अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन, सीवान के अधिवेशन के संयोजक कार्य समिति के सदस्य, प्रतिनिधि अउर इहाँ पधारल सभे जन-गन के हाथ जोरि के परनाम करतानी रउआँ जवन अध्यक्ष के ई भारी पद हमरा के देके हमार जस इज्जत बढ़वली हूँ ओकरा खातिर हम रउरा सब के गुनगाही बुद्धि के त नइखी सराह सकत बाकी आप सबके उदारता के जरूर सराहत बानी साँच पूछी त उदारता से भी बढ़ि के एमें सराहे के बात आपके साहस के वा जे अइसन आदमी के ए पद पर पधरवलों जे एको अच्छरि भोजपुरी में ना लिखलसि, आ बोले के त ओकर ई पहिले मोका है। बाकी मंदिर में जब पत्थल के मूरति पधरावल जाले त ओकर ज्ञान या देवताई ना देखल जाला। अरे ऊ त ओके पधरावे वाला ही ओमें देवता के प्रान प्रतिष्ठा कइ देला अउर पत्थल के ऊ मूरति देवता होके पुजाये लागेले त हम त अपना के ऊहे पत्थल के मूरति समझतानी हैं, ई जरूर देखे के बा कि ए मूरति में कहाँ तक आप सब देवबुद्धि के स्थापना कई सकल बानी देखों, हमार गेयान थोरे बा, बाकी हम जानऽतानी जे आपके धीरता ओ से जबर बा. एह से हम इहे आप सब से अरज करतानी कि किरिया कइ के हमके थोरी देर सहीं-हमके, हमरा गलत सही अटपट भाषा के, हमरा 'अधजल गगरी' गेयान के अउर सबसे ज्यादा हमरा अगराइल अकचकाइल भाग के, दूर हिमालय से बोलवला पर हमके सहहीं के परी ?
हम हिमालय का पच्छिमी छोर से आवडतानीं, रिखोकेस हरिद्वार- कनखल का परे से, देहरा का दून से देश का पहरुआ का द्वार से उमर भी थकि चलल । शेर याद आवडता
मंजिल की सख्तियों ने डराया बहुत मगर आवारागाने शौक न माने किसी तरह !
आ चल पड़लीं। उहाँ देहरादून में हमसे भोजपुरी बोले वाला बस एक ही आदमी बा- पंडित गया प्रसाद शुक्ल उनसे हमार सदा भोजपुरिए में बतकही होले घर का भीतर के बोली अंगरेजी ह, कारण कि केरली पत्नी केवल अंगरेजिये बोले- बुझेली, हिन्दी बोलेली त ओकर छेछालेदर होखे लागेला एसे जब सुकुल जी आ जालन त जइसे बरत टूटि के पारन होखे लागेला जीव छछात रहेला जे केहू भोजपुरी बोलेवाला मिलि जाइत याद आवडता एक बेर दखिनी फ्रांस का जात्रा पर रहली, इटली से पेरिस जात रहलीं। आधी रात के, जब घोर निद्रा में सूतल रहलीं, तबे गाड़ी इटली के सरहद पार कइलसि एगो बर्थ पर हम रहली, एगो पर एगो नौजवान गोरा रहे। पासपोर्ट देखे वाला अफसर आइल अंगरेजी में बोलि के हम ओके आपन पासपोर्ट देखावे लगलीं तबतक दूसरा बर्थवाला नौजवान, जवन पाछे जनलों कि अमेरिकन ह, अकचकाइल उठल आ कूदि के हमरा गरे लागि गइल, कहलसि कि धनि भाग कि अंगरेजी सुने के मिलल तीन महीना से फ्रांसीसियन का बीच में रहली हैं मगर कम्बख्त जवन अंगरेजी जानेले स तवनो ना बोलS स। आपन भाषा सुनि के मन अघा गइल। ईहे हाल भइल इटली का जेनेओ नगर में अस्पताल का सामने वाली सड़क पर जइसहीं अइलीं कि एगो नर्स दउरल आइल, कहलसि- कुछ इतालवी