अपने सभ हमरा के बहुत बड़ाई दिहली जे एह सम्मेलन के सभापति बनवलीं। एह कृपा खातिर हम बहुत आभारी बानी हमार मातृभाषा भोजपुरी जरूर वा बाकिर हम भोजपुरी के कवनो खास सेवा नइखों कइले हम त इहे समझली ह जे अपने सभ में उदारता बहुत बा आ हिन्दी आ भोजपुरी दूनो के समान भाव से प्रेम करोंले अइसन ना होइत त हमरा नियर आदिमी के जे सही माने में ना देव के ना लोक के बा, ओकरा के काहे बोलतीं। माननीय पांडे जी के हुकुम भइल जे आवे के होई, चुपचाप राजी हो गइलीं। मगर जब उहाँ का कहलीं जे सभापति के भाषण लिखि के ले आवे के परी त थोरिका चिन्ता भइल । बड़ बना दिहला से केहू बड़ थोरे हो जाला। कुछ भितरो होखे चाहीं कबीरदास जो साइत भोजपुरी के आदि कवि हई उहाँ का कहि गइल बानी जे, 'जो रहे करवा त निकसे टोंटी' बधना में पानी रही तबै त टोंटी से निकसी ? इहाँ एको ठोप पानी नइखे। सोचत रहलीं जे भोजपुरी त आपन मातृभाषा ह, ए में लिखल बड़ा सोझ होई। अब देखतानों जे सोझे डाँड़ खींचल सभसे टेढ़ काम बा, टेढ़ डाँड़ खांचे में कवन मेहनत बा। रोजे जवना भाषा में बोलल जाता ओही में लिखल कठिन काम लागत बा कवनो भाषा आ बोली में लिखे खातिर कुछ साधना चाहीं, कुछ पहिले से आदत डाले के चाहीं, कुछ मेहनत-मसक्कत क लेबे के चाहीं । ऊ सभ अपना में ना देख के मन ऊभ चूभ हो गइल बा। अब त अपनहीं सभ के आसरा बा, सभापति बनवली त ओकर भारो अपनहीं सभ के सम्हारे के परी।
भोजपुरी बहुत शक्तिशाली बोली है। लोक साहित्य के त अइसन भंडार अउर जगह साइत नइखे। मुहावरा, लोकोक्ति, व्यंग्य-विनोद के त एकरा पासे खजाना था। कुछ लोकगीतन के संगेरे के थोर बहुत जतन भइल बा, एकाध कोसिस मुहावरा वगैरह के बटोरे के भी कइल गइल बा, बाकिर ई सभ काम समहुत बरोबर वा जतना काम भइल बा ओतने से ई पता चले में कवनो कठिनाई नइखे रहि गइल जे शक्तिशाली भाषा होखे खातिर जइसन गुन गरवर चाहीं, एकरा में पूरा बा । एकर बोलेवालन के तदादो बहुत अधिक बा। चार-पाँच करोड़ त होइवे करो अपना देश में, अउर बाहरी बहुत कम भाषा होइहें जेकर बोले वालन के तदाद एतना बड़ होई बोले वालन के तदाद एतना बड़ बा जे बहुत बड़का कहाए वाली बहुत भाषा भा बोलिन से भोजपुरी कहि सकेले जे
'जवन तोहरा घरे भोज तवन हमरा घरे रोज' भोजपुरी लोगनि में अपना बोली के
अभिमानो बहुत बा। देश में रहो त, विदेश में रहो त, भोजपुरी घर में अपने भाषा
बोलो। ग्रियर्सन साहब त लिखले बानी जे अइसन भाषा प्रेम उन्हका अउर कहीं
ना मिलल सभ बा, लेकिन भोजपुरी हमेशा देश के अखण्डता के बात सोचेला,
देश के अखण्डता के खतरा होई त ऊ अपना प्रिय से प्रिय चीजो के बाधा ना देवे
दी हमेशा भोजपुरी के नजर देश का एकता पर रहेला एह खातिर ऊ सभ
तियागि सकेला| भोजपुरी के ई गुन जग जाहिर बा। एमें कतहीं खोट ना मिली। ई.
