महामहिम उपराष्ट्रपति जी, माननीय अतिथिगण, स्वागत समिति आ संचालन- समिति के अधिकारी लोग, प्रतिनिधिगण, आ भाई-बहिन सभे
जब हमरा के बतावल गइल कि हम अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन का एह दसवाँ अधिवेशन के अध्यक्ष बनावल गइल बानी त पहिले त हमरा विसवासे ना भइल। बाद में अफसोस भइल कि भोजपुरी के दिन अइसन पतरा गइल बा कि अब इहाँ रेंड़ो परधान होखे लागल बाकी, सोचत सोचत बात कुछ समझ में आइल-समुझ परी कछु मति अनुसारा साहित्यरसिक लोगन के परिहास-बोध (sense of humour) बड़ा बारीक होला भरल सभा में केहू के बनावे के आ ओह से आनन्द लेबे के जइसन परम्परा साहित्यकारन में बा ओइसन अउर कहीं नइखे। जब ई बुझाइल त हमरा बड़ा खुशी भइल। सोचलों कि चलऽ विद्वानन का मनोविनोद के साधन बनके हमहूँ सार्थक हो जाई साहित्यशास्त्री लोग बतावेला कि हास्य के प्रधान तत्व ह असंगति ( incongruity) जइसे गरदन में गोड़ाँव भा जूता के टोपी। कुछ ऊटपटांग ना होय त हास्य के देवता निर्गुणे रह जइहें, सगुण ना हो सकिहें। ऊटपटांग के मतलबे हऊँट पर टाँग। ई व्यायाम तनी कठिन त बा, बाकी अभ्यास से का ना होखे ! अगर कवनो आदमी अइसन कर गुजरी त हास्य देवता के अवतरण होइबे करी। अब विचार कइल जाव कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० उदयनारायण तिवारी, डॉ० भगवतशरण उपाध्याय, आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा लेखा स्वनामधन्य विद्वानन का पाँत में हमरा नियर अल्पज्ञ के बइठा देला से बढ़के ऊटपटांग आ ऐतिहासिक असंगति अउर का हो सकेला! हमरा अपना प पूरा भरोसा बा आ एकरा में तनिको सन्देह नइखे कि एह इतिहास से अपने सभ के भरपूर मनोरंजन होई। भोजपुरी में अज्ञलोगन के कमी नइखे देखीं, एगो रहस्य के बात बतावsतानी अज्ञ के असली माने होला अ से ज्ञ तक (अर्थात 3 से 2 तक) जाने वाला एहसे, अपना के ऊहो कहे में हमरा संकोच बुझाता। बाकी एह उपयोगी चुनाव पर हम अपने सभ के बधाई दे तानी आ अपना किस्मत के धन्यवाद दे तानी रउआ लोग जानते बानी कि आजकाल कुरसी आ किस्मत के सम्बन्ध तनी जादे घनिष्ठ हो गइल बा। किस्मत के देवी पक्षपात करेली त कुरसी मिलेला आ पक्ष निपात क देली त छिना जाला । जे भी होय, एह सब का मूल में अपने लोगन के जवन स्नेह सद्भावना बा ओकरा के हम हाथ जोड़के स्वीकार करतानी । -
भोजपुरी जवना विशाल जनपद के भाषा है ओकरा महिमा के बहुत पुरान परम्परा वा वैदिक काल से ई परम्परा अविच्छिन्न चलल आवडता । बुझात नइखे, कहाँ से आरम्भ कइल जाव गायत्री महामंत्र के दिव्य द्रष्टा, सृष्टि रचना में ब्रह्मा का अद्वितीयता के चुनौती देवेवाला प्रतापी भोज लोगन के महातेजस्वी पुरोहित, स्वयं विद्यानिधि भगवान राम के विद्यागुरु महर्षि विश्वामित्र राजा गाधि के पुत्र रहन, जिनका नाम के गाधिपुर नगर आज गाजीपुर का रूप में वा जहाँ उनका कौशिक गोत्र के लोग आजुओ बहुत संख्या में विद्यमान था। रामचरित के सूत्र संचालन ऊ बक्सर से ठेठ भोजपुर से कइलन एकरो पहिले चलीं, बहुत पहिले त देवासुर संग्राम- काल में देवत्व प्राप्त, अष्टांग आयुर्वेद के अमृतकलश इन्द्र से आयत्त के के ओकरा के लोककल्याण खातिर वसुधा पर प्रतिष्ठापित करेवाला भगवान धन्वन्तरि काशी के सम्राट रहन उनका वंशज राजर्षि दिवोदास के धन्वन्तरि के अवतार का रूप में मान्यता वा शल्यचिकित्सा के महान प्रवर्तक स्वनामधन्य सुश्रुत आ उनके टक्कर के दर्जनो देशी-विदेशी प्राणाचार्य एह दिवोदास धन्वन्तरि के शिष्य रहे लोग। आचार्य सुश्रुत महर्षि विश्वामित्र के सुपुत्र रहन एही विश्वामित्र के नाती आ आर्यावर्त के राजा दुष्यन्त के पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट भइलन जिनका नाँव प एह देश के भारतवर्ष कहल जाला। कीपीतकि ब्राह्मण उपनिषद् में इन्द्र से ब्रह्मविद्या-सम्बन्धी वार्ता करेवाला, प्राण अउर आत्मा के सम्पूर्ण वेत्ता, प्रतर्दन, काशी नरेश दिवोदास के पुत्र रहन एही परम्परा में काशी में ब्रह्मदत्त अइसन विद्वान अउर धार्मिक राजा भइलन जिनकर उल्लेख भगवान बुद्ध अपना उपदेश में कइले बाड़न एह सिलसिला में बृहदारण्यक उपनिषद् के अग्रणी ब्रह्मवेत्ता काशी नरेश अजातशत्रु के भी नाम महत्वपूर्ण बा जे गर्गगोत्रीय ऋषि बालाकि के ब्रह्मविद्या के मर्म बतवलन। बालाकि मत्स्य, कुरु, पांचाल आ विदेह में रह चुकल रहन आ ज्ञानगर्व से चूर रहन बाकी उनका तत्वज्ञान काशिए में मिलल ।
