भोजपुरी भाषा के विस्तार और सीमा के सम्बन्ध में सर जी० ए० ग्रिअरसन ने बहुत वैज्ञानिक और सप्रमाण अन्वेषण किया है। अपनी 'लिगुइस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' जिल्द ५, भाग २, पृष्ठ ४४, संस्करण १९०३ कले० में उन्होंने लिखा है-
"गंगा से उत्तर इस भाषा (भोजपुरी) की सीमा मुजफ्फरपुर जिले के पश्चिमी भाग की मगही है। फिर उस नदी के दक्षिण इसकी सीमा गया और हजारीबाग की मगही से मिल जाती है। वहाँ से यह सीमान्त रेखा दक्षिण-पूर्व की ओर हजारीबाग की मगही भाषा के उत्तर धूम कर सम्पूर्ण राँची पठार और पलामू तथा राँची जिले के अधिकांश भागां में फैल जाती है। दक्षिण की ओर यह सिघभूमि की उरिया और गंगपुर स्टेट की तद्देशीय भाषा से परिसीमित होती है। यहाँ से भोजपुरी की सीमा जसपुर रियासत के मध्य से होकर राँची पठार के पश्चिमो सरहद के साथ- साथ दक्षिण की ओर जाती है, जिससे सुरगुजा और पश्चिमीय जसपुर के छत्तीसगढ़ी भाषा से इसका विभेद होता है। पलामू के पश्चिमीय प्रदेश से गुजरने के बाद भोजपुरी भाषा की सीमा मिर्जापुर जिला के दक्षिणीय प्रदेश में फैलकर गंगा तक पहुँचती है। यहाँ यह गंगा के बहाव के साथ साथ पूर्व की ओर घूमती है। और बनारस के निकट पहुँच कर गंगा पार कर जाती है। इस तरह मिर्जापुर जिला के उत्तरीय गांगेय प्रदेश के केवल अल्प भाग पर ही इसका प्रसार रहता है। मिर्जापुर के दक्षिण में छत्तीस गढ़ी से इसकी भेंट होती है; परन्तु उस जिले के पश्चिमी भाग के साथ-साथ उत्तर की ओर घूमने पर इसकी सीमा पश्चिम में पहले बघेलखंड की बघेली और फिर अवध की अवधी से जा लगी है।"
"गंगा को पार करके भोजपुरी की सीमा फ़ैज़ाबाद के जिले में सरजू नदी के निकट टाँड़ा तक सीधे उत्तर की ओर चली जाती है। इस प्रकार इसका विस्तार बनारस जिले के पश्चिमी सीमा के साथ-साथ जौनपुर जिले के बीचोबीच और आजमगढ़ जिले के पश्चिमीय भाग के साथ फैजा- बाद जिले के आर-पार फैल जाता है। टाँड़ा तहसील में इसका विस्तार सरजू नदी के साथ-साथ पश्चिम की ओर घूमता है और तब उत्तर की ओर हिमालय के नीचे के पर्वतों तक बस्ती जिले को अपने में शामिल कर लेता है। इस विस्तृत भूभाग के अतिरिक्त, जिसमें एक भाषा भोजपुरी बोली जाती है, भोजपुरी थारू को जंगली जातियों द्वारा, जो गोंडा और बहराइच के जिलों में बसते हैं, मातृभाषा के रूप में व्यवहृत होती है।"
"इस तरह उस भूभाग का, जिसमें केवल भोजपुरी भाषा ही बोली जाती है, क्षेत्रफल निकालने पर ५०००० वर्गमील होता है। इस भूभाग के निवासियों को जन-संख्या, जिनकी मातृभाषा भोजपुरी है २००००००० दो करोड़ है; पर मगही और मंथिली बोलने वालों की संख्या क्रम से ६२३५- ७८२ और १००००००० है। और अवधी, वघेली, बुन्देलखण्डी तथा छत्तीसगढ़ी भाषा-भाषियों की संख्या क्रम से १४१७०७५०, १६००००००, ४६१२७५६, और ३३०१७८० है।"
ये संख्याएँ उस समय की हैं, जब 'लिगुइस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' प्रका- शित हुआ था, अर्थात् सन् १९०१ के पूर्व की जन-गणना १९०१ ई० की जन गणना के आधार पर ही ग्रियर्सन साहब ने ठीक आँकड़े दिये हैं। और, सन् १९०१ ई० की गणना में भारत की कुल आबादी २९४३६०००० के लगभग थी, इस बार की सन् १९४१ की जन गणना की संख्या लगभग ३८८०००००० है, तो इस हिसाब से वर्तमान भोजपुरी भाषियों की कुल संख्या २६४००००० आती है, यानी भारतवर्ष की कुल जन-संख्या का १४०५ प्रतिशत भोजपुरी भापा-भाषियों की संख्या है।
फिर इन भाषा-भापियों की संख्याओं के अलावे मराठी और ब्रजभाषा बोलने वालों की सख्या क्रम से १९२१ की जन-गणना के अनुसार ८३१ और ७८३४२७४ है। इन संख्याओं के मिलान करने से हम देखते हैं कि भोजपुरी बोलने वालों की संख्या केवल उन्हीं अपनी हमजोली निकट- वर्ती भापाओ के बोलने वालों की संख्या से, जिनका लिखित साहित्य अभी तक निर्माण नहीं हुआ है, बड़ी चढ़ी नहीं है, बल्कि इसके बोलने वालों की संख्या उन भाषाओं के बोलने वालों की संख्याओं से भी, जिनका अपना निज का साहित्य बहुत प्राचीन काल से प्रीढ़ है और जिनके माध्यम से शिक्षा प्रदान होती है, वहुत बढ़ी हुई है। तो-प्रदेश-विस्तार और तथा वोलनेवालों की संख्या की दृष्टि से भोजपुरी भारत की अत्यधिक मान्य आठ भाषाओं में, जिनमें तीन तो शिक्षा का माध्यम सरकार द्वारा स्वीकृत हो चुकी हैं- अपना स्थान सर्व-प्रथम रखती है।
अभी अक्टूबर सन् १९४३ के 'विशाल भारत' में राहुल सांकृत्यायन ने ग्रियर्सन साह्न के उक्त सीमा विस्तार पर शंका करते हुए लिखा था- "ग्रिय- संन का प्रयत्न प्रारम्भिक था; इसलिये उनके भाषा तथा क्षेत्र विभाग भी प्रारम्भिक थे। उन्होंने भोजपुरी के भीतर ही काशिका और मल्लिका दोनों को गिन लिया है, जो व्यवहारतः बिलकुल गलत है।"