बात नइखे कि ओकरा में अपना घर में बोले जाए वाली सब से मीठ बोली के
अभिमान नइखे ईहो नइखे कि रु अपना बोली में कविता भा गाना लिखल छोड़
देले वा, मगर ऊ कवहीं अलग हो के रहे के बात ना कइलस हमनी के जवन
सार्वदेशिक स्वीकृत भाषा हिन्दी वा ओकरा के गढ़े-सँवारे में त भोजपुरी लोगनि
के सबसे बेसी योगदान बा सदल मिश्र आ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से ले के आजु तक
बहुत बड़-बड़ साहित्य निर्माता भोजपुरी लोग रहलन हा सदल मिसिर जी का
बारे में त हमरा नइखे मालूम जे उहाँ का भोजपुरी में कुछ लिखले बानी कि ना,
बाकी भारतेन्दु जीत निश्चित रूप से बनारसी बोली में बहुत बढ़िया कविता
लिखि गइल बानी । मगर अपना घर का बोली के प्रेम अछइत उहाँ सभे सार्वदेशिक
भाषा के गढ़े सँवारे में जीव आ जान लगा दिहली अपना बोली के प्रेम भी बनल
रहल - सार्वदेशिक भाषा के भी ओतने, बलुक कुछ अधिके, प्रेम उहाँ सभ के
रहल। बाकी कबहीं उहाँ सभ ई ना कहलीं जे अपना बोली के अलग कर दियाउ ।
ओ सभका मन में सोगहग प्रेम रहल।
'सोगहग' जानते होइबि । लइकइयाँ में हमार बड़की पितियाइनि- हमनी का उहाँ के 'बाबूजी बो' कहत रहलीं जा-उहाँ का खास भोजपुरी गाँव के बेटी रहलों आ कथा कहनी के त उहाँ का पासे भण्डारे रहल एगो कथा सुनवले रहलीं। कथवा भुला गइल बा, मगर ओकर नायक एगो राजकुमार रहले, कवनो सराप से बेंग हो गइल रहले उन्हकर हठ रहे कि हम सोगहगे लेब बहुत-बहुत फितकाल में परले बाकी सोगहग खातिर अरियाइले रहले कुछ साल पहिले डॉ० शिवप्रसाद सिंह का 'अलग-अलग बैतरनी' में सोगहग शब्द मिलल त हम सोचे लगलीं कि ई सोगहग' कइसे आइल खोजत खोजत संस्कृत में एगो शब्द 'मिलल 'सयुगभाग' - दुनो हिस्सा समेत पूरा हमरा ई बुझाइल जे 'सोगहग' एही शब्द के परवर्ती रूप होई भोजपुरी के सोगहग प्रेम, आपन पुरान अर्थ में 'सोगहग' होला। घर के बोली के प्रेम आ देश के बोली के प्रेम-प्रेम के दूनो हिस्सा मिलाके सोगहग-सयुगभाग! भोजपुरी आदिमी पुरान कथा के राजकुमार ह- -सोगहरा के प्रेमी भोजपुरी बोले वालनि पर आर्थिक कमजोरी के सरापो साइत लागत वा एही से ई लोग कुछ बेंगिया गइल बाड़न लोगन में माण्डूक्य वृत्ति जरूर कहीं ना कहीं रह गइल बा। मगर लिहें त लिहें सोगहगे।
'सोगहग' प्रेम कवनो बाउर चीज ना ह। निमने है। निमन अर्थात् निर्मल, निष्कलुष बहुत दिन से स्वच्छ साफ बतावे खातिर ई शब्द चलल आवडता । प्राकृत में 'निम्मल' चलत रहे। निम्मल मरअद-माअण परिडिया संखसूत्तित्व- निर्मल मरकत भाजन परिस्थिता शंख शुक्तिरिव । बहुत बोलिन से ई उठि गइल बाकिर भोजपुरी में बनल बा का जाने काहें अइसन बुझाता कि ए बोली के बोले वाला निर्मलता के भुला न सकेले। मगर इहो कइसे कहीं ? गाँव में एगो निमंत्रण- पत्र शुद्ध हिन्दी में मिलल । निमंत्रण देवे वाला लोग कहे के चाहत रहे कि निम्मन-निम्मन आदिमी बोलावल गइल बाड़े। शुद्ध हिन्दी में लिखल लोग जे 'निम्न निम्न आदमी बुलाए गए हैं छोड़ीं ए बात के एतना त साफे बुझाता जे शुद्ध हिन्दी ठीक से पचत नइखे। तबो जवन भोजपुरी के सहज गुन है, ओके छोड़े के ना चाहीं । थोरे नुकसानो होखे तबो ना छोड़े के चाहीं-'धरम करत में होखे हानि, तबो न छोड़ीं धरम के बानि' सोगहरा के प्रेम, मगर निर्मल चित्त से, ई सही रास्ता लागत बा।
