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भोजपुरी काव्य में वीर रस

16 December 2023

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भोजपुरी में वीर रस की कविता की बहुलता है। पहले के विख्यात काव्य आल्हा, लोरिक, कुंअरसिह और अन्य राज-घरानों के पँवारा आदि तो हैं ही; पर इनके साथ बाथ हर समय सदा नये-नये गीतों, काव्यों की रचना भी होती रही है और आज भी हो रही है। बिरहा छन्द जहाँ श्रृंगार और विरह के लिये विख्यात है, वहाँ वीर रस के लिये भी पूरा प्रसिद्ध है। इस सम्बन्ध में ग्रियर्सन के मत का उद्धरण आगे हो ही चुका है। वीर रस के नमूने नीचे उद्धृत हैं-

भोजपुरियों का राष्ट्रीय गीत, जो १८५७ के राज-विद्रोह से आज तक गाया जाता है।

फाग

(१)

बाबू कुंअर सिंह तोहरे राज विनु, अव न रँगइवों केसरिया ।।

इतते अइले घेरि फिरंगी, उतने कुँवर दुइ भाई । वावू० ।। गोला बरूद के चले फिचकारी, विचवाँ में होते लड़ाई ।। बाबू० ।।१।।

(२)

बाबू कुंवर सिंह के पर्वांरा के कुछ अंश-

बाबू कुंवर सिंह पच्छिम से जब पाँयत कइले, पदना में डेरा गिरवले ना ।।

लोहा के जामा सिअयले कुंवर सिंह,

तम्मन बन्द लगवले ना ।। 

ढाल तरुवरिआ के कवन ठिकाना,

गोली दरजिया खाये ना ॥ ए-ए-ए-ओही दिन सँगवा उन्हकर केहू ना दिहले, जगदीसपुर ना होइत फिरंगिया राज ।। (३)

दूसरा पँवारा-

भर भोजपुर में कुँवर विरजले, रीवाँ रहल सरनिया नू ।।

हाट बजरिया कवन विसारे, के कहल सब गुनवा नू ।।

वेतिआ अबरू दरभंगा वाड़े, आउर बाड़े टेकारी नू ।।

जैपुर जोधपुर दूर बसेले, छोटे राजा मझवली नू ।।

भोजपुर में डुमरांव बसेला, उहाँ बाड़े फिरंगिये नू ।।

सबे बिसेन मिलि धुसे लुकइले, वावू परले अकेला नू ।।

जल्दी से जरि कागज मगाव, जल्दी पुरजा लिखाव नू ।।

पुरव दिसा कलकत्ता बसेला, उहाँ लाट सहेबबा नू ।।

सब दिन मनलन मोर हुकुमवा, आजु सरवे रोकलनु नू ।।

परयागजी में उतरे सिपहिया, सब के कुरसी दिहलसि नू ।।

उहाँ से चिट्ठी जगदीश पुर अइले, सुनि ल अमरसिह भाई नू ।।

पतिया देखि अमर सिह रोअले, छाती मूका मरलनि नू ।। होवे सवारी कुंअर अमरसिह, विज्जू घोड़ा कसवलनि नू ।।

उहाँ से डेरा टेकारी में दाखिल, रानी अकेल विचारे नू ।।

बाबू साहब गुनावन करीला, अबका करब अम्मर नू ।।

हिन्दू खातिर हम बिगड़ली, हिन्दू दिहल पच लतिया नू ।।

इस पँवारे में उस समय की राजनीतिक परिस्थिति के दृश्य का वर्णन है, जब तमाम भारत में विद्रोह शान्त हो गया था और सब राजेमहाराजे अंग्रेजों का साथ देने लगे थे और अकेले कुंवरसिंह और अमरसिह विद्रोह जारी रखने में तल्लीन थे। उस समय की परिस्थिति इस पँवारे में है।

( ४ )

विरहा

बाबू वनवाँ बनवाँ खेले ले सिकरवा।

रोवे लो बनवा के हरिनिया ।।

पहिल लड़इया बाबू हेतम पुर भइली।

रजवा बहेलिया दिहले ना ।।

ए...ए...ए...सतरह से सत्तासी उमजा कुछुओ न बूझले ।

गढ़ लुटवाई दिहले ना ।।

'रजवा बहेलिया दिहले ना' डुमराँव राज्य ने गदर में अँगरेजों का साथ दिया था, उसी से अर्थ है। बहेलिया = बन्दूकदार शिकारी सिपाही ।

(५)

बाबू कुंवर सिंह ने नीलका बछेड़वा,

पीअले कटोरवन दूध ।।

हाली हाली दुधवा पिआई ए कुंवर सिंह,

रयनि जाये के बाड़े दूर ।।

अवको रयनिया जिताव नीला बछेड़वा,

सोनवें मढ़इबों चारू खूर ।।

(६)

देवी के गीत में भी वीर रस स्त्रियाँ गाती हैं। भोजपुरी भाषी वीर माताएं कातर बनकर देवी के सामने भी नत मस्तक होना नहीं चाहतीं।

मो पर दाया काहे ना करतीं ? श्री जगदम्ब भवानी हो! मोपर दाया काहे ना करतीं ? 

बायें हाथे खप्पर विराजे,

दहिने में तिरसूल ।। दानव दल दल मल मल करती, झपट झपट के लड़ती ॥ श्री जगदम्ब ०।। जोड़ि जाड़ि के जुड़ा सेंवरती, सिघ ऊपर लड़ती। खप्पर भरि भरि लोहू पीअतीं जोगिन संग बिरहती ।। श्री जगदम्ब ०।।

(७)

जै जै करत महल बिखे पइसे ली, ए भवानी हो ! राउर महिमा अगम अपार। ए दुखहरिन हो ! राउर महिमा० ए गोद भरनि हो ! राउर महिमा० ।। १ ।। वाये हाँथे खप्पर सोभेला, दहिना में तिरसूल, ए भवानी हो ! राउर महिमा अगम अपार ।। २ ।। छप छप कटलीं गदागद ओड़लीं, ए भवानी हो ! राउर महिमा अगम अपार ।। ३ ।। वाधिनी रूप धरि सत्रु माक भछली, ए भवानी हो राउर महिमा अगम अपार ॥ ४॥

(८)

वर्तमान राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर भी वीर रस के सैकड़ों गीत बने हैं और आगे भी बन रहे हैं-

चलू भैया चलु आजु सभे जन हिल मिल, सुतल जे भारत के भाई के जगाई जा ॥ १ ॥ 

अमर के कीरति बड़ाई दादा कुंवर के,

• गाइ के सुतल चलु जाति के जगाई जा ।। २ ।।

देसवा के बासिन में नया जोस भरि भरि,

मुलुक में आजु, नया लहर चलाई जा ।। ३ ।।

मियाँ सिख हिन्दू जैन पारसी कृस्तान, मिलि,

लाजपत के खुनवा के बदला चुकाई जा ।।४।।

सात समुन्दर पार टाप्पू में फिरंगी रहे। इनका के चलु इनका घरे पहुँचाई जा ।। ५ ।।

गाँधी अइसन जोगी भैया जेहल में पड़ल बाटें, मिलि जुलि चलु आजु गाँधी के छोड़ाई जा ।। ६॥

दुनिया में केकर जोर गाँधी के जेहल राखे, तीस कोटि वीच चलु अगिया लगाई जा ।। ७ ।।

ओही अगिये जरे भैया जुलुमी फ़िरगिया, से मुलुक में चलु फेनि राम-राज लाई जा ।। ८॥

गाँधी के चरनवाँ के मनवा में ध्यान धरि, असहयोग-व्रत चलु आजु से चलाई जा ॥ ९॥

बघवा का पंजवा में माई हो परल बाड़ी, चलु वाघ हाँकि आजु माई के छोड़ा ई जा ।। १० ।।

विपति के मारल माई पड़लि वा बेहोस होइ, माई दुखवे खातिर चलु गरदन कटाई जा ।। ११॥

राज लिहले पाट लिहले धरम के नास कइले, चलु अब फिरंगिया से इजति बचाई जा ।। १२ ।। तीस कोटि आदमी के देवता जेहल राखे, इनका के चलु ओकर मजवा चखाई ॥ १३ ॥

यह गीत '२१ और '३० के राष्ट्रीय आन्दोलन में भोजपुरी बच्चे-बच्चे द्वारा ही नहीं गाया जाता था, बल्कि विहार के अन्य भाषा-भाषी जिलों में और यू० पी० के पूर्वीय जिलों में प्रायः हर जलूस के साथ इस गाने का गाया जाना अनिवार्य था। 'जेल में भी न रखणी सरकार जालिम' के पंजाबी गीत की तरह हर मौके पर यह हजारों कैदियों द्वारा एक साथ एक स्वर में गाया जाता था। इसके रचयिता हैं शाहाबाद के सरदार हरिहरसिंह। इसी तरह भोजपुरी का फिरंगिया गाना भी मशहूर है; पर खेद है कि उसकी प्रति अभी तक मुझे नहीं मिली है, उसका एक चरण है-

"भारत का छतिया पर भारत बलकवा के बहेला रकतवा के घार रे फिरंगिया।"

इन पंक्तियों के लेखक को इधर वीर रस के तथा ऐसे राष्ट्रीय गीत, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता प्राप्त करने में जनता को सफल रूप से उभाड़ा है, प्रचुर संख्या में मिले हैं। जिनके विवरण के लिये Folk Lore नामक मासिक पत्रिका कलकत्ता के लिये लिखा गया Contribution of Bhojpuri Folk songs in the attainment of Indian Independence from 1857 to 1957 A. D. नामक लेख में दिया गया है-'भोजपुरी के कवि और काव्य' में भी प्रचुर मात्रा में वीर रस की सामग्री है। प्रकाशक-विहार राष्ट्रभाषा परिषद्, राजेन्द्र नगर, पटना । १९५६ इधर चीन के संघर्ष को लेकर कुछ पुस्तकें तथा हजारों कविताएं वीर रस की छप चुकी हैं। 'आज' दैनिक की फाइल विशेष उल्लेखनीय है।

भोजपुरी में हास्य रस और व्यंगोक्ति

भोजपुरी में व्यंग और हास्य रस कहने की प्रथा बहुत प्राचीन है। इस रस में भी भोजपुरी का भाण्डार सुन्दर है। भोजपुरी कवि गम्भीर से गम्भीर विषय पर और विकट से विकट परिस्थिति में भी हास्य-रस कहने की सहज क्षमता रखता है और समय आने पर बिना कहे बाज नहीं आता। जिस लाघवता से वह विकट संकट की परिस्थिति को ग्रहण करके श्रोता को साहस प्रदान करके हँसा देता है, यह उसकी कविता सुनने ही पर ज्ञात होता है। इससे उसके हृदय की निर्भीकता तथा बहादुरी साफ-साफ प्रकट हो जाती है। शिवजी के दाम्पत्य जीवन को लेकर भोजपुरी में काफी हास्य मिलेगा-

महाकवि विद्यापति जी रचित विनोद

(१)

देखि हम अइलों गउरी तोर अंगना ।। खेतीन पथारी सिवका गुजर एकोना । मगनी के आस वाटे बरिसो दिना ।। पइँच उधार लेवे गैलों अंगना । सम्पत्ति देखल एक भाँग भर्नाह विद्या पति सुनुऊमना । घोटना ।। संकट हन करु अइली सरना ।।

(२)

वाजत आवेला ढोल दमामा, उड़इत आवेला निसान । सिव जी का माथे डुगडुगिया सोभे, बएल पर असवार ।। परिछे बहर भइलो सासु मदाकिन, सरप छोड़े ला फुफुकार ।। लोर्हा पटकलिन सूप पेवइलिन, पाछा पराइल जाइ। ए सिव गउरा अइसन सूनरि, सदा सिव तेकर वर बउराह ।।

ये शिव के गीत मुझे अपनी पूजनीया पितामहीजी से मिले हैं। इनकी भाषा की गम्भीरता से तथा पितामहीजी के कथन से इनकी प्राचीनता प्रमाणित है।

भिखारी ठाकुर के हास्यविनोद के गीतों का भोजपुरी जनता में बहुत प्रचार है। 

मोतिहारी के पं० श्यामबिहारी तिवारी 'देहाती' (आपका निधन हो गया) भोजपुरी हास्य रस के वर्तमान सर्वश्रेष्ठ कवि थे। बिहार के प्रायः हर कवि सम्मेलन में आपकी उपस्थिति अनिवार्य-सी समझी जाती थी। श्री 'देहाती' जी का हास्य और व्यंग बहुत गंभीर, बामानी, कवित्वपूर्ण, चुभता हुआ, मुहावरेदार होता था। किसी भी कवि सम्मेलन में इनके उठते ही तालियाँ पिटने लगती थीं और आपके हर छन्द पर श्रोता हँसते- हँसते लोट जाते थे। आप सदा भोजपुरी में ही और हास्य और व्यंग्य को लेकर ही लिखते थे। आपके लिखने के विषय सामयिक तथा सामा- जिक और राजनीतिक होते थे।

