चिरश्री इंद्रसिंह समकालीन उड़िया साहित्य में एगो प्रमुख नाम हा उहाँ के कुछ उड़िया कवितन के भोजपुरी अनुवाद प्रस्तुत बा। चयनित कविता के अनुवाद के आशय ओह कविता के प्रति धेयान खींच के मेहरारूअन के मन के दुख आ नारी के सामाजिक चरित सामने ले आवल बा। अनुवाद के एह प्रयास में अनुवाद के भावानुवाद के करीब रखे के प्रयास कइल गइल बा । भोजपुरी पाठकन के रूचिकर लागे इहे अभीष्ट बा।
मूल चिरवी इंद्रसिंह अनुवादक: कनक किशोर
कबो कबो साड़ियो डाइन बन जाले रात के तीसरा पहर में।
गुफा में कुइयां कुइयां के जगत पर करिया पत्थर पत्थर पर उल्लू उल्लू के माथ पर सेनुर ।
हवा में लहरात बलखात उड़त जात बिया साड़ी।
कुइयां से सटल कदंब के डाढ़ी में उलझल, फड़फड़ात एकाएक खुलके सिमिट जाला फेर ओहिजा से साँप जइसन सरसरात उतरे लागेले कुइयां में नीचे अउर नीचे उतर के पानी में डूबत उतरात फन उठावत, डूबत
ओकर लपलपात जीभ में सउंसे जंगल के भगजोगनी ।
साड़ी के फुफकार से कांप उठल धरती।
एने एगो महकत देह पड़ल बिया बिछवना पर बेहोस ।
खिड़की के परदन रात खा के तितलियन दीवार पर के बिछउतिया तांबा के लोटा में धइल पानी समन पर झरत बा बुन-बुन मासूम चाँदनी चहुंओर घनघोर सन्नाटा |
गहिर नीन में पड़ल रहे ऊ एह बात से बिलकुल अनजान कि ओकरा देह पर साड़ी नइखे।
साड़ी - 2
बिना जान छांह में सूख रहल बा ओकर साड़ी चुपचाप, बिलकुल अकेले।
रंगीन प्लास्टिक के तार पर छुटकी के चुमकी जड़ल फराक झिलमिलात वा धूप में।
छत पर चलत चुलबुलात हवा बिखेरता मंझली बहूरिया के लहरात केश के।
उजर नीला आसमान साड़ी के अँचरा में चुम्मा के दाग ढूंढता दुलरुआ बेटा भूला जाता भूगोल खून, पसीना अउर अँसुअन के
एने बंद अंधेरा में सूखता बुढ़िया के साड़ी एगो कोना में सिमटल अकेले।
उमिर के दरद बढ़त जात बा हडियो में रोज-रोजा
कवनो तरह रोज बुढ़िया सूखा देले अधनिचोड़ल साड़ी के आपन दुबर पातर हाथ से अउर काल्हू के अधसूखल साड़ी के धीरे से उतार के पहिर लेले बुझत जा रहल तरेगन के बोझ से झुकत जा रहल आपन लपलपात साँझ अस देह में।
साड़ी 3
मिटावे के कला में माहिर मरद मिटा देला साड़ी के सभ निसानियन के, सभ इयादन के, चाहे कही होखे।
सामने से उठाके पिछा के अन्हरिया में स्टेज से ग्रीन रूम में
विजय यात्रा से पराजय के गढ़हा में फेक देला मजबूत मरदा
तबहू साड़ी से भेंट हो जाला बेर-बेर जंगल में, जनपद में, समय के गली कूचन में धूर आ माटियो में
जेतना चरचा ओकरा मेटावे के होला कबो ओतना बनावे के ना होला।
एक सौ पन्ना के दंतकथा संकलन में से कवनो एगो के उठा लेब त पता ना चले कब उड़के निकल जाले जरी लागल साड़ी हलुक हवा के कुछ शब्दन में।
अहा रउवो देखले होखब महानदी में आवत बाढ़ लेखा दुविधा आ दुःसाहस के घरी, ओकरा में कबो कभार डूबत टूटत फुटल झोपड़ी से चिपकल रहेले मइल कुचइल कवनो दयनीय साड़ी ।
जहवाँ होखे पोथी, पुराण, सवाल, चुनौती ओहिजे लागल रहला मरदन के मजमा खाली मरदन के जलसा
साड़ी के तब बड़ा जतन से
टांग देल जाला करिया जादू के दीवार पर मरद जब उलझल रहेला न्याय, कानून अध्यात्म, ब्रह्मचर्य में तर्क वितर्क में।
हमनी के भूल जाइला साड़ी हमेशा रहेले, भले ना होखे हमनी के साझा इतिहास में।
चिरई जनम
हमरा के चिरई जनम से मत उबार चक्रधर उबारे के बा तऽ उबार ल5 एह पिंजरा से।
अउर कुछ भले नइखे दूगो पांख आ अकास तऽ बा नीला झील के पुकार अउर कंठ में गीत त बा।
चाउर के दाना के दाने समझनी महाबाहू! हमार चिरई जनम अबकी बेर माफ करी, अउर हमरा के अकास वरदान में दी।
चिरई जनम के नशा उतरत नइखे पिंजरा में जब फांक से दिखाई पड़ता चाँदनी रात, भोरे के अकास,
तब गले में उलझ जाता फरमाइशी गीत, चोंच से फिसल जाता सोना के थरिया के भात, समझ आ जाता चिरई जनम के माने।
जानत बानी
पिजरा के हम खुदे अपनवले बानी,
इहो जानत बानी,
पिंजरा के खिलाफ ई हमार बिना शर्त लड़ाई ह
अगर तूड़ ना पड़नी लोहा के पट्टियन के तs हे राधा-माधव! हमरा के फेर से चिरई जनमे दिह अउर बस अतने कृपा करब, जबले पिजरा के तूड़ ना दी बेर-बेर असही जनम लेत रहीं, अउर बस एक बेर चिरई बनके पूरा जिनिगी भोगी अकास के।