जब हम रहली रे लरिका गदेलवा हाय रे सजनी, पिया मागे गवनवा कि रे सजनी ॥१॥
जब हम भइलीं रे अलप वएसवा, कि हाय रे सजनी पिया गइले परदेसवा कि रे सजनी 11२॥
बरह बरसि पर ट्राजा मोर अइले, कि हाय रे सजनी, बइठे दरवजवा कि रे सजनी ॥३॥
कोलियन अँकली, खिरिकिअन झंकली, कि हाय रे सजनी, पिया बहुते नदनवा कि रे सजनी ॥४॥
बाबा के चोरिये चोरिये हजमा पठवलीं, कि हायरे सजनी, अम्मा भेजे धेनु गइया कि रे सजनी ॥५॥
दिनवा पिअइत्रो रे दुधवा मरीचिया, कि हाय रे सजनी, रतिया तेल अबटनवा, कि रे सजनी ॥६॥
अवटि चोवटि छैला कइलों रे सेअनवा, कि हाय रे सजनी, मागे अलप जोवनवा कि रे सजनी ॥७॥
'जब मैं बहुत छोटी बालिका यो, तब हे सजनी, हमारे प्रीतम, गवना मांगने लगे। पर अब जब मैं बालिका से बाला हुई, तो हे सखी, पिया परदेश चले गये।' ॥१,२।।
'हाय, हे सजनी बारह वर्ष पर मेरे राजा विदेश से लौटे; किन्तु बाहर हो डेवढ़ी के दरवाजे पर बैठ रहे।' ॥३॥
'हाय, हे सखो, मैं ने जब गलो और खिड़की से झाँक कर उन्हें देखा, तं. हमारे पति बहुत नादान दिखाई पड़े। ॥४॥
'हे सखी, मैंने अपने श्वसुर से छिपा कर नाई को पत्र देकर मायके भेजा, तो अम्मा ने धेनु गाय भेज दी ।' ॥५॥
'हाय रे सखी, दिन में मैं उन्हें दूध और मिर्च पिलाने लगी और रात्रि में तेल का मालिश करने लगी। ॥६॥
'तेल लगा कर और खिला-पिला कर जब मैंने प्रियतम को पुष्ट किया, तब वे हमारे छोटे जोवन को मांगने लगे।' ।।७।।
(२)
चइत मास धन भइले बदरा, पिया गइले परदेसवा, जोहवि बटिया ।।
जाऊ जाउ रे चिरइया उड़ि जाउ देसवा,
ओहि देसवा में जाके बजइहे बंसिया ॥१॥ ओहि देसवा में जाके बजइहे बसिया, तोर बंसिया सवद सुनि अइहें रसिया ॥२॥
उठु उठु रे ननदिया धराउ अपना भैया के बतिया, जाके निहारु छविया ॥३॥
मों अलबेली मोर सैयां रसिया, रस मागे बलमुआ आधे रतिया ॥४।।
'चैत मास आया और आकाश में बादल घने होने लगे। मेरे पति परदेश गये और मैं उनकी बाट जोहने लगी !'
