दिदिआ क मरला आजु तीनि दिन हो गइल एह तोनिए दिन में सभ कुछ सहज हो गइल नइखे लागत जइसे घर के कवनो बेकति के मउअति भइल होखे। छोट वहिन दीपितो दिदिआ के जिम्मेदारी सँभारि लेलसि भइआ का चेहरा पर दुख के कवनो चिन्ह नइखे माई आ बाबूजी त भितरे भीतर खुश बुझात बाड़न जा। बाकी ई सभ हमरा अजवे लागत वा एकइस साल के होके दिदिआ के मरि गइल एह लोग के काहे नइखे अखड़त ! चाचा के मरला के हमरा ठीक से इआद बा उन्का मरला के सोक में घर के लोगन के चेहरा तीनि चारि महीना तक उदास आ उतरल रहे। आजुओ जब कबो चाचा के बात चलेला, त, बाबूजी आह भरि देलन चाचा उन्हुकर दाहिना हाथ रहन ऊ जिनगी भर कुँआर रहलन आ हमरा परिवार के सुखो सम्पन्न बनावे खातिर खेत में काम करत-करत चलि गइलन एही से दिदिआ के साथे उन्हुकर कवनो पटतर नइखे। दिदिआ कबो बाबूजी के दहिना हाथ ना बनि सकली, बाकी एह से का भइल ? आखिर दिदिओ त एही परिवार के एगो वेकति रही। खून के रिस्ता से हमनी का एक दोसरा से जुटल रहलीं हाँ जा आपन एकइस साल तक के उमिर दिदिआ एही घर में पूरा कइले रहली हा केहू के आवाज पर हाजिर हो जइहें हाली हाली घर के सभ काम सँपरा दोहें आ अपना जाने भर केकरो के कबो अनराज न होखे दीहें। ई सभ का दिदिआ के कम खूबी रहे? साँचो के दिदिआ एह परिवार के जान परान रहली हा एह परिवार खातिर ऊ का ना करत रहली ? कतना दुख, अपमान आ अतयाचार सहिहैं, बाकी कबो मुँह से बकार न निकलिहें अइसन दिदिआ के अभाव के झुठावल, सचहुँ दिदिआ के साधे अनेआय कइल बा।
तिरिआ जनम जनि दीहऽ विधाता
दिदिआ के बचपन हमरा इआद नइखे काहे कि ऊ हमरा से बड़ रहली हा बाकी दीपिती के बचपन हमरा इआद वा बचपने काहे दीपिती के जनम दिन के इआद आजुओ हमरा के कैंपा देला ओने दीपिती के जनम भइल रहे आ एने सैंउसे घर में मड अति अइसन उदासी उतरि आइल रहे भइआ आ बाबूजी आँगन में मुँह लटकवले सोच में डूबल रहन जा ओह घरी चचो जिअते रहन। साँझ का खेत से लवटला प दीपिती के जनमला के खबर उन्हुका मिलल हम सोचत रहीं, ऊ खबर सुनि के खुश होइहें हम उन्हुका के जीवट के मरद समुझत रही। ऊ हर मोका प खुश रहत रहन बाकी ई का ? दीपिती के जनमला के खबर सुनते भितरे ऊ हाय कइके बइठ गइले । उन्हुका मुँह से निकलल ई बात हमरा साफ सुनाइल 'दस हजार के घाटा' आ हमरा लागल कि दिदिओ के जनमला प उहे सब हालत गुजरल होई। अपना जनमला से लेके पाँच सात साल तक दिदिआ कइसे पोसाइलि ईहो हमरा मालूम नइखे बाकी दीपिती के पोसाइल देखि के