कइसे होइबऽ भव पार हो, मन अबहूँ से चेत ।
बीत ऽताटे साठ नाहीं सठता के छोड़ल ऽ, प्रभु का चरनियाँ से नेहिया ना जोड़लऽ । लाद लेलऽ माथा पर भार हो, मन अबहूँ से चेत ।। कइले...।।
साधु के रूप तू तऽ ऊपर से बनवलऽ, सेवा के भाव नाहीं अबले अपनवलऽ । बिना सेवा-भाव के तू भइलऽ लबार हो, मन अबहूँ से चेत ।। कइले...।।
जालऽ सतसंग में ई बात बाटे सही, बाकी बात संत के तू लेलऽ कुछ गही । तबहीं बुझाई बात सार हो, मन अबहूँ से चेतऽ ।। कइले...।1
'भूषण' भगवान् के सुभाव करऽ याद, दीन शरणागत के मिटावेलन विषाद । कर देलन भव से उबार हो, मन अबहूँ से चेतऽ ।। कइले...।।