भगवान बुद्ध के जनम कपिलवस्तु में भइल आ देहान्त कुशीनगर में ई दूनो स्थान भोजपुरिए क्षेत्र में बा उनकर पहिला उपदेशो वाराणसी का निकट सारनाथ में भइल रहे जहाँ से आगे चलके ऊ दुनिया भर में फइलल आ संसार का एक- चथाई जनसंख्या के प्रभावित कइलस । विशृंखल भारत के एक समग्र राष्ट्र के रूप देवे खातिर इतिहास जवना मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का महान कृतित्व के गुन गावडता आ दुखी विश्व मानवता के बुद्ध वचन द्वारा शान्ति संदेश पहुँचावे खातिर जवना प्रियदर्शी सम्राट अशोक का प्रति नतमस्तक वा उ लोग एही जनपद के सन्तान रहे इतिहास आ संस्कृति के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ० भगवतशरण उपाध्याय का शब्दन में-
" चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत की भौगोलिक सीमाओं पर हमारे देश के इतिहास में पहली बार राजनीतिक व्यवस्था स्थापित की और सुदूर के दक्खिन को छोड़ समूचा भारत एक राष्ट्र बन गया। अपने भोजपुरिया वीरों की हरावल लिये वह भारत के बाहर हिन्दुकुश पर्वत के आरपार अफगानिस्तान जा पहुँचा... ग्रीकों को अभिभूत कर उसने काबुल और आस-पास के चारों ग्रीक प्रांत उस भोजपुर के साम्राज्य में मिला लिये जिसकी राजधानी तत्कालीन मगध को राजधानी पाटलिपुत्र थी। चन्द्रगुप्त भोजपुरी जनपद में ही जनमा था, मल्लों के पड़ोसी पिप्पलिवन के मोरियों की सन्तान था, जिसने मगध पर अधिकार कर लिया था।
अशोक-गोरखपुर और कसिया के बीच मोरियों में जनमा अशोक-तो संसार के राज्याचरण का कीर्तिमान ही बन गया।... तपस्वी अशोक भोजपुरी अंचल में उठा बौद्ध धर्माकाश का अप्रतिम नक्षत्र था- गोरखपुर और देवरिया के पड़ोस के मोरियों की संतान चन्द्रगुप्त का पोता उसी अशोक ने भारतीय राष्ट्र को उसकी मुहर दी, चतुर्दिक सिंहों का मुद्रांकन दिया, उसकी ध्वजा को वह चक्र दिया जिसका धर्ममय प्रवर्तन काशी के मृगदाव में बुद्ध ने किया था, जो गति का, मानव- -प्रकृति का प्रतीक था, जो आज भी शांति के चक्रवर्ती तथ्य का स्मारक है। "
मध्ययुग में भोजपुरी जनपद के सासाराम नगर में एगो सामान्य घराना में पैदा भइल शेरशाह अपना प्रचंड भुजबल से मुगल सम्राट हुमायूँ के एही भोजपुर का जमीन प-बक्सर का पासे चउसा में- हराके भारत से बाहर खदेड़ देलस आ अपना महज पाँच बरिस के शासन काल में आज के ग्रैंडट्रंक रोज के निर्माण कइलस, देश में डाक व्यवस्था कायम कइलस आ जमीन के पैमाइश के जवन सिद्धान्त बनवलस ओकर मान्यता अकबर का समय से लेके आज ले बा मुगल- राज्य के चुनौती देवेवाला भोजपुरी वीर हेमू अकबर से खाली बदकिस्मती से हारल। अकबर के समय में भोजपुर के राजा दलपत मुगल शासन से विद्रोह कइलन जवन शाहजहाँ के समय तक उनकर वंशज लोग चलावल एह भोजपुरी वीरन के सिरमौर भइलन जगदीशपुर (आरा) के बाबू कुँअर सिंह जे सन् १८५७ के पहिला स्वतन्त्रता संग्राम में अस्सी बरिस के पाकल बुढ़ापा में, बिना कवनो प्रशिक्षित सेना के अँगरेजन का पूर्ण सुसज्जित सेना से लोहा लिहलन। ओह अवस्था में घोड़ा, का पीठ प, अविराम, हजारन कोस के यात्रा क के बिहार आ उत्तर प्रदेश में युद्धसंचालन कइल आ शक्तिशाली अंग्रेजी सेना के कई बेर हरावल कुँवर सिंह का अप्रतिम वीरता, अदम्य साहस, अडिग संकल्प, कुशल सेना- संचालन आ अपूर्व देशभक्ति के उदाहरण है तलवार आ संकल्प के धनी कुँअर सिंह अपना स्वतन्त्र जगदीशपुर में अन्तिम साँस लिहलन।
साहित्य आ संस्कृति के क्षेत्र में भोजपुरी जनपद के ज्ञात इतिहास से पहिला नाम बाणभट्ट के उभरता जे संस्कृत गद्य के शलाका पुरुष भइलन । वाणभट्ट के विलक्षण प्रतिभा भलहीं सरस्वती के प्रसाद होखे, बाकी ओकर अक्खड़ स्वाभिमान एकदम भोजपुर के माटी के देन रहे हमरा कहला का बाद केहू का कुछ कहे के ना रह जाय, अइसन अन्तिम कहे के ओकरा सारस्वत दर्प के लोक स्वीकृति भी मिलल बाणांच्छिष्टं जगत्सर्वम्। नाथ सम्प्रदाय के आदि संस्थापक, हठयोग के महान आचार्य गोरखनाथ के जन्मभूमि के त पता नइखे, लेकिन उनकर कर्मभूमि एही जनपद में रहे जेकर गवाही गोरखपुर में मिलता । निर्गुण भक्तन के सुमेरु कबीरदास काशी में प्रगट भइलन आ भोजपुरी के प्रथम महाकवि भइलन एकरा अलावे प्रसिद्ध निर्गुण भक्तकवियन में धरमदास, धरनीदास, दरिया साहेब (रोहतास के) बुल्ला साहेब, गुलाल साहेब, शिवनारायण, सरभंग-सम्प्रदाय के किनाराम, भिनकराम, टेकमनराम आ सगुण भक्तकवियन में रसिक सम्प्रदाय के रूपकला जी, रामा जी, आ सखी सम्प्रदाय के लछिमी सखी, कामता सखी आदि अनेक महत्वपूर्ण नाम एह जनपद के आ भोजपुरी भाषा के गौरव बाड़न स हिन्दी साहित्य के अधिकांश धुरन्धर महारथी भोजपुरी रहन । