भोजपुरी क्षेत्र की यह विशेषता है कि वह क्षेत्रीयता या संकीर्णता के दायरे में बँध कर कभी नहीं देखता, वह मनुष्य, समाज और देश को पहले देखता है। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में भोजपुरी भाषी लोगों का अप्रतिम योगदान है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और भारतेन्दु-मण्डल के लेखक देवकीनन्दन खत्री, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, राहुल सांकृत्यायन, श्यामसुन्दर दास, आचार्य शिवपूजन सहाय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, शिवप्रसाद सिंह नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र - यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है। ये लोग चाहते तो भोजपुरी में लिख सकते थे, लेकिन उन्होंने राष्ट्र और राष्ट्रभाषा को गरिमा को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हुए हिन्दी में लिखा । बहुत दिनों तक यह भ्रम बना रहा कि भोजपुरी के उत्थान में हिन्दी का पतन छिपा हुआ है। सचाई यह है कि हिन्दी अपने आप में एक भाषा नहीं, भाषाओं का समूह है। सहयोगी भाषाओं-ब्रजी, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, मगही, मैथिली, हरियाणवी आदि की शक्ति, हिन्दी की शक्ति है। उनका वैभव हिन्दी का वैभव है। सन्त हमेशा बोली में गाते रहे हैं और उनके गाते रहने से वह बोली सारे देश में पहुँचती रही है। कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, गोरख, रैदास को बंगाल में बाउल गाते हैं, पंजाब में रागी, तो दक्षिण के कथा-काल-क्षेपण में पूरा समाज गाता है। ये किस भाव के कवि हैं? इनकी कौन-सी बोली है ? सन्त जब गाने लगते हैं तब भाषा अपनी सरहदें तोड़ देती है। भाषा में दार्शनिक बोलता है, सन्त बोली में गाता है दार्शनिक से सन्त महान होता है, क्योंकि तर्क के प्रभाव से दर्शन ऊपर की ओर बढ़ता है जबकि सन्तों की बानी लहर की तरह फैल कर ढाई आखर वाले प्रेम को अपने अँकवार में भर लेती है। इसलिए सारे दार्शनिक शहरों में हुए और सारे सन्त गाँवों में वनों में भोजपुरी में सन्त काव्य की महान परम्परा रही हैं। उत्तर भारत की सन्त परम्परा भोजपुरी की परम्परा है।
शब्द से भाषा बनती है, लेकिन शब्द भाषा नहीं है। इसी प्रकार भाषा में साहित्य लिखा जाता है, पर भाषा साहित्य नहीं है। अनेक अफ्रीकी देशों के पास भाषा है, लेकिन उनमें साहित्य नहीं है। वह कौन सी चीज है, जो भाषा को - साहित्य बना देती है ? वह है मनुष्य जब मनुष्य का दर्द, उसकी वेदना सम्वेदना भाषा में प्रवेश करती है तब भाषा साहित्य बनती है 'सुगना बसे पहाड़ पर हम जमुना के तीर-दूर के वासी 'सुगना' और यमुना तट वासी 'सुगनी' जब 'मीत' बन कर एक होकर एक-दूसरे में रमण करेंगे, तब साहित्य जन्मेगा। लोक कथा में जब कहा जाता है कि पेड़ पर रहने वाले 'सुआ' में किसी का हृदय बसता है और ऐसा बसता है कि एक को छूने पर दूसरा तड़पने लगता है-तब भाषा साहित्य बनती है।
भोजपुरी का वैभव हिन्दी का भी वैभव है। सूर, तुलसी, मीरा, विद्यापति, कबीर, धरमदास, धरनीदास, पलटूसाहेब की सन्त चेतना का वैभव ब्रजी, अवधी, मैथिली और भोजपुरी का वैभव तो है ही, हिन्दी का भी वैभव है।
