ताल के पानी में गोड़ लटका के कुंती ढेर देर से बइठल रहे गोड़ के अँगुरिन में पानी के लहर रेसम के डोरा लेखा अझुरा अझुरा जात रहे आ सुपुली में रह-रह के कनकनी उठत रहे, जे गुदगुदी बन के हाड़ में फैल जात रहे। कबहूँ झिगवा मछरी एंडी भिरी आके कुलबुलाए लागत रहीसन त सउँसे देह गनगना जात रहे। कुछ दूर पर सरपत में बेंग टरटरात रहऽसन आ कवनो कवनो जब-तब पानी में कूद जात रहसन, जेकरा से ताल में चक्करदार हल्फा उठे लागत रहे आ तरेंगन के परछाहीं लहर पर टूटे लागत रहे ।
झींगुर के अजब मनहूस झनकार हवा में भर गइल रहे। नीम के फूल के गंध से मातल बेआर ढिमिलाइल फिरत रहे। दिन भर के दबँक से अँउसाइल कुंती के मन भइल कि गते से पानी में उतर जाय आ अपना देह के पानी में बोर दे। चुहानी में साँझे से चूल्हा फूँकत फूँकत ओकर जीव उजबुजा गइल रहे। मारे पसेना के लूगा देह में सट गइल रहे। कसहूँ जीव जाँत के, सब केहू के बीजे करा के फजिरे बरतन बासन मले खातिर पानी ले आवे निकललि रहे। राते में डूभा छीपा आउर बटुआ पानी में ना फुला दिआई त बिहने जूठ अइसन खरकट जाई कि छोड़वले ना छूटी। बाको, कुंती से पानी में उतरल ना गइल। अपना देह के आउर ढील क के ऊ चुपचाप बइठल रहलि ।
बगले में दहिने ओकरा घर के दुआर लउकत रहे। निकसार में दिवरी धुंआत रहे। ढिबरी के मइलछहूँ लाल अँजोर में अपना पोंछ से मच्छड़ उड़ावत भँइस लउकति रहे। धवरा बैल कोना में बइठल पगुरात रहे कुंती के बुझाइल कि ओकर माई सूत गइल होई आ ओकर नाक फोंय-फोंय बोलत होई, बाबूजियो आँख मूँद के महटिअवले होइहें आ दम्मा के मारे उनकर साँस अदहन लेखा हनर हनर करत होई। सीतवा, गीतवा, मोतिया, गएत्रिया, अभिलखवा कइया सब एके खटिया पर गुड़मुड़ा के सूतल होइहेंसन कवनो के लात कवनो के मुँड़ी पर चढ़ल होई, कवनो के मूड़ी लटकल होई, कवनो के गोड़ खटिया के ओरचन में बाझ गइल होई। अब ओकरा जाके सबके सोझ करे के परी सब पिल्ला लेखा काँय काँय किकिअइहन स आ माई काँचे नोने जाग के अलगा कपरवाह करी- " अइसन कुलच्छन ई कुंतिया बिया, दिन-रात लइकन के डहकावत रहेले, एकर बस चले त ई सब के छछना छछना के मुआ दिही।" बाबूजी अलगे अपना खटिया पर से गुरगुरइहें "काहे रोवावत बाडिस रे, हमरा के जीए देविस कि ना? एक त हमार जीवन अपने...खों...खों..." आ ऊ सब के ओइसहीं छोड़ दे त माई लगिहें बिख बोले- "एकर रहन देख के त हमार पित्त लहर जाता काठ के करेजा हइस पत्थल ह पत्थल। एकरा कवनो दम फिकिर हइस लड़का मूअसन भा जीय सन। "
घर के इयाद आवते कुंती के जीव उदास हो गइल, जइसे खँखार पर गोड़ गइल होखे। कुंती के ना चहलो पर पहिले के इयाद ओखरा आँख के आगा पयरे लागल।