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य शिवपूजन सहाय, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ई सब लोग जे हिन्दी के बनावल सँवारल आ आगे बढ़ावल, भोजपुरीभाषी रहे। एकरा अलावे परमार्थ- दर्शन के रचयिता आ दर्शन अउर साहित्य के प्रकांड विद्वान महामहोपाध्याय पं० रामावतार शर्मा, सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता श्री काशीप्रसाद जायसवाल, प्रख्यात विधिवेत्ता आ भारतीय संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा, भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, आ लोकनायक जयप्रकाश नारायण भोजपुर जनपद के निवासिए ना, भोजपुरी भाषा के अनन्य प्रेमी रहे लोग ओसहीं, कंठ संगीत में ठुमरी आ पुरुबी शैली के आ वाद्य संगीत में तबला सम्राट कंठे महाराज, शामता प्रसाद, किशन महाराज, आ शहनाई के जादूगर बिस्मिल्ला खाँ आदि के भोजपुर के महत्वपूर्ण देन कहल जाई ।
भोजपुरी जनपद के महिमा के तनी विस्तार से जे चरचा हो गइल ओकर प्रयोजन गौरव बोध के पागुर कइल ना रहे बलुक ई देखावल रहे कि प्रागैतिहासिके काल से इहाँ के जीवन-दर्शन में कवनो तरह के क्षेत्रीयता या संकीर्ण भावना नइखे रहल। समग्र भारतीय राष्ट्र आ राष्ट्रीयता के निर्माण में आ ओकरा सुरक्षा आ विकास में अउर ओहू से आगे बढ़के, विश्व कल्याण में एह जनपद के अतुलनीय योगदान बा। भोजपुर के आपन संस्कृति बा - जइसे बंगाल, पंजाब आ महाराष्ट्र के आपन आपन संस्कृति बा। लेकिन इन्हनी के सार्थकता अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व का साथे-साथे भारतीय संस्कृति के समग्र स्वरूप का निर्माण में भी रहल बा। भोजपुरी के साहित्यकार अपना एह उत्तराधिकार आ दायित्व से अपरिचित नइखन एहसे भोजपुरी भाषा आ साहित्य के विकास से राष्ट्रभाषा हिन्दी के कठिनाई होखे के जे आशंका कबो-कबो व्यक्त कइल जाला ऊ हमरा निराधार आ अनुचित बुझाला एह प्रसंग में भोजपुरी आ हिन्दी के सम्बन्ध एगो विचारणीय प्रश्न हो जाता।
भोजपुरी आ हिन्दी के सम्बन्ध पर विचार करे के पहिले प्रश्न उठता-
जइसन कि बराबर उठावल जाला कि भोजपुरी भाषा है कि बोली। देखल जाय
त भाषा आ बोली दूनो शब्दन में व्युत्पत्ति के विचार से कवनो अन्तर नइखे। भाषा
संस्कृत के भापू धातु से बनल तत्सम शब्द ह जे बोले के अर्थ देला बोली प्राकृत
का बोल्लइ से बनल वा जेकरो ऊहे अर्थ ह एकरे संस्कृत रूप नइखे मिलत।
प्राकृत बोल्लइ ठेठ लोक व्यवहार के शब्द ह जेकर पहिले के संभावित रूप
बोल्लनि बोलचाल में कबो रहल हो सकेला संस्कृत का बदति से प्राकृत बोल्लइ
के भाषावैज्ञानिक यात्रा तनी कठिन बुझाता बाकी अइसन मानियो लिहल जाय कि
बदति से बोल्लइ आ ओकरासे बोली बनल तबो अतना त जरूर बा कि भाषा
तत्सम ह आ बोली तद्भव अर्थ दूनों के भलहीं एक होय बाकी मूल भिन्न-भिन्न
भइला से तद्भव 'बोली' से जहाँ बोले के सामान्य अर्थ निकलता उहाँ तत्सम
'भाषा' में संस्कृत का स्वाभाविक अभिजात्य के पुट बा बोली में वाचिक क्रिया
के शारीरिक प्रयत्न के भाव वा; भाषा में मानसिकता के विशेष योग हो जाता।
'सत्यं वद' अइसन वाक्यन में वद का प्रयोग से सामान्य वाचिकता प्रगट होता न
वदेद्यावनी भाषां प्राणैः कण्ठगतपरपि में वदेत् आ भाषां, दूनों का एकत्र प्रयोग
से बोली आ भाषा के व्यावहारिक अर्थभेद समझल जा सकेला गीता में आइल
बा- अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे आ स्थितप्रज्ञस्य का भाषा ।
एह दूनों वाक्यन में पंडितन का आ स्थितप्रज्ञ पुरुष का बोलला खातिर भाष् धातु
क प्रयोग भइल बा । कहल जाला-प्रेमचन्द के भाषा बहुत सरल हैं। इहाँ भाषा के
बोली कह दिआय त उपन्यास कहानी का लिखित भाषा के अर्थे न निकली।
आंसह, जा मैं तोसे नाहि बोलू का जगह पर केहू कहे- -जा मैं तोसे नाहि
भाषण करूँ, त रुसला- चांन्हइला के मजेदार पैरोडी हो जाई। सभा में विद्वान
लोगन के भाषण होला, सधे ओहिजा ना बोले आ घर परिवार में सभे बोलेला,
भाषण केहू ना करे एह विवेचन से ई स्पष्ट वा कि बोली वाचिक अउर सामान्य