भोजपुरी क्षेत्र
सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने भारत की भाषाओं का सर्वेक्षण करते हुए भोजपुरी भाषी प्रदेश के बारे में लिखा था- "भोजपुर परगने के नाम पर भोजपुरी भाषा का नाम पड़ा है। यह भोजपुर की सीमा से आगे बहुत दूर तक बोली जाती है। उत्तर में यह गंगा को पार करके नेपाल की सीमा के ऊपर हिमालय की निचली पहाड़ियों तक, चम्पारण जिले से लेकर बस्ती तक फैली हुई है। दक्षिण में सोन पार करके यह छोटा नागपुर के विस्तृत राँची के पठार तक फैलती है। मानभूम जिले के छोर पर यह बंगाली और सिंहभूम जिले के छोर पर उड़िया के संसर्ग में आती है। .... बिहार में मैथिली, मगही और भोजपुरी-इन तीन बोलियों में भोजपुरी अति पश्चिमी बोली है।... उस भू-भाग का, जिसमें केवल भोजपुरी भाषा ही बोली जाती है, क्षेत्रफल निकालने पर पचास हजार वर्ग मील होता है। इस भू-भाग के निवासियों की जनसंख्या, जिनकी मातृभाषा भोजपुरी है, दो करोड़ है।"
ग्रियर्सन द्वारा 'लिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया' में दिए गए ये आँकड़े सन् १९०१ के हैं। सन् १९०१ को जनगणना के आधार पर ये आँकड़े लिए गए थे। सन् १९९९ में भोजपुरी भाषियों की संख्या १५ करोड़ से अधिक है। इसकी सीमा प्रान्तों की राजनीतिक सीमा से भिन्न है। इसकी सीमा गंगा नदी के साथ- साथ, पटना के पश्चिम कुछ किलोमीटर तक पहुँच जाती है, जहाँ से सोन नदी के साथ-साथ रोहतास तक पहुँच जाती है। यहाँ से वह दक्षिण पूरब का मार्ग ग्रहण करती है तथा आगे चलकर राँची के पठार के रूप में एक प्रायद्वीप का निर्माण करती है। इसकी दक्षिण-पूर्वी सीमा राँची से बीस मील पूरब तक जाती है तथा बाँद के चारों ओर घूम कर वह खरसावाँ तक पहुँच जाती है। यहाँ से यह उड़िया को अपने बायें छोड़ती हुई, पश्चिम की ओर मुड़ जाती है तथा पुनः दक्षिण और फिर उत्तर की ओर मुड़ कर जशपुर राज्य को अपने अन्तर्गत कर लेती है। यहाँ छत्तीसगढ़ी तथा बघेली को अपनी बायीं ओर छोड़ देती है। यहाँ से भण्डरिया तक पहुँच कर यह पहले उत्तर पश्चिम और पुनः उत्तर-पूरब मुड़ कर सोन नदी का स्पर्श करती हुई 'नगपुरिया भोजपुरी' की सीमा पूर्ण करती है। सोन नदी को पार कर भोजपुरी अवधी की सीमा का स्पर्श करती है तथा सोन नदी के साथ यह ८२° देशान्तर रेखा तक चली जाती है। इसके बाद उत्तर की ओर मुड़कर यह मिर्जापुर के १५ मोल पश्चिम की ओर गंगा नदी से मिल जाती है। यहाँ से यह पुनः पूरब की ओर मुड़ती है, गंगा को मिर्जापुर के पास पार करती है तथा अवधी को अपने बायें छोड़ती हुई, सीधे उत्तर की ओर जी०टी० रोड पर स्थित तमंचाबाद' का स्पर्श करती हुई जौनपुर शहर से कुछ मील पूरब तक पहुँच जाती है। इसके बाद घाघरा नदी का अनुसरण करती हुई यह अकबरपुर तथा टाण्डा तक चली जाती है। घाघरा के उत्तर बहाव मार्ग के साथ- साथ पुनः यह पश्चिम में ८२° देशान्तर तक पहुँच जाती है। यहाँ से टेढ़े-मेढ़े मार्ग से होते हुए बस्ती जिले के उत्तर-पश्चिम, नेपाल की तराई में स्थित यह सीमा 'गिरवा' तक चली जाती है। यहाँ पर भोजपुरी की सीमा एक ऐसी पट्टी बनाती है, जिसका कुछ भाग नेपाल तथा कुछ भाग भारत की सीमा के अन्तर्गत आता है। यह पट्टी पन्द्रह मौल से अधिक चौड़ी नहीं है तथा बहराइच तक चली गई है। इसमें 'थारू' बोली जाती है, जिसमें भोजपुरी के ही रूप मिलते हैं।