इसका उत्तर विस्तृत रूप से किसी भोजपुरी भाई ने फरवरी सन् १९४४ के 'विशाल भारत' में देकर यह सिद्ध किया है कि राहुलजी का यह कहना गलत है। उन्होने श्री जयचन्द्रजी का मत- जो इस विषय के प्रार- म्भिक लेखक नहीं कहे जा सकते - उद्धृत करके लिखा है कि राहुलजी का भोजपुरी का मल्लिका नामकरण करना और ग्रियर्सन को न मानना गलत है। श्री जयचन्द्रजी का मत भारतीय इतिहास की रूपरेखा से उद्धृत यों किया है- "भोजपुरी गंगा के उत्तर दक्षिण दोनों तरफ है। बस्ती, गोरख- पुर, चम्पारन, सारन, बनारस, बलिया, आजमगढ़, मिर्जापुर, (इसमें गाजी- पुर शायद भूल से छूट गया है, इसलिये हम उसे भी रख लेते हैं) अथवा प्राचीन मल्ल और काशी राष्ट्र उसके अन्तर्गत है। अपनी एक शाखा नागपुरिया बोली द्वारा उसने शाहाबाद से पलामू होते हुए छोटा नागपुर के दो पठारों में से दक्षिणी पठार अर्थात् राँची के पठार पर कब्जा कर लिया है।" जयचन्द्र जो के इस मत का समर्थन काशी विश्वविद्यालय के हिन्दी अध्यापक श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र की 'वाङमय-विमर्ष' नामक पुस्तक से भी होता है। उन्होंने लिखा है- "बिहारी के वस्तुतः दो वर्ग हैं। मैथिलो और भोज- पुरिया । भोजपुरिया पश्चिमी वर्ग में है ओर मैथिली पूर्वी में। भोजपुरिया मैथिली से बहुत भिन्न है। भोजपुरिया सयुक्त प्रदेश के पूर्वी भाग गोरखपुर बनारस कमिश्नरी और बिहार के पश्चिमी भाग, चम्पारण, सारन, शाहाबाद, जिलों की बोली है। इसके 'अन्तरगत' भोजपुरी पूरबी और नगपुरिया बोली है।"
पं० उदयनारायणजी त्रिपाठी ने भी अपनी भोजपुरी थीसिस में ग्रियर्सन के मत का ही समर्थन किया है; अतः इन उदाहरणों से राहुलजी के ग्रियर्सन के मत न मानने वाले प्रस्ताव में कोई सार नहीं रह जाता ।
भोजपुरी को विशेषताएँ
सभी जीवित भाषाओं की तरह भोजपुरी भी बड़ी उदार भाषा है। यह किसी भी भाषा के शब्द और मुहावरों को अपने अनुरूप बनाकर अपनाने के लिये सदा तैयार रहती है। भारत के एक विस्तृत भू-भाग पर ही नहीं; बल्कि अफ्रिका और वर्मा तथा अन्य टापुओं तक में भी प्रवासी भाइयों द्वारा बोली जाने के कारण भोजपुरी की व्यापकता बहुत बढ़ी चढ़ी है। इससे इसके शब्द-कोश की निधि बहुत विशाल है। इसके उच्चारण में एक विशेष मिठास और फ्रेंच भाषा की तरह लोच और संगीतमय उतार-चढ़ाव होता है। जिस तरह फ्रेंच भापा में अनुनासिक स्वर का प्रयोग अधिक होने और शब्दों के विलम्बित उच्चारण करने के कारण उससे संगीतमय उतार-चढ़ाव की ध्वनि निकलती है, उसी तरह भोजपुरी के उच्चारण में भी जगह-जगह अनु- नासिक स्वर के साथ शब्दों का कुछ बँगला जैसा ढीला लम्बा उच्चारण किया जाता है और इससे इसके वाक्यों के उतार-चढ़ाव में स्वर संगीतमय हो जाता है और उसका माधुर्य्य बढ़ जाता है।
भोजपुरी में लोकोक्तियों को बहुलता
भोजपुरी में लोकोक्ति की निधि बहुत बड़ी है। हिन्दी की प्रायः सभी
लोकोक्तियाँ भोजपुरी के रूप में भोजपुरी में व्यवहृत ही होती हैं, इसके अति-
रिक्त अपनी निकटवर्ती भाषाओं की लोकोक्तियों में से जो उसे पसन्द आता
है, वह अपनी बनाकर उसका रूप अपने अनुकूल कर लेती है। इसके साथ ही
भोजपुरी की एक खूबी यह भी है कि वह अपनी इन पुरानी निधियों पर ही
सदा आश्रित रहती हो, सो बात नहीं है। यह नित्य समय और परिस्थिति
तथा घटना विशेष को ले लेकर नयी-नयी लोकोक्तियों को भी बनाया करती
है, जिसका व्यापक प्रयोग इसके बोलने वाले तुरन्त करने लगते हैं। उदाहरण
के लिये भोजपुरी में "ई त गाँधी बाबा के सुराज हो गइल" का प्रयोग सन् २१
और ३० के असहयोग और भद्र अवज्ञा आंदोलन के समय से ही होने लगा
है। जब किसी बात को पूरा करने की बार बार कोई प्रतिज्ञा करके काम
करता है और हर बार विफल ही रहता है, तब इसका प्रयोग करते हैं। उसी
तरह "इहो का जोलह लूटि हटे।" का भी प्रयोग होता है। जब कोई अन्याय-
पूर्वक बल का प्रयोग करना चाहता है और दूसरा इसका मुकाबला करता है,
तव दूसरा इस लोकोक्ति का प्रयोग करता है। आरा में जो सन् १९१६ ई०
के लगभग 'आरा राएट' हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ था, उसी को लेकर यह
लोकोक्ति बनी। फिर "ई त जर्मनवा के लड़ाई हो गइल" का भी प्रयोग
किसी काम के जल्द न खतम होने और अधिक हानि उठाने पर होता है।
इसके अलावा, रामायण की चौपाइयाँ भी लोकोक्ति की तरह प्रयोग में
आतो है।
भोजपुरी लोकोक्तियों के संग्रह की ओर अभी काफी प्रयत्न नहीं हुआ है। सन् १८८६ में वनारस से 'हिन्दुस्तानी लोकोक्ति कोश' नामक पुस्तक जो लाला फकीरचन्द आदि ने निकाली थी, उसके पृष्ठ २७४ और उसके आगे भोजपुरी लोकोक्तियों का संग्रह है। फिर एक संग्रह और कोई मुझे देखने को मिला था, जिसका नाम मुझे स्मरण नहीं। उस में भी काफी भोजपुरी ठेठ लोकोक्तियाँ थी। अभी कुछ दिन हुए पंडित उदयनारायण त्रिपाठी ने भी २००० भोजपुरी लोकोक्तियों को हिन्दुस्तानी ऐकेडेमी इलाहाबाद की 'हिन्दुस्तानी' नामक पत्रिका में छपवाया था; परन्तु यह संख्या भोजपुरी लोकोक्तियों की बहुत छोटी संख्या है। अगर ठीक से संग्रह किया जाय, तो भोजपुरी लोकोक्तियों का संग्रह बहुत बड़ा तैयार होगा। भोजपुरी प्रदेश में आज भी ऐसे-ऐसे व्यक्ति मिलेंगे, मुझे भी दो एक मिले हैं, जो हर वाक्य के साथ एक लोकोक्ति कहने की पटुता रखते हैं। खेती, शोक, आनन्द, उत्सव, व्यवसाय, दवा-दारू, जानवर की पहचान, लड़ाई, अध्यात्म, प्रेम, नीति आदि जितने जीवन के उपयोगी विषय हैं, सब पर प्रचुर मात्रा में भोजपुरी लोकोक्तियाँ वर्तमान हैं। उनका संग्रह कर लेना अत्यावश्यक है। उदाहरण के तौर पर कुछ लोकोक्तियां नीचे दी जाती हैं।