कुंती नौ बरिस के रहे तवे ओकर माई मू गइल रहे ओकरा अपना माई के मउअत सोझा लउके लागल। माई मउराइल बैगन लेखा हो गइल रहे। ढकना में लाल मिरचाई जरा के टहल ओझा बेंत पटक-पटक के ओझाई करत रहन, फिर माई के मूड़ी एक देने लटक गइल आ बुढ़िया मेहरारू सब सियार लेखा फेंकरे लगली स, आजी हमरा के करेजा में जाँत के माई के गुन रो-रो के गावे लागल रहे। कुछ दिन बाद बाबूजी आ चाचा मूड़ी छिलवा लेलन, खूब भोज-भंडारा भइल आ छौ महीना बाद नयकी माई आइल पहिले दिन ओठ बिजुका के हमरा के देखत पुछलस 'तूही हमरा सवत के बेटी हऊ ?' हम मूड़ी हिला के कहली- हूँ। तहिया से आज ले ऊ हमार जेतना साँसत कइलस ओतना कवनो दुसमनो केहू के ना कइले होई। के जाने ओह जनम के कवना कमाई से हम दस बरिस में जीयते, छछात नरक के भोग भोग लेलों माई के नरमाएने लड़का भइल। पाँच गो तमू गइले स ओकरो पाप माई हमरे कपार पर थोपेले कि इहे साखिन मुअवलस। बाबूजी के दम्मा हो गइल। माई रोज कवनो ना कवनो रोग कछलहों रहेलें। चाचा माइए से आजीज आके अलगा हो गइलन लइका देखीं त हम, खेका बनाई त हम, अँइस गोरू के सानी पानी भरों, गवत लगाई त हम माई अपना हाथे खरी ना टारे दस वरिस से दिन रात चंग पर चढ़ल रहींला, मिजाज चरखा भइल रहेला, अपनी साँस ना मिले कि अएना में सुबहित मुँह देखीं। सांचत-सांचत कुंती के बुझाइल कि हजारन चिउँटी ओकरा सउँसे देह में रेंगे लगलौसन। ओकरा बुझाइल कि ओकरा देह में देहे नइखे।' 1
अटमी के चनरम्य सरल तरबूजा के फाँक लेखा बाँस के फुलुंगी में अझुराइल रहे फीका, उदास, सकुचाइल मारे धूर के असमान सिलेट लेखा साँवर लागत रहे। पानी में डुअल-डूबल कुंती के गोड़ कठुआ गइल रहे। पेंडुरी चढ़े लागल रहे ऊ गत से आपन गोड़ पानी से बाहर निकाल लेलस एक मन कइल कि घइला भर के घर चलीं। ढेर रात बीत गइल बाकिर ओकरा से टकसल ना गइल, आलस ओकर गतर गतर बान्ह देले रहे। कुंती गते से एगो खपड़ा टकटोर के अपना ऐड़ी के महल छोड़ावे लागल। चिता के टूटल धागा फिर जोड़ा गड़ल एने तीन साल से त हमरा अपने चुपचाप बइठे के मन ना करे जहाँ अकेले भइल, मन में किसिम-किसिम के विचार उठे लागेला । ई सभ सोचला से फैदा ? बाकिर जहाँ इचिको सँवस लागल कि फिर बैताल ओही डाढ़ पर मनवा खरावे बात देने झुकेला एही से जान-बूझ के हरदम अपना के काम में बझवले रहींला। जेतना हमउमरिया सखी रहीसन सभके बिआह कहिए भइल । के गो त लरकोरिओ हो गइलीसन जहाँ ऊ सब बइठहऽसन खाली सास-ससुर के बात अपना मरद के बात खोद-खोद के दोसरा से पूछिहऽसन आ रस ले लेके कहिह ऽसन हमरा त ई सुनल इचिको नीमन ना लागे, बाकिर केहू सुनडबे करे त का कान मूँद लिहों ? झूठ काहे के कहीं जहिया ई सब सुनौला नींद ना लागे, सउँसे रात करवटे बदलत बीतेला मनेमने हमहूँ सपना देखे लगींला कि कइसन हमार ससुरा होई, कइसन सास के सुभाव होई, सवाँग खिसियाह मिलिहें कि मिठबोलिया ? उह कइसनो