भोजपुरी की उत्तरी सीमा, अवधी की उस पट्टी को, जो भोजपुरी और नेपाली के बीच है, बायीं ओर छोड़ती हुई, दक्षिण की ओर ८३° देशान्तर रेखा तक चली गई है। यह पूरब में रुम्मनदेई (प्राचीन लुम्बिनी) तक पहुँच जाती है। यहाँ से वह पुनः उत्तर पूरब की ओर नेपाल में स्थित बुटवल तक पहुँच जाती है। तथा वहाँ से पूरब से होती हुई नेपाल के अमलेखगंज के १५ मील इधर तक पहुँच कर यह सीमा पश्चिम की ओर मुड़ती है तथा गण्डक नदी के साथ-साथ वह पटना के पास तक जा कर गंगा नदी से मिल जाती है।
डॉ० ग्रियर्सन और डॉ० उदयनारायण तिवारी ने भोजपुरी क्षेत्र के सन्दर्भ में
जो विवरण दिये हैं, वे आज भी सही और संगत लगते हैं। इस समय मॉरिशस,
फिजी, सूरीनाम, ट्रिनीडाड और गुआना जैसे देशों को छोड़ दिया जाय (जहाँ
पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के लोग गिरमिटिया मजदूरों के रूप में गए
थे, जिन्होंने भयंकर अत्याचार सहते हुए भी अपनी भोजपुरी भाषा तथा संस्कृति
को जीवित रखा और जिन देशों में आज भी भोजपुरी बोली जाती है) तो भारत
के तीन प्रान्तों में भोजपुरी बोली जाती है- १. उत्तर प्रदेश - बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, भदोही, मिर्जापुर, सोनभद्र, जौनपुर, गोरखपुर, सन्तकबीर नगर, सिद्धार्थ नगर, महराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, देवरिया और मऊनाथ भंजन।
२. बिहार- बक्सर, भोजपुर, भभुआ, रोहतास, सारन, सीवान, गोपालगंज, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चम्पारण, पलामू, राँची, महाराजगंज ।
३. मध्य प्रदेश - बिलासपुर और सरगुजा
भोजपुरी का नामकरण
बिहार में बक्सर जिले के पास भोजपुर परगने में 'पुराना भोजपुर' नाम का एक गाँव हैं। यह डुमराँव रेलवे स्टेशन से दो मील उत्तर, बक्सर से दस मील पूरब तथा पटना से साठ मोल पश्चिम, आरा-बक्सर मार्ग के दोनो ओर बसा है। अब यह भोजपुर नाम 'नयका भोजपुर' और 'पुरनका भोजपुर' नामक आस-पास बसे ग्रामों के लिए व्यवहत होता है।
जॉन बीम्स ने रॉयल एशियाटिक सोसायटी के जर्नल, भाग-३, सन् १८६८ के पृष्ठ ४८३-५८५ पर लिखा है "भोजपुरी का नाम प्राचीन भोजपुर नामक नगर से लिया गया है। यह नगर शाहाबाद जिले में गंगा के दक्षिण कुछ मील पर ही बसा था, जिसकी दूरी पटना से ६० मील थी। आज तो यह छोटा-सा गाँव है, किन्तु किसी समय में शक्तिशाली राजपूतों की राजधानी था। अखतदीन' पढ़ने वाले जानते हैं कि औरंगजेब के सूबेदारों को भी भोजपुर के राजाओं को दबाने का प्रयत्न करना पड़ा था।" .....सहरुल
शाहाबाद गजेटियर (सन् १९२४, गवर्नमेण्ट प्रेस, पृ० १५८) में भोजपुर के सम्बन्ध में लिखा है-" भोजपुर एक गाँव है, जो बक्सर सब-डिविजन में, डुमराँव से दो मील उत्तर बसा है। इसकी जनसंख्या (सन् १९२१ में) ३६०५ थी। इस गाँव का नाम मालवा के राजा भोज के नाम पर पड़ा है। कहा जाता है। कि राजा भोज ने राजपूतों के एक गिरोह के साथ इस जिले पर आक्रमण किया और यहाँ के आदिवासी 'चेरों' को हरा कर अपने अधीन किया। आज शाहाबाद