जानवरों को पहचान पर
जब देखिह तू मैना, एही पार से फेकिह बैना । जब तुम 'मैना' बैल (जिसका सींग पागुर करते समय हिलता हो, उसे मैना बैल कहते हैं) देखना तब अधिक जाँच की आवश्यकता नहीं, नदी के इसी पार से बयाना दे देना।
'कइल के दाम गइल'
कइल रंग के बैल की कीमत फिर वापिस नहीं होती। यह नहीं खरीदना चाहिये ।
'बयल के आठ छोट' अर्थात् छोटे सींग, छोटे पाँव, छोटी पूँछ, छोटे कान वाले बैल हल के लिये अच्छे होते हैं।
खेती
'गहि के घरी नात आरी पर बइठीं' खुद खेत जोतो, नहीं तो मेड़ पर बैठकर खुद जांतवाओ।
'जो ना दे मोना ने दे खेत के कोना' जो सोने से नहीं मिलता, वह खेत के कोने से मिलना है।
'साँवन सुकला सप्तमी छिपि के उगसु भान, तब लगि देव बरीसिहें जब लगि देव उठान ।'
अयं साफ है।
'रोहिन में घर रोहा नाहीं।'
अर्थात् - रोहिन नक्षत्र में किसान को घर पर रहना चाहिये। पानी पड़ते हो धान का बीज डालना उत्तम होता है। रोहा नामक किसान जब घर से बाहर था, तब रोहिन नक्षत्र में पानी होने पर यह उक्ति कही गई।
विविध
"राम जी के माया कहीं धूप कहीं छाया"
"भर घर देवर भतारे से ठट्ठा"
"भरि हाथ चूरी नात पट दे राँड"
"चाहे संयाँ घर रहे चाहे रहे बिदेश"
"बाग में जाये ना पाई पाँच आम नित खाई"
"विप्र टहलुआ चीक धन, ओ बेटी की बाढ़"
"एहू से धन ना घटे, त करे बड़न से राड़"
"ढाल छुरा तरुआरि, गैल कुँअर के साथ।
ढोल मजीरा खांजड़ी, रहल उजैनी हाथ ।।'
अर्थात् बाबू कुँअरसिह के साथ बहादुरी चली गयी। अब तो उज्जैनी (राजपूत जो शाहाबाद में प्रमुख हैं) के हाथ में ढाल छुरी और तलवार के बजाय ढोल, मजीरा और खजड़ी ही रह गयी है।
"खेत न जोतीं राढ़ी आ भइसॅन पोंसी पाड़ी" वह खेत जिसमें राढ़ी
घास हो, नहीं जोतना चाहिये; क्योंकि उसको तोड़ने में और घास निकालने में बड़ी दिक्कत पड़ती है और वैसे ही भैंस के बच्चे को पाल कर तैयार करने में भी बहुत-सी कठिनाइयाँ हैं। इससे इन दो कामों को नहीं करना चाहिये ।
"ए बकुला का लावल दीठि कतना फाटल एही पीठि।' सिधी या टेंगना मछली बगुला को सम्बोधन करके कह रही है 'कि है, बक तुम क्या दीठ लगा कर मुझे ताक रहे हो, मेरी इस पीठ पर अनेक जाल फट गये, अर्थात् मैं तुमसे होशियार हूँ।'
भोजपुरी में पहेलियाँ
भोजपुरी पहेली में भी लोकोक्ति को तरह पूरी धनी है। आज हो
से नहीं, बहुत प्राचीन काल से पहेलो, जिसे भोजपुरी में बुझौवल कहते हैं,
बहुत प्रचुर रूप में भोजपुरी में पाई जाती है। प्रहेलिका का भेद-निरूपण,
जो संस्कृत के आचार्यों ने किया है, उसके अनुसार यदि भोजपुरी बुझौवल
की परीक्षा की जाय, तो सभी भेद के उदाहरण इसमें मिल जायेंगे। यही
नहीं, भोजपुरी में अध्यात्म-पक्ष को लेकर भी पहेलियां कही गयी हैं। मुझे
प्रायः तीन सौ वर्ष पूर्व के संतकवि धरनीदास के 'शब्द प्रकाश' में भी
'पेहानी प्रसंग' शीर्षक से भोजपुरी पहेलियाँ अध्यात्म पक्ष को लेकर लिखी
हुई मिली हैं। कवीर साहब और धरमदास ने भी गीतों के रूप में बुझौवल
और देशकूट कहा है। जिसकी खोज होने पर काफी प्राप्ति हो सकती है।
अभी पं० उदयनारायणजी त्रिपाठी ने भी अंक ४ भाग १२ अक्तूबर-दिस-
म्बर १९४२ की 'हिन्दुस्तानी' पत्रिका में भोजपुरी पहेलियाँ शीर्षक से प्रचुर
संख्या में पहेलियाँ प्रकाशित कराई है। यदि कोई धुन का पक्का भोज-
पुरिया अपनी मातृभाषा की इन छिपी निधियों को खोज कर प्रकाश में
लाये, तो भोजपुरी की निधि किसी भी भाषा की निधि से मुकाबला करने
पर कम महत्त्व की और लघु नहीं साबित होगी। प्रश्न है केवल परिश्रम
और प्रयत्न का।
'रसस्य परिपन्यित्वान्नालंकारः प्रहेलिका । उक्तिवैचित्र्यमात्रं सा च्युतदत्ताक्षरादिका ।।
कोड़ागोष्ठी विनोदेषु तज्जैराकीर्ण मन्त्रणे । परव्यामोहने चापि सोपयोग प्रहेलिका ।।
'साहित्यदर्पण'
'काव्यादर्श'
उदाहरण अध्यात्म पक्ष
रुख ना विरोछ बसे ताहाँ सूगा, अंग विराजे पहिरे लूगा। मुंह पर मासा लच्छन मान, से बूझे से खरा सेयान ।। राउ अकेले रहे खढ़ माहीं, आपु सवारे चल से छांही। बूझ इयारे लागे ना चोट, भीतर खंधक बाहर चोर ।। नारी एक बहुतन्ह सुखदाई, पिये ना पानी पेट भरि खाई। चार महीना ताकर चाँउ, पचवें मास रहे कि जाऊँ ।। जव भरिताज न गज भरि डंडी, धरनी दास पेहानी मंडी। बिना बोज एक जामल जुआरी, नाहर चलेना पारे कुदारी ।। उपजलि सघन कियारी छोटी, सात हाथ होली ताकर रोटी। देख इयारे अजब तमासा, कनिया लाँगट बर बहुआसा ।। एक गज पुरुष सात गज नारी, पंडित होखे से लेइ विचारी। जूथ एक अपने मग आव, सात पाँच मिल करेले बधाव ।।. घर आगन के लोहे बुलाय, हाथन मंगिहे दाम चुकाइ । एक बसे नगर एक वसे पानी, एक घर में एक बन से आनी ।। खेड़ा मेड़ा ओदर मूंह, आठो मीत जानि लीह तूह। बूझ मनोहर इहो पेहानी, कहत ही मिले दूध अरु पानी ।। हाथी चढ़ि के मोल बिकाय, उहँवा होय त देहु पठाय ।। नारि एक संसार पिआरी पाँच भतार चाह बरिआरी । जे ना बूझे से हारे होड़, आन अंग ना बाइस गोड़ ।। धरनी देखल घरनी में, सुख सुने दुख होत है, कठिन एक अजूवा बात । कहिओ ना जात ।।