कुछ अंग्रेजी में कि एगो अंग्रेज अपेंडिसाइटिज से मर रहल बा, ओकरा साध वा जे हमसे मरे का वक्त केहू दू शब्द हमरा भाषा के बोलि दे। हम गइलीं। जइसहीं पहुँचली, जइसे ओ नौजवान में नया जान आ गइल। दम ऊ हमरे गोद में तुलसि पर मरत-मरत कहलसि कि धनि भाग जे ए विदेश में इसके हमरा बहिन महतारी के जवान बोलेवाला मिलि गइल, अब हम खुसी से मुअबि, इचिको कलेस ना होई, धन्यवाद। अमेरिका में कई साल आपन भाषा बे बोलले रहि के जब स्विट्जरलैंड पहुँचल त बर्न नगर में भारतीय दूतावास में डाक्टर सत्यनारायण सिंह का साथे भोजपुरी में बतिया बतिया के अघा गइलीं त भाषा के ई शक्ति ह ।
हम आप सबसे साहित्य का विषय पर कुछ कहे के चाहऽतानी भाषा का संबंध में एक-से-एक पंडित अपने का सम्मेलन में बोलि गइल बाड़े, ओकरा संबंध में ओ लोगन से सुनलहीं होखबि, आगे भी और लोगनि से सुनबे करबि । हमके हमार अटपट 'भणिति' कहे के अनुमति दीं, ओके सुने के आदर देई, अनुग्रह करों, हम निहाल हो जाइबि
शब्दन से भाषा बनेले, पर शब्द भाषा ना ह एही तरे भाषा से साहित्य बनेला पर भाषा साहित्य ना ह। अगर भषवे साहित्य होइति त ओह अनेक अफ्रीकी देशन के भाषा भी साहित्य कहइती स जहाँ भाषा बा पर साहित्य नइखे। तब कवन चीजु ह भला, जवना का पइठि गइला से भाषा साहित्य हो जाले ? ऊ मनुष्य ह, इन्सान, लोग सभे भाषा के साहित्य मनुष्ये बनावेला, पर सब साहित्य काहें ना हो जाला, या कवनो घटिया कवनो उत्तम कइसे हो जाला ? काहें कि घोड़ा, बकरी, कुत्ता जाति नियर मनुष्य जाति त ओके बनावेला पर मनुष्य ओमें पठै ना। जब दरद के साथ, वेदना संवेदना के साथ मनुष्य ओमें पइठेला तब भाषा साहित्य बनेले ना त केतना हरियल आ हंस सुरहा ताल में रोज मारल जा रहल बाड़े, कहाँ वाल्मीकि जनम तारे ? अरे जे क्रौंच-बध से द्रवे, अइसन जन जनमे तब 'आदिकवि' के संज्ञा मिली, चरितार्थ होई आदमी त सभ जनम लेला पर सभे आदमी इन्सान ना हो जाला। कइसे गालिब कहले- 1
बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्साँ होना!
आ इन्सानो बनल कवनो आसान बात त ना ह
मत सहल हमें जानो, फिरता है फ़लक बरसों तब खाक के परदे से इन्सान निकलता है !
जे भाव यातना संवेदना अइसन संस्कारन से सजल ना ऊ इन्सान कइसन ? हीरा त करिया कोइला से बनेला, पर संस्कारे से होरा होला। संस्कार से सोना अइसन हो जाला जे कसौटी पर कसल जा सके। इन्सान के सही सरूप के महाभारत लिखे वाला महामना व्यास चिन्हले, जब तैंतीस कोटि छछात देवता का रहत, एलान कइले-
गुह्यं यं तदिदं ब्रह्म ब्रवीमि न मानुषाच्छेष्ठतरं हि किचितम्
गूढ़ बाति कहतानी, भगवान व्यास कहडताड़े, छछात ब्रह्म वेदे कहतानी, गुनि के कहतानी, गाँठे बान्हs - मनुष्य से बढ़ि के ओकरा ले ऊँच, एह धरती पर दूसर केहू नइखे।
