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बारहमासा

29 December 2023

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बारहो मास में ऋतु-प्रभाव से जैसा-जैसा मनोभाव अनुभूत होता है, उसी को जब विरहिणी ने अपने प्रियतम के प्रेम में व्याकुल होकर जिस गीत में गाया है, उसी का नाम 'बारहमासा' है। इसमें एक समान ही मात्रा होती हों, सो बात नहीं है। धरणीदासजी का बारहमासा कुछ दूसरे हो तरह का है। पलटूदासजी का 'बारहमासा' भी दूसरी तरह का है। विद्यापति, सूरवास जी के 'बारहमासों' को तर्ज दूसरी है। पर प्रचलित तर्ज के अन्य बारहमासे प्रायः सर्वत्र एक ही तरह के होते हैं। फिर भी उनके मात्रा और छंद में कुछ भेद हो जाता है। निम्नलिखित बारहमासा धरणोदासजी का है। इसमें टेक के बाद छंद का प्रयोग है।

( १ )

चलु मनवा मानि निज मानुस जहाँ बसे प्रान पिआर हो । हिलि मिलि पांच सलेहरि, अवरू पांच परिवार हो ।।

छन्द

परिवार जोरि बटोरि लेहू गउरि खोरिन लावहू । बहुरि समय सरूप अस ना, जाने कब तू पावहू ॥ 

बइसाख हो वनि बनि घनी, नखसिख करहु सिगार हो । पहिरन प्रेम पीतम्बर सुनि लेहु मन्त्र हमार हो ॥१॥

सुनि लेहु मंत्र हमार सूनरि हार पहिनु एकावरी । छाड़ि मान गुमान ममता आजो समझि तेबावरी ।। जेठ जतन करु कामिनी ! हा जनम अकारथ जात हो । जोवन गरब जनि भूलहू करि लेहु कछुक उपाय हो ॥२॥

करि लेहु कच्छुक उपाय ना फिर दुःख पाय पछिताय हो । जव गाँठी गरंथ ना छूटि है तब ढूंढ़तो ना पाइ हो ।। अजहू असाढ़ समझु चित हित बा न कोई हो । अद्भुत अरथ दरव सबे सपनो ना आपन होइ हो ।।३।।

आपन नहीं कछु सपन सब सुख अंत चलवू हारि के । माता पिता परिवार पुनि तोहि डालिहनि परिचारि के ।। सावन संकोच करहु जनि धावन पठावहु चोख है । बहुत दिवस भटकल भवन में अव जनि लावहु धोख हे ।।४।।

जनि घोख लावहु चोख धावहु अब कहावह पीय के । तव कोटि करत उपाय चिता मिटि हे ना ई जीव के ।। भामिनी ! भरल जोवन तन मन सम भजहु भादों मास हे । पत त रहिहें अपने पति से ना त होइहें उपहास हे ॥५॥

होइहें उपहाँस जग में मानि कारज निज कर करहु । समुझि नेह सनेह स्वामी हरखि ले हिरदय धरतु ।। आसिन विरह विलासिनी ! पिया मिलड्डु कपट खोजि है । जा दिन कंत रिसाइहें तव मुखडू न अइहें बोलि हे ॥६॥ मुख बोलि ना कुछ आई हो भरमाइबू हर घर घरी । तब कहुँवा कूप खनाइबू जब आगि छपरा पर परी ।। कानिक कुमल तवही सखी! जब भजित पिया के जानि है । बहुरि विछोह ना कर्वाह होखिहें जुगहि जुग तुम रानि हे ॥७॥ 

जुग रानि होइ बू मानि जिय धरु ध्यान कोइ न दूसरो । हित सारि खेत विसारि आपन बीज डारति ऊसरो ।। अगहन उतर दोहल सखी हम अवला अतवार है। जतन करत बने ना कुछ कठिन कुटिल संसार हे ॥८॥

कुटिल इहो संसार वलुहु जाउ जोवन अब सहो । निजु कन्त जव अपनाइहें चलि आइहें घर वैस हीं ।। पूस पलटि सिताइली प्रगटाइ परम आनन्द है । घर घर सगरे नगर सब भेंटल दुसह दुख दंद हे ॥१॥

दुःख मेटल चन्द मेंटल फन्द सभनि छुड़ाइला । पुलकि बारह बार मिलि परिवार मंगल। गाइला ।। माघ मुदित मन दिन छिन छिन दिन दिन बड़ला सोहाग हे । नइहर भरम मिटाके गइले ससुरे के संक न लाग हे ॥१०॥

नाहि लाग सासुर संकसुन सखी! रंक जनु राजा बने । निज नाव मिलले बांहि गइले सकल कलि विख दुख भगे ।। फागुन फरल अमिअ फल सखि झरेउ सकल दुख पात है । निस दिन रहल मगन हिय अइसन सुख कहिओ ना जात हे ॥११॥

कहि जात न सुख महा मूरति सुरति जहँ ठहाइला । सुनि विमल बारह मास के गुन दास धरनी गाइला ॥१२॥

अर्थ- 'हे मन ! चैत मास में तुम अपने पाचों साथी ओर पचोसों परिवार के साथ हिल-मिलकर वहाँ चलने का दृढ़ निश्चय करो, जहाँ तुम्हारे

प्राणपति हैं।'

'हे गोरी! तुम अपना परिवार जोर बटोर लो। देर मत करो। मालूम नहीं फिर ऐसा स्वरूप किस समय में फिर पाओगे। वैसाख मास में बन-ठन के नख से सिख तक शृंगार करो ओर प्रेम रूपी पोताम्बर धारण करो, यही हमारा तुम्हारे लिये उपदेश है।' ॥१॥ 

'हे सुन्दरी ! हमारा मन्त्र मानो, एकावरी का हार पहन लो। री

बावरी, तुम आज भी अपना मान-गुमान और ममता त्याग कर प्रियतम से

प्रेम करो। हे कामिनी ! जेठ आ गया, यत्न करो। अकारथ जीवन जा

रहा है। अपनी जवानी के गर्व में न भूलो। कुछ तो उपाय अपने भविष्य

के लिये कर लो' ॥२॥

'अपने दुख पाप का कुछ उपाय कर लो, नहीं तो पीछे पछताओगी। जब तुम्हारे गांठ की गुत्यो नहीं छूटेगी, तो प्रियतम को ढूँढ़ने से भी नहीं पाओगी। अभी आषाढ़ हो है, समझ कर देखो। इस देश में तुम्हारा कोई शुर्भाचतक नहीं है। ये जो अद्भुत असंख्य अर्थ और द्रव्य हैं, वे सब स्वप्न में भी तुम्हारे नहीं होंगे' ॥३॥

'यहाँ अपना कुछ नहीं है। यह सब सुख साज स्वप्न है। अन्त में सब हार कर चलना होगा। ये माता, पिता, परिवार तुम्हें फिर लालच देकर गिरा देंगे। सावन आ गया; संकोच न करो। तेज धावन भेजो। बहुत दिन घर में भटके। अब धोखा में मत पड़ों ॥४।।

'हे सुन्दरी ! धोखे में मत पड़ो। तेज दौड़ो। अपने पति को बनो। तुम्हारे कोटि उपाय करने पर भी जोव को चिन्ता नहीं मिटेगी। हे भामिनी, तुम्हारा यौवन भरा शरीर है। इस तन से भादों मास में प्रियतम को भज लो, नहीं तो तुम अपने पति के बिना पतित रहोगी और संसार में तुम्हारा उपहास होगा' ।।५।।

'अरी! तुम्हारा जग में उपहास होगा। ऐसा मान कर संसार में अपना काम करो। अपने स्वामी का प्रेम और स्नेह समझ कर अपने हृदय में उसे रक्खो। हे विरह में विलास करने वाली सुन्दरी, आश्विन मास आ गया,

कपट खोल कर अपने प्रियतम से मिलो। समझ लो, जिस दिन कंत असन्तुष्ट होंगे, उस दिन तुम्हारे कण्ठ से वाणो नहीं निकलेगो' ।।६।। 'मुख से जब वाणी नहीं निकलेगी, तब तुम द्वार-द्वार पर भ्रमित रहोगी और तब कहाँ कूप खनाओगी, जब तुम्हारे छप्पर में आग लग जायेगी।

हे सखी! कातिक आ गया अर्थात् तीसरापन बीत गया। तुम्हारा कुशल तभी है, जब पिया को जानो और भजो। जब प्रियतम को जानोगी और उनका भजन करोगी, तब युग-युग तुम रानी रहोगी और फिर तुम्हारा वियोग कभी नहीं होगा।' ।।७।।

'युग-युग को रानी बन कर भो प्रियतम को हृदय से सम्पूर्ण न जानकर

और दूसरे को ध्यान में लाकर रो! बावरो!! तू अपने हित के सारे

खेत को भूलकर अपना बोज ऊसर में डालती हो। हे सखो ! अब जब

अगहन आया अर्थात् चौथा पन शुरू हुआ, तब तुम उत्तर देतो हो कि मैं अबला

स्त्री को अवतार हूँ। मुझसे इस कठिन-कुटिल संसार में कुछ करते-धरते

नहीं बनता' ॥८॥

'यह संसार कुटिल है, जीव भले ही चला जाय यौवन भी नष्ट हो जाय। मुझसे कुछ यत्न करते नहीं बनता। जब हमारे कंत हमें अपनावेंगे, तब वे स्वयं हूं, बिना किसी प्रयत्न के मेरे घर वैसे हो चले आयेंगे। पूस मास आया है। शीत परम प्रिय आनन्द उत्पन्न करके पलट आया और इस नगर रूपो देही के घर-घर के सब दुसह दुःख को मिटा गया' ।॥९॥

'हे सखी! प्रियतम ने मुझसे भेंट किया, मेरे दुख नष्ट हो गये। मैं अपने सभी फन्दों से छूट गई। प्रियतम से पुलक-पुलक कर बार-बार मिलती और अपने परिवार का मंगल गाती हूँ। माघ मास आ गया। में प्रसन्न मन हूँ। मेरा सुहाग दिन-दिन क्षण-क्षण बढ़ रहा है। मेरे मायके का भ्रम मिट गया। ससुराल का डर भी अब नहीं लगता' ।।१०।।

'हे सखो ! सुनो अब मुझको ससुराल का डर उसी तरह नहीं लगता, मानो रंक राजा हो गया हो। मैं अपने स्वामी से गले मिलकर और उनको बाँह पकड़ कर कलि के सारे वित्र को जोत गई। फागुन मास आया। अमृत- फल फल गया और पात रूपो सब दुःख झड़ गये। रात दिन हृदय ऐसा मग्न रहता है कि सुख कहा नहीं जाता है' ।।११।।