'शब्द-प्रकाश' धरनीदास ।
अन्य बुझौवलों के उदाहरण
एक ब्राह्मण कुएं पर बैठा सत्तू खा रहा था। पनिहारिन आकर
बानी भर के घड़ा उठाने लगी। ब्राह्मण ने कहा-
जेकर सोरि पताले खोले, आसमान में पारे अंडा ।
ई बुझौवलि बूझि के त, गोरी उठाव हंडा ।।
इस पर स्त्री ने प्रश्न के रूप में इस पहेली का उत्तर देते हुए दूसरी पहेली बुझाई, जिसका भी यही अर्थ है-
बाप के नांव से पूत के नाँव, नाती के नाँव किछु अवर। ई बुझौवल बूझि के त, पाँडे उठाव कवर ।। पास खड़ा तीसरा व्यक्ति एक तीसरी पहेली को इसी माने में बुझाक
दोनों पहेली का उत्तर देता है-
जे के खाइ के हाथी माते, तेली लगावे घानी। ए पाड़े तू कवर उठाव, गोरी ले जासु घर पानी ।।
तीनो पहेलियों का अर्थ है- महुआ। एक तिरिया बारह के बस में, बरहा लागे त आवे रस में। खने में गरभ खने में बिआय, ओकर बालम सभे सोहाय ।
मोट
एक नारी बहु रंगी, घर से निकले नंगी। ओह नारी के इहे सुभाव, सिर पर नथुनो मुह पर बार ।।
तलवार
एक नारी भँवरा अस काली, बिना कान के पहिरे बाली। बिना नाक के सूंघे फूल, जतना अरज ओतने तूल ।।
ढाल
हरदी के गाव गूब, पीतर के लोटा। ई बुझौवल बूझ नात बानर के बेटा ।।
बेल
करिआ छड़ी लाल पहार, दाढ़ी नोचसु बाप तोहार।
ताड़ और उसका फल
सब पत्तन में पत्ता बड़, हवा लगे बोले खड़खड़। देख कर जरि पातर, बुझ बुझौवल धड़ाधड़ ।।
करिआ कुत्ती बन में सुत्ती, लाते मारे फुरदे उट्ठी ।।
गीत में बुझौवल
कजरी
प्रश्न
केइएँ जे होला रे ताजिआ घोड़वा,
से केइएँ होला असवार। केइएँ जे होला जुलुमी सिपहिया, केकरा (क) पकड़ि हो ले जाय ।।
उत्तर
चिलम होखे ला से ओठा जे होखे जुलुमी सिपहिया, असवार । (से) अगिया पकड़ि हो लेइ जाय ।।
हुकवा जे होला ताजिआ घोड़वा,
भोजपुरी लोक-कहानियाँ
भोजपुरी की लोक कहानियाँ अपने ढंग की विलक्षण होती हैं। हर विषय की कहानी भोजपुरी में खोज करने पर मिलेगी। चाहे वह विषय देश- प्रेम का हो, शिक्षा और नीति सम्बन्धी हो, धर्म और अधर्म की विवेचना पर हो, भूत, दानव, परी, प्रेम या संयोग-वियोग का हो, सब विषयों की कहानी ढूंढ़ने पर भोजपुरी में अवश्य मिलेगी। और वह भी सुन्दर मुहावरे- दार अलंकारिक भाषा में। प्रायः हर गाँव में दो-एक कहानी कहने वाले ऐसे होते हैं, जो रात में कहानी कहकर अपने गाँव वालों का मनोरंजन कर के शिक्षा दिया करते हैं। यहीं तक नहीं सहस्ररजनी चरित्र की कहानियाँ, गुलबकावली की कहानी, सावित्री सत्यवान, प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, ध्रुव आदि की पौराणिक गावाएँ, भी भोजपुरी ग्रामीण कहानीकार द्वारा अपनी शैली में कही जाती हैं। उसकी भाषा इतनी मंजी हुई, लोचदार, पुष्ट और मुहा- वरेदार तथा अलंकारिक होती है कि सुनने वाले का मन प्रसन्न हो जाता है। फिर संमार के प्राचीनतम बौद्ध जातक की कहानियों का तथा संस्कृत के 'पंचतंत्र' आदि कहानी-ग्रन्थ की गाथाओं का रूपान्तर भी भोजपुरी में अनेक मिलते हैं। भोजपुर से बौद्धों का सम्पर्क काफी रहा है। इससे भी भोजपुरी में इन कहानियों का अनूदित होना बिलकुल स्वाभाविक वात है। पाली की 'नाम-सिद्ध जातक' नामक बोद्ध कहानी का रूपान्तर भोज- पुरी में 'ठट्टपाल की कहानी' है।
ठट्टपाल नामक शिष्य ने अपने गुरु से निवेदन किया कि मेरा नाम अच्छा नहीं है। इसका अर्थ बुरा है। आप मेरा नाम बदल दें। गुरु ने शिष्य को समझाया कि नाम से गुण नहीं प्राप्त होता है। गुण तो कायं से ही मिलता है। इस पर भी जब शिष्य ने हठ किया, तो गुरु ने कहा कि अच्छा जाओ, सर्वत्र देखकर मेरे कथन की परीक्षा कर लो और तब जो नाम कहोगे
वह रख दूंगा। शिष्य ठट्टपाल जब गुरु के पास से चला, तब सर्वप्रथम उसे एक स्त्री खेत में अन्न बोनते दिखाई पड़ी। नाम पूछने पर उसने अपना नाम 'लछि- मिनिया' बतलाया। फिर आगे एक हरवाहे ने अपना नाम 'धनपाल' कहा। आगे जाकर उसे एक मुर्दा मिला, जिसे खाट पर लादे लोग स्मशान लिये जा रहे थे। उसका नाम पूछने पर लोगों ने 'अमर' बतलाया। तब ठट्टपाल को ज्ञान हुआ और गुरु के पास आकर उसने कहा-
"विनिया करत लछिमिनिया के देखलीं, हर जोतत धनपाल । खटिया चढ़ल हम अम्मर देखलीं, सबसे निमन ठटपाल ।।"
अर्थात् - मैंने खेत में एक-एक अन्न बीनते हुए उस स्त्री को देखा, जिसका नाम 'लक्ष्मी' या ओर हुल बह पुरुप जोत रहा था, जिसने अपना नाम धनपाल बतलाया था। हे गुरु ! जिसका नाम अमर था, हमने उसको मरा हुआ खाट पर लदा देखा। इससे सबसे अच्छा मेरा ठट्टपाल ही नाम है कि जैसा यह नाम है, तैसा इसका गुण भी है।
भोजपुरी का शब्द-कोश
