हमरे गाँव के पच्छिम ओर एक ठो पकड़ी के पेड़ बा। अब ऊ बुढ़ा गइल
बा। ओकर कुछ डारि ठूंठ हो गइल बा, कुछ कटि गइल बा आ ओकर ऊपर के
छाल सुखि के दरकि गइल बा। लेकिन आजु से चालीस बरिस पहिले ऊहो जवान
रहल। बड़ा भारी पेड़ नरम-नरम छाल वाला पतवन गहबह ओकरे नीचे खड़ा
होके ऊपर देखले पर आसमान नाहीं देखाई पड़े। मोट मोट बाँहि वाला चिरइन
आ वटोहिन के छाँह देवे वाला। गर्मिन में गाँव के लोग ओकरे छाँह बइठि के
सुरती मलें, बोलें- बतियावें अपने घर-गिरहस्ती के काम करें। पेड़ नाही हऊ,
हमरे गाँव के पहिचान है। दूरे से लोग बतावेलें, ऊ जवन पकड़ी के पेड़ लउकत
वा, ऊहे गाँव ह भेड़िहारी। हमनी के आँखि एतना आदी हो गइल बा कि लमही
से ओह पेड़ के देखि के मन निश्चिन्त हो जाला कि अपने गाँवे पहुँचि गइलीं ।
बचपन में जब हम बाहर से आई आ अगली बगली ऊँखी के खेतन के बीच संझा
के समय मन डर से धुकपुकाये लगे त दूर से ए पाकड़ के देखि के वइसहीं बल
मालूम होखे जइसे तकलीफ में कुछ लोगन के हनुमान चालिसा पढ़ले पर मालूम
होला। एह पाकड़ के डारिन पर चिरई चीं-चीं, काँव-काँव करें, लड़े-झगड़ें,
बानर उछलें कूदें। ई सगरो गाँव के एयरकंडीशन बइठका रहे लोग गरमी के
दुपहरिया एही तरे काटें। एही के सोरी पर हमार बाबा बइठत रहें आ बाबूजी
एहिजा वइटि के मजूरन के मजूरी के हिसाब-किताब करें। एहिजा हमार खरिहान
रहल आ एहिजा आधा गाँव के देवरी होखे। राति राति भर विदेसिया नाच होखे
एही के तरे। लरिकाई में कई बेर चमारन आ कहारन के नाच हम एहिजा देखलों ।
बिरहा - फरउदी सुनलीं। बटोहिया आ विदापति, राजा भरथरी आ रानी पिंगला के
गीत एहिजा सुनलीं एकरे नीचे एगो अखाड़ा रहल जवना में गाँवे के रेखियाउठान
लोग कुस्ती लड़े। हमहूँ लड़ले बानी एह अखाड़ा में नागपंचमी के दिने लड़के
चिक्का कबड्डी एहिजा खेलत रहें। राति में जब डाकुन के हल्ला होखे त गाँव के
लोग एहिजा जुटत रहें। गाँव भर के बराति एहिजा टिके। हमके लगता कि ऊ
गाँव अभागा होले जहवाँ अइसन पेड़ नाहीं होले बिना बारे के कपार जइसन आ
बिना समधी के बराति जइसन ।
एही पेड़े के छोह हम देखले बाड़ी गरीबी, अंधविश्वास, सड़ल-गलल, धूरि गर्दा में सनल गाँव के मन अपने में लड़त-गड़त, सिर फुटडवल करत, मेहरारुन के झोटा-झोंटडवल करत, हाथ चमका चमका के एक-दूसरे के गरियावत जादू टोना, भूत उतारत आ पंचाइत में फरिओता करत पुलिस वाले एही पेड़ के नीचे गाँव के अदिमिन के बइटा के पिटाई करें, रुपया वसूलें। पटवारिन के बस्ता एही के नीचे खुले आ बन्द होखे लगान वसूली में गाँव के लोग एहिजा बइठावल जा ई पाकड़ के पेड़ हमरे गाँव के लमहर सुख-दुख के इतिहास के गवाह है इ अपने आँखो से देखले बा हमरे गाँव के बिदाई आ बिछोह गवना में लड़किनि के डोली एही के नीचे रुकति रहे- 'तनि एख डोलिया बिलमाउ रे कहरवा' हमरे माई के आखिरी जात्रा के डोली एही के नीचे रुकलि रहल -" अंगना हो परवत भयो, देहरी भयो विदेश ले बाबुल घर आपनो, मैं तो चली पिया के देश बाबुल मोरा नैहर छुटो जाय...
