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राग सोहर

20 December 2023

1 देखल गइल 1

ललिता चन्द्रावलि अइली, यमुमती राधे अइली हो। ललना, मिलि चली ओहि पार यमुन जल भरिलाई हो ।।१।। डॅड़वा में वांधेली कछोटवा हिआ चनन हारवा हो। ललना, पंवरि के पार उतरली तिवइया एक रोवइ हो ॥२॥ किआ तोके मारेली ससुइया ननदी किआ दुःख दिहली हो ? । बहिनी, कीया तोरा कन्त विदेस कवन दुःख रोएलू हो ।।३।। नाहीं मोरा मारेली ससुइया नाहीं ननदी दुःख दीहली हो। बहिनी, नाहि मोरा कन्त विदेस कोखिए दुःख रोईला हो ।।४।। सात बलक दैव दीहलनि कंस लेइ लिहलनि हो। बहिनी आठवें रहलवा गरभवा से इहो हरि लेइहनि हो ।॥५॥ चुप रहू, चुप रहु देवकी! आँचर मुंह पोंछि घालु हो। वहिनी ! आपन बलक हम मारवि तोहर जिआइबि हो ।।६।।

ललिता और चन्द्रावली आईं। यशुमति और राधा आईं। सब ने सलाह की, कि हिलमिल कर हम उस पार चले और यमुना का जल भर लावें ॥१॥

उन सबों ने अपनो कमर में कछोटा बाँधा और अपने चन्द्रहारों को छाती में लपेट लिया और पौड़ कर यमुना के उस पार पहुंच गई। वहाँ एक स्त्री को जार-बेजार रोती हुई देखकर सब ने पूछा- अरो स्त्री ! क्या तुम्हारी सास तुमको मारती है या तुम्हारी ननद तुम्हें दुःख पहुँचाती है या हे बहह्न ! तुम्हारा कन्त कहीं परदेश में है ? बताओ तुम किस दुःख से इस तरह रो रही हो ? ॥१-२-३॥

स्त्री ने कहा-न तो मेरो सास मुझको मारती है और न मेरो ननद हो मुझे कष्ट देती है। हे वहन! मेरा कन्त भी विदेश में नहीं है। मैं अपनी कोख के अर्थात् सन्तान के दुःख से रो रही हूँ।

ईश्वर ने मुझे सात बालक दिये; परन्तु सब को राजा कंस ने ले लिया। सो हे बहन ! यह आठवाँ गर्भ इस बार रहा है। इसे भी कंस हर लेगा ॥४-५॥

यशुमति ने कहा- हे वहन देवकी! तुम चुप रहो। अपने अंचल से अपना मुख पोंछ डालो। मैं अपने बालक को मरवाऊँगी और तुम्हारे बालक को जिआऊँगो ॥६॥

कितना सुन्दर यशोदा और देवकी का संवाद अपढ़ कवयित्री ने चित्रित किया है। कितना स्वाभाविक वर्णन है। सर्वत्र प्रसाद गुण से पदावलो ओत प्रोत हो रही है। करुणा किस वेगवती धारा के साथ पाठक के मन को बहा ले जाती है। यह पाठक स्वयं देखें और गाकर आनन्द उठावें। लय के साथ पढ़ने में ही इन गीतों का सौदर्य प्रस्फुटित होता है।

( १३ )

सोने के खरउओं राजा दसरथ खुटुरु खुटुरु चलले हो। राजा गइले रे केदलिया के बनवाँ त काँट गड़ि गइलनि हो ।।१।। 

जो मोरा कँटवाँ निकलिहें वेदन हरि लेइहनि हो। अरे, जवन मगनर्वा ते मॅगिहे तवने हम दिआइवि हो ॥२॥ घरवाँ से निकलीं केकइया रानी सोरहो सिगार कइले हो । राजा ! हम तृहरे केंटवा निकासवि बेदनवा हरि लेइवि हो ॥ ३॥ अरे-जवने मँगन हम माँगवि तवने रउरें देइवि हो। अँगुरी से केंटवा निकसली वेदन हरि लिहलिनि हो ।।४।। राजा ! जवन माँगन हम मागीले तवने रउरे देईना हो। राजा ! राम लखन वन जासु भरत राज विलससु हो ।।५।। माँगहि के केकई! मगलू माँगन नाहीं जनलू हो। केकई ! मागि लीहळू मोर प्रान त कोसिला रानी ओठगन हो ।।६।। जे राम चित से ना उत्तरें पलक से न विसरेलें हो। से राम वने चलि जइहें त कइसे जीउ बोधवि हो ।।७।।

सोने के खड़ाऊँ पर चढ़ कर राजा दशरथ खुटुर-खुटुर चले। राजा केदली के वन में जब पहुँचे, तब पाँव में काँटा गड़ गया ।।१।।

राजा ने कहा कि जो मेरा काँटा निकाल कर पीड़ा हर लेगा, उसे जो इनाम वह मांगेगा मैं वही दूंगा ।।२।।

रानी कैकेयी अपने घर से सोलहों श्रृंगार करके निकलीं और राजा से बोलीं- हे राजन् ! मैं तुम्हारा काँटा निकालूंगी और दर्द भी हर लूंगी। में जो वर माँगूँगी, वही आप मुझे देंगे। उसने अपनी ऊँगली से काँटा निकाला और राजा को पोड़ा को हर लिया ।। ३-४।॥

कैकेयी ने कहा- हे राजन् ! जो वरदान अब में मांगती हूँ, उसे हो आप मुझे दीजिये। राम्र लक्ष्मण वन को जायें और मेरे भरत अयोध्या का राज भोग करें ।॥५॥

राजा ने कहा-अरी कैकेयी ! तूने वर तो माँगने को माँग लिया; परन्तु तुझको वर मांगना नहीं आया। कौशल्या रानी की आड़ में तूने मेरा प्राण ही मांग लिया है ॥६॥ 

जो मेरे राम मेरे चित्त से पल भर के लिये भी नहीं उतरते और आँखों से एक क्षण के लिये भी नहीं बिसरते वे राम अगर वन चले जायेंगे, तो में अपने जी को किस प्रकार समझाऊँगा अर्थात् राम के विना मेरा प्राणान्त हो जायगा ।।७।।

( १४ ) सासु मोरी कहेली बॅझिनियाँ ननद ब्रजवासिनि हो। रामा जिनके मैं बारी रे विआही ऊहो घर से निकसलनि हो ॥१॥ घरवा से निकसी बँझिनियाँ जंगल विच ठाढ़ भइली हो। रामा-वनवा से निकमी वधिनिया त दुःख सुख पूछले हो ।। तिरिया ! कवन विपतिया के मारल जंगल विच ठाढ़ भइलू हो ? ॥२॥ सासु मोरी कहेली वॅझिनिया ननद ब्रजवासिनि हो ।। बाधिन ! जिनके हम वारी बिआही ऊहो घर से निकसलनि हो। वाधिन ! हमरा के जो खाइ लीहितू बिपतिया से छुटितों हो ॥३॥ जहाँ से तू चलि अइलू लवटि तहाँ जावहु हो। बाँझिनि ! तोहरा के जो हम खाइवि हमहुँ बाँझ होखवि हो ।।४।। उहवाँ से चलेली बाँझिनिया विअरी पासे ठाढ़ भइली हो। रामा ! विअरि से निकले नगिनियाँ त दुःख सुख पूछेले हो ।। 'तिवई, कवने विपतिया के मारि विअरलि पास ठाढ़ भइलू हो ।।५।। सासु मोरी कहेली वॅझिनिया ननद व्रजवासिनि हो । नागिन ! जिनकर मैं बारी रे बिआही ऊ घर से निकसलनि हो। नागिन ! हमरा के जो डॅसि लीहितू विपतिया से छूटितीं हो ॥६॥ जहाँ से अइलू लवटि तहाँ जावहु तोहि नाहीं डॅसबइ हो। बाँझिनि ! तोहरा के जो हम डॅसबि हमहूँ बाँझ होखबि हो ।।७।। उहाँ से चलली बॅझिनिया माई दुअरा ठाढ़ भइली हो। भितरा से निकसी मयरिया त दुःख सुख पूछली हो ।। बिटिया ! कवन विपति तोरे ऊपर उहाँ से चलि अइलू हो ।॥८॥ 

सासु मोरी कहेली बॅझिनियाँ ननद ब्रजवासिनि हो ।। मड़या ! जिनकर मैं बारी बिआही ऊहो घर से निकललनि हो। मइया, हमरा के जो राखिलिहितू विपतिया से छूटिती हो ।॥९॥ धिया ! जहाँ से अइलू लवटि तहवाँ जावहु तोके नाहि राखबि हो। धिया ! तोहरा के जो हम राखवि बँझिनियां बहू बनिहनि हो ।।१०।। उहाँ से चलेली वॅझिनिया जंगल विच आवे ली हो। धरती ! तूहीं सरन अब दिहि तू बॅझिनिया नाम छुटित हो ॥११॥ जह्वाँ से तू अइलू उलटि तहाँ जावहु तुहि नाहीं राखव हो। बाँझिनि ! तोहरा के रखले हमहुँ होखवि ऊसर हो ॥१२॥

सास मुझे बाँझ कहती है। ननद ब्रजबासिन कहती है। हे राम ! जिसके साथ में क्वारी ब्याही गयी, उन्होंने मुझे अपने घर से निकाल बाहर किया ॥१॥

बाँझ घर से निकल कर जंगल के बीच जा खड़ी हुई। बन से बाधिन निकली, तो वह इस स्त्रो को देखकर इससे सुख दुःख पूछने लगी। कहा- अरी अवले ! तुम किस विपत्ति को मारो हो कि इस तरह निडर हो कर, घोर जंगल में खड़ी हुई हो? बाँझ ने उत्तर दिया-अरी बाधिन ! मेरी सास मुझे बाँझ कहती है। ननद ब्रजवासिन कह कर पुकारती है और जिसके साथ में क्वारी व्याही गयी, उसने भी मुझे घर से निकाल दिया। सो हे बाघिन ! अगर तू मुझे खा लेती तो में इस वित्ति से छूट जाती ।।२-४।। बाधिन ने कहा- हे स्त्री ! तुम जहाँ से चलकर यहाँ आयी हो, वहीं लॉट कर चली जाओ। हे बाँझ ! यदि में तुमको खा लूंगी, तो में भी बाँझ

हो जाऊँगी ॥५॥

वहाँ से वांझ निराश होकर चली और साँप की बाँवी की पास आकर खड़ी हुई। बाँबी से नागिन निकली, तो स्त्री को देखकर उससे दुख सुख पूछने लगी। कहा-अरी स्त्री ! तू किस विपत्ति की सताई हुई है कि इस विवर के पास आकर खड़ी हुई है ॥५॥ 

यहाँ भी स्त्री ने नं० ७ (२-४) लाइनों में वाधिन से कही हुई बात को दुहरा कर नागिन से अपने को डसने के लिये प्रार्थना को और नागिन ने भी बाघिन को तरह नं० ५ लाइन में कही हुई बात को दुहरा कर स्त्री को घर लौट जाने को सलाह दी और कहा कि यदि मैं, तुझको डरूंगी तो मैं भी बाँझ हो जाऊँगी ॥६।७।।

तब वहाँ से भी निराश होकर स्त्री अपनी माता के द्वार पर आकर खड़ी हुई। आँगन से उसको माँ निकली और उसको देखकर उससे सुख दुःख पूछने लगी। उसने कहा- हे पुत्रो ! तुझे ससुराल में कौन-सा ऐसा दुःख हुआ कि तू वहाँ से बिना बुलाये चली आयो ? ॥८॥

स्त्री ने कहा- हे माँ ! मेरी सास मुझे बाँझ कहती है। ननद ब्रज- बासिन कहती है। जिसके हाथ तूने बारो वयस में व्याह दिया था, उसने भी मुझे घर से निकाल बाहर किया। सो हे माता ! अगर तुम मुझे अपने पास रख लेतीं, तो मैं इस विपत्ति से छुटकारा पा जाती ॥९॥

