरे हरिजी के लवलि वेइलिया वेइलि हम सींचवि हो राम ।।९।।
बेइलि से सिचली-सिचवली वेइलि तर ठाढ़ि भइलि हो राम ।
आरे रामा ! आइ गइले हरि के सुरतिया त ठाढ़ि मुरुछाइ गइली हो राम ।।१०।।
बरहें बरिसवें लवटले त दुअरे खटियवा डललनि हो राम ।
आपनि मइया बोलाई भेद पूछलें धनिया कवन रंग हो राम ।।११।।
तोर धनि अँगवा के पातरि त मुहाँ के
पीअरि हो
राम ।
रखली हो
राम ।।१२।।
बेटा बड़े रे घरे के बिटिअवा दूनो कुलवा
कबहूँ न हॅसि के पइठलो विहॅसि नाहीं निकसेलि हो राम ।
बेटा महले दिया नाहीं बरली निदरिया नाहीं सूतलि हो राम ।।१३।।
अव धनि हँसि घरवा पइठहु बिहॅसि के निकसहु हो राम ।
मोरि धनिया महले दिया लेसहू सोवहु सुख-निदिया हो राम ।।१४।॥
विरहिणो कह रही है। में मोरंग मोरंग तो सुना अवश्य करती हूँ; पर नहीं जानतो कि मोरंग कंसा है। हा राम ! मेरे पति मोरंग देश चले। में फंसे जीवित रहेंगी ।॥१॥
उसने कहा- हे प्रिय! तुमने किसके संरक्षण में अपना अन्न, धन और लक्ष्मी (मवेशो बगरह) किया और किसकी देखरेख में अपनी नये लगाये नौरंगी के बाग को छोड़ा कि आप मोरंग देश चले ? ॥२॥
पति ने कहा-मंने पिताजी के जिम्मे तो अन्न और धन दिया। भाई को माल-मवेशी और अपनो माता को अपनी नई लगायो हुई नौरंगो को बाटिका (यहां श्लेष है-नयी लायी हुई पत्नी से तात्पय्यं है) को सॉप दिया है। और तब मोरंग देश जा रहा हूँ ।।३।।
हाय प्रियतम ने मुझको कातने के लिये एक चन्दन का चरखा और लेटने के लिए मचिया देकर प्रस्थान किया। और अपनी शपथ देकर कहा कि अपना धर्म न छोड़ना ।।४।।
हा ! अब चन्ददन के चरखे को धुन लग रहा है और लेटने की मचिया भी अब टूट रही है है प्रियतम ! अब तुम्हारी शपय भी टूटना चाहतो है और मेरा धर्म डोलने लगा है ।।५।।
इन विचारों के साथ मन में विरहाग्नि वहन करने वाली विरहिणी अपने सास से पूछती है कि हे सास! बताओ विना पुरुष के जो स्त्री हो, वह अपनी आयु कैसे बितावे ॥६॥
सास ने कहा- हे बहू! तूल कपड़े की अंगिया (कंचुको) सिलाओ और उसमें छत्तीस बन्द लगाओ। और हे बहु ! सदा मन में पति के वियोग का स्मरण क्रिया करो तुम्हारा समय बीत जाएगा ।।७।।
ऊपर जो हरि जो ने बेइल रोपो यो तथा नोचे जो उन्होंने सदाफल का वृक्ष लगाया था यह उनको प्यारी बेइल आज कुम्भलाने लगो है। हे सखी सहेली ! आओ मिल जुल कर चलती जाँयें और हरि जी की लगाई हुई उस बेइल को लता हम सींच दें ।॥८-९।।
विरहिणी ने बेइल की लता को सोंचा और सखियों से सिचवाया फिर आप उसी के निकट खड़ी हुई। उसे पति को सुधि आई और वह खड़े हो खड़े गिरकर मूच्छित हो गई ॥१०॥
बारह वर्षों के बाद पति लीटा, तो दरवाजे पर खाट डाल कर बैठा और अपनी माता को बुलाकर चुपके-चुपके भेद लेने लगा कि उसको स्त्री किस रंग भाव में है ।।११।।
माता ने कहा- हे पुत्र तुम्हारो स्त्रो शरीर से तो दुबलो हो गई है। मुँह का रंग पीला पड़ गया है। वह बड़े घर को कन्या है। उसने दोनों कुलों की रक्षा को है ॥१२॥
वह न तो कभी हँसकर घर में प्रवेश करती है और न कभी मुस्कराती हुई घर से बाहर होतो है। हे पुत्र ! उसने अपने घर में दोप नहीं जलाया और न कभी पूरो नींद भर सो हो सको ।।१३।।
पति ने प्रसन्न होकर कहा- हे धनि ! अब तुम हंस कर घर में पंडों और मुस्कराती हुई बाहर निकलो। अपने महल में दोप जलाओ और (मेरे साथ) सुख की नींद सोओ ।।१४।।
इस गोत में एक विरहिणो नायिका का कितना करुण चित्रण है। पति के जाते समय नायिका पूछती है कि गृह कार्य आप किस-किस को सौंप कर जाते हैं। अपना प्यारा मोठे नींबू का बाग किसको देख रेख में छोड़ रहे हैं। इससे उसका अभिप्राय था कि इससे पति रह जाय। पर वे न ठहर सके। जाते समय पति ने उसे कातने के लिए चरखा ओर बैठने को मचिया दो और अपनी शपय देकर धर्म न छोड़ने को प्रार्थना को। बारह वर्ष बोल गये- चर्खा और मचिया में घुन लग गया। तब विरहिणो घबड़ा कर डर गई कि अब कहीं धर्म भी न छूट जाय। उसने सोधे सास के पास जाकर अपनी व्यप्रता प्रकट कर पूछा कि बिना पति के में स्त्री जोवन किस तरह बिताऊँ ! सास ने जो विरह बिताने का उपाय बताया, वह कितना करुण और कितना व्यवहार्य्य है-बन्ददार अँगिया पहनो और हृदय में सदा पति-वियोग का अनुभव किया करो और पति को लगाई हुई बेइल आदि पुष्प को सेवा करो। पत्नी ने ऐसे हो समय को काट दिया। पति आया और उसने माता से पत्नी के सम्बन्ध में पूछ ताछ की। माता ने विरहिणी का कितना सुन्दर चित्र खींचा है कि सुनते हो करुणा आ जाती है। तुम्हारी स्त्री शरीर से पतली और मुंह से पीलो हो गई है-हे बेटा! वह बड़े कुलीन घर को कन्या है। उसने दोनों कुलों की रक्षा की। कभी हँस कर घर में नहीं समाई और न मुस्करा कर बाहर ही निकली। उसने जैसा कि कुलटाएँ किया करती हैं-- अपने महल में कभी दीप तक नहीं जलाया और न वह नींद भर कभी सोई हो। कितना मार्मिक चित्रण है !