एही से न 'हिन्दुस्तान हमारा' वाला इकबाल भगवान से धिक्कारि के कहले- ऐ खुदा, देख तो तू ने हमें क्या दिया और जो तूने हमें दिया उसे हमने क्या बना लिए ! तू ने पहाड़ दिए, हमने उन्हें काट तराश कर रहने के लिए अपने घर बना लिए। तूने हमें जंगल दिये, हमने उन्हें काट-छाँट कर उपवन बना लिये; तूने हमें सूखी पथरीली ऊसर धरती दी, हमने उसमें अन्न की बालें उगाकर लहरा दीं तूने हमें मिट्टी दी हमने उससे रकाबियाँ तश्तरियाँ बना लीं और खुदा तूने जुल्म किया जो हमारे लिये अँधेरी रात बना दी, पर इन्सान की औलाद हम कि हमने उसे भी मंजूर किया पर बदले में हमने चिराग बना कर जला दिया, खलक को रोशन कर दिया।
अइसन इन्सान जब दर्द का साथे अपना भणिति में पड़ठी तब कहीं ऊ भणिति काव्य कहाये जोग होई, साहित्य कहाई साहित्य केवल भाषा के चमत्कार आ शैली के रंगारंग चूनर ना ह 'सुगना बसे पहाड़ पर हम जमुना के तीर!' दूर के वासी 'सुगना' आ जमुना तीर के वासी 'सुगनी' के मन जब मीत बनि के, एक होके रमी, तब जाके साहित्य बनी। फेड़ पर रहेवाला सुआ का हिया में, लोककथा में कहल जाला, जब केहू के हियरा बसेला, अइसन कि एगो के जान छुअला से दूसरको तड़पे लागे तब साहित्य बनी।
आ जियरा के तड़पला के बात आपसे का कहीं गाँव के गँवारनि के बात सुनि के एक दिन हम सन्नाटा में आ गइलीं। सरहजि ननदोई का बीच हँसी के बात सुनल-सरहजि जवाब में कहलसि-बतिया त साँचे कह ताड़s हो, बाकी ई हमके बतावs कि लड़ेले त नजरिया आ बथेला करेजवा काहें ? हमरा त लागल कि हजार हाल अउर अमरु, हजार बिहारी आ मतिराम ए पर वारि जइहें। हिन्दी, अंगरेजी, फ्रेंच, रूसी आदि अनेक भाषा के कवितन के असर हमरा ऊपर परल, पर बचपने में जवन असर हमरा पर भोजपुरी का 'बटोहिया' के परल तवन अपरंपार वा आजो हमरा पर ओकर असर ओतने ताजा, ओतने गहिरा वा जतना बचपन में रहे। हम ओके अपना पढ़ल साहित्य का सबसे प्रभावशाली कवितन में मानों ला। इहाँ तक कि प्रौढ़ वयसि में हम अपना एगो किताब के नामे सन पचास में रखि दिहली 'तीन द्वार सिधु घहराय'।
शक्ति, प्रभाव आ प्रेरणा तीनों के खानि ह ई कविता पर जइसे एकदम निकट हो के भी, मर्म होके भी, आँखि अपना के ना देख पावे ओइसहीं निकट के कविता भइला से सायद रउरा सबका ओ पर ओइसन ध्यान ना जात होई जइसन हिन्दी कवितन पर जाला। हम त कहतानी कि जो हम विदेशी रहितों आ भोजपुरी समुझत रहितों त अकेले 'बटोहिया' पढ़ला सुनला का बाद हम भारत देखे खातिर आपन घर-दुआर बेचि के चलि पड़तीं। पढ़ले त आप सब ओके होखबे करवि एकाध लाइनि फेर सुनीं-
सुन्दर सुभूमि भइया भारत के देशवा, से मोरे प्रान बसे हिम खोह रे बटोहिया एक द्वार घेरे राम हिम कोतवलवा, से तीन द्वार सिंधु घहराय रे बटोहिया
जवना के अंग्रेजी में 'साउंड एकोइंग सेन्स' कहल जाला, ध्वनि मात्र से जेकर अर्थ गूँज उठे, ऊ महाप्राण के जगावे वाली लाइन ई ह तीन द्वार सिंधु घहराय रे बटोहिया !