माता ने कहा- हे कन्ये! तू जहाँ से यहाँ आयी है, वहाँ लौटकर चली जा। मैं तुझको यहाँ नहीं रखूंगी। अगर मैं तुझको यहाँ रखूंगी, तो मेरी बहू भी बाँझ हो जायगी ॥१०॥

स्त्री वहाँ से भी निराश होकर चलो ओर पुनः मध्य जंगल में आ खड़ी हुई। उसने धरती माता को सम्बोधन करके कहा-री धरती माता ! अब तू हो शरण देती, तो मेरा बाँझ नाम छूट जाता ॥११॥

पृथ्वी ने कहा-तू जहाँ से यहाँ आयो, वहीं पलट कर चली जा। मैं तुझको अपने में स्थान नहीं दे सकती। अगर तुझ बाँझ को अपने में ग्रहण कर लेती हूँ, तो में भी ऊसर बन जाऊँगी ॥१२॥

बाँझ को इस अनाथकता और हृदयद्रावक गाथा पर किस मनुष्य का हृदय नहीं पसीज उठेगा ? समाज के तिरस्कारों को सहन करते-करते जब बाँझ को और अधिक सहना असह्य हो उठा, तब इस गीत में ही अपने दुःखों को गाकर उसने अपने और अपनी सरीखो अन्य बहनों के जख्मों पर मरहम पट्टी करना चाहा है; पर इससे उसके वृहत् अकारण तिरस्कार का वह घाव क्या कभी भर सका? कदापि नहीं।

उपर्युक्त सोहर नं० १४ का दूसरा पाठ भी मुझे मिला है। इसमें २० ही चरण हैं। पूर्वोक्त सोहर का अन्तिम चरण इसमें नहीं है। यह दूसर पाठ नीचे उद्धृत है:-

(१४अ)

सासु मोरी कहेली बॅझिनियाँ, ननद व्रजवासिन रे, ए ललना, जिनकर बारी में विआही, उहो घर से निकालेले हो ।।१।। घर से निकलली वझिनियाँ, निखुझ बने ठाड़ि भइली रे, ए ललना, वन में से निकसे वघिनियां, पूछू ले भेद लाई नू हो ॥२॥ किया तोरे सासु ननद घर वएरनि, नइहर दुरि वसे रे, ए तिरिया ! कवनी विपति तोहरे परलो, निखुझ बने आवेलू हो ।॥ ३॥ नाहीं मोरा सासु ननद घर वएरनि नइहर दूरि बसे रे, ए वाधिनि ! कोखि का विपति वयरगलीं निख्झ बने अइलीं नू हो ।।४।। सासु मोरी कहेली बझिनियाँ, ननद ब्रजवासिन रे, ए वाघिनि ! जिनकर बारी में विआही, उहो घर निकासेले हो ।।५।। जगवा के सव दुख सहवों, इहे नाहीं सह्नि रे, एवाधिनि ! हमारा के तुहूँ, खाइ लीतू विपति मोरि छूटत हो ।।६।। जहाँ से अइलू तिरियवा, उहें चलि जाहू नु रे, ए तिरिया ! तोहरा के हम नाहीं खड़यों, व झिनि होइ जाइबि हो ।।७।। उहह्वाँ से जाइ तिरियवा, वरि, लागे ठाढ़ि भइली रे, ए ललना, विलि में से निकसे नगिनियाँ, पुछे ले भेद लाइनु हो ।।८।।

किया तोरे इत्यादि जैसा कि ३ से ७ चरण तक में वर्णन है। इन्हीं की यहाँ चरण ९-१०-११-१२ और १३ चरण में पुनरुक्ति है।

उह्वों से जाइ तिरियवा, अमा घरे ठाढ़ि भइली रे, ए ललना, आंबरी से आइ मयरिया, पुछे ले भेद लाइनु हो ।।१४।॥ 

किया तोरे कन्त विदेसे कि सासु निकाले ले रे, ए धीया ! कवन विपति तोहरे परले नयन नीर डारेलू हो ॥१५॥

नाहीं मोरा कन्त विदेसे, ना सासु निकाले ले रे, ए आमा ! कोखि क विपति वयरगलीं, नयन दूनो ढरेला हो ।।१६।।

सासु मोरी कहेली वझिनियाँ ननद व्रज वासिन रे, ए आमा ! जिनकर वारी विआही उहो घर निकासेले हो ।।१७।।

जगवा के सब दुख सहवो, इहे नाहीं सहवि रे, ए आमा ! हमरा के देहु सरनवा, विपति किछु गाँयीनु हो ।॥१८॥

जहाँ से अइलू धियरिया, उहें चलि जाडु नुरे, ए थीया ! तोहरा के रखले पतोहिया, वझिनि होइ जाईनु हो ।॥१९॥

सगरे के तेजली तिरियवा, पिरिथी मनावेली रे, ए माता ! फाटीं ना पिरिथी देयाल त हम गहवों सरनि हो ॥२०॥

कारिक पिरि बदरिया झमकि दइव बरसहु हो। बदरी ! जाइ बरसु ओही देस जहाँ पिया कोड़ करें हो ।।१।। भीजेंला आखर बाखर तमुआ कनतियानु हो। अरे भीतराँ से हुलसँ करेजवा समुझि घरवाँ आवसु हो ।।२।। बरहे बरिस पर लवटे लें वरहि तर उतरें ले हो। माई, उठली लेई पिढ़वा बहिनि जल गहुआनु हो ।।३।। मोर पिया पनिया त पीयेलें हाथ मुह धोवे लें हो। मइया ! देखलीं त कुल परिवार धनिया नाहीं देखी लें हो ।।४।। वेटा ! तोरि धनि अंगवा के पातरि मुखवा के सूनरि हो । बहुअरि गोड़े मूड़े ताने ली चदरिया सोवेली धवरहरि हो ।।५।। खोल न बहुअरि गढ़ के केवरिया दुपहर भई आइल हो। बहुअरि ! देखु न तोर परदेसिया दुआरे तोरे ठाढ़ वाटें हो।।६।। 

झझकि के बहुअरि जगली केवारी खोलि देखेली हो। सइयाँ जनतों में तोहर अवइया थेइयथेइ नचतीं नु हो ।।७।।

जब से तू गइल मोरे पिअवा सेजरिया नाहीं डाँसलि हो। ससुरजी के तपली रसोइयाँ भुइयाँ परि पूतेलीं हो ॥८॥

जव से गइली मोरी धनिया पनवा नाहीं खइलीं हो। तिरियवा ना चितइलें हो। धनिया तोहरी दरद मोरी छतियाँ त जाने ले नरायन हो ।।९।।

यह काले और पीले बादल उमड़ रहे हैं। झमझम करके मेघ बरस जाता है। अरे! बादल तुम सब यहाँ मत बरसो। वहाँ जाकर बरसो जहाँ मेरे प्रियतम क्रीड़ा व्यवसाय करने गये हुए हैं ॥१॥

वहाँ ऐसा बरसना कि उनकी बही, बस्ता, तम्बू, कनात सब भीग जाँय और (बरसाती मौसम देखकर ) उनका कलेजा भीतर से हुलसने लगे; और वे मेरे हृदय को बात उस आत्म-अनुभूत भावना को अनुभव करके भली भांति समझ ले और घर चले आयें ॥२॥

बारह वर्षों पर प्रियतम लौटे, तो घर के बाहर बट वृक्ष के नीचे उतरे। उनको देखते ही माता पीड़ा लेकर दौड़ीं, वहन जल लेकर पहुँची, मेरे प्रियतम ने हाथ मुंह धोया, जल पीया और पूछा- 'हे माँ मैंने अपने

कुल परिवार को तो देखा; पर अभी तक अपनी स्त्री को नहीं देख पाया' । ३-४। माता ने कहा-'अरे पुत्र ! तेरी स्त्री अंग से पतली है और मुख से सुन्दर है। वह सिर से पाँव तक चादर ओढ़ कर बुर्जी पर सोती रहती है ।।५।।

वह धौरहर पर गया। कहा- 'अरी बहू, गढ़ के किवाड़ खोलो, दोपहर हो आया। बहू ! देखो तो तुम्हारा परदेशी तुम्हारे दरवाजे पर खड़ा हुआ है' ।।६।।

वह झलक कर जगी और किवाड़ खोलकर देखने लगी। प्रियतम को देखकर उसने कहा- हे प्यारे ! यदि मैं तुम्हारी अवाई जानती, तो पहले से वस्त्र लुटातो, नाच कराती। हे मेरे पति ! तुम जब से गये, तब से मंने सेज नहीं बिछायी। सासुजी को रसोई बनाने में सदा तपती रही और पृथ्वी पर पड़ कर सोती रही ।।७-८।।

प्रियतम ने कहा- "हे मेरो प्यारी! इस प्रवास में मैंने पान नहीं खाया, किसी स्त्री को आँख उठाकर देखा नहीं। प्रिये ! तुम्हारा दर्द मेरी छाती में सदा वर्तमान रहा, यह भगवान् जानते हैं ॥९॥

पति-पत्नी का १२ वर्ष के विरह के बाद का मिलन और निष्कपट वार्ता कितनी सरल और स्वाभाविक है ।।

( १६ )

वावा जे विअहले राजा घरे बहुत सम्पत्ति घरे हो। मोरी माई खबरिया ना लिहली ना विरना पठावेली हो ॥१॥ सासु कहें तोरे माई नाहीं ससुर कहें तोरे वावा नाही नु हो। आप प्रभु कहें तोर भइया नाहीं के तोरे सासुर आवइ हो ॥२॥ आरे गरभैतिन बहुअवा गरभ जनि बोलहु हो। तोरे भइया के होरिला जो होइ त ऊ तोरे अइतें नु हो ।।३।। एतना बचन सुनि बहुअरि सूरज मनावेंली हो। सूरज ! भइया के होइते नन्दलाल त हमरी ओर अइतीं हों ।।४।। होत बिहान पह फाटत होरिला जनम ले ले हो। वाजे लागे अॅनद बधझ्या उठइ लागे सोहर हो ।।५।। बाबा मोरे गइले बजाजे घरे जोड़वा लेइ अइलेनि हो। माई मोरी पिअरी रंगावे वीरन लेके आवेलें हो ।।६।। भऊजी मोरी चऊरा पिसवली कसार बन्हावेली हो। भऊजी मोरी पुतरा उरेहैं वीरन ले के आवेलें हो ॥७।। आगे आगे आवे बहंगिया त पाछू घीऊ गागर हो। ओहि पाछे भैया असवरवा त बहिनी के देस जावे हो ।॥८॥ जइसे दउरे गड्या त अपना बछरेआ खातिर हो ओइसे दउरलीं बहिनियाँ त अपना भइअवा खातिर हो ॥९॥ 

काले अइल भइया सामु कर का रे गोतिनि कर हो। का ले अइल भइया भयने खातिर का त हमरा खातिर हो ॥१०॥

पियरी ले अइली वहिनि ! सासू जी के कसरा गोतिनि जी के हो। गुजवा गोड़हरा त भयने के तोहरा के कुछ नाही हो ॥११॥

मेरे बाबा ने मुझे राजा के घर व्याह दिया। बहुत बड़े सम्पत्तिशाली का घर मुझे दिया; पर मेरो माता ने आज तक कोई खबर नहीं भेजी और न मेरे भाई को ही मेरे पास पठाया ॥१॥

यहाँ मेरी सास कहती है कि तेरा बाबा नहीं है। ससुर कहते हैं कि तेरो माँ नहीं है और स्वयं हमारे प्रभु कहते हैं कि तुम्हारा भाई नहीं है, नहीं तो तुम्हारे ससुराल में जरूर आता ।।२।।

उन्होंने आज फिर कहा-अरी गर्वोली बहू ! गर्व की बात न बोलो। यदि तुम्हारे भाई का पुत्र होता, तो वह यहाँ अब तक अवश्य आया रहता ।।३।।