मोतिहारी में, जो बिहार प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर कवि-सम्मेलन हुआ था, उसमें देहातीजी ने निम्नलिखित शीर्षकों पर कविता सुनायी थी-

देहाती पोलाव छपले बा

'छपले बा' भोजपुरी मुहावरा है। छापना ढकने के अर्थ में प्रयोग होता है या अन्धा बना देना भी इसका अर्थ होता है।

उनका दिमाग में त हर घरी, अहेर छपले वा। गोलिओ कइसे मारसु, ऊ नीचे ऊपर शेर छपले बा ।।१।। बात कइसे बुझबड, अरे कुछऊ त पढ़ऽ । मकई कइसे होई, सउसे, खेत त जनेर छपले बा ॥२॥ केहू का हुरकवला से, कहीं तितिरी मिली। उनका मन में त हर घरी, बटेर छपले वा ॥ ३।। घर में दुइये त ठहरली, ओही में चलता उंटा। हमनी के घरे कवनो भूत घरे घर छपले बा ।।४।।. अपने में काटा कूटी करीं नीमने नू बा। अरे अइसन नू हमरा घर में अन्हेर छपले बा ।।५।। 

हमरा सरकार का बदलते बदल गइल कपड़ा। सुराज के मोह त उनका अनेर छपले बा ।।६।। बावा का ओझाइओ पर छूत के भूत ना भागल। बभन झोंझ होते रहे दोसर बभन फेर छपले बा ।।७।। बड़की कोठी में गइनी, बइठि गइनी भुइयें। गलइचा काहाँ सूझो ? आँख में त नरकटपटेर छपले बा ।।८।। 'लोरिका' 'मन बिहुला' छोड़ी भव आल्हा गाईं। हमार रोटी त आके कवनों दिलेर छपले बा ॥९॥ भगवान करसु ऊ दिन कब देखवि। अजमेर काशी काशी अजमेर छपले बा ।।१०।। छवे महीना जी अवि घुरुव तारा नइखै लउकत। भाग के बाद ई आँखें में उलट फेर छपले बा ।।११।। जल्दी चल, जा घरे, ना त घेरा जइव। देख हो दे पच्छिम में घटा घनेर छपले बा ॥१२॥ गरीब हई एह से का? अइसन बात मत बोलीं। अकेले का रउरे घर में सवेर छपले वा ।।१३।। चूप रहीं बात नइखीं बूझत, मत बोली। बोले के कांछा त रउरा अनेर छपले वा ।।१४।॥

सम्मेलन के कवि-सम्मेलन के बाद 'देहाती' जी को वहाँ के स्काउट कमिश्नर के वॅसवरिया स्थित बंगले में वहाँ बाले ले गये। वहाँ की टी पार्टी पर आपकी कविता सुनिये -

काका देखनी

का कहीं केतना देखनी, का का देखनी ।

भीतरी ना देखनी, बाहर के लिफाफा देखनी ।।१।। 

टिकात नीमन रहे, खूब मजा आइल । सम्मेलन में त अजवे अजब तमासा देखनी ॥ २ ॥ 'छपले बा' छाप गइल सब करा मन पर। दोसरो दिन रहनी गाली झोंझ खुलासा देखनी ॥ ३ ॥ अइला पर पूछल लोग, बोल का का देखल। के झोंझ करो, कहि देहनी लाइ अउरी बतासा देखनी ।॥ ४॥ घिसी अवले ले गइल लोग स्काउट कमिसनरी में बड़की कोठी देखनी भीतर के नकासा देखनी ॥ ५॥ अरे भाई ! अइसन सत्कार कतहूँ ना मिलल । देहातियों के साथे खाये के तकाजा देखनी ।। ६ ।। आगे टेवुल आइल। बूझनी, यही पर नू ध के पढ़वि । आहि बाल ! ई का !! सामने छूरी अउरी काँटा देखनी ।। ७ ।। जे जे आइल धइले गइलीं गोलक में। पानी मिलबे ना कइल इहे एगो घाटा देखनी ।॥ ८ ॥ मन में आइल के खाउ काँटा से देरी होई। एक सँसिये मारि दिहनी ना आगा देखनी ना पीछा देखनी ।॥ ९ ॥

शाहाबाद जिला के सरदार हरिहरसिह की वीर रस की कविता आगे दे चुके हैं। मुजफ्फरपुर के सहित्य-सम्मेलन के अवसर पर आपने एक हास्य रस की रचना सुनाई थी, उसके कुछ चरण सुनिये। आप राजपूत हैं और उस जिले में रिस्तेदारी भी है। सम्मेलन में कुछ सबन्धी प्रस्तुत थे; अतः इस रूप में उन्होंने हास्य-रचना कही-

देखलीं भइया तिरहुत देस ।

उजबक मरद मउगा भेस ।।

एतना दुर से चल के अइलीं।

आम दही एको ना पवलीं ।। 

नचलन गवलन तुरलन तान । ना दिहले भोजन ना जलपान ।।

व्यंगोक्ति

व्यङ्गोक्ति के चन्द उदाहरण हम 'देहाती' जी की ही रचना से देने के प्रलोभन को नहीं रोक सकते-

सीखऽ

पुरुखन के भुला गइल, दिलेरी कहाँ से आवे। घोड़ा त छुटिये गइल, गदही के सवारी सीखऽ ।। बबुआ पटना से अइले, तुम नाम मेहो गइल मारा। हम त कहत रहनी कि बने के जवारी सीखः ।। वी० ए० त पास कइले खेत बिका गइल। पहिल हीं कहनी कि गढ़ के कियारी सीखऽ ।। नया विग्रह भइल सासुए महतारी बनेला । गारी सुने के होखे त रहे के ससुरारी सीखः ।। अव लोग कहि ना पूछी तोप के डर गइल। सब अएव छिपाने के होखे तऽ वनेके खदरधारी सीखऽ ।।

खेद है 'देहाती' जी ऐसे प्रतिभावान कवि का असमय में देहावसान हो गया। आपने निधन के समय कितनी वेदना भरी बात कही थी; पर नगण्य देहाती की महान् उक्ति को कौन साहित्यकारों तक पहुँचाये ! आपने अंतिम श्वास-प्रस्थान के पूर्व इधर-उधर देख कर कहा था-

फूट रहल बा तनके गगरी लउक रहल बा मन के नगरी निकचा भइल जात बा दिनदिन एह नदिया का पार के नगरी ।। फूट० ।। 

का जानी राम ओह नगरिया खोचव कि नाहम भरल गगरिया आनदेस के भेस घराई छूटी गाँव नगर के डगरी ।। फूट० ।।

भोजपुरी में शृंगार रस

श्रृंगार रस के गीतों के उद्धरण प्रस्तुत संग्रह में प्रचुर मात्रा में आ चुके हैं। भूमिका की काया-वृद्धि भी काफी हो चुकी अतः इस रस के उदाहरण के गीतों को पाठक संग्रह में ही देखने का कष्ट उठायें। शृंगार रस के काव्य से भोजपुरी का भण्डार बहुत धनी है।

भोजपुरी में शान्त रस

शांत रस का भण्डार भी भोजपुरी में पूरा भरा है। प्रायः सभी बड़े कवियों ने इस रस में भोजपुरी में अवश्य कुछ-न-कुछ कहा है।

अपनी पूजनोया पितामहोजी से प्राप्त

(१)

जंउ हम जनितों सीतलि अइहें कंगना, भवानी अइहें अंगना, चनने ए लिपइतों लिपइतों घर अँगना ।। खन खेले आंगन मैया खन खेले घर हो, घूमि घूमि हो, 11 ए खेले ली देवी अँगना घूमि घूमि हो ।। गोड़ के पैजनियाँ देवी रुनु बाजे अँगना झुनु बाजे अंगना, झूमि झूमि हो ए खेले ली देवी अँगना ।। कथि केरा हउए रउरा खाट खटोलना अवरू मचोलना, कथि छने ए लागेला लागेला चारु पावना ।। रूपे केरा हउए खाट खटोला अवरू मचोलना सोने छने, ए लागेला लागेला चारु पावना ।। 

तेही पर सूते ली देवी हो सीतलि मैया, घूमि, घूमि ए, सोएली सोएली देवी अॅगना घूमि घूमि हो ।

(२)

बाबू अम्बिकाप्रसाद आरा में मुख्तार थे। इनके अनेक गीत हैं। शान्त रस के नमूने ये हैं-

देखलीं में सत्रिया एक कल के खेलवना रे, पाँच पचीस कलवा लागल रे की ।। तीन सौ साठि तामें लगली लकड़िया रामा, नवसव जोड़वा बाँधल रे की ।।

दुई रे सहेलिया मिलि खेलेली खेलवना रामा, तीनों खेलकवा तेही संगवा धावेला रे की ।।

नव रे महीनवा में बनेला खेलवना रामा, खेलवा मेटत देर ना लागेला रे की ॥

'अम्बिका' कहत है समझि खेलु गोरिया रामा,

खेलवा के भेदवा गुरु से पावल रे की ।।

(३)

कवीरदास के शिष्य धरमदास का गाया हुआ कबीर का भजन

सोहर

जाके दुवरवा जमिरिया से कइसे सोएली हो, ललना, महर महर करे फूल नीदिरिया नाहीं मावेली हो। काटों में पेड़ जमिरिया त पन्हेंगा बनाइबि हो, तेहि पर सोनें मोरा साहेव त वेनिया डोलाइबि हो ।। सासु भोरी सुतेली अटरिया ननद गज आंबरि हो, ललना सैयां मोरे मुतेले घवरहरिया, में कइसे जगाइबि हो ।। 

उठ मोरी लहुरी ननदिया, तुही ठकुराइन हो, ललना पाँच चोर घरवा मूसेलें, त दियना जगावहु हो, एही नगरी बसले पियवा मोर, त केहू ना जगावल हो, नइहर के लोग अभिमानी, पिया न्नाहीं चीन्हल हो ।। इहाँ के नाचल भवनवा त नीक नाहीं लागे ले हो, घरहीं में एक छिहुनिया त नाच ताहाँ देखबि हो ।। छोट मोर पेड़ जमिनिया त फूलवा लहर करइ हो, तेहि तरे बाजन बाजे ले त सबद सुनावल हो, साहेब कवीर के सोहर, संत जन गावल हो, ललना सुनहू हो धरमदास, अमर पद पावल हो ।।

(४)

'शब्द'

कबीरदासजी कृत

साई मोर बसत अगम पुरवा, जह गम न हमार ।। आँठ कुआं नव बावली, सोरह पनिहार ।। भरल घइलवा ढरकि गले हो, घन ठाड़ी पछतात ।। छोटी मोटी हँडिया चॅनन कइ हो, छोटे चार कहार ।। भाइ उतरले वोहि देसवाहो, जाँहाँ कोइ ना हमार ।। ऊँच मह्रिया साहेब कइहो, लागल विषनी बजार ।। पाप पुन्नि दुइ बनिया हो, हीरा लाल बिकात ।। कहले कवीर सुनु साइयाँ हो, मोरा आव हिय देस ।। जे गले से बहुरले ना, के कहेला सँदेस ।।

(५)

'शब्द'

सूतल रहलू में नींद भरि हो, गुरु दिहल जगाइ ।।

चरन कॅवल कइ आँजन हो, नयना लिहलों लगाइ ।। 

जासे निदिया ना आवे हो, नाहीं तन अलसाइ ।। गुरु के वचन निज सागर हो, चलु चलीं जा नहाइ ।। जनम जनम के पपवा हो, छिन में डारव धुवाइ ।। बोहि तन के जगदीप कैलों हो, श्रुति बतिया लगाइ ।। पाँच तत्त कइ तेल चुऐलों, ब्रह्म अगिन जगाइ ।। सुमति गहनवाँ पहिलो हो, कुमति दिहलौं उत्तारि ।। निरगुन मॅगिया संवरली हो, निर्भय सेंदुरा लगाइ ।। प्रेम पियाला पिआइ कड़ हो, गुरु दिहलई बउराइ ।। विरह अगिन तन तलफई हो, जिया कछु ना सुहाइ ।। ऊँचकी अटरिया चड़ि बइठलूँ हो, जहाँ काल ना खाइ ।। कहलई कवीर बिचारि के हो, जमवा देखि डेराइ ।।