'हे सखो ! मुझसे उस महा मूति के दर्शन सुख का वर्णन नहीं किया जाता, जहाँ में अपनी सुरति को ठहराती हूँ। धरनीदास कहते हैं कि मैं इन विमल बारहमासों के गुणों को सुनकर आज बारहमासा गा रहा हूँ।' 

यह सन्त कवि धरनीदासजी का रचा हुआ ३०० वर्ष पूर्व का बारह मासा है। पाठक इसकी विचार प्रौढ़ता और वर्णन-शैली पर विचार करें। कितनी सुन्दर रहस्यानुभूति है।

( २ )

चइत अजोधिया में जनमें राम, चनन लिपवलों सगरो धाम । सुबरन कलसा घडलों भराइ, सब रहि गइले धइले धाम ।। आरे पठवली बइरन केकई बनवा बालक मोर ॥१॥

बइसाख मास रितु भीखम धाम, पवन चलत जइसे वरिसत आग । जइसे जल बिनु तड़पेले मीन, पिआसल होइहें लखन रघुबीर ।। भारे कवनेरे बिरिछ तरे। ई दुख दीहली केकई। पठवली० ॥२॥

जेठ मास लूह लागेला अंग, राम लखन वन सीता संग । हरि के चरनवा कमल समान, घधकेली धरती अवरू असमान ।। घरत होइहें पग कड़से राम । पठवली० ।।३।।

असाढ़ मास घन गरजेला घोर, चहके चिरइयाँ कुहुँकेला मोर । कलपेली कोसिला अवधपुर धाम, वन भीजें मोरा लछुमन राम ।। कवना रे विरिछ तरे। पठवली बइरन० ।।४।।

सावन मास सरग साचेला तीर, गूंजेले भँवरा फिरेले भुजंग । ठाड़ि कोसिला अवधपुर धाम, बनवाँ भीजें मोरे लछमन राम ।। झमकि झरी वरिसेले। पठवली बइरन० ।।५।।

भादों मेघवा गिरेले अपार, घर बइठले सगर संसार । बड़े बड़े बुंदिया बरसत नीर, भीजत होइहें श्री रघुवीर ।। रएनि अँधिअरिया । पठबळी ० ।।६।।

अइड ए सखि ! माम कुआर। धरम करेला सगरो संसार । आजु जो होनें अजोधिया में राम। नेवततीं वाम्हन देतीं दान ।। भरि भरि थरिया मोती। पठवली० ॥७॥ 

कातिक मास सखि ! आवेली दिवारी घर घर दिभवा लेसेली नर नारी । मोर अजोविया परल अँधियारी सव सखियाँ मिलि गंगा नहाली ।। रहीं अब कइसे ? वन मोर बलका पठवली वइरनि केकई ॥८॥ अगहन करेलनि कुँअर सिगार। सिआर्वाह बसतर सोने के तार । पाट पटम्मर कुलही के मानि। माथे चीरा जड़ल कलीदार ।। गरवा बैजन्ती के हार। पठवली बइरन केकई० ।।९।। पूस मास सखि! परेला टुसार। रएनि चले जइसे खरग के धार । बिनु ओढ़ना मोरे लछुमन राम। कलपे कोसिला अजोधिया घाम ।।

कइसे करी मोर जनम जरि गइले । पठवली० ॥१०॥ माघ मास रितु होखे वसन्त । सूत विदेस तन तजि गइले कंत । बइठल भरत डोलावसु चंवर, जो आजु होतें मोरा लछुमन राम ।।

जनम के जोड़ी। पठवली ॥११॥ फागुन रंग खेलेले सब कोई ! अइसन रितु मैं गववलीं रोई । बइठल भरत जी घोरें अबीर का पर छिरको विना रघुवीर ।। देली दुख केकई। पठवली ॥१२॥

कौशल्या विलाप करती है-

'चंत मास में राम ने अयोध्या में जन्म लिया था। मैंने चन्दन से सारा राज भवन लिपवाया था। स्वर्ण कलश भरवा कर रखवाया था। हाय ! कैकेयी वैरिन ने मेरे बालकों को बन में भेज दिया' ॥१॥ 'वैसाख में भीषण घाम होता है। ऐसी लूह चलती है, जैसे आग बरस रही हो। जिस तरह जल के बिना मछली तड़पतो है, वैसे हो बन में बिना

जल के राम लक्ष्मण प्यासे किस वृक्ष के नीचे तड़पते होंगे? हाय, कैकेयी बैरिन ने मुझे यह दुःख दिया। उसने मेरे बालकों को बन में भेज दिया' ॥२॥ 'अरे, जेठ मास में लूह चल रही है। और राम और लक्ष्मण सोता के साथ बन में हैं। राम के चरण कमल-समान कोमल हैं और पृथ्वी और आसमान दोनों अग्नि की तरह जल रहे हैं। हाय राम किस तरह से चलते होंगे ? ओह ! कैकेयी बैरिन ने मेरे बालकों को बन भेज दिया' ।॥३॥ 

आषाढ़ मास में मेह जोर से गरजता है। चिड़ियाँ चहकती हैं और मोर बोलता है। पर हाय, में कौशल्या, इस अवधपुरी धाम में कलप रही हूँ। हाय, मेरे लक्ष्मना राम वन में किस वृक्ष के नीचे भीगते होंगे। वैरिन कैकेयी ने मेरे बालकों को बन भेज दिया' ।।४।।

'सावन मास आकाश तोर साध साध कर पृथ्वी पर छोड़ रहा है। अर्थात् घोर मूसलाधार पानी बरस रहा है। (पानी का भौरा) पानी पर खूब गूंज रहा है और पृथ्वी पर सर्वत्र सर्पराज भ्रमण करते हैं। पर हाय, समय के इस दुदिन में राम को छोड़कर मैं कौशल्या यहाँ इस अयोध्या धाम में खड़ी हूँ और वन में मेरे राम लक्ष्मण भोग रहे है? हाय, झम झम कर पानी बरस रहा है। बैरिन कंकेयी ने मेरे लड़कों को बन भेज दिया' ।।५।।

'भादों में अपार जल पड़ता है। सारा संसार अपने-अपने घर में इस समय बंठा हुआ है। बड़ी-बड़ी बूंदों में मेघ बरस रहा है। हाय, कहीं श्रीरामचन्द्रजी भीग रहे होंगे? हाय, इस पर यह रात्रि कितनी अँधेरी है ? बरिन कैकेयो ने मेरे पुत्रों को वन भेज दिया' ।।६।।

हे सखी! कुआर मास आया। इस मास में सारा संसार धर्म करता है। अगर आज राम अयोध्या में होते, तो मैं भी ब्राह्मणों को निमंत्रण देती। और थाल भर-भर कर मोतो दान करती। हा! कैकेयी बैरिन ने मेरे बच्चों को बन भेज दिया' ।।७।।

'हे सखो, कार्तिक मास में दोपावली आई। घर-घर में नर-नारी दोष जला रहे हैं; पर मेरी अयोध्या आज अँधेरो पड़ी हुई है। सब सखियाँ मिल-जुलकर गंगा स्नान करती हैं। यह देख कर मन व्याकुल हो उठता है। हाय ! अब किस तरह से रहूँ ? बैरिन कैकेयो ने राम लक्ष्मण को वन मेज दिया' ।।८।।

'अगहन मास में कुंअर शृंगार करते हैं। स्वर्णतार जड़ित वस्त्र अर्थात् जरतारी के वस्त्र सिलाते हैं। पाट-पाटम्बर हो कुल की मर्यादा है। अर्थात् जाड़े में पाट-पाटम्बर से कुल को मर्यादा ज्ञात होतो है। माये पर पगड़ी हो और शरीर पर कलीदार अंगा हो और गले में बैजयन्ती हार हो। पर हाय (हमारे यहाँ तो कोई पहनने वाला है ही नहीं) कैकेयी वैरिन ने बच्चों

को बन में भेज दिया' ।॥९॥

'हे सखो! पूस मास में कड़ाके का जाड़ा पड़ता है। रात्रि में पश्चिमी पवन तलवार को धार ऐसा तेज और काटने वाला चलता है। मेरे लक्ष्मण और राम के पास कोई ओढ़ने का वस्त्र नहीं है। वे किस तरह इस जाड़े में रहते होंगे ? अयोध्या धाम में कौशल्या यह सोच-सोच कर दुखी हैं और कहती हैं- हे सखी ! अब कीन उपाय करूं? मेरा जीवन जल गया। वैरिन कैकेयो ने मेरे बच्चों को बन भेज दिया' ।।१०।।

'माघ मास, बसन्त ऋतु का आगमन है। इसमें बसंत पंचमी मनाई जातो है। पर हमारा पुत्र तो विदेश में है और पति शरीर त्याग कर चल दिये। भरतजो बैठे-बैठे (राम के खड़ाऊ पर) चंवर डुलाया करते हैं। हा ! आज जो मेरे लक्ष्मण और राम को जोवन भर एक साथ रहने वाली जोड़ी (अवध में) होतो? हाय, कैकेयी ने मेरे बालकों को बन में मेज दिया'

॥११॥

'फागुन मास में सब कोई रंग खेलता है। पर हा! ऐसी ऋतु को मैं रो-रोकर गवाँ रही हूँ ? भरतजो बैठे-बैठे अबोर घोलते हैं और पूछते हैं कि बिना राम के मैं इसे किस पर डालूँ? हा! यह वज्त्र दुःख कैकेयी वैरिन ने राम लक्ष्मण को बन भेज कर दिया' ।॥१२॥

बारह-मासा गोत को उपक्रमणिका में पं० रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है कि "दिहात के लोग बारहमासा का गाना और सुनना बहुत पसन्द करते हैं, क्योंकि एक साथ ही वे बारह महीनों के सुख दुःख का स्रोत देखने लगते हैं, और उसके साथ अपने अनुभव को मिलाकर एक नवीन सुख का रस लेने लगते हैं।" पण्डितजी का कथन अक्षरशः उपर्युक्त गोत को सुनते या पढ़ते समय चरितार्थ होता है। इसमें कितनी चुस्तगो और साय हो स्वाभाविकता और रस-परिपाक है। इस गीत को गाये जाते सुनने पर हृदय कैसा रस के साथ बहने लगता है- यह सुनने वाला ही अनुभव कर सकता है। 

( ३ )