इतनी बात सुनकर बहू ने सूर्य्य को वंदना की कि हे सूर्य भगवान् ! मेरे भाई को पुत्र दो कि वह मेरी तरफ आने का विचार करे ॥४॥

प्रातःकाल होते-होते पह फटते (लाली दौड़ते हो) बालक उत्पन्न हुआ। आनन्द बधाई बजने लगी और सोहर गाये जाने लगे ॥५॥

मेरे बावा बजाज के घर गये और धोतो का जोड़ा खरीद लाये। मेरी माताजी ने उसे पीला रंगवाया और मेरा भाई उसे लेकर मेरे यहाँ आया ।।६।।

मेरी भावज ने चावल पिसवाया और कसार (मिठाई विशेष) बनाया, फिर सुन्दर पुतला बनाया और भाई उसे लेकर मेरे यहाँ आया ।।७।।

आगे आगे पोअरी (पुत्र जन्म के अवसर पर जो सामान भेजा जाता है) की यहेंगी आती है। उस के पीछे घी का घड़ा आता है। उसके पीछे मेरे भाई घोड़े पर सवार बहन के देश चले आ रहे हैं ।।८।।

जिस प्रकार गाय अपने बच्चे के लिये दौड़ती है, वैसे ही बहन अपने भाई से मिलने के लिये झपट कर दौड़ पड़ी ॥९॥ 

उसने पूछना शुरू किया- हे भाई ! तुम सास के लिये क्या लाये हो ? गोतिनो के वास्ते क्या है? तुम भान्जे के लिये और मेरे लिये क्या लाये हो, मुझे बताओ ॥१०॥

भाई ने कहा-- हे बहन ! मैं तुम्हारी सास के लिये पोली धोती लाया हूँ। तुम्हारो गोतिनी के लिये कसार लाया हूँ। और अपने भान्जे के लिये में कान को बाली और पाँव का कड़ा लाया हूँ और तुमको कुछ नहीं लाया ॥११॥

( १७ )

सुखिया दुखिया दूनो वहिनियाँ दूनो बधड्या लेइ अइली हरे राजा बीरन ।।१।। सुखिया ले लाई दुखिया त दूव के पाँडा गुंजहा गोड़हरा । हरे राजा बीरन ॥२॥ सुखिया जे पूंछेली अपने बीरन से। विदा करीं घर जाई हरे राजा बीरन ।।३।। लेहल ना बहिनी खोइछ भरि मोतिया । सैयाँ चढ़न के घोड़वा हरे राजा बीरन ।।४।। दुखिया जे पूछेले अपना वीरन से। विदा करींहू घर जाई हरे राजा वीरन ।।५।। लेहल ना बहिनी खोइछ भरि ऊहे दूब के पौंड़ा हरे राजा गॅउर्जा गोयड़वा लघहीं ना दुबिया झरन लागे भोती हरे राजा कोदो। बीरन ।।६।। पवलें । बीरन ।।७।। कोठवा जे चढ़ि के त भऊजी पुकारेली। ननदी रूडल घरवा आवहु हरे मोरे बालम ।।८।।

सुखिया और दुखिया दोनों बहन बधाई लेकर के आयीं। सुखिया

गुजहरा और कड़ा उपहार में ले आई और दुखिया केवल दूब के लच्छों को ही ले आ सको। सुखिया अपने भाई से पूछलो है--"हे भाई, मुझे अब बिदा करो। में अपने घर जाऊँगी ॥१-३।।

भाई ने कहा- हे बहन ! अंचल भर मोती लो और अपने स्वामी के चढ़ने के लिये यह घोड़ा ले जाओ ।।४।।

दुखिया ने अपने भाई से पूछा- हे भाई ! मुझे बिदा दो। में अब अपने घर जाऊँ ॥५॥

भाई ने कहा- हे बहन ! अपने अंचल भर कोदो ले लो, उस दूव का लच्छा भी ले लो, जिसको तुम ले, आयों थीं ॥६॥

(दुखिया कोदो और दूब को लेकर चुपचाप चल पड़ी) वह गाँव के बाहर हो भी नहीं पायो यो कि उसके अंचल के दूव से मोती झरने लगे। यह देखकर कोठे पर चढ़ी हुई उसको भावज पुकार कर कहने लगी--अहे मेरे संया ! ननद रूठी जा रही है। उसे मनाकर घर लाओ ।।७।।

धनो और गरीब की कितनी सुन्दर ओर सच्ची तुलना है। ऐसी घट- नाएँ नित्य देखने को मिलती हैं। तभी तो तुलसीदासजी ने कहा है-

देश काल कुल जानि के सर्व करें सनमान । तुलसी दया गरीब को तू सहाय भगवान । तभी तो गरीब बहन के अंचल के दूब से मोतो झरने लगे।

( १८ )

उठति रेख मसि भीनत राम मोरा बने गइलें हो। मोरि बारह वरिसि कइ उमिरिया में कइसेके विताइबि हो ? ॥१॥ काइ राम ! तोहरे जे घरे रहे ? काइरे विदेस गइले हो। रामा, हँभि के ना घइल अंचरवा ना कबहूँ कोहनइल नु हो ? ॥२॥ लालि चुनरि नाहि पहिलो पीअरि नाहीं छोरलो हो। रामा, केंखिया न लोहली बलकवा छडीओ नाहि पूजली हो ।॥ ३॥ छोइले जाईले घर सोनर्वा महल भर रूपवा नु हो। रामा, छोड़ित जाइले देवरवा, पिया के संग रहॅसवि हो ।।४।। 

रेख निकलते और स्याही आते ही मेरे राम बन चले। मेरी उमर बारह वर्ष को है। मैं कैसे जीवन बिताऊँगो ? ॥१॥

हे राम ! तूम्हारे घर रहने से हो मुझको क्या लाभ या और विदेश जाने से ही क्या हानि है? हे राम ! तुमने कभी हँस कर मेरे अंचल को नहीं पकड़ा और न कभी मुझ पर क्रोध हो किया ॥२॥

मैंने न कभी लाल चूंदरी ही पहनी और न पोअरो (पोली धोतो) को ही कभी पहन कर उतार सको ! हे राम ! मैं कभी गोदी में बालक को भी नहीं ले सकी अर्थात् मुझे कोई सन्तान भी नहीं हुई और उसको छट्ठी भी पूजने का सौभाग्य मुझे नहीं प्राप्त हो सका ।।३।।

पति ने कहा- हे प्रिये ! मैं घर भर सोना छोड़े जा रहा हूँ। महल भर चांदी यहीं पड़ी है। तेरा छोटा देवर भी यहीं रह रहा है। इस पर पत्नी ने कहा-यह सब मुझे कुछ न चाहिये मैं अपने प्रियतम के साय (जंगल में) ही प्रसन्न होऊँगी, मुझे अपने साथ ले चलिये ॥४॥

सन्तान की कामना का स्त्री-हृदय में होना कितनो स्वाभाविक बात है। फिर प्रियतम के संग के सामने सारी सम्पदा, कुल, परिवार, त्याज्य है।

( १९ )

मन मोर बसेला गोविन हियरा राम दुनो नयना में भरत भुआल क्रिस्न नाहीं लछुमन हो। बिसरसु हो ॥१॥ कव दोना गंगा बढ़ि अइहें, सेवरवा दहि जइहनि हो। आरे बहिनी ! कवदोनि किसुन लवटिहें, रधिका जुड़इहनि हो ।॥२॥ भादों में गंगा वढ़ि अइहें, सेवरवा दहि जइहनि हो। ए वहिनी, कातिक में किसुन लवटिहनि रधिका जुड़इह्नि हो ।॥ ३॥ जइसन कोहरा के अॅऊंआ, छर्नाह छन तलफेला हो। ए बहिनी, ओइसन रधिका के जिअरा छनहि छने तलफेला हो ।।४।। 

रुकमिन के अँगना वेइलि फूल अवरू सरव फूल हो। ए बहिनी ! एकेंहू त फुल हम पइतों त सेजिया इसइतो- किसुन पर्वड़इतऊँ हो।

जे यह मंगल गावेला गाइ सुनावेला हो। ए बहिनी से हो बैकुण्ठहि जाला सदा सुख पावेला- प्रेम फल पावेला हो ।।५।।

मेरा मन गोविन्द में बसता है और हृदय राम लक्ष्मण की युगल जोड़ी में लगा हुआ है। मेरी दोनों आँखों में राजा भरत हैं। मुझे कृष्ण नहीं बिस- रते हैं ॥१॥

न मालूम कब गंगा में बाढ़ आवेगी? उसका सेवार वह कर कब साफ होगा ? अरी बहन ! न मालूम कब श्रीकृष्ण चन्द्र लौटेंगे और मेरो राधा जुड़ायेगी ? ॥२॥

भादों मास में गंगा बढ़ेगी और उसका सेवार वह जायगा। हे बहन ! कार्तिक में श्रीकृष्ण भगवान् लौटेंगे और मेरी राधिका जुड़ायेगी ॥३॥

अरे जिस तरह कुम्भार का ऑवा क्षण-ही-क्षण तलफा करता है, वैसे ही मेरो राधिका का हृदय क्षण-प्रति-क्षण तलफ रहा है ॥४।।

अरे रुविमणी के आंगन में बेला का वृक्ष है और सब गुण उसमें वर्तमान हैं। हे वहन ! अगर मैं उस वृक्ष का एक भी फूल पाती तो मैं सेज डसाती और कृष्ण के पाँव के पास पड़ रहती ।।५।।

जो यह मंगल गाता है और गाकर सुनाता है वह, हे बहन ! बैकुण्ठ जाता है और सदा सुख पाता है और प्रेम का सच्चा फल प्राप्त करता है ॥६॥

( २० )

राजा दुआरे रनियवात रनिया रोदन करे हो। राजा ! हम त जोगिनि होइ जइवों, त एके रे पुतर बिनु हो ॥१॥ जो तुहुँ रनिया रे ! जोगिनि होइबू हमहुँ जोगोआ होइ जाइबि हो। रनिया ! दुनोजन भभूति रमाइबि त तिरथ नहाइवि हो ॥२॥ 

गया नहइलों, गजावर अवरू वेनी-माधव हो। राजा ! अतना तिरथ हम कइली पुतर नाहीं पाई लें  

हो ॥३॥

चारि चउखण्ड के पोखरवा त ताहि पर चनन गाँछ हो। आहो-ताहि तट रामजी के आसन वलका उरेहे ले हो ।।४।।

बोलिया त ए राम ! बोलीले बोलत लजाई ले हो। राम ! सगरे नगरिया में रुनझुन हमें नाहीं चितई ले हो ।।५।।

सगरे नगरिया में रुनझुन तोहरे कवन गति हो। रानी ! जे किछु लिखेला लिलार से हो रे कइसे मेटेला हो ।।६।।

राजा के दरवाजे पर रानी रो रही है और कहती है कि हे राजन् ! एक पुत्र के बिना में योगिन् हो जाऊँगी ॥१॥

राजा ने कहा- हे रानी ! अगर तुम योगिन बनोगी तो मैं भी योगो बनूंगा और दोनों प्राणी भस्म लगायेंगे और तीर्थ स्नान करेंगे ॥२॥

रानी ने कहा-गया और गजाधर में स्नान और बेनी-माधव का दर्शन किया; पर हे राजन् ! इतना तीर्थ करने पर भी मैंने पुत्र नहीं पाया।

॥३॥

आयताकार पोखरा है। उस पर चन्दन का बिरवा है। उस बिरवे के नीचे रामजी का आसन है। वहीं वे बालक का सृजन कर रहे हैं ।॥४।।