का सम्पूर्ण उत्तरी भाग भोजपुर नाम से जाना जाता है।" यहाँ की भाषा के बारे में उक्त गजेटियर के पृष्ठ ४० पर लिखा है- 'इस जिले के सम्पूर्ण भाग में जो भाषा वर्तमान समय में बोली जाती है, वह बिहारी हिन्दी का एक रूप हैं, जो भोजपुरी कही जाती है। यह भोजपुरी नाम भोजपुर
परगने के नाम पर पड़ा।' राहुल सांकृत्यायन भी उज्जैनी राजपूतों द्वारा भोजपुर नगर बसाए जाने की पुष्टि करते हैं-" शाहाबाद के उज्जैन राजपूत मूल स्थान के कारण उज्जैन और पीछे की राजधानी धार से भी आए कहे जाते हैं। 'सरस्वती कण्ठाभरण' धारेश्वर महाराज भोज के वंश के शान्तनशाह, १४वीं सदी में, धार राजधानी के मुसलमानों के हाथ में चले जाने के कारण जहाँ-तहाँ होते हुए बिहार के इस भाग में पहुँचे। यहाँ के पुराने शासकों को पराजित करके महाराज शान्तनशाह ने पहले 'दाँवा' (बिहिया स्टेशन के पास छोटा-सा गाँव) को अपनी राजधानी बनाया। उनके वंशजों ने जगदीशपुर, मठिया और अन्त में डुमराँव में अपनी राजधानी स्थापित की। पुराना भोजपुर गंगा में बह चुका है नया भोजपुर डुमराँव स्टेशन से दो मील । के करीब है।" (भोजपुरी लोक गीतों में करुण रस, भूमिका, पृ० ४-६ )
धीरे-धीरे भोजपुर का विशेषण भोजपुरी, इस प्रान्त के निवासियों तथा उनकी बोली के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। चूँकि इस प्रान्त के उत्तर दक्षिण तथा पश्चिम में भी इस प्रान्त की बोली ही बोली जाती थी, अतएव भौगोलिक दृष्टि से भोजपुर प्रान्त से बाहर होने पर भी इधर की जनता तथा उसकी भाषा के लिए भी भोजपुरी शब्द ही प्रचलित हो चला (शाहाबाद गजेटियर) ।
'आरा- पुरातत्व' में लिखा है- "इस प्रान्त के नाम से ही भोजपुरी बोली प्रसिद्ध है।'' (पृ० ३२) इसी मत का समर्थन करते हुए सर जॉर्ज ग्रियर्सन कहते हैं-" भोजपुरी उस शक्तिशाली, स्फूर्तिपूर्ण और उत्साही जाति को व्यावहारिक भाषा हैं, जो परिस्थिति और समय के अनुकूल अपने को बनाने के लिए सदा प्रस्तुत रहती है और जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान के हर भाग पर पड़ा है। हिन्दुस्तान में सभ्यता फैलाने का श्रेय बंगालियों और भोजपुरियों को ही प्राप्त है। इस काम में बंगालियों ने अपनी कलम से काम लिया और भोजपुरियों ने अपनी लाठी से।" (लिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया)
डॉ० उदयनारायण तिवारी ने काशी नागरी प्रचारिणी की पत्रिका (वर्ष ५३, अंक ३-४ वि० सं० २००५ पृ० १६३-१६९) में प्रकाशित भोजपुरी का 4 नामकरण' लेख में लिखा है-" लिखित रूप में भोजपुरी भाषा का सर्वप्रथम प्रामाणिक प्रयोग हमें सन् १७८९ में मिलता है। ग्रियर्सन साहब ने अपनी पुस्तक 'लि० स० ऑ० इण्डिया' के प्रथम भाग के पूरक अंश के पृ० २२ में एक उद्धरण दिया है। यह रेमण्ड कृत 'शेर मुतारीन के अनुवाद' से लिया गया है। वह इस प्रकार है- १७८९, दो दिन बाद सिपाहियों का एक रेजिमेण्ट जब दिन निकलने पर शहर से होता हुआ चुनारगढ़ की ओर जा रहा था, तब मैं वहाँ गया और उन्हें जाते हुए देखने के लिए खड़ा हो गया। इतने में रेजिमेण्ट के सिपाही रुके और उनके बीच से कुछ लोग अन्धी गली की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने एक मुर्गी पकड़ ली। तब सिपाहियों में से एक ने अपनी भोजपुरी बोली में कहा- इतना अधिक
