एक त मैं पान अइसन पातरि, फूल जइसन सूनरि रे, ए ललना, भुइयाँ लोटे ले लामी केसिया, त नइयाँ वझनियाँ के हो ॥ १॥ आँगन बहइत चेरिया, त अवरू लउड़िया नु रे, ए चेरिया ! आपन वलक मों के देतू, त जिअरा जुड़इती नु हो ।।२।। देसवा से वलु हम निकसवि, वसत्रों निखुझ वने रे, ए रानी ! आपन वलक नाहीं देवों, तोर नइयाँ वझिनियाँ के हो ।।३।। मोरा पिछुअरवा वढ़इआ भइआ ! वेभे चलि आवहु रे, ए बड़या ! काठे के होरिलवा गढ़ि देहु, त जिअरा जुड़ाइवि हो ।।४।। पीठिया उरेहले, त पेटवा, त हाथ गोड़ सिरिजे ले रे, ए. ललना, मुँहवाँ उरेहइत वढ़या रोवे, परनवाँ कइसे डालवि हो ।।५।। गोदवा में लिहली होरिलवा, त ओवरी समइली नु रे, ए सासु ! हमरा भइले नंदलाल, नइहरवा रोचन भेजहु हो ॥६॥ घाउ तुहुँ गॅउँआ के नऊआ ! वेर्गाह चलि आवहु रे, ए नउआ ! बहुआ का भइले नंदलाल, रोचन पहुँचावहु हो ।।७।। आंगना बहरइत चेरिया, त रानी के जगावे ले रे, ए रानी ! बबुनी का भइले नंदलाल लोचनवा नऊवा लावेला हो ।।८।। बोले के त ए चेरिया ! बोले लू, बोलहू नाहीं जानेलू रे, ए चेरिया ! मोर बेटी कोखो के वझिनियाँ, लोचन कइसन आइल हो ।।९।। खिरिकिन होइ जब देखली, त नऊआ झलके ला रे, ए ललना, वाजे लागल अनंद वधाव, महल उठे सोहर हो ॥१०॥ पसवा खेलत तँहुँ बबुआ, त पसवनि जनि भुलु रे, ए बवुआ ! तोहरा भइले भयनवा देखन तुहँ ज़ावहु हो ॥११॥ जब भइआ अइले अँगनाँ न वहिनी उदासेली रे, ए ललना, धक धक करेला करेजवा हमार पत गइल नु हो ॥१२॥ जव भइया अइले ओवरिया, त बलका उठावेले हो, ए ललना, मन विखे आदित मनावे ली, मोर पत राखहु हो ।।१३
हथवा के लिहले होरिलवा त मंहवा उधारेलेनि रे, ए ललना, ठुमुकि ठुमु कि होरिला रोवेले, से आदित देआल भइले हो ।।१४।।
इस सोहर को भाषाशास्त्र-विशारद श्री पं० उदयनारायणजी त्रिपाठी एम० ए०, साहित्यरत्न में मुझको दिया। इसी के साथ एक अन्य लोहर भो दिया, जो सोहर नं० १४ के साथ उद्धृत है। इन दोनों की सुन्दरता की प्रशंसा में उन्होंने मुझसे कहा कि जब उन्होंने इन दोनों सोहरों को भाषा- विज्ञान के पण्डित थी डाक्टर सुनीतिकुमार चटजों को कलकत्ते में सुनाया, तो मारे करुणा के वे रोने लगे और कहने लगे कि ऐसे सुन्दर पद का अनुवाद अंग्रेजी तथा फ्रेंच आदि भाषाओं में प्रकाशित करना चाहिए ।
अर्थ-एक ओर तो मैं पान ऐसी पतली और फूल के समान सुन्दरी हूँ और मेरे लम्बे चीकने केश पृथ्वी पर लोटा करते हैं; पर दूसरी ओर मेरा नाम बाँझ पड़ गया है। ॥१॥
आँगन झाड़ती हुई री चेरी ! तू मेरी दासी है। अपना बालक तू जरा मुझे दे देती, तो मैं उसे खेलाकर अपना हृदय शोतल करती ।।२।।
दासी ने कहा- हे रानी! तुम मेरे दासो होने की धमकी देकर मुझसे मेरा बालक चाहती हो। भले ही तुम मुझे घर से निकाल बाहर करो। मैं बीहड़ वन में जाकर बत्त लूँगी; पर तुमको अपना बालक नहीं छूने दूंगी क्योंकि तुम्हारा बाँझ नाम पड़ चुका है ॥३॥
रानी बेचारी हृदय को चोट से आहत होकर बोल उठी- अच्छा ! मेरे पिछवाड़े मेरा हित रहता है। हे भाई ! तुम जल्द यहाँ आओ। हे भाई बढ़ई ! तुम काठ का बालक गढ़ दो। मैं उसी को खेला कर अपने हृदय की आकांक्षा को शान्त करूंगी ।।४।।
बढ़ई ने बालक की पोठ बनाई। फिर पेट, हाथ, और गोड़ का सृजन किया; पर जब बालक का मुंह बनाने लगा, तब रोने लगा। कहने लगा- हा ! में इस बालक में प्राण कैसे पाऊँ कि डालूँ ! ॥५॥
बढ़ई ने काठ का बालक बना कर बाँझ रानी को दे दिया। उसने बालक को गोद में लिया और ओबरी में समा गयी। भीतर से उसने कहा- हे सास- जो ! हमको नंदलाल हुआ है। हमारे मायके आप रोचन भेज दो ॥६॥
सास ने (मन हो मन खोझ कर बहू को उसके भाई के सामने नीचा दिखाने के अभिप्राय से) गाँव के नाऊ को दोड़कर बुलवाया। कहा- हे नाऊ ! मेरी बहू को बालक उत्पन्न हुआ है, तुम दोड़ जाओ उसके मायके, रोचन पहुँचा आओ ।॥७॥
नाई बहू के मायके पहुँचा, तो चेरो आँगन बुहार रही थी। उसने उससे रोचन का संबाद कहा। चेरी ने रानी को जगाकर कहा- हे रानी ! तुम्हारी कन्या को पुत्र उत्पन्न हुआ है। नाई रोचन लेकर आया है ॥८॥
माता ने कहा--री चेरी! तू बातें बोल देती है, पर बोलना जानतो नहीं। मेरी कन्या तो बाँझ है। भला उसके यहाँ से रोचन कैसे आवेगा ? ॥९॥
इतना तो डाटकर कह दिया। पर माता को बोध नहीं हुआ। खिड़की से झाँक कर उसने जब बाहर देखा, तो नापित की झलक दिखाई पड़ी। बस उसे रोचन के संवाद की तथ्यता पर विश्वास हो गया। आनन्द-बधावा बजने लगा और महल में सोहर-गान होने लगा ॥१०॥
माता हुलसी हुई अपने पासा खेलते हुए पुत्र के पास पहुंची। कहा- हे पुत्र ! तुम पासा खेलते हो, तो उसी में भूल मत जाओ। सुना नहीं ! तुमको भान्जा उत्पन्न हुआ है। तुम उसे देखने जाओ ॥११॥
भाई जब आँगन में अपने नवजात भान्जा को देखने आया, तो उसकी बहन उदास हो गयो। उसका कलेजा धक-धक धड़कने लगा। वह सोचने लगी कि हाय! अब हमारी पत गई ॥१२॥
जब भाई ओबरी में आया और बालक उठाने लगा, तो बहन मन ही मन सूर्य भगवान् की प्रार्थना करने लगी कि हे सूयं भगवान् ! मेरी पत रखो ।।१३।।
भाई ने हाथ में होरिला को उठा लिया और उसका मुँह खोला। बस ठुमक ठुमुक कर होरिला सूर्य्य भगवान् की कृपा से रोने लगा।