रानो वहाँ जाकर खड़ी हुई और राम से बिनती करने लगी- हे राम ! मैं बात तो कहती हूँ; पर कहते लज्जा मालूम होता है। राम ! सारे नगर तो मैं सर्वत्र रुनझुन रुनझुन को आवाज (बच्चों के घुँघुरू की आवाज) सुनती हूँ, अर्थात सब की सन्तान हैं; पर हे राम ! क्या बात है कि आप मेरी ओर कृपा दृष्टि नहीं करते ? ॥५॥

राम ने उत्तर दिया- सारे नगर में तो रुनझुन का स्वर है, अर्थात् सब को सन्तान हैं; परन्तु तुम्हारी कौन गति है, यह तुम क्या जानो ? हे रानी ! जो कुछ भाग्य में लिखा है, वह कैसे मिट सकता है। ॥६॥

नारद पोथिया जे बांचे लें कंस के सुनावेले हो। आहो देवकी के रहले गरभवा देवकी पुतवा मारव हो ॥१॥ नो मन लोहवा चुनाइवि चकरी बनाइबि हो। आहो देवकी से कोदई दराइवि गरभ नो मन लोहवा गलाइबि गगरी आहो देवकी से पनिया भराइवि गरभ पनिया जे भरेली जमुना दहे बइठली अरारे चढ़ि हो। आहो देवकी के रोअले जमुनवाँ जमुना वढ़ि आइलि हो ।।४।। बनवां से निकसे जसोदा देई देवकि समुझावेलि हो। ए बहिनी ! कवन कवन दुख अवहेला कहि के सुनावहु हो ? ॥५॥ किया तोर बहिनी हो! सासु दुख, नइहर दूर बसे हो? वहिनी ! किया तोरे कंत विदेस कवन दुखवा रोवेलू हो ? ॥६॥ नाहीं, मोर बहिनी हो! सासु दुख, नईहर दूरि बसे हो। बहिनी ! नाहीं मोरे कन्त बिदेस कोखिये दुखे सात बालक राम दिहलनि से हो कंस ए बहिनी ! अठवें गरभ 'अवतार' एहूके कंस चुप होखु, चुप होखु, देवकी ! त जनि रोइ मरहु हो। देवकी! अपन बलक हम भेजब तोहरो रोई ले हो ।।७।। मरलनि हो। मरिहइँ हो ।॥८॥ मगाइवि हो ॥९॥ पाइंच हो। नुनवा उधार तेल पाइच अवरूदालि वहिनी ! कोखि के जनमल कइसन पाँइच ? भुलले नरायन हो ॥ १०॥

नारद पोयी बाँचते हैं और बाँच कर कंस को सुनाते हैं कि हे राजन् !

देवकी को गर्भ है। उसके पुत्र को आप मारियेगा। कंस ने कहा- मैं नव

मन लोहा चुनवाऊँगा और उसकी चक्की बनवाऊँगा और हे नारद !

उसी में देवको से कोदो दरवाऊँगा और इस तरह उसका गर्भपात

कराऊँगा। नव मन लोहा गलवाऊँगा और उसका एक घड़ा बनवाऊँगा 

और उसी से देवको से पानी भरवाऊँगा और इस तरह उसका गर्भ गिरवाऊँगा ।।१, २, ३॥

देवको जमना दह में पानी भरती है और यक कर अरार पर बैठ जाती है वहाँ वह इतना रोती है कि उसके रुदन से जमुना बढ़ जातीं हैं ॥४॥

बन में से यशोदा निकलती हैं। देवको को समझाती हैं और पूछती हैं कि हे बहन ! तुमको कौन सा दुःख हो रहा है मुझको कह कर सुनाओ। हे बहन ! क्या तुमको सास का दुःख है या तुम्हारा मायका दूर वसता है अथवा तुम्हारा कंत विदेश है? तुम किस दुःख से रो रही हो ? ॥५-६।।

देवको ने कहा- हे बहन ! मुझे सास का दुःख नहीं है। न मेरा मायका ही दूर बसता है। हे बहन ! न मेरा कंत ही विदेश में है। मैं केवल सन्तान के दुःख से रो रही हूँ ।।७।।

सात बालक भगवान् ने मुझे दिये और सातों को कंस ने मार डाला। अब हे बहन ! आठवें गर्भ में अवतार होने वाला है; पर उसको भी कंस मारने को तैयार है ॥८॥

यशोदा ने कहा-- हे देवको! चुप रहो, रो रो करके मत मरो। मैं अपना बालक भेजूंगी और तुम्हारा मँगा लूंगी। देवकी ने कहा- हे बहन नमक तेल का तो उधार पाँइच होता है। यह पेट के जन्में हुए लड़के का हाय कैसा उधार पाँइच ? मुझको ईश्वर ने भुला दिया है कि यह सब हो रहा है ॥९-१०।।

( २२ )

कोठिला से कढ़लों खुखुड़िया त घमवा सुखावेलो हों। ए ननदी ! खुखुड़ी के रोटीया पकवलों बथुइया केरा सगिया ना हो ॥१॥ त हाली हाली करिल जेवनवाँ चेतिल आपन घरवा नु हो। ए ननदी ! हाली हाली करिल जेवनवा चेतिल आपन घरवा नु हो ॥२॥ 

त छान्हीं से उतरली लुगरिया त अवरू चदरिया नु हो।

ए ननदी ! उँच पहोरहू फटही लुगरिया बनऊरा डालिल खोइछ हो ।। ३।।

तइ नहि उँचवा जनि जइह, ऊँचे ऊँचे धाम लगिहें हो।

ए ननदी ! ऊँचवा लमीहें तोहरा घामावा खाले खाले जइहउ हो ।।४।।

त उहाँवाँ ले घोड़वा दउरवले बहिनिया से जे भेट कइलिनि हो।

ए बहिनी ! का कातू कइलू जेवनरवा त काइरे विदडया पवलू हो ।।५।।

त खाये के खुखुड़ी के रोटिया बथुइया केरा सगिया नु हो।

ए भइया ! पहिरे के फटही लुगरिया वनऊर देखिल खोइछ हो ।।६।।

त भइया के रोअले पटुका भींजे वहिनी जमुन दहे हो।

ए वहिनी ! तनी एका डड़िया बिलमाव जलदि चलि आइवि हो ।।७।।

त उहाँ से घोड़ा दउरवले कचहरिया में उतरलनि हो।

ए चेरिया ! कहि आउ धनीजीसे मोरि त हम ससुररिया जइयों हो ।।८।

ए चेरिया ! उनकर छोट भइया के विआह नेवतआ लेइ जाइवि हो।

होत मोरा भइया के विवाह नेवते नउआ अइतें हों ॥९॥

ए राजा ! जऊँ मोरा भइआ के बिलहह्वा नेवत हम जइतीं नु हो।

त दुअरे से नऊवा नेवता दीहले दुअरवे चलि गइलनि हो ।।१०।।

ए धनिया ! कल्हुए तोर भइया के वरिआत जलदी हम जाइवि हो।

•त झाँपी में से काढ़ेली पीतम्मर गोटा पाटा टाँकेली हो ॥११॥

ए राजा ! गोटे गोटे मोहर गुहावेली खोलीहें मोर मयरिया नु हो।

ए राजा ! घोउआ में वान्हेली सोठ उरा खोलिहें मोर मयरिया नु हो ॥१२

त उहाँ ले घोड़ा दउरवलनि बहिनियाँ ढिग उतरले हो।

ए वहिनी ! खोली द तू फटही लुगरिया बनउरा केर खोइँछ हो ।॥१३॥

ए वहिनी ! पहिरडू लहँगा पटोरवा मोहर भर खोईछ हो।

त उहवा ले घोड़ा दउरवले कचहरिया में उतरले हो ॥ १४॥

ए चेरिया ! पूछित आवहु मोर रानीजी से बहिनी का विदइया पवली हो।

त खाये के खुखुड़ी के रोटिया बथुइया केर सगिया नु हो ।॥१५॥

ए धनिया ! पहीरे के फटही कन्हावर वनउरवा देखलीं खूंटा में हो। 

त अइसन बोलिया राजा जनि बोल अवरू तू जनि बोल हो ।।१६।। ए राजा सुन पइहें गोतिनि देआदीन मेहनावा मोहि मरिहनि हो ।

भावज ने कोठी में से खुखुड़ी निकाली। उसको धूप में सुखाया और ननद से कहा- हे ननद ! मैंने खुखुड़ी को रोटी पकायो और बथुए का साग बनाया है। तुम जल्दी जल्दी भोजन कर लो। अपना घर चेतो। छप्पर पर से भावज ने लुगरी उतारी और ननद को देकर कहा-- हे ननद ! यह फटी लुगरी पहन लो और बनोला खोइछ (अंचल) में भर लो और अपने ससुराल के लिये प्रस्थान करो ।।१-३।।

हे ननद ! तुम ऊँचे ऊँचे मार्ग से ससुराल में न जाना। ऊँचे मार्ग से जाने में तुमको धूप लगेगी। इसलिये नीचे रास्ते से ससुराल की यात्रा करना ।।४।।

बहन चली गयी। भाई को जब खबर लगो कि बहन चली गयो, तो

उसने घोड़ा दौड़ाया और बहन से भेंट करके पूछा कि हे बहन ! तुमने क्या

क्या भोजन किया और बिदाई में भावज ने क्या क्या तुमको दिया ? बहन ने

कहा- हे भाई ! मैंने खाने को खुखुड़ी को रोटी और बथुए का साग

पाया। पहनने के लिए मुझे फ़टही लुगरी मिली और बिदाई में यह अञ्चल

के खूंट में बंधा हुआ बिनीला देखलो ॥५-६॥

भाई रोने लगा। उसका दुपट्टा आँसू से भोज गया। बहन से कहा- हे बहन ! थोड़ी देर अपनी पालकी रोक दो में जल्दी हो लौट कर आता हूँ ॥७७॥

भाई ने वहाँ से घोड़ा दौड़ाया और अपनी कचहरी में आकर उत्तरा उसने अपनी नौकरानी से कहा कि बहू के छोटे भाई का विवाह है। "मैं नेवता में जाऊँगा। बहू ने कहा- अगर मेरे भाई का ब्याह होता तो नाऊ निमन्त्रण लेकर आता ? हे राजन् यदि मेरे भाई का विवाह होगा। तो मैं अवश्य निमंत्रण में जाती। राजा ने कहा- नाई निमंत्रण लेकर आया था। बाहर हो उसने निमंत्रण दिया और बाहर हो से चला गया। हे धनि ! तुम्हारे भाई की बारात है। मैं जल्दी हो जाऊँगा। स्त्री ने पिटारे से पीताम्बर निकाला और उस पर गोटा पट्टा चढ़ाया और हर गोटे में मोहर सिलवाई कि उसको मां उसको खोलकर निकाल लेगो। घो और सोंठ का लड्डू बनवाया और सब राजा को अपने मायके ले जाने के लिये दिया ॥८-१२।

राजा वहाँ से घोड़ा दौड़ाकर अपनो बहन के पास आया और बोला- हे बहन ! तुम फटी लुगरी खोल दो और बिनौला उसके खूंट में बाँध दो ॥१३॥

हे बहन ! लहंगा साडी पहन लो और मोहर अंचल में बांध लो। कचहरी में उतरे और चेरी से कहा कि हे चेरो ! मेरी स्त्री से पूछआओ कि क्या-क्या बिदाई में उसने बहन को दिया है। खुखुड़ी को रोटी और बथुए का साग मिला था और हे चेरी! पहनने के लिए फटी लूगरी मिली थी और बिदाई में देख लो खूट में बंधा बिनौला मिला था। भावज ने सुनते ही कहा- हे प्रियतम ऐसी बोली न बोलो। अगर मेरी जेठानी या पड़ोस बाली सुन पायेगी, तो मुझे ताना मारेगी ।।१४-१६।।

ननद भौजाई का वर स्त्री संसार में उतना प्रसिद्ध है जितना कि काव्य जगत् में व्याघ्र और हायो, श्वान और मृग को शत्रुता विख्यात है।

( २३ )

हरदी' सरीखे पपीहरा तू चिरई ! बोलना- अरे हाँ रे चिरई ! बोलना,

लालन जी के देसवा जहाँ पिया वसले हमार ॥१॥ सावन केर अन्हरिया त जेठ दुपहरिया नु हो। ए चिरई ! बोलना । हम पापिनि गजओवरि सूती छैला बिरिछ तरे ठाढ़ वोलना ।। अरे ०।।

अगना बहरइत चेरिया ! त अवरू लउँड़िया नू हो।। ए चेरिया ! बाहरे दलनिया देवर बाड़े देवरा बोलाव नू हो ।। अरे०॥ पासावा खेलत तुहूँ लखनजी! त अवरू लखन देवरू हो !!