भोजपुरी में रहस्यवाद

हिन्दी में छायावाद के कहने वाले आदि कवि कवीर साहह्न ही कहे जाते हैं। इनकी सभी रचनाओं का भोजपुरी में होने का दावा अभी पं० उदयनारायणजी तिवारी ने अपने भोजपुरी ग्रामर की थीसिस में करके इसे विस्तृत और वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित किया है। तिवारीजी के इस दावे की पुष्टि कवीर साहव के निम्नलिखित दोहे से हो जाने पर, किसी भी विद्वान् को उससे सहसा इनकार करते समय कुछ हिचक अवश्य मालूम होगी। यह दोहा हिन्दुस्तानी एकेडेमी प्रयाग से प्रकाशित 'हिन्दी के कवि और काव्य' भाग २ से उद्धृत है-

बोली हमरी पुरुव की हमें लखेहि कोय। हमकें तो सोई लखे, धुर पूरव के होय ।।

फिर भी उनके इस दावे के तथ्य को विद्वानों द्वारा स्वीकृत होने में काफी समय लगेगा; परन्तु तब भी इस तथ्य को तो कोई अस्वीकार नहीं करता कि कवीर साहब ने भोजपुरी में भी 'छायावाद' के गीतों को कहा था, क्योंकि 'वेलवेडीयर प्रेस' से प्रकाशित कवीर ग्रंथावली में कवीर और धरमदास- जी के गीत प्रचुर मात्रा में भोजपुरी में भी वत्तंमान हैं, जिनको प्रकाशक नें यथा शक्ति रूप-परिवर्तन करके हिन्दी बनाने की पूरी चेष्टा, कुछ तो अपने भोजपुरी भाषा के अज्ञान के कारण, बौर कुछ हिन्दी के प्रेम के कारण की है। अभी बा० रामकुमार वर्मा, एम० ए० ने जो 'संत कबीर' नामक ग्रंथ लिखा है, उनके पदों की भाषा अधिकांश में भोजपुरी ही है। परन्तु हिन्दी के विद्वानों ने इस भापा को भोजपुरी कहने से अस्वीकार करके पूर्वी हिन्दी नाम दिया है, जो भ्रमात्मक ही नहीं, निरा गलत है। कबीर के भोजपुरी गीतों में, कई सौ वर्षों से हिन्दी वालों द्वारा ऐसे परिवर्तन किये जाते रहने पर भी भोजपुरी भाषियों का ध्यान कभी उधर नहीं गया। वे तो अपने में उनके गीतों के शुद्ध रूपों को ही गा-गाकर अब तक सन्तुष्ट थे। उन्हें क्या पता था कि उनकी सबसे बड़ी निधि को छीनकर दूसरे लोग अपनी बना रहे हैं और कवीर भोजपुरी के नहीं हिन्दी के कवि वन गये हैं। इतना होने पर भी, आज यह विवाद की बात तो हो गयी है, पर तव भी इतना अवश्य निविवाद है और रहेगा कि कवीर साहब ने भोजपुरी में भी छायावाद कहा है और भोजपुरी में तभी से 'छायावाद का कहना प्रारम्भ है, जब से हिन्दी में छायावाद का प्रारम्भ हुआ था; इसी को दूसरे शब्दों में भी कह सकते है कि जिस भोजपुरी के आदि कवि ने अपनी मातृभाषा भोजपुरी में सर्व प्रथम 'छायावाद' के गीत गाये, उसी ने हिन्दी में भी 'छायावाद' को जन्म दिया था । इस कथन की तथ्यता पर कोई दो मत नहीं रख सकता। अभी कुछ दिन पूर्व, जब तक 'विद्यापति मैथिली कोकिल' नामक पुस्तक लिखकर आरा के बृजनन्दन बाबू ने विद्यापतिजी को मैथिली कवि साबित नहीं किया था, तब तक सभी 'बॅगला' वाले उनको 'बेंगला' कवि ही कहते थे- यहाँ तक कि उनकी जन्मभूमि भी उधर ही कहीं मानी जाने लग गयी थी। तो, वैसे ही भोजपुरी के साहित्य की भाषा का सर्वमान्य माध्यम न होने का ही यह फल है कि जो इसकी सर्वश्रेष्ठ निधियाँ थीं, उनको भी इसकी निकटवर्ती भाषाओं ने अपना बना कर उनको अपना कहने का दावा प्राप्त कर लिया। 

'वेलवेडीयर प्रेस' से प्रकाशित कवीर ग्रंथावली में कवीर और धरमदास- जी के गीत प्रचुर मात्रा में भोजपुरी में भी वत्तंमान हैं, जिनको प्रकाशक नें यथा शक्ति रूप-परिवर्तन करके हिन्दी बनाने की पूरी चेष्टा, कुछ तो अपने भोजपुरी भाषा के अज्ञान के कारण, बौर कुछ हिन्दी के प्रेम के कारण की है। अभी बा० रामकुमार वर्मा, एम० ए० ने जो 'संत कबीर' नामक ग्रंथ लिखा है, उनके पदों की भाषा अधिकांश में भोजपुरी ही है। परन्तु हिन्दी के विद्वानों ने इस भापा को भोजपुरी कहने से अस्वीकार करके पूर्वी हिन्दी नाम दिया है, जो भ्रमात्मक ही नहीं, निरा गलत है। कबीर के भोजपुरी गीतों में, कई सौ वर्षों से हिन्दी वालों द्वारा ऐसे परिवर्तन किये जाते रहने पर भी भोजपुरी भाषियों का ध्यान कभी उधर नहीं गया। वे तो अपने में उनके गीतों के शुद्ध रूपों को ही गा-गाकर अब तक सन्तुष्ट थे। उन्हें क्या पता था कि उनकी सबसे बड़ी निधि को छीनकर दूसरे लोग अपनी बना रहे हैं और कवीर भोजपुरी के नहीं हिन्दी के कवि वन गये हैं। इतना होने पर भी, आज यह विवाद की बात तो हो गयी है, पर तव भी इतना अवश्य निविवाद है और रहेगा कि कवीर साहब ने भोजपुरी में भी छायावाद कहा है और भोजपुरी में तभी से 'छायावाद का कहना प्रारम्भ है, जब से हिन्दी में छायावाद का प्रारम्भ हुआ था; इसी को दूसरे शब्दों में भी कह सकते है कि जिस भोजपुरी के आदि कवि ने अपनी मातृभाषा भोजपुरी में सर्व प्रथम 'छायावाद' के गीत गाये, उसी ने हिन्दी में भी 'छायावाद' को जन्म दिया था । इस कथन की तथ्यता पर कोई दो मत नहीं रख सकता। अभी कुछ दिन पूर्व, जब तक 'विद्यापति मैथिली कोकिल' नामक पुस्तक लिखकर आरा के बृजनन्दन बाबू ने विद्यापतिजी को मैथिली कवि साबित नहीं किया था, तब तक सभी 'बॅगला' वाले उनको 'बेंगला' कवि ही कहते थे- यहाँ तक कि उनकी जन्मभूमि भी उधर ही कहीं मानी जाने लग गयी थी। तो, वैसे ही भोजपुरी के साहित्य की भाषा का सर्वमान्य माध्यम न होने का ही यह फल है कि जो इसकी सर्वश्रेष्ठ निधियाँ थीं, उनको भी इसकी निकटवर्ती भाषाओं ने अपना बना कर उनको अपना कहने का दावा प्राप्त कर लिया। 

मितऊ मड़इया सूनी कइ गेलो, अपने बलमु परदेस निकसि गैलो। हमरा के कुछुवो न गुना देई गेलो। जोगिन होइ के मैं बन बन ढूंड़ो, हमरा के बिरहा बिराग दे गैलो ।। संगवा के सखिया सब पार उतरि गैली, हम घनि ठाढ़ अकेल रहि गैलो ।। धरमदास यह अरज सार करतु है, सबद सुमिरन दै गैलों ॥

(३)

कोई ठगवा नगरिया लूटल हो । चनन काठ के बनल खटोलना, तापर दुलहिन सूतल हो । उठु रे सखि मोर माँग सँवारहु, दुलहा मोसे रूसल हो । अइले जमराज पलंग चढ़ि बइठले, नैनन अँसुवा टूटल हो ।। चारि जना मिलि खाट उठवलें, चहुँ दिसि धू धू ऊठल हो। कहत कबीर सुनो भाई साधो, जगवा से नाता टूटल हो ।।

सोहर

कहाँ से जीउ आइल कहाँ समाइल हो। कहाँ कइल मुकाम, कहाँ लपटाइल हो । निरगुन से जीउ आइल, सगुन समाइल हो। काया गढ़ कइल मुकाम, माया एक बूंद से काया महल बूंद पर गलि जाय पाछे लपटाइल हो ।। उठावल हो। पछतावल हो । 

हंस कहे भइया सरवर, हम उड़ि जाइव हो। मोरा तोरा एतना दीदार, बहुरि नाहीं पाइब हो ।। एहवाँ केहू नाहीं आपन, त केहि सँग बोलब हो। बीच तरवर मैदान, अकेला हंसा चलेले हो । लख चौरासी भरमि के मानुख तन पावल हो । मानुख जनम अमोल आपन सेहू खोवल हो ।। साहब कवीर सोहर गावल गाइ सुनावल हो। सुन हो धरमदास सुनि चित चेतहु हो ।।

भोजपुरी में प्रकृति-वर्णन

भोजपुरी में प्रकृति-वर्णन का एक उदाहरण हम पहले धरनीदास की महराई दे आये हैं-कबीर, सूर, तुलसी आदि ने भी जो-जो प्रकृति वर्णन बारहमासा गीत में, भोजपुरी में कहा है वह भी प्राकृत पुस्तक में उद्धृत है। यहाँ वर्तमान कवि रघुवोरनारायणजी छपरा के सुप्रसिद्ध गीत 'बटोहिया' शीर्षक हम पटना यूनिवर्सिटी के मैट्रिक क्लास के लिए मंजूर कोर्स पुस्तिका से उद्धृत करते हैं-

बटोहिया

श्री रघुबोरनारायण

सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से, मोरे प्रान वसे हिमखोह रे बटोहिया। एक द्वार घेरे राम हिम कोतवलवा से, तीन. द्वार सिधु घहरावे रे बटोहिया। जाऊ जाऊ भैया रे वटोही हिन्द देखि आऊ, जहाँ कुटुकि कोइली वोले रे बटोहिया। पवन सुगन्ध मन्द अगर चननवाँ से, कामिनी विरहराग गावे रे बटोहिया। 

विपिन अगम घनसघन बगन बीचे, चम्पक कुसुम रँग देवे रे बटोहिया। द्रुम वट पीपल कदम्ब निम्ब आम वृक्ष, केतकी गुलाब फूल फूले रे बटोहिया।

तोता तोती बोले राम बोले भेंगरजवा से, पपिहा के पी पी जिया साले रे बटोहिया। सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से, मोरे प्रान बसे गंगाधार रे बटोहिया। गंगा रे जमुनवाँ के झगमग पनियाँ से, सरजू झमकि लहरावे रे बटोहिया। ब्रह्मपुत्र पञ्चनद घहरत निसिदिन, सोनभद्र मीठे स्वर गावे रे बटोहिया ।

अपर अनेक नदी उमड़ घुमड़ि नाचे, जुगन के जड़ता भगावे रे बटोहिया। आगरा प्रयाग कासी दिल्ली कलकतवा से, मोरे प्रान बसे सरजू तीर रे बटोहिया।

जाऊ जाऊ भैया रे बटोही हिन्द देखि आऊ, जहाँ रिसि चारो वेद गावे रे बटोहिया। सीता के विमल जस राम जस कृस्न जस, मोरे बाप दादा के कहानी रे बटोहिया ।

व्यास वाल्मीकि रिसि गौतम कपिल देव, सूतल अमर के जगावे रे बटोहिया । नानक कवीर दास संकर श्रीराम कृस्न, अलख के गतिया बतावे रे बटोहिह्या । विद्यापति कालिदास सूर जय देव कवि, तुलसी के सरल कहानी रे बटोहिया। 

जाऊ जाऊ भैया रे बटोही हिन्द देखि आऊ, जहाँ सुख झूले धान खेतरे बटोहिया। बुद्ध देव पृयु वीर अरजुन शिवा जो के, फिरि फिरि हिय सुधि आवे रे बटोहिया। अपर प्रदेस देस सुभग सुघर बेस, मोरे हिन्द जग के निचोड़ रे बटोहिया। सुन्दर सुभूमि भैया भारत के भूमि जेहि. जन 'रघुवीर' सिर नावे रे बटोहिया।