आली हो, विनु साम सुन्नर सो कल ना परे हो ।। पहिल मास लगले कीतिक आन, विरह विथा तन लागेले वान । जिया मोरा तलफत निकसत प्रान, कवने विधि राखों पापी प्रान० से कल ना परे हो० ॥१॥

अइले हो सखि! अगहन मास । का पर राखों जीवन आस । सूर स्याम विन सून भइले धाम। विनु पिया नीक न लागे काम ।। से कल ना परे हो० ॥२॥

पूस मास पाला परेला दुसार। विनु पिया जाड़ा जाइ न हमार । लपटि केसे सोवों बिनु रघुवीर ? हनि हनि मोर करेजवा में तीर ।।

से कल ना परे हो० ॥३॥

माघ मास रितु लागे ला वसन्त। आजुओ ना पवली पिया तोर अंत । लिखीं कइसे पतिया के ले जाइ । के निरमोहिया के दिही समुझाइ ।।

फागुन में सब घोरें अवीर। मैं जरत जइसे होरी उठत ओइ से लूक । कइसे घोरों विना रघुवीर । बिरह अगिन तन दिहले फूक ।।

से कल ना परे हो० ॥४।॥

से कल ना परे हो० ।।५।।

चइत मास वन फूलले फूल। हमारा बलमुआ गइले मूल । ठाढ़ सरजू में मीजिले हाथ। अइसन समैया पिया छोड़ले साथ ।।

से कल ना परे हो० ॥६॥

बइसाख मास गवना के वहार । दिन सब बीतले ठाढ़े दुआर । कब दोनी अइहें न रहे मन धीर। रहि रहि उठेला करेजवा में पीर ।। से कल ना परे हो० ॥७॥

जेठ मास बरसाइन होय । वर पूजे निकसी सखि सब कोय । हा ! सखि, कइके मारहो सिगार। मथवा के वेदिया अजवबहार ।। से कल ना परे हो० ।।८।। 

अपाढ़ मास बड़ बरसत मेह। परले फफोरा सगरे देह । विरह तक जरले लगले लूक। बरखा के फुहिया देले तन फूंक ।। से कल मा परे हो० ।।९।।

सावन मास में हरिअर रूख । हमार कँवल गइले विनु पिया सूख । झूली झुलुहा कइसे ब्रिनु रघुवीर। तलफे ला प्रान ना निकले तीर ।। से कल ना परे हो० ॥१०॥

भादों मास जल गरुअ गंभीर । हमरे नयन भरि अईले नीर । जिया मोरा डूबे अवरू उतराय । नाव खेवैया परदेस में छाय ।। से कल ना परे हो० ॥११॥

कुआर मास वन बोलेला मोर। उठ उठु गोरिया अइले बलमु तोर । अइलनि पियवा पुजवलिन आस। एही से गवलीं बारह मास ।।

से कल ना० ॥१२॥

'विरहिणो विलाप करती है- हे सखी! बिना श्याम सुन्दर के कल नहीं पड़ रहा है। उनके प्रस्थान करने के बाद पहला मास कार्तिक का आया। हे आली! उसमें विरह व्यथा के वाण शरीर में बेधने लगे। इससे कल नहीं पड़ता ।' ।।१।।

'हे सखो, फिर अगहन मास आया। अपने इस जीवन की आशा किस पर रखूँ ? सूरदास कहते हैं कि श्याम के बिना वह स्थान सूना-सा हो रहा है। बिना प्रिय के कोई काम अच्छा नहीं लगता। इसलिये हे सखी ! किसी तरह कल नहीं पड़ता' ।।२।।

'पूस मास में पाला और तुषार पड़ रहा है। बिना प्रियतम के मेरा जाड़ा नहीं जा रहा है। विना रघुवीर के किससे लिपट कर सोऊँ ? तान तान कर बाण कलेजे में मदन मार रहा है। इससे हे सखी, कल नहीं पड़ता' ।।३।।

माघ मास ऋतुराज है, इसमें वसन्त आरम्भ होता है (वसंतीपंचमी) । हे प्रियतम ! पर आज भी तुम्हारा अंत में नहीं जान पाई। मैं पत्र कैसे लिखूँ ? 

उसे कौन लेकर जायगा और कीन निर्मोही प्रियतम को समझा कर देगा ? सो हे सखो ! कल नहीं पड़ता' ।।४।।

'फागुन मास में सभी अबोर घोल रहे हैं। पर हाय! बिना रघुवीर के मैं अबीर कंसे घोलूं? होलो को तरह जल रही हूँ? भीतर लूह की तरह (विरह का झंझावात) उठ रहा है। हाय, विरहाग्नि ने मेरे शरीर को फूंक डाला, सो किसी तरह कल नहीं पड़ रहा है' ।।५।।

'चंत मास में तमाम बन में फूल फूल रहे हैं; पर मेरे बालम इस मस्ती के मास में भी मुझे भूल गये। मैं खड़ी खड़ी सरयू में (चिन्तन करतो हुई) हाय मल रही हूँ। हाय! ऐसे मस्ती के समय में प्रियतम ने साथ छोड़ दिया ! सो हे सखी, किसी तरह कल नहीं पड़ता ॥६॥

'वैशाख मास में सर्वत्र बघू ससुराल जा रही हैं। इसी की आज बहार है; पर मेरे सारे दिन प्रतीक्षा में दरवाजे पर खड़े-खड़े बीत जाते हैं। हा! अब कौन ठिकाना है कि कब प्रियतम आवेंगे। अब मन में धैय्यं भी तो नहीं रहा (कि आशा बनी रहे) रह रह कर हृदय पीड़ा उठ रही है। हे सखो सो कल नहीं पड़ रहा है।' ।।७।।

'आषाढ़ मास में मेघ बहुत बरसने लगा। सारे शरीर पर फफोले पड़ गये अर्थात् एक एक बूंद तप्त जल ऐसा शरीर पर लगता है और उससे सर्वत्र फफोले उठ गये हैं। हे सखी! विरह ने लूह के ऐसा शरीर को भस्म कर दिया। इस वर्षा को फुहियाँ शान्ति देने के बजाय शरीर को हो फूंक रही हैं। सो कल पड़े तो कैसे पड़े ? ।' ॥९॥

जेठ जास में तमाम वर गवना कराने के लिए आये हैं। वर पूजन के लिये सभी सखियाँ सोलहो शृंगार कर करके निकली हैं। उनके माथे पर बंदी अजब शोभा देती है। सो हे सखो, 'कल नहीं पड़ता, बिना श्याम सुन्दर के शान्ति नहीं मिलती ॥८॥

श्रावण मास में पेड़ हरे हो रहे हैं। पर मेरा कमल रूपो कलेजा प्रियतम के विना सूत्र गया। में बिना रघुवीर के कैसे झूला झूलूं? मेरे प्राण तड़प रहे हैं; पर मदन का तीर तो बिध गया है। निकल नहीं रहा है। सो कल नहीं पड़ रहा है।' ॥१०॥

'भादों का महोना बड़ा गम्भीर होता है। मेरो आँखों में आंसू भर आये हैं। मेरे प्राण डूब और उतरा रहे हैं। मेरी नाव का लेने वाला विदेश में बसा हुआ है। इससे कल नहीं पड़ रहा है।' ।।११।।

'कुवार मास आया। वन में मोर बोलने लगे। हे गौरी, उठ देख, तेरा पति आया है। प्रियतम आये। आशा पूरी हुई, इसी से बारह मासा गा रही हूँ' ॥१२॥

( ४ )

जेठ मास बाबा मोर बीअहलन असाढ़ वुनवा टपके ला रे ॥ सावन सैर्या सेज सुतली भदउर्जा देहि गरुआवेला रे ।। कुआर में गरभ जनइलन कातिक देहिआ धमके ला रे । अगहन पिआ सुनि पवलनि मनहीं मनवा हुलसे ला रे ।। पूसवा में उठलो ना जाला बइठलो ना जाला रे । मघवा बसन्त बनाई ला फागुन रंग घोरी ला रे ।। चइत में बबुआ जनमले बइसाख त छठिया जे पूजी ला रे ।

'जेठ मास में मेरे पिता ने मेरा विवाह किया। आषाढ़ मास में बूंदे टपकने लगीं। श्रावण में पति को सेज पर सोई और भादों में देह भारी होने लगी। क्वार के महीने में गर्भ मालूम होने लगा। कार्तिक के महीने में कुछ-कुछ ज्वर-सा होने लगा। अगहन महीना में गर्भ की सूचना पति को मिली, तो वे मन ही मन प्रसन्न होने लगे। पूस के महीने में उठना-बैठना कठिन हो गया। माघ मास में वसन्त मनाया और फागुन में रंग घोल कर देवर के साथ होली खेली। चैत मास में बालक ने जन्म लिया और बैशाख में मैंने छठ व्रत किया'। 

( ५ )

कन्हैया नाहीं अइले, कन्हैया के ले आई । सीतल चंदन अंग लगावति, कामिनि करत सिगार । जा दिन से मन मोहन विछरे, सनकै मास असार ।।

कन्हैया नाहीं० ॥२॥

एक त गोरिया अॅगवा के पातरि, दूसरे पिया परदेस । तिसरे मेह झमाझम बरसे, सावन अधिक संदेस ।।

कन्हैया नाही अइले० ॥२॥

मादो रएनि भयावनि उधो, गरजे अवरू घहराय । लवका लवके ठनका ठनके, छतिया दरद उठि जाय ।।

कन्हैया नाहीं अइले० ।।३।।

कुआरे कामिनि आस लगवली, जोहली पिया के बांट । अबकी बेरि जो हरि मोर अइहें, हियरा के खुलिहें कपाट ।।

कन्हैया नाहीं अइले० ॥४।।

कातिक पुरनमासी ऊघो, सब सखि गंगा नहायें । हम अस अवला परम सुनरिया, केहिके गोहनवाँ जाय ।।

कन्हैया नाही अइले० ।।५।।

अगहन ठाढ़ी अँगनवा ऊधो, चहु दिसि उपजल धान । पिया विनु करकेला मोरा करेजवां, तनवां से निकसत प्रान ।।

कन्हैया नाही अइले० ॥६॥

पूसहि फुहिआ परि गइले ऊधो, भीजि गइले तन के चीर । चकई चकवा बोली बोलेलनि, ओहि जमुना के तीर ।।

कन्हैया नाहीं अइले० ॥७॥

माघ कड़ाका, जाड़ा ऊधो, सब सखी रुअवा भरावें । हमरो बलमुआ परदेसवा छवले, पिया बिनु जाड़ न जावे ।। कन्हैया नाहीं अइले० ॥८॥ 