व्यवहार खातिर आ भाषा प्रायः लिखित अउर औपचारिक व्यवहार खातिर प्रयोग
में आवेला दोसर बात ई कि एह दूनों में परस्पर कवनो विरोध नइखे। कवनो
जीवित भाषा का बारे में ई ना कहल जा सके कि ई खाली भाषा ह, बोली ना ह
हिन्दी, बँगला, मराठी, पंजाबी भाषा हई स, आ बोलिओ, काहेकि इन्हनी क
लिखित व्यवहार होला आ बोललो जाला । अँगरेजी अँगरेजन के भाषा
(language) भी ह आ बोली (mother tongue) भी भोजपुरिओ भाषा आ बोली दूनो ह। एकरा विपरीत संस्कृत आ पाली भाषा हई स बोली ना, काहे कि इन्हनी के व्यवहार केवल लिखित रूप में होता, बोलचाल में नइखे रह गइल । भोजपुरी एगो समर्थ आ जीवन्त बोली आ विशाल सम्भावनावाली भाषा ह।
भोजपुरी आ हिन्दी के सम्बन्ध ठीक से समझे खातिर हिन्दी के स्वरूप के समझ लिहल जरूरी वा हिन्दी शब्द के का तात्पर्य ह ? हिन्दी केकरा के कहल जाला ? भाषाविज्ञान का पुस्तकन में ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली (कौरवी), भोजपुरी, मगही आदि के हिन्दी के विभाषा, अर्थात् बोली, बतावल गइल बा बाकी हिन्दी भाषा के इतिहास लिखेवाला लोग खाली खड़ी बोली के इतिहास लिखले बा, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी वगैरह के ना कामताप्रसाद गुरु के हिन्दी व्याकरण खड़ी बोली के व्याकरण ह; रामचन्द्र वर्मा के प्रामाणिक हिन्दी कोश खड़ी बोली के शब्दकोश ह। एहमें भोजपुरी शब्दन के कहीं स्थान नइखे। ई ओइसने भइल जइसे खाली दिल्ली के भूगोल लिख के ओकरा के सँउसे भारतवर्ष के भूगोल कहल जाय दोसरा ओर हिन्दी साहित्य का इतिहासन में डिंगल के चन्दबरदाई, मैथिली के विद्यापति, भोजपुरी के कबीरदास, ब्रजभाषा के सूरदास आ अवधी के तुलसीदास खड़ी बोली के प्रसाद निराला पन्त का साथे- साथै हिन्दी के कवि बतावल गइल बाड़न अगर ई सब भाषा हिन्दी के बोली हई स त इन्हनीका आधुनिक कवितन के भी हिन्दी साहित्य का इतिहास में स्थान मिले के चाहत रहे वीरगाथाकाल का बाद के डिंगल कवि, भक्तिकाल का बाद के अवधी कवि आ भारतेन्दु का बाद के ब्रजभाषा कवि कहाँ चल गइलन ! द्विवेदी युग में खड़ी बोली के हिन्दी के काव्यभाषा बनावल गइल ओकरा पहिले, भारतेन्दु युग तक गद्य खड़ी बोली में लिखात रहे आ कविता ब्रजभाषा में गद्य आ पद्य में एके भाषा के अतना भिन्न रूप अउर कहीं ना मिली। अब, अगर कवनो विदेशी भाषाभाषी, चाहे कवनो पंजाबीभाषी, या बँगलाभाषी, हिन्दी पढ़ल चाही त ऊ हिन्दी व्याकरण के कुछ दिन अध्ययन करी आ हिन्दी के गद्य पढ़ी; बाकी आगे चलके जब ओकरा तुलसीदास से भेंट होई त विनय पत्रिका के ब्रजभाषा समझे में कामताप्रासद गुरु के व्याकरण ओकर का सहायता करी! ओकरा बुझाई कि हिन्दी में गद्य के व्याकरण अलगा होला आ पद्य के अलगा । ऊ हिन्दी के अध्ययन कुछ एह भाव से बन्द कर दी- अब लौं नसानी अब ना नसैहों। एह असंगति के ठीक करे खातिर कहल जाला कि खड़ी बोली का कविता के हिन्दी कविता मानल जाय आ पहिले के अवधी ब्रजभाषा भोजपुरी-डिगल आदि का कवितन के पुरानी हिन्दी का रूप में विशेष अध्ययन खातिर छोड़ दिहल जाय, जइसे अँगरेजी में प्राचीन साहित्य का साथै कइल गइल बा। बाकी ई उचित ना होई काहे कि अँगरेजी भाषा के वर्तमान रूप ओकरा पुरान रूप के विकास ह जबकि खड़ी बोली हिन्दी अवधी, ब्रजभाषा वगैरह के विकास ना ह ई उन्हनी के समानान्तर उत्पन्न आ विकसित भइल बा।
असल बात ई ह कि हिन्दी शब्द के प्रयोग दू अर्थ में होत आइल बा एक त दू भाषावैज्ञानिक अर्थ में आ दोसर, सामान्य अर्थ में सामान्य अर्थ में हिन्दी खड़ी वोली के कहल जाला जे भारत के राष्ट्रभाषा है एह अर्थ में हिन्दी शब्द के प्रयोग खड़ी बोली के प्रायः आरम्भिक काल से चलल आवडता भाषावैज्ञानिक अर्थ में हिन्दी नाम एगो भाषा वर्ग के ह जेकरा विभाषा का रूप में खड़ी बोली (कौरवी), ब्रजभाषा, अवधी, बुन्देलखण्डी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी आदि के गिनल जाला । अब, जब भोजपुरी में हर विधा में साहित्य-रचना हो रहल बा, ओकराके स्वतंत्र भाषा ना मानल उचित ना होई एह में भोजपुरी अउर हिन्दी का सम्बन्ध- विच्छेद के कवनो बात नइखे। ई सर्वमान्य सिद्धान्त ह कि आदमी स्वाभाविक भावप्रकाशन जतना अपना मातृभाषा में कर सकेला ओतना दोसरा कवनो भाषा में ना आ एह में सन्देह ना कि भोजपुरी जनपद के मातृभाषा भोजपुरी ह; हिन्दी हमनी के सीखे के पड़ेला, आ ऊहो आवते आवत आवेला ।