पकड़ी के पेड़
एह गाँव में हमरे बाबा के बाबा आइल रहलन अपने एकलौते बेटा आ मेहरारू के साथे । ई कोई सवा सौ बरिस पहिले के बात होई। ओकरे पहिले हमार पूर्वज कहाँ-कहाँ, केतना केतना दिन रहलें, एकर हिसाब हमरे लगे ना बा हम त एहिजा जनमलों आ एही के जानत बानी एही गाँव के माटी, पानी, धूप, हवा में बनल बानी हम |
गोरखपुर शहर के उत्तर पूरब कोन पर पैसठ किलोमीटर के दूरी पर बसल ई गाँव ह 'भेड़िहारी' जवने के कागज में नाम ह 'रायपुर भैंसही' एकरे उत्तर में नेपाल के सीमा ह, पूरब में बिहार के आ पच्छिम में गोरखपुर जिला (अब महाराजगंज जिला) के अपने एही भूगोल के चलते ई गाँव के कई बेर जिला बदल होत रहल बा। आजादी के पहिले ई गाँव गोरखपुर जिला में रहल, उन्नीस सौ अड़तालीस में देवरिया जिले में चलि गइल और उन्नीस सौ चौरानबे में कुशीनगर जिला में।
जइसे जोगी लोग 'पिण्ड में ब्रह्माण्ड के दरसन के लेलें ओइसहीं एह गाँव में पूरा देश के दरसन कइल जा सकेला जवन सच्चाई हम इहाँ देखलों ऊहे पूरे देश के सच्चाई है। ओसे खराबो कुछु नाहीं आ ओसे अच्छो कुछु नाहीं । घर- परिवार के झगड़ा, खेत मेंड़ के रगड़ा, मार-पीट, भूख-बेमारी, शोषण अत्याचार, प्रेम-लगाव, परब-तिउहार, जादू-टोना, ढोंग-पाखण्ड, सुन्दर कुरूप — सब कुछ।
हमरे गाँव के एक किलोमीटर पच्छिम एक नदी बहेले जेके गाँव वाले 'नही' कहेलें। बड़हन भइले पर हमके मालूम भइल कि ई छोटी गंडक नदी ह एमें बारहों महीना पानी रहेला हमरे बचपन में ई नदी बरसात में बिकराल रूप ले ले आ आस-पास के गाँवन में तबाही मचा दे ई नदी हमरे गाँव के महतारियो रहे आ डाइनियो। बिना एह नदी के पार कइले हमार गाँव बाकी दुनिया से जुड़ि ना सकेला। हम रोज एह नदी के नाव से पार करके पढ़े जात रहलीं कई बेर हमार नाव धार में बहलि रहे। भँवर में फँसलि रहे। भगवाने बचवलें आज सोचला पर अचरज होता कि कइसे तब डेंगी नाव पर खड़ा होके एह नदी के पार करों जबकि पारे के वित्तासी भरि आजु तक नाहीं जनलीं। नदी के किनारे बसले के कारन हमरे गाँव में एक चउथाई मलाह बाड़ें रोज सबेरे कान्हें पर जालि आ हाथ में झोरो लेहले नदी के ओर जात आ साँझ के जालि में मछरी फँसवले लवटल मलाहन के चित्र हमरे मन में आजुओं ओइसहीं ताजा बा। शति भर नदी किनारे निचाट में रहे वाले मलाहने से हम बचपन में भूत-प्रेत आ बहुअन के कहानी सुनले रहली।
हमरे गाँव में एक चउधाई मुसलमान बाड़ें। जब तक हम शहर नाहीं आइल रहल आ अखवारन से भेंट मुलाकात नाहीं भइल रहे तब तक हम हिन्दू-मुसलमान में कौनो फरक नाहीं समुझत रहलीं। एक्के बोली एक्के पहिरावा, एक्के खान-पान आ दूनो के जिनगी के समस्या एक्के छोट मोट फरक जरूर रहे। पर तब हमके ऊ देखाई ना दे। हमरे इहाँ मुसलमानन के सबसे बड़का तिउहार रहे मुहर्रम, जौना में हिन्दुओं