बहन ने कहा-धन्य ! भगवान् सूर्य्य ने दया को। मेरी पत रख ली ॥१४॥
सचमुच बाँझ की दशा को देखकर और उसको पुत्रोत्पत्ति को आकांक्षा को समझ कर कीन सहृदय द्रवित नहीं हो उठेगा ? एक तो स्वभाव से ही स्त्री का हृदय पुत्र के लिये मचलता रहता है, उस पर हमारे समाज को रोति-रस्म जिसमें वांझ से बालक छुलाना या सन्तान न पैदा हुई नववधू का छू जाना बुरा माना जाता है। चेरी तक ने भी अपने बालक को बांझ को छूने नहीं दिया। इन दोनों कारणों से इस बाँझ के हृदय पर तब कितना बड़ा वज्त्र- घात हुआ होगा, जब उसने विवश होकर असली नहीं नकली हो पुत्रोत्पत्ति का स्वांग रचा और उसका संवाद मायके तक पहुँचवाया, पर भगवान् ने अन्त में भाई के आने पर उसको लाज रख ली। कला कितने सुन्दर रूप में यहाँ अंकित की गई है। रचनाचातुरी भी बहुत ऊँचे दजें की है।
(४) सोने के खरउवा राजा राम कउसिला से अरज करें हो। हुकुम ना दीं मोरो मइया में बन के सिधारउँ हो ॥१॥ जवने राम दुधवा पिअवलों घीऊ सेनि अवटलों हो। अरे-मारे भितरा से विहरेला करेजवा में कइसे वन भाखों हों? ॥२॥ राम तो मोर करेजवा लखन मोरी पुतरिअ हो। अरे रामा, सीतारानी हाथे केरा चुरिआ में कइसे बन भाखो हो ? ।। ३॥ राम गइले दुपहरिया लखन तिजहरिआ हो। सीता मोरी गइली संझलीकै में कइसे जिअरा बोधों हो ॥४॥ पोअली में घीऊ के लुचुइआ दूधवा कर जागर हो। अरे रामा, अतना जेवनवा मोरे बिख भइले राम मोरा बन गइले हो ।।५।। चारि मंदिल चारि दीप बरे हमरो अकेल बरे हो। रामा, मारे लेखे जग अधिआर राम मोरे बन गइले हो ।।६।।
भीतरा से निकलीं कोसिला रानी नयनन नीर बहे हो। रामा, रामलखन सीया जोड़िया कवने बन होइहइँ हो ।।७।।
घर घर फिरेली कोसिला त लरिका बटोरली हो। लइकन ! तनी एका रचीं न घामरि त राम विरइतीं नु हो ।।८।।
राम बिनु सूनी अजोधिआ लखन बिनु मंदिल हो। मोरी सीता बिनु सूनी रसोइआ कइसे जिजरा वोववि हो ।॥९॥
मंदिल दीप जरइवई सेजिया गलइबइ हो। रामा, आधी रात होरिला दुलरइवइ जनुक राम घरहई हो ॥१०॥
सावन भदउआ केरा रतिया घुमड़ि घन बरिसेले हो। रामा, राम लखन दुनो भइया कतहुँ होइहें भीजत हो ॥११॥
मोरे नाहीं भावे ले हो। जाहाँ मोरे लरिकन हो ।॥१२॥ रिमिक झिमिक देव वरिसेले देव ! ओही बने जाइ बरिसटु
लखन सिरे पटुका हो। राम के भीजेला मुकुटवा मोरी सीता केरा भीजेला सेनुरवा लवटि घरवा आवहु हो ।।१३।।
अर्थ-सोने के खड़ाऊँ पर चढ़ कर भी श्री राजा रामचन्द्र कौशल्या के यहाँ जाते हैं और निवेदन करते हैं कि हे मेरी माता! मुझे अब आज्ञा प्रदान करो कि मैं अब बन के लिये प्रस्थान करूँ ॥१॥
कौशल्या ने मन में सोचा-जिस राम को मैंने छाती का दूध पिलाया, घी मल-मल कर शरीर पुष्ट किया, उस राम के बन जाने की बात में अपने मुख पर किस तरह लाऊँ? ऐसा करते भीतर से हा! कलेजा बिलख उठता है ॥२॥
राम तो मेरा हृदय है। लक्ष्मण मेरी आँखों की पुतली है। और सोता मुझे अपने हाथ को चूरी समान है अर्थात् अहिवात के समान प्रिय हैं। मैं किस तरह से इनके बन जाने की बात अपनी जिह्वा पर लाऊँ ? ॥३॥
राम ने दोपहर दिन को वन-प्रस्थान किया। लक्ष्मण तीसरे पहर गये। और मेरी सोता ने सन्ध्या होते वन को यात्रा को। हाय! मैं अपने हृदय को किस भाँति बोध दूँ ? ॥४।।
मैंने घो की पूरी पकायी। दूध को खोर बनायी। परन्तु हा ! ये सब व्यञ्जन विष समान व्ययं हो गये। मेरे राम बन को चले गये ।।५।।
चारों मंदिरों में चार-चार दोपक जल रहे हैं; परन्तु मेरे भवन में केवल एक हो (राम के पुनः घर लौटने को आशा का) दोप जल रहा है। हाय राम ! मेरे लिये संसार अँधेरा हो रहा है। राम मेरे वन को चले गये ॥६॥ राजमहल के अन्तर कक्ष से (व्याकुल होकर) कौशल्या रानो बाहर निकल पड़ीं। उनके नेत्रों से नोर बह रहे थे और विह्वल हो वे पुकार रही थीं- अरे ! मेरे राम, लखन और सीता को जोड़ो किस वन में होगी ? ॥७॥
कौशल्या ने घर-घर फिर कर लड़कों को इकट्ठा किया। लड़कों को एकत्र करके उन्होंने कहा- अरे बच्चो ! रच मात्र तुम लोग खेलते-कूदते और धौल-धप्पा मचाते, तो मैं राम को भूल सकती ।।८।।
राम के बिना अयोध्या सूनो है। लक्ष्मण के बिना घर निर्जन-सा हो रहा है। और मेरी प्यारी सोता के बिना मेरो रसोई सूनो दीख रही है। मैं किस भांति अपने हृदय को प्रबोध दूँ ? ॥९॥
सावन-भादों की रात है। घुमड़-घुमड़ कर मेघ बरस रहा है। हाय राम ! मेरे राम लक्ष्मण दोनों भाई कहीं भींग रहे होंगे! ॥१०॥
यह रिमझिम रिमझिम कर के मेघ जो बरस रहा है। यह मुझे नहीं साहाता । हे मघवा ! तुम वहाँ जाकर मत बरसना जहाँ मेरे लड़के है ॥११॥
हा ! इस बरसात में राम का मुकुट भोगता होगा। लक्ष्मण के सिर को पाग भींनती होगी। मेरी प्यारी सोता का सिन्दूर भी बिना भीगे नहीं बच्चा होगा। हे भगवान् ! उनको सद्धि दो कि वे घर लौट कर चले आयें ॥१२॥
वात्सल्य प्रेम का कितना स्वाभाविक, सुन्दर, सजीव एवं करुण चित्रण कवियित्री ने किया है। मातृ हृदय का रूप खड़ा कर दिया है।
(५)
सोरहो सिंगार सीता कइली अटरिया चढ़ि गइलनि हो।
रघुनन्दन क ड़ासल सेजिया सिरहाने ठाढ़ भइलिनि हो ॥१॥
पलक उधारि राम चितवें अभरन देखि भरमेले हो।
सीता ! कवन जरूर तोहरा लागेला? एतनि राति आवे लू हो ? ॥२॥
काहे लागि कइलू सिगार? काहे रे रालि अभरन हो ?