भोजपुरी भाषा में हिंदी के प्रायः सभी संत कवियों ने कहा है

कबीर साह्न और धरमदास तथा घरनीदास आदि के भजनों के उदा- हरण हमने कुछ इस संग्रह में दे दिये हैं। साथ ही इसी संग्रह में सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि हिन्दी के स्तम्भ कवियों के गीत भी उद्धृत हैं। विद्यापतिजी के भोजपुरी गीत पर ग्रिअर्सन साहब ने, जो किसी बँगला विद्वान् के इस मत का खंडन किया है कि भोजपुरी में विद्यापतिजी के गीत नहीं गाये जाते, उसकी और उसके ऊपर भी जो टिप्पणी लेखक द्वारा की गयी है, उसे पाठक प्रस्तुत पुस्तक के भजन नं० ४ पर देखेंगे ही। इन उद्धरणों से यह प्रतिपादित होता है कि इन कवियों ने भोजपुरी में गीतों की रचना की थी।

वैष्णव सम्प्रदाय के सन्त कवि प्रायः भ्रमण किया करते थे। जिस प्रान्त में तीर्थाटन के उद्देश्य से जाते थे, वहाँ की तत्कालीन प्रचलित बोली में कुछ-न-कुछ गीत अपने विचारों के प्रचारार्थ रचते थे, क्योंकि उनका प्रेम भाषा विशेष या जाति विशेप से नहीं था; वल्कि मनुष्य मात्र से था और अपना मत हर प्रान्त के मनुष्यों तक पहुँचाना वे अपना धर्म समझते थे। यही कारण है कि काशी के सन्त कबीर और धरमदासजी के गीत पंजाबी भाषा तक में पाये जाते हैं तथा राजस्थान की बोली को छोड़कर मीरा के गीत हिन्दी और भोजपुरी में भी पाये जाते हैं। सूरदासजी के छन्द तो प्रायः ब्रज- भाषा में ही हैं, पर वे भोजपुरी और अवधी में भी मिलते हैं। आप कह सकते हैं, जैसा कि ग्रियर्सन साहब ने विद्यापतिजी के पक्ष में शंका की है कि ये गीत उक्त कवियों द्वारा इन प्रान्तिक भाषाओं में नहीं रचे गये थे; बल्कि प्रान्त के निवासियों ने ही उनको अनूदित करके अपनी भाषा में गाना शुरू किया । इस दलील में भी किसी अंश तक तथ्य मान्य हो सकता है। अवश्य कहीं-कहीं ऐसा हुआ है; पर सर्वत्र ऐसा ही हुआ है, इसको मान लेना उचित नहीं होगा; क्योंकि २६९ वर्ष पूर्व की लिखी 'शब्द प्रकाश' नामक पुस्तक, जो घरनीदास- जी कृत है, अभी लेखक को मिली है। यह १९२६ संवत् में लिखी पांडु- लिपि की प्रतिलिपि है और इसी की सन् १८८७ ई० को छपी एक कापी भी मिली है। इन दोनों प्रतियों में भोजपुरी और हिन्दी तथा अवधी या खड़ी- बोली के ही छन्द और गीत नहीं हैं; वल्कि उनमें सुदूर पंजाब प्रान्त की भाषा 'पंजाबी' तथा निकटवर्ती प्रान्त की भाषा बंगला, मैथिली तथा उर्दू राग मरसीहा तथा मोरंग देश की भाषा मोरंगी में भी उनकी एक नहीं, कितनी रचनाएँ हैं। केवल भाषा ही नहीं, बल्कि उस भाषा में जो प्रचलित छन्द उस समय जनप्रिय थे, उन छन्दों में भी उन्होंने अपनी रचना उस भाषा में या भोजपुरी में की है। अब आप बतायें कि छपरा जिला के माँझी गाँव के रहने वाले और माँझी ही में अपना मठ बनाने वाले, जिसकी गद्दी परम्परा से आज तक वहाँ चली जा रही है, संत कवि धरनीदास ने कैसे और क्यों इन नव भाषाओं में रचना की और अपने सर्व-प्रधान ग्रन्थ 'शब्द प्रकाश' में उनको स्थान दिया ? इससे तो यही सिद्ध होता है कि उस समय प्रान्तीय भाषाओं में रचना करने के प्रचार प्रचलित थे। इसके अलावा तुलसीदासजी की मातृ- भाषा यद्यपि अवधी थी और उनकी कविता में अवधी की प्रधानता है; पर फिर भी रामायण तथा उनके अन्य ग्रंथों में भोजपुरी मुहावरे, शब्द, लोकोक्ति आदि भरे पड़े हैं। गीताप्रेस से जो सबसे प्रमाणिक रामायण निकली है, उसकी बहुत-सी चौपाइयाँ भोजपुरी भाषा को प्रस्तुत हैं। जैसे (मूल गुटका) रामायण के पृष्ठ २५७ पर निम्नलिखित चौपाइयाँ भोजपुरी भाषा में कही गयी हैं- फिरती बार मोहि जो देवा। सो प्रसाद मैं सिर घरि लेबा ।। सिय सुरसरिहि कहेऊ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ।।

पृष्ठ २५८ पर तदपि देवि मैं देवि असीसा। सफलहीन हित निज बागीसा ।। जेहि बन जाइ रहब रघुराई। परन कुटी मैं करब सुहाई ।। तब मोहि कहें जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुवीर दोहाई ।।

पृष्ठ २५४ पर दोहा-पितु पद गहि कहि कोटि नति विनय करब कर जोरि । चिन्ता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि ।। चौपाई नतरु निपट अवलंब विहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ।।

पृष्ठ २६४-६५ पर। स्वामिनि अविनय छमव हमारी। बिलगु न मानव जानि गर्वांरी ।। पारवती सम पतिप्रिय होहू। देवि न हम पर छाड़ब छोहू ।। दरसनु देउव जानि निज दासी ।........

पृष्ठ २१२ पर कत सिख देइ हमहि कोउ भाई। गालु करव केहिकर वलु पाई ।। हमहु कहह्व अब ठकुर सोहाती। नाहीं त मौन रहब दिन राती ।।

इन चौपाइयों में शब्द ही नहीं, उनके प्रयोग तथा चौपाई की क्रिया भी भोजपुरी की है। लगे हाथ धरनीदासजी के पंजावी, मैथिली, बंगला भी ए क-एक छन्द सुन लेने से मेरी बातें अधिक स्पष्ट हो जायेंगी-

राग पंजाबी

सुरंग रंग सावला मुझे मोहीयाँ,

जमुना किनारे कदम दो छाहियाँ ।

पान दो विरियाँ चाख दावै ।। 

नाल छाल लाल पठ काछे, बीहँसी वीहंसीं गले अखंदा ।। तब तेजोथे जो थेहों, जी दी तीर्थ तीर्थ दरसा दाबै ।। मोहन सोहन गोहन डोलै सोअत रैनी जागंदा ।। मोमन मानो रूप तो सानो नेकु न इत, उत जादावै ।। कुलंदा काज लाज गुरी जन दो भीगु भवन बीसराँदा ।। लाखु लहे लाहोंर्दी बानी जानी इआर सुना नाव ।। हिये हरपंदा धन वरपंदा घरनी जनमन भाँदा ।।

मेथिलो

घनाक्षरी

सुतली अछली पर्न ऐलहु गोसाईं साईं छली हूँ अचेत पीड चेत भेल तेषना ।। माथे हाये देल छीज गाये जनु लेल छी अनेक कलाकेल छी न बाजी आवै ऐषना ।। जेहि गते छलीहूँ उठलीं हूँ मैं तेहि गते पावन पुरुष पापनी के मेल देषना ।। धरनी कहे छी बीसर छी नेक नाक मोह हिअ में छपाल छो करैछी कोटि पेषना ।।

राग बंगला

सकल भुअनेर मुने जीवन अधार बंधु ।। कौन जाने कौनरे बुझे तुमरे षिआले। जीआ जंतु गाइ र गोरा ऐकल गोवाले बंदु ॥ जनम जनम हमें करमु कमाइ लो। अवरोक वार बंदु सरन समाइलो ।। वसी वो तुमारी वारी अनतै न जाइवो। तुमरी कीरति तजि अवर की गाइबो 

घरनी कथीलो जानी वानी रे बेंगालो । साइ के सरस बिना बिकल बीहालो ।।

इन उद्धरणों से लेखक की उपर्युक्त कही बातों की पूर्ण रूप से परि पुष्टि हो जाती है। हरिश्चन्द्र जी काशी, ने भी हमनीका' शीर्षक से भोज- पुरी में एक कविता लिखी थी।

भोजपुरी साहित्य में अन्य छन्द

यह बात नहीं है कि भोजपुरी में केवल गीत ही आदि की रचना हुई हो और पिंगल के अन्य छन्दों में काव्य न लिखा गया हो। अन्य छन्दों में रचनाएँ भी लेखक को मिली हैं। इसमें 'बदमाश दर्पण' 'कुँवर पचासा' 'शब्द प्रकाश' आदि ग्रन्थों के नाम उल्लेखनीय हैं। भिखारी ठाकुर का 'विदेसिया' नाटक भी, जिसके कई प्रकाशन हो चुके गद्य-पद्य दोनों में लिखा गया है।' नमूने के लिये कुछ उद्धरण यहाँ दिये जाते हैं-

( १ )

कवित्त

हाथ गोड़ पेट पीठि कान आँख नाँक नीक, माँथ मुँह दाँत जीभि ओठ पाट ऐसना ।। जीवन्हि सताइला कुमख भख खाईला कुलीनता जनाईला कुसंग संग वैसना ।। चलीला कुचाल चाल उपरा फिरैला काल साधु के सुमंत विसराइला से कैसना ।। 

धरनी कहैला भैया ऐसना न चेतीलात 11 जानि लेव ता दिना चिरारी गोर पैसना ।।

(२)

काहे के पुरुव जाला हरि बाटे भाँतखाला, पछिम प्रतच्छ होला देह का विधंसना ।।

का चड़े सुमेर स्त्रींग पूजे का पखान लिग कार्जाह गुलाज जीभी काठी कोन वैसना ।।

ठाढ़ होला काहे लागी आस पास बारे आगी काहे काहू भावेला भुइया खोदि पैसना ।

'घरनी' करैला परिपंच पंच काहे लागी हिये ना जपला पुनि रामनाम कैसना ? ॥

(३)

पहले पहल जब रेल निकली उस पर भोजपुरी

घनाक्षरी

भक भक करत चलत जब हक हक, धक धक करत में धरती धमसेला ।।

कम कम चलत में बाजि रहे झम झम, छम छम चलत में चम चम चमकेला ।।

कहत वकस आसमान के विमान सम सोभत जुडात असूले दाम टटकेला ।।

अइसन में चटक कहीं ना देखों अटक कियारी देखि भटकेला आपिस प पटकेला ।। 

चलल रेल गाड़ी रंगरेज तेज धारी बोझाये खूब भारी हहकार कइले जात बा ।।

बइसे सब सूबा र्जाहाँ बात हो अजूबा रंगरेज मनसूवा सब लोग का सोहात वा ।।

कहीं नदी ओ नाला बाधे जमुना में पुल बाधे कतना हजार लोग के होत गुजरान वा ।।

कहै कवि टाँकी बात राखी बाधि साँची हवा के समान रेल गाड़ी चलि जाति बा ।।

(५)

कम्पनी अनजान जान नकल के बना के सान, पवन के छिपाइ मैदान में धरवले बा ।।

तार देत वार बार खबर लेत आर पार चेत करू टिकदार गाड़ी के बोलवले बा ।।

कहेला से करे काज झालर अजबदार जे जइसन चढ़नहार ओइसन घर पवले वा ।।

कहे कवि साहेव दास अजब चाल रेल के जे अइसन चाहे तेके तैसन धर देले वा ।

(६)

(विविध अन्नोंका उनके गुण के अनुसार वर्णन) साँवा कह हम पण्डित होइवो गया पिंडा पराइव हो। कहे महुआ हम जोगी होइवो जमते टोपी लगाइब हो ।। कहे टांगुन जे सव ले दुलरुई लटकते चिरई बुलाइब हो। कहे गहुन हम सब ले छतिरी जमते धूरि चढ़ाइव हो ।। 

कहे धान जे सब ले राजा जल में सभा लगाइब हो। कहे चनेरा सब ले वोलता खपड़ी में धूम मचाइव हो ।। कहे खेसारी मैं अति वारी कचवच फूल फुलाइव हो। जे हमरा के अधिका खइहें उलटा टाँग चलाइव हो ।।