( २० )
मोरे पिछुअरवा घनि बंसवरिया से । जुड़ि जुड़ि आवेली बयरिया हो राम ।।१।। तेहि तर मोर हरी सेजिया विछवलें । आईजा तूं हमरी सुनरिया कइसे के आवों हरी तोहरी सासु घरवा वाड़ी बड़ी दारुनि हो राम ॥२॥ सेजरिया रे, हो राम ।।३।। अतना बचनिया सुनि पिअवा बढ़ता रे, घोड़े पीठि भइलें असवरवा हो राम ।।४।। जाइ के उतरलनि ओही मधुवनवाँ रे, कइसे पाई हरि के दरसवा हो राम ।।५।। मचियहि बइठलि सासु हो ? कवने ओढ़रे बनवा जाऊँ हो बढ़इतिन, राम ।।६।। छोरहु न बहुअरि ! चटकी चुनरिया रे, पहिरहु फटही लुगरिया हो राम ।।७।। हथवा के लीह बहुअरि कचरी डलियवा से, घई लीह हेलिनी के भेसवा हो राम ।।८।। खोरिया बहारेहु अवरु घोड़सरिया रे, हरि के बइठका बहारेहु हो राम ।।९।।
मोढ़वा बइठल हरि देखते मर्नाह त मने मुसुकइलनि कहँवा के तुहूँ हऊ सुनरि हेलिनिया रे। हो राम ।।१०।। हेलिनिया रे, कवन नगरिया के जइवि हो राम ।।११।। मथुर्राह के हम हईं जी हेलिनिया से, गोकुला नगरिया हम जाइवि हो राम ॥१२॥ तव त तँ बहुअरि पनवा ना कुंचलू. हमरी सेजरिया नाहीं सुतलू हो राम ।।१३।। अव कइसे बहुरि रूप बदललू, हेलिनि बनल बनवाँ अइलू हो राम ।।१४।। तव तजे रहलीं सइयाँ अब भइली बारी से वारि रे लरिकवा, बयसवा हो राम ।।१५।। मोरे पिछुअरवा सोनरा भइया मितवा रे, सोरहो सिगार गढ़ गहना हो राम ।।१६।। मोरे पिछुअरवा रंगरेज भइया मितवा रे, धनि जोगे रंगहु चुनरिया हो राम ।।१७।। मोरे पिछुअरवा कहरा भइया मितवा रे, इंड़िया फनाई घरवा चलहु हो राम ॥१८॥
मेरे पिछवारे बाँस को घनो कोठ है। उससे शीतल हवा आती है। उसके नीचे मेरे प्रियतम ने सेज बिछा कर कहा- हे मेरी सुन्दरी ! यहाँ
चली आओ। ॥१॥ सुन्दरी ने कहा- हे स्वामी! मै आपकी सेज पर वहाँ कैसे आऊँ। यहाँ सास का बड़ा कठोर शासन है। वह घर में ही इस समय है ॥२-३॥
इतनी बात के सुनते ही पति रूठ कर घोड़े पर सवार होकर मधुबन में जा ठहरा। हा! अब प्रियतम का कैसे दर्शन मिले ? ॥४-५॥
विरहिणी ने मचिया पर बैठी हुई अपनी पूज्य सास के पास जाकर कहा- हे सास ! मैं किस बहाने से स्वामी के पास मधुबन में जाऊँ ? ॥६॥
सास ने कहा- हे बहू ! तुम अपनी चटकोली नई चूनर को बदल कर फटी लुगरी धारण करो और हाथ में टोकरी ओर झाड़ लेकर हेलिन का रूप बना लो। वहाँ इस रूप में जाकर पहले गली कूचा बहारना, फिर घोड़सार बहारना और तब अपने हरि की बैठक को बहारने जाना ॥७-८-९।।
मोढ़े (एक तरह की कुर्सी) पर बैठा हुआ स्वामो अपनी स्त्री को हेलिनि के रूप में देखकर मन ही मन मुस्कराया। उसने पूछा- हे हेलिनि ! तुम कहाँ की रहनेवाली हो और किस नगर को जाओगी ? ॥१०-११॥
स्त्री ने कहा-मै मथुरा की हेलिनि हूँ। गोकुल नगर जाऊँगी। स्वामी ने कहा- हे मेरी प्यारी ! तब तो तुमने पान नहीं खाया था, मेरी सेज पर पाँव तक रखने से इनकार किया था अब तुमने कंसे यह रूप बनाया ? कैसे हेलिनि का स्वांग बना कर यहाँ तक चली आई ? ॥१२-१३-१४।॥
स्त्री ने कहा-तब तक तो में अभी कच्ची अवस्था की होने के कारण भोली यी, किन्तु अब तो मेरा यौवन जा रहा है ॥१५॥ पति इस उत्तर से प्रसन्न होकर कहने लगा- हे मेरे घर के पीछे रहने
वाले मित्र सोनार ! तुम मेरी स्त्री के श्रृंगार योग्य गहने बना दो और हे मेरे घर के पीछे रहने वाले मित्र रंगरेज तुम मेरो धनि (पत्नी) के पहनने लायक चुंनर रंग दो। मेरे घर के पीछे रहनेवाले मेरे मित्र कहार, तुम मेरी प्यारी को घर ले चलने के लिए पालकी तैयार करो ।।१६-१७।।
इस गीत में सबसे बड़ी शिक्षा को एक ही बात है और वह नारो जीवन का आदर्श है। पति के रूठने पर जो पत्नी भी मानकर बैठ रहती है और इस बात की प्रतीक्षा करती है कि पति उसे मनावे, वह क्यों उसे मनाने जाय । उसे यह समझना चाहिये कि संयम और सहयोग से ही दाम्पत्य-जोवन सफल और सुखी होता है। उसके अनाचार से नहीं, जिससे जब गलती हो, क्या पति क्या पत्नी, उसे तब आगे बढ़कर दूसरे को अनुकूल बनाना अपना परम कर्त्तव्य समझना चाहिये । पत्नी युवती थी हो। फिर सास का कठिन शासन भी था।
लज्जावश पति के बुलाने पर उसका न जाना कोई उतना अस्वाभाविक नहीं था। फिर भी पति जो रूठ गया और पत्नी ने अपनी गलती महसूस की तब उसने हेलिनि का रूप बनाकर उसे जाकर मनाया। इस कृत्य से पति का प्रेम कितना बढ़ गया।
( २१ )
बहेले बयारि पुरुवइया त सिकियो ना डोलेले हो राम ।। अहो रामा, मोर परभू गइले विदेसवा कइसे जियरा बोवउँ हो राम ।।१।। अँगुरिन मॅगिया निकरिवों नयन भरि कजरा हो राम ।। अहो रामा, असकई जियरा बुझइवों कि जस हरि घरखें हो राम ।।२।। होइतों मों जल क मछरिया जलहीं बीच रहितों हो राम ।। अहो रामा, मोरा हरि अइतें असननवाँ चरन चूमि लेती हो राम ।।३।।