भोजपुरी का शब्द-कोश यद्यपि कोश के रूप में छपकर तैयार नहीं है और न संगृहीत ही है; पर तब भी उसकी विशालता और व्यापकता इतनी बढ़ी हुई है कि भोजपुरी भाषा-भाषी को किसी भी विषय पर अपना मत प्रकट करते समय शब्द की कमी नहीं अनुभूत होती। भोजपुरिया का जीवन स्वभावतः वीरतापूर्ण, व्यावहारिक, पौरुषमय और विविध दृष्टिकोणों वाला जीवन होता है। इससे मानव जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र के शब्द भोजपुरी के पास अपने निजी हैं, या जो नहीं हैं उन्हें वह संस्कृत, पाली, हिन्दी, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, बंगला आदि भाषाओं से उधार लेकर उसे वह अपने अनु- रूप उच्चारण देकर गढ़ लेती है। शिकार, लड़ाई, कुश्ती, हथियार, कला- कौशल, व्यवसाय, यात्रा और गृहस्थी अथवा पक्षी और उसके विविध जीवन से सम्बन्ध रखने वाले विभिन्न विषयों के शब्दों से भोजपुरी का कोश भरा पड़ा है। पक्षियों और जानवरों के नाम उनकी एक-एक अंदा, उनके उड़ने के एक-एक ढंग उनके फंसाने और शिकार के एक साधन वस्तु-विशेष के नाम भोजपुरी के पास मौजूद हैं। यदि भोजपुरी का शब्दकोश तैयार किया जाय, तो उससे भोजपुरी के ही शब्द-भण्डार की वृद्धि नहीं होगी, बल्कि हिन्दी के कोश की भी उन क्षेत्रों में, जिनमें उसके अपने शब्द कम है, अधिक वृद्धि होने की सम्भावना है। भोजपुरी में शब्दों की बहुलता के सम्बन्ध में निम्नलिखित छन्द से आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि केवल गो माता और उसके गोहन के लिये भोजपुरी में कितने शब्द हैं।
धरनीदास कृत महराई
बिसराम
महरा के महरैया भइया, गावल धरनीदास । मन बच करम सकल ते भैया, मोहि महरा के आस ।।
चौपाई
एक दिन मोर मन चढ़ेला पहार, गाइ के गहरि देखि बहुत पसार ।। अगनित गड्या भइया गनिना सिराइ, दहुँदिसि गोधन रहेला छितराय ।। बहिला गाभिन कत सारिलहइन, मन भरिभरि दूध गाई के संदेहु ।। बाछी आछी आछी देखो बछवा बछेल, लेरुआ, बछरुआ. मगन मन खेल ।। लाली गोली धवरी पिअरी कत कारी, कजरि, संवरि, कहली, कबरी टिकारी ।। कत सिगहरि कत देखली मुरेर, गोरुआ चरेला सब निकट नियेर ।। तर कइले धरती जे उपर अकास, महरा रचे ला तहाँ गाइ के गो आस ।।
बिसराम
उपजल घास लहालही, सीतलि छहरि पनिवास। महरा ना देखलों ओहि ठहर, चित मोरा भइले उदास ।।
चोपाई
जब लगि ना देखल गइड़ी चरवाह, जनु मन गइले जल अवगाह ।। सोचि सोचि मनुवा रहेला मुरझाइ, तेही अवसर केहू मुरली बजाइ ।। मुरली सुनत मन भइले खुसिहाल, रहलीं भिछुक जनु भै गैली भुआल ।। धुनि सुनि मनुवाँ ऊपर चड़ि गेल, ताहाँवा देखल एक अद्भुत खेल ।। विनु रबि ससि तहाँ होला उजियार, रिम झिम मोतिया बरिसु जल धार ।। गरज सुधन घन सुनत सोहाइ, चहुँ दिसि विजुली चमकि चलि जाइ ।। झरि झरि परेला सुरंग रंग फूल, फूले फूले देखल भँवर एक भूल ।। चक्र एक घुमेला उड़ेला एक साँप, नाहि ताहाँ करम धरम पुनि पाप ।।
बिसराम
ताहि पर ठाढ़ देखल एक महरा, अवरन वरनि ना जाइ ।। मन अनुमानि कहत जन धरनी, धनि जे हो सुनि पति आइ ।।
चौपाई
पवि दुवो पउआ परम झलकार, दुरहुर स्याम तन लाम लहकार। लमहरि केसिया पतरि करिहांव, पीअरि पिछोरी कटि बरनि ना आव ।। चनन के खोरिया भरल मव अंग, धार अनगिनत बहेला जनु गंग ।।
माथे मनि मुकुट लकुट सुठि लाल, झिनवा तिलक सोभे तुलसी के माल IL नीक नाक पतरि ललहुँ बड़ि आँखि, मुकुट मझारे एक मोरवा के पाखि ।। कान दुवो कँड़ल लटक लट झूल, दारही गोछि नूतन जइसन मखतूल ।। प्रफुलित बदन मधुर मुसकान तेहि छबि उपर धरनि बलि जात ।। मन कैला दंडवत भुइआं धरि सीस, माथे हाथे घरि प्रभु देलन्हि असीस IL
बिसराम
महरा हाथ बिकइले मनुआ, भइलीहँ महरा के दास। सब दुख दुसह मेटाइ गैला, साधु संघति सुख वास ।।
भोजपुरी मुहावरा
मुहावरों के प्रयोग और निर्माण में भोजपुरी लोकोक्तियों की तरह ही उदार है। ५००० भोजपुरी मुहावरों का अच्छा संकलन अभी पं० उदय- नारायण जी त्रिपाठी ने 'हिन्दुस्तानी' में प्रकाशित कराया है। इसके अतिरिक्त इस संख्या से कई गुना अधिक संख्या में भोजपुरी मुहावरे भोजपुरी भाषियों के कंठ में वर्तमान हैं।
निम्नलिखित झूमर गीत में ठेठ मुहावरों का सुन्दर प्रयोग देखिये- मारत वा गरिआवत वा देख इहे करिखहवा मोहि मारत बा। आंगन कइली पानी भरि लइली, ताहु ऊपर लुलुआवत बा। अस सौतिन के माने माई, हमरा बदही बनावत बा। ना हम चोरिन ना हम चटनी, झुठहुँ अछरंग लगावत बा। सात गदहा के मारि मोहि मारे, सूअर अस घिसिआवत बा। देखहु रे मोर पार परोसिन, गाइ पर गदहा चढ़ावत बा। पिअवा गँवार कहल नहि बूझत, पनिआ में आगि लगावत बा। हे अम्बिका, तू बूझ करिह अव, अॅचरा ओढ़ाइ गोहावत बा।
भोजपुरी व्याकरण
भोजपुरी व्याकरण की उदारता, सादगी और लचीलापन बहुत सुन्दर है। इसके व्याकरण की सबसे खूबी यह है कि इसके नियम जटिल नहीं हैं।