कुछ भाषनि के एकाध पंक्ति एही विधान के अनुसार हमरा यादि रहि गइल जइसे मैथिलिशरण गुप्त के-
'जाग रहा है कौन धनुर्धर जब कि भुवन भर सोता है ?' जइसे अकेले एक ही लाइन में एगो समूचा 'एपिक' खड़ा हो गइल बा । आन्हर कवि, जे बिना लड़ाई देखले, होमर, केवल ध्वनि मात्र का प्रेरणा से भोजन युद्ध के वर्णन अपना वीर काव्य 'ईलियद में कइलसि- Tumult on top of tumult
And gods chasing the heels of mortals! अर्थ कला के कोनों जरूरत नइखे। हम कहबि, केवल ध्वनिये के बानी सुनाइवि - दुष्यन्त के, शकुन्तला का चलि गइला का बाद, अपना हिया से
प्रथमं सारंगाक्ष्या प्रियया प्रतिबोध्यमानमपि सुखम् । हतहृदयं सम्प्रति विबुद्धम् ॥ अनुशयदुःखायेदं
दुख के वेदना का ध्वनिए से नइखे व्यापि जात? एपिक के सरूप देखावे खातिर ई ध्वनिए काफी बा, जइसे गोसाई जी के भरत का विषय में महाप्राण के उपयोग-
जो न होत जग जनम भरत को सकल धरमधुर धरनि धरत को
'सकल धरमधुर धरनि धरत को!' ओही 'एपिक' रूप के सरूप ह। हम पूछतानी जे हमरा देश में 'एपिक'- वीरकाव्य महाकाव्य एतना तादाद में काहें लिखल गइले ? ग्रीक में दूगो-तोनगो, लातीनी में एगो इतावली में एगो, अंगरेजी में दूगो, फ्रेंच में एगो, जर्मन में एगो पर भारत के महाकाव्यन के जो गिनावे लागों त पार ना लागी से काहे? काहे से कि एकरा तीन ओर गहिर गम्भीर सागर घहराता, दूसरी ओर संसार के सबसे ऊँचा सबसे लमहर पर्वतमाला वा हिम के मुकुट पहिनले, गहरा नीला खुला आकाश- अइसन दूसर कहाँ वा जेवना के रूप के अनंत विस्तार से हमनी के.... विष्णु के संवरिया रूप सजले ? एक के बाद एक ऋतु अवरू कहाँ एतना नियम से आवेली स? भला 'सुबहे बनारस', 'शामे- अवध', 'शबे-मालवा' अउर कहाँ बा? एह सब का पृष्ठभूमि में फेर एक बेर पढ़ों, 'बटोहिया' के हम त संजम का साथे, अत्यंत मीठ से बचाव करत, केवल कुछ ही पंक्तियन के बोल - तानी-
जाहु जाहु भैया रे बटोही हिन्द देखि आउ जहवा कुहुकि कोइलि बोले रे बटोहिया पवन सुगन्ध मन्द चननवाँ से कामिनी बिरह राग गावे रे बटोहिया तोता तूती बोले रामा बोले भेंगरजवा, से पपिहा के 'पी-पी जिया साले रे बटोहिया अगर
ए कविता में से पंक्ति चुनल कठिन समस्या बनि जाता, कारन कि हर लाइन जानदार बा पूरा कविते उल्लेख जोग बा काहे ? काहे कि कवि के जियरा अपना प्रतिपाद्य में एकाकार हो गइल बा, ओमें बसि गइल बा - -हिमालय में, हिन्द सागर में, गंगा जमुना में देश का पंछिन में बिरहिन में एही स्थिति से प्रभावित गुप्तकाल के कवि वत्स भट्टी अपना मन्द सौर का कविता में भारत माता के वर्णन करऽ तारे-
चतुस्स्मुद्रान्त विलोल मेखलां सुमेरु कैलास बृहत्यपयोधराम् । वनान्त वान्थ स्फुट पुष्प हासिनीं कुमार गुप्ते पृथिवीं प्रशासति ॥
माता के पयोधर दुनो सुमेरु आ कैलास, चारों समुन्दर घहरात करधनी आ समूचा तन बन परम्परा से बनल, जवना में भाँति-भाँति के फूल निरंतर खिल रहल बाड़े से, जवना का व्याज से भारत माता मुस्का रहल बाड़ी। त याद रखीं कि जब तक कवि अपना भाषा आ भाव में अपना प्रतिपाद्य में जीही ना तब तक ओकर कविता जनगर ना हो सकी।
संसार के प्रसिद्ध दार्शनिक बटैन्ड रसेल से एक बार हमार बतकही भइल। ऊ संस्कृति आ साहित्य का विषय में अपने लिखल बाति दोहरवले कि ए सबके निर्माण तीन चीज का सम्मिलन से होला- प्यार का पुकार से, ज्ञान का खोज से आ सकल जीवधारिन के प्रति संवेदना से मतलब कि 'प्यार का पुकार से' साहित्य बनेला, 'ज्ञान का खोज से' दर्शन आ विज्ञान, आ संवेदना से दूनो का संगम से संस्कृति । तब हमरा पूछे के परल कि पच्छिमी साहित्य में 'प्यार के पुकार' त बा 'ज्ञान के खोज' त खूबे बा, पर भला साहित्य में सब प्राणियन के प्रति संवेदना कहीं बा ?