शोर न मचाओ।" इसके बाद भाषा के रूप में भोजपुरी शब्द का प्रयोग सन् १८६८ में, जॉन बोक्स ने, 'रॉयल एशियाटिक सोसायटी' के जर्नल (जिल्द-३, पृ० ४८५-५०८) में प्रकाशित अपने भोजपुरी सम्बन्धी लेख में किया है। यह लेख प्रकाशित होने के एक वर्ष पूर्व ( १६ फरवरी सन् १८६७ को) एशियाटिक सोसायटी में पढ़ा गया था।
भोजपुरी की बोलियाँ
डॉ० ग्रियर्सन ने भोजपुरी को चार भागों में विभक्त किया है—उत्तरी, पश्चिमी, दक्षिणी और नगपुरिया उत्तरी भोजपुरी घाघरा के उत्तर में बोली जाती है। इसकी भी दो विभाषाएँ हैं— (i) सरवरिया (ii) गोरखपुरी।
डॉ० उदयनारायण तिवारी के अनुसार दक्षिणी भोजपुरी ही आदर्श भोजपुरी है। इसका क्षेत्र शाहाबाद, सारन, बलिया, पूर्वी देवरिया तथा पूर्वी गाजीपुर है।
कुल मिलाकर इसकी बोलियों की संख्या छह है- -
(i) आदर्श भोजपुरी
(ii) पश्चिमी भोजपुरी वाराणसी, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्जापुर।
(iii) मधेशी यह तिरहुत की मैथिली बोली तथा गोरखपुर के बीच वाले स्थानों में बोली जाती है।
(iv) थारू उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले से लेकर बिहार के चम्पारण के तराई क्षेत्र में बोली जाती है।
(v) सरवरिया: गोरखपुर, बस्ती।
(vi) नगपुरिया बिहार के छोटा नागपुर में बोली जाती है।
साहित्य
(अ) कविता - भोजपुरी की सम्पूर्ण काव्य-परम्परा को मुख्यतः तीन भागों में बाँट कर देखा जा सकता है- (१) सिद्ध, नाथ और सन्त कवियों द्वारा रचित काव्य (२) लोक कण्ठ द्वारा सृजित लोक-काव्य, (३) आधुनिक काव्य ।
(१) सिद्ध, नाथ एवं सन्त कवियों द्वारा रचित सिद्धों ने प्राकृत भाषा को छोड़कर लोक भाषाओं में काव्य-रचना की परम्परा आरम्भ की। भोजपुरी कविता का आरम्भिक रूप गोरखनाथ की बानी और अन्य सिद्धनाथ कवियों की रचनाओं में मिलता है। पं० दामोदर के 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' (१२वीं शताब्दी) में उस समय के भोजपुरी शब्दों का प्रयोग सबसे पहले मिलता है। भोजपुरी के बहुत से गाथा- काव्यों का रचना काल भी वही है। उसके बाद कबोर, धरमदास, धरनीदास, दरिया साहब (बिहार वाले), गुलाल साहब, भीखा साहब, लक्ष्मी सखी जैसे सन्त कवियों ने अपनी प्रेमपरक रहस्यवादी वाणी से इस परम्परा को समृद्ध किया। इस काल के कवियों की रचनाओं की भाषा देखने से स्पष्ट हो जाता है कि गोरखनाथ के शिष्य भरथरी के समय से ही भोजपुरी ने प्राकृत अथवा अपभ्रंश का साथ पूर्ण रूप से छोड़ दिया था भोजपुरी न केवल समर्थ काव्य भाषा के रूप में विकसित हो गई थी, बल्कि अपनी अभिव्यंजना- शक्ति, शब्द-सम्पदा और मुहावरों आदि से इतनी समर्थ हो गई थी कि कबीर आदि की कविताओं पर भी उसका प्रभाव पड़ा।
'गोरखबानी' में बहुत से ऐसे छन्द हैं, जिनकी भाषा शुद्ध भोजपुरी है, जैसे- गगन मंडल में ऊँधा कुँवा तहाँ अमृत का वासा । सगुरा होइ सु भरि भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा ॥
हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिला धीरै धरिबा पाँव ।