१. ग्रामीण वधू को ज्ञात नहीं पपीहरे का रंग कैसा होता है, इसीसे उसने हरदी सरीखा कहा है पपोहा भूरे रंग का-सा होता है। 

आरे लखन ! ! ! राउर भउजी बाड़ी गजओवरि रउरा के बोलावेलीहो । अरे हाँरे चिरई बोलना ॥४।॥ अवरू बबुर तरे हो। पासावा लडाँवत वेल तरे आरे ललना-नील घोड़ भइले असरवा महल वीचे ठाढ़ भइले हो ।।५।। मचिया बइठल रउरा भऊजी त भउजी बढ़इतिन हो। काहे के परलीं हंकार त कहि के सुनावहु हो ॥ ६॥ कपरा त वथेला टनाटन ओदर चिल्हिक मारे हो। ए बबुआ ! राउर भइया गइले परदेस दरद मोरा के हरो हो ।।७।। अरे-अरे भऊजी बढ़इतिन ! अवरू सिर साहेव हो। ए भऊजी ! रचि एक दरदा नेवारहु होरिल भोरे मुँइयाँ लोटिहें हो।।८।।

अरे पक्षी ! तू बोल। पपीहा ! हलदी के समान तू पोला है। तु लालनजी के देश में जाकर बोल जहाँ, मेरे पिया बसते हैं। अरो चिड़िया तू बोल ॥१॥

अरो चिड़िया ! सावन को अँधेरो और जेठ को दुपहरी में भी तू वहाँ जाकर बोल। इन अवसरों पर मैं हो पापिन अपने जच्चा भवन में रहती हूँ। मेरे सैंयाँ तो कहीं वृक्ष के नीचे हवा खाते हुए टहलते और खड़े रहते हैं। तू वहाँ जाकर बोल ॥२॥

अरी अंगना बुहारनेवाली लौंड़ी और चेरी ! बाहर दालान में मेरे देवरजी हैं। तू जाकर उन्हें बुला ला। अरी चिरई ! वहाँ मेरे बालम के पास जाकर बोल ।।३।।

लौंड़ी ने देवर के पास जाकर कहा- हे लक्ष्मणजी ! तुम पासा खेल रहे हो। आपको भावज जच्चा गृह में है। अरी चिड़िया तू बोल ॥४।। आपको बुला रही हैं।

बेल और बबूल वृक्ष के नीचे पासा खेलते हुए लक्ष्मण देवर ने जैसे यह संबाद सुना नोले घोड़े पर सवार होकर महल के बीच आ पहुँचे। अरी चिड़िया ! बोल। जहाँ मेरे सैयाँ निवास करते हैं। वहाँ जाकर बोल ॥५॥ 

लक्ष्मण ने कहा-मचिया पर बैठी हुई हे मेरी भावज ! तुम मेरी बड़ो पूजनीया भावज हो। तुमने मुझे क्यों बुलवाया? कह कर सुनाओ। अरी चिड़िया बोल। जहाँ मेरे प्रोतम लालन जी के देश बसते हैं बोल ॥६॥

भावज ने कहा- हे बाबू ! मेरा माथा टन टन करके दर्द कर रहा है और पेडू में चिल्हक (दर्द) उठ रही है। आपके भाई तो परदेश गये हुए हैं। मेरी पीड़ा कौन हरेगा? अरो चिड़िया ! तू बोल। लालनजी के देश जहाँ हमारे छैला बस रहे हैं, जाकर बोल ।।७।।

लक्ष्मण ने कहा- हे भावज ! तुम तो स्वयं पूज्य हो और तुम हो घर को स्वामिनि हो। थोड़ा सा धैर्य्य धारण करके दर्द निवारण करो। प्रातः- काल होरिल पृथ्वी पर लोटने लगेगा अर्थात् पुत्रोत्पत्ति होगी ।॥८॥

कितने सुन्दर रूप में प्रसव समय को विरह-व्यथा को व्यक्त किया गया है। सच है, दुदिन में या अत्यन्त पीड़ा के समय में अपना आत्मीय स्मरण हुए विना नहीं रहता। खास कर प्रसव पीड़ा के समय पति का स्मरण होना तो और स्वाभाविक इसलिये है कि पति ही इस वेदना का कारण रहता है।

( २४ )

सोने के खरउँआ राजा राम चन्नर माता से अरज करें हो। ए माता ! हमरा लिखल मधुबनवा त कइसे सूनरि रहिहनि हो ।॥१॥ जीवा के बोरसी भरइवों लॅवंगिया देइके वासबि हो। ए वावू ! मानिक दिअरा बरइवों बहुअवा गजओवरि हो ।।२।। सोने के चउकी गढ़इवों सीता के नहवइयों हो। ए बावुल। पीअर पीतम्मर पहिराइव सिहांसन बइठाइवि हो ।।३।। मोने के खरउँआ राजाराम चन्नर सीता से अरज करें हो। ए सीता ! दुख सुख सहीहह्यगिरिहिआ नइहर मत जइह हो ।।४।। विना रे केवट केरा नइया अवधपुर ना रहिहें हो। अरे विना पुरुष केरा बहुआ नइहर चलि जइहें हो।।५।। 

पहिर ओहिर सीता ठाढ़ भइली धरती निहस गइली हो। ए सीता ! टोला महाला अगुतइले कवदो सीता जइहह्न हो ।॥६॥

सोने की खड़ाऊँ पर चढ़कर रामचन्द्र अपनी माता कौशल्या के पास गये और उनसे निवेदन करने लगे - माँ ! भाग्य में तो बन लिखा है, सोता यहाँ कैसे रहेगी ? ॥१॥

कौशल्या ने कहा--"हे वत्स! में सीता के गृह को जोरा और लोंग को अंगोठी से सुगन्धित करूँगी और माणिक का दीप जलवाऊँगो, सोता को सोने की चीकी पर बैठाकर स्नान फराऊँगी और पोला पीताम्बर पहना- कर उसे सिहासन पर बैठाऊँगी ॥२-३।।

सोने को खड़ाऊँ पहनकर राजा रामचन्द्र ने सीता से नम्र शब्दों में कहा- हे देवी! तुम्हें सुख दुःख जो कुछ हो, घर रहकर सहना। मायके मत जाना। सीता ने उत्तर दिया- जैसे विना केवट की नाव सरयू में कदापि नहीं टिक सकती, वैसे ही बिना पुरुष के स्त्री भी मायके चली हो जायगी ॥४-५॥

सीता मायके चली गयीं। वहाँ जब वस्त्रादि पहनकर सीता खड़ी हुई, तो उनको देखकर पृथ्वी सहम गई। पृथ्वी ने कहा- सोते ! तुमको देखकर टोले-महल्ले वाले परेशान हो रहे हैं कि सोता कब ससुराल जायगी ? तुम मायके क्यों नहीं जाती ? ॥६॥

चलु चलीं सखिया सलेहर ! मिलि जुलि चलीं जा हो। मोर सखिया ! मिलिजुलि चलु अजोधिया त पिया के मनाइवि हो ॥१॥ एक बन गइलीं दूसर वन अवरू तीसर वन हों। मोर सखिया ! पातर पिया ठाढ़ फुलवरिया मलिनिया संगे विहमें ले हो ॥२॥ अँगना बहइत चेरिया त अवरू लउँड़िया नु हो। आरे चेरी ! मालिनी के पकड़ी ले आवउ बलमुआ भोरवा वलसि हो ।।३।। 

सीता ने अपनी सखियों से कहा- हे सखो ! आओ हम मिलकर अयोध्या चलें और प्रियतम को मना लावें ॥१॥

सोता सखियों के साथ एक बन में गयीं, दूसरे को पार करके तीसरे में पहुंचीं। वहाँ उन्होंने राम को देखकर सखो से कहा-अरी सखो ! वह देखो मेरे सुकुमार प्रियतम खड़े खड़े फुलवारी में मालिन के साथ हँस रहे हैं ॥२॥

सीता ने कहा--आँगन बुहारती हुई हे चेरो ! तुम मालिन को पकड़ लाओ। वह मेरे बालम को अपने प्रेम में फंसा रही है। मैं उसे दण्ड दूंगी ।।३।।

( २६ )

पनवा अइसन धनिया पातर सोहगइली अइसन सूनरि हो। भारे मोर सूनरि ! फुलवा अइसन हलुकइया चननवा अइसन गमकेली हो ।।१।। एक हाथे लिहली सूनरि दिअरा दूसरे हाथ गंगा जल हो। आरे मोरे सूनरि चढ़ि गइली राजा के अटरिया जहाँ रे राजा सूतेले हो ।।२।। दिअरा घड़लीं दिअरखवा गंगाजल सिरहनवा नु हो। कुछ घरी लागे वतिअवइत कुछ फुसिलवइत नु हो ।। ३।। आरे मोरे सूनरि ! जब राजा जोरेले सनेहिया तवहीं मुरूगा बोलेला हो ।।४।। मुरूगा के मरवों डयन तुरि अवरू पएर तुरि हो। आरे भोरि सूनरि ! जवे राजा जोरेले सनेहिया तवे हो मुरूगा बोले ला हो ।।५। काहे के मरवू डएन तुरि अवरु पएर तुरि हो। आरे मोर सूनरि! हमहुँ त राजा के टहलुवा-अधेरात बोलीला राजा के जगाई ला हो ।।६।।

पान ऐसी पतली, सिन्धौरा ऐसी सुन्दर तथा फूल जैसो हलको और चन्दन की तरह महकने वाली वह स्त्री है ॥१॥

स्त्री ने एक हाथ में दीप और दूसरे हाथ में गंगा जल उठाया और अपने प्रियतम को अटारी पर जहाँ वे सो रहे थे चढ़ गयो ॥२॥ 

दीपक को तो उसने दोवट पर और गंगाजल को सिरहाने रख दिया। आप सेज पर पति के पास बैठ गई। प्रियतम के साथ बातें करते और फुस- लाने में कुछ समय बीत गया। जैसे हो राजा स्नेह जोड़ने पर उद्यत हुए, वैसे ही मुर्गे ने बाँग दी ।।३।।

स्त्री ने कहा- इस मुर्गे को मैं डैना और पाँव तोड़कर मार डालूंगी। जब राजा स्नेह जोड़ने पर उद्यत होते हैं, तब वह बोलने लगता है ।।४।।

मुर्गे ने कहा-अरी पगली स्त्री ! मुझे क्यों मारोगी! मैं तो राजा का सेवक हूँ। मेरा आधी रात को बोल कर राजा को जगाना ही तो काम है ॥६॥

इसी गोत से मिलते जुलते भाव को लेकर प्रवीण राय ने श्रृंगार रस में कहा है-

कूर कुर कुट कोटि कोठरी निवारि राखों, चुंन वै चिरैअन को मंदि राखों यलियो ।।

सारंग में सारंग सुनाय के प्रवीणराय, सारंग दे सारंग की जोति करों मंदियो । बैठी परयंक पर निसंक ह्व के अंक भरौं, कराँगो अधर पान मयन मत्त मिलियो ।। मोहि मिले इन्द्रजीत धीरज नरिन्द्र राव, एहो चन्द मंद गति नेकु आजु चलियो ॥६॥