हमरा इहाँ त साहित्य के पिता वाल्मीकि के आदिकाव्य के जनमे संवेदना से भइल। सौ-सौ उदाहरन हमरा इतिहास में वा जेमें समरथ लोग कहले बा जे हमरा के राजपाट ना चाहीं, इहलोक-परलोक के सुख स्वर्गे ना चाहीं, मुक्तिओ ना चाहीं चाहीं हमके बस एके चीज कि संसार के जीव मात्र दुख-दर्द से छूटि जाय, सुखी हो जाय। हम बतवलीं कि का वाल्मीकि का कालिदास, सब कवियन का नायक-नायिकन का दुख में जीव-जन्तु, तरु पल्लो तक दुखी होखेला जवन सुख कवि अपना खातिर चाहऽता ऊहे दुसरो खातिर चाहऽता- ओकर भौंरा फूल तोड़ता, ओके प्याला नियर बना के ओसे मधु यानी शराब भरडता, फिर अपना भौरी के पहिले पिया के आधा बाँचल जूठ अपने पियता। हथिनी पराग से सुगंधित जल पहिले अपना मुँह में ले तिया फेरु ऊ अपना हाथी का मुँह में उँडेल देत विया, हाथी आपन प्यार परगट करे खातिर आपन सूँड़ हथिनी का पीठ पर रखि देता । चकवा कँवल के डंडी तूरि के पहिले अपने चाखि के, कि कहीं कडुआ ना होखे, चकवी के खाये के देता। कामदेव बसन्त के लेके दुष्यंत का वाटिका में जाता पर शकुन्तला के निकाल देला से दुखी राजा के देखि के बसन्त के सिपाही कौनो वार के तैयार नइखे होत- आम बौरा गइल बाड़े स, भौंरन के ओठ पराग से भरि गइल बा, इचको ओठ खोल दे त चराचर गमकि जाई, पर ना, ऊ ओठ नइखे मिलत एह से कि मानव दुष्यन्त दुखी सामने वा कुरबक जरि से पुलुई तक कलिया गइल बा, पर एक्को कली खिल के फूल होखे के तैयार चइखे, काहे कि दुखी मानव सामने वा शरद ऋतु के बितते अनायासे कोइलरि के कंठ फुटि जाला आ इहाँ शरद कबके बीति गइल, बाकी कोइलरि कंठ में आइल बानी कंठे में जाँति देति बा, फूटे नइखे देति, काहे कि दुखी दुष्यन्त सामने वा अब कामदेव के हिसाब का परो, से ऊ घबड़ा के अपना तरकस से आधा खींचल वान तरकसे में उलटा लौटा देता! त भाई सभे, इहाँ के साहित्य के परमान त ईहे ह, कि आदमी त दूसरा के हित चहवे करी, पशुपंछी, पौधा-पल्लो भी आदमी का दुख दर्द से दुखी होखे लागी। अगर मनुष्य प्रकृति से सहचार ना करी त भला ऊ 'अशरफुलमखलूकात सृष्टि के सबसे महान जीव कैसे कहाई ।
अब ए दृष्टि के ए परमान के, भोजपुरी साहित्य पर घटा के देखल जाय, तनी गंगाजी के गीति लेली, बिआह जनेव के, विरह के लेलीं सोहर - बरहमासा लेली, सब भाव परधान मिली जेके सुनि के आँखि छलछला आई। पच्छिम खड़ी बोली का इलाकन के गीति सुनले बानी - अरे अँगरेज ने इंजन चलाया रे, गाड़ी चलायी रे, पानी का बंबा चलाया रे-अरे राम, गीतो के दुर्गति। इहाँ भोजपुरी के गीति सुनि के सोफियाना से सोफियाना आदमी डहरि में रुकि के सुनि के निहाल हो जाय। पर एगो बात बा तनी कान देके सुनीं।
कालिदास कहले जे पुरान सभे ठीक नाहीं है, न कुल्हि नया खराबे ह। पर हम जो भोजपुरी के नई कविता पढ़तानी त लागता कि पुरनके सुघर वा नवका लागता कि खड़ी बोली के कवितन के निचोड़ है, छाड़न नियर कवि लोग समझता कि भाषा बदलि गइला से सब बदल गइल आ हाल बा ऊहे खड़ी बोली के निर्दिशा दिग्भ्रान्त स्थिति कहीं कहीं पुरान बहरमासा के चासनी हम कहतानी कि जेकरा पास कबीर आ घाघ के धन वा उहाँ ओ लोगन के सुर काहे नइखे आवत ? 'जो घर जारै आपना, चले कबीरा साथ' के ललकार या पंडित चुप-चुप बेसवा मइल' के बोध कहाँ बिला गइल ? विश्वविद्यालय वाला कवियन से अच्छा त हमरा लागऽता जे प्रकृत देहाती कवि बाड़न। सुनीं ले कि बनारस के एगो कजरीकार कवनो बड़कवा से एक बेर नाराज हो गइल आ अइसन कजरी लिखलसि कि उनकर बाहर निकलल कठिन हो गइल। हमरा बस एके-दू डाँड़ी याद बा पर ओतने असाधारन चुटीला व्यंग्य वा-