गरब न करिबा सहजै रहिबा भनत गोरखराव ॥ कबीरदास ने भोजपुरी में प्रचुर काव्य-रचना की। एक दोहे में उन्होंने भोजपुरी को स्वयं अपनी भाषा स्वीकार किया है-
बोली हमरी पूरबी, हमें लखे नहीं कोय । हमके तो सोई लखे, धुर पुरब का होय ॥
कबीर का व्यक्तित्व अत्भुत है। उसमें इतना विस्तार है कि सारी सरहदें
टूट जाती हैं, हद-अनहद बिला जाते हैं। इन्द्रियों का व्यापार भीतर से संचालित
होता है। कबीर में एक ओर 'मन मस्त हुआ तो क्या बोले को भरपूर छलकन है
तो दूसरी ओर प्रचण्ड रोष उनका आकाश दिन में जितना तपता हैं, रात में उतना
ही जड़ता भी है। क्रांति द्रष्टा कवि के रूप में वे व्यवहार में बहुत निर्मम लगते
हैं, सान पर चढ़े शस्त्र को हाथ में लिए, लगता है सब कुछ ध्वंस कर देंगे।
उनका निमन्त्रण उस घर में आने का न्यौता है, जहाँ 'सीस' देने पर प्रवेश मिलता
है। यह शस्त्र उसी के लिए है। दूसरी ओर एक योगी के रूप में, एक साधक के
रूप में इतने शीतल, इतने सहज, इतने मनोहर लगते हैं कि लगता है कि एकान्त
की महानिशा में घट की ज्योति से भीतर का आकाश भर गया है-मन निष्कम्प
दीप की तरह स्थिर और एकाग्र लो हो गया है-न नींद है, न लगाव-किसी
शोक के लिए अब अवकाश नहीं ऊपर-नीचे जाने वाली वायु को एक साथ
रोक कर ऐसा सहज भाव मिला है कि केवल ध्वनि की लहरें रह गई हैं, सारा
प्रकाश ज्ञान अनुभव अनहद में समा गया है। केवल कबीर ही नहीं, उत्तर भारत के तमाम सन्त कवियों ने ज्ञान, प्रेम, भक्ति और निर्गुण की रागिनी को स्वर देने के लिए भोजपुरी को माध्यम के रूप में अपनाया, जैसे-
खेलत रहलीं बाबा चौपरिया, आई गेलें अनिहार हो । पार परोसिन भेटहूँ न पवर्ती, डोलिया फँदाये लिहे जात हो ।
( धरम दास)
भाई रे जीभ कहलि नहि जाई राम रटन को करत निहुराई कूदि चले कुचराई ।
(धरनी दास)
गंग जमुनवाँ के बिचवा हो बहे झिरहिर नीर तेहि ठ्या जोरल सनेहिया हो हरि ले गइले पीर । जोगिया अमर मरे नाहिन हो पुजवल मोरी आस करम लिखा बर पावल हो गावें पलटू दास ।
(पलटू दास)
O
सतगुरु नावल सबद हिंडोलवा सुनतहिं मन अनुरागल
(भीखा साहब)
मानऽ तन-मन-धन भर घाट मान5 सुगना हुकुम हजूरी ॥ सब मिलि जइहें धूरी। दूनो हाथे करवे जइसन मिलिहें मजूरी ॥ रती ना होई मजूरी। एक दिन भरे के परी काटि काटि खूरी ॥ लछमी सखी कहे अबहूँ ले ना जम्हू आके मुँहें मुँह थूरी ॥ चेतो। त
(लक्ष्मी सखी)
(२) लोक-काव्य - भोजपुरी के लोक-काव्य की परम्परा अत्यन्त समृद्ध है। इसमें लोक-जीवन के उल्लास, उछाह, हूक, हुलास, संस्कृति, बोध, प्रेम, विरह, विद्रोह, यथार्थ संघर्ष आदि की मार्मिक व्यंजना मिलती है। पर्व, उत्सव खेत-खलिहान, सरेह, कुँआ-बावड़ी, बाग-बगीचा, नदी, पोखर, वन, पर्वत, ऋतु आदि का सम्पूर्ण वैभव इनमें सहजता से उद्घाटित हुआ है। बिरहा, कजरी, चैता, फगुवा, कहरवा, बारहमासा जैसे पुरुष प्रधान गीतों के साथ-साथ सोहर, झूमर, कजरी, संझा-पराती, जेवनार, जैतसार, गारी, छठ, बहुरा, पिड़िया, नागपंचमी और संस्कारों में गाए जाने वाले नारी प्रधान गीत भोजपुरी लोक- जीवन का मुकम्मल रूप प्रस्तुत करते हैं। देवी-देवताओं को मनाने रिझाने, श्रद्धा-भक्ति को व्यक्त करने वाले, आत्म निवेदन के साथ-साथ देश और देश के नायकों के नाम पर गाए जाने वाले लोकगीतों से भोजपुरी का भण्डार भरा हुआ है भोजपुरी का यह अपूर्व काव्य सही अर्थों में जन काव्य है, जो लोक द्वारा लोक के लिए सृजित हुआ है और सदियों से गाया जा रहा है।