मिलस! आपन आपन भाग है। नइहर में सौतेली मतारी के दिन-रात के किचकिच से त नीमने होई माई के बोली हइस! बुझाला कि चइली से मारत होखे। बाबूओजी के मत फेर देले विया परियार साल बाबूजी एक जगे ठीक-ठाक कइलन त माई ठेन बेसाह देलस कि एह साल बैल किनाई बँटइया पर खेती ना होई, अपने हर चली। सब रोपेया बैल में उठ गइल हमार तिलक कहाँ से दियाव? परसाल फिर बाबूजी एक जगे बात चलवलन लइकवा दोआह रहे। डाकपीन के काम करत रहे एक तरे से सब कुछ पक्के रहे। सखी सहेली में केहू हमरा के मनीआर्डर वाली कह के चिढ़ावे, केहू लिफाफा पोसकाट वाली कह के चडल करे। हमहूँ मने-मने गाजत रहीं कि दोआह वा त का ह? करकसा मतारी से त जान बाँची। बाकिर माई बेंड़ देली कि हम अपना जीयत जिनगी कुंती के बिआह दोआह बर से त ना होखे देव, नाहीं त सब केहू मेहना मारी कि सवत के बेटी रहइन एही से दोआह के गले मढ़ देली, जिनगी भर के अकलंक के अपना माथे लिही ? बाबूजी त हर बात में माई के मुँह जोहत रहेलन लागल बात कट गइल। भितरिया बात त हम जनवे करौंला। माई सोचली कि कुन्ती चल जाई त लइका के खेलाई ?
कुन्ती के बुझाइल कि ओकरा कंठ में कुछ अँटकल बा आ दुखाता। पैंजरी आ हँसुली के हाड़ में जइसे टभक अमा गइल होखे, सउँसे देह जइसे घवदाह हो गइल होखे, माथा के नस के जइसे केहू ताँत लेखा तान देले होखे आ ऊ टन टन बाजत होखे। कुन्ती के साँस तेज चले लागल आ गरम साँस के धार ओकर ओठ पर साफ बुझात रहे। गदराइल देह समुन्दर के हल्फा लेखा साँस के ताल पर उभरत रहे, डूबत रहे, ओठ रह-रह के ओइसहीं काँप जात रहे जइसे भोरहरी के हवा में बबूर के पतई काँप जाला। बहुत दूर पर मनियारा साँप के कतार लेखा छोटी लाइन छकछकात चलल जात रहे। मधिम अँजोरिया बेरमिया लेखा बेदम होक गते गते हाँफत रहे। कुन्ती के एगो लमहर ठंढा साँस निकल गइल आ ओकर ससे देह लुक में परल मोजराइल आम के गाछ लेखा सिहरे लागल |
"अइसे कबतक चली? डंग-डंग खाई खंधक बा ओह दिन अछेवट सिंह के छत पर गेहूँ सुखावे गइल रहाँ त उनकर भगिना गते से आके हमार नाँव पूछे लागल। सुनीला जे पटना पढ़ेला मन त भइल कि खूब सुना दिहों कि बहरकू तोरा हमरा नाँव से मतलब ? बाकिर पित्त घोट के रह गइलीं। हमार खिसिआइल मुँह देख के ऊ अपने लवट गइल। विरीछ काका के बेटवो के उहे हाल, जहाँ हम ताल में नहाए अइलों कि केवाड़ी का दोवा में लुका के अपना दलान पर से घंटन निहारल करो मउगा कहीं का मन त करेला कि कान के जरी मारौं दू धप्पर । सांक अइसन त वाइन, एको थप्पर के मउआर ना होइहें आ रसिया बने के सवख या आ वंसियों का कम आफत कइले बा, सिलिक मिरजई पेन्ह के दिन भर में चार भाँवर हमरा गली में फेरा लगावेला हम का ओकर रंग-ढंग ना चीन्हीं ? बाकिर बोले- उले ना....... बाकिर कब तक ? अइसे कहिया ले चली ?"