ओकरो अंदाज लगा लेले बानीं। एकदम लावारिस अइसन फेंकल रहत रहे दीपिती केहू ओकरा के गोदी में ले के चूमत चाटत ना रहे के घंटन रोअत चलो, बाकी ओकरा खातिर केहू के ममता ना जागी माइओ ओकरा खातिर कवनो चिन्ता न करत रही सरदी, बोखार, खाँसी भइला प ओकरा के कवनो दवाई न करावल जाई ऊ अपना भाग के बल प जिअत रहे, जबकि ओकरा से दू साल छोट विनोद के जनमला के खुशी आ उनुका लालन पालन में बरतल जा रहल सावधानी देखते बनत रहे। हर समे केहू ना केहू विनोद के गोदी में टेंगले रही। मामुलिओ सरदी भइला प डाक्टर के पास भाग-दउर शुरू हो जाई। बाकी बेचारी दोपिती बोखार में जरत, खाँसी में खोखत आ बासी आउर जूठ भात खात कवनो तरे जिअत रहे। विनोद आ दीपिती के बीच के फरक हमरा बहुत सालत रहे आ हमरा लागत रहे कि दिदिओ के बचपन एही तरे बीतल होई।
जब दिदिआ दस साल के रही, तब हम आठ साल के रहीं ओही घरी से दिदिआ के हम ठीक से जानत बानी, काहे कि हम दिदिए के साथ खेलत आ रहत रहीं बाकी ओह घरी दिदिआ बहुत समझदार न रही। ऊ अपना आ हमरा में कवनो बहुत बड़ फरक ना समुझत रही। बाबूजी जब कबो बाजार से मिठाई लेके अइहें आ हमरा के बेसी दे दीहें त दिदिआ तुनुकि जइहें। ऊ रोवे पोटे लगिहें ! तब ओही घरी माई दिदिआ प खिसिआत निकलिहें आ हमरा आ दिदिआ के बीच के फरक के हिगरावत छिनिगावत कहिहें तें बेटी हइसि ई बेटा ह ई भीखो माँग के एही घर में ले आई, बाकी तोरा त पराया घरे जाये के बा। तोर हाथ बाँहि केहू पकड़ ली त एह घर के इज्जत चलि जाई बाकी ई त दोसरा के हाथ बाँहि पकड़ी! 'आ अंत में माई जवना बात के जोर देके कहिहें ऊ ई कि तें त दस हजार लेबे आ एकरा दस हजार मिली।
ओह घरी माई के बात के अरथ हमरा न बुझात रहे। साइत दिदिओ शुरू-शुरू में माई के बात न समुझत रही, बाकी जलदिए ऊ सभ कुछ समुझि गइली। बारह-तेरह लाँघत लाँघत त दिदिआ हमरा से अपना के एकदमे अलगा क लेली । फेरू ऊ भुलाइओ के हमार बरोबरी ना करसु हमरा खातिर महँगा कपड़ा सिआवल जाय आ उनुका खातिर सहता कपड़ा के सलवार-फराक सिआवल जाय।
हमरा खातिर फरके तरकारी बने आ ऊ अँचारो के साथे खा लेसु कबो- कबो त मिरचाई में निमक भरि के आ करुआ तेल डालि के आगि प पका लेसु अउर ओही साधे पानी डालल भात खा लेसु ।
दिदिआ के चउदहवाँ पूरत पूरत घर के सभ भार माई उनुका ऊपर थोप दिल्ली। भोरे उठि के आँगन आ घर बहारे के काम! फेरु साँझ के जूठ बरतन माँजे के काम! एकरा बाद रसोई बना के सभ परिवार के खिआवे-पिआवे के काम!