खाये के चाहीं सकल पदारथ बतियावे के गबर - गबर ।
देखों कि भोजपुरी में केतना शक्ति बा। बड़कवा के उघारि के धड़ दिहलसि काशी के 'बदमाश दर्पण' त लामिसाल बा जवन कविता के गहराई में त पइठिये गइल बा, भोजपुरी द्वारा ओह घरी के समाज के उधारी के राख देता ।
भाषा, साहित्य का भाषा पर कुछ कहे के चाहऽतानी। काहे कि साहित्य सिरजल भाषा में जाला, भाषा में सोचल भी जाला रउरा परतिया के देखि लीं, बिना भाषा के सोचि ना सकीं। पहिले जब तक भाषा न रहे तब तक विचारो न रहे। जब भाषा भइल त विचार गुनाये लागल। विचार भाषा का पंख पर चढ़ि के हो मानस में परगट होला । जवना भाषा में भोजपुरी कविता आ कहानी लिखल जा रहल वा ऊ बनावटी लागडता बनावल, प्रकृत ना भोजपुरी में पइठि के ओकरे हो के नइखे लिखल जात साहित्य बनावटी बोली ना ह, ऊ पूरा संस्कृति, पूरा तहजीब है, लोक दसा के सबका ओमें समाये के चाहीं कई बार त अइसन बुझाला कि खड़ी बोली का शब्दन के भोजपुरी अवतार सामने बा, आ जइसे कृत्रिम हिन्दी सरकारी शब्दावली समझे खातिर मूल अंग्रेजी के याद करे के परेला, जइसे ' अधिशासी अभियन्ता' के माने समझे कातिर कौनो संस्कृत के कोश ना देखें के परी, अंग्रेजी मूल 'एग्जिक्यूटिव इंजिनियर' याद करे परी, आ जइसे रेल में पाखाना या शौचालय का जगह प्रसाधन' लिखल देखि के संस्कृत वाला अकचका जाई, ओकरा पर बिजुली गिरी परी, काहे से कि संस्कृत साहित्य में एकर खूब खूब इस्तमाल 'सिंगार' का अर्थ में भइल बा, बाकी ओके बनावे वाला त संस्कृत के भी परम्परा छोड़ि के अंग्रेजी का 'ट्वायलेट' के अनुवाद कई दिहले! भोजपुरी में अइसन परम्परा ना डाले के चाहीं नया बाहर से आओ, जरूर आओ, आई ना त भाषा समृद्ध कइसे होई, पर 'छाड़न छोड़न' का रूप में भाषा आ भाव मति आओ। स्वयं भोजपुरी शब्दन के भी उपयोग से शब्द शक्ति बढ़वला के काम वा जवन नइखे होत !
भाषा में हमरा कवनो खोट नइखे। एह से केवल तत्सम शब्दन के लेके पूरी इबारत बनाके केवल क्रियापद भोजपुरी जोड़ दिहला से भाषा भोजपुरी ना हो जाई बात सही बा, भाषा क्रियापद से ही बनेले, शेष शब्द कवनो होखे पर भाषा भाषा होखे के चाहीं, शब्दन के जोड़ ना। जब इटली के महाकवि दाँते आपन महाकाव्य 'दिवीनो को में दिया' लातीनी छोड़ि के इतालवी में रचलसि त उहाँ कहे तत्समवाला झगड़ा खड़ा हो गइल जवन आज हिन्दी में बा आ ओकरे देखादेखी भोजपुरियो में घर करि रहल बा । इटली में चार सौ साल तक ईहे समस्या 'केस्तोना दे ला लिगुआ' नाम से चलल । आखिर शुद्धतावादी लोगनि के आपन जिद छोड़ि के जन बोली 'लोम्बार्द' स्वीकारे के परल। मगर एकर मतलब ईही ना ह कि विशेष मतलब के तत्सम शब्द ना लिहल जाय पर ऊ तत्समे रूप में लिहल जाय तं भला एह से मूल के अर्थ से सिलसिला कायम रही। जइसे 'समस्या' के 'समसेया' कइ के बिगाड़ के इस्तेमाल