होइतों मों घरे के घरनिया जाहाँ प्रभु रमि रहे ले हो राम। पोइतों मों घीउ की लुचुइया त दूध के जउरिया हो राम ।।४।। सठिया कुटिय भात रिन्हितो मुँगिय दरी दलिया हो राम ।। अहो रामा, मोरे प्रभु अइतें जेवनवाँ नयन भरी देखितों हो राम ।॥५॥
होइतों मैं घर के लउँड़िया घर ही बीच रहितों हो राम ।। अहो रामा, मोर प्रभू अइतें सेजरिया त सेजिया बिछइते हो राम ।।६।।
कुल मर्यादा से जकड़ी हुई प्रेम से विकल विरहिणो को कितनी स्वाभा- विक कल्पना है। पति मिलन को उत्कण्ठा कितनी गहरी है। यह कल्पना परिस्थिति और समय के अनुकूल होते हुए भी कितनो तोत्र है। संस्कृत और हिन्दी तथा अन्य भाषा के कवियों ने भी इस भाव को लेकर अनेक कवि- ताएं की हैं। रसखान ने इसी भाव को लेकर कहा है-
• मानुष हीं तो वहीं रसखानि, वसीं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन । जो पसु हों तो कहा बसु मेरो, चरी नित नन्द की धेनु मॅझारन ।।
पाहन हो तो वही गिरि को, जो धरची कर छत्र पुरन्दर धारन । जो खग हीं तो बसेरो करों, मिलि कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन ।।
संस्कृति के किसी कवि ने कहा है:--
कदा वृन्दारण्ये विमल यमुना तीर पुलिने, चरंतं श्रीकृष्णं हलधर सुदामादि सहितं । अये कृष्ण स्वामिन् मदन मुरलीवादन विभो ! प्रसीदेत्याक्रोशं निमिषमिव नेष्यामि दिवसान् ।।
लेकिन इन उद्धरणों में तीव्र अभिलाषा पाण्डित्य चातुरी के साथ प्रकट की गई है। इससे कुछ कृत्रिमता अवश्य आ गई है; पर इस गीत में तो वही बातें व्यक्त हैं, जिनको अपनी सूनी घड़ियों में, उन्मीलित नेत्रों से लोक-लाज, कुल-मर्यादा के शिकंजे में जकड़ी हुई विरहिणी पति की चिता के समय सोच रही है-पूर्वी हवा की गति इतनी मंद है, कि कहीं सींक भी नहीं हिल रही है। हमारे प्रभु विदेश गये। किस तरह अपने हृदय को समझाऊँ। उंग लिओं से माँग बनाऊँगी। आँखों में काजल लगाऊँगी। प्रेम की बातों से प्यारे को सम्बोधित करूंगी और हृदय की कसक मिटाऊँगी, जैसे कि वे घर पर ही हों। मैं जल की मछली होती, तो जल में ही रहती और जब हमारे प्रियतम स्नान करने आते, तो उनके चरणों को चूम लेती। उस घर की गृहिणी होती, जहाँ हमारे प्रभु विदेश में ठहरे होते, तो मैं साठी धान कूट कर भात और मूंग दलकर दाल बनाती और मेरे प्रभु जब जेवनार करने आते तो उनको आँख भर देख लेती। मैं उस घर की लौडी होतो, तो मैं अपने घर न जाकर किसी बहाने उसी घर के बीच रह जाती और जब हमारे प्रभु शयन गृह में आते तो में तुरंत सेज बिछा देती।" पाठक ! अपढ़ कवियित्री की इस विरहानुभूति का अनुभव करें और महाकवि देव की उस घनाक्षरी के पाण्डित्य पर ध्यान दें, जिसमें उन्होंने छत्तीसों सञ्चारी कह सुनाये हैं जिसका अन्तिम चरण "तबहीं सो देव बाल बकति बिकानी सी" है। इसमें जो स्वाभाविकता है, वह मेरे विचार में न तो संस्कृत के उक्त श्लोक में है न रसखान के सर्वया में है और न महाकवि देव की इस घनाक्षरी में ही है।.
सभकें त पकई लें
( २२ )
पुरिया कुंअर के जऊरिया ए राम ।
ओही रे रसोइया विख भइले त कुँअर विदेस गइले हो ।।१।।
सासु मोर बोलेलीं बिरहिया त केकर कमइया खइबू ए राम।
ससुरु के जनमल लखन देवरू उनके कमइया खइवों हो ।।२।।
उहो देवरू दिहलें जवविया जे हमरो बिअहिया बाड़ी ए राम ।
काँख तर लौहली लुगरिया त बाबा देसवाँ चलि भइलीं हो ॥३॥
सभवा बइठल तुहू वावा! त विपतलि धियरिया हउवे ए राम ।
टूटलि मड़इया हम के दीहतीं त विपती गॅवइती नु हो ॥४।।
टुटही मंड़इया बेटी टुटि गइली जाहु न मयरिया आगे ए राम ।।
आमा ! फटही लुगरिया हमके दिहतू त विपति गॅवइती नु हो ।।५।।
फटहीं लुगरिया बेटी फाटि गइली जाहु न भईया आगे ए राम ।।
भइया ! बीता एक जगहिया हमके देत कि विपती गॅवइती नु हो ।।६।।
बीता एक जगहयिा जोताई गइली जाहु बहिनि भउजी आगे ए राम ।
भउजी ! पछिली टिकरिया हमके देतु त विपति गंवइतीं नु हो ।।७।।
जवन टिकरिया ननदी तूहें देवों से हो मोर लइका खइहें ए राम ।
जवने डगरिया तुहें अइलू तवने धरि चलि जाहु न हो ॥८॥
ए बने गइली दूसर बने तीसरें त ठाढ़ भईली ए राम।
बन में से निकसे बघिनिया त मोर जियरा भछि लेहु हो ॥९॥
जवने डगरिया तुहूँ अइलू तवने धइले चलि जाए राम ।।
तोरे बिरहा के दगिलि जे देहिया मों भछि के का पाइवि हो ।।१०।।