हिन्दी से भोजपुरी का कवनो विरोध नइखे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी कहले बानी कि दहिनी आँख आ बाई आँख में कवन विरोध हो सकेला बात सही बा। अब खाली अतने समझ लेवे के बा कि दूनो आँख सही रहे तबे देखे के काम पूर्ण रूप से हो सकेला अगर एगो में कुछ कमजोरी होय त ओकरा लेन्स में पावर देवे के पड़ी। हिन्दी का तुलना में भोजपुरी अबहीं ओही स्थिति में बाटे। एकरा विकास से हिन्दी के लाभे होई, हानि के कवनो सम्भावना नइखे ।
जवना भाषा आ बोली के व्यवहार के क्षेत्र जतने व्यापक रहेला, जीवन का विविधता से ओकर ओतने जादे सम्पर्क होला, आ ओही अनुपात में ओकर अभिव्यंजना शक्ति विकसित होखेला। ई व्यापकता भूगोल आ इतिहास, दूनों क्षेत्र में होला। भोजपुरी भाषी जनसमुदाय का एह दूनू क्षेत्रन का विविधता के लाभ मिलल बा जेहसे एह भाषा में व्यावहारिक जीवन सम्बन्धी शब्दन के बड़ा समृद्ध भंडार हो गइल बा आ मुहावरा, लोकोक्ति, कहावत, लोकगीत, लोककथा आदि के त अइसन खजाना वा जेकरा से ग्रहण करके हिन्दिओ के अभिव्यंजना- शक्ति के विकास कइल जा सकेला लाठी भोजपुरिहा लोगन के पुरान ट्रेड मार्क ह आ ओकरा पर लोग पूरा भरोसो रखेला कहल बा सय पुराचरन ना एक हूराचरन । अब देखल जाय त लाठी वर्ग के अतना शब्द भोजपुरी में बा जतना अउर कहीं ना मिली- लाठी, लउर, डंटा, गोजी, छड़ी, छकुनी, सोंटा, पैना, बोंग ओसहीं, गगरी शब्द लिहल जाय जे संस्कृत का गर्गरिका से बनल बा । भोजपुरी में गगरा भी होला जे गगरी से भिन्न होला- आकार में ना प्रकार में। गगरी माटी के होई आ गगरा लोहा, पीतर, ताँबा, सोना भा अउर कवनो धातु के । अब, एह गगरी जाति के छोट बड़ ना जाने कतना सदस्य बाड़न-माटी के बनल पात्र – गगरी, घइला, घइली, घंडा, नाद, नदिया, मेटा, मटका, मटुकी, पतुका, पतुकी, चरुआ, चरुई, हाँड़ी, हँडिया, कुंड़ि, छोड़ि, भाँड़ा, सोराही, ठिलिया, कुल्हड़, भरुका, पुरवा, टुइयाँ, रमलोटा ।
प्रतिनिधि रूप में चुलन गइल-लाठी आ गगरी लाठी एहसे कि ई भोजपुरी संस्कृति के पुरान प्रतीक ह आ गगरी एहसे कि ईहो जीवन के पुरान प्रतीक ह कबीरदास का शब्दन में जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है जीवन गगरी भरत भरत जब आदमी थाक जाला त दूनो हाथ ऊपर कके मालिक के गोहरावेला- कतेक दिन राम भरब हम गगरी।
भोजपुरी के उत्कृष्ट अभिव्यंजना-शक्ति के दुगो प्रधान साधन बाड़न स- नामधातु के सहज रचना आ अनुरणनमूलक शब्द के निर्माण नामधातु का रचना में भोजपुरी संस्कृतो से आगे बढ़ल बा हिन्दी के ते कवनो बाते नइखे तनी एकर नखसिख वर्णन देखल जाव-
लतियावल, लतहरल, ठेहुनियाइल, अँगुरियावल, मुठियावल, हथवसल, हथियावाल, केहुनाठल, केहुनियावल, पिठियावल, छतियाइल, गरदनियावल, जिभियावल, नकियाइल, नकियावल, नकनकाइल, नकनकावल, नजरियाइल, नजरियावल, मुड़ियाइल, मधवसल ।
शरीर के अंगन का नाम से बनल अइसन अभिव्यंजक शब्द हिन्दी में कहाँ मिलिहन स! अँगरेजी भाषा नामधातु बनावे में बड़ा फरहर कहाले बाकी ऊहो एह टक्कर में न आ सके। अब अंग-प्रत्यंग के नाम से बनल संज्ञा आ विशेषण शब्दन के कुछ उदाहरण देखीं- कपरवाह, लिलारी, अँखफोर, जिभगर, जीभी, दंतनिपोर, दाँतल,
दाँतुल, ओठर, गलचउर, मुँहगर, मुँहमराई, मुखरी, मुखागर, चेहरगर,
छतिगर, भुजगर, हथउठाई, हथफेर, पेटपोंछन, पेटभरू, पेटा, पेटपोछन,
लदगर, लदाह, पिठियाटोक, ढोंढ़ा, गोड़ाइत, गोड़ाँव, हड़गर, गुदगर,
मँसगर, रकतावन । अनुरणनमूलक शब्दन के आवश्यकतानुसार बना लेबे के जवन शक्ति भोजपुरी में बा ऊ कहाँ मिली।
खट-खट, चकचक, छरछर, झक-झक, झन-झन, टन टन, टप- टप, टर-टर, ठक-ठक, ठन-ठन, उन-ढन, पटपट, भक-भक, भन भन, सनसन, सरसर, हर-हर अइसन शब्दन के त इहाँ खजाना बा ईहे ना, अइसना शब्दन का बीच में स्वरागम करके ओहमे अर्थचमत्कार बढ़ा देवे के भी अपूर्व कला एह भाषा में मिली जइसे खटाखट, चकाचक, झकाझक, दनादन । अतने ना, ओकरा से नामधातु बनाके अभिव्यंजक क्रियापदन के रचना कर लेने के गुण भोजपुरी में वा जवन हिन्दी में दुर्लभ बा, जइसे चकचकावल, झकझकावल, दनदनावल अनुरणनमूलक शब्दन का सहयोग से विशेषण के चटकार बना देवे के अद्भुत विशेषता एह भाषा में मिलsता, जइसन बहुत कम जगह मिल सकेला जइसे करिया कुच कुच, ऊजर धप-धप या झक-झक, लाल टहटह पीयर दह तह, हरियर चहचह, गोर भक भक ।