'हे पपोहा, हे कोयल, तुम यहाँ से चली जाओ, उड़कर उसी देश में पहुँच जाओ, जहाँ हमारे पति हैं। और वहाँ जाकर तुम अपती सुरीली तान सुनाओ ।' ॥१॥
'तुम्हारी तान को सुनकर हमारे रसिक अवश्य चले आयेंगे ।'॥२॥
'हे ननद जी उठो, उठो। अपने घर में दीपक जलाओ। अपने भाई की शोभा देखो।' ॥३॥
'मैं अलबेली हूँ। हमारे बालम रसिक हैं। इस आधी रात को ही मुझसे रस मांगते हैं।'
वियोग का वर्णन मामिकता से निभाया गया है। अन्त में संयोग भी हो गया है।
( ३ )
मो मतवालिन होइ जइवों, चनन छेइ छेइ भठिआ बोझइवों, आरे धीरे धीरे अँचिया लगइवों ।।१।। मो मतवालिन ०।।
सेर भर महुआ सवा सेर पानी, भारे धीरे धीरे महुआ चुअडवो ।। मो मतवालिन० ।। अपने मो पिअवी संया के पिअइवों । अरे बिछुरल प्रेम जगइबों ।। मो मतवालिन, होइ जाइवों ।
'अरे हे सखी प्रोतम आने वाले हैं' में मतवाली हो जाऊँगी। चन्दन कटाकर भट्ठी बोझाऊंगी और धीरे-धीरे उसमें आँच लगाऊँगी। हे सखी ! में मतवाली हो जाऊँगी।' ॥१॥
'एक सेर महुआ और सवा सेर उसमें पानी डालूंगी और धीरे-धीरे शराब निकालूंगी। हे सखी! प्रियतम आने वाले हैं। में मतवाली हो जाऊंगी।'
'उस शराब को में पीऊंगो और संया को भी पिलाऊँगी और तब बिछड़े हुए प्रेम को जगाऊँगी। हे सखी प्रियतम आनेवाले हैं। में मतवाली बनूंगी ।'
कितनी सुन्दर प्रियतम-मिलन की तैयारी है। विरह के सारे अभाव एक ही रात में पूरे करने को आकांक्षा है।
( ४ )
आरे बाजत आले ला ढोल के ढमाका,
से नाचते रे आवे ला ऊ बिसनी कहरवा नु हो ॥१॥ आरे अपना महलिया से रनिया निरेखे, से कतेक नाच ना उ जे नाचे ला कहरवा हो ॥२॥ आरे अपना अटरिया से रजावा निरेखे, कहरवा सँगवा ना रनिया उढ़रलि जाली हो ॥३॥ आरे एक कोस गइली दुसर कोस गइली, लागी रे गइले ना उ जे मधुरी पिअसिया हो ।।४।। गोड़ तोर लागी ला कहरा के छोकड़वा, पगरिया बेचि के ना मोहिके पनिया पिआव हो ।।५।।
गोड़ तोर लागी ला कहरा के छोकड़वा, पगरिया बेचि के ना मोहि लडुआ खिआव हो ।।६।। गोड़ तोरा लागी ला रानी ठकुरनिया, गहनवा बेचि के ना मोहि के मधुआ पिआव हो ॥७॥. एक कोस गइली दूसर कोस गइली, सिखावे लगले ना कहारा अपनी अकलिया हो ।॥८॥ अरे, खोलहू हो राज-वेटी सोनवा त रूपवा, पहिर रे लेहु न रनिया कंसवा पितरवा हो ।।९।। आरे, खोलहू रे राज-बेटी लहरा पटोरवा, पहिर रे लेहु ना रनिया फटही लुगरिया हो ।।१०।। आरे, जहुँ हम जनितों कहरा मोर बुधि छरवे, बाबा के गउएँ तोहि के फॅसिया दिअइतों ।।११।।
'अरे ढोल और ढप बजता हुआ आ रहा है। और उसी के साथ नाचता हुआ वह सुन्दर और मोहक (बिसनी) कहार-पुत्र भी चला आ रहा है। (बिसनी शब्द का पर्यायवाची शब्द मुझे नहीं मिला। बिसनी का प्रयोग बहुत ही साफ सुथरा रहने वाला, पर साथ ही तुनुक मिजाज) भोजपुरी लोकोक्ति भी है 'का माघ के बीसनी बनल बाड़।' ।।१।।
'अपने महल से रानी उसे निहारती है और कहती है कि वह कहार कितना सुन्दर नाच रहा है।' ॥२॥
'साथ ही अपने कोठे से राजा ने देखा कि कहार के साथ रानी निकली चली जा रही है।' ॥३॥
'रानी एक कोस गई, दूसरे कोस गई तीसरे कोस में उसे मीठी प्यास लगो ।' ॥४॥