गीत और इस घनाक्षरी की तुलना करने पर पाठक देखेंगे कि पूर्व के गीत में यह शोखी यह उत्तेजना और यह उद्दीपन नहीं है। वहाँ गृहचर्या से थकी माँदी फूल-सी हलकी और पान-सी पतली गृहिणी का घर के सब कामों को समाप्त करके प्रणय के लिये प्रियतम के पास जाना और वहाँ जाकर प्रणय में विफल होना भर ही व्यक्त है। गोत में प्रणय मिलन के उद्दीपकों में केवल दीपक और गंगाजल तथा अटारी का ही नाम आ सका है। इसके परे दिहाती जीवन में दूसरा लभ्य ही क्या होता है? फिर वहाँ 'निसंक हो के अंक भरों' को बात की जगह पर 'कुछ घरी लागे वतिअवइत कुछ फुसिल- वइत' हो भर कह कर हृदय को विवशता और लाचारो व्यक्त करना बहुत था। फिर यहाँ जब प्रवोणराय चन्द्र भगवान् को भी डाटकर मन्द गति का आदेश देती है, तो वहाँ ग्रामीण पराश्रित, निर्बल, विफल मनोरथ प्रेमिका मुर्गे को मार डालने को धमकी तक ही दे सकने का साहस कर सकती है। पर उसको इस धमको का जवाब भी मुर्गा दे डालने के लिये काफी सबल है। यहीं तक नहीं, पति महाशय भी तो इन्द्रजीत के ऐसे सबल नहीं ज्ञात होते कि अपनी पतली, सुन्दरी, हलको नायिका को काम-तृष्णा को तृप्त कर सकें। उनको इस योग्य बनाने के लिये लज्जाशीला मूक नायिका को हो तो घड़ियों बातें करके फुसलाना पड़ता है; पर तब भी मुर्गे की तुच्छ बोली ही उन्हें पुनः विमुख कर देने के लिए काफी सबल सिद्ध होती है। बेचारी ग्राम वधू को कितनी दयनीय दशा है और कोई भी सुख उसे सुलभ नहीं।

( २७ )

भल हऊ रानि हो कोसिला रानी कि बउरावल हो। करउ रमइया जो के मूड़न उही सुख देखडू हो ॥१॥ घर घर फिरई कोसिला रानी गोतिनी बोलावई हो। गांतिनी ! हमारा मड़इया तरे आवउ रमइदा जी के मूड़न हो ।॥ २॥ गोतिया ते अइलें अँगन भरि गोतिनी ओसार भरि हो। एक नाहीं अइलीं केकड्या मूंड़उआ नाहीं सोहइ हो ।॥ ३॥ दुअरा से उठे राजा दसरथ वेदिया प ठाढ़ भइले हो। रानी ! कवुन वचन तुहुँ बोललू केकईया नाहीं अइलिनि हो ? ।॥४॥ पठवलीं नउआ अरु वरिया अवरु दस बाभन हो। राजा ! पठवलीं मां तोहरे दसीधी केकई नाही आवेली हो ।।५।। सोने के खरउँआ राजा दसरथ केकई महल गइलें हो। रानी! कवन गिरह जिउ मनलू देखन नाहीं गइलू नु हो ? ॥६॥ 

पवलों में नउआ त बरिया अवरू दस बाभन हो। रानी पठवेली अपन दर्सीधी अपने नाहीं आवेली हो ।।७।। कोप पलंग रानी केकई डैवढ़ि राजा हाथ जोरइ हो। रानी जवन मगन तुहूँ मागवि तवन हम देवई हो ॥८॥ मागन त हम मंगिती मंगही जो पइतीं नु हो। राम लखन बनवा भखितीं भरत राजा ! राजर्जाह हो ।॥९॥ माँगन के तऊ मंगलू माँगन नाही जानेलू हो। मँगलू सकल राज पाट त बन कइसे भाखेलू हो ॥१०॥ जे राम लछिमन दूनों आँखि के पुतरिया नु हो। जइहँइ उहे वनवास जिअबि हम कइसे नु हो ।।११।।. लाली रे गइया के बछवा त भला मोसे के छीनेला हो ।। एहि रे अवधपुर दसरथ भुआल पुकारेले हो ॥१२॥ सोने के खरउँआ राम लछिमन माता के महल गइलें हो। माता भरि मुख देहु असीस हम वन के सिवारिव हो ॥१३॥ जे राम लछुमन दुई आँखि के मेघवन परेला ठुसार मों कइसे 11 पुतरिया नु हो। कइसे के असीसउँ ।।१४।।

सखियाँ कहती हैं- हे कौशल्या रानी ! तुम मारे आनन्द के पागल हो गई, तुम्हें किसने पागल बना दिया। अहो रामजी का मुंडन करो। उस सुख को भी देख लो ॥१॥

कौशल्या रानी ने घर घर घूमकर जेठानियों को बुलाया और कहा कि हे जेठानी हमारी मड़या में चलो ! रामजी का आज मुंडन है ॥२॥

गोत्र वाले आँगन भर में भर गये। जिठानियों को ओसारे में भीड़ लग गयो, परन्तु एक कैकेयी नहीं आयी, जिससे माँड़ो को शोभा नहीं हुई हुई ॥३॥

राजा दशरथ द्वार पर से उठ कर वेदो पर आकर खड़े हुए। उन्होंने कौशल्या से पूछा- हे रानी ! तुमने क्या बात को कि कैकेयी नहीं आई ? 

रानी कौशल्या ने उत्तर दिया- 'हे राजन् मैंने नाई और बारो को भेजा और फिर कुलीन दस ब्राह्मणों को भेजा। उसके बाद आपके दसौंधी को भी भेजा; परन्तु तब भी कैकेयी नहीं आई ।।५।।

सोने की खड़ाऊं पहले हुए राजा दशरथ कैकेयी के महल में गये। ककेयो को पुकार कर उन्होंने कहा- हे रानी! किस बात को गिरह तुमने मन में बांध रक्खो है कि आज राम का मुंडन देखने तुम नहीं गयीं। तुम्हारे पास नाई और बारी आये और दस ब्राह्मण भी आये। रानी ने अपना दसौंधी भी भेजा; परन्तु तब भी तुम नहीं गयीं ? ॥७৷৷

कोप पलंग पर रानो कैकेयी पड़ी हुई है और दरवाजे पर राजा दशरथ हाय जोड़ कर खड़े-खड़े विनती करते हैं- हे रानी ! जो वर तुम मांगोगो, वह मैं तुमको दूंगा ।।८।।

रानी ने कहा- राजन् ! माँगने को तो मैं मांगती हूँ। पर डरती हूँ, कहाँ तुम अस्वीकार न कर दो।

मैं राम लक्ष्मण को वन जाने और भरत का राज्य पाने का वर आप से माँगती हूँ ॥९॥

राजा ने कहा-अरी कंकेयी! मांगने को तो तुमने वर मांगा; परन्तु सच पूछो, तो तुम माँगना नहीं जानती हो। तुम संपूर्ण राज पाट तो माँगतो हो हो; परन्तु राम और लक्ष्मण के बन जाने को बात क्यों कहती हो ? राम और लक्ष्मण, वे दोनों मेरी आँखों को पुतलियाँ हैं। वे बनवास करने जायेंगे, तो मैं कैसे जोवित रहूँगा ? ॥११॥

अरे मेरे लाली नाम के बछड़े को कौन मुझसे छीन रहा है-- अवधपुरी की गलियों में राजा दशरथ पागल-सा बनकर पुकारने लगे ॥१२॥

सोने को खड़ाऊँ पहनकर राम और लक्ष्मण माता के महल में गये और बोले- हे माँ ! प्रसन्न होकर हमें आशोष दो कि हम बन को जाय । ॥१३॥

कोशल्या ने कहा- जो राम लक्ष्मण मेरी दोनों आँखों को पुतलियाँ हैं, उनको बन जाने को आशीर्वाद भी मैं कैसे दूँ ! हाय ! मेरी पाली हुई लहलहाती लेनो पर पाला पड़ गया ।॥१४॥ 

चइत के तिथि नउमी त राम जग रोपेले हो। बिना रे सीता जग सून त के जग देखई हो ॥१॥ मचिहि बइलि कोसिला रानी भितरा अरज करइँ हो। राजा ! तोहरे मनवले सीता मनिहें मनाइ लेइ आवहु हो ॥२॥ लछिमन ! सुन मोरे भड़या विपतिया के नायक हो। तोहरे मनवले सीता मनिहें मनाई लेई आवहु हो ॥३॥ हमरे मनवले नाहीं मनिहें सीता नाहीं अइहई हो। भइया ! भेजी न गुरुजी हमार मनाइ लेइ आवसु हो ।।४।। अगवां के घोड़ा वसिठ मुनि पिछवा के लक्षिमन हो। हेरे लगलें रिखि के मड़इया जहाँ सीता तप करइँ हो ॥५॥ अंगना बहरइत चेरिया त बाबा के दसियवा नु हो। सीता ! आवत गुरुजी तोहार त पाछे लछिमन देवरू नु हो ।।६।। कचन आरती जे साजेली साजि संवारेली हो। गुरुजी के अरती उतारि निहुरि पाँव लागली हो ।।७।। अतना अकिल सीता ! तोहरा त बुधिया के आगर हो। कवन हृदय दुःख मनलू अजोधिया तजि दिहलू हो ।।८।। रउरो कहल गुरु! करवों, परग दस चलबों, लवटि चलि अइवों हो । गुरु ! ओही रे निठुरवा के मुहाँ मों कइसे के देखबि हो ? ॥९॥ अगिया में लाइ राम दहलनि पनिओ नाही लवलनि हो। अस केरा राम बियोगले सपनयों चित ना मिलहइँ हो ॥१०॥

चैत को नौमी तिथि है। राम ने यज्ञ ठाना है। बिता सोता के यज्ञ

सूना दीख रहा है। कोन यज्ञ देखने के लिये यज्ञशाला में जाय ? मंचिया पर

कौशल्या बैठी हैं। वह भीतर दशरथ से नम्र शब्दों में कह

रही हैं- हे

राम ! तुम्हारे मनाने से सीता मान जायेंगी। जाओ उनको मनाकर ले

आओ ।॥१-२।। 

राम ने लक्ष्मण से कहा- हे भाई लक्ष्मण! तुम विपत्ति के नायक हो। तुम्हारे मनाने से सीता मानेगो, तुम जाओ, उनको मनाकर ले आओ'। लक्ष्मण ने उत्तर दिया- मेरे मनाने से सीता नहीं मानेंगी। वे नहीं आवेगी। हे भाई ! आप गुरु (ब्रशिष्ठजी) को भेज दीजिये, वे मना कर ले आवें ॥२-४।।

घोड़े पर सवार होकर आगे-आगे वशिष्ठ मुनि ओर पोछे-पीछे लक्ष्मण षि के आश्रम पर गये ।।५।।

आँगन बुहारने वाली चेरी ने कहा- हे सीता रानी ! तुम्हारे गुरु वशिष्ठ और उनके पीछे देवर लक्ष्मण चले आ रहे हैं ।।६।।

सीता ने सोने को थाल में आरती सजायी। फिर विविध प्रकार से सवार कर याल ठीक किया। और तब उन्होंने गुरु की आरती उतार कर

उन्हें झुककर दण्डवत किया ॥७॥ गुरु ने कहा- हे देवी तुम को इतनी समझ है और तुम इतनी बुद्धिमती

भी हो कि मेरी आरती उतार रहो हो; पर तुम्हें क्या दुःख हुआ कि तुमने अयोध्या को त्याग दिया ।।८।।

सीता ने कहा- हे गुरुजी ! में आपका कहना करूंगी। दस पग अयोध्या की ओर चलूंगी, पर फिर लौट कर वापिस चली आऊँगी। हे गुरु ! में उस निठुर का मुख कैसे देख सकूंगी, जिसने अग्नि में डालकर मेरी परीक्षा की। उस पर पीने को थोड़ा पानी भी नहीं दिया। हे गुरु ! इस तरह राम ने मुझे वियोग में जलाया है कि अब मेरा चित्त उनसे स्वप्न में भी नहीं मिलेगा ॥१०॥