सीता ! काहे लागि चढ़लिउ अटरिया ? देखत डर लागेला हो ।।३।।
रउरे लागि कइली सिगारावा, रउरे लागि अभरन हो।
राजा ! रउरे तीनू लोक के ठाकुर भेंट करे अइली नु हो ॥४।॥ तू हूँ तीन लोक के ठाकुर तोहे देखि जग डरे हो। राजा ! तिरिया अलप सुकुमारी सेजरिया देखि भरमेली हो ।।५।। नइहरे ना बाटें वीरन भइया, ससुरे ना देवर हो। राजा ! मोरे गोदिया ना जनमल बलकवा, अंहककइसे पुजिहइँहो ? ।।६।। लाल पिअर ना पहिली, चउक ना बइठलीऊँ हो। सीता के दुरे ला नयनवन नीर पटुकवे राम पोंछेले हो ।।७।। पहिराइबि चउक बइठाइव हो । रानी ! तोहरा के राखवि पगिया पेंच नयनवाँ के भीतर हो ॥८॥ लाल पिअर
सोता ने सोलहों शृंगार किया और अटारो पर चढ़ गयीं। रघुनन्दन को
सजी हुई सेज थी। उसके सिरहाने जाकर खड़ी हुई ।।१।।
पलक खोलकर राम ने सीता को निहारा और उनके आभूषणों को
देखकर भ्रम में पड़कर बोल उठे हे सीते! तुम को क्या जरूरत पड़ी कि
इस रात को यहाँ आई ? ॥२॥
तुमने किसलिये शृंगार किया? किस कारण से आभूषण पहने ? हे सीते ! तुम क्यों अटारी पर चढ़ आई हो? तुझको देखते डर मालूम होता है ॥३॥
सीता ने कहा- मैनें आपके लिये शृंगार किया और आप हो के लिये आभूषण पहने। हे राजन् ! आप तीनों लोक के ठाकुर हो। आप से भेट करने हो में आई हूँ ॥४॥
आप तीनों लोक के ठाकुर हो। आपको देखकर संसार डरता है। है राजन् ! अल्पवयस्क सुकुमार त्रिया बिछी सेज देखकर भ्रम में पड़ जाती है, अर्थात् सहज वासनाग्रस्त हो उठतो है। ॥५॥
नहर में मेरे बीर भाई नहीं है, न ससुराल में देवर ही हैं। हे राजन् ! मेरी गोदी में एक बालक भी नहीं जन्मा। मेरो (अॅहक) मनोकामना कैसे पूरी होगी ? ॥६॥
लाल पीले वस्त्र में नहीं पहन सको, न चौक पर ही बैठ सकी। इतना कहते-कहते सोता की आँखों से आँसू बहने लगे ।।७।।
राम द्रवित होकर अपने दुपट्टे से उनके आंसू पोछने लगे और कहने लगे- हे सं ते ! मैं तुमको लाल-पीले वस्त्र पहनाऊँगा, चौक पर बैठाऊँगा, अपनी पगड़ी के पेत्र में रखूंगा तथा आंखों के भीतर सूद कर तुम्हें सदा के लिये हृदय में रख छोड़ गा ।।८।।
इसी भाव को लेकर सन्त कवि कबीर ने कहा है- आओ प्यारे मोहना, पलक बीच मुदि लेहुँ। ना में देखों तोहिको, ना कोइ देखन देहुँ।
प्रेम की पराकाष्ठा का कितना सुन्दर चित्रण है।
(६)
छोटे मोटे पेड़वा दृकुलिया त पतवारे लहलह हो। रामा, नाहि नरे ठाडि हरिनिया हरिना बाट जोहेली हो ।।१।।
बन में से निकलेला हरिना त हरिनी से पूछेला हो। हरिनी ! काहे तोर वदन मलीन? काहे मुह पीअर हो? ॥२॥ गइलो मैं राजा के दुअरिया त वतिया सुनि अइलों हो। पिआरे ! आजु छोटे राजा के बहेलिया हरित मरवइहद्द हो ।।३।। केइ जे वगिया लगवले? कोई रे आइ ढूँढेले हो ? । हरिनी ! केकर धनिया गरभ से हरिनवा मरवावे ली हो ? ॥४॥ दसरथ वगिया लगवले । लखन आइ दूडेले हो। पियारे ! रघुवर धनिया गरभ से हरिना मरवावेली हो ।।५।। कर जोरि हरिनी अरज करे-सुनी ना कोसिला रानी हो ! रानी ! सीता के होइहें नन्दलाल। हमर्माह कुछ दीहवि हो ? ॥६॥ सोनवाँ मढ़इवो दुनो सिंधिया भोजनवा तिल चाउ हो। हरिनी ! भुग तहु अजोधेया के राज अभय वनि विचरहु हो ।।७।।
ढाक का छोटा-सा पेड़ है। पत्तों से लहलहा रहा है। उसी के नीचे खड़ी-खड़ी हरिनी हरने को बाट जोह रही है ॥१॥
बन में से हरिन निकलता है ओर हरिनी से पूछता है- हे हरिनी! क्यों तुम्हारा मुख मलिन और पीला पड़ रहा है? हरिनी ने कहा- हे हरिन ! मैं राजा के दरवाजे पर गई थी, वहाँ बात सुन आई हूँ। हे प्यारे ! आज छोटे राजा के शिकारी हरिन को मरवावेंगे ।॥२-३।।
किसने बाग लगाया ? उसमें किसने आ करके खोज किया ? हरिनो ! किसकी स्त्री गर्भवती है, जो हरिन मरवातो है ? ॥४॥ दशरथ ने बाग लगाया। लक्ष्मण ने आकर के खोज को। हे प्यारे !
राम को स्त्री गर्भवती है, वही हरिन को मरवावेगी ॥५॥ हाथ जोड़ करके हरिनो कौशल्या से प्रार्थना करती है- हे कौशल्या रानी ! सुनो। सीता रानी को नन्दलाल होगा तो मुझको क्या दोगो ? ॥६॥ कौशल्या ने हरिनो का मतलब समझ कर कहा- हे हरिनो ! मैं तुम्हारे हरिन को सींगों को सोने से मढ़वा दूँगी ओर उसे खाने को चावल और तिल
दूंगी। हे हरिनी ! तुम अयोध्या का राज्य भोग करो। अभय हो करके वन में विचरण करो ।।७।।
(७)
छापक मेड़ छिउलिआ त पतवन गहवर हो। ताहि तर ठाड़ी हरिनिया त मन अति अनमन हो ॥१॥ चरत चरत हरिनिवाँ त हरिनि से पूछे ले हो। हरिनी ! की तोर चरहा झुरान कि पानी बिनु मुरझेलू हो ॥२॥ नाही मोर चरहा झुरान ना पानी बिनु मुरझोले हो। हरिना ! आजु राजा के छठिहार तोहे मारि डरिहें हो ॥ ३॥ मचियहि बइठेली कोसिला रानी हरिनी अरज करे हो। रानी ! मसुआ त सीझे ला रसोइआ खलरिया हमें दिहिती नू हो ।॥४।॥ पेड़वा से टाँगवि खलरिया त मनवा समुझाइबि हो। रानी ! हिरि फिरि देखबि खलरिया जनुक हरिना जीअतहि हो ।।५।। जाहु हरिनि ! घर आपाना खालरिया नाहीं देवई हो। हरिनि ! खलरी के खैजड़ी मढ़ाइवि राम मोरा खेलिहई हो ।।६।٤ जब जब बाजई सँजड़िया सवद सुनि हरनी अँहकइ हो। हरिनी ठाढ़ि ढेकुलिया के नीचे हिरन क बिसूरई हो ।।७।।
छपका हुआ (वह पेड़ जो ऊँचाई में कम हो और विस्तार उसका बड़ा हो) पेड़ ढाक का है। उसके पत्ते घने हैं। उस पेड़ के नीचे हरिनो खड़ी है। हरिनो का मन अनमना हो रहा है ॥१॥
चरता-चरता हरिन हरिनो के पास आता है और पूछता है- हे हरिनी क्या तुम्हारा चारागाह सूख गया है, या पानी नहीं मिलता कि तुम मुरझाई-सी हो रही हो ? ॥२॥
हरिनी ने कहा--न तो मेरा चारागाह ही सूखा और न पानी हो के न मिलने से में मुरझाई-सी हो रही हूँ। हे हरिन ! आज राजा के घर छट्ठी है। तुम को वे मार डालेंगे ।।३।।
मचिया पर कौशल्या रानो बैठो हुई हैं ओर हरिनो विनतो कर रही है। कहती है- हे रानी ! तुम्हारे रसोई में मेरे हरिने का मांस तो सिनाया जा रहा है। उसको खाल मुझको तुम देतीं, तो में उसे पेड़ पर टाँगती ओर अपने मन को समझाती। हे रानी ! घूम-फिर कर में साल को देखतो और मन में समझती कि हरिन मानो जिन्दा ही है ॥४-५॥