'वह खड़ी हो गई और कहार से कहा, 'हे कहार के छोकड़े, में तेरे पाँव पड़ती हूँ। अपनी पगड़ी बेंचकर तुम मुझे पानी पिलाओ। मुझे प्यासः लगी है।' ॥५॥
'हे कहार के लड़के, में तेरे पाँव पड़ती हूँ, अपनी पगड़ी बेचकर मुझे लड्डू खिलाओ ।' ।॥६॥
'इस पर कहाँर पुत्र ने कहा- हे रानी, में तुम्हारे पांवों पर गिरता हूँ, तुम अपने गहनों को बेचकर मुझे शराब पिलाओ ।' ।।७।।
'एक कोस गई। दूसरा कोस गई। तीसरे में कहार के छोकड़े ने अपनी बुद्धि सिखलाना शुरू किया ।' ।।८।।
'कहा- हे राजपुत्री, अपने सोने चांदी के जेवर उतार दो और यह काँसा पीतल का गहना पहन लो' ।॥९॥
'हे रानी अपना कीमती लहँगा चादर खोल दो और यह फटी लुंगरी पहन लो।' ॥१०॥
'अब रानी को अपनी वास्तविक अवस्था का बोध हुआ, वह पश्चा- त्ताप करके कहने लगी- 'रे कहाँर यदि में यह जानती कि तुम बुद्धि हर रहे हो, तो में अपने स्वसुर के गांव में हो तुझे फांसी दिलवा देतो ।' ॥११॥
जो भोली-भाली औरत क्षणिक आकर्षण में आकर आततायियों के साथ निकल पड़ती हैं, उनके लिए यह गीत चेतावनी स्वरूप है और सम्भव है कि इससे कितनी भोली-भाली बधुएँ पतन से बच भी सकी हों।
( ५ )
मोरा पिछवरवा रे घनि रे बसवरिया कि ताहि चढ़िना कोइलर बोले विरही बोलिया। कि ताही० ॥१॥
अँगना बहारि के दुअरवा घुरवा लवलीं, घरीलवा लेके ना साँवरि पनिया के जाली हो। घरिलवा० ॥२॥ घइला भरीय भरि अररा चढ़वली,
कि केहू रे नाहीना घरोला अलगावे । से केहू रे० ॥३॥ घोड्या चहल अइले हंसराज देवरू, रचि एका ना देवरू घरिला अलगाव से रचिए कान० ॥४।॥
एक हाथे देवरु घइला अलगावें,
कि दूसरे हाथे ना घई अँवरा विलमावे। कि दूसरे हाथे० ।।५।। छोड़ छोड़ देवरा हमरो अँचरवा,
कि सुनि पइहें ना तोरे भइया हो जुलुमिया ॥ कि सुनि० ।।६।। सुनिहें त सुने देहु मोरि भउजड्या, कि भइया अगवा ना ए करवि लड़िकइयाँ ।। कि भैया० ॥७॥
'मेरे घर के पोछे बाँस को घनो कोठ है। उसी पर बैठकर प्रातःकाल हो से कोयल बिरह को जगाने वालो बोलो बोल रही है। इससे मुप्त विर- हिणो का मन चंचल हो उठता है।' ॥१॥
'सुन्दरो ने बोलो सुनते-सुनते ओर मन में प्रियतम की चिन्ता करते- करते, आँगन बहार डाला। उसका कूड़ा उठाकर दरवाजे के बाहर फेरु दिया। और तब घड़ा लेकर वह स्त्रो पानी भरने चलो।' ॥२॥
'घड़ा भर-भर कर बड़ी मिहह्नत से उसने तोर के अरार पर उन्हें चढ़ाया। पर अब वहाँ कोई ऐसा नहीं था, जो घड़ों को सिर पर चढ़ा दे। ॥३॥
'वह प्रतीक्षा करने लगी। इसो बोच घोड़े पर चढ़े हुए उसका हंतराज नामक देवर सामने आ गया। उसने उससे मिन्नत को कि हे देवर, घड़े को सिर पर उठा दो।' ॥४।।
'देवर घोड़े से उतर गया। उसने और दूसरे हाथ से भावज का अँचल लिया ।' ॥५॥ एक हाथ से तो घड़ा उठाया पकड़ कर उसको जाने से रोक
'भावज के दोनों हाय फंसे थे। उसने कहा- अरे देवर, आँचर छोड़ दो, आँचर छोड़ दो। फोई देख लेगा, तो तुम्हारे कठोर भाई से सुना देगा और तब विपत्ति आ जायेगो ! ' ॥६॥
'तुरंत उत्तर मिला- भाई सुनेंगे तो सुनने दो भावज। मैं उनके आगे बिलकुल लड़कपन साध लूंगा। वे बुरा मानेंगे तो कैसे ?' ॥७॥