आलोक तिवारी की लेखनी छंद और छंदमुक्त कविता में एक समान अधिकार राखेला । उहां के एगो हिन्दी कविता के भोजपुरी अनुवाद |
मूल : आलोक तिवारी
अनुवाद: कनक किशोर
बाबा
बाबा जंगल जात बानी लकड़ी लेवे दुपहरिया ले ना लौटब तs हमरा के खोजे अइह
बाबा देख के चलिह हमार टूटल चूड़ी तोहार गोड़ में ना गड़ जाये।
बाबा देखिह कवनो पेड़ के उतारल छाल आ समझ लिह जोर जबरदस्ती केहू असही कपड़न के उतार के तार-तार कइले होई।
बाबा देखिह नांगल कुचलल घास आ समझ लिह कइसे रौंद देले होई देह के गोड़वन तरे।
बाबा धेयान से सुनिह दूर पहाड़ से टकरा के लीटत होई हमार थाकल हारल आवाज ओह बेसहारा आवाज के सहारा दिह दूर तक ले जइह ओकरा के आ ओह में मिला दिह हजारन आवाज के कि ऊ चीख बन जाये ओह भेड़ियन के खिलाफ
बाबा तूं जाने लऽ जंगल के हर चीज बड़ा सस्ता होला पतवन के मौसम में पतवन तुड़त तुड़त लड़कियनो टूट जाली सं बाकी तबो ना कवनो आवाज होला ना कवनो मोल होला।
बाबा, जंगल ढेरका बड़ नू होला मनई ढ़ेर छोट ओकरो से छोट होला ओकर सोच बदलाव मनई में ना ओकर सोच में होखे के चाही।