तनी खुलासा कइके मतलब समुझावतानी पुराना जमाना से एह देश में दू तरह के भाषा के प्रयोग होत आवत बा। लोकभाषा आउर अभिजात संस्कृत भाषा । कई बार लोकभाषा में बढ़िया साहित्य लिखाइल थोरही बाँचल बा, बेसी त नष्ट हो गइल। बौद्ध लोगनि के, जैन लोगनि के विशाल धार्मिक साहित्य ओह जमाना का लोक प्रचलित बोली में लिखाइल पालि के बहुते समृद्ध साहित्य मिलल बा । ऊ त हमरा बुझाला जे भोजपुरिए के पुरान रूप ह फेरु प्राकृत में लिखाइल, फेरु अपभ्रंश में लिखाइल। मगर जबतक धार्मिक उपदेश, कुछ प्रेम आ नीति के कविता, कहानी, कुछ ज्ञान वगैरह तक के बात रहे जब तक मजे में काम निकलत गइल। जब दर्शन, तर्कशास्त्र, आदि सूक्ष्म चिन्तन के जरूरत पड़ल तबे फटाफट संस्कृत में लिखाय लागल। कई बार दोहा त लिखाइल अपभ्रंश में मगर टीका लिखाइल संस्कृत में जइसे कृष्णपाद के 'दोहा कोश' पर 'मेखला टीका' 'संदेश रासक' अपभ्रंश के बढ़िया काव्य रहे। कवि अब्दुल रहमान त कहले जे 'जे ना मुरुख होखे ना पंडित होखे, उनहीं लोगनि के सामने ई बार-बार पढ़बि'-
जिण मुक्खु न पंडिअ मन्झियार तिण पुरुउ पढ़िव्वइ सब्ब बार
मगर तीन गो टीका के पता चलल बादूगो त छपि भी गइल बाड़ी स सब संस्कृत में काहे ? दू कारन से पहिले त जइसहीं आवेगतरल सहज मनोभाव का क्षेत्र से उदि के विचार का बारीकी का क्षेत्र में पहुंचल गइल तडसहीं अनुभव कइल गइल कि शुद्ध जनभाषा ई कुल करे के राजी ना होई अब कालि छाँटलि, गढ़ल-छोलल, कसावटवाली भाषा चाहीं याने संस्कारवती भाषा होखे के चाहीं । दूसर कारण ई रहे कि लोक भाषा के क्षेत्र सीमित होला। अगर दूर-दूर तक, विभिन्न भाषा बोले समझे वाला लोगनि तक विचार पहुँचाने के वा त सार्वदेशिक, भले कृत्रिम होई, भाषा के सहारा लेबे के पड़ी। एही से लोकभाषा के साहित्य ढेर दिन जी ना सकल जियल ओतने, जेतना के कवनो बड़ा धार्मिक आन्दोलन के सहारा मिलल
आधुनिक हिन्दी पहिले त लोकभाषा का रूप में चललि बाकिर जइसे- जइसे ओह में ज्ञान-विज्ञान के उच्चतर सूक्ष्म विचार आवे लागल तइसे तइसे ओकर लोकभाषा के मूल गुण के हास होखे लागल वा अब धीरे-धीरे ऊ उहे पद पावे लागल बा जवन पहिले संस्कृत के रहल अवहियो ओकरा में संस्कृत नाइन कसाव नइखे आइल, मगर आ जाई विद्वाननि आ विशेष ज्ञानिनि के हाथ में पड़ि जाए से ऊ अभिजात सार्वदेशिक भाषा के रूप ले ले जातिया। जहाँ तक ज्ञान- विज्ञान के सूक्ष्म चिन्तन मननमूलक साहित्य के सवाल बा हिन्दी निश्चित रूप से सार्वदेशिक भाषा के रूप लिही, बाकिर जहाँ तक रागात्मक अभिव्यंजना के प्रश्न बा, अइसन शिकायत बहुत सुने