आजु हम दिदिआ के बारे में सोचत बानीं त हमरा ई बात समझ में नइखे आवत कि अपना कोख से दिदिआ के जनमा के माई दिदिआ खातिर निठुर काहे हो गइल रही। हाड़ कंपावेवाला जड़कालो में माई दिदिआ खातिर सुइटर भी चादर ना खरीदत रही। कसहूँ एगो सलवार-फराक पहिरि के दाँत कटकटावत दिदिआ सैंउसे जड़काल बिता देत रही गरमिओ के दिन में ऊ कम दुख ना सहत रही। हमनी के सभ आदिमी खातिर मुसेहरी के इंतजाम हो जात रहे, बाकी उनुका असहीं सूते के पड़त रहे। हमरा इआद बा, राति भर दिदिआ करवट बदलत; मच्छड़न के कटला से देहि ककुलावत सँउसे राति कवनो तरह गुजारत रही। बरसात में त उनुकर हालत अउर रद्दी हो जात रहे। उनुकर कपार आ सलवार- फराक बराबर भिजले रहे। आँगन में एने से ओने दउरि दउरि के उनुका सभ काम सँपरावे के पड़त रहे । ऊ बरोबरे सरदी आ बोखार कि चपेट में आ जात रही। बाकी तो उनुका देहि के फुरसत ना मिले बेमारिओ में माई उनुकर जान न छोड़त रही। हमरा नीके तरे इआद बा, हम दिदिआ के खाटी प सूति के आराम करत कवो न देखले रहीं।
माई, बाबूजी आ भइओ रोज-रोज दिदिआ के बढ़त उमिरि देखि के छाती पीटे लागत रहन जा'बाप रे बाप! दस हजार कहाँ से आई... अपना जाति- विरादरी में एह से कम प लड़का ना मिली... दादा, ई बेटी हमनी के रसातल में भेजे खातिर आइल बाड़ी स' फेरू माई दिदिआ के सुना सुना के हजारन बार कहमु-'दस हजार लेबे... दस हजार लेवहीं खातिर आइल बाड़िसि तोरा के सउरिए में निमक चटा के मारि देल चाहत रहे... अब हमनी के कंगाले बना के ते एहिजा से जडवे।'
आ दिदिआ सभ कुछ चुपचाप सुनत रहिहें। आजु हम सोचत बानी त हमरा लागत बा कि माई दिदिआ खातिर एही से निदई बनि गइल रही कि दिदिआ के सादी में जबन दस हजार खरच होखेवाला रहे, ओकरा में से कुछुओ त ओकरा से वसूल कइ लिआउ ।
परसवें दिदिआ मरली आ काल्हुए दीपिती उनुकर बक्सा हथिआ लेलसि । उनुकर बक्सा बहुत छोट आ पुरान रहे। माई के बिआह में मामा इहाँ से ऊ बक्सा मिलल रहे, अइसन माई बतावत रही। ढेर दिन ओह बक्सा के माई अपना भोरी रखले रही. बाकी जब ऊ बहुत पुरान आ टूटे टूटे हो गइल, तब माई दिदिआ के दे देली। एक वे आपन कलम खोजत खोजत हम दिदिआ के बक्सा खोलली कि कहीं एही में त नइखे धरा गईल बाकी ओह में हमार कलम ना मिलल हम देखली, दिदिआ के बक्सा में सूई डारा, सिवराति के मेला से खरीदल रीवन, माथा के वार में खांसे वाला किलिप आ बाबुजी के फाटल धोतिन के फारि के बनावल दूगो चोली। साइत दिदिआ के ईहे संपति रहे।
अइसे त दिदिआ के सतरहवाँ चढ़ते चढ़ते उनुका खातिर वर खोजाये लागल रहे, बाकी जब ओनइस लागतो लागत कवनो लड़का न छेकाइल, त बाबूजी आ. भइया परेसान हो गइलें तब ऊ दुनो बाप-बेटा एके साथे निकले लगलन जा ऊ लोग नोकरिहा लइकन के पासे ना जा सकत रहन जा, काहे कि ओहनी के ओर से ग्रेजुएट ना त कम से कम मैट्रिक पास लड़की के खोजाहट रहे, बाकी हमार दिदिआ त खाली चिट्ठी-पतरी लिखे आ बाँचे भर जानत रही। एही से भइआ आ बाबूजी साधारने लइकन के खोज में रहत रहन जा