इसमें सामयिक प्रयोग बराबर आते रहते हैं। ग्रियर्सन साहब ने इन विशेष- ताओं को स्वीकार कर भोजपुरी व्याकरण की प्रशंसा की है। उनका कहना है कि "इसके विशेषणों के प्रयोग में लिग का विचार बंगाली भापा की तरह बहुत कम रखा जाता है। इसकी सहायक क्रियाएँ तीन हैं। जिनमें दो का तो प्रयोग बँगला में पाया जाता है; पर हिन्दी में उनका प्रयोग नहीं मिलता। मोटे तौर पर व्याकरण के स्वरूपों को मापदण्ड मान कर बिहारी भाषा (भोजपुरी, मैथिली और मगही) पश्चिमी हिन्दी और बंगला दोनों के वोच का स्थान रखती है। उच्चारण में इनका रुझान अधिक हिन्दी से मिलता- जुलता है। कारक के अनुसार संजा के रूप-भेद में यह कुछ अंशों में बंगला का अनुकरण करती है और कुछ अंशों में हिन्दी का परन्तु सबसे बड़ी बात इस बिहारी भाषा (भोजपुरी, मैथिली, मगही) की यह है कि इनके निर्माण का वास्तविक आवार, जो इनके शब्दों के उच्चारण होने में विलम्बित स्वर ध्वनि है, उसमें यह एकमात्र बंगला का ही अनुकरण करती है। हिन्दी का
नहीं।" फिर आगे भोजपुरी व्याकरण की मगही और मैथिली के साथ तुलना करके वे लिखते हैं कि "क्रिया का काल के अनुसार रूप-परिवर्तन का नियम मगही और मैथिली में जटिल है, पर भोजपुरी में यह उतना ही सादा और सीधा है, जितना कि हिन्दी और बंगला में है।"
भोजपुरी व्याकरण लिखने की ओर सबसे पहला प्रयत्न मि० जान वीम्स् ने किया था और सन् १८६७ ई० में रायल एसियाटिक सोसाइटी में एक निबन्ध पढ़ा, जो सन् १८६८ के उक्त पत्रिका के पृष्ठ ४८३ से ५०८ में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद मि० जे० आर० लेड ने आजमगढ़ के १८७७ के सेटलमेन्ट के रिपोर्ट के अपेन्डिक्स नं० २ में भोजपुरी भाषा और उसके व्याकरण की रूपरेखा देने का प्रयत्न किया था। फिर १८८० में रुल्फ हीरूल ने अपना कम्परेटिव ग्रामर आफ दि गार्जियन लैंग्वेजेज नामक निबन्ध प्रकाशित कराया। इसके बाद जी० ए० ग्रियर्सन में भोजपुरी व्याकरण पर वैज्ञानिक खोज की। इनकी खोज अधिक प्रयत्नपूर्ण तथा वैज्ञानिक रही।
इन्हीं की लिखी भोजपुरी ग्रामर नामक एक पुस्तक अलग ही छपी है। फिर बिहार-ओरीसा की रिसर्च सोसायटी की पत्रिका सं० ४१ और २१ भा० ३ 'ए डाइलेक्ट आफ भोजपुरी' नाम से, भोजपुरी व्याकरण पर पण्डित उदय- नारायण तिवारी का एक वृहद् लेख बाबू काशीप्रसाद जायसवाल की कृपा से छपा। उसके बाद से आज तक वृहद् प्रयत्न और अनुसन्धान तथा अध्ययन के साथ उन्होंने भोजपुरी पर खोज की है और डाक्टरेट की थीसिस के रूप में भोजपुरी व्याकरण पर एक बहुत वैज्ञानिक और पाण्डित्य-पूर्ण निबन्ध तैयार किया है। इसमें भोजपुरी के व्याकरण, इतिहास आदि सभी विषय वहुत सुन्दर तरीके से प्रतिपादित है। भोजपुरी व्याकरण पर यह सबसे नूतन प्रयत्न बहुत ही सफल हुआ है।
भोजपुरी गद्य
भोजपुरी गद्य में इसकी कोई प्राचीन साहित्यिक पुस्तक अभी तक देखने को नहीं मिली, परन्तु फिर भी भोजपुरी भाषा के बोलनेवाले अपने दैनिक जीवन की लिखापड़ी के कामों का माध्यम, भोजपुरी गद्य को ही शतकों से मानते और व्यवहृत करते चले आ रहे हैं। बड़े-बड़े राज्यों के कागज- पत्र, सनद, दस्तावेज, चिट्ठी-पत्री, पंचायतनामा, व्यवसाय के बीजक, खजाने के वीजक आदि जितनी मानव जीवन के व्यवहार की चीजें हैं, वे सब भोजपुरी गद्य में ही सम्पादित हुई हैं और आज भी हो रही हैं। इस तरह भोजपुरी गद्य, यद्यपि साहित्य की भाषा विद्वानों द्वारा नहीं माना गया है; पर तब भी जनता ने अपने काम का माध्यम मान लिया है। इसको अपने नित्य के काम की भाषा प्राचीन काल से माना है। नमूने के लिए १७९६ सं० की एक सनद तथा सन् १२४९ साल का एक दूसरा दानपत्र नीचे दिया जाता है--
फारसी में बाबू उदवन्तसिह की मुहर है उसका काल ११३३ साल है।
स्वस्ति श्री रिपुराज दैत्य नारायणात्यादि विविध वीरुदावली विराजमान मानोन्नति श्री महाराज कुमार श्री बाबू जीउ देव ... देवानां सदासमर विजयीनां के सुवंस पाँडे ब्राह्मण साकिन प्रयाग बदस्तूर पाछिल पुरोहिताई रजन्हि के दिहल इन्हका के रहल है तेही बमोजिब हमहू दिहल। जे प्रयाग जाय से इन्हहीं मान ता० २९ माह रवि विसाख सन् ११३७ साल मुकाम जगदीशपुर प्रगने बीहीआ सम्वत् १७९६ अगहह्न
बदी अमावस गोत्र सवनुक मूल उज्जैन जाति पवार । बदस्तूर साविक हम उपरोहित कइल सुत्रस पांडे के।
ये जगदीशपुर राज्य के बड़े प्रतापी पुरुप हो गये हैं। इनकर बसाया आरा के पास बहुत बड़ा गाँव 'उदवन्तनगर' है। इन्हीं के परपौत्र बाबू कुँअरसिंह ने सन् १८५७ में अंग्रेजों के विरुद्ध उज्जैन राजपूतों को एकत्र कर अन्तिम बार युद्ध किया था। वावू कुँअरसिह को कौन विद्वान् नहीं जानता । इनकी दी हुई सन् १२४९ की सनद नीचे दी जाती है।
(२) बाबू कुँअरसिंह
स्वस्ति श्री संकर पांड के लि० श्री महाराजकुमार बाबू ... जी के परनाम। आगे पचीस विगहा जमीन देल रउरा के। साल आइन्दे में जरखेत नया दिआई। ता० २९ पुस, सन् १२४९ साल ।
दस्तखत पचीस विगहा जमीन देल। मुहर बा० कुँअरसिंह नाम का है। इन उद्धरणों से ज्ञात होगा कि भोजपुरी गद्य नित्य के सभी कामों में व्यवहुत होता था। साथ ही इनसे यह भी ज्ञात होगा, जैसा कि जान बीम्स ने भी लिखा है कि अन्य भाषाओं के संसर्ग का प्रभाव भी भोजपुरी पर समय समय पर पड़ता रहा है। पर सुदूर का ठेठ गद्य (भोजपुरी) जो इन संसर्गों