में आवति वा जे हिन्दी जन जीवन से दूर होत जाति वा एक तरह के बौद्धिक कसरत बढ़ोत्तरी पर बा। असल में हिन्दी के रागात्मक अभिव्यंजना उहें सफल होई जहाँ-जहाँ जन-जीवन में घुलल- मिलल भाषा, प्रतीक, बिंब, मुहावरा जन भाषा से लिहल जाई । ईहो प्रवृत्ति हिन्दी में बढ़त बा। आंचलिक कहे जाया वाली कथा कहानी में ई प्रवृत्ति कुछ अधिक उजियार लउकति बा। बहुत लोकविधा के प्रवेश भी बढ़ि रहल बा, लेकिन प्रतिष्ठा पावे वाला साहित्य आ साहित्यकार लोग धरती का ओरि ओतना नइखनि, जेतना आसमान का ओरि बाइनि। एकर भारी प्रतिक्रिया भी हो रहलि बा। अब हरेक बोली के प्रतिभावान साहित्यकार लोग, जनभाषा का ओरि देखे लागल बा । अब एक तरह के खिचड़ी पकावे के कारबार शुरू भइल बा, नाँव दिहल गइल बा आंचलिकता। बड़का बड़का लोग कब-कबे ईहो कहत बाड़े जे ए से भाषा के नास हो रहल बा। मगर कवनो असर त नइखे देखात ई जनभाषा के सच्चा प्रेम का ओजह से हो रहल बा एही से काफी मजबूत लागत बा अब त हर बोली के लोग कहे लागल बाड़े जे सही ढंग के रागात्मक अभिव्यक्ति ओही भाषा में हो सकेला जवन जन साधारण के आपन दुख-सुख के भाषा होखे भिन्न-भिन्न बोली में कविता कहानी लिखाए लागलि बाड़ी से अइसन बुझात बा जे ई प्रवृत्ति बढ़ोतरिए पर जाई ।
ई सब बिना कवनो कारण के नइखे होत इतिहास-विधाता का अंगुलि- निर्देश पर ही रहल बा ।
जवना विशाल क्षेत्र के हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र कहल जाला ओमें बहुत बोली बाललि जाली में केतना त हिन्दी का भाषाई ढाँचा से निकट बाड़ी स, केतना कुछ दूर बाड़ी स आउर कई गो त अति दूर बाड़ी। फिर कई बोली में दीर्घकाल से साहित्य रचना में आपन निजी परम्परा रहलि हा ब्रजभाषा निकट त वा बाकिर ओकर साहित्य बहुत समृद्ध रहल। अवधी के त साहित्य संसार में प्रसिद्ध वा राजस्थानी के आपन समृद्ध परम्परा वा मैथिली त अब स्वतंत्र भाषा मानल जाए लागलि । ओकर भाषाई ढाँचा दूर के बा ओकर दीर्घकाल से साहित्यिक परम्परा रहलि हा भोजपुरी ना निकट के ह, आ ना बहुत दूर के साहित्यिक परंपरा एकरो कम पुरान नइखे हिन्दी सबके आपन मानि के चललि कुछ दिन त कहीं कवनो आवाज ना उठल बाकिर अब बहुत जगह आवाज उठे लागल बा जमाना अइसन जरे बताए लायक आइ गइल वा जे कवनो कहीं पत्ता खड़कल ना कि उहाँ राजनीति पहुँचल ना भाषावार प्रान्त विभाजन के सिद्धान्त अलगाव के उकसावहों में मदद कइ रहल वा । जब केहू अपना भाषा के स्वतंत्र कहला त पहिली शंका ईहे होले कि अलग राज्य बनावे के कवनी दुरभिसंधि त ना ह उवां कतनो किरिया खाईं जे हम खाली जन-जीवन के सही अभिव्यक्ति देवे खातिर ई बात कह तानी, बुद्धिमान लोग ना मनिहें 'मनवे में चोर बा, केहू के ना जोर बा'।
ई त कवनी समझदार आदमी ना कही कि एक ठे शक्तिशाली केन्द्रीय भाषा
ना होखे के चाहीं जे एतना बड़ा विशाल देश के एकता बनवले रहे। ओकरा के
राष्ट्रभाषा कहीं, राजभाषा कहीं, संपर्क भाषा कहीं, कवनो फरक नइखे पड़े के ।