फागुन फगुआ बीति गइल ऊबो, हरि नाहीं अइले मोर । अवकी जब हरि मोर अइहें, रंग खेलवि झकझोर ।।

कन्हैया नाहीं अइले० ॥९॥

चैत फूले वन टेसुल ऊधो, भवँरा पइठि रस लेइ । का मॅवरा तू लोटा पोटा, काहे दरद मोहि देइ ।।

कन्हैया नाहीं अइले० ।।१०।।

वैसाख बाँस कटइतों ऊधो, रचि रचि अटा छवइती । तेहि चढ़ि सूतती संग कन्हैया, अॅचरन करितीं बयारि ।।

कन्हैया नाहीं अइले० ।।११।।

जेठ तपे मृग डहिया ए ऊधो, धधके पवन हहराई । अइले पियवा विदापति मिलले, जियरा के जरनि बुताई ।।

कन्हैया आजु० ॥१२॥

'हे ऊधो जो, कृष्ण नही आये ? कृष्ण को लिवा लाइये ।'

'कामिनि (अर्थात् राधा) शीतल चंदन अंग में लगाती हैं और तब शृंगार करती हैं, ताकि श्रृंगार के करने से जो विरहाग्नि उत्पन्न हो, वह शांत हो जाय (और शृंगार इसलिये करतो हैं कि कृष्ण का स्मरण हो-होकर विर- हाग्नि प्रज्वलित हो) जिस दिन से मन मोहन बिछुड़े हैं, उसी दिन से आषाढ़ महोना सनक गया अर्थात् पागल हो गया है (खूब बरस रहा है।) कन्हैया नहीं आये, उन्हें लिवा लाइये ॥१॥

'एक तो गोरी यों हो अंग की पतली है। दूसरे उसके प्रियतम परदेश में हैं। तीसरे झमाझम बादल बरस रहे हैं। सावन में उसके प्राण जाने का अधिक भय है। कन्हैया नहीं आये, उन्हें लिवा लाइये' ॥२॥

'हे ऊधो जी, भादों को भयानक रात गरजती है और घहराती है। विजलो. चमकती है, ठनका ठनकते हैं। मेरो छाती में पीड़ा उठ खड़ी होती है। कन्हैया नहीं आये। उन्हें लिवा लाइये' ॥३॥ 

क्वार महीना में कामिनी आशा करके प्रियतम की बाट जोहती है। सोचती है कि इस बार जो मेरे प्रियतम आ जायगे, तो मेरे हृदय के कपाट खुल जायेंगे। पर हे ऊधव जो हरि नहीं आये। उनको लिवा लाइये' ॥४॥

'हे ऊधव, कार्तिक को पूर्णिमा को सब सखियाँ अपने-अपने प्रियतम के साथ गंगा-स्नान करती हैं। पर हाय, मैं परम सुन्दरी अबला किसके साथ स्तान करने जाऊँ? कन्हैया नहीं आये ऊधवजी, जाइये उन्हें लिवा लाइये' ।।५।।

'अगहन महीने में मैं (प्रतीक्षा में) आँगन में खड़ी रहती हूँ। और चारों और धान के खेत लहलहा रहे हैं। हाय, प्रियतम के विना मेरा कलेजा फटता जा रहा है। और शरीर से प्राण निकल रहे हैं। हे ऊधव, कृष्ण नहीं आये। आप जाइये उन्हें लिवा लाइये' ।।६।।

'पूस में झींसो पड़ गयो। मेरे शरीर के वस्त्र भीग गये। और उधर यमुना तोर चकवा चकई बोल रहे हैं। हे ऊधो, कन्हैया नहीं आये, जाकर लिवा लाइये' ।।७।।

'माघ महीने में कड़ाके का जाड़ा पड़ता है। सब सखियाँ रजाई में रुई भरा रही हैं; पर हमारे प्रियतम परदेश में जाकर बस रहे हैं। बिना उनके जाड़ा नहीं जाता है। ऊरोजो, कन्हैया नहीं आये जाकर लिया आइये'। ॥८॥

'हे ऊधोजी, फाल्गुन मास में फाग बीत गया, पर तब भी मेरे हरि नहीं आये। अबको बार जो हमारे हरि आवेंगे तो खूब धूम-धाम से रंग खेलूंगी। उधोजी हरि नहीं आये, जाकर लिवा लाइये' । ।॥९॥

'हे ऊधो, चैत में टेसू (पलाश) वन वन में फूल रहा है। और भौरे उन फूडों में पैठ-पंठ कर रस पान कर रहे हैं। अरे मस्त अवर तू पुष्प पराग से धूल धूसरित हो पृथ्वी पर क्या लोट-पोट रहा है। अरे निष्ठुर, मुझे क्यों प्रियतम का स्मरण करा करा कर हृदय में पीड़ा उत्पन्न कर रहा है। हे ऊधो, फन्हेया नहीं आये। जाओ लिवा लाओ' ॥१०॥ 

'हे ऊधो, बैसाख मास में (यदि प्रियतम पास होते तो) मैं बाँस कट- वाती और छत पर रच-रच कर सुन्दर छप्पर छवाती और उस अटारो पर उस छप्पर में कृष्णजी के साथ सोतो और अंचल डुला-डुला कर उनको हवा करती। हे ऊधों, कन्हैया नहीं आये, जाकर उन्हें लिवा लाओ' ॥११॥

'हे ऊधो, जेठ महीना में मृगवाह नक्षत्र अत्यन्त तपता है। वन को हवा हहरा-हहरा कर बहती है। उस महोना में प्रियतम आये और विद्या- पति कहते हैं कि विरहिणी से मिल गये और उसके हृदय की जलन मिट गयो' ।॥१२॥

( ६ )

भोर में कातिक परेला जाड़ । मोहि छोड़ि कन्ता भइले वनिजार ।।

मीना झुलवि हो ॥१॥

अगहन मास जे पहिली सनेह । चलु गोरिया नैहर अपना गेह ।। पान फूलले कापड़ कन्त विछोह दई दुख चीन्ह । दीन्ह ।।

मोना झुलवि हो ॥२॥

पूस मास पिया वरत मैं वरती पाचों नहाइ धोइ के दोहीं जीअहु कन्त तू लाख तोहार । अतवार ।। असीस । बरीस ।।

मोना झुलवि हो ।॥३॥

माघ मास घन परेला तुसार । काँपे हाथ अवरु थर-थर गात ।। काँपहू सेज तुरंगहि खाट । मों नाहीं जइहों तू सब जाव ।।

मोना झुलबि हो ।॥४॥ 

फागुन मास बहे फगुनी वयारि । तरवर पात सर्वाह झरि जाँय ।। जो में जनितिऊँ फगुनी बहार । हरि जी के रखितिउँ नैन छिपाय ।। मोना झुलवि हो ।॥५॥

चैत मास वन फूलले टेसु । गोरिया पठवली पिया के सनेसु ।। सूनि सनेस पिया अजहूँ न आय । ई दुनो नैना रोय गाँय ।। मोना झुलवि हो ।।६।।

वइसाख मास सब मंगल चार । अनिहनि गवना विअहिन वारि ।। छइहन माड़ो गइहन गीत । कन्त के पंथ जोहत मोहि वीत ।। मोना झुलवि हो ।।७।।

होय । जेठ मास वर साइत लोय ।। वर पूजन निकसीं सव अँगुरी हे अघरा कजरवा क रेख । फिरिफिरि कन्त मोर मुख देख ।। मोना झुलवि हो ॥८॥

असाढ़ मास असाड़ी जोग । घर घर मंदिर सजें सब लोग ।। चिरई चिरेंगुल खोता लगाय । हमरा बलमु परदेस में छाय ।। मोना झुलवि हो ॥९॥ 

सावन मास सखि अधिक सनेह । पिय विनु भूलेउँ देह ओ गेह ।। पहिली कुसुमी उतरली चीर । पिया विनु सोहे न माँग सेनूर ।।

मोना झुलत्रि हो ॥१०॥

भादो मास जल गहिर गंभीर । दामिनी दमके घारे ठनका ठनके मेह सेज छाड़ि धनी रोइ न घीर ।। घहाय । गवाय ।।

मोना झुलवि हो ॥११॥

कुवार मास वन बोलेला मोर । आउ आउ गोरिया वलमु अइले तोर ।। अइले बलमुआ पुजली आस । पूरल 'विदापति' वारह मास ।।

मोना झुलबि हो ॥१२॥

अर्थ सरल है। यह गोत विशद्ध भोजपुरी रूप में न लिख कर पंडित रामनरेश त्रिपाठीजी ने अपनी कविता-कौमुदी में हिन्दी मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है। सम्भव है वह उन्हें वैसा ही मिला हो और युक्त प्रांत के मध्य के किसी जिले से यह उन्हें मिला हो, जहाँ इसका विकृत रूप वैसा हो गया हो। त्रिपाठीजो इसे मैथिल-कोकिल 'विद्यापतिजी' द्वारा प्रणीत नहीं मानते। इसका प्रमाण भी नहीं देते; पर विद्यापतिजी के कई अन्य गाने भी मुझे भोजपुरी के मिले हैं। और विद्यापतिजी का भोजपुरी भाषी प्रदेश में रहना भो सिद्ध है। इससे भोजपुरी में उनका कहना स्वाभाविक ही मालूम होता है, खास कर तब जब सूर और मीरा के गीत जो भोजपुर प्रान्त से सुदूर के थे, मिलते हैं। विद्यापतिजी तो मिथिला में रहते थे, काव्य भी उनका मैथिली में है, जो भोजपुरी को सगी बहन है। 

प्रथम मास असा हे सखि ! साजि चलेला जलघार हो ।। उमड़ि घुमड़ि मेह वरसन लागे भीजि गइली लामी केस हो ।। एहि प्रीति कारन सेत वान्हल सिया उदेसे श्रीराम हो ।।१।।

सावन हे सखि ! शब्द सुहावन रिमझिम बरसेले बूंद हो ।। सब के बलमुआ रामा घर घुमि अइले हमरो बलमु परदेस हो ।।

एह प्रीति कारन सेतु० ॥२॥

भादो हे सखि ! रएनि भयावनि दूजे अन्हरिया राति हो ।। मलकाजे मारे रामा ठनका जे उनके सेहु देखि जिअरा डेराय हो ।। एहि प्रीति कारन सेतु० ॥३॥

आसिन हे सखि ! आस लगवलीं आस न पुरले हमार हो ।। आस जे पूरले रामा कुवरी सवति केरा जिनके तू राखेली लोभाय हो ।। एहि प्रीति कारन सेतु० ॥४।॥