पता लगावत लगावत बाबूजी आ भइआ एक जगे गइलें लड़का तीनि भाई रहे। भाइओ में लइकवा सभसे बड़ रहे आ आई०ए० में पढ़त रहे। ओकर बाबूजी गाँव पखेती करत रहन ओकरा दस बिगहा धरती रहे । ऊ गरजि के बोलल- "एगारह हजार मिलत बा, पनरह हजार के माँग वा चेट में तरी होखे त बात करों, ना त कवनो दोसर दुआर देखीं हम गरजू नइखीं। हमरा दुआर पर रोज दू जाना आवत बाड़े।'
बाबूजी आ भइआ ओहिजा से मन मारि के चलि अइलन। फेरू दोसरा ठहर गइले । ओहिजा लइका अपना मुसमात मतारी के साथ अकेले रहत रहे। ऊ मैट्रिक में पढ़त रहे। केवारी के फेंफरा से ओकर मतारी बोललि-"एह एक लड़का प पनरह बिगहा खेत वा ना बिसवास होखे त खतिआन लेके देखि लीं। चउदह हज़ार से कम तिलक ना लेबि ।"
फेरू तिसरका ठहर ऊ लोग गइले ओहिजा लइका दोआह रहे ओकर पहिलकी मेहरारू तीन गो लइकन के छोड़ि के मरि गइल रहे। ओकरा सात विगहा खेत रहे । ऊ खुद मालिक रहे। बाबूजी से कहलस कि हम चार हजार में कइ लेब बाकी ओकर उमिरि बाबूजी के उमिरि के बरोबर रहे तवनो प बाबूजी राजी हो गइलन भइओ तइआर रहन बाकी ओह लोग के लागल कि गाँव हँसे आ थूके लागी, एही डरे ऊ लोग ओहिजो से लवटि अइले ।
अकसर ऊ लोग जब लवटि के आवसु त आँगन में मुँह लटका के घंटन बइठल रहसु आ एक-एक बात माई से कहसु रसोई में बइठल दिदिओ सभ कुछ सुनसु। हम गौर करत रहीं, बाबूजी आ भइआ के बात सुनि के दिदिआ के चेहरा उदास आ बेबस हो जात रहे। हम ना चाहत रहीं कि दिदिआ के सोझा ई सभ बात होखो, बाकी बाबूजी आ भइआ त उनुका के सुनाइए-सुना के कवनो बात बतिआवसु जा। बाबूजी आ भइआ के बात अउर हरानी परसानी सुनिके हमार माई दिदिआ के गरिआवे लागे 'मरि जाइल चाहत रहे एह कुलच्छनी का... एकर भतार एह दुनिया में कहीं नइखे... बाप-भाई एकरे चलते गाँवे गाँवे छिछिआइल चलत बाड़े स... एकरा जहर खा जाए के चाहीं... जी के का करी ई हरामजादी ...हे भगवान एकरा के उठा ल... तीनू कुल तरि जाई।'
आ माई खाली गरिआइए के दिदिआ के ना छोड़ि दोहें, बलुक उनुका के जादा दुख तकलीफ देवे लगिहें दिन भर उनुका के लउँड़ी दाई अस खटइहें। छोटो गलती हो गइला प एक हाथे झोंटा धड़के चटकनन पीटि दीहें बाबूजी आ भइआ से रोज उनुकर सिकाइत करिहें। अब हमरा एकदम साफ बुझाता कि ओह घरी माई दिदिआ के दुख तकलीफ देके मारपीट आ अपमान कइके उनुका के फाँसी लगा जाय खातिर चाहे जहर खाके मरि जाये खातिर सतावत रही। दिदिआ अचानक कइसे मरि गइली, ई बात गाँव-घर में केहू नइखे जानत। बाबूजी आ भइआ त सेंउसे गाँव में हाला मचा देले बाड़न जा कि राति में ओकर पेट में एकाएक जोर से सूल उठल आ भोर होत होत ऊ मरि गइलि साइत दीपिती आ विनोदो ईहे जानत बाड़न स, बाकी असल बात हम जानत बानी। दिदिआ माहुर खा के मरल बाड़ी।
