( १ )
धीरे बहु नदिया तें धीरे बहु, नदिया, मोरा पिया उतरन दे पार ।। धीरे वहु० ॥ १ ॥
काहे की तोरी वनलि नइया रे धनिया काहे की करूवारि ।।
कहाँ तोरा नैया खेवइया, ये बनिया के धनी उतरइँ पार ।। धीरे बहु० ॥ २ ॥
धरम की मोरा नइया रे, नदिया सत कई लगलि करूवारि ।।
सैयाँ मोरा नइया खेवड्या रे, नदिया हम धनी उतरवि पार ।। धीरे बहु० ।। ३ ॥
स्त्री कहती है- हे नदी ! तू धीरे-धीरे बह। मेरे पति को पार उतरने दे' ॥१॥
'नदी ने पूछा-तेरी नाव किस चीज की है? करुवार (वह लोहा जिस पर रखकर डाँड़ चलाया जाता है) किस वस्तु का बना है। तेरो नाव का खेनेवाला कहाँ हैं? और कौन स्त्री पार उतरेगी ! '॥२॥
'स्त्री ने उत्तर दिया- हे नदी ! धर्म की मेरी नाव है। सत का हो उसमें करुवार लगा हुआ है? अरे नाव का खेनेवाला मेरा स्वामी ही है। और मैं स्त्री पार उतरनेवाली हूँ' ॥३॥
'इस गीत की तारीफ में पं० रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है कि यह गीत जिस समय मन्द मन्द स्वर से गाया जाता है, हृदय तरंगित हो उठता है। स्त्री कवि के रचे हुए इस भावपूर्ण गीत की तुलना हिन्दी के उच्च कवि की कविता से को जा सकती है।'
इस गोत का अर्थ ईश्वर पक्ष में भी मिलता है।
( २ )
टुटही मड़इया बुनिया टपकइ हो, के सुधि लेवै हमार । टुटही० ॥ १ ॥ जेठ छवावयें आपन बँगला हो, देवरा छवावेंय उपचार । हमरा मॅदिलवा के छवइहें हो, जेकर पिया बिदेस। टुटही० ॥ २ ॥
'स्त्री कहती है- मेरो झोपड़ी टूटी हुई । बूंद बूंद टपक रही है। यहाँ मेरी सुधि कौन लेगा ? '॥१॥
'जेठ अपना बंगला छवा रहे हैं। और देवर अपनी चौपाल ! हा मेरा घर कौन छवावेगा ! जिसका प्रियतम परदेस है ॥२॥
( ३ )
बाबा निविया के पेड़ जनि काटेउ । निबिया चिरइया बसेर । बलइया लेउँ बीरन ॥ १ ॥
बाबा बिटिया के जनि केउ दुख देउ । विढिया चिरड्या के नाई। बलैया लेउँ बीरन ॥ २ ॥
सव के चिरइया रे उड़ि २ जइहें । रहि जइहें निविया अकेलि । वलैया लेउँ बीरन ।। ३ ।।
सब के विटियवा रे जइहें ससुरवा । रहि जइहें माई अकेलि । बलैया लेउँ बोरन ।। ४ ।।
'कन्या ससुराल जा रही है। घर के सामने नीम का पेड़ है, जो शायद उसी का लगाया है'।
'वह कहती है- हे बाबा, यह नीम का पेड़ मत काटना। इस पर चिड़िया बसेरा लेती है। हे भाई, मैं तुम्हारी बलैया लेती हूँ इस नीम के पेड़ को मत काटना' ।। १ ।।
'हे बाबा, बेटी को कोई कष्ट न देना। बेटी और पक्षी की दशा एक सी है। हे भाई ! मैं तुम्हारी बलैया लेती हूँ, तुम भी कन्या को कोई कष्ट न देना' ।। २ ।।
'हे बावा, सब चिड़िया उड़ जायेंगी। नीम अकेली रह जायगी। सब कन्याएँ चली जायेंगी, अकेली मा रह जायगो; इसलिए हे मेरे भाई, हे मेरे बावा, लड़कियों को कष्ट न देना, मैं तुम्हारी बलैया लेती हूँ' ।॥ ३ ॥
नीम के साथ माँ को और पक्षियों के साथ कन्याओं की तुलना करके उदासीनता का जो चित्र इस गीत में अंकित किया गया है, वह कविता की दृष्टि से साधारण कोटि का नहीं है। हिन्दी-कविता में चिड़ियों के बसेरे की तुलना संसार की क्षणभंगुरता से की जाती है। पर इस गीत में वह बिलकुल एक नये रूप में है। पं० त्रिपाठी- जो का इस गीत के सम्बन्ध में यह कथन सर्वथा उचित और सत्य है ।