बरहें बरिस मोर हरि अइले गहना चुनरिया लेले ए राम ।
पहिरि ओढ़िय धनि रोवे लगली पिया बोलें चल नइहवा नु हो ।।
आगि लागे पियवा हो ओहि नइहरवा विपति क केहु ना सहाइ ए राम ।।११।।
विरहिणो अपनी सखों से कह रही है- मैंने सब के लिये पूरी बनाई पर कुँअर के लिये पूरी के साय (चुपके से) खोर भी पका लो यो। पर हा ! वह रसोई भी मेरे लिये विष तुल्य हो गई; क्योंकि मेरे प्रिय बिना खाये हो विदेश चले गये ॥१॥
मेरी सास ताने मारती है। कहती है- यहाँ किसको कमाई खाओगी। मंने धीरे से कहा-मेरे हो ससुर के पैदा हुए लखनलाल देवर हैं। मैं उनको हो कमाई खाऊँगी ॥२॥
परन्तु हा ! उस देवर ने भी अपने ऊपर मेरा भार लेना अस्वीकार कर दिया और उसने कहा- हमारी भी व्याही स्त्री है। हा राम ! (तब विवश होकर ) में अपनी लुगरी (फटी साड़ी) बगल में लेकर अपने बाबा के देश (मायके) चल पड़ी ।।३।।
मैंने कहा-सभा में बैठे मेरे पुज्य पिता। में विपत्ति को मारी हुई (यहाँ विपतल शब्द ध्यान देने योग्य है। ल प्रत्यय लगा कर विपत्ति से विप- तल बना है अर्थात् विपत्ति की मारो हुई) तुम्हारी कन्या हूँ। वह टूटी-फूटी कुटिया मुझे दे देते, तो उसमें रहकर में अपनी विपत्ति बिताती ॥४।॥
पिता ने कहा- हे बेटी! मेरी वह टूटी कुटिया टूट गई। तुम अपनी माता के पास जाओ।' स्त्री ने अपनी मा के पास जाकर कहा- हे माँ। मुझे अपनी फटी लुगरी देतो तो मैं अपनी विपत्ति के दिन काट लेतो ॥५॥
माता ने कहा- हे बेटी! मेरो फटी साड़ी अब बिलकुल फट गई। वह मेरे पास न रही। तुम अपने भाई के पास जाओ। वह अपने भाई के पास जाकर बोली- हे भाई ! यदि तुम मुझे एक बोता जगह दे देते, तो में अपनी विपत्ति के दिन बिता लेती ॥६॥
भाई ने तुरत जवाब दिया- हे बहन ! वह एक बीता जमीन जो तुम्हें दूंगा उसे जुतवा कर स्वयं में खेतो कराऊँगा। तुम अपनी भावज के पास जाओ। स्त्रो ने अपनी भावज के पास जाकर कहा- हे भौजी ! मुझे अपनो रसोई से पिछली टिकरी (वह छोटो रोटो जो अन्त में बचे, परयन की सानकर पका ली जाती है) यदि तुम दे देतों, तो मैं अपने दुदिन बिता लेतो ।।७।।
भावज ने उत्तर दिया हे ननद ! जिस टिकरी को में तुम्हें दूंगी, उसे मैं अपने बच्चों को खिलाऊँगी। तुम जिस मार्ग से आई हो, उसी मार्ग से अपने घर चली जाओ ।॥८॥
माता-पिता और भाई सबने साफ-साफ कहते संकोच माना ; अतः सब अपने पास से दूसरे के पास उसे भेजते रहे। किसी से साफ कहते नहीं बना। पर भावज ने उसे साफ-साफ उत्तर देकर वापिस जाने को कहा। जिस क्रम से वार्ता हुई है। उससे ज्ञात होता है कि पुत्र-वधू का ही घर में एकाधिपत्य था।
स्त्री ने एक वन में प्रवेश किया, दूसरे को पार किया और अन्त में तीसरे वन में जाकर खड़ी हो गई। वन में से बाधिन निकलो और उसे सम्बो- धन करके उसने कहा- हे बाधिन ! तुम मुझे मार कर खा लो ॥९॥
बाघिन ने कहा- हे स्त्री ! तुम जिस मार्ग से आई हो, उसी से वापिस जाओ। बिरह से जले तुम्हारे शरीर को भक्षण करके मैं क्या पाऊँगी ॥१०॥
हे सखी! बारह वर्ष पर मेरे हरिजो जब लोटे, तब मेरे लिये गहना और चूनर लाये। मैं जब गहना और चूनर पहन कर खड़ी हुई, तब हे सखी ! मै रोने लगी। पति ने कहा- हे धनि ! तुमको यहां अकेले दुःख मालूम होता है। चलो, तुम्हें तुम्हारे मायके से घुमा लाऊँ। स्त्री ने कहा- हे प्रियतम ! उस मायके में आग लगे। मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। विपत्ति का साथी कोई नहीं होता ॥११॥
पति के न रहने पर हिन्दू समाज में स्त्री को कैसी दयनीय दशा हो जाती है, यह इस गीत से स्पष्ट है। पुरुष कवि इसकी कल्पना भर हो कर सकता है, पर स्त्री कवयित्री ने तो सब अनुभव कर अपना उद्गार प्रगट किया है। पति के विदेश जाने पर सास का ताना मारना और पूछना कि किसकी कमाई खायेगी और बहू का यह उत्तर देना कि स्वसुर के पंदा किये छोटे वेवर तो हैं हो, उन्हों की कमाई खाऊँगी; फिर देवर का भी जवाब यह कर वे देना कि अब उसको भी स्त्री है और इसके बाद मायके और बन के वर्णन कितने स्वाभाविक और करुण हैं। कवयित्री अन्त में अतिशयोक्ति कहने में भी हिन्दी और उर्दू कवियों से पोछे नहीं रही हैं। उसके इस विरह वर्णन में जौक और शंकर की अतिशयोक्ति को शोखो भले ही न हो; परन्तु उसके हृदय की सादगी और सीधापन तथा कल्पना की सुकुमारता कम सुन्दर और कम रसोत्पादक नहीं है। देखिये जौक साहब कहते हैं-
'क्या नजाकत है कि आरिज उनके नीले पड़ गये । हमने तो बोसा लिया था ख्वाब में तस्वीर का ।।'
जौक
नायूराम 'शंकर' शर्माजी कहते हैं--