असल में बात ई भइल रहे कि बहुत दउरला-धुपला प दिदिआ के सादी एक जगे तय हो गइल रहे लइका मैट्रिक पास रहे आ टिचर्स ट्रेनिंग करत रहे। ओइसे त लड़का पाँच भाइ रहे बाकी धरतिओ बीस बिगहा रहस सात हजार नगद में लइका के बाप राजी हो गइल रहे लइका के भउजाई आके दिदिआ के देखि गइल रही। दिदिआ उनुका पसंद आ गइली। ऊ दिदिआ के सोना के अँगूठी आ साड़ी दे के चल गइली ओह दिन दिदिआ के खुशी के कवनो ठेकाना न रहे हम जिनिगी में पहिलका वैरि दिदिआ के खुश होखत देखले रहीं। माई, भइआ आ. बाबूजी खुश रहन बाकी ई खुशी खाली एके दिन ले रहल दोसर के दिन से बाबूजी आ भइया शादी के हिसाब बइठावे लगलन जा सात हजार के अलावे एह महँगी में बरियाति के खिआवे-पिआवे आ लड़की के दान-दहेज में तीनि हजार से कम के हिसाब ना बइठत रहे। एकर मतलब कि सात आ तीन दस हजार के गोड़ रहे। अब एह पइसा के इंतजाम जलदिए करे के रहे। |
एहिजा ई बात हम साफ कइ दिहल चाहत बानी कि हमरा परिवार के नाँव प कुल्हि नौ बिगहा धरती वा आठ बिगहा त ऊसर टाँड़ है, जवना में खाली धाने के फसल होखेला, बाकी पुलिआ के भीरी एक बिगहा मटिगर ह। बाबूजी के कहनाम रहे कि पुलिएवाला जमीन बेंचि देल जाय। दस हजार में बिक जाई। बाकी भइया के कहनाम रहे कि पुलिआवाला जमीन ना बिकाई ड़िए में से पाँच विगहा रेहन क देल जाय एमें बाबूजी के कहनाम रहे कि आखिर रेहन के छोड़ाई ? कवनी बाहरी आमदनी त वा ना एही से ऊ पुलिआवाला जमीन बेंचे प उतारू हो गइले हमरा बाबूजी के बात नीक लागल बाकी भइआ काहे के मानुस ऊ बीच में अड़ंगा डाल दिहले ।
आ माई! ऊ त पहिलहूँ से हजार गुना अधिका दिदिआ के दुख तकलीफ देवे लागलि हमरा नीकेतरे इयाद वा ओह समे पुलिआ आ टाँड़वाला खेत के लेके खूब तोर मोर होखे आ एने माई खोसी दिदिआ के खूब गरिआवे। जहाँ विआह के नाँव प दिदिआ के चेहरा से खुशी टपकत रहे उहाँ उनुकर मुखड़ा पीअर उदास आ लटकल रहत रहे। रोज राति में उनुका रोअला आ सुबुकला के आवाज सुनाई पड़त रहे।
एक दिन बाबूजी पुलिआवाला खेत के बातो एक आदिमी से पाका कड़ देले। बाकी ओही दिन से भइया खटवास ले लेले खाइल पिअल छोड़ि के उपास रहे लगलन आ माई से कहि देलन कि पुलिआवाला जमीन विकाते घर छोड़ि देवि भइया का एह बात से उसे घर में तहलका मचि गइल। ओ घरी दिदिआ के हालत अजबे लागत रहे एकदम डेराइल, सहमल आ काँपत केहू से आँखि मिलावे के हिम्मत उनुका अन्दर ना रहि गइल रहे । ऊ सभ बात समुझत रही। जानत रही कि ई हमरे कारन होता ।
आ एकरा ठीक तीनिये दिन बाद माई के लाख झकझोरला प दिदिआ ना जगली के मरि गइल रही बिछवना पर उनुकर लाश पड़ल रहे। उनुकर देहि आ आँखि के रंग कुछ झाँवर हो गइल रहे। हमरा से ढेर देरी तक उनुका के देखल ना गइल। हम ओहिजा से हटि गइलीं आ दउरि के अँगना के दिअरखा के पास गइली, जहवाँ एलड्रीन के सीसी धरात रहे। ई देख के हमरा कठेया मारि देलसि कि एल्ड्रीन के सौसी खाली हो गइल रहे हम चिचिआते बोलली- 'दिदिआ एल्ड्रीन पी गइल बाड़ी!'
बाकी बाबूजी आ भइआ हमार मुँह बन क देले जा भइआ कहले कि एल्ड्रीन त काल्हुए हम खेत में छिरिकि आइल रही। बाबुओजी भइया के बात में हुँकारी भरले। हम कुछ ना बोललीं बाकी हमीं जानत रहीं, भइया त काल्हू दिन भर खंड़ी में सूतल रहलन। खैर... जवन भइल, तवन भइल दिदिआ त अब लवटि के अइहें ना बाकी अब हमरो चुप ना रहे के चाहीं, काहे कि दिदिआ के रास्ता से जाय खातिर दीपिती अवहीं बड़ले बिआ समे रहते हमरा दीपिती के बचा लेवे के होई।