(७)

भिखारी ठाकुर का परिचय--

नाम भिखारी काम भिखारी, रूप भिखारी मोर। ठाट पलान मकान भिखारी, भइल चहूँ दिस सोर ।। ना पाटी पर पढ़लीं भाई, नाम बहुत दुर पहुँचल जाई। कहे भिखारी लिखलीं थोर, विद्या से बानी कमजोर ।। हित अनहित से हाथ जोर के माँगत भिखारी भीखि। राम नाम के सुमिरन करिह, तुही गुरू हम सीख ।।

विदेशिया नाटक से--

(८)

बिदेशी की रंडी से वार्ता

सवैया

हे सजनी जरा धीर धरू हम जइवों घरे धनि रोअति होइहें। प्यारी के दुःख सुनल जब से दुःख होत हमें कइसे जीअति होइहें ।। दिन में भूख ना रैनि में नींद उन्हें सुख सेज न भावत होइहे। 'नाथ सरन' कहे काह कहों धनी नैना से नीर बहावति होइहें ।।

बटोही विदेशी से

बिदेसिया गीत में घनाक्षरी का प्रयोग मान तू बतिया बिदेशी चल जा घरके ।। टेक ।। 

प्यारी के दुख हमसे कहले न जात वाटे, कवनो विधि राखति वा जीव जरमर के ।।

नैना में नींद नाहीं परे चैन छन नाहीं, रात से बिहान नित करेली कहर के।

कहि कहि रोअतिया एको के नाम भैली हम, पास के ना सासु के ना ससुरा नहर के ।। कहत भिखारी आज कहना एतने बाटे, अवहूँ त चेत दीन दुनिया से डर के ।।

विरहिणी का विलाप

धुन पूर्वी

मचिया बइठल धनी मने मन समुझे से, भुइयाँ लोटेला लामी केस रे बिदेसिया ।।

गवना कराइ सैंया घरे बइठवले, से अपने गइले परदेस से बिदेसिया ।।

चढ़ली जवनियाँ बएरनि भैली हमरी, से केई मोरा हरिहें कलेस रे बिदेसिया ।।

केकरा से लिखिके में पतिया पठइवों, से केकरा से पठवों सनेस रे बिदेसिया ।।

तोहरे कारन सैंया भभुती रमइवों, से धरवों जोगनिया के भेख रे विदेसिया ।।

कवलों ले फिरिहें दइव निरमोहिया, से मोर विरहिनियाँ के भाग रे विदेसिया ।।

हमरो सुरति सैंयाँ तुइँ बिसरवले, से रहेल सवति रस पागि रे विदेसिया ।। दिनवाँ बितेला संयाँ बटिया जोहत तोर, से रतिया बीतेल जागि जागि रे बिदेसिया ।।

घरी रात गइले पहर राति गइले, से घधके करेजवा में आगि रे विदेसिया ।। 

अमवा मोजरि गइले लगले टिकोरवा, से दिन पर दिन पिअराय

रे विदेसिया ।। एक दिन वहि जइहें जुलुमी वयरिया, से डाढ़ पात जइहें भहराई

रे विदेसिया ।। झमकि के चढ़ली में अपनी अॅटरिया, से चारों ओर चितवों चिहाई रे विदेसिया ।।

कतहूँ ना देखों रामा सैंयाँ के सुरतिया, से जियरा गइले मुरझाई रे विदेसिया ।।

बटोही वार्ता प्यारी से

कइसन हउवे तोरे बारे रे बलमुआ, से हमरा के देहु ना वताई रे संवरिया ।। तोहरे सनेसवा हो तोहरे बलमु जी से हमहूँ कवि समुझाई रे सँवरिया ।।

प्यारी बचन बटोही से

हमरा बलमुजी के बड़ी बड़ी अँखिया, से चोखे चोखे बाड़े नैना कोर रे बटोहिया ।।

ओठवा त बाड़े जइसे कतरल पनवा, से नकिया सुगनवा के ठोर रे बटोहिया ।।

दंतवा वो सोभे जइसे चमके बिजुलिया से मोछियन भँवरा गुंजारे रे बटोहिया ।।

मथवा में सोने रामा टेड़ी काली टोपिया, से रोरी बुना सोभेला लिलार रे बटोहिया ।।

बिदेशी बटोही से वार्ता

कहाँ के हवे तेहू बारे रे बटोहिया, से कहाँ करेले रोजगार रे बटोहिया ।। 

कइसन हउँई रामा पतरी तिरियवा, से कइसे चिन्हले धनिया मोर

रे बटोहिया ।।

बटोही को वार्ता विदेशी से

पछिम के हई हम बारे रे बटोहिया, से पुरुब करीले रोजगार

रे बिदेसिया ।।

तोरी घनी बाड़ी रामा अँगवा के पतरी, से लचके ली छतिया के

भार रे विदेसिया ।।

अँखिया त हउवे जैसे अमवा के फंकिया, से गलवा सोहेला गुलेनार

रे बिदेसिया ।।

बोलिया त बाड़ी जइसे कुहूँकि कोइलिया से सुनि हिया फाटेला हमार रे बिदेसिया ।।

मुँहवा त हवे जइसे कँवल के फुलवा से तोहरा बिनु गइले कुम्हिलाई रे बिदेसिया ।।

अइसन तिरियवा के सुधि विसरवले से तोहरा के वे घिरिकार

रे विदेसिया ।।

भिखारी ठाकुर अपढ़, गरीब, सभ्य समाज से दूर नाई जाति के कवि हैं; परन्तु उनकी बुद्धि की प्रतिभा को पाठक उपर्युक्त छन्दों में देखते हैं। हिन्दी के किसी भी बड़े से बड़े कवि का विरह वर्णन ले लीजिये और भोजपुरी के मूर्ख कवि भिखारी ठाकुर के इस विरहिणी-वर्णन के साथ तुलना कीजिये । सरकार की ओर से किसी-किसी खास जगह पर, इस नाच पर प्रतिवन्ध लगाना पड़ा है। विदेसिया पुस्तक की खपत भोजपुर प्रदेश में ही नहीं, अन्य भाषा-भाषी प्रान्तों में भी है। फिर भी भिखारी ठाकुर से हिन्दी विद्वान् संसार अनभिज्ञ है।

पं० बलदेव उपाध्यायजी का 'भोजपुरी-ग्राम-गीत' की भूमिका में कहना है कि भोजपुरी साहित्य की अभिवृद्धि न होने का कारण है-राजा- श्रय का अभाव। भोजपुर-मण्डल में किसी प्रभावशाली व्यापक प्रतापी नरेश का पता नहीं चलता। अधिक इसमें किसानों की बस्तियाँ हैं। किसी गुणग्राही नरपति का आश्रय न मिल सकने से, साहित्य सम्पन्न नहीं हो सका। (१० १७)

उपाध्यायजी का ऐसा कहना भले ही दस फीसकी सही हो, पर शत प्रतिशत यह ठीक हो, सो बात नहीं है। भोजपुरी भाषा भाषी प्रदेश में सर्वत्र प्रमुख और प्रभुत्वपूर्ण राज्य सदा रहे हैं और आज भी हैं। समय-समय पर उनकी दशा में अवश्य उलट-फेर होता रहा है, पर राज्यों का अस्तित्व सदा रहा है और उनके राज्यों में पण्डितों, कवियों और विद्वानों की कदर कमी- बेशी रूप में सदा रही है। यहीं तक नहीं, राजे महाराजे या उनके वंश के सरदार आदि भी ऊँचे दर्जे के कवि और लेखक हुए हैं। शाहाबाद में उज्जैनों की राजधानी डुमरांव और जगदीशपुर अपनी कलाप्रियता के लिये प्रारम्भिक काल से लेकर अब तक विख्यात रहे हैं। नकछेदी तिवारी, ईश कवि, दिवाकर भट्ट, महामहोपाध्याय रघुनन्दन त्रिपाठी तथा राजा राधिका- रमणप्रसादसिह तथा उनके पिताजी को कौन नहीं जानता। इनके अतिरिक्त वक्सर, नोखा, भगवानपुर, सपही, केसीठ की छोटी-छोटी रियासतें भी कला- प्रियता से विमुख नहीं थीं। छपरा जिला में माझी की प्राचीनता विख्यात है। माझी ही के दीवान धरनीदासजी थे। अपने पिता के देहावसान के बाद उन्हें भी दिवानी मिली थी; पर उन्होंने तुरंत ही फकीरी ले ली। भूमिहारों की राजधानी हथुआ में भी सदा अपने कवि रहते आये हैं। तोफाराय, जिन्होंने 'कुंअर पचासा' की रचना की थी, यहाँ के भी कवि थे। इनके अतिरिक्त बेरुआर और नरीरिओं की प्रभुता और साहित्य-प्रियता खूब थी। बलिया जिला में हैहयवंशी राजपूतों की राजधानी हरदी आज भी अपने बुरे दिनों को गिन रही है। इन लोगों में भी कभी कला-प्रेम और उसका सत्कार काफी था । बस्ती और बाँसी राज्य, बस्ती जिले में आज भी वर्तमान हैं। ये दोनों रिया- सतें अपनी कला-प्रियता के लिये आगे थीं। गोरखपुर में मझौली, सतासी डोमनगढ़ तथा मोतीहारी में बनैली और रामनगर राज्य थे और आज उनमें कुछ को छोड़ सभी वर्तमान हैं। बनारस के काशी राज की प्राचीनता और कला-प्रियता कीन नहीं जानता। ऐसे ही अन्य जिलों की भी नामावली दी जा सकती है। अतः भोजपुरी भाषा प्रदेश में राज्यों की कमी नहीं थी और न है और न उनके यहाँ कला-प्रेम तथा आश्रय का अभाव ही था।

तो इस तरह उपाध्यायजी का अनुमान सही नहीं जात होता। असल में भोजपुरी के साहित्य की भाषा पठित समुदाय द्वारा आमतीर पर स्वीकृत न होने के प्रधान कारण दो थे-

प्रथम यह कि किसी भी भाषा को साहित्य का माध्यम बनाना राज्य के अधिकार की बात नहीं है। यह तो कोई सिद्धहस्त प्रतिभा सम्पन्न लेखक ही कर सकता है। राज्य अधिक-से-अधिक इस दिशा में यही कर सकता है कि वह उस भाषा के गद्य को अपने राजकीय कामों के लिये व्यवहार में लावे । सो, इसको सभी राज्यों ने पूर्वकाल से ही करना शुरू किया, जो आज तक जारी है। यही नहीं, वर्तमान सरकार ने भी, जव जव उसे प्रचार की आवश्य- कता पड़ी है, इसको अपनाया है; पर तब भी भोजपुरी में न तो विद्यापति- जी ऐसा मातृभाषा-प्रेमी कोई कवि ही हुआ, जो अपनी प्रतिभा इसमें दिखा कर विद्वानों को भोजपुरी की ओर आकृष्ट कर सके और न हरिश्चन्द्रजी के ऐसा इसको कोई गद्य लेखक ही मिला, जो इसके गद्य साहित्य की अभि- वृद्धि कर सके। भोजपुरी प्रदेश के अत्यधिक संख्या में कवि और लेखक हिन्दी के प्रमुख कवि और लेखक थे और आज भी हैं; पर सब ने अपनी प्रतिभा को हिन्दी में व्यक्त किया और अपनी मातृभाषा को उस अभिव्यक्ति का माध्यम विद्यापतिजी के ऐसा नहीं बनाया। कबीरदास, धरमदास, धरनीदास, शिवनारायण आदि सन्त कवियों ने इस ओर अधिक ध्यान अवश्य दिया था।