'शंकर नदी नद नदीसन के नीरन की भाप बन अम्बर तें ऊँची चढ़ जायगी। • दोनो ध्रुव छोरन लौं पल में पिघल कर घूम घूम घरनी धुरी सो बढ़ जायगी ।। झारेंगे अंगार ये तरनि तारे तारापति जारेंगे खमण्डल में आग मढ़ जायगी। काहु विधि विधि की बनावट बचेगी नाहि जोपं वा वियोगिनी की आहे कढ़ जायगी।' -'शंकर'
( २३ )
ननदी भउजिया खेलेली सुपेलिया आ रे भउजी वोलेली नूरे की। विरहिया नु रे की। अरे इहे रे चलनिया डोम घर जइबू नूरे की ।।१।। एतना बचन ननदी सुनह ना पवली नू रे की। ननदी चलि भइली गिरिह घवरोहर नू रे की ॥२॥
आरे होत कोई परभूजी के मितवा नू रे की। वेगे खबरिया पहुँचाइत नू रे की ॥३॥ गलिया त गलिया फिरेला डोमवा नू रे की। हम तोहरे परभूजी के मितवा नूरे की ॥४॥ वेगि खबरिया पहुँचाइयो नू रे की। तोहरे त बाड़े रानी माटी धवरोहर नू रे की। हमरे त बाड़े ईंट घवरोहर नू रे की ।।५।। आपन गहनवा काढ़ि बान्हि लेउ नू रे की । रानी पोखरा के पिड़िया चलि आवहु नू रे की ॥६॥ एक बने गइली दूसरे बने गइली नूरे की। आरे भेंट भइली गउवां चरवह्वा नू रे की ।।७।। सुनहु न मोर भइया गोरू चरवहवा नू रे की। भैया ? कहाँ बाटे डोम धवरहर नू रे की ।।८।। मो तोसे कहिला रनियाँ ये रनियाँ नूरे की। रनियाँ इहे हउए डोम धवरहर नू रे की ॥९॥ गइली जे रनियाँ अँगना बीच ठाढ़ भइली नू रेकी। आरे बइठे के बाँस छिलकवा नू रे की ॥१०।। मैं तोसे पूछेलों डोमवा नू रे की। डोमवा कहाँ पवले अइसन रनियाँ नू रे की ॥११॥ पहिरू न रनिर्यां रे दूनों कान तरिवन नू रे की। बेचि आउ सुपवा सुपेलिया न रे की ॥१२॥ पुरुब बेचिहे रनियाँ पच्छिम बेचिहे तू रे की। हरदी नगरिया मति बेचिहे नू रे की ॥१३॥ पुरुव छोड़ली रानी पच्छिमो नू रे की। रानी चलि भइली ह्रदी नगरिया नू रे की ।।१४।। गलिया के गलिया फिरेली डोमनियाँ नू रे की। केहू लिही सुपवा मउनियाँ नू रे की ॥१५॥
अपने महलिया चढ़ि रजवा निरखे नू रे की। हम लेवों सुपवा मउनिया नू रे की ॥१६॥ ठीकहि मोलवां बतइहे डोमिनया नू रे की । ठीके ठीके मोलवा बताइव रजवा नू रे की ।।१७।। मउनी के मोल ननदि जी के झुलवा नू रे की । सुपली के मोल राजा हाथ के रूमलिया नू रे की ।।१८।। एतना बचन राजा सुनइि न पवले नू रे की। आरे डोमवा के घई लेइ आवहु नू रे की ॥१९॥ आइल डोमाँ देहरिया चढ़ि बइठल नू रे की। आरे नइ नइ करेला सलमिया नू रे की ॥२०॥ डोमवाँ नू रे की । की ॥२१॥ की । ठीकहि ठीक बतलइहे हमरे हीं जोग रानी बाड़ी नू रे ठीके ठीके बतलइत्रो राजा जी नू रे रउरे जोग रानी नाहीं बाड़ी नू रे की ॥२२॥ जूठ मोर लइली पीठि लागि सुतली न रे की। राजा रउरे जोगे रानी नाहीं बाड़ी नू रे की ॥२३॥ एतना बचन राजा सुनही न पवले नू रे की। आरे डोमिन घइ के मँगवले नू रे की ॥२४।। अइली डोमिनिया अॅगन विच बइठलि नू रे की । ठीके ठीके बतिया बतइहे डोमिनिया नू रे की ॥२५॥ हमरे लायक रानी बाडी ठीक ठीक बतलइवों राजा जी नू रे की। हो नू रे की । राजा रउरे जोगे रानी वाड़ी हो नूरे की ॥२६॥ जूड नाहीं खड़ली हो पीठि लागि नाहीं सुतली नू रे की । राजा रउरे जोग रानी जउँ तुहुँ रनियाँ रे जूठ बाड़ीं नू रे की ॥२७॥ नाहीं खइलू नू रे की। रनिया हमरे आगे देहु न परीछवा नू रे की ॥२८॥
जउँ तुहें अगिया सत के आगि तिल नाहीं जरे मोर होइह नू रेकी । देहियाँ नू रे की ॥२९॥ लहकल अगिया तलफत करहिया नू रे की। आइ ताही बीच ठाढ़ि सती रनियाँ नू रे की ॥३०॥
गाँव के बाहर रजवा पोखर खनवले नू रे की। आरे ताहो बिच डॉम भठीअवले नू रे की ॥३१॥
ननद भौजाई दोनों सुपली मौनी खेल रही हैं। भावज ने ननद के विरह को लक्ष्य करके ताना मारा। कहा- हे ननद ! इस चाल चलन से तुम डोम के घर जाओगी ॥१॥
इतना व्यंग्य सुनते हो ननद ऊपर छत वाले घर में रुष्ट हो कर चली गई ॥२॥
वहाँ से उसने पुकार कर कहा-अरे! मेरे प्रभुजो का कोई मित्र होता, तो वहाँ उनके पास मेरा सन्देशा पहुँचाता ।।३।।
गली-गली डोम फिरता है। उसने कहा- मैं तुम्हारे प्रभुजो का मित्र हूँ। हे रानी ! मैं शोघ्र वहाँ खबर पहुंचा दूंगा। तुम्हारा धौरहर तो माँटी का बना है। मेरे पास तो पक्को ईंट का धौरहर है ॥४-५॥
तुम अपना गहना निकालकर बाँध लो और तालाब के पास आओ ॥६॥
(प्रिय मिलन की उत्कण्ठा में ननद डोम के बहकावे में आ गई। वह घर से निकल पड़ी।) वह डोम के साथ एक वन में गई। फिर दूसरे वन में पहुंची। वहाँ गाँव के चरवाहे से उसकी भेंट हुई। उससे उसनेः पूछा- हे भाई उस डोम का धौरहर कहाँ है ? ॥७-८॥
चरवाहे ने कहा- हे रानी ! मैं कहता हूँ सुनो। यही डोम का धौर- हर है ॥९॥