शब्द निर्माण का एक विलक्षण सामर्थ्य का अलावे भोजपुरी भाषा में लोकोक्तियन के अक्षय भण्डार बा हिन्दी में लोकोक्तियन के ओइसन समृद्धि नइखे। बहुत त भोजपुरी से अथवा हिन्दी क्षेत्र का दोसरा कवनो भाषा से उधार लिहल लोकोक्ति मिलिहन स जे फरके से चिन्हा जइसन से एगो मामूली उदाहरण लिहल जाय-अधजल गगरी छलकत जाय, नाचे ना जाने अगनवे टेढ़
एह में पहिलका त हिन्दी में ज्यों-के-त्यों चलेला, जबकि छलकत जाय का जगह पर हिन्दी के क्रियापद होइत छलकती जाती है। ओसहीं, नाचे ना जाने अँगनवे टेढ़ के हिन्दी में बना दिहल वा नाच न जाने आँगन टेढ़ा कहे के ना पड़ी कि एक लोकोक्ति का भोजपुरी रूप में हिन्दी से जादे स्वारस्य आ स्वाभाविकता वा जे ओकरा मौलिकता ओर संकेत करता। कुछ अउर लोकोक्तियन के देखल जाय जेकर लोकोक्ति का रूप में हिन्दीकरण कस सम्भव नइखे -
अघाइल बगुला पोठिया तीत अनका धन पर विकरम राजा । आउर जनावर के लीद ना, हाथी के चिरिकल आन्हर गवरड्या भरसाईं में खोता । एक नाद दुई भँइसा, ता घर कसल कसा नाच काछ के अइले मोरवा, गोड़वा देखि झँवान। भर बाँह चूरी ना त पट दे राँड़ । मेहरारू के झूला ना, बिलाई के गाँती रोवे के मन रहे, अँखिये खोदाऽ गइल।
लोकोक्ति लोक जीवन में अनुभव का गहराई में भरल सत्य का साक्षात्कार से प्रेरित विदग्ध उक्ति है। ओकरा में अनुभूति आ अभिव्यक्ति के परस्पर कुछ अइसन सम्बन्ध रहेला जेकर भाषान्तरण ना होखे लोकोक्ति के निर्माण महाकवि लोग ना करे। एकर प्रत्यक्ष क लोग करेला जे चिट्ठी में लिखवावेला-थोड़ा लिखना बहुत समझना। लोकोक्ति 'नावक के तीर' होला । कवनो भाषा के लोकोक्तियन से परिचित भइला बिना ओकरा शक्ति के पूरा ज्ञान सम्भव नइखे।
भोजपुरी के शब्द सम्पदा अउर अभिव्यंजना-शक्ति का चरचा में अक्सर पूछल जाला कि भोजपुरी में संस्कृत शब्दन के प्रयोग तत्सम रूप में होखे के चाहीं कि तद्भव रूप में एकरा प्रसंग में मौलिक प्रश्न ई उठेला कि भोजपुरी के स्वरूप का है? मानक भोजपुरी केकरा के माने के चाहीं कवनो निरक्षर ग्रामवासी जवन बोलेला ओकरा के कि तत्सम शब्दनवाली जवन भाषा में हम बोल रहल बानी ओकरा के ?
कवनो बोली जब भाषा बनेले, याने जब ओकर लिखित व्यवहार होखेला तब ओकर कार्य क्षेत्र बढ़े लागेला बोलचाल का तात्कालिक व्यवहार से जादे स्थायी महत्व के विषय ओह लिखित भाषा के उद्देश्य हो जालन से अइसन विषयन के उपयुक्त अभिव्यक्ति देवे में ओह बोली के आरम्भिक भावप्रधान रूप आ ओकर सीमित शब्दावली - चाहे ऊ कतनो व्यंजक होय-पाछा छूटे लागेलन स आ ओकर विचारात्मक, विवेचनात्मक रूप अपना अनुरूप शब्दावली का साथ प्रगट होखे लागेला । एह दूनो रूपन के एक- दोसरा के विरोधी ना समझे के चाहीं । दूनो एक दोसरा के पूरक हवन से इंशा अल्ला खाँ का रानी केतकी की कहानी में जवन हिन्दवी छुट, और किसी बोली का न मेल न पुट रहे ऊ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का चिन्तामणि के भाषा ना हो सकत रहे भोजपुरी के भी आगे बढ़े खातिर हिन्दी नियर अपना मूल से शक्तिसंचय करे के पड़ी-संस्कृत शब्दन के अपनावे के पड़ी। संस्कृत के प्रकृति-प्रत्यय के योग से गम्भीर से गम्भीर भाव आ बारीक से बारीक विचार का अभिव्यक्ति खातिर शब्द बना लेबे के जवन अनन्त क्षमता वा ओकरा के छोड़के संस्कृत मूल के कवनो भाषा कूपमंडूक रह जाई। अइसहू - विषयगत प्रासंगिकता का अलावे भी स्वाभाविक रूप से पढ़ल- लिखल भोजपुरी भाषी लोगन में तत्सम शब्द का ओर झुकाव बढ़ रहल बा । तत्सम शब्द से प्रायः एगो परिनिष्ठित अर्थ के बोध होला जवन तद्भव से ना हो पावे। उदाहरण लिहल जाय।
एगो तत्सम शब्द ह- मन्त्र, जेकर अर्थतत्सम भा तद्भव रूप हो गइल- मन्तर दूनों का प्रयोग में आसमान जमीन के अन्तर वा साँप बिच्छी के मंतर हो सकेला, बाकी गायत्री के मंत्र होई। रामनाम कवनो मन्तर ना ह, महामन्त्र सोड़ जपत महेसू। ओसहीं यन्त्र शब्द वा वैज्ञानिक प्रयोगशाला में यन्त्र होई आ गला में पहिने खातिर जन्तर गाय गाभिन होई आ औरत गर्भिणी, बलुक गर्भवती। तत्सम आ तद्भव में नारी अउर मादा के अन्तर हो जाता।
बाकी, एकर मतलब ई ना भइल कि तद्भव शब्दन के खराब समझ के छोड़ दिआय मोका पड़ला पर ई तत्समो के कान काटेलन स कबो अइसनो होला कि तत्सम निम्न रह जाला आ तद्भव नीमन हो जाला त ऊ तत्सम के नाको काट लेबेला । दवाई सही आ बढ़िया होय त रोग छू-मंतर हो जाई, छू-मंत्र ना। कम पइसा में जीवन निर्वाह करे वाला गरीब आदमी बेटी के बियाह ना करे,निवाह करेला बेटी के निर्वाह त अच्छा-अच्छा लोग ना कर सके। एगो कवि
