बाबू जी (स्व० फुलेना सिंह) का कीर्तन भजन के छाप हमरा बालक-मन पर खूब पड़ल । लड़िकाइएँ से कविता, गीत-गवनई आ कथा-कहानी में मन रमे लागल । विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम होखे त, खुलके भाग लीं। विद्यार्थिये जीवन से कुछ-कुछ लिखके दोस्तन के सुनाई । आगे चलके केतना कविता लिखाइल, बाकिर संग्रह ना हो सकल । कोरोना काल में बइठल-बइठल कुछ कविता लिखनीं । एक दिन भोजपुरी के सजग सेवक भाई जौहर शफियाबादी से बात भइल । उहाँका कहनीं कि हिन्दी के भण्डार भरल बा। भोजपुरी भाषा में रचना होखो । सलाह नीक लागल। लिखे के काम जारी रहल । देखते-देखते सैकड़न भजन लिखा गइल। एक दिन जौहर जी डायरी देखलन । कहलन कि अविलम्ब छपवावे के काम होखो ।
छपवावे का पहिले एगो अरचन खड़ा हो गइल। कुछ लोग कहे लागल कि टवर्गी 'ण' आ तालव्य 'श' के प्रयोग भोजपुरी में ना होखे के चाहीं । भोजपुरी के ठेठ रूप आवे के चाहीं । तत्सम शब्दन का बदला में तद्भव शब्दन के प्रयोग होखे के चाहीं । बाकिर एह संदर्भ में भोजपुरी के मर्मज्ञ महामाया प्रसाद विनोद जी से बात भइल। उहाँका कहनी कि जदि तालव्य 'श' के बदले दंत्य 'स' के प्रयोग होई, त कहीं-कहीं अर्थ के अनर्थ हो जाई । जइसे 'शंकर' शब्द से तालव्य 'श' हटाके दंत्य 'स' से संकर लिखाई त अर्थ के अनर्थ हो जाई 'शंकर' भगवान शिव के सूचक ह, त 'संकर' गाली सूचक शब्द ह। एही तरे के बात डॉ. उषा वर्मा जी कहनों । उहाँका कहनीं कि अब हिन्दियो में भोजपुरी का शब्दन के प्रयोग हो रहल बा। 'पकड़ना' शब्द का बदला में 'धरना' शब्द हिन्दी में चल रहल बा । भोजपुरियो आउर भाषा का शब्दन के जइसे के तइसे स्वीकार कर लेले बिया। जैसे टिकेट, रेल, स्कूल आ अनेरिया इत्यादि । अब कहीं भोजपुरिया समाज टिकस, विद्यालय आ अइसन अंग्रेजी शब्दन के प्रयोग के तूरके नइखे करत । अब खेत में काम करेवाला मजदूर मोबाइल चलावऽता, देश, विदेश के खबर सुनता आ बाहर का भाषा से आइल शब्दन के प्रयोग करत बा। एह से जवन शब्द प्रचलन में बा ओकरा के तुड़ल फारल ठीक नइखे । सत्येन्द्र नाथ सिंह दुरदर्शी जो कहनीं कि भोजपुरी के प्रचार-प्रसार खातिर एह भाषा में तत्सम आ विदेशज शब्दन के प्रयोग जरूरी बा। ठेठ भोजपुरी के शब्द खोजल जाय त बहुत बात ना कहा पाई। दोसर भाषा के लोग जब भोजपुरी पढ़ी तब तूर-तार के लिखल शब्दन के अर्थ ना समझ पाई। क्रिया पद भोजपुरी के रहे, बाकिर आउर शब्दन के सहज रूप में लिखल जाय। हैं, भोजपुरी के जवन शब्द सहज रूप में आवडता ओकरा के ओहीं लेखा लिखल जाय । जइसे 'के लिए' का बदला में 'खातिर', 'तो भी' का बदला में 'तबहूँ' चाहे 'तइयों', 'भी' का बदला में 'ओ' परसर्ग, 'ही' का बदला में 'ए' परसर्ग के प्रयोग होखे-
जैसे- "राम को भी जाना चाहिए- रामो का जाये के चाहीं, शिक्षक को ही कहना चाहिए। शिक्षके का कहे के चाहीं ।।"
एह सब लोग के सलाह नीक लागल। एह से हम तत्सम शब्दन के तूड़-ताड़ के नइखों लिखले । हम तालव्य 'श' आ टवर्गों 'ण' के प्रयोग जइसे हिन्दी में होला ओइसही भोजपुरियो में कइले बानीं ।
अपना 'भूषण-भजनवाली' में हम भगवान के नाम, रुप, लीला आ धाम का साथे अपना असहायता, असमर्थता आ बेबसी के चर्चा कइले बानीं । अपना आराध्य देव लोग से ई प्रार्थना कइले बानी कि हमार पीड़ा परेशानी दूर करके हमरा के युगल सरकार श्री सीतारामजी के चरण कमल में अनन्य अनुराग प्रदान करीं। एह रचना में शरणागति के प्रधानता बा । नारद पंचरात्र सूत्र में आइल शरणागति के छव गो प्रकारन के आधार पर विनय के पद लिखाइल बाड़े स। हम एह पदन के रचना भजन भाव में कइले बानीं । एकनी में छन्द-शास्त्र के पूरा-पूरा पालन नइखे भइल, जहाँ हमरा भावना के अभिव्यक्ति में छन्द के नियम आड़े आइल बा, उहाँ हम अपना भाव के रक्षा खातिर नियम के तूड़के चलल बानीं । पुस्तक रउरा सभन के हाथ में बा। भजन भाव से पढ़ब त रउरा सभन का भक्ति के रस मिली। गीत का कसउटी पर कसल जाई, त रंग में भंग हो जाई । एकरा बादो हम अपने सभन के सलाह सुझाव के हृदय से स्वीकार करब । जहाँ जरूरत होई, अगिला प्रकाशन में सुधार होई जय जय श्री सीताराम !!
-विद्या भूषण सिंह 'कवि जी'