( २९ )

घिउआ क काहेली सोहनिया त दूधवा क जाउरि कइली हो। लिहेली आँचर तर ढाँकि रमइया हेरई हो निकसेली हो ॥१॥ एक वन गइली दूसर बन तिसरी बइरि मिली हो। बहरी ! एहि बाटे गइले मोरे राम त मोहि के बताबहु हो ।॥२॥ 

विलमाई रखलों आपना पुरुस अस अपना गोतिनी अस हो। रानी ! यहि वाटे गइले तोहार राम पगड़िया उनकर अरुलेले हो ।।३।। विलमाई के रखल अपना पुरुप अस अपना, गोतिनी अस हो। बहरी ! घवदन घवदन फरीहह घवदवन पकिहह हो। बहिनी, हमके बतवल हमरा लाल के जिअरा हुलसि उठल हो ।।४।। एक वन गइली दूसर वन तिसरे चकइया मीललि हो। चकई ! एहि बाटे गइले मोरे राम त मोरा के बतावहु हो? ॥५॥ विहरत रहलों पुरुस संगे अपना चकवा संगे हो। रानी ! मैं नाहीं देखलों तोहार राम त कइसे बतावहुँ हो ।॥६॥ विहरत रहलू अपना पुरुस संगे अपना चकवा संगे हो। रतिया के होखिहन विछोह जोड़ा तोरा एक बन गइली दूसर बन तीसरे धोबिन धोविन! एहि बाटे गइले मोर राम त मोरा के बतावहु हो ? ।॥८॥ सूतल रहली अपना पुरुस संगे अपना धोबिया संगे हो। रानी ! यही बाटे गइले तोहार राम पगड़िया उनकर घोअली हो ।।९।। धोअत रहवु अपना पुरुस संगे अपना धोबिया संगे हो। तोहरा के देली जनम अहिवात जनम जुग सेनर हो ॥१०॥ फुटिहनि हो ।।७।। मीललि हो।

कौशल्या घो को पूड़ी और दूध को खोर पकाकर, अञ्चल के नीचे छिपा-

कर राम को ढूढ़ने निकलीं। वे एक वन में गयीं, फिर दूसरे बन को पार

कर तीसरे वन में उन्हें बेर का वृक्ष मिला। उन्होंने उसको सम्बोधन करके

पूछा- हे बेर! यदि इस मार्ग से राम गये हों तो मुझे बताओ ।।१-२।।

वेर के वृक्ष ने कहा- हे रानी! जब इस मार्ग से तुम्हारे राम जा

रहे थे तो मैंने उनको आदि पुरुष परमेश्वर समझ कर उनको पाग में उलझ

कर उनको बिलमाना चाहा था ।।३।।

कौशल्या ने कहा- हे बेर के वृक्ष, तुम अपने मूल पुरुष को बिलमाते

रहे, इसलिये मेरा वरदान है कि घौद के घौद में फलते और पकते रहना। 

हे भाई, तू ने मुझे मेरे भूले पुत्र का पता बताया, उससे मेरा हृदय हवित हो उठा ।।४!!

वहाँ से कौशल्या आगे के वन में गयीं। एक वन को पार करके दूसरे और तीसरे बन में उन्हें चकई चिड़िया मिलो। उन्होंने उससे पूछा- हे चकई ! यदि इस मार्ग से मेरे राम गये हों, तो मुझे बताओ ।॥५॥

चकई ने तिरस्कृत स्वर में कहा- हे रानी में अपने पुरुष चकवा के साथ विहार करतो थी। मैंने तुम्हारे राम को नहीं देखा। क्या बताऊँ ।।७।।

रानी ने शाप दिया- हे चकई, तुम अपने पुरुष के साथ विहार करती रहीं और राम को नहीं देख सको तो तुम्हें रात को चकवा से विछोह हो जाया करेगा। तेरी जोड़ी रात में टूट जाया करेगी ।।७।।

वहाँ से कौशल्या फिर चलीं। एक वन के बाद जब दूसरे को पार करके तीसरे वन में पहुँची तब उन्हें धोबिन मिली, उन्होंने उससे पूछा- हे धोबिन ! मुझे बताओ। क्या इस मार्ग से राम अभी गये हैं? ॥८॥

धोबिन ने कहा- हे रानी! मैं अपने पुरुष के साथ यहां कपड़ा धोतो थी। इसी मार्ग से तुम्हारे राम मुझे मिले थे। मैंने उनको पगड़ी धो दो यो ॥९॥

रानी ने कहा- हे धोबिन, तुमने अपने पुरुष के साथ राम का कपड़ा धोया है; इसलिये मैंने तुझे आजन्म सुहाग का वर दिया। तुम्हारा सिन्दूर जन्म-जन्म युग-युग अचल रहे ।।१०।।

( ३० )

देवकी जे चलली असनान करे ओही रे जमुना दहे हों। बहिनी ! एहिरे जमुना धसि मरितों त जनम अकारथ भइलो हो ।।१।। बइंठि बुलावेली जसोदा रानी सुनु वहिनी देवकी नु हो। बहिनी ! कर बमुदेव के सेवा पहिले पहर रानि गइले हरिअर बांन करिथवा तोर जनम सवारथ होइहें हो ।॥२॥ सपन एक देखे ली हो। दुआरे भीर लागल हो ।। ३।। 

काहे के घइलवा, कवन सुत डोरी नु हो। ऐ ललना, कवन सखी पनिया के जाय त सत जस साधेलेन हो ।॥ २॥ केहू सखि जल भरे केहू सखि मुंह धोवे हो। ए ललना, केह सखि जात निहारे तिरिभवा एक रोअति हो ॥ ३॥ ना देखी नइया नाहीं बेडवा तीरे घटवार भइआ हो। रे ललना, केइ, बीखे उतरवि पार तिरिअवा जाइ बोधवि हो ।।४।। अँचरा लपेटली, फुफुती काछा बँन्हली सखि सभ दह विच कूदेली हो। ए ललना, छातो तरे घइला ओठघाँइ जमुन दह पार भइली हो ।।५।। ए ललना, किया तोरे सासु ननद दुखं नइहर दूर बसे हो। ए तिरिया ! किया तोरा कंत विदेस कवन दुखवे रोवेलू हो ।।६।। ना मोरा सासु ननद दुख नइहर दूर बसे हो। ए ललना, ना मोरे कंत विदेस कोखिए दुख रोईला हो ।।७।। सात पुतर राम दिहले सकल कंस हर लिहलसि हो। ए ललना, अठवें गरभ अवतार तेकरो आस नाहीं नु हो ।।८।। दीदी ! चुप रहु चुप रहु देवकी हहि काम आइवि हो। ए ललना, आपन बालक में वेचवि तोरा के जुड़ाइवि हो ।॥९॥ नूनवा उधार तेल पाइच अवरू तेल पाँइच हो। ए ललना, कोखिया के कइसन पांचइ कइसे घिरिज धरों हो ॥ १०॥ सखि ! विनवहु घर के त देवता उहे सभ भार हरिहें हो। सखि ! चांद सुरुज सव अवरू गंगा माता विनवहु हो ।॥ ११॥

श्रावण के शुभ दिन में घर से यशोदा बाहर निकलीं और यमुना का निर्मल जल भर लायीं ॥१॥

यशोदा ने किस कारण से घड़ा भरा और घड़ा भरते समय किस सूत

की बनी हुई डोरी का प्रयोग किया यह कोई बतावे तो ? अरे वह कौन

ऐसी सौभाग्यवती स्त्री, होगी जो इस तरह यशोदा के समान पानी भरने

जायगी और सत्य रूपी यश की भागी बनेगी ? ॥२॥

कोई सखी जल भर रही है और कोई सखी मुंह धो रही है। कोई

चलते-चलते किसी रोती हुई स्त्री को एकटक देख रही है ।।३।। 

किसी सखी ने कहा- अरे ! यहाँ घाट पर में नाव नहीं देखती हूँ, हे घटवार भाई ! यहाँ कोई अपना पराया भी नहीं दीखता है। अरे ! में किस चीज से पार उतरूँ और कैसे उस रोती हुई स्त्री को जाकर समझाऊँ ॥४।।

उस स्त्री ने अपने अंग के वस्त्रों को समेट कर कछोटा बाँधा ओर छाती के नीचे घड़ा रखकर उसके सहारे तैर कर यमुना को पार किया ॥५॥

वहाँ उसने उस रोती हुई स्त्री से पूछा- हे सलो ! तुझे तेरो सास और ननद का दुख है या तेरा मायका दूर बसता है, या तेरा स्वामी विदेश में है, बताओ तो, किस दुख के कारण तुम रो रही हो ? ॥६॥

स्त्री ने उत्तर दिया- 'मुझे न सास का दुःख है, न ननद का, और

न मेरे स्वामी ही विदेश में हैं। न मेरा मायका बहुत दूर है कि जिसके कारण

मैं रो रही हूँ। हे बहन ! मैं यहाँ केवल सन्तान के दुख से रो रही हूँ। इश्वर

ने मुझे सात पुत्र दिये। कंस ने सब का नाश किया। अब आठवें गर्भ का

अवतार है; पर इसके बचने का भी मुझे भरोसा नहीं होता' ।।७-८।।

स्त्री ने कहा- हे देवकी! तुम चुप हो। मैं तेरे काम आऊँगो । मैं अपना बालक देकर तुमको सुखो करूंगी' ।।९।।

देवकी ने कहा--'अरे नमक और तेल का उधार होता है। यह सन्तान के उधार पाँइच की कैसी बात सुनती हूँ, मेरी समझ में नहीं आता। हाय ! मैं किस तरह से धैर्य्य धारण करूँ' ? ॥१०॥

स्त्री ने कहा- हे सरत्री ! मैं गृह देवकी तथा सब देवताओं और धर्म की-चन्द्रमा, सूर्य्य और गंगा माता की भी साक्षी देकर कहती हूँ कि हमारी तुम्हारी यह प्रतिज्ञा निश्चित रूप से सच होगी। में लाख दैत्यों का बघ करूंगी। कंस को जलाकर राख कर दूंगी और तुमको सुख पहुँचाऊँगी

( ३२ )

॥११-१२॥

जनमेलों दुख केरा, राति, परलों भव सागर हो। ललना, सुति गइलों भरम भुलाइ, कुमति कइ आगर हो १।। 

सतगुरु दिहलनि जगाइ, उठलों अकुलाइ केरा हो। ललना, टूटि गइले भरम के फंद, परम सुख पावल हो ।॥२॥ पिया केरा दिहलनि मिलाइ पिया अपनवलनि हो। ललना, आपन चेरिया बनाइ, परम पद दिहलनि हो । ३।। सत सुकीरित कर घइलवा, परेम केरा लेजुर हो। ललना, पनियाँ भरऊँ अक झोरि माँग भरि सेनुर हो ।।४।। सामु मोरा सुतें गजोवरि, ननदि मोरा आँगन हो। ललना, हम धनीं सुतीं धरवरह, पिया संगे जागन हो ।।५।। झिरिहिरि बहे ली बयारि, अमिय रस ढरकइँ हो। ललना, ओर से नवरंगिया के डारि, चॅनन गांछ गमकइ हो ।।६।। तेहि चढ़ि बोले मोरा हँसा, सवद सुनि के बाउर हो। ललना, मंगल पलटू गावे ले, जगवा से नाउर हो ।।७।।

( ३३ )