एगो सामान्य सार्वदेशिक भाषा रहल जरूरी वा संविधान बनावे वाला लोग हिन्दी
के चुनले बा, लेकिन बहुत लोग ए बात के माने के तइयार नइखनि ऊ लोग
हिन्दी नइखन चाहत चाहत बा लोग जे अंगरेजिए ऊ काम करो। उहे संपर्क भाषा
रही। थोड़ा सरम पहिलवां रहल हा बाकिर धीरे-धीरे अब सरम वाली बात मद्धिम
परल जाति था। अब लोग खुलि के कहे लागल बा जे हिन्दी ना, अंगरेजिए सम्पर्क
भाषा रही आउर रहे के चाहीं कठिनाई ई वा जे एह देश के जनता अभी विदेशी
के आंतना गुलाम नइखे भइल। घूम-फिरि के नजर जाति वा त हिन्दिए पर
बड़का- बड़का लोग जं चाही कहो, अंगरेजी देश के आत्मसम्मान के उपेक्षा कइ
के कबहूँ ना चलि सकेले चली त हिंदिए चली। हम कवनो बनाउटी बात नइखीं
कहत कुछ अंगरेजी प्रेमी लांग सांचे लागल बाड़े जे यदि हिन्दी एही परिस्थिति में
रही त ओकरा के हटावल कठिन वा, काहे कि कवनो प्रान्तीय भाषा ओकरा आगे
सार्वदेशिक भाषा का रूप में ना टिक सकेले एह कारन से कोशिश ईहो रहल बा कि हिन्दी के शक्ति तूरि दिहल जाउ ए प्रकार के विचार के प्रत्यक्ष रूप अब दिखाई देवे लागल बा हिन्दी का अन्तर्गत आवे वाली बोलिन में अलगाव के भाव ले आवे के कोशिस हो रहल बा। बाकिर जहाँ तक हम समुझत बानी हिन्दी भाषी कहे जाए वाला लोग ए अस्त्र से घायल न होइहें अलग-अलग बोलिन में सर्जनात्मक साहित्य लिखल भी जाई आ हिन्दी के राष्ट्रभाषा रूप के सम्मान भी दिहल जाई भोजपुरी के आदर्श 'सोगहग' बराबर स्वीकृत रही। बाकिर गलत ढंग से सोचे वाला लोगनि से सावधान त रहहीं के परी ठीक बात ठीक ढंग से सोचे के चाहीं भोजपुरी ए कारण से साहित्य भाषा
ना हो सकेले कि कुछ थोड़ आदमी का मन में अइसन हुलास वा हिन्दी एह कारण से ना मुरझा जाई कि कुछ लोग चाहताड़े कि ऊ कमजारे हो जाउ । संपूर्ण देश के बहुसंख्यक जनता के जवना से हित होई आ जवना बात के समर्थन मिली, उहे होई। हम का सोचत बानीं आ रउवा का सोच तानों एकर महत्व तब होई जब एह सोचला में देश के बहुसंख्यक जनता के भलाई होई आ ओकर समर्थन मिली। भोजपुरी के साहित्य के वाहन तबे बनावल जा सकेला जब ओह साहित्य से भोजपुरी बोले वाली जनता के आशा-आकांक्षा का अभिव्यक्ति में सहायता मिले, ऊ कुछ अधिक सुख-सुविधा मान-सम्मान पा सके। राष्ट्रभाषा हिन्दी से एकर कवनो विरोध नइखे ना कवहीं भोजपुरी का सोचे के चाहीं कि ऊ हिंदी के प्रतिस्पद्ध हो के रही। ठेठ भोजपुरी शूरता आउर निर्भीकता के भाषा है, बन्धुता आउर सौहार्द के भाषा है। राष्ट्रभाषा हिन्दी ओतने आपनि ह जेतना भोजपुरी। दूनो आपन भाषा है। दूनों के, देश के जनता के सेवा खातिर स्वीकार कइल गइल बा ।