डॉ० ग्रियर्सन, ह्यूग फ्रेजर, जे० बीम्स, ए०जी० शिरेफ, पं० रामनरेश त्रिपाठी, डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय, डॉ० विद्यानिवास मिश्र, श्री देवेन्द्र सत्यार्थी, दुर्गाशंकरप्रसाद सिंह, पाण्डेय कपिल, डब्ल्यू०जी० आर्चर, संकठा प्रसाद और श्री हंसकुमार तिवारी ने भोजपुरी लोकगीतों के संग्रह और सम्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
(३) आधुनिक काव्य- आधुनिक भोजपुरी कविता को कविता की श्रेष्ठ भारतीय परम्परा से जोड़ने में 'पृथ्वी' के जनक महेन्दर मिसिर, लोक रंग को लोक मंच देने वाले भिखारी ठाकुर, देश-राग के गायक बाबू रघुवीर नारायण और विरहा के अमर गायक विसराम का नाम प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त महेन्द्र शास्त्री, मनोरंजनप्रसाद सिन्हा, दण्डिस्वामी विमलानन्द सरस्वती, धरीक्षण मिश्र, मोती बी०ए०, पाण्डेय नर्मदेश्वर सहाय, रामविचार पाण्डेय, रामजियावन दास 'बावला' गोरख पाण्डेय, अवधेन्द्र नारायण, जगदीश ओझा 'सुन्दर' भोलानाथ गहमरी चन्द्रशेखर मिश्र, राहगीर, दूधनाथ शर्मा 'श्याम', रामनाथ पाठक 'प्रणयी' प्रभुनाथ मिश्र, अंजन, आदि ने सृजन के नये आयामों से इसे जोड़ा है। सातवें दशक के बाद भोजपुरी में अनेक श्रेष्ठ काव्य प्रकाशित हुए, जैसे- 'कुँवर सिंह (हरेन्द्रदेव नारायण), 'वीर कुँवर सिंह'. * भीषम बाबा'. 'द्रौपदी' (चन्द्रशेखर मिश्र), 'साहित्य (दुर्गाशंकरप्रसाद सिंह), 'किरनमयी' (रामवचन शास्त्री 'अँजोर'), 'बउधायन' रामायण' ( विमलानन्द सरस्वती), 'प्रेमायन' (अशेष), लवकुश' (तारकेश्वर मिश्र 'राही'), 'महाभारत' (गणेश दत्त 'किरण'), 'कुणाल' (रामबचन लाल), 'रुक जा बदरा' ( (मधुकर सिंह), 'सुदामा यात्रा' (दूधनाथ शर्मा), 'कौशिकायन' (अविनाश चन्द्र विद्यार्थी) आदि।
भोजपुरी के सृजनरत प्रमुख कवियों में राहगीर, हरिराम द्विवेदी, आनन्द सन्धिदूत, अशांक द्विवेदी, चन्द्रदेव सिंह, पाण्डेय कपिल, पाण्डेय सुरेन्द्र पी० चन्द्रविनोद, लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी, प्रकाश उदय, सुरेन्द्र कुमार सारंग, चन्द्रदेव यादव, रंगनाथ 'रंग', मुख्तार सिंह दीक्षित, रामवृक्ष राय 'विधुर', उमाकान्त वर्मा, रवीन्द्र श्रीवास्तव 'जुगानो' स्वर्ण किरन, प्रो० ब्रजकिशोर, सुभद्रा वीरेन्द्र, उपेन्द्र कुमार, नगेन्द्रमणि 'मंजुल' श्रीकृष्ण तिवारी, विन्ध्यवासिनी दत्त त्रिपाठी, माहेश्वर तिवारी, बलभद्र, अनुपम आदि महत्त्वपूर्ण हैं।