आरे आरे सुरति सोहागिन, पइयाँ तोरा लगाऊँ हो।

ललना, रूठत कंत मनावहु, इहे वर

तोहरे मनवले ए सुरति देई, जहुँ पिया

मागऊँ हो ॥१॥

अइहइँ हो।

ललना, उजरल नगर बसइवू, मोके जुड़वइ नु. हो ॥२॥

गजमोति चउक पुरावहुँ कलस भरावहुँ हो।

ललना, उचवें अइ बइठावहुँ, पियवा जो पावहुँ हो ।।३।।

तू जनि मोहि अगुतावहु, नरक जनि लावहु हो।

ललना, कंत से तोरा के मिलावहुँ, तु सुरति कहावहुँ हो ।।४।।

बरहें वरिस पर पिया मोरा अइले, त हमे गोहरावहि हो।

ललना, गगना केवारी खोलावेले, हमके मनावे ले हो ॥५॥ः

पलटूदास भरम सब भागेले, चित अनुरागे ले हो।

ललना, मन वांछित फल पावेले, तू वेरि नाहि लागेले हो ।।६।। 

जेकरे अंगना नवरेंगिया, सेत कइसे सूतइ हो। लहर लहर बहु होय, सवद सुनि दोवड़ हो ।।१।।

जेकर पिया परदेस, नींदरि नाहीं आवइ हो। चउँकि चउँकि उठे जगि, सेजरिया नाहीं भावइ हो ॥२॥

रयन दिवस मारे बान, पपीहरा बोलइ हो। पिया पिया लावइ सोर, सवति होइ डोलइ हो ।॥ ३॥

विरहिनि रहेली अकेल, तू कइसे केरा जेकरे अमिय कइ चाह, जहर कइसे जोवइ हो। पीवइ हो ।।४।।

अभरन देहुँ बहाय, बसन घइ फारउँ हो। पिया बिना कवन सिगार, सीस देइ मारउँ हो ।।५।।

भूख लगाइ नींद, विरह हिया हरकइ हो। मॅगिया सेनूर मसि पोछउँ, नयन जल दुरकइ हो ।।६।।

कापर करऊँ सिगार, तू काके दिखलावउँ हो। जेकर पिया परदेस, से काके रिक्षावइ हो ।।७।।

रहेली चरन चित लाइ, सोवे धन आगर हो। पलटुदास कइ सवद, विरह केरा सागर हो ।।८।।

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लेख
भोजपुरी लोक गीत में करुण रस
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"भोजपुरी लोक गीत में करुण रस" (The Sentiment of Compassion in Bhojpuri Folk Songs) एक रोचक और साहित्यपूर्ण विषय है जिसमें भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से लोक साहित्य का अध्ययन किया जाता है। यह विशेष रूप से भोजपुरी क्षेत्र की जनता के बीच प्रिय लोक संगीत के माध्यम से भोजपुरी भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं को समझने का एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है। भोजपुरी लोक गीत विशेषकर उत्तर भारतीय क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से समृद्ध हैं। इन गीतों में अनेक भावनाएं और रस होते हैं, जिनमें से एक है "करुण रस" या दया भावना। करुण रस का अर्थ होता है करुणा या दया की भावना, जिसे गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। भोजपुरी लोक गीतों में करुण रस का अभ्यास बड़े संख्या में किया जाता है, जिससे गायक और सुनने वाले व्यक्ति में गहरा भावनात्मक अनुभव होता है। इन गीतों में करुण रस का प्रमुख उदाहरण विभिन्न जीवन की कठिनाईयों, दुखों, और विषम परिस्थितियों के साथ जुड़े होते हैं। ये गीत अक्सर गाँव के जीवन, किसानों की कड़ी मेहनत, और ग्रामीण समाज की समस्याओं को छूने का प्रयास करते हैं। गीतकार और गायक इन गानों के माध्यम से अपनी भावनाओं को सुनने वालों के साथ साझा करते हैं और समृद्धि, सहानुभूति और मानवता की महत्वपूर्ण बातें सिखाते हैं। इस प्रकार, भोजपुरी लोक गीत में करुण रस का अध्ययन न केवल एक साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भी भोजपुरी सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों की अद्भुत अभिवृद्धि को संवेदनशीलता से समृद्ध करता है।
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भोजपुरी भाषा का विस्तार

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भोजपुरी में वीर रस की कविता की बहुलता है। पहले के विख्यात काव्य आल्हा, लोरिक, कुंअरसिह और अन्य राज-घरानों के पँवारा आदि तो हैं ही; पर इनके साथ बाथ हर समय सदा नये-नये गीतों, काव्यों की रचना भी होती रही

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भोजपुरी लोक गीत

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जतसार गीत जाँत पीसते समय गाया जाता है। दिन रात की गृहचर्य्या से फुरसत पाकर जब वोती रात या देव वेला (ब्राह्म मुहूर्त ) में स्त्रियाँ जाँत पर आटा पीसने बैठती हैं, तव वे अपनी मनोव्यथा मानो गाकर ही भुलाना

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राग जंतसार

23 December 2023
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( १७) पिआ पिआ कहि रटेला पपिहरा, जइसे रटेली बिरहिनिया ए हरीजी।।१।। स्याम स्याम कहि गोपी पुकारेली, स्याम गइले परदेसवा ए हरीजी ।।२।। बहुआ विरहिनी ओही पियवा के कारन, ऊहे जो छोड़ेलीभवनवा ए हरीजी।।३।। भवन

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भूमर

24 December 2023
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झूमर शब्व भूमना से बना। जिस गीत के गाने से मस्ती सहज हो इतने आधिक्य में गायक के मन में आ जाय कि वह झूमने लगे तो उसो लय को झूमर कहते हैं। इसी से भूमरी नाम भी निकला। समूह में जब नर-नारी ऐसे हो झूमर लय क

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२५

26 December 2023
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खाइ गइलें हों राति मोहन दहिया ।। खाइ गइलें ० ।। छोटे छोटे गोड़वा के छोटे खरउओं, कड़से के सिकहर पा गइले हो ।। राति मोहन दहिया खाई गइले हों ।।१।। कुछु खइलें कुछु भूइआ गिरवले, कुछु मुँहवा में लपेट लिहल

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राग कहँरुआ

27 December 2023
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जब हम रहली रे लरिका गदेलवा हाय रे सजनी, पिया मागे गवनवा कि रे सजनी ॥१॥  जब हम भइलीं रे अलप वएसवा, कि हाय रे सजनी पिया गइले परदेसवा कि रे सजनी 11२॥ बरह बरसि पर ट्राजा मोर अइले, कि हाय रे सजनी, बइठे द

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भजन

27 December 2023
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ऊधव प्रसंग ( १ ) धरनी जेहो धनि विरिहिनि हो, घरइ ना धीर । बिहवल विकल बिलखि चित हो, जे दुवर सरीर ॥१॥ धरनी धीरज ना रहिहें हो, विनु बनवारि । रोअत रकत के अँसुअन हो, पंथ निहारि ॥२॥ धरनी पिया परवत पर हो,

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भजन - २५

28 December 2023
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(परम पूज्या पितामही श्रीधर्म्मराज कुंअरिजी से प्राप्त) सिवजी जे चलीं लें उतरी वनिजिया गउरा मंदिरवा बइठाइ ।। बरहों बरसि पर अइलीं महादेव गउरा से माँगी ले बिचार ॥१॥ एही करिअवा गउरा हम नाहीं मानबि सूरुज व

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बारहमासा

29 December 2023
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बारहो मास में ऋतु-प्रभाव से जैसा-जैसा मनोभाव अनुभूत होता है, उसी को जब विरहिणी ने अपने प्रियतम के प्रेम में व्याकुल होकर जिस गीत में गाया है, उसी का नाम 'बारहमासा' है। इसमें एक समान ही मात्रा होती हों

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अलचारी

30 December 2023
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'अलचारी' शब्द लाचारी का अपभ्रंश है। लाचारी का अर्थ विवशता, आजिजी है। उर्दू शायरी में आजिजो पर खूब गजलें कही गयी हैं और आज भी कही जाती हैं। वास्तव में पहले पहल भोजपुरी में अलचारी गीत का प्रयोग केवल आजि

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खेलवना

30 December 2023
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इस गीत में अधिकांश वात्सल्य प्रेम हो गाया जाता है। करुण रस के जो गोत मिले, वे उद्धत हैं। खेलवना से वास्तविक अर्थ है बच्चों के खेलते बाले गीत, पर अब इसका प्रयोग भी अलचारी को तरह अन्य भावों में भी होने

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देवी के गीत

30 December 2023
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नित्रिया के डाड़ि मइया लावेली हिंडोलवा कि झूलो झूली ना, मैया ! गावेली गितिया की झुली झूली ना ।। सानो बहिनी गावेली गितिया कि झूली० ॥१॥ झुलत-झुलत मइया के लगलो पिसिया कि चलि भइली ना मळहोरिया अवसवा कि चलि

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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विवाह क गात

1 January 2024
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तर वहे गंगा ऊपर बहे जमुना रे, सुरसरि बहे बीच घार ए । ताहि पर बाबा रे हुमिआ जे करेले, चलि भइले बेटी के लगन जी ॥१॥ हथवा के लेले बावा लोटवा से डोरिया, कान्हावा धोती धई लेलनि रे । पूरब खोजले बावा पच्छिम ख

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पूरबा गात

3 January 2024
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( १ ) मोरा राम दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। दूनू भैया से बनवा गइलनि ना ।। भोरही के भूखल होइहन, चलत चलत पग दूखत होइन, सूखल होइ हैं ना दूनो रामजी के ओठवा ।। १ ।। मोरा दूनो भैया० 11 अवध नगरिया से ग

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कजरी

3 January 2024
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( १ ) आहो बावाँ नयन मोर फरके आजु घर बालम अइहें ना ।। आहो बााँ० ।। सोने के थरियवा में जेवना परोसलों जेवना जेइहें ना ॥ झाझर गेड़ वा गंगाजल पानी पनिया पीहें ना ॥ १ ॥ आहो बावाँ ।। पाँच पाँच पनवा के बिरवा

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रोपनी और निराई के गीत

3 January 2024
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अपने ओसरे रे कुमुमा झारे लम्बी केसिया रे ना । रामा तुरुक नजरिया पड़ि गइले रे ना ।। १ ।।  घाउ तुहुँ नयका रे घाउ पयका रे ना । आवउ रे ना ॥ २ ॥  रामा जैसिह क करि ले जो तुहूँ जैसिह राज पाट चाहउ रे ना । ज

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हिंडोले के गीत

4 January 2024
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( १ ) धीरे बहु नदिया तें धीरे बहु, नदिया, मोरा पिया उतरन दे पार ।। धीरे वहु० ॥ १ ॥ काहे की तोरी वनलि नइया रे धनिया काहे की करूवारि ।। कहाँ तोरा नैया खेवइया, ये बनिया के धनी उतरइँ पार ।। धीरे बहु० ॥

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मार्ग चलते समय के गीत

4 January 2024
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( १ ) रघुवर संग जाइवि हम ना अवध रहइव । जी रघुवर रथ चढ़ि जइहें हम भुइयें चलि जाइबि । जो रघुवर हो बन फल खइहें, हम फोकली विनि खाइबि। जौं रघुवर के पात बिछइहें, हम भुइयाँ परि जाइबि। अर्थ सरल है। हम ना० ।।

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विविध गीत

4 January 2024
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(१) अमवा मोजरि गइले महुआ टपकि गइले, केकरा से पठवों सनेस ।। रे निरमोहिया छाड़ दे नोकरिया ।॥ १ ॥ मोरा पिछुअरवा भीखम भइया कयथवा, लिखि देहु एकहि चिठिया ।। रे निरमोहिया ।॥ २ ॥ केथिये में करवों कोरा रे क

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पूर्वी (नाथसरन कवि-कृत)

5 January 2024
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(८) चड़ली जवनियां हमरी बिरहा सतावेले से, नाहीं रे अइले ना अलगरजो रे बलमुआ से ।। नाहीं० ।। गोरे गोरे बहियां में हरी हरी चूरियाँ से, माटी कइले ना मोरा अलख जोबनवाँ से। मा० ।। नाहीं० ॥ झिनाँ के सारी मो

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एगो किताब पढ़ल जाला

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