ओतने जोश से भाग लें। हिन्दुओ अपने घरन में तजिया रखें आ ओकर मनौती मानें हिन्दू-मुसलमान दूनो लड़के 'थकरी' खेलें आ ई नाच-गान आधी-आधी राति ले चले। हमहूँ एमें शामिल रहीं। जहिया तजिया निकले ओह दिन नदी किनारे मेला लागे। एह दिन के हमन के साल भरि अगोरत रहीं केतना खुशी के दिन रहे ऊ! अब त एतना खुशी कौनो दिने ना होला । न एतना बेचैन होके कौनो एक दिन के अगोराई होला। जौने दिने भोर में तजिया निकले ओकरे पहिले वाली राति हम दियासलाई, मोमबत्ती, फुलझड़ी आ पटाखा अपने खटिया पर सिरान्हे रखि के सूर्ती, कि मोर में एके खोजे के न पड़े। गाँव के सब तजिया हमरे दुआरे पर रखल जा जइसही तजिया दुआरे पर आवे हमार बाबा आ बाबूजी अपने-अपने खटिया से नीचे उतरी के जमीनी पर वइठि जाँ चाहे खड़ा हो जाँ हमरे घर के मेहरारुओ घर के दुआरे के केवाड़ी से झाँकि झाँकि के तजिया के हाथ जोरें। हम भाई- बहिन फुलझड़ी छोड़े, पटाखा फोड़े आ तजिया के घउमरी लगावें। हम त लामे- लामे दुसरे गाँवन ले पायकन (तजिया के चारों ओर घूमे वाले रखवार) के साथ तजिया देखे जाई अब ई सब एक सपना बुझाता। समय बदल गइल। आजादी के बाद के राजनीति हिन्दू-मुसलमान के बीच खाई खोदि देहलसि शहर गाँव में पहुँचि गइल। दु सम्प्रदाय बनि गइलें अरब के पइसा से गाँव-गाँव सहजिदि बनि गइल मुसलमान लड़कन खातिर अलगे मदरसा खुली गइल। गाँव-गाँव मुल्ला मौलवी पहुँच गइलें एह बदलाव के जिम्मेदार हमरे देश के नेता लोग हवन जेके एही में फायदा था। उनके कुरसी एही बँटवारा से बचल रही एह घिनौना काम में सब दल के नेता लोग लागल बा हमरे गाँव में ई आजादी के बादि के सबसे बड़हन आ सबसे खराब बदलाव भइल बा।
गरीबी, निरक्षरता आ उपेक्षा के अन्हरिया में डूबल बा हमार गाँव । इहाँ जाड़ा में अब्बो कुछ लोग नंगे रहेलें। कपड़ा नाहीं, विस्तरा नाहीं, ओढ़ना नाहीं । दवाई के पइसा नाहीं खाये के भरिपेट खाना नाहीं । केहू के पुलिस फँसले बा. केहू कर्जा से दबाइल बा, केहू के लेखपाल चक्कर में डरले बाने। केहू के भाई से झगड़ा बा, केहू के बापे से केहू के अपने मेहरारू से इहाँ के समस्या गनले मान के नाहीं बा। थाना पन्द्रह किलोमीटर पर वा तहसील २५ किलोमीटर पर बाजार ८ किलोमीटर पर टेलीफून, पोस्ट आफिस कौनो सुविधा नाहीं । सड़कियो कच्चा । लड़िका-लड़की के स्कूल भेजे त का पहिनाके ? घरे त नंगहूँ रहि लोहें। आ स्कूल जाये लगिहें त पेट पर्दा कइसे चलो ? ई एक दूसरे दुनिया बा परती जमीन जरूर टूटल पर मन में परती ओइसहीं वा । ऊहे रूढि अंधविश्वास आ सड़ल-गलल दिमाग । समय बदलला के साथ कुछ बदलाव जरूर भइल बा। कुछु नहर, पुल, पुलिया आ सड़कियो बनि गइल बा, कुछ घरन में खाये पिये के भी हो गइल बा । कुछ लड़िका-लड़की स्कूलो जाए लागल बाड़े, लेकिन एह बदलाव के रफ्तार बहुत