कातिक हे सखि ! पूरन महीना सव सव सखि पहिने रामा पट हे पितम्बर करें गंगा असनान हो ।। हम धनि गुदरी पूरान हो ।। एहि प्रीति कारन सेतु० ॥५॥

अगहन हे सखि ! अंग सोहावन चहुं दिसि उपजल धान हो ।। चकवा चकइया रामा केलि करतु हैं से देखि जिया हुलसाय हो ।। एहि प्रीति कारन सेतु० ॥६॥

भूस हे सखि ! ओस परि गइली भीजि गइली लामी केस हो ।। चोलिया जे भीजे रामा काट कटरवा केरा जोवन भीजेला अनमोल हो ।। एहि प्रीति कारन सेतु० ।।७।।

माघ हे सखि ! आए वसन्त ऋतु ओरहि गइली जाड़ अब सेस हो ।। सब सन्त्रि सूने रामा-अपना वलमू संगे हमरा वलमू परदेस हो ।।

एहि प्रीति कारन सेतु० ॥८॥ 

'हे सबो ! प्रथम मास आषाढ़ में जल की धारें सज-सज कर बह रही हैं। उमड़-घुमड़ करके मेह वरसने लगे ओर मेरे लम्बे-लम्बे केश भीग गये। हे सखी, इसी प्रेम के कारण श्रीरामचन्द्रजी ने समुद्र में सेतु बाँधा था' ॥१॥

'हे सखी! सावन महोने में रिमझिम रिमझिम मेघ बरसता है। इस मास का शब्द सुहावना है। हे राम, सब किसी के प्रियतम परदेश से घूमकर घर चले आये; पर मेरे बालम अभी तक परदेश में पड़े हैं। इसी प्रेम के कारण श्रीरामचन्द्रजी ने सोता के उद्देश से समुद्र में पुल बाँधा या' ॥२॥

'भादों महीना में, हे सखो, ऐसे ही निशा भयावनी होती है, फिर ऊपर

से यह अँधियारी और हृदय कंपा रही है। अरे राम ! आँखें कैसी चमक

उठती हैं, जैसे यह बिजली गरजती और चमकती है। इसको देख-देख हृदय डर जाता है। इसी प्रेम के कारण रामचन्द्रजी ने सोता को प्राप्त करने के उद्देश्य से ममुद्र में सेतु बाँधा था' ॥३॥ 'आश्विन महीने में, हे सखो ! आशा यो प्रियतम मिलेंगे। पर वह

मेरी आशा पूरी नहीं हुई, परन्तु कुवरी सौत की आशा अवश्य पूरी हुई जिसने मेरे कंत को लुभा रखा है। इसी प्रेम के कारण हे सखो ! रामचन्द्र ने सीता को प्राप्त करने के लिये समुद्र में सेतु बाँधा था' ।।४।। 'हे सखि ! कार्तिक मास पूर्ण महीना है। सब सखियां गंगा स्नान करती

हैं, सब साथी रेशमी वस्त्र पहन रही हैं; पर हा, मैं पुरानी गूदरी पहने हैं। इसी प्रेम के लिए श्री रामचन्द्रजी ने सोता के लिए समुद्र में सेतु बाँधा या' ॥५॥ 'अगहन मास हे सखि आगे हो से सुहावना मालूम हो रहा है। चारों ओर धान उपजा हुआ है। चकवा चकई फेलि कर रहे हैं। उसको देखकर हृदय हुलसा करता है। इसी प्रोति के लिए रामचन्द्रजी ने समुद्र में पुल बाँधा या' ।।६!!

'पूस में हे सखि ! ओस पड़ने लगी। उससे मेरे लम्बे-लम्बे केश भीग गये और विभिन्न काट कटाव की मेरी चोली भी भोगने लगी तथा भीगने लगे मेरे अनमोल जोबन। इसी प्रीति के लिए श्रीरामचन्द्रजी ने सेतु, सोता के उद्देश से बाँधा था' ।।७। 

'माघ महोना में, हे सखि, बसन्त का शुभागमन् हुआ और जाड़े के दिन भी इत्ती साय समाप्त हुए। सब सखियां अपने प्रियतम के साथ सो रही हैं; पर हमारे प्यारे बालम विदेश में पड़े हैं। इसी प्रीति के लिए हे सखि ! श्रीरामचन्द्रजी ने समुद्र में सेतु बाँधा था' ।।८।।

इस गोत के अन्त के शेष चार मासों के वर्णन वाले चरण नहीं मिले। हजारीबाग जेल में यह गीत हजारीबाग के एक वालंटिअर से प्राप्त हुआ था। शेष चरण उसे स्मरण नहीं थे। पर इस गीत को पदावली और चन्द क्रियाओं के प्रयोग जैसे 'गइलो अइलो' इत्यादि से इस गीत के कर्ता विद्या- पतिजो मालूम होते हैं।

(c)

एहि पार गंगा राम ओहि पार जमुना, वीचे कदमिया के गाँछ जी ।।

ओहि गांछ ऊपर कागा बोले, बोले विरहिया के आई के गोवर पिअरी माटी, सीता जे महल बोल जी ।।१।। लिपावहीं ।। ओही महल मीतर सासु सोवें, बहुअरि वेनिया डोलावहीं ।।२।। सासु ! हो दुख केसे कहों, राऊर बेटा परदेस जी ।। खरच मागत तड़पि बोले, बोले विरहिया के गाई के गोवर पीअरी माटी, सीता जे महल बोल जी ।।३।। लिपावहीं ।। ओही महल भीतर गोतिनी सोवे, बहुअरि वेनिया डोलावहीं ।।४।। गोतिनी ! हो दुख केसे कहों, राऊर देवर परदेस जी ।। खरच मागत तड़पि बोले, बोले विरहिया के बोल जी ।।५।। गाई के गोवर पीअरी माटी, ओही महल भीतर ननद सोवें, ननदी हो दुख कासे कहो, सीता जे महल बहुअरि वेनिया राउर भइया लिपावहीं ।। डोलाहि ।।६।। परदेस जी ।। खरच मागत तड़पि बोले, बोले बिरहिया के बोल जी ।।७।।

'हे राम, इस पार गंगा और उस पार यमुना हैं और बीच में कदम्ब का पेड़ है। उसी कदम्ब के वृक्ष पर काग विरह की बोली बोल रहा है ॥१॥ 

गाय के गोबर और मिट्टी से सीता का महल लोपा गया है और उसो महल के भीतर साप्त शयन करती हैं और बहू उनको पंखा झल रही हैं। पंखा झलते-झलते उसने कहा- 'हे सास! में अपना दुख किससे कहूँ ? आपका पुत्र परदेश है। जब में अपने लिये खरचा माँगतो हूँ, तो डाँट कर जवाव दे देता है और ऊपर से यह फाग विरह का बोलो बोल रहा है' ।।२,३।।

'पर इस पर सास ने जब कुछ ध्यान नहीं दिया, तब बहू ने इसी तरह (४ से ७ तक के चरणों में) आँगन महल लीप कर जेठानी से तथा ननद से क्रम से यही बातें पंखा झल कर कहीं पर किसी ने कुछ सुनवाई नहीं, की। इस गोत से पता चलता है कि नवागता वहू का सम्मिलित परिवार में पति के विदेश रहने पर कितना दुःख पूर्ण जीवन बीतता है। घर भर को सेवा करना, खाना-पीना भी वैसे हो और ऊपर से दो पैले हाथ पर भी नहीं मिलते कि कुछ अपना निजी काम चले। विरह कष्ट इसके अलावे सताता रहता है'।

(১)

एहि पार गंगा रामा ओहि पार जमुना, वीचे कदम केरा गाछ जी ।। गाछ ऊपर कागा वोले वोले विरहिया के बोल जी ॥१॥ चिलमा चढ़वइत रामा जरली चिटुकिया, जरि गइले कवल करेज रे ।। कागा हो तोके दूध भात देवों, सोनवा मढ़इवो दूनो ठोर रे ॥२॥ जाइ के बोलहु कागा पिया जी के देसवा, बोल विरहिया के बोल जी ।। सावन कंत बिदेस छवले, कइसे के घारे धनिया धीर जी ।।३।।

'विरहिणी भोजन कर के चिलम चढ़ा रही थी कि इसो बोच काग बोल उठा। उसे पति स्मरण हो आया और चुटकी जल गयो। साथ ही कलेजा भो विरह अग्नि से झुलस उठा। वह विलाप करने लगी। 'इस पार गंगा हैं और उस पार यमुना बह रही हैं। बीच में कदम्ब का एक पेड़ है। उस वृक्ष पर काग विरह की बोलो बोल रहा है। (उस बोलो को सुनकर) चिलम चढ़ाते चढ़ाते मेरी चुटकी जल गयी थी और जल गया कमल रूपो कलेजा। हे काग, मैं तुम को दूध भात दूंगी और तुम्हारे दोनों ठोर सोने से मढ़वा दूंगी। तुम पिया के देश जाकर बोलो और यही विरह की बोली बोलो। कहना कि सावन के महीने में फन्त विदेश छाये हैं, उनको स्त्री किस तरह धैर्य धारण करे ?'