रानी घर के भीतर प्रवेश करके बीच आंगन में खड़ी हुई, तो वहीं: उसको बैठने के लिये बांस के छिलके मिले ॥१०॥
चरवाहे ने पूछा-अरे डोम ! मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम ऐसो रानो कहाँ पाये ? ॥११॥
डोम ने कहा- हे रानी! दोनों कानों में तुम तरिवन (तरको) पहन लो और सुपली मौनी ले जाकर बेच लाओ। पूर्व दिशा में बेचना, पश्चिम दिशा भी जाकर बेचना, परन्तु हरदो नगर में जाकर मत बेचना ।।१२-१३।।
रानी न पूर्व गई और न पश्चिम हो गई। वह सोधे हदी नगर को चली गई। वहां डोमिन गली-गली घूम कर कहने लगी-कोई सूप और मौनी (बांस को छोटी चंगेली) लेगा ? ॥१४-१५।।
अपने महल के ऊपर चढ़कर राजा ने उस डोमिन को देखा और कहा- अरे ! मैं सुपलो मोनो लूंगा ।।१६।॥
डोमिन से राजा ने कहा- हे डोमिन ! तुम ठीक-ठीक कोमत बताना। डोमिन ने उत्तर दिया- हे राजा! मैं ठीक-ठीक दाम बताऊंगी। मीनो का मोल तो ननदजी को कुरती है और सूप को कोमत राजा के हाथ का रूमाल है ।।१७-१८11
इतनी बात सुनते हो अपनी स्त्री को पहचान कर राजा ने कहा-अरे डोम को कोई पकड़ तो लाओ ।॥१९॥
डोम आया। वह देहरी पर चढ़ कर बैठा और झुक झुक कर सलाम करने लगा ॥२०॥
राजा ने कहा- हे डोम ! ठीक-ठीक बताना कि मेरे योग्य यह मेरी रानी है कि नहीं ॥२१॥
डोम ने कहा- हे राजा में ठोक डोक बताऊंगा। आपके स्वीकार करने योग्य रानी अब नहीं है। इन्होंने मेरा जूठन खाया है और मेरी पीठ से सटकर मेरे साय शयन भी किया है ॥२२-२३॥
इतनी बात सुनते ही राजा ने कहा- अरे ! डोमिन को तो कोई पकड़ लालो। डोमिन आई और आँगन के बीच जाकर बैठी। राजा ने कहा- रो डोमिन ! सच्ची सच्ची बात बताना। मेरे स्वीकार करने योग्य रानो है न ? ॥२४-२५॥
डोमिन ने कहा- हे राजा! मैं ठीक-ठीक बताऊँगी झूठ नहीं बोलूँगो । आपके स्वीकार करने योग्य रानी हैं। इन्होंने न जूठन हो खाया और न मेरे स्वामी डोम के साथ शयन ही किया। हे राजा ! तुम्हारे योग्य रानो हैं ॥२६-२७॥
राजा ने कहा--अच्छा ! हे रानी! तुमने यदि डोम का जूठन नहीं खाया है, तो मेरे सामने परीक्षा दो ॥२८॥
रानी ने अग्नि को सम्बोधन करके कहा- हे अग्निदेव ! अगर तुम सत के अग्निदेव होगे, तो मेरा शरीर तिलमात्र भो नहीं जलेगा ॥२९॥
यह कह कर जब रानी ने अग्नि में प्रवेश किया, तो धधकतो हुई आग ठंडी पड़ गई ओर उसके बोच में सतो रानी बिना जले खड़ी चमकती रही ॥३०॥
गाँव के बाहर राजा ने ओवा (गहरा गड्ढा) खुदवाया ओर उसी में डोम को जीते हो गड़वा दिया ॥३१॥
इस गोत में हरदो के राजा का वर्णन आया है। हरदी बलिया जिला में हैहयवंशो राजपूतों को राजधानी है। यह भोजपुर से गंगा पार बहुत निकट है। आज भी वही राजा अपने बुरे दिनों को गिनते हुए वर्तमान हैं। ज्ञात होता है, वहीं के किसी राजा को कहानी को लक्ष्य करके यह गोत बना है। विरहिणो पति को तलाश में भावज के ताना मारने पर निकल बाहर होती है। डोम उसे फुसला कर घर ले जाता है और उसे सूप ओर टोकरी बेचने को भेजता है। वह वहीं जाती है, जहाँ जाने से उसने रोका या और पति द्वारा पुनः स्वोकृत होती है।
( २४ )
एक सुधि आइ गइली जेवना जेंवत करे। मोरा धईल जेवन बसिआइ गइले हो ।। सुधि आइ गइली सॅवरो सिपहिया के ।।१।।
एक सुधि आ गइली पनिया भरत करे।
आरे फुटलें घइल बुड़ि जात रे। सुधि आ गइली सँवरों सिपहिया क रे॥२॥ एक सुधि अइली बीरवा जोरत करे। आरे खैर सोपरिया मों भूलि गइलीं रे। सुधि आ गइली सँवरो सिपहिया के ।।३।। एक सुधि आ गइली सेजिया सोवत करे। आरे डसिती नगिनियाँ मों मरि जाइतों रे। सुधि आ गइली सँवरो सिपहिया के ॥४॥
विरहिणो अपनी दशा बता रही है। कहती है-मुझे अपने साँवले सिपाही की सुधि भोजन करते समय आई। बस मैं विभोर हो गयी। सामने का रखा हुआ भोजन बासी हो गया। मुझे खाने की सुधि भूल गई ॥१॥ फिर एक बार याद आई पानी भरते समय। उसका फल हुआ कि मैं सुधि-बुधि भूल गई और घड़ा फूट कर इनार (कुएँ) में डूब गया ।॥२॥
फिर एक बार पान लगाते समय याद आ गई। बस मैं ऐसी बेसुध हुई कि पान में खैर सुपारी डालना भूल गई ।।३।।
फिर एक बार सुधि आई सेज पर सोते समय । हा! उस समय यही मन में आया कि मुझे नागिन डस लेती और मैं मर जाती। हा! मुझे अपने साँवले सिपाही को सुधि आ गई ॥४।॥
(२५)
झीने झीने गोहुर्वा बाँसे कइ डलेरिया ननदी भऊजिया गोहुँवाँ पीसें मोरे राम ।।१।। रोजे त आव देवरा दुइ रे सिपहिया आजु कइसे अइल अकेल मोरे राम ॥२॥ कइसे के भीजें देवरा तोर रे पनहिया कइसे तेगवा तोर भीजे मोरे राम ।।३।।