मद्धिम बा। एह गति से त अबहिन सैकड़न बरिस लगि जाई तब ले दुनिया न जाने कहाँ पहुँचि जाई। हमरे देश के नेता गाँधी महतमा गाँवन के उद्धार के सपना देखत रहलन। ऊ गाँव के स्वतंत्र आ आत्मनिर्भर बनावेके चाहत रहलन। ऊ चाहत रहलन कि गाँव में राजकाज पहुँचि जाय। गाँव सब तरह से अपने गोड़े पर खड़ा हो जाय। लेकिन गांधी महात्मा के सपना पूरा न भइल। गांधीजी के अंतिम आदमी आजुओ गाँव के आजादी के बाट जोहड़ता।
जब हम पढ़त रहलीं त ईहे सोचीं कि पढ़ि-लिख के गँडवे में बसब आ गाँव के आदर्श गाँव बनाइब विद्यार्थी जीवन में कुछ दिन हम राजनीतिक नेता लोगन के साथ रहल आ अपने गाँव खातिर कई योजना बनवलीं, एक-दू ठो कइलीं भी। लेकिन अंत में हमहूँ अपने गाँवे के साथ धोखा कइलीं जइसे सब लोग करेला नोकरी खातिर जब शहर अइलीं त शहर हमहूँ के घोंट लेहलसि । लिखला पढ़ला में लगि गइली आ गाँव छूटि गइल। छूटि त गइल लेकिन भुलाइल नाहीं । अजुओ जब हम सपना देखीला त ओमे खेत खलिहान, बगीचा, पेड़- पालो, जानवर, चिरई -चुरुंग रहेला जाने के बचपन में देखले रहलो दुपहरिया में तपत सिवान, जाड़ा में कउड़ा के घेरि के बइठल लोग, सावन-भादो के टिप टिप, लइकन के बहत नाक, बूढ़न के झुकल करिआँव, लड़किन के डेराइल - डेराइल आँखि, सुनगत चूल्हा, ऊपर धुंआ....। केतना केतना गिनाई। हमरे जिनगी में जवन कुछु बाटे ऊ सब हमरे गाँवे से मिलल बा। अगर हमार गाँव निकालि दोहल जा त हमरे भीतर कुछ ना रहि जाई ।
हम जवन कुछ अच्छा खराब लिखले बानी ओहू में से गाँव के निकालि दोहल जा त ओहू में कुछु नाहीं रहि जाई। हमार माई जवन किस्सा-कहानी सुनावे आ हमके खेलावे वाले गाँव के लोगो जवन कुछ सुनावें ओमे करुणा बहुत रहल। सुनिसुनि के हमन के रोवे लागों ऊ लगाव अब बहुत कम हो गइल बा । लेकिन जबले तनिको रही तवले हमरे भीतर गाँवो रही। अब त गँउओ के मन बदलत जाता, तब्बो शहर से त ठीके वा मुनाफा कमइले के एतना हबिस अबहिन गाँव के मन में नाहीं घुसल बा गाँव में अबहिन आदमिन से, पशु-पच्छी से, पेड़- पालो से लगावो बचल बा ई बचल रही त हमरे गाँवे के साथ हमरे देश के संस्कृतियो बचल रहि जाई। गांधीजी पच्छिम के मशीन के सभ्यता के शैतानी सभ्यता कहत रहलन ऊ शैतान हमरे देश के शहरन के घोटि गइल बा अब गाँवनो के लीले के तइयार बा भगवान हमरे गाँव के रच्छा करें।
जब हम बहुत छोट रहल आ उत्तर के आसमान में जब बिजुरी चमके त हमार माई कहे कि ई पहाड़ पर मिरगा लोग चरत बा आ ओही लोगन के आँखि चमकत बा। अजुओ जब उत्तर के असमान में बिजुरी चमकेले त हमरे भीतर पाँखि जागि जाला आ हम उड़िके घुसि जन्तीं वो क्षितिज के भीतर जहाँ एक नही बा, कुछ खेत, कुछु हरियरी, कुछ पेड़, कुछु बाँसन के कोठि कुछु मरद मेहरारून के चेहरा वा जहाँ हम जनमल रहल आ जौने के लोग हमार गाँव कहेला।