पं० उदयनारायण त्रिपाठीजी ने अपनी भोजपुरी व्याकरण के सिल- सिले में यह विशद रूप से साबित किया है कि कवीर साहब की मातृभाषा भोजपुरी थी और उनकी मारी रचनाएँ भोजपुरी में ही हुई थी; क्योंकि वे पढ़े-लिखे विद्वान् पण्डित तुलसीदासजी की तरह नहीं थे। वे कहते हैं कि कवीर की रचनाओं को हिन्दी में करने का श्रेय, ब्रजभाषा को ही साहित्य का एक मात्र माध्यम मानने वाले उनके भक्त और शिष्य सम्प्रदाय वालों को ही है। इन्होंने ही समय के दोरान में कवीर की रचनाओं की क्रिया और शब्द आदि का परिवर्तन करके उन छन्दों को ब्रजभाषा या अवधी या पंजावी का रूप दे दिया है। मूल छन्दों को देखने से तथा उनके भोजपुरी प्रान्त में गाये जाने वाली हिन्दी से मिलान करने पर यह साफ हो जाता है कि जो उपमा, मुहावरा आदि उन छन्दों में दिये गये हैं, वे सब भोजपुरी के ही हैं, केवल क्रिया आदि का परिवर्तन करके उसे अन्य बोली का बना लिया गया है। अभी गया से निकलने वाली 'उपा' में बाबू शिवपूजनसहायजी ने तुलसी- दास की विनय-पत्रिका के किसी गीत के अनुवाद को उदाहरणार्थ पेश करके तथा रामायण की भूमिका का उद्धरण देकर यह सिद्ध किया है कि रा० व० वावू श्यामसुन्दरदासजी और आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी ऐसे विद्वानों ने भी, जिनकी भूमि और मातृभाषा दोनों भोजपुरी ही है, भोजपुरी शब्दों और मुहावरों का, जो इन सन्त कवियों द्वारा व्यवहार किये गये हैं, अर्थ करते समय उन्हें ब्रजभाषा का या पूर्वी हिन्दी का बताते हैं और भोजपुरी के नामोच्चारण तक से अपने को बचाते हैं। पर, इससे उसके ठीक वास्त- विक अर्थ का अनर्थ ही हो जाता है।

फिर इसके अलावे भोजपुरी में कवि का लिखा हुआ कोई रामायण या किसी विनय-पत्रिका ऐसा काव्य-ग्रन्थ नहीं है। उनकी स्फुट रचनाएं ही भक्तों द्वारा संकलन की गयी हैं। इससे उनमें परिवर्तन करने की अधिक सुविधा मिल सकी है और जिसने जैसा चाहा वैसा रूप उनका दे डाला।

भोजपुरी साधारण जनता द्वारा जो अधिकतर पठित नहीं है; साहित्य का माध्यम भूतकाल ही में नहीं मानी गई थी, आज भी मानी गई है और हजार-हजार रचनाएं नित्य भोजपुरी में होती हैं और मरने वालों के साथ विलोप भी होती हैं। जैसा कि सभी भाषा के कण्ठ में रहनेवाले साहित्यों की दशा होती हैं; परन्तु जो प्रौढ़ निधि भोजपुरी के साहित्य में स्मरणरूप में आज भी बत्तं मान है, वह छपकर साहित्य में जिस दिन खड़ी होगी, उस दिन अन्य बोलियों के साहित्य का-सा ही भोजपुरी साहित्य सुन्दर सिद्ध होगा।

भोजपुरी की जातीयता

भोजपुरी भापा-भापियों की अपनी अलग जातीयता है। उसका अपना विशेष रहन-सहन, स्वभाव और जीवन के अलग दृष्टिकोण हैं। उसका रहन-सहन सादा, विचार साधारण, ऊँचा पर अक्खड़ और बलाढ्य प्रकृति का होता है। वह धर्म में अन्धविश्वास अवश्य रखता है; पर उस धर्म को अपने जीवन के साहसपूर्ण कामों और नई-नई कठिनाइयों के अनुभवों में बाधक नहीं होने देता। वह दिखावटीपन या लिफाफावाज कम और वास्तविक अधिक होता है। अपनी कुशाग्र बुद्धि से वह परिस्थिति की गम्भीरता को तुरन्त समझ लेता है और उसके अनुसार अपने को बना लेने के लिये तुरन्त कार्य्यशील हो जाता है। उसकी नस-नस में अखड़पन, निर्भ- यता और वीरता भरी रहती है। वह लड़ाई केवल लड़ाई भर के लिये मोल लेने को सदा तैयार रहता है; परन्तु इसके साथ भाषा और हृदय की मृदु- लता तथा आतिथ्य-धर्म का विचार उसको सदा स्मरण रहता है। वह अपने पौरुप और पराक्रम पर विश्वास रखता है। इसी से वह दूर-दूर के प्रदेशों में भी जाकर वस जाता है और जीविकोपार्जन करता है। जैसा कि अंग्रेज विवेचकों का भी मत है जो इस भूमिका के आरम्भ में दिया गया है।

जी० ए० ग्रिअर्सन ने 'लिगुइस्टिक सर्वे आफ इंडिया' भाग पांच के पृष्ठ चार और पाँच पर लिखा है". भोजपुरी उस शक्तिशाली, स्फूतिपूर्ण और उत्साही जाति की व्यावहारिक भाया है, जो परिस्थिति और समय के अनुकूल अपने को बनाने के लिये सदा प्रस्तुत रहती है और जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान के हर एक भाग पर पड़ा है। हिन्दुस्तान में सभ्यता फैलाने का श्रेय बंगालियों और भोजपुरियों को ही प्राप्त है। इस काम में बंगालियों ने अपनी कलम से काम लिया है और भोजपुरियों ने अपनी लाठी से ।"....... 

"भोजपुरी भाषाभाषी प्रदेश उस जाति का प्रदेश है, जो अपने अन्य बिहारी भाषा-भाषी भाइयों से एक विलक्षण अलग स्वभाव की है। यह जाति भारत वर्ष की लड़ाकू जाति है। इनमें स्वभाव से ही सहज रूप में सदा चैतन्य रहने वाली जातीयता, जिसमें दोप बहुत ही नगण्य और गुण तथा योग्यता अत्यधिक मात्रा में वर्तमान रहती है, पायी जाती है। यह संग्राम को केवल संग्राम करने भर के विचार से प्यार करते हैं। ये आर्य भारत पर सर्वत्र फैले हुए हैं। प्रत्येक मनुष्य किसी भी संयोग या कुयोग पूर्ण घटना से, जो उसके सामने स्वतः आ उपस्थित होती है, अपनी किस्मत आजमाने और उससे अपना जीविकोपार्जन करने के लिये सदा प्रस्तुत रहता है। इस जाति का प्रदेश हिन्दुस्तान की सेना की भर्ती के लिये बहुत उपजाऊ खान का काम करता है; पर साथ ही इसके ठीक प्रतिकूल, सन् १८५७ ई० की क्रान्ति में इस जाति ने प्रमुख भाग लिया। भोजपुरी अपनी लाठी का उतना ही (अस्त्र- शस्त्र छीन जाने पर लाठी ही उसके पास बच रही) प्रेमी है, जितना आयर- लैंड निवासी अपनी छड़ी से प्रेम करता है। बड़ी मोटी और लम्बी हड्डियों वाला लम्बा कद, भोजपुरी अपनी मोटी लाठी के साथ सुदूर के खेतों में लम्बे कदम से टहलता हुआ सदा देखा जाता है। हजारों भोजपुरी वृटिश कालो- 'नीज में बस कर वहाँ से धनी हो घर लौटे हैं। हर वर्ष बहुत बड़ी संख्या में ये उत्तरीय बंगाल में घूमते हैं और वहाँ अपनी जीविका इमानदारी के साथ नौकरी करके या लाठी (केवल डकैती) से उपार्जन करते हैं। कलकत्ता में इनसे कम वीर बंगाली सदा इनसे डरा करते हैं। कलकत्ता इस जाति से भरा पड़ा है। ऐसी जाति भोजपुरियों की है, जो भोजपुरी भाषा बोलते हैं। यहाँ यह भी भली भांति समझ लेना चाहिये कि उनकी भाषा की लाघवता और उदारता इतनी बढ़ी-चढ़ी है कि सभी प्रस्तुत प्रयोगों के लिये वह प्रस्तुत और उपयुक्त रहती है; क्योंकि उसमें व्याकरण की जटिलता अत्यधिक मात्रा में कहीं भी नहीं है।"

सबसे विशेषता इस भोजपुरी जाति में यह है कि यह अपनी भाषा, धर्म और देश की प्रेमी सदा रही है और आज भी है। चाहे वह जिस परि- स्थिति में हो; पर उसके हृदय में यह प्रेम सदा अपना स्थान सर्व प्रथम बनाये रखता है और मौका पाते हो वह उसके अनुसार कार्य तुरत करना शुरू कर देता है। उसके देश-प्रेम का उदाहरण सन् १८५७ का राज विप्लव प्रत्यक्ष है।

गत सन् १९४२ का आन्दोलन भी इस क्षेत्र में सबसे अधिक सक्रिय रहा ।

सन् १९१६ का बकरीदी दगा, जो आरा में हुआ था, उनके धार्मिक अंध- विश्वास का उत्कट उदाहरण है। मातृभाषा के प्रति उनका प्रेम इतना उत्कट है कि जब दो भोजपुरी मिलेंगे, तब वे आपस में भोजपुरी में ही वार्ता करेंगे। इस स्वभाव से डाक्टर राजेन्द्रप्रसाद तथा वावू सच्चिदानन्द सिनहा भी वंचित नहीं थे। वर्तमान समय में भी अपने इस वीर स्वतंत्र स्वभाव देश-प्रेम का परिचय भोजपुरी प्रदेश ने विभिन्न कांग्रेस-आन्दोलनों के जन- आन्दोलन के अवसरों पर पूर्ण रूप से दिखाया है। महात्मा गांधी के गिर- पतार होने के बाद सन् ४२ के अगस्त में देश-प्रेम में पागल, भोजपुरी भाषा प्रदेश के निवासियों ने ही सबसे अधिक आन्दोलन उत्तर भारत में मचा रखा था। यही नहीं, दमन के जमाने में भी इन जिलों में भोजपुरी वीरता की भावना घटी नहीं। पहले कह हो चुके हैं कि इस कठिन अवसर पर भी किस तरह उनके कवियों ने सैकड़ों हास्य, व्यंग और वीरता के गाने बना-बना कर इस दमन को खेल-सा समझ कर गाया है। सबसे बड़ी बात यह है कि आज भारतवर्ष २६ जनवरी को कतिपय वर्षों से ही स्वतन्त्रता दिवस मनाता है, पर भोजपुरी प्रदेश ने १८५७ से ही हर फाग में जो इस स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा को दुहराना और बड़े समारोह के साथ मनाना शुरू किया, सो आज तक गाँव- गाँव में जारी है। फाल्गुन में जब हर गांव की हर मण्डली में फाग गाना प्रारम्भ होता है, तब सर्व प्रथम "वाबू कुंअरसिह तोहरे राज विनु अव न रेंगइवो केसरिया" वाला फाग जो भूमिका में पृष्ठ ३९ पर दिया जा चुका है। गाया जाता है और वच्चा-बच्चा देश-प्रेम में मस्त हो उठता है। 

एक भोजपुरी प्रान्त को दो भागों में बांट देने से भोजपुरी भापियों की एकता और संगठन में प्रचुर ह्रास हुआ है। इससे हो अंग्रेज नीतिकारों को सतोप नहीं हुआ। उन्होंने भोजपुरी भाषा को भी, जो भोजपुरी भावियों को प्राण से भी अधिक प्रिय है, पाँच भेदों में बटना उचित समझा। ग्रिअर्मन साहब के लिगुइस्टिक सर्वे आफ इन्डिया, के लिखे जाने में वैज्ञानिक खोज के साथ-साथ विभेद नीति को भी सफल करना उनका एक उद्देश्य रहा होगा। तभी तो उन्होंने एक भोजपुरी भाषा में पाँच भेदों का निदर्शन किया है। उन्होंने भोजपुरी के इन पाँच भेदों का नामकरण और स्थान भेद दिया है-

१- विशुद्ध भोजपुरी-जो शाहाबाद, बलिया, गाजीपुर (पूर्वी भाग) और सरयू और गंडक के दोआबा में बोली जानेवाली भाषा है।

२-पश्चिमी भोजपुरी-फैजाबाद (टाँडा तहसील) आजमगढ़, - जौनपुर, बनारस, पश्चिमी गाजीपुर, मिर्जापुर के दक्षिण गांगेय प्रदेश, गोरखपुर और बस्ती जिलों में बोली जानेवाली भाषा।

३- नगपुरिया-छोटा नागपुर में बोली जाने वाली भावा।

४- मधेशी - चम्पारन में वोली जाने वाली भाषा।

५- थारु नेपाल की सरहद के साथ-साथ बराइच तक बोली जाने वाली भोजपुरी ।

हिन्दुस्तान के इतने शक्तिशाली जनसमूह की एक भाषा, एक संस्कार, एक प्रान्त हो और उनकी एकता और संगठन बना रहे, यह अँगरेज नीति- कारों के लिये कब सह्य होने की बात थी। बस मीठी-मीठी प्रशंसा के साथ इसकी एक जातीयता की भाषा और प्रान्त को पाँच और दो भागों में बाँट कर उसको क्षीण करना उनका ध्येय हो गया।