कुन्ती के बुझात रहे कि साँप के बिख के लहर ओकरा देह में उठ रहल बा गोइठा के धुआँ में जइसे ओकर दम घोंट रहल बा आ ओकर गत्तर-गत्तर अब पारा लेखा चारो देने छितरा जाई गाँव के दखिन सिवान पर कुकुर भूँकत रहलन। खेत में सियार फेंकरत रहऽसन! काली माई के मंदिल से पाठ क के चरितर काका लवटल आवत रहन। उनका खड़ाऊँ के खटर खटर साफ सुनात रहे। कुन्ती सांचलस कि एह रात के चरितर काका ओकरा के ताल किनारे बइठल देखिहें त का सांचिहें ? झप्प से बड़ला बुड़का के घरे चलल निकसार के बगल में तनी दहिने हट के नेनुआ के लत्तर चढ़ावल रहे। ओहिजा कुछ आहट बुझाइल कुन्ती चिहा के पुछलस के ह? बंसी के काँपत, खखन से भरल आवाज आइल- "हमार किरिया, तनी एगो बात सुन जा" मारे घबराहट के कुन्ती के हाथ-गोड़ काँपे लागल। ऊ धड़ से निकसार के भीतर जाके केवाड़ी के पल्ला भिड़ा लेलस। एह समय ओकरा अपना करेजा के धड़कन साफ सुनाई देत रहे। ओकरा माथा पर पसेना चुहचुहा आइल रहे आ साँस बहुत तेज हो गइल रहे। धइला थवना भिरी रख के ऊ मने मन बंसी के खुब गरिअवलस।
आँगन में माई न रहे। लड़का सभ दवरी लेखा खटिया पर पटाइल रहऽसन। बाबुजी के घर में दिया बरत रहे पल्ला ओठघावल रहे आ बुदुर बुदुर के आवाज आवत रहे। आपन नाँव सुन के कुंती गोड़ जाँत के गते से जाके केवाड़ी में कान लगा के सुने लागल। माई बाबूजी के समझावत रहे "एह साल कुंती के बिआह के नाँव लेल त ठीक ना होई तोहार बेरामी एह साल बहुत उखड़ गइल बा । चलs बनारस रह के दवाई करावs हमहूँ ओहिजा डाक्टर से जाँच कराइब" बाबूजी कहलन —' से त बड़ले बा, बाकिर लोग-बाग अब अँगुरी उठावडता । जवान- जहान बेटी के कबले कुँआर रखबू ?" माई तड़प के बोलली "वाह रे, लोग-बाग कही त कुँइयो में कूद जाइब ? एह साल ना सही, पर साल सही, कवनो मछरी ह जे सड़त जात बिया।" बाबूजी मान गइलन "ई त ठोके कहत बाडू, कवनो मछरी त ह ना जे सड़ जाई परे साल सही।"
कुंती के बुझाइल कि पचासौ बिच्छू एक साथ डंक मार देलन बेहोसी में अपना खटिया देने बढ़ल बाकिर अचक्के ओकर गोड़ एगो जूठ थरिया में पर गइल। झन्न से आवाज भइल माई भितरे से चिचिया के पुछलस - "काहे रे कुंतिया, का भइल।" कुंती के फफक-फफक के रोए के जीव करत रहे। मन करत रहे कि
लाज-लिहाज के छोड़के बाबूजी से अभी जा कह दे कि बेटी मछरी ह बाबूजी,
पानी के बाहर कब तक जिही? सड़ी ना त बिलाई ले भागी। कसहूँ रोआई जाँत के कहलस "कुछ ना रे माई, बिलार रहे एगो।... भाग .... बिल-बिल..."