कितनी सुन्दर विरह-व्यया कही गयी है। इसको जब सावन मास में झूले पर स्त्रियाँ उच्च स्वर में हृदय के आवेग के साथ गाती हैं, तब हृदय में विरहिणों और उसको वेदना के रूप सामने खड़े हो जाते हैं। इस गोत को मैंने अपनी पूजनीया माताजी से झूले पर अपनी आठ दश वर्ष की अवस्था में सुना है। उस समय माताजी जव अन्य स्त्रियों के साथ चलते झूले पर पंचम स्वर में इसे गाती थीं, तब भी इसके स्वर ने मेरे हृदय में जैसी मोठी चोट को थी, वह आज भी मुझे स्मरण है। गोत कुछ लम्बा है। पर मुझे इतना हो स्मरण था। पाठक इतने ही से सन्तोव करें। इसमें भी अन्य बारहमासे के समान बारहो मास का वर्णन अवश्य रहा होगा।

( १० )

वहेले वयारि पुरवइया ये सजनी कइसनि सुनुगेला आगि जी । चिलम चढ़वइत जरली चुटुकिया जरि गइले कंवल करेज जी ॥१॥ आगि लगावों रामा कोइरी कोड़रिया जरिया तमकुआ के खेत जी । चिलमा चड़वइत जरली चुटुकिया, जर गइले कॅवल करेज जी ॥२॥ केई कहेला बेटी नित उठि बोलड़वों केई कहेला छव मास जी । केई कहेला बहिनी काजे परोजवें, केई कहेला दुरि जाहु जी ॥३॥ अम्मा कहेली बेटी नित उठि बोलइवों, वावा कहेले छव मास जी । मइया कहेले वहिनी काजे परोजवें, भउजी कहेली दुरि जाहु जी ।।४।। किया तोर भउजी रे नून तेल ढरलों, किया रे कोठिलवा पेहान जी । किया तोर भउजी रे भैया लाई जोरलों काहे कहेलू दूरि जाहु जी ।।५।। नाहीं मोर ननदी नून तेल ढरलू नाही रे कोठिलवा पेहान जी । नाहीं मोर ननदी भइया लाई जोरलू, ओठवे कारन दूरि जाहु जी ।।६।। 

केई जे देला राम अन घन सोनवा, केई जे लहरा पटोर जी । केई जे देला रामा चढ़न के घोड़वा केई महुरवा के गांठि जी ।।७।। अम्मा जे देली राम अन धन सोनवाँ, वावा जे लहरा पटोर जी । भइया देलें रामा चढ़न के घोड़वा, भउजी महरवा के गाँठ जी ।।८।। अम्मा के सोनवा राम उठि पठि जइहें, फाटि जइहें लहरा पटोर जी । भइया जे घोड़वा रामा नगर कुदइहें भउजी अपजश हाथ जी ।।९।।

'पूर्वी हवा बह रही है। हे सखी! उपली में धीरे-धीरे आग सुलग रही है। चिलम चढ़ाते हुए मेरी चुटकी जल गयी। अर्थात् पूर्वी पवन के बहने से प्रियतम का ध्यान हो आया, जिससे चुटकी जल गयी, साथ हो विरह ताप से कलेजा भी जल गया। हे राम, कोइरी (मुराई) कोड़ार (तरकारी बोनेवाला खेत) में आग लगे, और उसके तम्बाकू के खेत जल जायें, जिसके कारण चिलम चढ़ाते समय मेरी चुटको जल गयो। और जल गया विरह व्यया से कमल समान मेरा हृदय' ॥१,२।।

'कौन कहता है कि मैं कन्या को नित्य हो बुलाऊँगा और छः मास पर उसे बुलाने की बात कौन कहता है? और कोन ऐसा कहता है कि बहन को काज परोजन पर ही बुलाऊँगा और कोन यह कहता है कि नहीं उसे दूर ही रहने दो ?' ॥३॥

'मेरो मा कहती हैं कि बेटी को नित्य हो बुलाऊँगी। पिताजो कहते हैं कि नहीं, उसे छठे छमास बुला लिया करूँगा। पर मेरे भाईजी कहते हैं कि हे बहन, मैं तुम्हें त्योहारों पर बुला लिया करूँगा। और भावज कहलो है कि नहीं तुम दूर हो जाओ' ॥४।।

'ननद ने भावज से कहा- हे भावज, मैंने आप का क्या नमक तेल चुराया था, आपके भंडार को देहरी खोलकर अन्न निकाला अथवा आप के स्वामी से मैंने आप की शिकायत की, जो आप मुझे दूर जाने के लिए कह रही हैं?' ॥५॥ 

भावज ने कहा- हे ननद, तुमने नमक तेल नहीं निकाला, न देहरो से अन्न हो चुराया और न अपने भाई से मेरी शिकायत ही कभी को। मैं तुमको केवल तुम्हारी कड़ी जवान के कारण हो दूर जाने के लिए कह रही हूँ' ।।६।।

'मुझको किसने अन्न धन और स्वर्ण दिये ? किसने सम्पत्ति सौभाग्य को वस्तु और रेशमी वस्त्र दिये ? किसने चढ़ने को घोड़ा दिया और किसने विष की गांठ बांधकर साथ भेजा ?' ।।७।।

'मा ने अन्न धन और स्वर्ग दिये। पिता ने लहरा पटोर दिया। भाई ने चढ़ने के लिये घोड़ा दिया ओर भावज ने विष को गाँठ दी। मां का सोना खर्च हो जायगा, लहरा पटोर भी फट जायगा और भ्राता के दिये हुए घोड़े को प्रियतम चढ़कर नगर में पुग्दावेंगे; पर भावजजी के हाथ केवल अपयश हो रह जायगा, क्योंकि उसकी विष को गाँठ मेरा प्राणान्त करेगी' ।।८,९।।

( ११ )

असों के सवना सइआँ घरे रहु, घरे रहीं ननदी के माय ।। साँप छोड़े ला साँप केचुल हो, गंगा छोड़ली अरार । रजवा छोड़े ला गृह आपन हो, घरे रहीं ननदी के भाय ।।१।। घोड़वा के देवों महलवा त हथिया लवॅगिया के डार । रउरा के प्रभु देवों घीव खीचड़िया, घरे रहीं ननदी के भाय ॥२॥ नाहीं घोड़ा खइहें महेलवा, हाथो ना लवेंगिया के डाढ़ि । नाहीं हम खइवों घीव खिचड़िया, नैया वरधी लदवों विदेस ॥३॥ नया बहि जइहें मॅज्ञघरवा, वरधि चोर लेइ जइहें रे । तोहि प्रभु मरिहें घटवरवा, घरे रहीं ननदी के भाय ॥४॥ नैया मोर जइहें धीरहि वरधी न चोर लेइ जइहें रे । तोहि बनि बेचुवों मुगलवा हाथे करवो में दूसर विआह ।।५।। 

'हे स्वामी, हे मेरी ननद के भाई, इस वर्ष के सावन में आप घर पर हो रहो। अरे साँप अपना केंचुल छोड़ रहा है, गंगा यमुना किनारा छोड़ रही हैं हे राजा, आप अपना गृह छोड़ रहे हैं ? अरे ननदजी के भाई, आप इस सावन में घर रहें। मैं आपके घोड़े को महेला खिलाऊँगी, हाथी को लबॅग की डाल कटवा कर खाने को दूंगी। और हे मेरे प्रभु, आपको घों और खिचड़ो भोजने के लिए दूंगी। हे ननदजो के भाई, घर हो पर रहिये (विदेश न जाइये) ॥१,२॥

'स्वामी ने कहा- हमारे हाथी लवेंग को डार नहीं खायेंगे। घोड़ों को महेला नहीं रुचेगा और मुझे भी घी खिचड़ी पसन्द नहीं। मैं नाव और बरवी विदेश के लिए लादूंगा' ।।३।।

'स्त्री ने कहा- आपको नाव गंगा की भोषण बोच धार में वह जायगी। बरसात में वरर्थी को चार चुरा लेंगे और हे प्रभु, आपको भी घटवार (घाट पर रहने वाले मल्लाह चोर) मार डालेंगे इसलिये, इस सावन में आप घर पर रहें ॥४।।

'पति ने कहा- अरे मेरी नाव धीरे-धीरे जायगी और बरधी को चोर नहीं चुराने पावेंगे। हे धनि, में तुमको मुगल के हाथ बेच दूंगा और अपना दूसरा ब्याह करूँगा' ।।५।।

'निष्ठुर व्यवसायी पति ने अपनी स्त्री की एक बात न सुनी; बल्कि अन्त में उसे बेचकर दूसरा विवाह करने का भी भय दिखाया। जान पड़ता है, कभी प्रचुर धन देकर मुगल स्त्रियों को खरीदते भी थे।'

( १२ )

एही देसवा मोर जनम बीति गइलो, केहु नाहीं लावे पिया के खवरिया । सन्तो हो ।

आइल मास असाढ़ आस मोरा लागल रे की।

गगन घटा मेघ वरीसन लगले मींजि गइली चुनरी विरह उर जागे ।।

सन्तो हो ।। एही देसवा० ॥१॥ 

सावन सुरतिया लगवलीं पिय के कइसे पाइवि रे की । भादवें मास रएनि अँधियारी, गुरु बिना भ्रम लागल उर भारी ।।

सन्तो हो। एही देसवा० ॥२॥

कव मिलिहें पति मोर नयन भरि देखवि रे की । कवन जतनिया हम लाई ए सजनी, आसिन मास बीती गइली रजनी ।।

सन्तो हो० । एही देसवा० ।।३।।

फूल कमल कुम्भिलइले भँवरवा डरि भागल रे की । विरहा लागि सखी भीजे अँगिया कासे कहीं केहू पूछे न बतयां ।।

सन्तो हो। एही देसवा० ।।४।।

कन्ता रहे परदेस कातिक निअराइल रे की । भर भरि नीर नयन भरि आवे, सव सुख सखी मोरा मनहुँ न भावे ।।

सन्तो हो। एहो देसवा० ।।५।।

'इसी देस में मेरा जीवन बीत गया। कोई प्रियतम का सन्देश नहीं लाता।'

'आजाढ़ का महीना आया। मेरी आशा प्रियतम से मिलने को लगी थी। गगन मंडल में घटा उमड़ आई। मेघ बरसने लगे। मेरी चूनर भीग गई। हृदय में विरहाग्नि उत्पन्न हो गई। हे सन्तो, कोई प्रिय का सन्देश नहीं लाता । इसी देश में मेरा जीवन बीत गया' ।।१।।

'सावन में ध्यान लगाये थी कि अपने प्रियतम को अवश्य पाऊँगी। भादों के महीने में भयानक अंधेरी रात में मार्ग प्रदर्शक गुरु के बिना हृदय में बड़ा भ्रम उठ रहा था। हे सन्तो, इसी देश में आयु बोती चली जा रही है कोई प्रियतम का सन्देह नहीं लाता ॥२॥

'हा ! मेरे प्रियतम मुझे कब मिलेंगे? मैं कब उनको आँख भरकर देखूंगी ? हे सखी! में कीन यत्न करूँ। अश्विन मास को रजनी भी तो ऐसे ही बीत गयी। हा, इसी देश में मेरा जोवन बीत गया। हे सन्तो ! कोई प्रियतम का सन्देह नहीं लाता ॥३॥ 

'कमल का फूल कुम्हला गया। भँवरा डर कर भाग गया। विरह लगने से अंगिया भोग रही है। हाय, मैं किससे विरह व्यया कहूं? मेरी बात काई नहीं पूछता। हा! इसी देश में जीवन बीत गया, कोई प्रियतम का सन्देश नहीं देता' ।।४।।

'कातिक निकट आ गया। प्रियतम अभी तक परदेस ही में हैं। आँखों में रहरह कर नीर भर आते हैं। हे सखी, सब सुख है; पर एक भी मेरे मन को नहीं भाता। हे सन्तो ! कोई प्रियतम का सन्देह नहीं लाता। मेरा जीवन इसी देश में बीत गया' ।।५।।