वास्तव में ग्रिअर्सन साहब द्वारा दिये गये विभेदों में कोई खास वैज्ञा- निक परस्पर विभेद हो सो वात नहीं है। पाँचों भेदों के व्याकरण उसके नियम और मुहावरे एक हैं। सब की लोकोक्तियाँ, गीत, साहित्य, पहेली तथा उनकी भाषा एक है। कहीं-कहीं उच्चारण भेद तथा नी, ली, टे के प्रयोग पर ही यदि एक भाषा को पाँच भेदों में बाँटना ध्येय हो तो केवल शाहा- बाद में ही तीन भेदों का उल्लेख उन्हें करना चाहिए था। भभुआ सव- डिवीजन और सदर सबडिवीजन के स्थानों की वोली के उच्चारण में आपस में भेद है। वैसे ही बक्सर सबडिवीजन और दक्षिण ससराम सवडिवीजन के निवासियों के उच्चारण में भी भेद सुनाई पड़ता है। इस तरह देखने से तो हर ५० मील की बोली के उच्चारण में थोड़ा अन्तर आ ही जाता है। ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक और अनिवार्य है। इस आधार पर चलने से, किसी भाषा का रूप नहीं निर्धारित हो सकता। सुलतान- पुर और प्रतापगढ़ की अवधी और लखीमपुर और सीतापुर की अवधी को दोनों जगहों वाले एक ही अवधी मानते हैं; पर दोनों में काफी अन्तर है या नहीं। ग्रिअर्सन साहब भी रामायण की भाषा को अवधी मानते हैं। इंगलैण्ड की हर काउन्टी के उच्चारण में भेद है, जिसकी चर्चा वरनार्ड शा ने अपने एक नाटक में की है। तो क्या इससे अंग्रेजी में भी उतने ही भेद कर दिये जायेंगे ? भाषा के विभेद का आधार ऐसा मानना उचित नहीं, और न कभी यह किसी को मान्य ही हो सकता है। विगत पृष्ठों पर मोतीहारी, शाहाबाद, बनारस आदि की सभी तरह की भोजपुरी का उदाहरण आया है। उन सब को देखने में किसी को भेद ऐसी चीज नहीं दिखायी पड़ती और न उनके अर्थ समझने में ही किसी को अलग कोप और व्याकरण देखने पड़ते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि भोजपुरी को जिन पाँच उपरोक्त भागों में ग्रिअर्मन साहब ने बांटा है, वह सही नहीं है।

फिर भोजपुरी प्रदेश की भाषा तथा उसके संस्कार और जातीयता की एकता के विषय में भी हम अगले पृष्ठों पर अधिक बातें प्रतिपादित कर चुके हैं और कह चुके है कि उसमें कोई भेद नहीं है। और यदि कोई भेद कहना या मानता है, तो वह प्रत्येक भोजपुरी भापी को वैज्ञानिक दृष्टि से भी उतना ही अमान्य होगा, जितना वह अपनी जातीयता और देश-प्रेम के विचार से उसे अवांछनीय मानता है।

अभी अक्टूबर सन् ४३ के 'विशाल भारत' में श्री राहुल सांकृत्यायन ने, भोजपुरी के प्रेमी और लेखक होते हुए भी, भोजपुरी नाम के स्थान पर मल्लिका, काशिका आदि नामों को रखने का आग्रह करके भोजपुरी को एक दूसरे रूप में विभाजित करने की बात उठायी थी। वे राजनीति के क्षेत्र में आकर भी यह भूल गये कि इस विभेद से जो वैज्ञानिक दृष्टि से विभेद का कोई महत्त्व नहीं रखता है- इतने बड़े प्रदेश की शक्ति, जिसकी अपनी एक अलग जातीयता दो हजार वर्षों से कायम हो चुकी है, बिलकुल नष्ट- भ्रष्ट हो जायगी। राहुलजी के इस लेख का उत्तर बहुत सुन्दर और पाण्डित्य पूर्ण रूप में एक भोजपुरी भाई ने, अभी फरवरी १९४४ के 'विशाल भारत' भाग ३३, अंक, २ १९४४ में प्रकाशित कराया है। इस लेख की दलीलें अकाट्य और सर्वमान्य हैं। इस लेख के आवश्यक अंशों का यहाँ उद्धरण करना लेखक को जरूरी इसलिये जान पड़ा कि इसमें दोनों पक्ष की दलीलें सूक्ष्म रूप से व्यक्त हो गयी हैं।

पता नहीं, राहुलजी ने भोजपुरी के स्थान पर सब जगह मल्लिका भाषा लिखने का कष्ट क्यों किया। तारीफ की बात तो यह है कि जहाँ उन्होंने मल्लिका लिखा है, बही कोष्ठक में उन्हें भोजपुरी भी लिखना पड़ा. है। शायद बिना भोजपुरी लिखे, वे मल्लिका का परिचय न दे सकते थे । सचमुच मल्लिका एक नया नाम है, जिसे जतलाने के लिये किसी व्यापक नाम का आश्रय लेना ही होगा और वह भोजपुरी ही है। मल्ल जनपदों को हम जानते हैं और साथ ही यह भी जानते हैं कि मल्लों का केन्द्र-स्थान कहीं गोरखपुर के पास था। जयचन्द्रजी ने 'भारतीय इतिहास की रूपरेखा' में लिखा है कि 'मल्ल जनपद वृजि जनपद के ठीक पश्चिम और कोशल के पूरव सटा हुआ आधुनिक गोरखपुर जिले में था। मात्रा और कुशावती या कुसी- नारा (आधुनिक कसिया, गोरखपुर के नजदीक पूरव) उनके कस्वे थे। उसमें छपरा भी शामिल रहा होगा, यह हम मानते हैं; क्योंकि इन जनपदों की सीमा कब क्या रही, यह निश्चय से कहना कठिन है।

पर अगर मल्ल जनपद की सीमा भी वहीं रही हो, जैसा कि राहुल सांकृत्यायनजी ने बतलाया है; जैसे-छपरा, आरा, बलिया, मोतिहारी, देव- रिया और दिलदारनगर, तो भी तो उनकी बोली या भाषा मल्लिका नाम से नहीं थी। आज के जमाने में जिस क्षेत्र को मल्ल जनपद के नाम से राहुलजी ने बतलाया है वह भी एक अजीव चीज है। वे देवरिया तो कहते हैं, मगर गोरखपुर नहीं; दिलदारनगर कहते हैं, मगर गाजीपुर नहीं। देवरिया और दिलदारनगर में अगर मल्लिका है, तो गोरखपुर और गाजीपुर में क्यों नहीं है ? फिर मल्लिका (यानी भोजपुरी) और काशिका (यानी भोजपुरी) में भेद कहाँ रहा ? "छपरा और बनारस की बोलियों का दावा आपके सामने आएगा। और मल्ल तथा काशी जनपदों के निवासी अपनी भाषाओं की सत्ता स्वीकार करा के रहेंगे।" राहुलजी के इस कथन में अलग सत्ता स्वीकार कराने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? राहुलजी कहते हैं-

"ग्रिअर्सन का प्रयत्न प्रारम्भिक था, इसलिये उनके भाषा तथा क्षेत्र विभाग भी प्रारम्भिक थे। उन्होंने भोजपुरी के भीतर ही काशिका और मल्लिका दोनों को गिन लिया है, जो व्यवहारतः बिलकुल गलत है।" भले ही ग्रिअर्सन का प्रयत्न प्रारम्भिक रहा हो; पर जयचन्द्र का मत तो प्रारम्भिक नहीं है। जयचन्द्रजी कहते हैं- "भोजपुरी गंगा के उत्तर दक्षिणं दोनों तरफ है। बस्ती, गोरखपुर, चम्पारन, सारन, बनारस, बलिया, आजमगढ़ मिर्जापुर और शाहावाद (इसमें गाजीपुर शायद भूल से छूट गया है, इसलिये हम उसे भी रख लेते हैं) अथवा प्राचीन मल्ल और काशी राष्ट्र उसके अन्तर्गत हैं। अपनी एक शाखा नागपुरिया बोली द्वारा उसने शाहाबाद से पालामू होते हुए छोटा नागपुर के दो पठारों में से दक्खिन पठार अर्थात् रांची के पठार पर कब्जा कर लिया है।" आगे वे झाड़खण्ड के सम्वन्ध में लिखते हुए कहते हैं-"किन्तु उस पर मुख्यतया विहार की मगही और भोजपुरी बोलियों ने, और उन में से भी अधिक भोजपुरी ने अधिकार किया है। जयचन्द्र- जी के इस मत का समर्थन हिन्दू-विश्वविद्यालय के हिन्दी अध्यापक श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र की 'वाङ मय विमर्प' नामक पुस्तक से होता है। उन्होंने लिखा है-'बिहारी के वस्तुतः वर्ग हैं-मैथिली और भोजपुरिया । भोजपुरिया पश्चिमी वर्ग में है और मैथिली पूर्वी वर्ग में। भोजपुरिया मैथिली से बहुत भिन्न है.........भोजपुरिया युक्तप्रान्त के पूर्वी भाग गोरखपुर, बनारस कमिश्नरियों और बिहार के पश्चिमी भाग चम्पारन, सारन, शाहाबाद जिलों की बोली है।...... इसके अन्तर्गत भोजपुरी पूरवी और नगपुरिया बोलियाँ हैं।" झाड़खण्ड में जयचन्दजी ने मगही का जो अधिकार लिखा है, वह इतना ही है कि गया से कुछ शिक्षित और सभ्य व्यक्ति जाकर रांची के पठार पर बस गये हैं। उनके साथ मगही वोली भी कुछ अंशों में स्वभावतः वहाँ चली गयी है।

इस प्रकार शाहाबाद के जिले के भभुआ सव-डिवीजन का बनारस से कितना गहरा सम्बन्ध है। इसे वहाँ की बोलियों का अध्ययन करके समझा जा सकता है। इसके अलावा जमानिया स्टेशन (गाजीपुर ई० आई० मेन लाइन) से एक सड़क दुर्गावती स्टेशन ( ई० आई० ग्रैण्ड० कार्ड लाइन शाहाबाद) तक चली गयी है। यह सड़क आठ या दस मील लम्बी है। इसमें गाजीपुर जिला वोर्ड की दो मील, बनारस जिला वोर्ड की दो मील, और शाहाबाद जिला बोर्ड को चार या छः मील लम्बी सड़क है। अब कोई बतावे कि इस सड़क के आसपास के गाँवों में भापा मल्लिका होगी कि काशिका ? हम कहते हैं इन सब गांवों की भाषा भोजपुरी है। इसी आधार पर हम यह कहना चाहते हैं कि मल्लिका काशिका और भोजपुरी का यह बिना झगड़ा का झगड़ा क्यों? प्राचीन काल में चाहे जो भी बढ़ा-चढ़ा हो, आज तो सब एक दशा में है, सब की एक ही बोली भोजपुरी है। तब तीनों एक में मिल क्यों न जायें? हम फिर कहना चाहते हैं कि अवधी के बाद भोजपुरी है। उनके बीच में अन्य कोई भाषा गढ़ने से फायदा नहीं होगा । यदि छोटे-मोटे भेदों पर ध्यान दिया जायगा, तो घर-घर की भापा अलग अलग हो जायगी।

--लेखक की स्वीकृति से । इसके अतिरिक्त हिन्दी के बड़े विद्वान् बाबू श्यामसुन्दरदास तथा पं० पद्मनारायण आचार्य ने भी अपने 'भाषा रहस्य' में भोजपुरी की एकता और विस्तार को लेखक के मत के अनुसार ही स्वीकार किया है। पृष्ठ २०६ (प्रधान भाग) पर विहारी का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा है- पूर्व की ओर आने पर सबसे पहली बहिरंग भाषा बिहारी मिलती है। बिहारी केवल बिहार में ही नहीं, संयुक्त प्रान्त के पूर्व भाग अर्थात् गोरखपुर बनारस कमिश्नरियों से लेकर पूरे बिहार प्रान्त तथा छोटा नागपुर में भी बोली जाती है। यह पूर्वी हिन्दी के समान हिन्दी की चचेरी बहिन मानी जा सकती है।

(१) मैथिली, जो गंगा के उत्तर दरभंगा के आसपास बोली जाती

(२) मगही, जिसका केन्द्र पटना और गया है।

है।

(३) भोजपुरी, जो गोरखपुर और बनारस कमिश्नरियों से लेकर बिहार प्रान्त के आरा (शाहाबाद) चम्पारन और सारन जिलों में बोली जाती है। यह भोजपुरी अपने वर्ग की ही मैथिली मगही से इतनी भिन्न होती है कि चटरजी भोजपुरी को एक पृथक् वर्ग में ही रखना उचित समझते हैं।