इस करुण प्रार्थना पर कौशल्या को जरा भो करुणा नहीं आई। कहा- हे हरिनी ! तुम अपने घर वापिस जाओ। मैं तुमको खाल नहीं दूंगी। इस खाल से मैं खंजड़ी बनाऊँगी और उससे मेरे रास खेलेंगे ॥६॥
जब-जब खंजड़ी बजती है, तब-तब हरिभी शब्द सुनकर अँहकती है और ढाक के पेड़ के नीचे खड़ी होकर अपने प्रीतम हरिने को याद करती है ॥७॥
इस गीत में करुणा फूट कर ग्रह निकली है। गाने को सुनते हो कितनो तीखी टीस हृदय में उत्पन्न हो जाती है. यह वही जान सकता है, जिसने इस गोत को गाये जाते हुए कभी सुना हो। मेरे परम मित्र श्री रामवृक्षजो बेनीपुरी, इस गीत को गाकर स्वयं एक दिन विभोर हो गये थे और इन पंक्तियों के लेखक को भी द्रवित कर दिया था। एक ओर हरिनो को विरह-वेदनायुक्त कातर प्रार्थना और दूसरी ओर कोशल्या का अपने आनन्दोत्साह में विभोर हो हृदय की कठोरता दिखलाना कितना कलापूर्ण चित्रण है। उन्हीं कौशल्या के मातृ- हृदय ने सोहर नं० ६ के गोत में जब राम को पुत्र नहीं हुआ था, कितनी करुणा और उदारता दिखाकर हिरन को अभय दान दिया है; पर आज आत्म- दुःख भूल जाने पर राम को छट्ठी में वही कौशल्या हरिनी को हरिन को खाल तक देने पर राजो नहीं होतीं। उनका स्वायं इतना प्रबल हो उठता है कि हरिनी को सभी बातों को सभी दुःख-वेदनापूर्ण प्रार्थनाओं को अनसुनी करके वह हरिन को खाल से राम को सँजड़ी मड़वातो हैं और हरिनों के सुहाग-वैभव को राम के खेल का साधन बनाने में आनाकानी नहीं करतीं। ग्रामीण कव- यित्रियों ने कितने अनुभव को बात कही है। सन्तान मनुष्य को एक ओर तो करुण, दयालु और निःस्वार्थी बनाती है, तो दूसरी ओर वह उसे कठोर, निर्दय और स्वार्थी भी बनाने से बाज नहीं आती।
ननदी भउजिआ दुनो पानी के गइली अरे-दूनो पानी के गइलीं हो। भऊजी ! जवन रावनवा तोहे हरलसि उरेहि देखावहु हो ॥१॥ जो मैं रावना उरेहवि उरेहि देखाइब हो। पानी हो। उरहों हो ॥४।॥ हो। पानी उरेहइं हो ॥५॥ सुनि पइहें बिरन तोहार त देसवा निकसिहई हो ॥२॥ लाख दोहइआ राजा दसरथ भइया माथ छुओं हो। भऊजी ! लाख दोहइआ लछिमन भइया, भइया से ना बताइब हो ।।३।। माँगहु न गाँग गँगुलिया गंगा जल ननदी ! समुहे क कोहबर लिपावउ रावना मँगलिनि गाँग गगुलिया गंगा जल सीता समूहे के ओवरी लिपवली रावन थवा बनवली, गोड़वा सिरजली, त नयना बनावे कि आइ गइले सिरि राम आँचर खोलि ढाँपे जेवन बइठे सिरी राम बहिन लाई भइआ ! जवन रावन तोर वएरी त भऊजी बरे-रे लछुमन भइआ ! विपतिया के सीता के देसवा निकालहु रावना जे भऊजी भूखला के भोजन लॅगडे के से भऊजी गरूए गरभ से मैं कइसे आहो हो लछुमन भइया ! विपतिया के नायक हो! । सीताजी के देसवा निकासहु रावना भरे-हो भऊजी सीतलि रानी ! बड़ ठकुराइर्शन हो ! । भऊजी ! आइ गइले तोर निरिआ विहाने बने ना मोरे नइहर ना मोरे देवरु ! ना रे जनक अस बाप केकरे घरे खोइछा में लेली सरसोइआ छिटत सीता ली हो। ली हो ।।६।। लावेली हो। उरेहेली हो ।।७।। साथी हो। उरेहई हो ।।८।। हो। बस्तर निकालीं हो। ॥९॥ उरेहई हो ।।१०।। चले के 1 हो ॥ ११॥ सासुर हो। जाइबि हो ॥१२॥ निकसेली हो । सरिसों ! यहि रहिये लवटिहें देवरा लछुमन केंदरिया तूरि खइहनि हो ।।१३।।
एक बन गइली दूसर वन लॅघली तिसरे बीन्दावन अइली हो।
देवरू ! एक बूंद पनिया पिआवहु पिअसिआ से वेआकुल हो ।।१४।।
बइठहु न भऊजी ! चंदन तरे-चंदना बिरिछ तरे हो।
भऊजी ! पनिया क खोज करि आई त तोहरी पिआई नु हो ।।१५।।
बहे लागी जुडुई बयरिया चनन जूड़ि छइयाँ हो।
सीता भुइयाँ परेली कुम्हिलाई पिअसिया से बेआकुल हो ।।१६।॥
तोरले त पतवा कदम कर दोनवा बनवलनि हो।
झझकि
भरि
ऊठेली हो।
बतवलनि हो ।॥१८॥
रोइतों हो।
भइली हो ॥१९॥
खाली रे हो ? ।
- टँगले लवेंगिया के डरिया लखन चले घरे ओरे हो ।।१७।।
सोइ साइ सीता जागेली झझकि
कहाँ गइले लछुमन देवरू त हमें ना
हिय भरि देखितों नजर
सामी के दीहितों संदेसवा काहे अस कठोर
अव के मोरे आगे पीछे बइठी त के लट
के मोरी जागइ रयनिया त नरवा कटावइ के हो ॥२०॥
बनवा से निकसेली तपसिनिया सीतहि समुझावेली हो।
सिता ! हम तोरे आगे पीछे बइठवि हम लट खोलवि हो ॥२१॥
हम तोरी जगवइ रयनिया त नरवा कटाइवि हो।
होत विहान लोही लागत होरिला जनम लेले हो ॥२२॥
सीता ! लकड़ी क करहु अँजोर संतति मुख देखहु हो।
तू पूता ! भइल विपतिया में बहुते सँसतिया में हो ॥२३॥
कुसवे ओढ़न पूल ! कुसवे के डासन, बन
भोजन हो।
जो पूता ! होतेउ अजोधिया वही पुर पाटन हो ॥२४।।
अभरन हो।
फल
राजा दसरथ पटना लुटइतें कोसिला रानी
अरे-हॅकरहु ना बन के नऊअवा त वेगि चलि आवहु हो ।॥ २५॥
नऊआ ! हमरा रोचना लेइ जाउ अजोधिया पहुँचावउ हो।
पहिले दिहो राजा दसरथ दूसरे कोसिला रानी हो।
तीसरे रोचन देवरा लछुमन प पिया न जनाइछ हो ।।२६।।
पहिले रोचन देलनि दसरथ दुसरे कोसिला रानी हो। तिसरे देलनि देवरा लछुमन प राम ना जनवलनि हो ।॥ २७৷৷ दसरथ देलनि आपन घोड़वा त कोसिला रानी अभरन हो। लछुमन देलनि पाँचों जोड़वा विसि नऊआ घर चले हो ।॥२८॥ चारिक खुट क सगरवा त राम दतुअन करें हो। भइया ! भहर भहर करे माथ रोचन कहूँ पायउ हो। जिअरा जुड़ाइल हो ॥२९॥ हो ॥३०॥ हो। भइया ! केकरा भइले नन्दलाल त भऊजी त हमरी सीतल रानी बसेली विन्दावन हो। उन्हहीं के भइले नंदलाल रोचन सिरधारी ले हाथ केर दतुअन हाये रहे मुख केरा मुखे रहे हुरे लागी मोतिअन आँसु पितम्मर भीजे लागेला हो ।॥३१॥ हॅकरहु न बन केरा नऊआ त वेगि चलि आवहु हो। नऊआ ! सीता केरा हलिआ वतावहु सीता लेइ आइवि हो ।। ३२॥ राजा ! कुस रे ओढ़न कुस डासन बन फल भोजन हो। साह्न लकड़ी के कइली अँजोर संतति मुख देखली हो ।॥३३॥ अरे हो लछुमन भइया ! विपतिया के नायक हो। भइया ! एक बेर जइत मधुबनवा भऊजइया लेइ अइतउ हो ।। ३४।॥ अजोधिया से चलले त मधुवन पहुँचलनि हो। भऊजी, राम के त फिरल वा हुँकार ततोरा के बुलावेले हो ॥ ३५॥ चलि जा लखन ! घरे अपना त हम नाहीं अव जाइवि हो। लखन ! जो रे ई जीहें नन्दलाल त उनहीं के कहइहँइ हो ।। ३६॥ ननद भौजाई दोनों पानी भरने गयीं। ननद ने कहा- हे भावज ! जिस कावण ने तुम्हारा हरण किया, उसका चित्र बनाकर दिखाओ ॥१॥ भावज ने कहा- जो में रावण का चित्र बनाऊँगी और बनाकर उसे