कहता
गुलशनपरस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अजीज
काँटों से भी निवाह किये जा रहा हूँ मैं
त ई ह अपना जगह पर तद्भव के खूबसूरती अफसोस के बात बा कि भोजपुरी के बहुत-सा ठेठ शब्द गते गते प्रयोग से बाहर हो रहल वाइन स जइसे खोढ़ा, गाँती, चुहानी, जबून, जाउर, डभकउआ, डसावल, डांड़, ड्रभा, दृकल, ढोंढ़ी, तियना, तोरी, निकसारी, नून, पनही, परेह, पितिया, पिसान, पेड़ा ( रास्ता ), पेहम, बरिया, बाँड़ी (झूला या ब्लाउज ), भाई ( भईस), रहिला, लाद (पेट), सिकहर भोजपुरी-लेखक के तत्सम तद्भव, विदेशीय अउर अज्ञात चारो मूल का शब्दन के अपना जरूरत आ रुचि का मोताबिक प्रयोग करे के चाहीं तब भोजपुरी साहित्य के चतुर्मुखी विकास होई।
भोजपुरी में साहित्य रचना अइसे त आज से पाँच सौ वारिस पहिले शुरू हो गइल रहे वाकी ओकर विकास आधुनिक काल में आके भइल। देश के आजादी मिलला के बाद पद्य आ गद्य, दूनों के विभिन्न विधन में उच्च कोटि के साहित्य आवे लागल | कविता के क्षेत्र में भोजपुरी के प्रगति अठर क्षेत्रन से जादे भइल बा। मौलिक उद्भावना आ मार्मिक भाव-व्यंजना का दृष्टि से कहीं-कहीं भोजपुरी कवि ओह ऊँचाई के छू लेता जहाँ कवनो भाषा के सर्वश्रेष्ठ महाकवि के आसन हो सकेला। कुछ उदाहरण लिहल ठीक होई ।
प्रसंग ह सन् १८५७ के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के एने पगरी बन्हले, भाला उठवले भोजपुरिहा वीर आ ओने टोप डटवले, बन्दूक सम्हरले अँगरेज । ओह दृश्य के कल्पना करीं जब भोजपुरी जवान अपना भाला का नोंक पर दुश्मन के मुँड़ी टोप समेत टाँग लेता आ नीचे से ओकरा धड़ से लोहू के फॉफ ओह टोप सहित मूड़ी का ओर छूट रहल बा कवि कहता-
जीत के हारइ हारि के जीतई ठोंकि के ताल कब ललकारइ छातिन में चुभि जाई संगीन जवान तबउँ पग पाछ ना टारइ भोजपुरी सरदार लपालप ऊपर टोप उछारड़ अइसन लागल दीपक बारिके चंडी खड़ी रन काजर पारइ भालन
नीचे से ऊपर का और जात लाल रक्त के फॉफ, जइसे दीया के लौ ऊपर उठ रहल होय, आ ऊपर से टीप समेत मस्तक जइसे ढक्कन होखे। एह सवइया के अउर सब कुछ अवहीं छोड़ दियाव, खाली एगो उत्प्रेक्षा देखल जाय, तबो अपना मौलिक उद्भावना आ सफल बिम्बविधान के बल पई बहुते उत्कृष्ट कविता कहल जाई । एगो बात वा उत्प्रेक्षा के विधान भइला के इहो व्यंजना बा
कि उपमा से काम ना चलल । उपमा का विम्बंविधान में अप्रस्तुत प्रायः वास्तविक अथवा संभाव्य होला। जब ओकरा से आगे बढ़के काल्पनिक जगत से अप्रस्तुत लिहल जाला तब ओकर संभाव्यता माने के पड़ला अइसन अप्रस्तुत असंभव भले होखे, कवि के कल्पना जगत में ऊ संभाव्य होला-चंडी खड़ी रन काजर पारइ एही से उपमा में नियन, समान, सदृश, लेखा आदि वाचक शब्द होलन स। उत्प्रेक्षा के वाचक शब्द हमानो, अइसन लागल ई स्थिति प्रकृत रूप में उपमा का असमर्थ हो गइला का बाद के ह ( अब ई बात दोसर वा कि कवि एही अप्रस्तुत के विधान उपमा का भाषा में कर देवे) अइसन अद्भुत दृश्य के उतारे में उपमा के थाकिए गइला से उत्प्रेक्षा द्वारा स्वयं रणचंडी के आगमन युद्ध भूमि में
भइल बा जेकरा से ई दृश्य अद्भुत के साथ-साथ दिव्य हो उठल वा । एगो अउर सवइया देखों जवना में एगो नववधू के पति भारतमाता का गोहार पर रन में खेले जा रहल बा ओकरा जूझे के तरास के सामने तरुआरि के पानी थोर पड़ गइल। नव वधू झरोखा से झाँक के देखऽतिआ कि आंकर पति (पति ना कहके जेकराके कहऽतिया मँगिया के निसानी ब्रीड़ाशील, अउर आभिजात्य के मिलल जुलल कइसन मनोहर व्यंजना वा!) सबसे आगे जा रहल वा एह वर्णन में देखल जाय कि अन्तिम पंक्ति में श्रृंगार के वीररस में कइसन मनोहर व्यूहन भइल बा -
कइलसि भूई गोहारि जबड़, रन खेलड़ चला तब मोर परानी जूझ क लागलि अइसन तास कि थोर परा तरुआरि क पानी झाँकि झरोखनि मई देखलिउँ, सबसे अगवाँ मँगिया के निसानी फूलि के छाती भई गज ऊपर, साटन की अँगिया मसकानी एही कवि के तीन गो सवइया द्रौपदी चीरहरण के बीच से प्रस्तुत करतानी जे भोजपुरी काव्य के उत्कृष्ट उदाहरण वा-