कबीर, तुलसीदास, कुँवर सिंह, भारतेन्दु के भाषा छोट उद्देश्य के भाषा कभी हो सकेले ? ई सब लोग पूरा देश के भीतर बाहर से एक आ अखंड करे के साधना कइले बा लोग भोजपुरी कबहीं छोट बात में ना परल आ ना परे के चाहीं राष्ट्रभाषा हिन्दी हमहन के आपने भाषा है। ओकरा के सजावे-सँवारे में भोजपुरी के रक्त आ पसीना कम नइखे लागल। दूनो में लिखीं, दूनो में पढ़ीं, दूनो एके ह। दाहिनी आँख आ बाई आँख में कवन झगड़ा बा ? ब्राह्मधर्म आ क्षात्र धर्म में कवनो बैर बा ? इदं ब्राह्ममिदं क्षात्रम् शापादपि शरादपि ।
संविधान में कुछ भारतीय भाषा के मान्यता दिहल बा। बाकिर बहुत अइसन भाषा बाड़ी स जवना के मान्यता त नइखे मिलल बाकिर उनहनि में कुछ ना कुछ साहित्य निर्माण हो रहल बा। कुछ दिन तक साहित्य अकादमी संविधान में स्वीकृत भाषनि के साहित्य के पुरस्कार देति रहलि बाकिर एने आ के अइसन भाषा भी पुरस्कार वास्ते स्वीकार कइल गइली हा स जेकर कवनो चर्चा संविधान में नइखे। उद्देश्य रहल साहित्य निर्माण के प्रोत्साहन दिहल । कवनो भाषा राजनीतिक दृष्टि से संविधान के अंग ना होके भी उत्तम साहित्य दे सकेला । राजशेखर कहि गइल बाड़न जे उत्तम टक्ति विशेष काव्य कहल जाला, ओकर भाषा कोई भी हो सकेला एह बात के आउरो बढ़ाइ के कहल जा सकेला कि रागात्मक संबंध के उजागर करे वाला साहित्य कवनो बोली में लिखल जा सकेला एही से अब साहित्य अकादमी अइसन अनेक बोली के साहित्य के पुरस्कार दे रहलि वा जेकर मान्यता संविधान में नइखे। शुरू-शुरू में हमरा ई बात बहुत अच्छा ना मालूम भइल। ई डर वा जे आगे चलि के ई बात राजनीतिक उलझन पैदा करी। मगर अब त साहित्य अकादमी धड़ाधड़ बोलिनि के मान्यता देत जाति बा। अब अगर सब बोलिनि में पुरस्कार प्राप्त होखे लागल त भोजपुरी, अवधी वगैरह शक्तिशाली बोलिनि के काहे उपेक्षा होई? हम समझऽतानी जे जब आउर बोलिनि के साहित्यिक मान्यता मिलि गइल त भोजपुरी के भी अवश्य मिले के चाहीं । एह भाषा के जे प्रतिभाशाली कवि, कथा-लेखक बाड़नि उनहूँ के पुरस्कार जरूर मिले के चाहीं राष्ट्र के दसवाँ हिस्सा लोग जवना बोली के बोलत वा, आपन दुख-सुख, आशा-आकांक्षा के अभिव्यक्ति दे रहल बा, ओकर सम्मान होखों के चाहाँ, बाकिर ई विशुद्ध साहित्यिक प्रस्ताव है। एकरा माथे राजनैतिक सौदेबाजी ना होखे के चाहीं केहू का मन में ओइसन बात होई त तुरन्ते मन में से ओके हटा देवे के चाहीं ।
फेरु हम आप लोगनि के यादि दिलाई जे हिन्दी आ भोजपुरी के एक समझि के काम करके चाहीं । दूनों के दुइ मनले झंझटि पैदा होई विद्यापति जी कहले रहलीं जे 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा, तं तैसन जंपों अवहट्ठा' देसिल बयन आपन घर के बोलि ह । अवहट्ट सार्वदेशिक भाषा ह। आजु का युग में ऊहे हिन्दी वा विद्यापति जी के कहनाम रहे कि जइसन देसिल बयन ह तइसन अवहट्ठ (परवर्ती अपभ्रंश) ह 'तइसन', कवनो भेदभाव ना राखे के चाहीं विद्यापति जी दूनों में लिखले रहलीं। हमनो का ऊहे मान के चले के चाहीं । मउजि आइल त 'जैसने' हिन्दी । हमन के दूनो भाषा आपने ह एह क्षेत्र के भोजपुरी लिखे वाला साहित्यकार भी नमस्य बाड़े आ हिन्दी में लिखे वाला भी प्रणम्य बाड़े। भगवान सवकर कल्याण करमु ।