दिखाऊँगी, तो तुम्हारे भाई जो सुन पावेंगे, तो मुझे देश से निकाल
गे ॥२॥
ननद ने कहा- राजा दशरथ की लाखों दुहाई देती हूँ। अपने भाई का माया छुकर कसम खाती हूँ। हे भावज ! भाई लक्ष्मण की भी दुहाई देती हूँ- मैं राम से इसे नहीं बताऊँगी ॥३॥
भावज ने कहा- हे ननद ! गाँग गंगुली (चित्र बनाने का रंग और ब्रश आदि) और गंगा का पानी मंगाओ, और सामने का कोहवर लिपवाओ मैं रावण का चित्र बनाऊँगी ।।४।।
ननद ने चित्र बनाने का सामान और गंगा का पानी मंगवाया। सोता ने सामने की कोठरी लिपवायो और रावण का चित्र बनाया। हाथ बनाये, पांवों का सृजन किया और नेत्र बना हो रही थीं कि रामचन्द्र वहाँ आ गये। उनको देखते ही सीता ने अंचल खोलकर चित्र ढांक दिया ।।५-६।।
रामचन्द्र जब चौका पर भोजन करने बैठे, तब बहन ने चुगलो की, कहा- हे भाई! जो रावण तेरा बरी है, उसी का चित्र भौजो बनातीं हैं ।॥७॥
राम ने कहा--अरे मेरे वित्ति के साथी लक्ष्मण भाई ! सोता को देश से निकाल आओ। वह रावण का चित्र बनाती है। ।।८।।
लक्ष्मण ने कहा-जो भावज भूखे के भोजन और नंगे के वस्त्र के समान मुझे प्रिय हैं, वह भावज गर्भवती हैं और उनका गर्भ भो पूर्ण हो चुका है। मैं उनको किस तरह से घर से निकालूँ ? ॥९॥
राम ने फिर कहा- ऐ विपत्ति के नायक भाई ! सोता को देश से निकालो, वह रावण का चित्र बनातो है ॥१०॥
लक्ष्मण ने कहा- हे बड़ो ठकुराइन मेरी भावज सोता रानी ! सुनो। तुम्हारे मायके से निआर (कुछ रुपयों और मंगल वस्तु के साथ जो साड़ी मायके से कन्या के ससुराल वालों के यहाँ कन्या के मायके जाने के दिन ठोक कराने के अवसर पर भेजी जातो है, उसी को भोजपुरी में निआर कहते हैं।) आया है, हम लोग कल वन के लिये प्रस्थान करेंगे ।।११।।
सीता ने कहा- हे देवर! न तो मेरा मायका है और न मेरा कोई ससु- राल है। न जनक ऐसा बाप हो अब रहा। मैं किसके घर जाऊँगी ? ॥१२॥
सोता ने अंचल में सरसों भर लिया और उसे छींटती हुई घर से निकलीं। कहा- हे सरसों ! इसी रास्ते से लक्ष्मण लोटेंगे, तब तक तुम फले रहना । तुम्हारी फलियाँ तोड़कर वे खायेंगे ॥१३॥
सोता एक वन गयीं, दूसरे वन को पार किया, तीसरा वन वृन्दावन मिला । सीता ने लक्ष्मण से कहा- हे देवर! एक बूंद पानी पिलाओ। प्यास से मैं ब्याकुल हो रही हूँ ॥१४।॥
लक्ष्मण ने कहा-- हे भावज ! इस चंदन वृक्ष के नीचे तुम टुक बैठ जाओ। में पानी खोज लाऊँ, तो तुम्हें पिलाऊँ ॥१५॥
शीतल बयार बह रही थी और चन्दन की शीतल छाँह थी। सीता पृथ्वी पर लेटकर प्यास से व्याकुल हो कुम्हला गयीं, अर्थात् सो गयीं। लक्ष्मण ने कदम के पत्ते तोड़े और उनसे दोना बनाया और पानी भर कर लॉग की डाल पर उसे टांग दिया और स्वयं अपने घर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। सोकर सीता जगीं और झिझक कर उठ बेटी। कहने लगीं-- अरे !
मेरे लक्ष्मण देवर कहाँ चले गये ? उन्होंने जाते समय मुझे क्यों नहीं बतलाया। मैं उन्हें हृदय भर देखती और नजर भर रोती और स्वामी को सन्देश देती कि वे क्यों इतने कठोर हो गये ।।१६-१७-१८-१९॥
सीता को प्रसव वेदना होने लगी। वे कहने लगीं- हा! अब मेरे आगे- पोछे कौन बैठे ? मेरे बाल कौन खोले ? मेरी इस वित्ति की रात में मेरे साथ कौन जागेगा और कौन मेरे बच्चे का नाल कटावेगा ? वे बिलख बिलख कर रोने लगीं ॥२०॥
बन से तपस्विनी निकलीं और सीता को समझाने लगीं- हे सीते ! हम तेरे आगे पीछे बैठेगी। हम तेरो लट खोलेगी। हम तुम्हारी विपत्ति की रात में तुम्हारे साथ जगेंगी और बच्चे का नाल कटायेंगी ॥२१॥
सुबह होते शुकवा उगते-उगते बच्चों ने जन्म लिया। तपस्विनी ने कहा- हे सीते ! लकड़ी जलाकर प्रकाश करो और अपनी संतानों का मुख देखो ॥२२॥
सीता ने कहा- हे पुत्रो ! तुम लोगों ने विपत्ति में और बड़ी हो यातना के समय में जन्म लिया। कुश हो तुम्हारे ओढ़ने हैं और कुश हो विद्यावन तथा वन फल ही तुम्हारे भोजन हैं। हे पुत्रो ! यदि तुम अयोध्या में होते, या उस पाटन पुरी में होते, तो आज राजा दशरय वस्त्र लुटाते और रानी कौशल्या आभूषण बाँटतीं ॥२३॥२४॥
अरे वन के नापित को बुलाओ। उसको जल्दी लिवाकर लौट आओ। हे नाऊ ! तू मेरा रोचन ले जाओ (जो पुत्रोत्पत्ति का संवाद चन्दन दूर्वादल आदि के साथ नाऊ लेकर जाता है उसे भोजपुरी में लोचना या । चना कहते हैं) और उसे अयोध्या पहुँचाओ ॥२५॥
इसको पहले राजा दशरथ को देना, फिर कौशल्या रानी को देना और तीसरे देवर लक्ष्मण को देना; परन्तु रामचन्द्र को इसे न बताना ।॥२६॥
नापित अयोध्या पहुँचा। उसने पहला रोचन दशरय को दिया, दूसरा रोचन कौशल्या रानी को दिया और तीसरा रोचन देवर लक्ष्मण को दिया; परन्तु राम को कुछ नहीं जताया ॥ २७॥
नापित को दशरथ ने अपना घोड़ा इनाम दिया, कोशल्या रानी ने आभू- षण प्रदान किये और लक्ष्मण ने पाँचो जोड़े कपड़े दिये। नाऊ प्रसन्न होकर घर को चला ॥२८॥
चौकोर तालाब था। उस पर राम बैठ कर दातुन कर रहे थे। लक्ष्मण को देखकर उन्होंने कहा- हे भाई ! तुम्हारा माथा भक-भक करके चमक रहा है। तुमने यह चन्दन कहाँ से पाया? हे भाई ! किसको नंदलाल पैदा हुआ है कि तुम्हारा हृदय इतना शीतल हुआ है ? ॥२९-३०।।
लक्ष्मण ने कहा- हमारी भावज सोता रानी वृन्दावन में वसती हैं। उन्हीं को नंदलाल हुआ है। जिसका रोचन में सिर पर धारण किये हूँ ॥३१॥
राम के हाथ की दातुन हाथ ही में रह गयी और मुख की बात मुख ही में रह गयो। आँखों से मोती के आँसू गिरने लगे और राम का पीताम्बर भींगने लगा। उन्होंने कहा- जरा वन के नाऊ को बुला न लो। वह जल्द मेरे पास चला आवे ।