( ४ )
प्रेम पिरीति रस विरवा रे, तुम पिय चलेउ लगाय । सोचन कइ सुधिया राखेउ, देखेउ मुरझि न जाइ ।। १ ।। किन रे लगवले नवरेंगिया, के रे नेबुआ अनार । किन रे लगवले रस विरवा रे, देखेउ मुरझि न जाइ ॥ २ ॥ जेठवा लगवले नवरेंगिया रे, देवरा नेवुआ अनार । पियवा जे बोए रस विरवा रे, देखेउ मुरझि न जाइ ।। ३ ।। प्रेम पिरीति रस विरवा रे० ॥
'हे प्रियतम! तुम मेरे प्रेम और प्रीत रस का जो पौधा लगाकर चले जा रहे हो, उसको सोंचने को सुधि रखना। देखना, ऐसा न हो कि वह मुरझा जाय' ॥ १ ॥
'अरे ! किसने नारंगी लगायी ? किसने नीबू लगाया ? और किसने रस के इस बिरवे को लगाया ? देखना, ऐसा न हो कि वह मुरझा जाय' ।॥ २ ॥
'जेठ ने नारंगी लगायी है, देवर ने नोबू लगाया है और प्रियतम ने रस के इस बिरवे को लगाया है। देखना, इसके सींचने का खयाल रखना। ऐसा न हो कि यह मुरझा जाय' ।। ३ ।।
कहावत है कि रहीम के एक नौकर की नवागता वधू ने उसके पास लिख भेजा था-
प्रेम प्रीति के विरवा, चलेहु लगाय । सींचन को सुधि लीजै, मुरझि न जाय ।।
इस छन्द से प्रसन्न हो रहीम ने बरवा ( बिरवा को लेकर ) छन्द का इसे नाम दिया और इसी छन्द में बरवै नायिका-भेद लिखा। सम्भव है नायिका के गोत के प्रयम चरण से हो प्रभावित होकर यह उपर्युक्त बरवं लिखा हो।
सचमुच गीत को सरसता सराहनीय है।
(५)
सुनि सखि मैयाँ भइले जोगिया हो, हमहँ जोगिन होइ जाँव ॥ १ ॥ जोगिया बजावेले बँसुरिया हो, जोगिनि गावेली मलार ॥ २ ॥ जोगिया के सोभेले ललकी पगड़िया, जोगिनी के लामी लामी केस ।। ३ ।। साँप छोड़ेले केचुल हो, गंगा छोड़ेली अरार ।। ४ ।। सैयाँ छोड़े ले बाला जोबना रे, ई दुःख सहलो न जाय ।। ५ ।। सैयाँ गइले परदेसवा हो, कापे करों मो सिगार ।। ६ ॥
'हे सखि ! सुनो मेरे पति योगी हुए। मैं भी योगिन हो जाऊँगी' ॥ १ ॥ 'योगी वंशी बजाता है और योगिन मलार गाती है। योगी के सिर पर लाल पगड़ी शोभा देती है, तो योगिन के लम्बे-लम्बे बाल शोभित होते हैं' ।। २३ ।।
'सर्प केंचुल छोड़ता है। गंगा अरार छोड़कर सिसक रही हैं। और मेरा स्वामी मेरी जवानी छोड़कर चला जा रहा है। मुझसे यह दुःख नहीं सहा जाता' ।। ४, ५ ।।
'हे सखी ! मेरे स्वामी तो परदेश चले गये। मैं किसके लिए श्रृंगार करूँ ?' ॥६॥
( ६ )
गढ़ पर परेला रे हिंडोलवा सब सखि झूलन जाँय । हम धनि ठाढ़ि जगत पर ॥ १ ॥ बाट बटोहिया तुहूँ मोरे भइया पियवा से कहित बुझाय ।
गढ़ पर परेला हिडोला० ॥ २ ॥ बाट बटोहिह्या रे तूहूँ मोरा भइया धनिया से कहिह बुझाय । सखि सँग झूलिहें हिंडोलवा जोवना के रखिहें छिपाय ।
आइब हमहूँ छवे मास ।। ३ ।।
किले पर हिंडोला पड़ा है। सब सखियाँ झूलने जा रही हैं; पर मैं झूलने न जाकर कुकुएँ की जगत पर खड़ो-खड़ी देख रही हूँ ॥१॥