से रिक्त है, आज भी अपनी मिठास और लोच के लिए विख्यात है। इसके अलावा छपा हुआ भोजपुरी गद्य वह है, जो पुस्तिकाओं के रूप में सरकार द्वारा समय-समय पर प्रचारार्थ छपवाया गया। ये विगत तथा वर्त- मान लड़ाई के अवसर पर निकाल कर बटवाये गये थे। सन् ३० या २१ के आन्दोलन के खिलाफ भी प्रचार के लिए इनको छपवाकर सरकार ने वितरण कराया था। अभी सन् १९४२-४३ में श्री राहुल सांकृत्यायनजी ने कई नाटक कम्यूनिस्टों के मत के प्रचार में निकाले हैं। इसके पूर्व भिखारी ठाकुर का 'विदेशिया' नाटक भी छपकर बहुत सख्या में वितरित हुआ था; पर पठित और संस्कृत समुदाय के लिए सुरुचिपूर्ण नही माना जाता।
भोजपुरी पद्य
भोजपुरी में गद्य की तरह पद्य-साहित्य भी है। भोजपुरी का पयसाहित्य बहुत सुन्दर और विशाल है; परन्तु वह अभी तक प्रकाशित नहीं किया गया है। वह आज भी २६४००००० भोजपुरी भाषी नर-नारियों के कण्ठों में निवास करता है। वहाँ उसका अपना रंग निराला है। वेद भी तो कभी इसी तरह स्मरण रखे जाते थे। भोजपुरी गीत और उसके काव्य की प्राचीनता को ठीक-ठीक आंकना बड़ा कठिन कार्य है। फिर भी बहुतों का समय वर्णित घटनाओं के आधार पर या विपय में ही हुई उपमाओं से निकाला जा सकता है। पर, दुःख की बात यह है कि भोजपुरी की यह पुरानी निधि, जिसके लिए प्रत्येक भोजपुरी को गर्व है, बहुत शीघ्रतापूर्वक वयोवृद्ध नर- नारियों के जीवन-निशेष के साथ-साथ नित्यप्रति नष्ट होती चली जा रही है। यदि इसका संकलन शीघ्रातिशीघ्र नहीं हो जाता, तो इस विज्ञानयुग की चकाचौध में नई पीढ़ी की क्षमता और अभिरुचि ऐसी नहीं प्रतीत होती कि इन्हें स्मरण रखकर वे अपनी दूसरी पीढ़ी को इसी रूप में दे सकेंगी। उसके आमोद-प्रमोद के तरीके और सामग्री बिल्कुल दूसरे रंग की होती चली जा रही हैं। उनकी इस परिवत्तित अभिरुचि में इस निधि की रक्षा ऐसी ही होती रहेगी, यह मानना कठिन है। अतः इस निधि को शुद्ध रूप में संकलन कर छपा लेने पर ही भोजपुरी के पद्य-साहित्य की रक्षा हो सकेगी और वह विद्वानों के सामने रखी जाने लायक वस्तु समझी जायेगी।
भोजपुरी कवि और काव्य
भोजपुरी भाषा-भाषी प्रदेश में सदा कवि होते आये हैं। काशी इसके लिये विख्यात है। इस क्षेत्र में उसका अपना अलग ढंग है। संस्कृत और हिन्दी के बड़े-बड़े विद्वानों और कवियों का जन्म और निवासस्थान भोजपुरी भाषी प्रदेश को होने का सौभाग्य प्राप्त है। हिन्दी के बड़े कवियों में हम सर्व- प्रथम कवीर, तुलसीदास, धरनीदास, धरमदास, दुलमदास, शिवनारायण, घाघ, भड्डरी, रोहित, हरिश्चन्द्र, गिरधरदास आदि का नाम ले सकते हैं, जिन्होंने हिन्दी और भोजपुरी दोनों में कमीवेशी मात्रा में लिखा है। इनके अतिरिक्त हिन्दी के वे कवि भी, जिनका भोजपुरी से उतना सम्बन्ध नहीं था, जैसे सूर, मीरा, विद्यापति आदि ने भी भोजपुरी में कहा है। इन प्राचीन बड़े प्रसिद्ध कवियों के अलावा अज्ञात कवियों ने भी अत्यधिक मात्रा में भोजपुरी काव्य-भण्डार को भरा है। इनके रचे हुए बिना नाम के छन्द, गीत, भजन, बानी निर्गुन, जैतसार, सोहर, झूमर, सहाना, बारहमासा-हजारों की संख्या में भोजपुरी भाषी नर-नारी के कण्ठों में आज वर्तमान हैं। इन बड़े प्राचीन ज्ञात और अज्ञात कवियों के अलावा मध्यम श्रेणी के ज्ञात और अज्ञात कवियों की संख्या भी कम नहीं है पर इनमें अधिकांश के नाम तो विस्मृत हैं। उनकी रचना भर यदा-कदा पाई जाती है। इस श्रेणी में से कुछ के नाम ये हैं तेगअली 'शेर' बनारस, अम्बिकाप्रसाद मोख्तार आरा, रामोदरदास, आरा, तोफाराय छपरा। आधुनिक काल में हिन्दी के वे सभी कवि और लेखक, जिनका जन्म भोजपुरी क्षेत्र में हुआ है, उनकी भाषा भी यही कही जा सकती है।
भोजपुरी कवि अपनी कविता का विषय अधिकतर राष्ट्र और देश-प्रेम, सत्य और धर्म या समाज को बनाया करता है। वह अपनी कवित्व-शक्ति का प्रयोग चतुर्मुखी विषयों पर करता है। कठिन और आपद के दिनों में तो न जाने कहाँ से भोजपुरी कवि की कवित्व शक्ति जाग उठती है। वह हँस-हँस कर अपनी नवरचित कविता का पाठ करता है और हँसी, मजाक, व्यंग्य आदि में ही परिस्थिति कठिनाई या विपत्ति या जुल्म की गुरुता को सह्य और लाघव बना देता है। पत्थर इतने जोर का पड़ा कि खड़ी फसल नष्ट हो गयी, तूफान आया और फला-फलाया आम गिरकर ढेर हो गया। लोग दुःख मनाने चले, तो फौरन भोजपुरी कवि अपनी नवरचित व्यंग्यात्मक तथा हास्य-
पूर्ण कविता में सान्त्वना प्रदान करने और हिम्मत बँधाने के लिए घर से
बाहर निकल आया और गाने लगा। बस एक गाँव से दूसरे गाँव तक तार
की तरह वह कविता बात की बात में हजारों कण्ठों से गा ली गयी। कोई
लड़ाई हुई, कोई दंगा हुआ, कोई स्त्री सती हुई या ऐसी ही कोई असाधारण
घटना घटते देर नहीं हुई कि भोजपुरी कवि अपनी कविता उस पर उसके
गुणदोष के साथ, व्यंग्य और हास्य तथा करुण रस में सुनाने को तुरत
तैयार मिलेगा। विगत अगस्त सन् १९४२ के गोलीकाण्डों के समान भीषण