राम ने कहा- हे नाऊ ! सीता का हाल बताओ। सोता को मैं वापस लाऊँगा ।।३२-३३।।
नापित ने उत्तर दिया- अरे कुश ओढ़ना है कुश हो बिछाना है। वन फल का भोजन है। हे साहब! मैं और क्या कहूँ लकड़ो जलाकर प्रकाश किया, तब कहीं सोता ने अपनो सन्तान का मुख देखा ॥ ३४।।
राम ने कहा-अरे विपत्ति में नायक मेरे लक्ष्मण भाई ! एक बार तुम मधुवन जाते और अपनी भावज को लिवा ले आते ॥ ३५॥
लक्ष्मण अयोध्या से चलकर मधुवन पहुँचे। सोता से उन्होंने कहा- हे भावज ! राम के मन में तो फिर दुलार फिर आया है। वे तो तुमको बुलाते हैं ।॥३६॥
सोता ने कहा- हे लक्ष्मण! तुम अपने घर फिर जाओ। मैं अब अयोध्या नहीं जाऊँगी। जो ये नंदलाल जीते रहेंगे, तो राम हो के कहाँयेगे ।। ३७।।
इस गीत में करुण रस को क्लाइमेक्स (Climax) पर किस सरलता से कवयित्री ने पहुँचाया है, यह देखते ही बनता है। न रुदन है, न आहऔर न वेदना प्रदर्शन हो। केवल सोधे सादे साविक ओर निःस्वार्थ प्रेम के टोस भरे जो दो-चार शब्द हैं, वे हो सोता के प्रति संसार भर को करुणा जाग्रत कर देने के लिये पर्याप्त सिद्ध होते हैं। देखिये इन लाइनों को, श्रोता के हृदय में सोता के प्रति कितनी बड़ी सहानुभूति ये उत्पन्न कर देती हैं-
हिय भरि देखितों नजर भरि रोइतों हो
सामी के दोहितों संदेसवा काहे अस कठोर भइलो हो ।।
फिर-
तीसरे रोचन देवरा लछुमन पपिअवा न जनइहउ हो ।।
(९)
माहि के निथि नडमी त राम जग रोपेले हो। रामा-बिना रे मीता जग सूना सीता लेइआवहु हो ।।१।।
अरे हो गुरू वसिष्ट मुनि ! पइयाँ तोर लागीले हो। गुरू ! तुम्हारे मनाये सीता अइहें मनाइ लेइ आवहु हो ।।२।। अगवा के घोड़वा वसिष्ठ मुनि पाछे लछुमन देवर हो। हेरे लागें रिसि के मेढुलिया जहाँ सीता 'तप करें हो ।।३।। अॅगनेहि ठाड़ी सीतलि रानी रहिया निहारत हो। रामा-आवत होइहें गुरुजी हमार त पीछे लछुमन देवर हो ।।४।। पतवा के दोनवा बनवली गंगा जल भरली हो। सीता धोये लगली गुरुजी के चरन त मथवा चढ़ावेली हो ।।५।। एतनी अकिल सीता ! तोहरे तू बुधि कर आगरि हो। के तोरा हरले गेआन त राम विसरावेलू हो ।।६।। सब कर हाल गुरू ! जानी ला अजान अस पूछीला हो। गुरु ! अस के राम मोहि डहले कि कइसे चित मिलिहनि हो ।।७।। अगिआ में राम मोहि डललनि, लाइ भूजि कढ़लनि हो। गुरू ! गरुए गरभ से निकसलनि त कइसे चित मिलिहइ हो ।।८।। राउर कहल गुरू! करवों परग दुई चलबों हो। गुरु ! अब ना अजोधेया जाइवि विधि ना मिलावहि हो ।।९।। हॅकरहु नगर के कॅहरा-वेगि चलि आवइ हो। कहरा ! चनन क डॅडिया फनावउ - सिहि लेइ आइबि हो ।।१०।। एक बन गइले, दूसर वन, तिसरे बिन्दावन हो। गुली डंडा खेलत दुइ बलकवा देखि राम मोहेले हो ।।११।। केकर तू पुतवा नतियवा केकर हव भतिजवा हो ।। लरिकी ! कवनी मयरिया के कोखिया जनम जुड़वायउ हो ।।१२।। वाप क नौवाँ न जानों, लखन के भतिजवा रे हो। हम राजा जनक के नतिया सीता के दुलरुआ हो ।।१३।। एतना बचन राम सुनलनि सुनहुँ ना पवलनि हो। रामा-तरर तरर चुवे आँसु पटुकवन पोछेले हो ।।१४।।
अगवे त रिसि क मंड़इया त राम नियरावेलनि हो। रामा-छापक पेड़ कदम कर लगत सुहावन हो ।।१५।। तेहि तर बइठेली सीतल रानी केसवन झुरवेली हो। पिछवाँ उलटि जब चितवेली रामजी के ठाढ़ देखली हो ।॥ १६॥ रानी ! छोड़ि देहु जिअरा विरोग, अजोधिया बसावहु हो। सीता ! तोरे बिनु जग अधिआर त जीवन अकारथ हो ।।१७।। सीता अँखिया में भरली विरोग त एकटक देखली हो।
सीता धरती में गइली समाइ कुछ नाहीं बोलली हो ।।१८।।
माघ को नौमी तिथि है। राम ने अश्वमेध यज्ञ का निरूपण किया। राम ने कहा-सीता के बिना यज्ञ शून्य रहेगा। सीता को कोई जाकर लिवा लावे ॥१॥
वे गुरु वशिष्ठ के पास गये और वोले- हे गुरु महाराज वशिष्ठ ! में आपके पाँव पड़ता हूँ। आपही के मनाने से सीता आवेंगी। आप मना कर उन्हें लिवा लाइये ॥२॥
आगे के घोड़े पर वशिष्ठ मुनि और पीछे के घोड़े पर लक्ष्मण देवर सवार होकर उस ऋषि की कुटिया को खोजने लगे, जहाँ सीता तप करती थीं ।।३।।
आँगन में खड़ी-खड़ी देवी सीता मार्ग निहार रही थीं और सोच रही थीं कि हमारे गुरुजी और उनके पीछे देवर लक्ष्मण आते होंगे ॥४।।
सीता ने पत्तों का दोना बनाया। उसमें गंगाजल भर लायीं। उससे गुरु के पाँव धोये और चरणामृत को अपने सिर पर चढ़ाया ॥५॥
वशिष्ठ मुनि ने कहा- अरी सीते ! तुझे इतनी समझ है। तू बुद्धि का आगार है। पर तेरा ज्ञान किसने हर लिया कि तू राम को बिसार दिया ? ॥६॥
सीता ने कहा- हे गुरु ! आप सबका हाल जानते हैं। क्यों अनजान ऐसा पूछ रहे हैं? हे गुरु ! राम ने मुझे इस तरह सताया और जलाया है कि अब मेरा चित्त उनसे कभी मिल नहीं सकता है ? ॥७।।
राम ने मुझे अग्नि में डाला। अग्नि में डालकर जलाया और मरने नहीं दिया, पुनः निकाल लिया। हे गुरुजी ! फिर घर लाये और मेरे पूर्ण गर्भ की दशा में ही मुझे घर से निकाल बाहर किया। तो अब बताइये, मेरा चित्त उनसे कैसे मिल सकता है? सो हे गुरु जी ! में लापको आज्ञा का पालन करूंगी। दो कदम घर को ओर चलूंगो; परन्तु अब अयोध्या नहीं जाऊँगी। विधि से मेरी प्रार्थना भी है कि राम से मुझे अब वह न मिलावें ॥८-९॥
गुरु वशिष्ठ जब लौट आये, तब सीता को मनाने के लिये राम ने स्वयं जाने को तैयारो को। उन्होंने कहा- अरे नगर के कहारों को बुला लाओ। कहार तुरत संवाद पाते हो हाजिर हुए। राम ने आज्ञा दो- कहारो, चन्दन की डोली तयार करो। मैं सीता को लाने जाऊंगा ॥१०॥ राम एक वन में गये। दूसरे वन को पार किया। तीसरा वन वृन्दावन पड़ा। वहाँ वे दो बालकों को गुल्ली डंडा खेलते हुए देखकर मोह गये ।।११।। उन्होंने पूछा- अरे बालको! तुम किसके लड़के हो, किसके नाती हो और किसके भतीजे हो? और तुमने किस माता के पेट से जन्म लेकर उसके कोख को सार्थक किया है ? ॥१२॥ बालकों ने कहा- हम अपने बाप का नाम नहीं जानते; परन्तु इतना
जानते हैं कि हम लक्ष्मण के भतीजे हैं, राजा जनक के नाती हैं और माता सोता के दुलारे पुत्र हैं ॥१३॥