'इस गीत के भी सात मास के सात चरण मुझे नहीं मिले ! उनमें अवश्य कवोर साहब का नाम होगा। यह उन्हीं को रचना ज्ञात होती है।

( १३ )

कवन उपाय करों मोरी आली, स्याम भइले कूवरी बस जाई ।। चइत मास मोहि मदन सतावे, वइसाख दैव दुखदाई । जेठ मास तन तपत घाम में, कह वृष मान दुलारी ॥१॥ कवन उपाय करों० ।।

चढ़त असाढ़ नभ घेरि अइले बदरा, सावन मास बहे पुरवाई । भादों अगम डगरिया ना सूझे, जल से भरि गइले ताल तलाई ॥२॥ आसिन मास सरद रितु आइल, कातिक में सखी लेली रजाई । अगहह्न अधिक कलेस स्याम विनु, नैहर से हम सासुर आई ॥३॥ पूस मास सखि परत तुसारी, माघ पिया बिनु जाड़ न जाई । फागुन का संग रंग हम खेलिव, सूर स्याम विना जदुराई ॥४।॥ कवन०

अर्थ साफ और सरल है।

( १४ )

मास अषाढ़ गगन धन गरजे ले, सब सखि छान्हि छवाई । हम वऊरी पिया विनु डोलऊँ, सूने मंदिल बिनु साई ॥१॥ 

सावन मेघ बरसे मोरी सजनी, कोइलि कुटुक सुनाई । हम बऊरइली पिया विनु व्याकुल, तलफत रएन विताई ॥२॥ भादव गरुअ गंगीर सखी हो, करिया घटा नम छाई । चमकेला विजुली घोर घन गरजे, सूनी सेज पिया नाहीं ॥३॥ कुआर मास सब हिलि मिलि सखियाँ, झूले माँगन आई । हमरे बलम् परदेस बिलमि रहले, उन बिना कुछ ना सोहाई ॥४।॥ कातिक घर घर सत्र सखि मिलि के, रचि रचि भवन वनाई । हम पापिन प्रीतम बिना सजनी, रोइ रोइ दिनवां विताई ॥५॥ अगहन अगम सनेह सवे सखी, पिया संगे गवना जाई । देखि देखि मोरा विहरेला करेजवा, पिया बिना जिया अकुलाई ।।६।। पूस मास परदेस पिअरवा, आवन के सुबि नाहीं । काइ करी कत जाई सन्त्री हो, माघ टुसार परे लगले सजनी, अइसन निपट कठोर पिअरवा, कवन वैरनि विलमाई ।।७।। कन्ता ना पाती पठाई । निपटे सुधि विसराई ॥८॥ फागुन मास आस सब टूटल, जोगिन वनि के घाई । गएव नगरिया के गलियन गलियन, पिया पिया सोर मचाई ।।९।। चइत चित्त चिन्ता अति वाढ़ल, तन मन भसम चढ़ाई । निस वासर हम राह जोहत रहीं, नयनन नीर झरि लाई ।।१०।। बइसाख मास बंसी धुनि सजनी, मन कत तलफ मचाई । बिरह सरपवा डसेला मोरे हियरा, तन मन सव बउराई ॥११॥ जेहि जब ई गति मइल सजनी, निरखि परल एक झाई । मुनवाँ मंदिल एक मूरति दरसल, देखते जियरा जुड़ाई ॥१२॥

'आबाढ़ मास में गगन में घन गरजने लगे और सब सखियाँ अपना, अपना छ०१र छत्ताने लगीं। परन्तु हा ! मैं पगली प्रियतम के बिना फगल बनो इधर-उधर डोलती फिरी। मेरा मंदिर विना साँई को शून्य पड़ा रहा ॥११॥ 

'अरो सजनी ! इस श्रावण मास में मेघ जोर-जोर से बरसने लगा और उसी में कोयल अपनी कूक भी सुनाने लगी। में प्रियतम के बिना व्याकुल होकर पागल बन गयी। और तलफ तलफ कर तप-अप करके रात बिताने लगी' ।॥२॥

'हे सत्रो ! यह भादों मास गम्भीर और बोझ-सा मालूम हो रहा है। तमाम आकाश में काले काले बादल छा रहे हैं। बिजली चमकती है और घनी घटा गर्जन कर रही है। पर हा! मेरे प्रियतम नहीं हैं। मेरी सेज सूनी है' ॥३॥

'इस कुआर मास में सब सखियाँ हिलमिल कर झूला मेरे पास मांगने के लिए आई। पर हा ! मेरे बालम तो परदेस में बिलम रहे। उनके बिना मुझे कुछ भी नहीं सुहाता है' ॥४।॥

'कातिक मास में सब सखियाँ मिल-मिल कर अपना-अपना घर लोप- पोत कर (दिवाली के लिए) सुन्दर बना रही हैं। लेकिन सखी! मैं पापिन प्रियतम के बिना रो-रोकर दिवस बिता रही हूँ' । ॥५॥

'इस अगहन मास में सभी सखियों के मन में पहले से प्रेम उमड़ा हुआ है। सब अपने-अपने प्रियतम के साथ गवन जा रही हैं। यह देख-देख कर अरे मेरे भीतर से विरह उमड़ रहा है। प्रिय के बिना हृदय अकुला उठा है' ॥६॥

'इस पूस मास में भी प्यारा परदेस में हो रहा। घर आने को मानो उसे कोई विचार हो नहीं हो रहा है। हे सखी! अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? किस बैरिन ने मेरे प्रियतम को बिलमा लिया ? ' ।।७।।

'हे सजनी ! इस माघ में तो तुषार गिरने लगा और कन्त ने एक पाती तक नहीं भेजा। हा! ऐसा अत्यन्त कठोर प्यारा है कि उसने मेरी सुधि बिलकुल हो भुला दो' ।।८।।

'हा! इस फागुन मास में मेरी सभी आशाएँ टूट गयीं। निराशा में योगिन का रूप धारण करके सर्वत्र दौड़ने लगी और अपरिचित नगर की गली-गली पिया-पिया का शोर मचाने लगी' ।।९।। 

इस चंत मास में प्रिय मिलन की चिन्ता इतनी बड़ी कि मैंने शरीर और मन दोनों पर भस्म चढ़ाया और रात-दिन प्रियतम के आने की प्रतीक्षा में नेत्रों से आँसू की झड़ी लगाये रही ॥१०॥

'इस बैसाख मास में हे सखी! प्रियतम की वंशो की धुनि की स्मृति ने मन में कितनी तड़पन उत्पन्न कर दी ! हा! विरह रूपी सर्प ने मेरे हृदय को डंस दिया। अब मेरा तन और मन बुद्धिहीन होकर नितान्त उन्मत्त हो गया' ।।११।।

'हे सजनी ! जेठ मास में जब मेरी ऐसी दयनीय दशा हो गई, तब प्रिय- तम को एक छाया-सी झलक पड़ी। और हृदय के शून्य मन्दिर में एक मूति का दर्शन मिला। अहा! उसे देखते हो जोव को शान्ति मिल गई' ॥१२।

पलटूदासजी का परिचय उनके सोहरों के उदाहरण के साथ दिया जा चुका है। प्रस्तुत बारहमासा उन्हों का रचा है। इसमें कितने सुन्दर रूप से उन्होंने ईश्वर-मिलन की गाथा गाई है। जब इतनी तल्लीनता हो, तब कहीं ईश्वर की झलक मिले। अनुभूति कितनी सत्य और स्वाभाविक रूप से प्रगट हुई है। छायावाद का कितना सुन्दर नमूना है। यह गीत पलटूदास के प्रका- शित संग्रह में भी छपा है। पाठ-भेद कुछ अवश्य है।

(

१५

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सखी ! मोरे पिया के खवरिया ना आइल हो । चारि वेद के टाट बिछावल, तेहि पर कीने दुकनियाँ हो । सत सेर मन परेम तरजुई, नाम के मारी ला टेनियाँ हो ॥१॥ गुरति सवद कइ बएल लदाइला, ज्ञान के लादीं लदनिया हो । सह जलालपुर मूड़ मुंडवली, अवध तोरली करवनियाँ हो ।। पलटूदास सन गुरु बलिहारी, पवलों भगति अमनिया हो ॥२॥

'अरी सत्री ! आज तक मेरे प्रियतम को कोई खबर नहीं आई। चार वेदों का जं। टाट (बिछावन विशेष) बिछा है, उस पर आज तक में दूकान छानती चली आई और इस दूकानदारी में में सत्य के सेर और मन के तराजू का प्रयोगकर प्रियतम के नाम की रट की टेनी (तोलते समय जो उँगली से दवा कर दुकानदार तराजू को डंडो को वजन में कम सामग्री तौलने के अभिप्राय से एक और दबा देता है, उसी को भोजपुरी में टेनो मारना कहते हैं) भी खूब मारती रही' ।।१।।

'हे सखो ! आज तक सुरति और शब्द (अनहद शब्द) को बरधी लादती रहो और ज्ञान का व्यापार करतो रही। जलालपुर शहर में मने मूंड़ मुड़ाया और अवध (अयोध्या) में अपनों करधनी तोड़ी। पलटूदास कहते हैं कि सत- गुरु को बलिहारी है कि जिनको कृपा से प्रीतम की अमनियाँ (मांज कर खूब साफ किये गये बर्तन या क्रिसी वस्तु को अमनियाँ किया हुआ कहते हैं। उसी अर्थ में अमनियाँ का यहाँ भक्ति के साथ प्रयोग हुआ है) भक्ति अर्थात् निर्मल स्वच्छ भक्ति मिल गई।' कितना सुन्दर अध्यात्म-पक्ष में विरह- वर्णन है। 