दमन के अवसरों पर भी सैकड़ों भोजपुरी कविताएँ हास्य, व्यंग्य और प्रोत्साहह्न
के रूप में अज्ञात जन कवियों द्वारा हँसते-हँसते कह डाली गयीं। ५७ के विद्रोह
को लेकर भी सैकड़ों गाने रचे गये और वे आज तक भी गाये जा रहे है।
कांग्रेस-आन्दोलन के अवसरों पर भी गांधीजी को हर लड़ाई को लेकर संकड़ों
गाने रचे गये और गाये गये। सन् २१ से ३० तक के हर कांग्रेसी जत्थे को
'चलू भैया चलु मैया सब जने हिल मिल, सूतल जे भारत के भाई के जगाई
जा' वाला गीत गाना फर्ज-सा हो गया था। वैसे ही, मनोरंजनजो रचित
'फिरंगिया' गाना भोजपुरी में बहुत प्रसिद्ध है, जिसका एक चरण है-
'भारत के छतिया पर भारत वलकवा के बहेला रकतवा के धार रे फिरंगिया।'
इन्हीं गुणों को देख कर ग्रियर्सन साहब ने सन् १८८६ ई० के 'ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैण्ड' की 'रायल एशियाटिक सोसाइटी' की पत्रिका के पृष्ठ २०७ से २१४ तक में शाहाबाद के बिरहों के उद्धरण पेश करते हुए लिखा है--
"जैसी कि आशा की जा सकती है, उसके ठीक प्रतिकूल भोजपुरी काव्य में वीरत्व के आदर्श राम का वर्णन मथुरा के गोपालक कृष्ण के वर्णन से अधिक पाया जाता है। इसका एकमात्र कारण इन गायकों के चतुर्दिक का वातावरण है। शाहाबाद का जिला, जिसमें ये गायक रहते हैं, वीर-गाथाओं और वोर-गीतों की बहुलता में द्वितीय राजपूताना कहा जा सकता है। यह भूमि उस भगवती नाम्नी राजपूतिन के रक्त से पवित्र को हुई भूमि है, जो मुसलमानों से अपने भाई को बचाने के लिए तालाब में डूब मरी थी और यह भूमि विख्यात महोबा वीर आल्हा ऊदल की जन्मभूमि है... इसके अन्तिम दिनों में भी, वीर हृदय वृद्ध कुँअरसिह ने शाहाबाद के राजपूतों का राजविद्रोह के दिनों में अंग्रेजों के विरुद्ध नेतृत्व किया था। यह देश वीर और लड़ाके पुरुपों का देश है और इसीलिए इस भूमि के देवता अयोध्या के राम हैं-मथुरा के कृष्ण नहीं।"
भोजपुरी काव्य
भोजपुरी काव्य में कई एक गाने तो गाथा के रूप में बहुत बड़े हैं, जिनको अंग्रेज विद्वानों ने जातीय काव्य का नाम दिया है। इनमें हैं लोरिकी, बनजरवा, नयकवा, आल्हा, ढोलन, भरथरी, सावन, गोपीचन्द आदि आदि । इनमें से दो-एक का अनुवाद मगही में भी हुआ है। ये गीत कुछ तो संगृहीत होकर अंग्रेज विद्वानों द्वारा छपे हैं, कुछ प्रकाशकों द्वारा भी छपकर बाजार में विकते हैं। और कुछ अभी तक अप्रकाशित ही हैं। इनके अलावा शिवजी के ब्याह, रामजी के व्याह आदि पौराणिक गाथाओं को लेकर भी 'साँइयों' द्वारा सारंगी पर भिक्षाटन करते समय अनेक गाने लेखक के सुनने में आये हैं। शिवजी का ब्याह तो इस संग्रह में ही उद्धृत है। इनके अतिरिक्त भोजपुरी में छन्दों की रचना भी काफी है, जिनमें गिरधरदास की लाठी वाली कुंडलिया तो प्रायः हर लडधारी भोजपुरी की जबान पर रहती है। इस कुंडलिया को उद्धत करते हुए ग्रियर्सन ने इसको भोजपुरी राष्ट्रगान के नाम से सम्बोधित किया है। फिर बीर कुँअरसिह पर भी अनेक छन्द और गीत लेखक को मिले हैं। आज तक जितने काव्य प्रकाश में आ चुके हैं, उनकी नामावली यहाँ दे देना अनुचित नहीं होगा-
(१) बंगाल एशिआटिक सोसाइटी की पत्रिका सं० ३, सन् १८८३ ई० के पृष्ठ १ और आगे एच० फेजर ने पूर्वीय गोरखपुर जिले के कई लोक- गीतों को छपवाया था।
(२) जी० ए० ग्रियर्सन ने रायल एशिआटिक सोसाइटी की पत्रिका सं० १६ सन् १८८४ भाग १ पृष्ठ १९६ में 'चन्द्र बिहारी लोकगीत' शीर्षक से भोजपुरी गीतों को प्रकाशित कराया था।
जी० ए० ग्रियर्सन ने आल्हा के विवाह के गीतों को 'इंडियन ऐन्टी- क्वेरी' सं० १४, १८८५ पृष्ठ २०९ और आगे प्रकाशित कराया है।
उक्त लेखक ने 'गोपीचन्द के गीत के दो पाठ' शीर्षक से बंगाल एशिआटिक सोसाइटी की पत्रिका १८८५, भाग १ के पृष्ठ ३५ और आगे गोपीचन्द गीत छपवाया है।
उक्त लेखक ने जर्मन भाषा की एक विख्यात पत्रिका में सन् १८८९ में 'भोजपुरी भाषा' और 'नयका बनजरवा के गीत' नामक शीर्षकों से भोजपुरी काव्य प्रकाशित कराया था।
लाल खङ्गवहादुर मल्ल महाराजाधिराज ने 'सुधावुन्द' बाँकीपुर १८८४ में साठ कजरी गीतों का संग्रह प्रकाशित कराया था।
पण्डित देवीदत्त शुक्ल ने देवासुर चरित्र नामक नाटक के दृश्यों का वर्णन भोजपुरी गद्य में ही लिखा है, जो बनारस से सन् १८८४ में प्रकाशित हुआ था।
पं० देवीदत्त शुक्ल ने 'जंगल में मंगल' नामक पुस्तक में बलिया की किसी तत्कालीन घटना का संक्षिप्त विवरण भोजपुरी में ही दिया था, जो बनारस से १८८६ में छपी थी।
पं० रामगरीब चौबे ने 'नागरी विलाप' नामक पुस्तिका भोजपुरी में ही लिखी, जो सन् १८८६ में बनारस से छपी थी।
एस० डब्लू० फैलन० कैप्टन आर० सी० टल्प और लाला अमीरचन्द ने हिन्दुस्तानी लोकोक्ति-कोश नामक पुस्तक में, जो १८८६ में बनारस से छपी थी, पृष्ठ २७४ और आगे भोजपुरी लोकोक्तियों का संग्रह छपाया था।
बनारस के मशहूर बदमाश तेगअली 'शेर' की रची हुई 'बदमाश- दर्पण' नामक काव्य-पुस्तक भोजपुरी में सन् १८८९ में बनारस से प्रकाशित हुई थी।