इन उद्धरणों को पढ़कर भोजपुरी के विभेद के पक्ष की सभी दलीलों की निर्मूलता तथा इन पंक्तियों के लेखक के मत की प्रामाणिकता पाठकों पर स्वयं स्पष्ट हो जायगी। अस्तु ।

अब इस भूमिका को लेवक को कतिपय निजी तथा सार्वजनिक कारणों से इस भूमिका को यहीं समाप्त करना पड़ता है। शेष तीन शीर्षकोंवाला अंदा इस पुस्तक में नहीं जा सका। यदि ईश्वर ने चाहा, तो वह अंश भी, जो इस भूमिका का मुख्य अंश है, पुस्तिका के रूप में पाठकों के अवलोकनार्थ शीघ्र भेंट किया जायगा।

नवम्बर, ४३

दुर्गाशंकर प्रसाद सिह

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लेख
भोजपुरी लोक गीत में करुण रस
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"भोजपुरी लोक गीत में करुण रस" (The Sentiment of Compassion in Bhojpuri Folk Songs) एक रोचक और साहित्यपूर्ण विषय है जिसमें भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से लोक साहित्य का अध्ययन किया जाता है। यह विशेष रूप से भोजपुरी क्षेत्र की जनता के बीच प्रिय लोक संगीत के माध्यम से भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं को समझने का एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है। भोजपुरी लोक गीत विशेषकर उत्तर भारतीय क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से समृद्ध हैं। इन गीतों में अनेक भावनाएं और रस होते हैं, जिनमें से एक है "करुण रस" या दया भावना। करुण रस का अर्थ होता है करुणा या दया की भावना, जिसे गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। भोजपुरी लोक गीतों में करुण रस का अभ्यास बड़े संख्या में किया जाता है, जिससे गायक और सुनने वाले व्यक्ति में गहरा भावनात्मक अनुभव होता है। इन गीतों में करुण रस का प्रमुख उदाहरण विभिन्न जीवन की कठिनाईयों, दुखों, और विषम परिस्थितियों के साथ जुड़े होते हैं। ये गीत अक्सर गाँव के जीवन, किसानों की कड़ी मेहनत, और ग्रामीण समाज की समस्याओं को छूने का प्रयास करते हैं। गीतकार और गायक इन गानों के माध्यम से अपनी भावनाओं को सुनने वालों के साथ साझा करते हैं और समृद्धि, सहानुभूति और मानवता की महत्वपूर्ण बातें सिखाते हैं। इस प्रकार, भोजपुरी लोक गीत में करुण रस का अध्ययन न केवल एक साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भी भोजपुरी सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों की अद्भुत अभिवृद्धि को संवेदनशीलता से समृद्ध करता है।
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भोजपुरी भाषा का विस्तार

15 December 2023
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भोजपुरी भाषा के विस्तार और सीमा के सम्बन्ध में सर जी० ए० ग्रिअरसन ने बहुत वैज्ञानिक और सप्रमाण अन्वेषण किया है। अपनी 'लिगुइस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' जिल्द ५, भाग २, पृष्ठ ४४, संस्करण १९०३ कले० में उन्हो

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भोजपुरी काव्य में वीर रस

16 December 2023
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भोजपुरी में वीर रस की कविता की बहुलता है। पहले के विख्यात काव्य आल्हा, लोरिक, कुंअरसिह और अन्य राज-घरानों के पँवारा आदि तो हैं ही; पर इनके साथ बाथ हर समय सदा नये-नये गीतों, काव्यों की रचना भी होती रही

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जगदेव का पवाँरा जो बुन्देलखण्ड

18 December 2023
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जगदेव का पवाँरा जो बुन्देलखण्ड में गाया जाता है, जिसका संकेत भूमिका के पृष्ठों में हो चुका है- कसामीर काह छोड़े भुमानी नगर कोट काह आई हो, माँ। कसामीर को पापी राजा सेवा हमारी न जानी हो, माँ। नगर कोट

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भोजपुरी लोक गीत

18 December 2023
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३०० वर्ष पहले के भोजपुरी गीत छपरा जिले में छपरा से तोसरा स्टेशन बनारस आने वाली लाइन पर माँझी है। यह माँझी गाँव बहुत प्राचीन स्थान है। यहाँ कभी माँझी (मल्लाह) फिर क्षत्रियों का बड़ा राज्य था। जिनके को

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राग सोहर

19 December 2023
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एक त मैं पान अइसन पातरि, फूल जइसन सूनरि रे, ए ललना, भुइयाँ लोटे ले लामी केसिया, त नइयाँ वझनियाँ के हो ॥ १॥ आँगन बहइत चेरिया, त अवरू लउड़िया नु रे, ए चेरिया ! आपन वलक मों के देतू, त जिअरा जुड़इती नु हो

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राग सोहर

20 December 2023
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ललिता चन्द्रावलि अइली, यमुमती राधे अइली हो। ललना, मिलि चली ओहि पार यमुन जल भरिलाई हो ।।१।। डॅड़वा में वांधेली कछोटवा हिआ चनन हारवा हो। ललना, पंवरि के पार उतरली तिवइया एक रोवइ हो ॥२॥ किआ तोके मारेली सस

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करुण रस जतसार

22 December 2023
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जतसार गीत जाँत पीसते समय गाया जाता है। दिन रात की गृहचर्य्या से फुरसत पाकर जब वोती रात या देव वेला (ब्राह्म मुहूर्त ) में स्त्रियाँ जाँत पर आटा पीसने बैठती हैं, तव वे अपनी मनोव्यथा मानो गाकर ही भुलाना

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राग जंतसार

23 December 2023
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( १७) पिआ पिआ कहि रटेला पपिहरा, जइसे रटेली बिरहिनिया ए हरीजी।।१।। स्याम स्याम कहि गोपी पुकारेली, स्याम गइले परदेसवा ए हरीजी ।।२।। बहुआ विरहिनी ओही पियवा के कारन, ऊहे जो छोड़ेलीभवनवा ए हरीजी।।३।। भवन

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भूमर

24 December 2023
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झूमर शब्व भूमना से बना। जिस गीत के गाने से मस्ती सहज हो इतने आधिक्य में गायक के मन में आ जाय कि वह झूमने लगे तो उसो लय को झूमर कहते हैं। इसी से भूमरी नाम भी निकला। समूह में जब नर-नारी ऐसे हो झूमर लय क

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26 December 2023
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खाइ गइलें हों राति मोहन दहिया ।। खाइ गइलें ० ।। छोटे छोटे गोड़वा के छोटे खरउओं, कड़से के सिकहर पा गइले हो ।। राति मोहन दहिया खाई गइले हों ।।१।। कुछु खइलें कुछु भूइआ गिरवले, कुछु मुँहवा में लपेट लिहल

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राग कहँरुआ

27 December 2023
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जब हम रहली रे लरिका गदेलवा हाय रे सजनी, पिया मागे गवनवा कि रे सजनी ॥१॥  जब हम भइलीं रे अलप वएसवा, कि हाय रे सजनी पिया गइले परदेसवा कि रे सजनी 11२॥ बरह बरसि पर ट्राजा मोर अइले, कि हाय रे सजनी, बइठे द

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भजन

27 December 2023
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ऊधव प्रसंग ( १ ) धरनी जेहो धनि विरिहिनि हो, घरइ ना धीर । बिहवल विकल बिलखि चित हो, जे दुवर सरीर ॥१॥ धरनी धीरज ना रहिहें हो, विनु बनवारि । रोअत रकत के अँसुअन हो, पंथ निहारि ॥२॥ धरनी पिया परवत पर हो,

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भजन - २५

28 December 2023
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(परम पूज्या पितामही श्रीधर्म्मराज कुंअरिजी से प्राप्त) सिवजी जे चलीं लें उतरी वनिजिया गउरा मंदिरवा बइठाइ ।। बरहों बरसि पर अइलीं महादेव गउरा से माँगी ले बिचार ॥१॥ एही करिअवा गउरा हम नाहीं मानबि सूरुज व

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बारहमासा

29 December 2023
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बारहो मास में ऋतु-प्रभाव से जैसा-जैसा मनोभाव अनुभूत होता है, उसी को जब विरहिणी ने अपने प्रियतम के प्रेम में व्याकुल होकर जिस गीत में गाया है, उसी का नाम 'बारहमासा' है। इसमें एक समान ही मात्रा होती हों

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अलचारी

30 December 2023
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'अलचारी' शब्द लाचारी का अपभ्रंश है। लाचारी का अर्थ विवशता, आजिजी है। उर्दू शायरी में आजिजो पर खूब गजलें कही गयी हैं और आज भी कही जाती हैं। वास्तव में पहले पहल भोजपुरी में अलचारी गीत का प्रयोग केवल आजि

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खेलवना

30 December 2023
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इस गीत में अधिकांश वात्सल्य प्रेम हो गाया जाता है। करुण रस के जो गोत मिले, वे उद्धत हैं। खेलवना से वास्तविक अर्थ है बच्चों के खेलते बाले गीत, पर अब इसका प्रयोग भी अलचारी को तरह अन्य भावों में भी होने

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देवी के गीत

30 December 2023
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नित्रिया के डाड़ि मइया लावेली हिंडोलवा कि झूलो झूली ना, मैया ! गावेली गितिया की झुली झूली ना ।। सानो बहिनी गावेली गितिया कि झूली० ॥१॥ झुलत-झुलत मइया के लगलो पिसिया कि चलि भइली ना मळहोरिया अवसवा कि चलि

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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पूरबा गात

3 January 2024
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( १ ) मोरा राम दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। भोरही के भूखल होइहन, चलत चलत पग दूखत होइन, सूखल होइ हैं ना दूनो रामजी के ओठवा ।। १ ।। मोरा दूनो भैया० 11 अवध नगरिया से ग

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कजरी

3 January 2024
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( १ ) आहो बावाँ नयन मोर फरके आजु घर बालम अइहें ना ।। आहो बााँ० ।। सोने के थरियवा में जेवना परोसलों जेवना जेइहें ना ॥ झाझर गेड़ वा गंगाजल पानी पनिया पीहें ना ॥ १ ॥ आहो बावाँ ।। पाँच पाँच पनवा के बिरवा

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रोपनी और निराई के गीत

3 January 2024
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अपने ओसरे रे कुमुमा झारे लम्बी केसिया रे ना । रामा तुरुक नजरिया पड़ि गइले रे ना ।। १ ।।  घाउ तुहुँ नयका रे घाउ पयका रे ना । आवउ रे ना ॥ २ ॥  रामा जैसिह क करि ले जो तुहूँ जैसिह राज पाट चाहउ रे ना । ज

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हिंडोले के गीत

4 January 2024
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( १ ) धीरे बहु नदिया तें धीरे बहु, नदिया, मोरा पिया उतरन दे पार ।। धीरे वहु० ॥ १ ॥ काहे की तोरी वनलि नइया रे धनिया काहे की करूवारि ।। कहाँ तोरा नैया खेवइया, ये बनिया के धनी उतरइँ पार ।। धीरे बहु० ॥

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मार्ग चलते समय के गीत

4 January 2024
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( १ ) रघुवर संग जाइवि हम ना अवध रहइव । जी रघुवर रथ चढ़ि जइहें हम भुइयें चलि जाइबि । जो रघुवर हो बन फल खइहें, हम फोकली विनि खाइबि। जौं रघुवर के पात बिछइहें, हम भुइयाँ परि जाइबि। अर्थ सरल है। हम ना० ।।

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विविध गीत

4 January 2024
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(१) अमवा मोजरि गइले महुआ टपकि गइले, केकरा से पठवों सनेस ।। रे निरमोहिया छाड़ दे नोकरिया ।॥ १ ॥ मोरा पिछुअरवा भीखम भइया कयथवा, लिखि देहु एकहि चिठिया ।। रे निरमोहिया ।॥ २ ॥ केथिये में करवों कोरा रे क

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पूर्वी (नाथसरन कवि-कृत)

5 January 2024
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(८) चड़ली जवनियां हमरी बिरहा सतावेले से, नाहीं रे अइले ना अलगरजो रे बलमुआ से ।। नाहीं० ।। गोरे गोरे बहियां में हरी हरी चूरियाँ से, माटी कइले ना मोरा अलख जोबनवाँ से। मा० ।। नाहीं० ॥ झिनाँ के सारी मो

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एगो किताब पढ़ल जाला

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