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लेख
भोजपुरी लोक गीत में करुण रस
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"भोजपुरी लोक गीत में करुण रस" (The Sentiment of Compassion in Bhojpuri Folk Songs) एक रोचक और साहित्यपूर्ण विषय है जिसमें भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से लोक साहित्य का अध्ययन किया जाता है। यह विशेष रूप से भोजपुरी क्षेत्र की जनता के बीच प्रिय लोक संगीत के माध्यम से भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं को समझने का एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है। भोजपुरी लोक गीत विशेषकर उत्तर भारतीय क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से समृद्ध हैं। इन गीतों में अनेक भावनाएं और रस होते हैं, जिनमें से एक है "करुण रस" या दया भावना। करुण रस का अर्थ होता है करुणा या दया की भावना, जिसे गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। भोजपुरी लोक गीतों में करुण रस का अभ्यास बड़े संख्या में किया जाता है, जिससे गायक और सुनने वाले व्यक्ति में गहरा भावनात्मक अनुभव होता है। इन गीतों में करुण रस का प्रमुख उदाहरण विभिन्न जीवन की कठिनाईयों, दुखों, और विषम परिस्थितियों के साथ जुड़े होते हैं। ये गीत अक्सर गाँव के जीवन, किसानों की कड़ी मेहनत, और ग्रामीण समाज की समस्याओं को छूने का प्रयास करते हैं। गीतकार और गायक इन गानों के माध्यम से अपनी भावनाओं को सुनने वालों के साथ साझा करते हैं और समृद्धि, सहानुभूति और मानवता की महत्वपूर्ण बातें सिखाते हैं। इस प्रकार, भोजपुरी लोक गीत में करुण रस का अध्ययन न केवल एक साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भी भोजपुरी सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों की अद्भुत अभिवृद्धि को संवेदनशीलता से समृद्ध करता है।
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भोजपुरी भाषा का विस्तार

15 December 2023
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भोजपुरी भाषा के विस्तार और सीमा के सम्बन्ध में सर जी० ए० ग्रिअरसन ने बहुत वैज्ञानिक और सप्रमाण अन्वेषण किया है। अपनी 'लिगुइस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' जिल्द ५, भाग २, पृष्ठ ४४, संस्करण १९०३ कले० में उन्हो

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भोजपुरी काव्य में वीर रस

16 December 2023
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भोजपुरी में वीर रस की कविता की बहुलता है। पहले के विख्यात काव्य आल्हा, लोरिक, कुंअरसिह और अन्य राज-घरानों के पँवारा आदि तो हैं ही; पर इनके साथ बाथ हर समय सदा नये-नये गीतों, काव्यों की रचना भी होती रही

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जगदेव का पवाँरा जो बुन्देलखण्ड

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जगदेव का पवाँरा जो बुन्देलखण्ड में गाया जाता है, जिसका संकेत भूमिका के पृष्ठों में हो चुका है- कसामीर काह छोड़े भुमानी नगर कोट काह आई हो, माँ। कसामीर को पापी राजा सेवा हमारी न जानी हो, माँ। नगर कोट

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भोजपुरी लोक गीत

18 December 2023
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३०० वर्ष पहले के भोजपुरी गीत छपरा जिले में छपरा से तोसरा स्टेशन बनारस आने वाली लाइन पर माँझी है। यह माँझी गाँव बहुत प्राचीन स्थान है। यहाँ कभी माँझी (मल्लाह) फिर क्षत्रियों का बड़ा राज्य था। जिनके को

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राग सोहर

19 December 2023
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एक त मैं पान अइसन पातरि, फूल जइसन सूनरि रे, ए ललना, भुइयाँ लोटे ले लामी केसिया, त नइयाँ वझनियाँ के हो ॥ १॥ आँगन बहइत चेरिया, त अवरू लउड़िया नु रे, ए चेरिया ! आपन वलक मों के देतू, त जिअरा जुड़इती नु हो

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राग सोहर

20 December 2023
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ललिता चन्द्रावलि अइली, यमुमती राधे अइली हो। ललना, मिलि चली ओहि पार यमुन जल भरिलाई हो ।।१।। डॅड़वा में वांधेली कछोटवा हिआ चनन हारवा हो। ललना, पंवरि के पार उतरली तिवइया एक रोवइ हो ॥२॥ किआ तोके मारेली सस

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करुण रस जतसार

22 December 2023
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जतसार गीत जाँत पीसते समय गाया जाता है। दिन रात की गृहचर्य्या से फुरसत पाकर जब वोती रात या देव वेला (ब्राह्म मुहूर्त ) में स्त्रियाँ जाँत पर आटा पीसने बैठती हैं, तव वे अपनी मनोव्यथा मानो गाकर ही भुलाना

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राग जंतसार

23 December 2023
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( १७) पिआ पिआ कहि रटेला पपिहरा, जइसे रटेली बिरहिनिया ए हरीजी।।१।। स्याम स्याम कहि गोपी पुकारेली, स्याम गइले परदेसवा ए हरीजी ।।२।। बहुआ विरहिनी ओही पियवा के कारन, ऊहे जो छोड़ेलीभवनवा ए हरीजी।।३।। भवन

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भूमर

24 December 2023
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झूमर शब्व भूमना से बना। जिस गीत के गाने से मस्ती सहज हो इतने आधिक्य में गायक के मन में आ जाय कि वह झूमने लगे तो उसो लय को झूमर कहते हैं। इसी से भूमरी नाम भी निकला। समूह में जब नर-नारी ऐसे हो झूमर लय क

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खाइ गइलें हों राति मोहन दहिया ।। खाइ गइलें ० ।। छोटे छोटे गोड़वा के छोटे खरउओं, कड़से के सिकहर पा गइले हो ।। राति मोहन दहिया खाई गइले हों ।।१।। कुछु खइलें कुछु भूइआ गिरवले, कुछु मुँहवा में लपेट लिहल

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राग कहँरुआ

27 December 2023
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जब हम रहली रे लरिका गदेलवा हाय रे सजनी, पिया मागे गवनवा कि रे सजनी ॥१॥  जब हम भइलीं रे अलप वएसवा, कि हाय रे सजनी पिया गइले परदेसवा कि रे सजनी 11२॥ बरह बरसि पर ट्राजा मोर अइले, कि हाय रे सजनी, बइठे द

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भजन

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ऊधव प्रसंग ( १ ) धरनी जेहो धनि विरिहिनि हो, घरइ ना धीर । बिहवल विकल बिलखि चित हो, जे दुवर सरीर ॥१॥ धरनी धीरज ना रहिहें हो, विनु बनवारि । रोअत रकत के अँसुअन हो, पंथ निहारि ॥२॥ धरनी पिया परवत पर हो,

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भजन - २५

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(परम पूज्या पितामही श्रीधर्म्मराज कुंअरिजी से प्राप्त) सिवजी जे चलीं लें उतरी वनिजिया गउरा मंदिरवा बइठाइ ।। बरहों बरसि पर अइलीं महादेव गउरा से माँगी ले बिचार ॥१॥ एही करिअवा गउरा हम नाहीं मानबि सूरुज व

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बारहमासा

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बारहो मास में ऋतु-प्रभाव से जैसा-जैसा मनोभाव अनुभूत होता है, उसी को जब विरहिणी ने अपने प्रियतम के प्रेम में व्याकुल होकर जिस गीत में गाया है, उसी का नाम 'बारहमासा' है। इसमें एक समान ही मात्रा होती हों

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अलचारी

30 December 2023
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'अलचारी' शब्द लाचारी का अपभ्रंश है। लाचारी का अर्थ विवशता, आजिजी है। उर्दू शायरी में आजिजो पर खूब गजलें कही गयी हैं और आज भी कही जाती हैं। वास्तव में पहले पहल भोजपुरी में अलचारी गीत का प्रयोग केवल आजि

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खेलवना

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इस गीत में अधिकांश वात्सल्य प्रेम हो गाया जाता है। करुण रस के जो गोत मिले, वे उद्धत हैं। खेलवना से वास्तविक अर्थ है बच्चों के खेलते बाले गीत, पर अब इसका प्रयोग भी अलचारी को तरह अन्य भावों में भी होने

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देवी के गीत

30 December 2023
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नित्रिया के डाड़ि मइया लावेली हिंडोलवा कि झूलो झूली ना, मैया ! गावेली गितिया की झुली झूली ना ।। सानो बहिनी गावेली गितिया कि झूली० ॥१॥ झुलत-झुलत मइया के लगलो पिसिया कि चलि भइली ना मळहोरिया अवसवा कि चलि

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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पूरबा गात

3 January 2024
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( १ ) मोरा राम दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। भोरही के भूखल होइहन, चलत चलत पग दूखत होइन, सूखल होइ हैं ना दूनो रामजी के ओठवा ।। १ ।। मोरा दूनो भैया० 11 अवध नगरिया से ग

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कजरी

3 January 2024
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( १ ) आहो बावाँ नयन मोर फरके आजु घर बालम अइहें ना ।। आहो बााँ० ।। सोने के थरियवा में जेवना परोसलों जेवना जेइहें ना ॥ झाझर गेड़ वा गंगाजल पानी पनिया पीहें ना ॥ १ ॥ आहो बावाँ ।। पाँच पाँच पनवा के बिरवा

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रोपनी और निराई के गीत

3 January 2024
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अपने ओसरे रे कुमुमा झारे लम्बी केसिया रे ना । रामा तुरुक नजरिया पड़ि गइले रे ना ।। १ ।।  घाउ तुहुँ नयका रे घाउ पयका रे ना । आवउ रे ना ॥ २ ॥  रामा जैसिह क करि ले जो तुहूँ जैसिह राज पाट चाहउ रे ना । ज

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हिंडोले के गीत

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( १ ) धीरे बहु नदिया तें धीरे बहु, नदिया, मोरा पिया उतरन दे पार ।। धीरे वहु० ॥ १ ॥ काहे की तोरी वनलि नइया रे धनिया काहे की करूवारि ।। कहाँ तोरा नैया खेवइया, ये बनिया के धनी उतरइँ पार ।। धीरे बहु० ॥

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मार्ग चलते समय के गीत

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( १ ) रघुवर संग जाइवि हम ना अवध रहइव । जी रघुवर रथ चढ़ि जइहें हम भुइयें चलि जाइबि । जो रघुवर हो बन फल खइहें, हम फोकली विनि खाइबि। जौं रघुवर के पात बिछइहें, हम भुइयाँ परि जाइबि। अर्थ सरल है। हम ना० ।।

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विविध गीत

4 January 2024
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(१) अमवा मोजरि गइले महुआ टपकि गइले, केकरा से पठवों सनेस ।। रे निरमोहिया छाड़ दे नोकरिया ।॥ १ ॥ मोरा पिछुअरवा भीखम भइया कयथवा, लिखि देहु एकहि चिठिया ।। रे निरमोहिया ।॥ २ ॥ केथिये में करवों कोरा रे क

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पूर्वी (नाथसरन कवि-कृत)

5 January 2024
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(८) चड़ली जवनियां हमरी बिरहा सतावेले से, नाहीं रे अइले ना अलगरजो रे बलमुआ से ।। नाहीं० ।। गोरे गोरे बहियां में हरी हरी चूरियाँ से, माटी कइले ना मोरा अलख जोबनवाँ से। मा० ।। नाहीं० ॥ झिनाँ के सारी मो

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