राम ने ये वाक्य सुने और कुछ न भी सुन पाये कि उनकी आँखों से झर झर आँसू गिरने लगे और वे डुपट्टे से उन्हें पोंछने लगे ।।१४।।
उनके आगे ही मुनि की कुटी थी। उसके नजदीक वे पहुँच रहे थे। ठिंगना-सा घना फैला हुआ कदम का वृक्ष कितना सुहावना लग रहा था। उसो वृक्ष के नीचे बैठी हुई सोता रानी अपने केश सुखा रही थीं। उन्होंने जैसे ही पीछे फिर कर निहारा, तो राम को सामने खड़ा देखा। आँखें चार होते हो राम ने कहा- हे रानी ! हृदय का क्रोध त्याग दो। अब अयोध्या को बसाओ। हे सीते ! तुम्हारे बिना मेरा जोवन अकारथ और संसार अधेरा हो रहा है ॥१५-१६-१७।।
सोता की आंखों में युग-युग का विरह भर आया। वह एकटक राम को निहारने लगीं। मुख से कुछ भी नहीं बोल सकीं। धरती फटी और उसमें वह समा गयीं ॥१८॥
इस गीत में राम के विरह का चित्र कवियित्रो ने खींचा तो बहुत हो सफल और सरस रूप में है, परन्तु उसके इस चित्रण में एक अनोखो खूबी यह है कि राम का सीता-प्रेम के साथ जो अपने मर्यादा पुरुषोत्तम होने का प्रेम लगा हुआ था, जो उनके सामने सीता के प्रेम से भी अधिक प्रिय था, उसे उसने शुरू में दिखा करके भी अन्त में सीता के प्रेम के आगे नीचा दिखला कर राम के मर्यादा पुरुषोत्तम होने के दम्भ को सोता के सात्त्विक प्रेम के सामने चूर चूर कर दिया है। उस पर भी सोता को पृथ्वी में प्रवेश करा करके और उनके मूक सत्य-प्रेम को पूरी सफाई दे करके कवयित्रो ने जो राम को हाथ मलते चुपचाप सदा के लिये पछताने को छोड़ दिया है, इसमें कला का 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' वाला रूप पूर्ण रूप से चमक उठा है। अपढ़, मूर्ख, ग्रामीण कवियित्री को इस कलापूर्ण रचना की कौन तारीफ नहीं करेगा ? इतना सुन्दर भाव-चित्रण हिन्दी और संस्कृत दोनों में ढूँढ़ने पर भी मुझे नहीं मिला। विद्वान् पाठकों को कहीं मिला हो, तो नहीं कह सकता।
( १०
)
छापक पेड़ छिउल केरा पतवन घनवन हो। ताहि तर ठाड़ सीता भइली बहुत विपतिया में हो ।।१।। कहाँ पइवों सोने केरा छुरवा त कहां पइवों धगरिन हो। के मोरी जागी रयनिया कवन दुख बटिहँइ हो ॥२॥ बन से किसी बन तपसिनि सीर्ताह समुझाबेली हो। चुप रहु बहिनी ! तू चुप रहु हो, बहिनी ! हम देवों सोने केरा छुरवा,
त धगरिन बोलाइवि हो।
हम तोरी जागवि रयनिया हर्माह होइव धगरन, त विपर्ती हम बँटाइव हो ।। ३।।
होत भोर लोही लागत कुस के जनम भइले हो। बाजे लागल अनंद बधाव, गावेली सखि सोहर हो ।।४।। जो पूता ! होत अजोधिया, राजा दसरथ घर हो। राजा सगरे अजोधिया लुटवतें अब त पूता ! जनमलउ वन कोसिला देई अभरन हो ।॥५॥ में बन फल तोरऽ हो। वेटा ! कुस रे ओड़न कुस डासन बनफल भोजन हो ।।६।। हॅकरिन, वन केरा नउवा वर्गाह चलि आवउ हो। नऊवा ! जलदी अजोधिआ के जाऊ रोचन पहुँचावहु हो ।।७।। पहिला रोचन राजा दसरथ, दूसर कोसिला रानी हो। तीसर दीहो देवर लछिमन पिर्याह न राजा दसरथ देलनि घोड़वा कोसिला रानी बतइड हो ।।८।। अभरन हो। लखन देवर देलनि पाँच जोड़वा त नऊवा विदा कइले हो ॥९॥ सोने क गहुअवा त राम दतुअनी करें हो। लछिमन ! भहर भहर होला माथ रोचन कहाँ पवलहु हो ॥१०॥ भऊजी त हमरी सीता देई दूनो कुल भइया ! उनके भइले नन्दलाल रोचन हम राखनि हो। पावल हो ।॥११॥ हथि क गेडुअवा हाथे रहें मुह केरा दतुअनि मुहे रहें हो। पोछे लगले हो ॥१२॥ लछुमन देवर हो। आरे-दुरे लगले मोतिअन आँसु पटुकवन आगे केरा घोड़वा वसिष्ठ मुनि पाछे के बीचवे के घोड़वा सवार राम सीता के राउरि कहह्नवा गुरु करवइ परग ललना-फाट त घरतिया समाइवि अजोधिया ना जाइवि हो ।। १४।। मनावे चलले हो ॥१३॥ दस चलवइ हो।
छोउल का छापक पेड़ है, जिसके घने पत्ते लहलहा रहे हैं। उसके नीचे
बड़ी विपत्ति में पड़ी हुई सीता देवी खड़ी हुई हैं ॥१॥
खड़ी-खड़ी चिन्ता करती हैं- मैं यहाँ नाल कटाने के लिए सोने का छुरा कहाँ पाऊँगी और धर्गाड़न यहाँ मुझे कहाँ मिलेगी? इस प्रसव पीड़ा के समय मेरे साथ रात्रि में कौन जागेगा और कौन दुःख बटायेगा ? ॥२॥
वन से वन को तपस्विनियाँ निकलीं। वे तोता को समझाने लगीं- हे बहन ! तुम चुप रहो। रोओ मत। हम लोग तुम्हें नाल कटाने के लिए स्वर्ण छुरा देंगी। हम तुम्हारे लिये घड़िन बुलावेंगी। हम तुम्हारी दुस्सह वेदना में तुम्हारे साथ रात भर जगेंगी। हम ही धगरिन बनकर धगरिन का काम भी करेंगी और तुम्हारा दुख बांटेंगी ॥३॥
प्रातःकाल होते हो होते शुक्रतारा के उदय लेते-लेले कुश का जन्म हुआ। आनन्द-बधाई बजने लगो और वन को सखियाँ सोहर गाने लगीं ॥४।॥
सीता देवी ने आहें भर कर कहा- हे पुत्र ! आज तुमने अयोध्या में राजा दशरय के घर जो जन्म लिया होता, तो वहाँ राजा दशरथजो सारी अयोध्या को लुटा डालते और कौशल्या रानी अपने सम्पूर्ण आभूषण वितरण कर देतीं ॥५॥
हे पुत्र ! अब तो तुम्हारा जन्म वन में हुआ। बन के फूलों को तोड़ कर खेलो। बेटा! यहाँ तुम्हारा कुश ही ओढ़ना है और कुश हो बिछावन और भोजन भी वन के फल मात्र हैं ।।६।।
उन्होंने वन के नापित को बुलाया। पुकार कर कहा- हे नाऊ! तुम जल्दी से आओ। नाऊ आया और सीता ने उससे निवेदन किया- हे नाऊ ! तुम जल्द अयोध्या को जाओ और पुत्रोत्पत्ति का रोचना (चन्दन दूर्वादल आदि शुभ वस्तु) वहाँ शीघ्र पहुँचाओ ।॥७৷৷
पहला रोचन राजा दशरथ को देना, दूसरा कौशल्या रानो को पहुँचाना और तीसरा रोचन मेरे प्यारे देवर लक्ष्मण को प्रदान करना; पर देखना मेरे प्रीतम राम को कुछ न बताना ॥८॥
नापित को राजा दशरथ ने घोड़ा इनाम दिया, कौशल्या ने आभूषण दान दिये और लक्ष्मण देवर ने उसको पाँच जोड़े वस्त्र प्रदान करके विदा किया ॥९॥
सोने के सुबन्ना से पानी लेकर रामचन्द्र दातुन कर रहे थे। उन्होंने चन्दन लगाये लक्ष्मण को देखकर कहा- हे लक्ष्मण, तुम्हारा माथा भक- भक करके चमक रहा है। तुम्हें रोचन कहाँ से मिला है ? ॥१०॥