सितियन भीजे भऊजी मोर रे पनहिया हरिना सिकरवा तेगवा भीजे मोरे राम ॥४।। देहु न बताई मोके देवरा रे गोसइयाँ तोहि छाड़ि कतहीं ना जइवि मोरे राम ।।५।। कहवइँ मरल कहवाँ बहह्वल कहाँ चिल्हरिया मेड़राइ मोरे राम ॥६॥ ऊँचवे मरलीं खलवें बहवलीं मोरे राम ।।७।। बन में चनन केरा लकड़ी बटोरली चितवा कइली तइयार मोरे राम ।।८।। जाहु जाहु देवर अगिआ ले आवहु सामी के अगिया हम देवि मोरे राम ।।९।। जो रउआँ होईं सामी सत के विअहुता अँचरा अगिनिया उपजाई मोरे राम ।।१०।। अँचरा भभकि उठल सतिया भसम भइली सरगे चिल्हरिया मेड़राइ देवरा मलेले दूनो हाथ मोरे राम ॥११॥ जो हम जनितीं भऊजी दगवा कमइबू काहे के मरितीं सग भइआ मोरे राम ॥१२॥
पतला-पतला गेहूं है और बाँस की डलिया है। ननद और भौजाई दोनों गेहूं पीस रही हैं ॥१॥
भौजाई ने कहा- हे देवर! रोज तो तुम दो साथी साय आते थे, आज अकेले कैसे आये ? ॥२॥
हे देवर ! तुम्हारा जूता कैसे भोग गया। और तुम्हारा तेगा केसे भीगा हुआ है ? ॥३॥
देवर ने कहा-- हे भावज ! शीत से तो मेरे जूते भीगे हैं और हरिण के शिकार से मेरा तेगा भीगा है ? ॥४॥
भावज ने कहा- मैं तुमको छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगी। हे मेरे देवर ! तुमने मेरे स्वामी को कहाँ मारा, कहाँ फेंका और अब किस स्थान पर उनके शव के ऊपर चील्ह मंडरा रही हैं, यह मुझे बता दो ॥५-६।।
देवर ने कहा- मैं ऊंचे पर्वत पर उन्हें मारा और नोचे खंदक में गिरा दिया। वहीं आकाश में चील्ह मंडरा रही हैं ।।७।।
भावज ने बन में जाकर चन्दन को लकड़ी इकट्ठा करके चिता तैयार की और देवर से कहा- हे देवर! तुम जाओ, कहीं से आग ले आओ। मैं अपने स्वामी का अग्नि-संस्कार करूँगी ।।८-९।।
देवर चला गया। चिता पर बैठ कर भावज ने कहा- हे मेरे स्वामी ! अगर आप सत्य के स्वामी हों, तो मेरे अञ्चल से आग निकले ॥१०॥
धक-धक कर अञ्चल से आग निकल पड़ी और उससे सती भस्म हो गई। देवर जब आग लेकर बापस आया, तो दोनों हाथ मलकर कहने लगा- हे भावज ! अगर मैं जानता कि तुम इस तरह से छल करोगो, तो मैं क्यों अपने सगे भाई को मारता ।।११-१२॥
इस भाव के गीत हमें पूर्व में भी मिल चुके हैं।
( २६ )
मोर पिछवरर्वा कोहॅरवा क बखरी निक निक मेटुकी गढ़ावहु जी । असकइ चाक चलावहु रे कोहरवा दहिया वेचन हम जाइवि जी ।। असकइ चाक चलाइवि गुजरिया, दहिया लेवइया लोभि जाई जी ॥१॥ मोर पिछुवरवा दरजिया के बखरी, निक निक चोलिया सिआवहु जी। असकइ सुइया चलावहु रे दरजिया, चारि चिरइया दुइ मोर जी ॥२॥ कहाँ बनावो गुजरि ! चारि चिरड्या, कहाँ बनाओ दुइ मोर जी । अँगिया बनावहु चारि चिरइया, अॅचर बनावहु दुइ मोर जी। ऊठत बोले जेमें चारि चिरैया बइठत कुहुके दुइ मोर जी ।।३।। एक घर उँधली दुसर घर लॅघली तिसरे में मिलले छोड़ कन्हैया हमरी कलइया, हमरे ससुर वड़ कन्हैया जी। जालिम जी ।। तोहरे समुर के हम हथिया पठइवों तोहके बइठड्वों अपने राज जी ॥५॥
छोड़ छोड़ कान्हा हमरो कलइया भसुरा बड़ी उतपाती जी। तोहरे भसुर के ह्म घोड़वा पठइवों तोहके बइठइवों अपने राज जी ॥६॥ छोड़ छोड़ कन्हैया हमरो कलइया, हमरे देवर जंजाली जी। तोहरे देवर के मों मुरली पठइवों, तोहके बइठड्वों अपने राज जी ।।७।। छोड़ छोड़ कन्हैया हमरो कलइया, सइयां हमरो दुख दारुन जी। तोहरे वलमुआ के करवों वियहिया, एक गोरी एक साँवरि जी ॥८॥
तनी एक पिछवहुँ होइ जाहु कान्हा, जमुना में खेलिहों डुबुकिया जी। एक वुडकी मरली दूसर वुड़की मरली, गोरिया उतरि गइली पार जी ॥९॥
पूछन लागे कान्हा गड्या चरवह्वा वखरी गुजरिया के बतावहु जी। जाई के बइठे कान्हा कुँअवा जगत पर, पूछहि कुआँ पनिहारिन जी।
बखरी गुजरिया के बतावहु जी। जेहि के दुआरे कान्हों वॉन्हल पड़रुवा, उहे गुजरिया के वखरी जी ।।१०।।
हमारे पिछवारे कुम्हार का घर है। चलो मैं अच्छो-अच्छो मटको बनवाऊँ। हे कुम्हार ! तुम ऐसा चाक चलाओ कि मटको जल्दो तैयार हो जाये। मैं दही बेचने जाऊँगी। कुम्हारने कहा- हे गुजरी में ऐसा चाक चलाऊँगा और ऐसो मटको तैयार कर दूंगा कि जो वही खरोदेगा, वह लोभ जायेगा ॥१॥
मेरे पिछवारे दरजी का घर है। चलो उससे अच्छो अच्छो चोली सिलायें। गुजरो दरजो के पास जाकर बोलो- हे दरजो, ऐतो सुई चलाओ कि चोली में चार चिड़ियाँ ओर दो मोर बन जायें ॥२॥
दरजी ने कहा- हे गुजरी ! में किस जगह चार चिड़ियाँ बनाऊँ और किस जगह दो मोर। गुजरी ने कहा- अँगिया में तो चार चिड़ियाँ और अञ्चल में दो मोर ऐसा बनाओ कि उठने पर चिडिया बोलने लगे और बैठने पर दोनों मोर कुहुकने लगें ।।३।।