कइला के जरूरत नइखे आ न भोजपुरी शब्दन के शुद्ध करे के ना त उहे बनारस 'वाराणसी' वाली बात हो जाई, गोया 'बनारस' भारत के जनता ना अंग्रेज बनवले ह स अरे 'रे' आ 'ण' के एक साथ उपयोग के इहे हाल होला । वाराणसी स्वभाव से हो 'बनारस' हो गइल। आउर कहानी-संग्रह आ रहल बाड़े से उन्हनी के पढ़ि के एगो अवरू धारणा हमरा मन में पइठल अनेक बार स्थानीय शब्दावली के प्रयोग अधिक कइल जा रहल बा। एगो बगसर से कहानी संग्रह आइल निकहा-निमन संग्रह। कहानियन के वस्तु विषय सब मजगर, बाकी ओमें शब्दन के चुनाव उपयोग अइसन बगसरिया दखिनहा रहे कि समनहीं गंगा पार उजियार के रहे वाला हम आ जहाँ- तहाँ मतलब ना समुझ पाई, हुमचि के जब सोचीं तब समुझि आवे हमरा डर बा जे स्थानीयता - आंचलिकता से भाषा का अबूझ हो गइला से शायद ओकरा परचार के आघात पहुँची, शायद ओकर विस्तार संकीर्ण हो जाई।
ना त भोजपुरी के सीमा रउरा चाहे जेतना खींचीं ओकर विस्तार साधारन नइखे। अउर ओहू से अधिक विस्तार ओकरा परभाव के बा रउरा हमार मैथिली कहीं मगर हमरो कहे में कवनो परहेज नइखे जे विद्यापति हमरो हउअनि, हमरा बोली भोजपुरी से प्रभावित सोचों तनी, जनम अवधि हम रूप नेहारल नयन न तिरपित भेला, एमें 'भेला' 'भइले के न फरक बा? भला-
नव वृन्दावन नव नव तरुगन नव नव विकसित फूल
नवल वसंत नवल मलयानिल मातल नव अलि कूल
अउर 'झड़प' जी का तत्सम प्रवण ' नटराज' का रूप में का फरक बा ? या
प्राचीन साधक, भुसुकिपाद के ही लेलीं-
आज भुसुकि बंगाली भेली
चंडाली निज घरनी केली
भला भोजपुरी आ एमें का अन्तर बा ? खैर, ई बात हम प्रभाव के संबंध में कहतानी आ प्रभाव छोड़ भोजपुरी के उपयोग त हो मारिशस, फीजी से पूरबी अमेरिका- सूरिनाम तक फइलल बा। नागपुर का विश्व हिन्दी सम्मेलन में जहाँ देश-देश के लोग आइल रहे आ ओ लोग के हिन्दी का दायरा में लौहल गइल ऊ दायरा वास्तव में भोजपुरी के ह, जदपि हिन्दी में भोजपुरी का कवनो विरोध नइखे, जवन भोजपुरी के क्षेत्र ह तवन त हिन्दी के क्षेत्र हइए ह। उहाँ विदेशी भोजपुरियन से विचित्र संगम भइल। एगो गोरा अमेरिकन, खाँटी अमेरिकन, कविता भोजपुरी में पढ़लसि कि 'हम त भोजपुरी में कविता करोंले, करबे करबि, करते रहनि ।'
जहाँ तक प्रभाव के बाति बा त ऊ अइसन बा कि जवन पाली, अर्ध मागधी भोजपुरी के पुरखिन कहल जाले, हालाँकि हमार बिचार ओह संबंध में दूसर बा, कि ऊ पुरखिन तब के जनबोली ह-अ जवना में बुद्ध महावीर उपदेश कइलनि ओही के बिरवा आज श्रीलंका में लागि के सिंहली के अश्त्थ बनि गइल बा, आ अगर पटनहिया-भोजपुरिया सिंहली शब्दन पर तनिक विचार करे त ओके समझे लागी। अरे हम रउरा से का कहीं रूस का दखिन में जिप्सी बन्जारन का एगो वृद्ध से पुछली - भोजपुरिए में- कि 'रोम ?' यानि कि तू 'रोम' हउअ ? पाणिनी के सूत्र 'रलयोभेदाः' के सोचि के ऊ बूढ़ जिप्सी झट से कहलसि कि 'नेई, रोम दराज'। आ रोमनिया की ओर हाथ उठा दिहलसि । फिर हम पुछली-तब का 'लोम ?' जवाब दिहलसि कि 'नेइ, लोम फिलीस्तीन, हम त 'डोम', 'कुरइया वाला डोम' हम दंग कि 'डोम' त ठीक, बाकी 'कुरइया वाला' का? तबे अपन आजी के एगो पुरान व्यंग्य याद परल जेही के बबुआ, तेही के दाना, तेही के कुरुई ! बस सब उजियार हो गइल । पुछलीं, दउरी सूप कुरुई वाला डोम- बँसफोर ? जवाब मिलल जे 'हैं, हैं, नाट-डाम' सोचला पर याद परल कि जेके ई 'नाट' कहता ऊ रसरी पर चढ़ि के नाचे वाला 'नट' ह अकारन नइखे जे मनु अपना स्मृति में नट नाटक में भूमिका खेले वालन आदि के भी डोम का साथे अछूत मनले बाड़न मतलब कि हमार भाषा बड़ा जनगर बा, ओके आंचलिक मति बनावल जाउ ।