लक्ष्मण ने कहा- हे भाई ! हमारी भावज सीता देवी तो दोनों कुलों को कायम रखने वाली हैं। उन्हीं को पुत्र उत्पन्न हुआ है। हमें उन्होंने ही रोचन भेजा है ॥११॥
राम के हाथ का सुवन्ना हाथ ही में जैसा का तैसा रह गया और मुख को दातुन मुख में लगो हो रह गयी। उनके मोती के समान आँसू दुरकने लगे और वे उन्हें अपने डुपट्टे से पोंछने लगे ॥ १२॥
आगे के घोड़े पर वशिष्ठ मुनि चढ़े, पीछे के अश्व पर लक्ष्मण आसोन हुए और बोच के बछेड़ पर श्री रामचन्द्र सवार होकर सोता देवी को मनाने चले ॥१३॥
सीता ने सबकी बातों को सुन कर और अपने हृदय को सारी वेदना को समेट कर अपने वृद्ध गुरुजन के सामने वही बात कहो, जो उनके सम्मान, प्रतिष्ठा और आत्म-गौरव के अनुकूल तथा स्त्री-त्याग को पराकाष्ठा के माफिक बात थी- "हे गुरुजी ! मैं आपका कहना करूँगी। दश पग अयोध्या की ओर चल दूंगी; परन्तु अयोध्या नहीं जाऊँगी। हे माँ धरतो, तुम फटती जाओ, में तुम में प्रवेश कर जाऊँगी; पर अयोध्या नहीं जाऊँगी ।।१४।।
इसी भावार्थ का पूर्व में नं०५ सोहर में एक गोत आ चुका है; परन्तु
दोनों में बहुत भेद है। ओर वह भेद-भाव, व्यञ्जना और रस-पुष्टि के विभिन्न दृष्टिकोणों का सुन्दरतम् भेद है। इन गीतों के पाठ से इस बात को पुष्टि होती है कि कविता के लिए परिमार्जित मस्तिष्क की उत्तनो आवश्यकता नहीं है, जितनी को इसे एक सच्चे भावुक हृदय और उसकी सत्यानुभूति की जरूरत है ।।१५।।
( ११ )
जब हम रहली जनक घरे राजा रे जनक घरे। सखी, सोने के सुपुलिया पछोरलीं मैं मोतिया हिलोरलीं हो ॥१॥
जब हम परलीं राम घरे राजा रे दसरथ घरे । जरि बरि भड़लीं कोइलवा त जरि के भसम भइलीं हो ॥२।० सभवा बइठल राजा रामचनर पुछावे राजा दसरथ । पुता ! कवन सीतौल दुख दीहल सखिन संगे रोवे ली हो ।।३।। हंसि के धनुसवा उठवलनि विहॅसि के पइठलनि। सोता ! अब सुख सोअहु महलिया गुपुत होइ जाइवि हो ।।४।। अरे रे! लछिमन देवरा ! विपतिया के नायक। देवरू ! भडया के लाव मनाइ नाहीं त विखिया खाइबि हो ॥५॥ अरे हो भऊजी सीतल रानी ! बड़ ठकुराइन हो। देहु ना तिरवा कमनिया मैं भइया खोजे जइहों हो ।।६।। ढूंड़लों मैं नग्र अजोधिया अवरू पुर पाटन हो। देवरू ! ढूंड़लीं नाँही गुपुत तलउवा जहाँ राम गुपुत भइले हो ।।७।। काहेके मैं सेजिया बिछाओं केहि लागि फूल छितराओं हो ? देवरू ! केकरा मैं लागों टहलिया कइसे दुःख विसराऊँ हो ।॥८॥ हमरहि सेजिया बिछावहु फूल छितरावहु हो। भऊजी ! हमरेहि लागहू टहलिया त दुःख बिसरावहु हो ।।९।७ जवने मुह आमावा न खइलों इमिलिया कइसे चीखऊँ हो। जवने मुह लछुमन कहि गोहरवलीं पुरुख कइसे भाखवि हो ।।१०।। अरे रे, पापिनी भउजइया ! पाप जनि बोलहु । भऊजी जइसे कोसिला रानी मतवा ओइसन हम जानीले हो ।।११।। लाख दोहइया राजा दसरथ राम माथ छूई ले हो। बुड़की विरथा मोरि जाय जो धनि कहि गोहरावई हो ॥१२॥ अरे ! जब मैं राजा जनक के घर थी, तब मेरे संग की सखियाँ तो सोने
की सूपेली पछोरा करती थीं और मैं मोतियों को स्वर्ण-सूप से फटक-फटक कर
खेला करती थी ।।१।।
परन्तु जब मैं राम के घर में पड़ी, राजा दशरथ के गृह में लाकर रख
छोड़ी गयो तब मैं दुःखाग्नि से जलकर और विरह से तप कर काला कोयला बन गयी। यह कोयला भी नहीं रह सकी। यहाँ तक जलाया गया कि जलते- जलते कोयला से भस्म बन गयी ॥२॥
सभा में राजा रामचन्द्र बैठे हैं। राजा दशरथ ने उनसे पूछ भेजा कि हे पुत्र राम! तुमने सीता को कौन-सा ऐसा दुःख दिया कि वह सखियों के साथ रो रही है ।॥३॥
राम ने हँस करके धनुष को उठाया और विहस करके महल में प्रवेश किया। सीता के पास जाकर कहा- हे सीते ! अब तुम सुख से महल में शयन करो। मैं गुप्त हुआ जाता हूँ ॥४॥
राम चले गये। सीता ने व्याकुल होकर लक्ष्मण से कहा- अरे हे लक्ष्मण देवर ! तुम वित्ति में मेरे नायक हो। तुम जाकर अपने भाई को मना लाओ। नहीं तो मैं विष खा लूंगी ॥५॥
लक्ष्मण ने कहा-अरो मेरी भावज सीता रानी ! तुम बड़ी ठकुराइन हो। तुम मुझे तीर कमान दो। मैं अपने भाई राम को खोजने जाऊँगा ।।६।।
लक्ष्मण राम को खोज कर लौटे, तो कहने लगे - हे भावज ! मैंने राम को सारी अयोध्या में ढूँढ़ डाला। पाटन पुरी में भी सर्वत्र खोज लिया। पर कहीं वे नहीं मिले। सीता ने कहा- हे देवर! तुमने राम को सर्वत्र. खोजा पर गुप्त-सागर में उन्हें नहीं तलाशा, जहाँ वे गुप्त हुए थे। अरे ! अब मैं राम को अनुपस्थिति में किसको सेज उसाऊँगी और किस के लिए उस पर पुष्प विखेरूंगी ? हे देवर! अब में किसकी सेवा में लगू और अपना दुःख किस प्रकार भुलाऊँ ? ॥७७॥
लक्ष्मण ने परीक्षा के लिए कहा- हे भावज ! मेरी सेज तुम बिछा दिया करो और मेरे हो लिये उस पर फूल भी बिखेर दिया करो। तुम मेरी हो सेवा में लग जाओ और अपना दुःख भूल जाओ ॥९॥
सती सोता ने उत्तर दिया- जिस मुख से मैंने कभी आम की खटाई नहीं खायी, उसी मुख से इमली कैसे चोखूंगी ? हे देवर ! जिस मुख से मैंने तुम्हें लक्ष्मण कह कर पुकारा, उसो मुख से पुरुष कैसे भाखूंगी ? ॥१०॥
लक्ष्मण ने कहा--पापिन भावज ! तू पाप को बात न बोलो। हे भादज ! जैसी कोशल्या रानी मेरो माता हैं, वैसी ही मैं तुमको जानता हूँ। मैं राजा दशरथ को लाखों दुहाई देता हूँ-रामचन्द्रजो को सौगन्ध खाता हूँ, मेरा गंगा स्नान का पुण्य नष्ट हो जाय, जो मैं कभी तुमको स्त्री कह कर पुकारूँ ? ॥११-१२॥
इस गोत में एक नयी बात को ओर संकेत किया गया है और वह यह कि सीता के पृथ्वी प्रवेश के उपरान्त उत्तर काण्ड में जो राम ने सरयू में प्रवेश किया और उनका अनुगमन अयोध्यावासियों ने भी किया, वह स्वेच्छापूर्वक नहीं था। अन्त में सोता को राम ने जो अकारण बार-बार महान् कष्ट पहुंचाया था राम की लोक सभा ने उसके अपराध स्वरूप राम को गुप्त वास करने अथवा आत्मविसर्जन करने का दण्ड दिया, जिसका राम ने सहर्ष स्वोकार किया। कवयित्री ने लोक सभा का नाम न लेकर दशरथ की सभा द्वारा राम से कंफिअत पुछवायी है और राम ने जवाब न देकर स्वतः दण्ड-स्वरूप गुप्तवास कर लिया।