एक से एक खड़े छतरी, अँखिया सबकी झुकि सोवन लागी द्रोपदी चारिउ ओर निहारिके, हारिके धीरज खोवन लागीं 'द्वारिका नाथ, हे द्वारिकानाथ' जुहारि अनाथिनि रोवन लागों नैन बड़े-बड़े, गाल बड़े-बड़े मोती बड़े-बड़े बोवन लागों लागत कोई गोहारि न बा, खड़े ठाकुर एक से एक सगोती आँखि तरेरत बाटइ दुसासन, बाज लखड़ जस सूधी कपोती तोरे बिना कोई सूझत ना, तनी ठोंकि के छाती सॅकारु चुनोती द्वारिका ओर किहें मुँह द्रौपदी ढारत मोती, निहारत धोती चारि पती मुड़ियइलन, पंचम पारथ भी बनि बइठे बेचारू आन के हाथ में आपनि नारि उघारि लखड़, चटके नहि तारू अइसे में ना बिसरह तुहूँ, पति देवे प पांडव भइलें उतारू कीमत का जनिहं एन्हने मछरी मरलें, मिलि गइ मेहरारू अब एगो दोसर कवि के रचना-भोरी के भोरावेवाला रूप के वर्णन, भोर के पृष्ठभूमि में-
भोरी का भेस के, भोरी के भोरल, भोरे के भाउ, सबेरे-सबेरे रे मन रूप का देवी के रूपक गाउ सुनाउ सबेरे-सबेरे मेघिल सारी में चम्पक नारी के रूप बसाउ सबेरे-सबेरे कोंवल कॉल के फूल खिले जस थीर तलाउ सबेरे-सबेरे अब एगो नमुना उक्ति का विदग्धता के देखल जाव। पुस्तक के नाँव ह बदमाश दर्पण।
हम उनसे पुछलीं, आँख में सुरमा काहे बदे लागई ला ऊ हँसके कहलन, हम त छूरी पत्थर से चटाई ला । ओही किताब के दू गो शेर, जवना में प्रेम के गजलियत सजीव हो
उटल बा-
हम खेरमेटॉव कइलीं ह रहिला चबाय के भेंवल धयल बा दूध में खाजा तोरे बदे अत्तर तूं मलके रोज नहायल कर5 रजा बीसन भरल धयल बा कराबा तोरे बदे
भोजपुरी-काव्य में मुक्तक आ गीत के रचना खूब हो रहल बा प्रबन्ध काव्यन के संख्या अवहीं कम वा समर्थ कवियन के कमी नइखे। खाली एने ध्यान देला के जरूरत था।
कविता के बाद जवना विधन में भोजपुरी के उत्कर्ष जाता ऊ है कहानी आ उपन्यास कहानी में त कथ्य आ शिल्प के विविध प्रयोगन के चलते उच्च कोटि के साहित्य प्राप्त हो रहल बा लेकिन उपन्यास में ओकर प्रायः अभाव बा। फुलसुंधी आ घर टोला गाँव जइसन कुछ श्रेष्ठ अपवादन के छोड़ दियावत उपन्यास में भोजपुरी अवहों नया जमीन के तलाश करऽतिया, अइसन लागता । नाटक में कुछ काम भइल बा बाकी अइसन ना कि ओकरा के विकसित भवन के साहित्य के सामने गर्व से प्रस्तुत कइल जा सके। निबन्ध में अबहीं डेगाडेगी हो रहल बा। आलोचना साहित्य के खास करके सैद्धान्तिक आलोचना के अभाव खटकेवाला था।
भाषा के क्षेत्र में सबसे जरूरी काम बाड़न स-शब्द-संकलन, वर्तनी- निर्धारण, सामान्य आ व्युत्पत्तिमूलक कोपग्रंथ के सम्पादन, प्रामाणिक व्याकरण के निर्माण आउर भाषाविज्ञान आ काव्य शास्त्र संबन्धी ग्रन्थन के रचना, जिन्हनी के एही क्रम में लेबे के चाहीं आ जल्दी जे जेतना देरी से जात्रा शुरू करे ओकरा
ओतने डेगार चले के पड़ी, दउड़हूँ के पड़ सकेला अउर लोग बहुत आगे निकल गइल बा।
भोजपुरी भाषा आ साहित्य के अब पढ़ाई हो रहल बा बिहार में इंटर परीक्षा के विषय त ई रहले रहे, एने कुछ बरिस से बिहार विश्वविद्यालय आ मगध विश्वविद्यालय में बी०ए० तक एकर पढ़ाई होखे लागल वा ऑनर्स का पाठ्यक्रम बनता आ जल्दिए एम०ए० के पढ़ाई होखे लागी बाकी अवहीं तक राज्य सरकार से लोक सेवा आयोग के परीक्षा खातिर भोजपुरी के मान्यता नइखे मिलल कई साल पहिले बिहार सरकार विधान परिषद् में ई आश्वासन देले रहे कि मैथिली के साथे-साथे भोजपुरी खातिर भी केन्द्रीय सरकार से मान्यता प्राप्त करके प्रयत्न कइल जाई भारत सरकार से मान्यता मिल गइला पर साहित्य अकादमी के माध्यम से भोजपुरी के साहित्यकारन के बहुत प्रोत्साहन मिली जेकरा से एकरा विकास में गति आई। अइसे त कवनो साहित्य अपना साधकन का शक्ति से महान बनेला, राजकीय पोषण से ना बाकी राजकीय सहायता से आत्मा के उन्नति भलहीं ना होय, लोकयात्रा में कुछ सुविधा जरूर होला, एकरा से इनकार ना कइल जा सके। आ आधुनिक प्रजातंत्र में राजकीय के ऊ रूप अउर अर्थ नइखे जे मध्ययुगीन राजतंत्र में रहे एहसे राजकीय सहयोग आ सहायता भोजपुरी का याचना के ना, ओकरा अधिकार के विषय है। बिहार सरकार भोजपुरी खातिर कुछ कइले बा ।
ओकरा से आशा बा कि एह सम्मेलन के भवन खातिर पटना में जमीन उपलब्ध कराई आ आवश्यक अनुदान दी। भोजपुरी अकादमी के उचित व्यवस्था आ ओकरा माध्यम से भोजपुरी का विकास में सहायता कइल बिहार सरकार के दायित्व बा हम आशा करडतानी कि सरकार एह दिसाई जागरूक होई। उत्तर प्रदेश सरकार से भी हमनी के कम अपेक्षा नइखे।
बाकी असल काम बा साहित्य सृजन भोजपुरी के कलम जेकरे पास होखे ओकरे से निहोरा बा कि अपना शक्ति के प्रयोग आ उपयोग कइल जाव। भगवान के दिहल विभूति एही खातिर वा कि ओह से लोकमंगल के विधान होखो तबे भारत आगे बढ़ी, आ अइसन बुझाता कि जब ले भारत आगे ना बढ़ी, तबले मानवता मुक्त ना होई । धन्यवाद !