भोजपुरी कविता का भविष्य उज्ज्वल है। कवियों की नयी पीढ़ी में कविता को ऊँचाई पर ले जाने वाली क्रियाशीलता और सृजनशीलता विद्यमान है। परम्परा और इतिहास के बोध के साथ अपने समय के राग-विराग और गहरी बौद्धिक चेतना से सम्पृक्त भोजपुरी कविता नकली प्रगतिशीलता, सतही रूमानी भावोच्छ्वास की सरहदों को तोड़कर निरन्तर आगे बढ़ रही है। (ब) गद्य साहित्य- भोजपुरी के काव्य के मुकाबले उसका गद्य साहित्य थोड़ा अविकसित अवस्था में है। इसका कारण यह है कि भोजपुरी क्षेत्र में शिक्षा का माध्यम हिन्दी भाषा है, यद्यपि पुराने कागजों में भोजपुरी गद्य के नमूने मिलते हैं ये कागज दान-पत्रों, एकरारनामों, बही खातों, पंचनामों और फैसलों के रूप में मिलते हैं। डॉ० उदयनारायण तिवारी ने भोजपुरी गद्य को तीन भागों में बाँटा है-
(i) प्राचीन कागज पत्रों में सुरक्षित गद्य -
(ii) आधुनिक पुस्तकों में प्रयुक्त गद्य
(iii) लोक कथाओं का गद्य
आधुनिक युग में डॉ० तिवारी महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को भोजपुरी गद्य का प्रवर्तक मानते हैं। राहुल जो ठेठ भोजपुरी में धाराप्रवाह भाषण भी देते थे और उसी तरह लिखते भी थे। दिसम्बर ४७ में गोपालगंज में आयोजित भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए राहुल जी ने कहा था-
"के अभागा के आपन जनम धरती आ जनम के बोली पियार ना लागी, बाकी ऊ अब मन-मन में रखला के काम नइखे ओके करे के चाहीं हमनी के भाई बहीन चारों खूंट में कतहूँ जे मिलेला आपन बोली में बतियावे में तनिको संकोच ना करेला हम देखले कि दसरा दुसरा जगह के लोग आपन बोली- बानी छोड़ि के अरबी-फारसी बुके लागेला आ आपन जनम धरती के छिपावेला । "
गद्य विधाओं में कहानी - साहित्य भोजपुरी में अत्यन्त उन्नत और महत्त्वपूर्ण है सर्वश्री अवध बिहारी 'सुमन' (बाद में स्वामी विमलानन्द सरस्वती), महेन्द्र शास्त्री, रामेश्वर सिंह काश्यप, चतुरी चाचा, विवेकी राय, पी० चन्द्र विनोद, रामेश्वर नाथ तिवारी, रामदेव शुक्ल, हरिकिशोर पाण्डेय, प्रतिमा वर्मा, पाण्डेय कपिल, पाण्डेय सुरेन्द्र, गणेश दत्त किरण, अशोक द्विवेदी, रामनाथ पाण्डेय, विनय बिहारी सिंह, कृष्णा नन्द 'कृष्ण', प्रकाश उदय, सुरेश कांटक, मधुकर सिंह, सत्यदेव त्रिपाठी, तैयब हुसैन 'पीड़ित', भगवतीप्रसाद द्विवेदी, विष्णुदेव तिवारी, जवाहर सिंह आदि की कहानियाँ सम्भावना के नये क्षितिज खोलती हैं।
विद्यानिवास मिश्र, शिवप्रसाद सिंह, विवेकी राय, गणेशदत्त किरण, आनन्द सन्धिदृत, अशोक द्विवेदी की रम्य रचनाएँ; रसिक बिहारी ओक्षा 'निर्भीक', चन्द्रभ द्विवेदी और सरदार देविन्दर पाल सिंह के यात्रा संस्मरणः रामनाथ पाण्डेय रामदेव शुक्ल और पाण्डेय कपिल के उपन्यास माधुरी शुक्ल की कहानी और राहुल सांकृत्यायन, भिखारी ठाकुर के नाटकों ने भोजपुरी गद्य की परम्परा को समृद्ध किया है।
यह संकलन
भोजपुरी की श्रेष्ठ गद्य-पद्य रचनाओं के एक प्रतिनिधि संकलन की आवश्यकता बहुत दिनों से महसूस की जा रही थी यह संकलन उसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है। ऐसा बहुत कुछ छूट गया है, जिसका संकलन में होना जरूरी था, लेकिन पृष्ठ सीमित होने के कारण उन्हें चाह कर भी नहीं लिया जा सका। इसी प्रकार भोजपुरी के श्रेष्ठ और प्रसिद्ध आधुनिक कवियों की कविताएँ भी इसमें नहीं ली गई हैं। वे अभी निरन्तर सृजन कर रहे हैं। उनका मूल्यांकन बाद में ही सम्भव होगा। हमें विश्वास है कि इस संकलन की रचनाएँ पाठकों को पसन्द आएँगी और वे अपनी समृद्ध विरासत से जुड़ कर गर्व का अनुभव करेंगे।
अरुणेश नीरन