आ जहाँ तक तत्सम शब्दन के अनुवाद के सवाल बा ओहू में सावधान रहला के जरूरत था शब्दे के ना, हम त चाहब जे विश्व के आ सबसे पहिले संस्कृत के साहित्य अनूदित होके भोजपुरी में आ जाय, पर सावधानी से, अर्थ के अनर्थ कइके ना। एगो घटना लखनऊ के याद आवत बा-एगो पछिमहा कवि निराला जी से बार बार कहि के अति कइ दिहले कि हम रामचरितमानस के खड़ी बोली में अनुवाद कइ रहल बानो, आदेश पाईं त सुनाईं। निराला जो कहले कि सुनावऽ। कवि जी सुनवले-
मूल- रघुपति कीरति विमल पताका
दण्ड समान भयउ जस जाका अनुवाद- राम सूर्य कुल की हैं झंडी
लक्ष्मण उस झंडी की डंडी
अभी उनका पढ़ला के आवाज गूंजते रहे कि केहू देखल केहू देखबो ना कइल बाकिर सुनल सभे, निराला जी का थप्पड़ के आवाज, तड़ाक से कवि जी का गाल पर
हमरा जब जब समय मिलेला तब-तब हम लिखला के थकान मेटावे खातिर, फिल्म देखें जाईले संसार के करीब-करीब सब भाषा के फिल्म देखे के हमरा मौका मिलल बा बाकी हिन्दी के सगरे फिल्मन में हमार मन जवन हरले वा तवन ह भोजपुरी के 'विदेसिया' हम एतना लिखल पर फिल्मन पर कबो न लिखलीं। बाकी विदेसिया देखला पर मन के ना रोकि सकलों आ ओपर लेख लिखलीं । अवरुओ भोजपुरी फिल्म अपना सम्प्रेषण शक्ति में अनमोल बाड़ी स एक बात आउर कहवि कान मन लगा के सुनि लीं- दार्शनिक से सन्त कहीं महान होला, काहें से कि दर्शन जहाँ ऊपर के और तर्क का जोर से बढ़ला उहाँ सन्त- बानी चारू ओर फइलि के ढाई अक्षर वाला प्रेम से छू लेले । कुल्हि दार्शनिक शहराती रहले कुल्हि सन्त जनपदी देहाती दार्शनिक देवभाषा में बोललनि, सन्त मानुस बोली में एही से जहाँ शंकर ना समझल गइलनि उहाँ बुद्ध महावीर समझल गइलनि आ अब ओही लोगन के आचार्य दार्शनिक भाषा में लिखे लगलनि, जनपदी भाषा छोड़ि दिहलन त दूनों धरम जइसे देहात से बिला गइल। गोसाई जी, कबीर, रैदास बनल रहिहें।
हमरा देश में कथनी अलग करनी अलग बा लोगवा कहता कि हम पाँच बरिस में देश से छुआछूत, बाम्हन डोम के भेद हटा देवि आ ऊ कइसे कि नाम का आगा से उपधिया, पाँडे, राय, सिंह, सहाय हटा के भला हम पूछतानी कि बाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भवभूति, तुलसी का नाम का आगे पाँड़े लागल बा कि शर्मा वर्मा ? तब का जाति पाँति ना रहे? सवाल ई बा कि आपन या अपना बेटा नाती के बिआह रउरा दुसरा, खास कर नीच कहाये वाली जाति में करे के हिम्मत बा ? कइले बानी ? ना त जाये दीं, झूठ के पेरीं मति ।
अब अन्त में, हमार मान्य श्रोता लोग, हम बहुत बोललीं, आप बहुत सुनलीं। सुनेवाला बोले वाला से सदा महान होला, काहें कि ऊ बोलेवाला के बरदास्त कइ लेला, सहि लेला से रउरा हमरा के बहुत सहलीं। हम अपने सब के धीरज कभी भुलाइबि ना हम बोललीं, आप सुनलीं, हम निहाल भइलीं, सरग के तरई छुवलीं। धन्यवाद।