मटकी में दही ले और कुर्ती पहन कर स्त्री चलो एक घर पार कर उसने
दूसरा घर पार किया। तीसरे घर के सामने उसे कन्हैया मिले। उन्होंने उसकी बांह पकड़ लो। स्त्री ने कहा- हे कान्ह! मेरी बांह छोड़ दो। हमारे ससुर बड़े जालिम हैं। कान्ह ने कहा- में तुम्हारे ससुर को हाथी भेजूंगा और तुमको अपने राज को रानी बनाऊँगा ।।५।।
गुजरी ने कहा- हे कान्ह! मेरी बांह छोड़ दो। मेरे जेठ बड़े उत्पात मचाने वाले हैं। कान्ह ने कहा- में तुम्हारे जेठ को घोड़ा नेज दूंगा और तुमको अपनो राज-रानी बनाऊँगी ।।६।।
स्त्रो ने कहा- हे कृष्ण ! मेरी बाँह छोड़ दो। हमारे देवर बड़े ऊधमी हैं। कृष्ण ने उत्तर दिया-तुम्हारे देवर को में मुरली भेजूंगा और तुमको अपनी रानी बनाऊँगा ।।७।।
स्त्रो ने कहा- हे कृष्ण ! मेरो बाँह छोड़ दो। मेरे पति बड़े दुःख देने वाले हैं। कृष्ण ने कहा-तुम्हारे पति के मैं दो विवाह कर दूंगा। एक सांवली और दूसरी गोरी होगी ।॥८॥
स्त्रो ने कहा- हे कान्ह ! थोड़ा-सा पीछे हो जाओ। मै यमुना में डुब्बी मार खेलूंगी। कान्ह स्त्री की बाँह को छोड़ कर हट गये। स्त्री ने एक डुबकी लगाई, फिर दूसरी डुबकी ली और जल के भीतर ही भीतर यमुना पार हो गई ॥९॥
कृष्ण गाय के चरवाहों से पूछने लगे कि गुजरो का घर तुम बताओ। (चरवाहों ने कुछ नहीं बताया) तब कान्ह कुएँ की जगत पर जा बैठे और पनिहारिन से गुजरी का घर पूछने लगे। पनिहारिन ने कहा- हे कान्ह ! जिसके दरवाजे भेंस का पड़वा बंधा हो, वही तुम्हारी उस गुजरी का घर हे ॥१०णा
( २७ )
छोटी मुटी गछिया लामी लामी पतिया, फले फुले तुलसी सोहावन रेखी ।।१।। निहुरि निहुरि हम अँगना बहालों, देवरा निरखे मोर मुंहाँ रेखी ॥२॥ काहे बिना भउजी हो ओठवा झुरइले, काहे विना नैना नीरढारेलू रेखी ।।३।। पान बिना बत्रा हो ओठवा झुरइले, रउरे भइया बिनु नैना नीर ढारीला रेखी के में पैर धोकर पी लूंगी, जिसके कारण मेरा सिन्दूर मुझे फिर मिल रहा है ।।९-१०॥
कितना स्वाभाविक वर्णन है। विरहिणी की व्याकुलता और पति के लौटने पर प्रसन्नता कितने सुन्दर रूप से चित्रित को गई है।
( २८ )
गहिरी नदिया ये हरीजी, अगम बहे राम पनियाँ । पिअवा जे चलले मोरंग देसवा विहरेला करेजवा ।।१।।
जो हम जनितों ये हरिजी जाइबि परदेसवा । कसि के बन्हितों ए निरमोहिया पिरीति केरा डोरिया ।।२।।
मुंह तोरा देखों ये हरीजी नान्ही नान्हीं रेखिया। आँख तोरा देखों ये हरीजी अमवाँ केर फॅकिया ।।३।। ओंठ तोरा देखों ए हरीजी चुएला रतनरियां। हाथ तोरा देखों ये हरीजी लामी छल रेसमा ।।४।। घरवा में रोवेली घरनी ए हीजी, बनवाँ में हरिनिया रोवे राम ! बनवा में रोवे चकवा चकइया रतिया विछोहवा कहले राम ।।५।।
हे राम ! गहरी नदी है, अगम जल बह रहा है। मेरे प्रियतम मोरंग देश को जा रहे हैं। मेरा हृदय भीतर से बिहर रहा है, अर्थात् भावी विरह को सोच-सोच कर दुखी हो रहा है ॥१॥
हे हरिजी ! जो में जानती कि तुम परदेश जाओगे, तो हे निर्मोही, तुमको प्रेम को डोर से कसकर बाँध देती ॥२॥
हे प्रियतम ! में तुम्हारा मुख देखती हूँ, तो उस पर नन्हीं-नन्हीं रेख अभी निकल रही हैं और जब तुम्हारी बड़ी बड़ी आंखें देखतो हूँ तो आम की फाँकी स्मरण हो आती हैं। ओठ देखती हूँ तो हे प्यारे ! ऐसा मालूम होता है कि उससे लाली टपक सी रही है और तुम्हारे हाथ देखने पर रेशम के लम्बे लच्छों का बोध हो जाता है ।।३-४।।
हे प्रियतम ! (तुम चले जा रहे हो) घर में तुम्हारो स्त्रो रो रही है। विधवा हरिणी रो रही है, फिर उसी वन में शापित चकवा-चकई भी रात रात भर विरह में रुदन किया करते हैं। तुम भी इनको देखकर वहाँ कैसे चैन से रह सकोगे ? ॥५॥
प्रोषित पतिका अपने पत्ति के विदेश गमन को सुन मन-ही-मन भावी विरह-वेदना को चिन्ता कर रही है। पति को अवस्था अभी किशोर है। रेख आ रही है। आम की फाँक सी आंखें हो रही हैं। होठों से लाली चू रही है। इतनी तरुणाई है। फिर अभी वे उसके प्रेम-जाल में बंधे नहीं। यह जानती भी नहीं यी, नहीं तो कभी हो कस कर प्रेम डोर से बाँध लेती। वे मोरंग देश जा रहे हैं। वहाँ क्या होगा, यह सोच-सोच कर उसका कलेजा वियोग दुःख से फट रहा है। हे नाथ! (जोवन) नदी बड़ो गहरी है। उसमें अथाह अगम जल बह रहा है। घर में घरनी रो रही है। जंगल में हरती रो रही है। वन में रात्रि समय चकवा-चकई रो रही है जिन्हें राम ने रात्रि का वियोग दिया। मेरा हृदय विहर रहा हैं। पाठक सोच, कितना सजीव वर्णन है और कितनी वेदना इसमें भरी पड़ी है।