रेखा ड्रोलिया के स्त्री-विमर्श के एगो हिन्दी कविता के भोजपुरी अनुवाद |
मूल : रेखा ड्रोलिया
अनुवाद: कनक किशोर
छुअन के चुभन
ई छुअलो अलग अलग होला का इस्कूल में रही तब हमरा का पता कबो लइकाई में माईयो समझवले रहती छूए छूए के फरक बतलवले रहती
ऊ चपरासी के गोदी में रोज बइठल ऊ चौकीदार के साइकिल पर घुमावल कैंटीन वाला पीठ पर फेर देत रहे हाथ हमारा का पता ई सब कवनो अउरे बात रहे
बगल के बाबा एतना गला काहे लगावत रहन बात बात पर हमार गलवन के सहलावत रहन ना समझ पड़नी तब उमिर छोट रहे सहलावत रहे सब कोई बुचिया समझ के
कबो छाती पर हाथ तो कबो जाँघन पर ऊ सब त आपन बाड़न कइसे संदेह करी ओहनी पर समझो कहाँ रहे के कइसे छुअत बा अब इयाद करिना तऽ घाव जइसन चुभत बा
सिमिटल, सहमल रहत रही, दहसत सहत रही घुटन के टीस लुका दरद के पट्टियन बदलत रही साँप जह डसत रहे ऊ सरसरात अँगुलियन काँटी जस चुभत रहे ऊ जाँघन प हथेलियन
ॐ सटायल दुलार रहे कि शिकार देह ए के जइसे सबके रहे अधिकार समझ आइल त हिम्मत ना जुटा पवनी हर घरी डरत रहनी कि बदनामी होई
सुन लऽ सब लड़की लोग अब मत डरिह हाथ लगावे केहू त खुल के कहिह माई लोगिन तूहूं सुन लऽ आपन जिम्मेदारी छूए के सब फरक समझइह बेटियन के
बहुत हो चुकल अब अउर ना कबो ना आपन देह के हम खुद मालिक हई तू कबो ना आजतक ले तू तय करत रहल, अब हमार बारी कब कहवाँ कइसे छूए के बा ई तय करी नारी