'हे राह चलनेवाले ! तुम मेरे भाई हो। मेरे पति से समझा कर कहना कि गढ़ पर हिंडोला लगा है। सब सखो झूलने जाती हैं; पर तुम्हारी स्त्रो इनारे की जगत पर खड़ी खड़ी देखा करतो है ॥ २ ॥
'पति ने बटोही से कहा- हे बाट के बटोही! तुम मेरे भी भाई हो। मेरी स्त्री से समझा कर कहना कि वह सखियों के साथ झूला झूलेगी; पर अपने यौवन छिपाकर रखेगी। मैं आज के छडे मास अवश्य आऊंगा' ।।३।।
( ७ )
असों के सवनवा सैंया घरे रहु, घरे रहु ननदी के भाय ।। असो० ।। सावन गरजेले बिजुली चमकेले, छतिया दरद उठे मोर ॥ अइसे उमंग रितु बरखा, वरिसे, निरमोही दरदियो ना बूझ ।। असों० ॥
'हे मेरे स्वामी! हे मेरे ननरजी के भाई !! इस वर्ष के सावन में तुम विदेश न जाओ। घर ही पर रहो; सावन के मेह गरज रहे हैं। बिजली चमक रही है। मेरी छाती में दर्द उठ रहा है। ऐसी उमंग को ऋतु में वर्षा हो रही है और तुम मेरे दर्द को समझते तक नहीं हो' ।
(८)
माई तरवा में तलवा में कुहुँके मोर ।। माई जेठवा भइअवा मति पठएउ हो सावन निअराय । माई सार बहनोइयाँ होइहें एक सावन निअराय ॥ १ ॥ माई बमना क पूतवा जनि भेजिह सावन निअराय । माई पोथिया बाँचत बाझि जाई सावन निअराय ॥ २ ॥ माई लहुरा भइयवा मोहि पठयेउ सावन निअराय । माई रोइ गाई बिदवा करइहें सावन निअराय ॥ ३ ॥
'स्त्री मायके आने के लिए माँ के पास सन्देश भेज रही है। हे मां! यहाँ ताल में मोर बोलने लगा। सावन निकट आ रहा है। मुझे बुलाने के लिये जेठे भाई को मत भेजना। वे सार बहनोई दोनों मिलकर एक हो जायेंगे। मेरी बिदाई रुक जादवों ॥ १ ॥
'माँ, ब्राह्मण के पुत्र को मुझे ले आने के लिए न भेजना। वह पोयो बाँचने लगेगा और बच जायगा। मुझे नहीं ले आयेगा। सावन निकट आ रहा है ॥ २॥
'हे माँ ! मेरे छोटे भाई को भेजना। वह रो-गाकर विदा करा लेगा' ।॥ ३ ॥
(९)
घेरि घेरि आवे पिया ! कारी रे बदरिया, दैवा बरसे हो बड़े बड़े बून । बदरिया वैरिन हो ।। १ ।।
एव कोइ भीजेला अपना भवनवाँ मोरा पिया भींजे हो परदेस । बदरिया वैरिन हो ॥ २ ॥
दुलहिन हो रानी चिठि लिखि भेजे, घर बहुरहु हो ननदजो के भाय । बदरिया वैरिन हो ।॥ ३ ॥
'विरहिणी कहती है- हे प्रियतन ! काली घटा घिर-धिर कर फिर- फिर आ उमड़ती है। और मेघ बड़ी-बड़ी बूंद बरसाने लगे हैं। ये बादल मेरे लिये शत्रु बन गये हैं ॥ १ ॥
'सब लोग अपने-अपने घर इस पहले पावस में भीग रहे हैं, पर मेरे प्रियतम कहीं विदेश में भींग रहे हैं। हाय बादल शत्रु हो गये' ॥ २ ॥
'दुलहिन रानी ऐसे समय में पत्र-पर-पत्र लिख-लिख कर भेज रही हैं कि हे ननद के भाई, अब घर चले आओ। ये बादल मेरे लिए शत्रु हो रहे हैं' ।। ३ ॥
सावन घन गरजे । केने से घटा ओनइके, केने वरिसे गंभीर । हमार बलमू बिदेसिया, भींजत होइहें कवने देस ।।
सावन घन गरजे ॥ १ ॥
जा रे घरे हिगुआ न महँके, जिरवा के कवन बघार । जे रे घरे सासु दरुनियाँ, वहुवा क कवन सिंगार ।।
सावन घन गरजे ।। २ ।।
खस केरा बंगला छवइतिउँ, चउमुख रखइतिऊँ दुवार । हरि लेके सोइतिऊँ अँटरिया, फोंकवन आवत बयार ।।
सावन घन गरजे ।। ३ ।।
अतलस लहंगा पहिरितिऊँ, चुनरी बरनि न जाय । झमकि के चढ़ितिउँ अँटरिया, चोमुख दियरा बराय ।।
सावन घन गरजे ।। ४ ।।
'सावन में घटा गरज रही है। किस ओर से घटा उमड़ती आ रही है और किस ओर गंभीर होकर बरस रही है; मेरे विदेशी पति किस देश में भोग रहे होंगे। यह सावन में मेघ गरज रहा है ॥१॥
'जिस घर में हींग की महक तक नहीं, वहाँ जोरे का बघार कब मिलेगा। जिस घर में कर्कशा सास है, उस घर में बहू का शृंगार कहाँ सम्भव है। सावन में मेघ गरज रहा है ॥२॥
'यदि मेरे पति घर होते तो मैं खस का बंगला छवाती और उसमें चारों ओर दरवाजा रखती। हवा के झोंके आते और मैं अपने हर को लेकर अटारी पर सोती। सावन में, हाय मेघ गरज रहे हैं' ।।३।।
'मैं अतलस का लहंगा पहनती और चूनर ऐसो पहनती, जिसका वर्णन नहीं हो सकता। चार मुख वाला दीपक जलाकर मैं छमकती हुई अटारी पर चढ़ती' ।।४।।
पावस में यह कितना सुन्दर विरह विरहिणी कह रही है।
( ११ )
बुंदिअनि भीजें मोठी सारी, में कइसे आऊँ बालमा ॥ १ ॥ एक त मेह झमाझम बरिसे, दूजे पवन झकझोर ॥ २ ॥ आवउँ त भीजे सुरंग चुनरिया, नाहित छुटत सनेह ॥ ३ ॥ नाहीं डर बहुअरि भीजे क चुनरिया, डर बाड़े छुटे क सनेह ॥ ४॥ नेहवा से चुनरी होइ मोरी बहुअरि, चुनरीसे जुटीना सनेह ॥ ५॥
'हे प्रियतम ! मैं तुम्हारे पास कैसे आऊँ? मेरो यह साड़ी बूंदों से भीग जायगी। एक ओर तो झमाझम मेह बरस रहा है, दूसरी ओर झकझोर-झकझोर कर हवा चल रही है। यदि ऐसे समय मैं आती हूँ तो मेरी रंगीन चूनर भीग जाती है और यदि नहीं आती, तो तुम्हारा स्नेह नहीं छूटता है' ।। १, २, ३ ।।
'पति ने कहा, हे बहू चूनर भीगने का डर नहीं, स्नेह छूटने हो का डर है। नेह से चूनर पुनः हो जायगी। पर चूनर से प्रेम नहीं प्राप्त होगा' ॥४,५।।
( १२ )
मोरी धानी चुनरिया अतर गमके, धनी बारी उमरिया नइहर तरसे सोने के थारी में जेवना परोसलों, मोरा जेवन वाला बिदेस तरसे ॥ २ ॥
झझरे गेडुवा गंगाजल पानी, मोरा पीअन वाला विदेस तरसे लवंग इलाची के बिरवा लगवलों, मोरा चाभन वाला बिदेस तरसे ॥ ४॥ कलिया मैं चुनि चुनि सेज लगवलों, मोरा सूतन वाला बिदेस तरसे ॥ ५ ॥
'धानी रंग की मेरी चादर में इत्र महक रहा है। पर, मैं बाला मैहर में तरस रही हूँ ॥ १ ॥
'मैं सोने की थाली में भोजन तो परोसती हूँ; पर उसका उपभोग करने वाला विदेश में तरस रहा है ॥२॥
'झझरीदार गड़ए में गंगा का जल रखती हूँ, पर उसका पीनेवाला विदेश में तरस रहा है ॥ ३॥
'लॉग इलायची का सुन्दर बीड़ा जोड़ती हूँ, पर उसका चबाने वाला विदेस में तरस रहा है ॥ ४॥
'कलो चुन-चुन कर फूलों को सेज बिछाती हूँ; पर उस पर सोने वाला मेरा प्रियतम विदेश में तरस रहा है ॥५॥
( १३ )
आरे सावन मेंहदीं रोपायउँ रे लागे भादों में दुइ दुइ पात । सैयाँ मोरा आरे छाये रे बिदेसवा, सींचो में नयना निचोरि ।। १ ।।
'मैंने सावन में मेंहदी लगायी। भादों में उसमें दो-दो पत्ते निकल आये। मेरे प्रियतम परदेस में हैं। मैं आंखें निचोर-निचोर कर उस प्रेम मेंहदी को सींच रही हूँ, जो पावस में बढ़ती हुई चली जा रही है।'